________________
१७२ जैन तर्कशास्त्र के सप्तभंगी नय की आधुनिक व्याख्या भी असत्त्व का प्रसंग हो जायेगा और अवच्छेदक भेद मानने से दोनों का भेद स्पष्ट ही हैं।'' इसलिए सत्त्व तथा असत्त्व धर्मों को अलग-अलग सूचित करने वाले भंगों अस्ति और नास्ति को पृथक्-पृथक् रूप में स्वीकार करना ही चाहिए। साथ ही, अस्ति भंग का जो सत्यता मूल्य है नास्ति भंग का उससे कम नहीं है। इसलिए सप्तभंगी के मूल में अस्ति भंग के साथ ही नास्ति भंग को भी स्वीकार करना चाहिए।
एक अन्य बात यह भी है कि अस्ति भंग जिन धर्मों को सूचित करता है नास्ति भङ्ग भी उन्हीं धर्मों को सूचित नहीं करता। इसलिए उसे अस्ति भङ्ग का निषेधक नहीं कहा जा सकता और जब वह अस्ति भङ्ग का निषेधक नहीं है तब उसे भी मूल भङ्ग का स्थान प्राप्त होना ही चाहिए। इस प्रकार सप्तभङ्गी में मूल रूप से अस्ति-नास्ति दोनों भङ्ग स्वीकृत हैं। किन्तु इसके विपरीत श्रीमती आशा जैन ने अस्ति भङ्ग को ही सप्तभङ्गी का मूल भङ्ग मानकर, उसकी व्याख्या मानक तर्कशास्त्र (मॉडेल लॉजिक) के आधार पर करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने लिखा है-"मान लीजिए कि हम "स्यात्" को एक यथार्थ माडल आपरेटर (आकारिक संयन्त्र) मानते हैं तो "स्यात्" को हम 0य कहेंगे। अब मान लीजिए कि "य" का मूल्य अनिरूपाख्य है तो 0य का भी मल्य अनिरूपाख्य होगा। फिर यदि हम oय का निषेध करते हैं तो वह "य" हो जाता है और ऐसी परिस्थिति में हम उसे "स्यात् न-य" कह सकते हैं। पुनः यदि "य", "Aय" है तो वह अवश्य सत्य है। इस प्रकार स्याद्वाद के प्रथम भङ्गों को निम्नलिखित रूप में रख सकते हैं
(१) स्याद अस्ति - Aय (२) स्यान्नास्ति = य (३) स्यात् अवक्तव्य = oय
१. प्रथमे भङ्गे सत्त्वस्य प्रधानभावेन प्रतीतिः, द्वितीये पुनस्सत्त्वस्य""स्वरूपाद्य
वच्छिन्नमसत्वमित्यवच्छेदकभेदात्तयोर्भेदसिद्धः। अन्यथा स्वरूपेणेव पररूपेणापि सत्त्वप्रसङ्गात् । पररूपेणेव स्वरूपेणाप्यसत्वप्रसङ्गाच्च ।
सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ० ९-११ । २. जैन-तर्कशास्त्र और आधुनिक बहुमूल्यीय तर्कशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन,
पृ० १४७-१४८।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org