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जैन न्याय में सप्तभंगो
१५५ ज्ञान के लिए अस्ति-आदि भंगों का प्रयुक्त होना तो आवश्यक ही है। कहा भी गया है कि "सामान्य" (संयुक्त) रूप "स्यात्" शब्द से अनेकान्त रूप अर्थ का बोध होने पर भी विशेष रूप से अर्थ का बोध कराने के लिए वाक्य में अस्तित्व आदि अन्य शब्दों का प्रयोग करना आवश्यक है।" उदाहरणार्थ “रक्तवर्णस्याश्वः” लाल रंग का घोड़ा। इस उदाहरण में अश्वत्व इस सामान्य धर्म से घोड़े का बोध होने पर भी रक्तत्व इस विशेष धर्मयुक्त अश्व का बोध कराने के लिए कथन में "रक्तवर्ण' इस शब्द का प्रयुक्त होना आवश्यक है। इसी प्रकार शब्द के द्योतकत्व पक्ष में सत्त्वअसत्त्व आदि सबका बोध होता है। पर किसी विशेषरूप सत्त्व या असत्त्व का बोध कराने के लिए अस्ति आदि का प्रयोग करना आवश्यक है। इसके साथ ही, यदि "स्यात्" शब्द का प्रयोग न किया जाय तो कथन ही सर्वथा एकान्तिक प्रतीत होगा। वस्तुतः "अस्ति" और "नास्ति" पद, उद्देश्य और विधेय का सूचन करते हैं और "स्यात्" पद भङ्ग में पहले आकर केवल वस्तुस्थिति यानी वस्तु-स्वरूपता को स्पष्ट करता है। अतः "स्यात्" पद एक प्रतीक मात्र है और अपेक्षित कथन अस्ति और नास्ति पद के द्वारा हो होता है।
अब यदि यह कहा जाय कि प्रथम भङ्ग में जिस वस्तु का विधान है दूसरे भङ्ग में उसी वस्तु का निषेध है; क्योंकि "स्यादस्ति एव घटः' और "स्यान्नास्ति एव घटः" का अर्थ ही कुछ इस प्रकार का है; तो इस प्रकार की व्याख्या भी भ्रान्तिजनक ही है। शङ्कराचार्य आदि दार्शनिकों ने स्याद्वाद की इसी आधार पर आलोचना की थी। प्रथम भङ्ग में जिस धर्म का विधान है द्वितीय भङ्ग में उसी धर्म का निषेध नहीं है। प्रत्युत द्वितीय भंग में, प्रथम भङ्ग में कथित धर्म से भिन्न धर्मों का निषेध किया जाता है। इस संदर्भ में डॉ० सागरमल जैन का निम्नलिखित विचार द्रष्टव्य है"जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ स्याद्वाद का प्रतिपादन करने वाले किसी भी आचार्य की दृष्टि से द्वितीय भंग का कार्य प्रथम भंग में स्थापित किये गये गुण-धर्म का उसी अपेक्षा से निषेध करना नहीं है, अपितु या तो प्रथम भंग
१. "स्याच्छब्दादप्यनेकान्तसामान्यस्यावबोधने । शब्दान्तरप्रयोगोऽत्र विशेषप्रतिपत्तये ॥” इति ।।
-सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ० ३० ।'
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