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आगम
नमो नमो निम्मलदंसणस्स
ॐ पूज्य आनंद - क्षमा ललित - सुशील सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः
सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि
आगम
आगम ४१/२
“पिण्डनिर्युक्ति” मूलं एवं वृत्तिः
आगरा आज
भाग
33
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आगम
श्री आ
आगम आगम आगम आगम आगम मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब BUSTET आगम अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
आगम
पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा
आगम
भागम
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
S
पालिताणा
DANSAR
NATA
27.~
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नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
G
osaicost
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपख्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/9825306275
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ਗਜ਼ਲ ਨੂੰ ਜਲ ਚੰਕਸ ਗਰਕ ਜਰੂਰ
ਕਲਰਸਲ
ਗ
ਗਲ
ਰਹਿ ਗਈ ਸਤ ਸੰਭਾਲ ਨੂੰ ਕਰਜ਼ ਸ ਲਹਿਰ ਨੂੰ ਸਰਕਲ
ਸਵੀਕ ਨੂੰ ਹਸ
आगम
ਸਮੇਂ ਹਰ ਇਕ ਦੇ
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[भाग-३३] श्रीपिण्डनियुक्ति: (मूलसूत्रम्-२/२)
नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
__ [आगम-४१/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं वृत्ति:
[मूल-नियुक्ति: + भाष्यं + मलयगिरिसूरि-विरचिता वृत्तिः]
[आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा.
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-33
श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट'
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सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब |
.जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक : | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी । गरुभक्ति बद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
.चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज
एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, । प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए।
.एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक
हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्यक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया : || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और । : "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
.सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का | • भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो : की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। |
.ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं। को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे | सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
. सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"...
......मुनि दीपरत्नसागर... - .. - .. - .. - .. - .. - ..
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संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक । | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि : आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही | रटण बारबार चालु हो गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण' इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : | समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना |
... मुनि दीपरत्नसागर.... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ । पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां : |४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्षों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण | : के शास्त्र वर्णन-अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है।
*मुनि दीपरत्नसागर...
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____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं | समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर
का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का : परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है।
- मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र
परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब
इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..
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आगम
(४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [-] » “नियुक्ति: [-] + भाष्यं -] + प्रक्षेपं -" . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२] मूलसूत्र-[०२।२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
gaoooooooooooooooooooooooooodaaes
श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे अन्याङ्कः ४४. श्रीमद्रबाहुस्वामिप्रणीता-सभाष्या-श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविवृता
. श्रीपिण्डनियुक्तिः॥
||-||
QQQQQQQQQQQQQ
दीप
Spopo Oppppppẽ
अनुक्रम
प्रसेधिका-शेठ देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धारभाण्डागारसंस्था विख्यातिकारका-शाह नगीनभाई घेलाभाई जहेरी अस्पैक कार्यवाहक मुंबई ४२६ झवेरीबजार । [अस्य पुनर्मुद्रणायाः सर्वेऽधिकारा एतज्ञाण्डागारकार्यवाहकाणामायत्ताः स्थापिताः
भगवडीरस्य १४४४ किमनूपस्य १९४४. इसनिस्ते. १९१८. प्रथम संस्करणम् । प्रतयः १०००
निर्वेशः सा रूप्यक: Rs. 1-8-0.
-1
.
8ppppppppppppppppppppppppppppppẽ
FOTO
पिण्डनियुक्ति सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज"
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मूलाङ्का: ६६०+३७+६
पिण्डनियुक्ति मूल-सूत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा: ७०३
पृष्ठां
पृष्ठां
०९२
मूलांक: ००१ ४३६ । ६८४
विषय: प्रस्तावना गाथा उत्पादना प्रमाण उपसंहार
मूलांक
विषय: ०१२ | ००२ | पिण्ड | २५० । । ५५८ | एषणा
| ६९७ | अंगार-धूम ३६७
पृष्ठां मूलांक
विषय: ०१५ ।
उदगम ३०२ । । ६७८ | संयोजना | ३६१ । । ७०३ | कारण
| ३५४
३६३
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: ।
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[पिण्डनियुक्ति- मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “श्री पिण्डनियुक्तिः” नामसे सन १९१८ (विक्रम संवत १९७४) में देवचन्द्र लालभाइ पुस्तकोद्धार संस्था द्वारा प्रकाशित हुई , इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | हमने जब "आगमसुत्ताणि" (सटीक) नामसे ४५ आगम-सटीकं का प्रकाशन करवाया तब हमारे संपादन कार्यमे इसी प्रत का सहारा लेकर हमने भी “पिण्डनियुक्ति-सटीक" का पुन: संपादन एवं प्रकाशन किया है | जो "आगमसुत्ताणि" (सटीक) के २६ वे भागमे मुद्रित हुआ है, और इन्टरनेट पर भी "आगमसुत्ताणि" (सटीक) ४१/२ के रुपमे है। जीसे हमारे द्वारा प्रकाशित 'डीवीडी' में भी स्थान दिया है।
हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले,४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी ,ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र-नियुक्ति-भाष्य आदि के नंबर लिख दिए , ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र , नियुक्ति, भाष्य आदि चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके |
बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का नियुक्ति/भाष्य/प्रक्षेप का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम ' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके । हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा आदि के नंबर अलग-अलग होने से हमने उसे अलग-अलग दिए है और उसके लिए ||-|| ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' आदि शब्द लिख दिया है | अनेक स्थानोमे पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट्स भी दी है |
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-३३ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है |
......मुनि दीपरत्नसागर.
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [-] » “नियुक्ति: +] + भाष्यं [-] + प्रक्षेपं - . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र II-II
श्रेष्ठि-देवचन्द्र लालभाई-जैनपुस्तकोद्धार-ग्रन्थाङ्केश्रीमद्रबाहुस्वामिप्रणीता-सभाष्या-श्रीभन्मलयगिर्याचार्यविवृता,
श्रीपिण्डनियुक्तिः।
दीप
अनक्रम
॥ॐ नमो वीतरागाय ॥ जयति जिनवर्द्धमानः परहितनिरतो विधूतकर्मरजाः । मुक्तिपथचरणपोषकनिरवद्याहारविधिदेशी ॥१॥
नत्वा गुरुपदकमल गुरूपदेशेन पिण्डनियुक्तिम् । निढणोमि समासेन स्पष्ट शिष्पावबोधाय ॥२॥ आह-नियुक्तयो न स्वतन्त्रशास्त्ररूपाः किन्तु तत्चत्सूत्रपरतन्त्राः, तथा तद्व्युत्पत्याश्रयणात् , तथाहि-सूत्रोपासा अर्थाः स्वरूपेण सम्बद्धा अपि शिष्यान् प्रति नियुज्यन्ते-निश्चितं सम्बद्धा उपदिश्य व्याख्यायन्ते यकाभिस्ता नियुक्तयः, भवताऽपि च प्रत्यक्षायि-'पिण्डनियुक्तिमहं वितृणोमि, ' तदेषा पिण्डनियुक्तिः कस्य सूत्रस्य प्रतिबद्धेति !, उच्यते, इह दशाध्ययनपरिमाणश्चूलिकायुगलभूपितो दशवै
१ उपदर्य पू०
वृत्तिकार रचिता आरंभिकगाथा:
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [-] » “नियुक्ति: [१] + भाष्यं -] + प्रक्षेपं - . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१||
दीप
श्रीपिण्ड-1 कालिको नाम श्रुतस्कन्धः, तत्र च पञ्चममध्ययन पिण्डषणानाम, दशबैकालिकस्य च नियुक्तिश्चतुर्दशपूर्वविदा भद्रबाहु स्वामिना नियुक्तिः
कृता, तत्र पिष्टैषणाभिधपञ्चमाध्ययननियुक्तिरतिप्रभूतग्रन्थत्वात्पृथक् शाखान्तरमिव व्यवस्थापिता, तस्याश्च पिण्डनियुक्तिरिति नाम कृतं, पिण्डैषणानियुक्तिः पिण्डनियुक्तिरिति मध्यमपदलोपिसमासाश्रयणाद्, अत एव चादावत्र नमस्कारोऽपि न कृतो, दशवकालिकनियुक्त्यन्तर्गतत्वेन तत्र नमस्कारेणैवात्र विघ्नोपशमसम्भवात्, शेषा तु नियुक्तिर्दशवकालिकनियुक्तिरिति स्थापिता । अस्याश्च पिण्डनियुक्तेरादाक्यिमधिकारसङ्काहगाया
पिंडे उग्गमउप्पायणेसणा [स]जोयणा पमाणं च । इंगाल धूम कारण अट्टविहा पिंडनिज्जुत्ती ॥ १॥ |
व्याख्या-पिण्ड संघाते ' पिण्डनं पिण्ड:-सङ्घातो बहूनामेकत्र समुदाय इत्यर्थः, समुदायश्व समुदायिभ्यः कथञ्चिदभिन्न इति त एवं बहवः पदार्थो एकत्र समुदिताः पिण्डशब्देनोच्यन्ते, स च पिण्डो यद्यपि नामादिभेदादनेकपकारो वक्ष्यते तथाऽगीह संयमादिरूप-I भावपिण्डोपकारको द्रव्यपिण्डो गद्दीष्यते, सोऽपि च द्रव्यपिण्डो यद्यप्याहारशम्योपधिभेदात् विप्रकारः, तथाऽप्यत्राहारशुद्धः मकान्तत्वादा-18 हाररूप एवाधिकरिष्यते, ततस्तस्मिन्नाहाररूपे पिण्डे विषयभूते प्रथमत उद्मो वक्तव्यः, तत्र उद्गमः उत्पत्चिरित्यर्थः, उद्मशब्देन च इह उद्गमगता दोषा अभिधीयन्ते, तथाविवक्षणात् , ततोऽयं वाक्यार्थ:-प्रथमत उद्गमगता आधार्मिकादयो दोषा वक्तव्याः, ततः ' उप्पा
यणत्ति उत्पादनमुत्पादना, धात्रीत्वादिभिः प्रकारः पिण्डस्य सम्पादनमिति भावः, सा वक्तव्या, किमुक्तं भवति ?-उद्गमदोषाभिधानान-4 अन्तरमुत्पादनादोषा धात्रीत्वादयो वक्तव्याः, तत 'एसण 'ति एपणमेषणा सा वक्तव्या, एषणा विधा-तयथा-गवेषणैषणा ग्रहण
अनक्रम
| "पिण्डनियुक्ति विषय-अधिकार संग्रहगाथा
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१] .→ “नियुक्ति: [१] + भाष्यं ] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१||
षणा ग्रासैषणा च, तत्र गवेषणे-अन्वेषणे एषणा-अभिलाषो गवेषणैषणा, एवं ग्रहणैषणा प्रासैपणाऽपि भावनीये, तत्र गवेषणैषणा उद्गमोत्पादनाविषयेति तद्भहणेनैव गृहीता द्रष्टव्या, ग्रासैषणा त्वभ्यवहारविषया, ततः संयोजनादिग्रहणेन सा गृहीष्यते, तस्मादिह पारि शेष्यादेषणाशब्देन ग्रहणैषणा गृहीता द्रष्टच्या, ग्रहणैषणाग्रहणेन च ग्रहणैषणागता दोषा वेदितव्याः, तथाविवक्षणात् , ततोऽयं भावार्थ:| उत्पादनादोषाभिधानानन्तरं ग्रहणेषणागता दोषाः शन्तिम्रक्षितादयोऽभिधातव्याः, ततः संयोजना वक्तव्या, तत्र संयोजन संयोजना
या रसोत्कर्षसम्पादनाय सुकुमारिकादीनां खण्डादिभिः सह मीलनं, सा द्रव्यभावभेदाद् द्विधा, वक्ष्यति च-दव्ये भाचे संयोजणा य'इत्यादि, ततः प्रमाणं कवलसन्ख्यालक्षणं वक्तव्यं, चकारः समुञ्चये, स च भिन्नकमत्वात्कारणशब्दानन्तरं द्रष्टव्या, ततः, 'इंगाल धूम ति अङ्गारदोषो धूमदोपच यया भवति तथा वक्तव्यं, तदनन्तरं 'कारण चियैः कारणैराहारो यतिभिरादीयते यैस्तु न तानि कारणानि । च वक्तव्यानि, सूत्रे च विभक्तिलोप आपत्वात् , तदेवम् 'अष्टविधा' अष्टप्रकारा अष्टभिराधिकारः सम्बद्धेति भावार्थः, पिण्डनियुक्ति:पिण्डैषणानियुक्तिः ।। स्यादेतद्, एतेऽष्टावप्याधिकाराः किं कुतश्चित्सम्बन्धविशेषादायाताः उत यथाकय चिद्वक्तव्याः,? उच्यते, सम्बन्धविशेषादायाताः, तथाहि-पिण्टेपणाऽध्ययननियुक्तिर्वक्तुमुपक्रान्ता, पिण्डेषणाऽध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि, तयथा-उपक्रमो | निक्षेपोऽनुगमो नयश्च, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे पिण्डैपणाऽध्ययनमिति नाम, ततः पिण्ड इति अध्ययनमिति च व्याख्येयं, तत्राध्ययनमिति मागेव द्रुमपुष्पिकाऽध्ययने व्याख्यातम्, इह तु पिण्ड इति व्याख्येयं, तत एव एपणा, एपणा च गवेषणैषणा ग्रहणैषणा ग्रासैषणा च, गवेषणैषणादयश्च उद्गमादिविषयास्ततस्ते वक्तव्याइस्पष्टी पिण्डादयोऽर्थाधिकाराः ॥ तत्र प्रथमतः पिण्ड इति व्याख्यायते, व्याख्या च तत्वभेदपर्यायैः, अतः प्रथमतः पिण्डशब्दस्य पर्यायानभिधित्सुराह
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२] » “नियुक्ति: [२] + भाष्यं + प्रक्षेपं . . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२||
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श्रीपिण्ड- पिंड निकाय समूहे संपिंडण पिंडणा य समवाए । समुसरण निचय उवचय चए य जुम्मे य रासी य ॥२॥
नियुक्तिः ॥२॥ व्याख्या-एते सर्वेऽपि सामान्यतः पिण्डशब्दस्य पर्यायाः, विशेषापेक्षया तु कोऽपि कापि रूढः, तत्र पिण्डशब्दो गुदपिण्डादिरूपे ।
सडाते रूढो, निकायशब्दो भिक्षुकादिसडाते, समूहशब्दो मनुष्यादिसमुदाये, संपिण्डनशब्दः सेवादीनां खण्डपाकादेव परस्परं सम्यक्संयोगे, पिण्डनाशब्दोऽपि तत्रैव, केवलं मीलनमात्रे संयोगे, समवायशब्दो वणिगादीनां सङ्कगते, समवसरणशब्दः तीर्थकृतः सदेवमनुजामुराणां पदि, निचयशब्दः सूकरादिसङ्कगते, उपचयशब्दः पूर्वावस्थातः प्रचुरीभूते सातविशेषे, चयशब्द इष्टिकारचनाविशेषे, युग्मशब्दः पदार्थद्वयसकरते, राशिशब्दः पूगफलादिसमुदाये, तदेवमिह यद्यपि पिण्डादयः शब्दाः लोके प्रतिनियत एव सङ्घातविशेष रूढार,तथापि सामान्यतो यद् पुत्पत्तिनिमित्त सातत्वमात्रलक्षणं तत्सर्वेषामप्यविशिष्टमितिकृत्वा सामान्यतः सर्वे पिण्डादयः शब्दा एकार्थिका उक्ताः, ततो न कचिदोपः ।। तदेवं पिण्डशब्दस्य पर्यायानभिधाय सम्पति भेदानाचिरख्यासुराह
पिंडस्स उ निक्खेबो चउक्कओ छक्कओ व कायब्बो। निक्खेवं काऊणं परूवणा तस्स कायव्वा ॥ ३ ॥ । __व्याख्या-'पिण्डस्य' प्रागुक्तशब्दार्थस्य तुशब्दः पुनरर्थे, स च निक्षेपशब्दानन्तरं योज्यो, 'निक्षेपो' नामादिन्यासरूपा पुनश्चतुष्ककः षट्कको वा कर्तव्यः, तब चत्वारः परिमाणमस्येति चतुष्का, “सङ्ख्याडतेवाशत्तिष्टेः कः" इति का प्रत्ययः, ततो काभूयः स्वार्थिककप्रत्ययविधानाचतुष्कका, एवं षट्ककोऽपि वाच्यः, इह यत्र वस्तुनि निक्षेपो न सम्पम् विस्तरतोऽवगम्यतेऽवगतो या
विस्मृतिपथमुपगतस्तत्राप्यवश्यं नामस्थापनाद्रव्यभावरूपश्चतुष्कको निक्षेपः कर्तव्य इति प्रदर्शनार्थ चतुष्काहणं, यत्र तु तथाविधगुरुस
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॥२
॥
| 'पिण्ड' शब्दस्य पर्याया: वर्णयते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४] → “नियुक्ति: [४] + भाष्यं + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४||
म्मदायतः सविस्तरमाधिगतो भवति नाप्यधिगतो विस्मृतिपथमुपगतस्तत्र सविस्तरं निक्षेपो वक्तव्य इति न्यायप्रदर्शनार्थ षट्ककग्रहणं, तथा । |चौक्त-जित्य य जं जाणिजा निक्खेवं निक्खिये निरवसेसं | जत्थ वि य न जाणिज्जा चउकयं निक्खिये तत्व"॥ १॥ ततधैतदयोक्तं ॥३॥ भवति-यदि पटूको निक्षेपः सम्पमधिगतो भवति अधिगतोऽपि च न विस्मृतस्तदा पटूकरूपो निक्षेपः कर्तव्या, अन्यथा तु नियमतचतुकरूप इति । एवं च निक्षेपं कृत्वा तस्य पिण्डस्य प्ररूपणा कर्तव्या, येन पिण्डेनेहाधिकारः स पिण्डः मरूपणीय इति भावार्थ: । इदमेव । च नामादिभेदोपन्यासेन व्याख्यायाः फलं यदुत यावन्तो विवक्षितशब्दवाच्या पदार्था घटन्ते तान् सर्वानपि यथास्वरूपं वैविक्त्येनोपदर्य-13 येन केनचिनामाघन्यतमेन प्रयोजनं स युक्तिपूर्वपधिक्रियते शेषास्त्वपाक्रियन्ते तथा चोक्तम्-'अपस्तुतार्थापाकरणात्मस्तुतार्थव्यायुरणाच निक्षपः फलवानिति, इह 'चतुष्कः पदको वा निक्षेपः कर्तव्य' इत्युक्तं तत्र नानिर्दिष्टस्वरूप चतुष्कं पदकं वा निक्षेपं शिष्याः स्वयमेवावग-1 तुमीशास्ततोऽवश्यं तत्स्वरूपं निर्देष्टव्य, सत्र पटुके निर्दिष्टे तदन्तर्गतत्वाचतुष्कोऽर्धाभिरिष्ठो भवति, ततः स एव पटुकनिक्षेपोनिर्दिश्यते । इति, एतदृष्टान्तपुरस्सरं प्रतिपिपादयिषुराइ
कुलए उ चउब्भागस्स संभवो छक्कए चउण्हं च । नियमेण संभवो अत्थि छक्कगं निक्खिये तम्हा ॥ ४ ॥ व्याख्या-यथा 'कुलके' चतुःसेतिकाप्रमाणे चतुर्भागस्य-सेतिकाप्रमाणस्य सम्भवो-विद्यमानताऽवश्य भाविनी, एवं षट्के निक्षेपे १ यत्र च यं जानीयात् निक्षेपं निक्षिपेत् निरवशेषम् ! यत्रापि च न जानीयात् चतुष्कक निक्षिपेत्तत्र ॥ १॥
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५] » “नियुक्ति: [१] + भाष्यं + प्रक्षेपं . . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीपिण्ड-
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५||
चतुर्णा निक्षेपस्य-चतुष्करूपस्य निक्षेपस्य नियमेन-अवश्यतया सम्भवोऽस्ति, ततस्तमेव पदककमिह निक्षिपामि-पदकरूपमेव निक्षेपं घरू- नियुक्तिः पयामि, तस्मिन् प्ररूपिते तस्यापि चतुष्करूपस्य निक्षेपस्य प्ररूपितत्वभावादिति भावार्थः । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति
नाम ठवणापिंडो वे खेत्ते य काल भावे य। एसो खलु पिंडस्स उ निक्खेवो छबिहो होइ ॥ ५ ॥
व्याख्या-'नाम' ति नामपिण्डः स्थापनापिण्ड: ' द्रव्ये ' द्रव्यविषयः पिण्डो द्रव्पपिण्डा, द्रव्यस्य पिण्ड इत्यर्थः, तथा 'क्षेत्रे क्षेत्रस्य पिण्डः, एवं कालपिण्डो भावपिण्डव, 'एप:' अनन्तरोक्तः खलु 'पिण्डस्य' पिण्डशब्दस्य निक्षेपो भवति ।। तत्र नामपिण्डस्य | व्याख्यानाय स्थापनापिण्डस्य तु सम्बन्धनायाह
गोणं समयकयं वा जं वावि हवेज तदुभएण कयं । तं विति नामपिंडं ठवणापिंडं अओ वोच्छं॥६॥
व्याख्या-इह यत् पिण्ड इति वर्णावलीरूपं नाम स नामपिण्डः, नाम चासौ पिण्ड नामपिण्ड इति ध्युत्पते।, नाम च चतुद्धों तयथा-गौर्ण समय तदुभयजमनुभयजं च, तत्र गुणादागतं गौणम् , अथ कोऽसौ गुणः । कथं च तत आगतम्, उच्यते, इद शब्दस्या व्युत्पत्तिनिमिर्च योऽयों यथा ज्वलनस्य दीपनं 'ज्वल दीप्ता' विति वचनात स गुणः, गुणवेद परतत्रो विवक्षितो न पारिभाषिको रूपादिः, तेन यद्यच्छन्दस्य वस्तुनि प्रवर्त्तमानस्य व्युत्पत्तिनिमिचं द्रव्यं गुणः क्रिया वा स गुण इत्यभिधीयते, तत्र द्रव्यं व्युत्पचिनिमित्त शृङ्गी दन्ती विषाणीत्यादी, गुणो जातरूपं सुवर्ण स्वादुरसा घेत इत्यादी, क्रिया तपनः श्रमणो दीपो हिंस्रो ज्वलन इत्यादी, जातिया " नाम्नो व्युत्पत्तिनिमित्तं न भवति, किन्तु प्रवृत्तिनिमित्तं यथा गोशब्दस्य गोजातिः, तथाहि-गोशब्दस्य गमनक्रिया व्युत्पत्तिनिमित्त, न। गोवं, गच्छतीति गौरिति व्युत्पत्तेः, केवलमेकार्थसमवायवलादूमनक्रियया तुरककुदलालसानादिमच प्रवृत्तिनिमित्तमुपलक्ष्यते इति ग
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'पिण्डस्य षड् निक्षेपा:
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[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) "निर्युक्तिः [६] + भाष्यं [] + प्रक्षेपं " ०
मूलं [६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
च्छत्यगच्छति वा गोपिण्डे गोशब्दस्य प्रवृत्तिः, एवं सर्वेष्वपि जातिशब्देषु नामसु व्युत्पत्तिनिमित्तवत्सु भावनीयं, ये तु जातिशब्दा व्यु | त्पत्तिरहिता यथाकथञ्चिज्जातिमत्सु रूढिमुपागतास्तेषु व्युत्पत्तिनिमित्तमेव नास्तीति कुतस्तत्र जातेर्व्युत्पत्तिनिमित्तत्वप्रसङ्गः ?, तस्माज्जातिः परतन्त्रापि न शब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तमिति न सा गुणग्रहणेन गृह्यते, ये तु गोत्वविशिष्टा गोमानित्यादयो जातिव्युत्पत्तिनिमित्ता न ते नामरूपा इति न तैर्व्यभिचारः, ततो गुणादागतं गौणं, व्युत्पत्तिनिमित्तं द्रव्यादिरूपं गुणमधिकृत्य यद्वस्तुनि प्रवृत्तं नाम तद्रौणनामेति वार्थः, एतदेव च नाम लोके यथार्थमित्याख्यायते, तथा समयजं यदन्वर्थरहितं समय एव प्रसिद्धं यथौदनस्य प्राकृतिकेति नाम, उभयजं यगुणनिष्पन्नं समयप्रसिद्धं च यथा धर्मध्वजस्य रजोहरणमिति नाम, इदं हि समयप्रसिद्धमन्वर्थयुक्तं च, तथाहि - बाह्यमाभ्यन्तरं च रजो हियते अनेनेति रजोहरणं, तत्र बाह्यरजोऽपहारित्वमस्य सुमतीतम्, आन्तररजोऽपहरणसमर्थाश्र परमार्थतः संयमयोगाः तेषां च कारणमिदं * धर्मलिङ्गमिति कारणे कार्योपचाराद्रजोहरणमित्युच्यते, उक्तं च- "हेरइ रओ जीवाणं वज्यं अभितरं च जं तेणं । रयहरणंति पचड़ कारण* कज्जोवयाराओ ॥ १ ॥ संयमजोगा इत्थं रओहरा तैसि कारणं जेणं । श्यहरणं उबयारा भन्नइ तेणं रओ कम् ॥ २ ॥ ३ अनुभवज ॐ यदन्वर्थरहितं समयाप्रसिद्धं च यथा कस्यापि पुंसः शौर्यक्रौर्यादिगुणासम्भवेनोपचाराभावे सिंह इति नाम, यद्वा देवा एनं देयासु रिति व्युत्प* त्तिनिमित्तासम्भवे देवदत्त इति नाम । एवं पिण्ड इति वर्णावीरूपमपि नाम गौणादिभेदाचतुर्द्धा तत्र यदा बहूनां सजातीयानां विजा तीयानां वा कठिनद्रव्याणामेकत्र पिण्डने पिण्ड इति नाम प्रवर्त्तते तद्रौणं, व्युत्पत्तिनिमित्तस्य वाच्ये विद्यमानत्वात् यदा तु समयपरिभा
१ हरति रजो जीवानां बाह्यमाभ्यन्तरं च यत्तेन । रजोहरणमिति प्रोच्यते कारणे कार्योपचारात् ॥ १ ॥ संयमयोगा अत्र रजोहरकास्तेषां कारणं येन रजोहरणमुपचारात् भव्यते तेन रजः कर्म ॥ २ ॥
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[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) "निर्युक्तिः [६] + भाष्यं [] + प्रक्षेपं " ०
मूलं [६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
श्री पिण्ड
॥ ४ ॥
पया पानीयेऽपि पिण्ड इति नाम प्रयुज्यते तदा समयजं, लोके हि कठिनद्रव्याणामेकत्र संश्लेषे पिण्ड इति प्रतीतं, न तु द्रवद्रव्यसङ्घाते, ततः | पिण्डनं पिण्ड इति व्युत्पत्त्यर्थार्घटनान्न गौणम्, अथ च समये प्रसिद्धं, तथा च आचाराने द्वितीये तस्कन्धे मथमे पिण्डेषणाभिधानेऽध्ययने सप्तमोदेशक सूत्रे ' से भिक्खु वा भिक्खुणी वा गाहाबइकुलं पिंडवायपडियार अणुपविट्टे समाणे जं पुण पाणगं पासेज्जा, तंजातिलोदगं वा तुसोदगं वा' इत्यादि, अत्र पानीयमपि पिण्डशब्देनाभिहितं ततः पानीये पिण्ड इति नाम समयप्रसिद्धं न चान्वर्थयुक्तमिति समयजमित्युच्यते, यदा पुनभिक्षुर्भिक्षुकी वा भिक्षार्थी प्रविष्टा सती गृहपतिकुले गुडपिण्डमोदनपिण्डं सपिण्डं वा लभते तदा पिण्डशब्दस्तत्र प्रवर्त्तमान उभयजः, समयमसिद्धत्वादन्वर्थयुक्तत्वाच्च यदा पुनः कस्यापि मनुष्यस्य पिण्ड इति नाम क्रियते न च शरीरावयवसङ्घातविवक्षा तदा तदनुभयजं || सम्प्रति गाथाक्षराणि विवियन्ते यत्पिण्ड इति नाम गौणं, यद्वा समयकृतं-समयमसिद्धं, यद्वा भवेसदुभयकृतम्, उभयं गुणः समयश्च तच्च तदुभयं च तदुभयं तेन कृतं तदुभयकृतं, समयमसिद्धमन्वर्थयुक्तं चेत्पर्थः, अपिशब्दायद्वाऽनुभय* जमन्वर्थविकलं समयाप्रसिद्धं च तन्नामपिण्डं ब्रुवते तीर्थकरगणधराः, अत ऊर्ध्वं स्थापनापिण्डमहं वक्ष्ये || एनामेव गाथां भाष्यकृत्समप व्याचिख्यासुः प्रथमं गौणं नाम व्याख्यानयन्नाह-
गुणनिष्पक्षं गोण्णं तं चैव जहस्थमत्थवी बेंति । तं पुण खवणो जलनो तवणो पत्रनो पईवो य ॥ १ ॥ ( भा० ) व्याख्या - गुणेन परतन्त्रेण व्युत्पत्तिनिमित्तेन द्रव्यादिना यन्निष्पन्नं नाम तद्रौणं, यह (स्प) गुणैर्निष्पन्नं तद्गुणा तस्मिन वस्तु न्या गतमिति " तत आगत " इत्यनेनाण्प्रत्ययः, तदेव च गौणं नाम ' अर्थविदः ' शब्दार्थविदो यथार्थ ब्रुवते, गौणं च नाम त्रिधा, तद्यथा-द्रव्यनिमित्तं गुणनिमित्तं क्रियानिमित्तं च एतच प्रागेव भावितं, तत्र पिण्ड इति नाम क्रियानिमित्तं, पिण्डनमिति व्युत्पत्तेः, तत
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निर्युक्तिः
॥ ४ ॥
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७] .. "नियुक्ति: [६...] + भाष्यं [१] + प्रक्षेपं [ .
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
उदाहरणान्यपि क्रियानिमित्तान्येव दर्शयति-तं पुण' इत्यादि, तत्पुनगौण नाम क्षपण इत्यादि, तत्र क्षपयति कौणीति क्षपण:-क्षपकपिः, इह आपकर्षेः क्षपणलक्षणां क्रियामधिकृत्य क्षपण इति नाम प्रवृत्तमतो गौणम्, एवं शेषेष्वप्युदाहरणेषु भावना कार्या, तथा ज्वलतीति ज्वलनो-वैश्वानरः, तपतीति तपनो-रविः, पवते पुनातीति वा पवनो-वायुः, प्रदीप्यते इति प्रदीपादीपकलिका, चकारोऽन्येषामप्पेबंजातीयानामुदाहरणानां समुच्चयार्थः । तदेवं सामान्यतो गौणं नाम व्याख्यातं, सम्पति पिण्ड इति नाम गौर्ण समपकृतं च व्याचिख्यासुराह-18
पिंडण बहुव्वाणं पडिवक्खेणावि जत्थ पिंडक्खा । सो समयकओ पिंडो जह सुत्तं पिंडपडियाई ॥२॥ (भा०) ISIA व्याख्या-बहुना सजातीयानां विजातीयानां वा कठिनद्रव्याणां यत् पिण्डनम् --एकत्र संश्लेषस्तत्र पिण्ड इति नाम प्रवर्तमानं ||
गौणमिति शेषो, व्युत्पत्तिनिमित्तस्य तत्र विद्यमानत्वात् , तथा प्रतिपक्षेणाप्यत्र प्रकरणात्पतिपक्षशब्दः कठिनद्रव्यसंश्लेषाभाववाची, ततोध्यमर्थः-पत्र प्रतिपक्षेणापि-बहूनां द्रव्याणां मीलनमन्तरेण तावत्पिण्ड इति नाम मवर्चत एव, न काचित्तत्र व्याहविरिस्पषिशब्दाथै, सम-11 यमसिद्धया 'पिण्डाख्या ' पिण्ड इति नाम, स पिडाख्यावाचामपिण्डः समयकृत इत्युच्यते, तत्र नामनामव तोरभेदोपचारादेवं निर्देश उपचाराभाचे त्वयमर्थ:-तत्र वस्तुनि तत्पिण्ड इति नाम समयकृतमिति, एतदेव दर्शयति-'जह सुन पिंडपडियाई यथेत्युपदर्शने पिण्डेति || पिण्डपातग्रहणं, तत एवं गाथायां निर्देशो द्रष्टव्यः-- पिंडबायपडियाए ' इत्यादि, आदिशब्दात् 'पविढे समाणे' इत्यादिसूत्रपरिग्रहः, तच पागेव दर्शितम् , इयमत्र भावना-अत्र सूत्रे प्रभूतकठिनद्रव्यपरस्परसंश्लेषाभावेऽपि पानीये पि०४ इति नामान्वर्थरहित समयप्रसिद्धया प्रयुज्यते, अत इदं समयजमभिधीयते इति ।। सम्पत्युभयर्ज पिण्ड इति नाम दर्शयति
जस्स पुण पिंडवायट्ठया पविठ्ठस्स होइ संपत्ती । गुडओयणपिंडेहिं तं तदुभयपिंडमाइंसु ॥ ३ ॥ (भा.)
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२] मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [९] » “नियुक्ति: [६...] + भाष्यं [३] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२, मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३||
व्याख्या-यस्य पुनः कस्यचित्पिण्डपातार्थतया-पिण्डपात:-आहारलाभस्तदर्थतया साधोहपतिगृहं प्रविष्टस्य सतो भवति आ स- माप्तिः, 'गुडओअणपिडेहि ति 'व्यत्ययोऽप्यासा' मिति माकृतलक्षणवशात्पष्टयर्थे तृतीया, ततोऽयमों-गुडौदनपिण्डोर्गुडपिण्डस्यौदन पिण्डस्य चेत्यर्थः, गुडौदनग्रहणमुपलक्षणं, तेन सक्तुपिण्डादेव या सम्माप्तिस्तं गुडपिण्डादिकं तदुभयपिण्डं गुणनिष्पन्नसमयप्रसिद्धपिण्डशब्दवाच्यमुक्तवन्तस्तीर्थकरगणधराः, इहापि नामनामवतोरभेदोपचारादेवं गाथायां निर्देशः, उपचाराभावे त्वयं भावार्थ:-तद्विषयं पिण्ड इति । नाम उभयजम् , अन्धर्थयुक्तत्वात्समयप्रसिद्धत्वाचेति ।। सम्मत्युभयातिरिक्त सामान्यतो नाम प्रतिपादयति: उभयाइरित्तमहवा अन्नं पिहु अस्थि लोइयं नाम । अत्ताभिप्पायकयं जह सीहगदेवदत्ताई ॥ ४ ॥ (भा०)
व्याख्या-'अथवे ति नामप्रकारान्तरतायोतका, 'उभयातिरिक्तं' गौणसमयजविभिन्नम्, अन्यदप्यस्ति 'लौकिक' लोके प्रसिद्धमात्माभिप्रायकृतं नाम, अनुभयजमिति भावार्थः, तदेवोदाहरणेन समर्थयमान आह-यथा सिंहकदेवदत्तादि, आदिशब्दाद्यज्ञदत्तादिपरिग्रहः, इदं हि सिंहदेवदत्तादिकं नाम शौर्यक्रौर्यादिगुणनिबन्धनोपचाराभावे देवा एनं देयासरित व्युत्पत्त्यासम्भवे च यस्य कस्यचिदात्माऽभिमा-13 यतः पित्रादिभिदीयमानं न गौणमन्वविकलवानापि समयप्रसिद्धमत उभयातिरिक्तमिति, एवं पिण्ड इत्यपि नाम उभयातिरिक्तं भावनीयं ।।। ननु पिण्ड इति नाम नियुक्तिगाथायामुभयातिरिक्तं नोपन्यस्तं, तत्कथं भाष्यकृता व्याख्यायते?, तदयुक्तं, नोपन्यस्तमित्यसिद्धः, अपिश-|| ब्देन तत्र मूचितत्वात् , तथा चाह भाष्यकृत्
गोण्णसमयाइरित्तं इणमन्नं वाऽविसूइयं नाम । जह पिंडउत्ति कीरइ कस्सइ नाम मणूसस्स ।। ५॥ (भा०)
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [११] .→ “नियुक्ति: [६...] + भाष्यं [५] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५||
व्याख्या--इदं पिण्ड इति नाम अन्यद्वा गौणसमयातिरिक्तं ' गौणसमयजविभिन्नमपिशब्दसूचितमस्ति, तदेव दर्शयति-यथा । कस्यापि मनुष्यस्य पिण्ड इति नाम क्रियते, तद्धि न गौणं प्रभूतद्रव्यसंश्लेषासम्भवाच्छरीरावयवसङ्घातस्य चाविवक्षणात नापि समयकृतम् |अत इदमुभयांतिरिक्तमिति । ननु समयकृतोभयातिरिक्तयोर्ने कश्चित्तरसरं विशेष उपलभ्यते, उभयत्राप्यन्वर्थविकलवादात्माभिमायकृतस्वाविशेषाच, तत्कथं द्वयोरुपादानं !, साङ्केतिकमित्येवोच्यताम्, एवं हि द्वयोरपि नाणं भवति, तदयुक्तम् , अभिमायापरिज्ञानाद, इह दिएका यल्लौकिकं नाम साङ्केतिकं तत्पृथग्जनाः सामयिकाश्च व्यवहरन्ति, यत्पुनः समय एव साङ्केतिक तत्सामयिका एव न पृथगजनाः ॥ तथा चाह भाष्यकृद। तुल्लेऽवि अभिप्पाए समयपसिद्धं न गिहए लोओ। जं पुण लोयपसिद्धं तं सामइया उवचरन्ति ॥ ६ ॥ (भा.)
___ व्याख्या-इहाभिप्रायशारदेन पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादभिप्रायकृतत्वमुच्यते, तत्रायमर्थ:-अभिप्रायेण-इच्छामात्रेण कृतं न तुः वस्तुबलमवृत्तमभिप्रायकृतं, तस्य भावोऽभिमायकृतत्वं साङ्केतिकत्वमित्यर्थः तस्मिस्तुल्येऽपि-समानेऽपि, आस्तामसमाने इत्यपिशब्दार्थः | समयप्रसिद्ध 'लोक' पृथगूजनरूपो न गृह्णाति-न समयप्रसिद्धन साङ्केतिकेन नाम्ना व्यवहरति, न खलु पृथगजनो भोजनादिकं समुद्दे-1।
शादिना समयप्रसिद्धेन साङ्केतिकेन नाम्ना व्यवहति, यत्पुनल्लोकमसिद्धं तत्पृथगजनाः सामयिकाश्चो पचरन्ति, तत इत्यं समयकृतोभया|तिरिक्तयोः स्वभावभेदाद् तड्डयोरपि पृथगुपादानपर्थवत्, एतेन गौणोभयकृतयोरपिस्वभावभेदसूचनेन पृथगुपादानं सार्थकमुपपादितं द्रष्टव्य, तथाहि-यद्यपि गौणमुभयकृतं चान्वर्थयुक्तत्वेनाविशिष्टं, तथापि यद्रौणं तत्पृथगजनाः सामयिकाश्च व्यवहरन्ति, यत्पुनः समयमसिद्धं गाणं । तत्सामयिका एव न पृथाजनाः, तेषां तेन प्रयोजनाभावात् , समयप्रसिद्धन दिनाना गौणेनापि यथोक्तसमयपरिपालननिष्पन्नचेतसां गृही-18
दीप
अनुक्रम [११]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं ॥ → “नियुक्ति: [६...] + भाष्यं [६] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२, मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६||
दीप
श्रीपिण्ड- तिव्रतानां प्रयोजन न गृहस्थानाम्, अतः स्वभावभेदात्तयोरपि पृथगुपन्यासः सार्थक इति ॥ तदेवं नामपिण्डो नियुक्तिकृतोपदर्शितो भा-11 नियुक्तिः
यकृता समपश्च व्याख्यातः, साम्पतं यत्पूर्व प्रतिज्ञातं नियुक्तिकृता-'ठवणापिंडं अतो घोच्छ ' तत्समर्थयमानः स एवाइ
अक्खे वराडए वा कढे पुत्थे व चित्तकम्मे वा। सब्भावमसम्भावं ठवणापिंडं बियाणाहि ॥ ७॥
व्याख्या-सत इव विद्यमानस्येव भावः सत्ता-सद्भावः, किमुक्तं भवति?-स्थाप्यमानस्येन्द्रादेरनुरूपाङ्गोपाङ्गचिहवाइनपहरणादि-की परिकररूपो प आकारविशेषो यदर्शनात्साक्षाद्विद्यमान इवेन्द्रादिलक्ष्यते स सद्भावः, तदभावोऽसद्भावः, तत्र सनावमसळावचाभित्य 'अक्षेप चन्दनके कपर्दे चराटके वाशब्दोऽडलीयकादिसमुच्चयार्थः, उभयत्रापि च जातावेकवचनं, तथा 'काष्ठे' दारुणि 'पुस्ते' दिउल्लिकादी, वा
शब्दो केप्यपापाणसमुच्चये, चित्रकर्मणि वा या पिण्डस्य स्थापना साक्षादिः काष्ठादिष्याकारविशेषो वा पिण्डखेन स्थाप्यमानः स्थापना कापिण्डः, इयमत्र भावना-पदा काष्ठे लेप्ये उपले चित्रकर्मणि वा प्रभूतद्रव्यसंश्लेषरूपः पिण्डाकारः साक्षाद्विधमान इवालिख्यते, यद्वा अक्षाः
कपका अङ्गलीयकादयो वा एकत्र संश्लेष्य पिण्डत्वेन स्थाप्यन्ते यथेष पिण्डः स्थापित इति तदा तत्र पिण्डाकारस्योपलभ्यमानत्वात्सद्भावत पिण्डस्थापना, यदा त्वेकस्मिनक्षे बराटकेऽङ्गलीयके वा पिण्डत्वेन स्थापना एष पिण्डो मया स्थापित इति तदा तत्र पिण्डाकारस्पानुपल- ॥६ ॥ भ्यमानत्वात् , अक्षादिगतपरमाणुसङ्घातस्य चाविवक्षणादसद्भवतः पिण्डस्थापना, चित्रकर्मण्यपि यदा एकविन्द्वालिखनेन पिण्डस्थापना यथैष पिण्ट आलिखित इति विवक्षा तदाप्रभूतद्रव्यसंश्लेवाकारादर्शनादसद्भावपिण्डस्थापना, यदा पुनरेकविन्द्रालिखनेऽपि एप मया गुडपिण्ड ओदनपिण्डा सक्नुपिण्डो घाऽऽलिखित इति विवक्षा तदा सद्भावतः पिण्डस्थापना ।। अमुमेव सद्भावासद्भावस्थापनाविभाग भाष्यकदुपदशेयति
अनक्रम
[१२॥
SARERaunintamatara
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [ → “नियुक्ति: [७] + भाष्यं [७] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७||
इको उ असन्भावे तिण्हं ठवणा उ होइ सब्भावे । चित्तेसु असम्भावे दारुअलेप्पोवले सियरो ॥ ७॥ (भा.) ___ व्याख्या-एकोऽसो बराटकोङ्कलीयकादिर्वा यदा पिण्डत्वेन स्थाप्यते तदा सा पिण्डस्थापना ' असावे' असाझावविषया, अ. सद्भांचिकीत्यर्थः, तब पिण्डाकृतेरनुपलभ्यमानत्वात् , अक्षादिगतपरमाणुसङ्गुगतस्य चाविवक्षणात् । यदा तुषाणामक्षाणां वराटकानामङ्गली यकादीनां या परस्परमेकत्र संश्लेषकरणेन पिण्डत्वेन स्थापना तदा सा पिण्डस्थापना 'सद्भावे' सद्भाविकी, तत्र पिण्डाकृतरुपलभ्यमानत्वात
त्रयाणांचेत्युपलक्षणं तेन योरपि बहूनां चेत्यपि द्रष्टव्यं । तथा 'चित्रेषु' चित्रकर्मसु यदैकबिन्द्रालिखनेन पिण्डस्थापना तदा साऽप्यसद्भावे, कायदा तु चित्रकर्मस्वपि अनेकविन्दुसंश्लेषालिखनेन प्रभूतद्रव्यसङ्घमतात्मकपिण्डस्थापना तदा सा सद्भावस्थापना, पिण्डाकृतस्तत्र दर्शनात् ।।
तथा दारुकलेप्योपलेषु पिण्डाकृतिसम्पादनेन या पिण्डस्य स्थापना स 'इतरः सद्भावस्थापनापिण्डा, तत्र पिण्डाकारस्प दर्शनात् ॥ तदेविमुक्त स्थापनापिण्डा,सम्पतिद्रव्यपिण्डस्यावसरः, स च द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तबाऽऽगमतः पिण्डशब्दार्थस्य ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः
अनुपयोगो द्रव्य मिति वचनात, नोआगमतविधा, नद्यथा-ज्ञशरीरद्रव्यपिण्डः भव्यशरीरद्रव्यपिण्डः ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यपिण्डव, तत्र पिण्डशब्दार्थज्ञस्य यच्छरीरं सिद्धशिलातकादिगतमपगतजीवितं तद् भूतपिण्डशब्दार्थपरिज्ञानकारणत्वात् शरीरद्रव्यपिण्डा, यस्तु
चालको नेदानीमवबुध्यते पिण्डशब्दार्थम् अब चावश्यमायत्यां तेनैव शरीरेण परिवईमानेन भोरस्पते स भावपिण्डशब्दार्थपरिज्ञानकारणदावाद भन्यशरीरद्रव्यपिण्डः ।। शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं तु द्रव्पपिण्डं नियुक्तिकदाह
तिविहो उ दवपिंडो सच्चित्तो मीसओ अचित्तो य । एक्केकस्स य एत्तो नव नव भेआ उ पत्तेयं ॥८॥
दीप
अनक्रम
[१४]
rajastaram.org
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१५] » “नियुक्ति: [८] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिष्टनियुमलयाग
क्षेपः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८||
॥
७
॥
दीप
व्याख्या-शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यपिण्डविधा, तयथा-सचित्तो मिश्रोऽचित्तश्च तत्र मिश्रः सचित्ताचित्तरूपः, इह पृथिवीकायादिकः पिण्डस्वेनाभिधास्यते, स च पूर्व सचिचो भवति, ततः स्वकायशस्त्रादिभिः प्रासुकीक्रियमाणः कियन्तं कालं मिश्रो भवति, तत ऊर्ध्वमचित्तः, तत एतदर्थख्यापनार्थ सचित्तमिश्राचित्ताः क्रमेणोक्ताः । इतो' भेदत्रयाभिधानादनन्तरम् 'एकैकस्य सचित्तादेर्भेदस्य प्रत्येक नव नव भेदा वाच्या भवन्ति ।। तानेव नव नव भेदानाह
पुढवी आउकाओ तेऊ वाऊ वणस्सई चेव । बेइंदिय तेइंदिय चउरो पंचेंदिया चेव ॥ ९॥
व्याख्या-इह पिण्डशब्दः पूर्वगाथातोऽनुवर्तमानः प्रत्येकं सम्बध्यते, तद्यथा-पृथिवीकायपिण्डोऽप्रकायपिण्डस्तेजस्कायपिण्डो वायुकायपिण्डो वनस्पतिकायपिण्डो दीन्द्रियपिण्डस्त्रीन्द्रियपिण्डश्चतुरिन्द्रियपिण्डः पश्चेन्द्रियपिण्डश्च ।। सम्पत्यमीषामेव नवानां भेदानां सचित्तत्त्वादिक विभावयिषुः प्रथमतः पृथिवीकाये भावयति
पुढवीकाओ तिविहो सच्चित्तो भीसओ य अञ्चित्तो । सच्चित्तो पुण दुविहो निच्छयववहारओ चेव ।। १०॥ ____ व्याख्या-पृथिवीकायखिविधा, तयथा-सचित्तो मिश्रोऽचित्तश्च, सचित्तः पुनधिा, तद्यथा-निधयतो व्यवहारतश्च ॥ एतदेव निश्चयव्यवहाराभ्यां सचित्तस्य वैविध्यं प्रतिपादयतिनिच्छयओ सच्चित्तो पुढविमहापव्ययाण बहुमज्झे । अचित्तमीसवज्जो सेसो बवहारसच्चित्तो ॥ ११ ॥
व्याख्या-निश्चयतः सचित्तः पृथिवीकायो धर्मादीनां पृथिवीनां मेर्वादीनां महापर्वतानामुपलक्षणमेतत् तेन टङ्कादीनां च, बहुम
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द्रव्यपिण्डे पृथ्वी आदि ५ तथा बेइन्द्रियादि ४ इति नव-पिण्डानाम् वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१८] .→ “नियुक्ति: [११] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||११||
०००००००
दीप
ध्यभागे वेदितव्यः, तत्राचित्तताया मिश्रतायाश्च हेतूना शीतादीनामसम्भवात् , शेषः पुनः अचित्तमिश्रवजों वक्ष्यमाणस्थानसम्भविमिश्राचितिव्यतिरिक्तो निरावाधारण्यभूम्यादिषु व्यवस्थितो व्यवहारतः सचित्तो वेदितव्यः । उक्तः सचित्तपृथिवीकायः, सम्पति तमेव मिश्रमाह
खीरदुमहे? पंथे कट्टोले इंधणे य मीसो उ । पोरिसि एग दुग तिगं बहुइंधणमज्झथोवे य ॥ १२ ॥ व्याख्या-खीरदुमद्देह 'त्ति क्षीरद्रुमा' चटाश्वत्थादयस्तेषामधस्तात्-तले यः पृथिवीकायः स मिश्रः, तत्र हि क्षीरद्रुमाणां माधुर्येण शस्त्रत्वाभावात् कियान्सचित्तः शीतादिशखसम्पर्कसम्भवाञ्च कियानचित्त इति मिश्रता, तथा पर्थि ग्रामानगराद्वा बहियः पृथिवकिायो । वर्तते सोऽपि मिश्रो, यतस्तत्र गन्त्रीचक्रादिभिर्य उत्खातः पृथिवीकायः स कियान्सचित्तः कियांश्च शीतवातादिभिरचित्तीकृत इति मिश्रा, 'कहोले ति कृष्टो हलविदारितः सोऽपि प्रथमतो हलेन विदार्यमाणः सचित्तः ततः शीतवातादिभिः कियानचित्तीक्रियते इतिमिश्रः, तथाऽऽद्रों जलमिश्रितः, तथाहि-मेघस्यापि जलं सचित्तपृथिवीकायस्योपरि निपतत् कियन्तं पृथिवीकार्य विराधयति ततो जलापृथिवीकायो मिश्र उ-11 पपद्यते, सोऽप्यन्तमहर्चादनन्तरमचिचीभवति, परस्परशखत्वेन द्वयोरपि पृथिव्यप्काययोरचितीभवनसम्भवान, यदा त्वतिप्रभूतं मेघजलं | निपततितदा तज्जलं यावाद्यापि स्थिति बनाति तावत् मिश्रः पृथिवीकायः, स्थितिबन्धे तु कृते सति सचित्तोऽपि सम्भाव्यते, तथा 'इन्धने गोमयादी मिश्रः, तथादि-गोमयादिकमिन्धनं सचित्तपृथिवीकायस्य शखं, शस्त्रेण च परिपीव्यमानो यावन्नायापि सर्वथापरिणमति | तावन्मिश्रः । अवेन्धनविषये कालमानमाह-पोरिसी'त्यादि, बहिन्धनमध्यगत एका पौरुषी यावन्मिश्रो मध्यमेन्धनसम्पृक्तस्तु पौ-1 रुपीद्विकम् अल्पेन्धनसम्पृक्तस्तु पौरुषी त्रिकं तत ऊईमचित्त इति ।। तदेवमुक्तो मिश्रः पृथिवीकाय:, साम्पतमचित्तमाह
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२०] .→ “नियुक्ति: [१३] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्टनियुतेर्मलयगिरीयाचिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३||
॥८॥
दीप
सीउण्हखारखत्ते अग्गीलोणूसअबिलेनेहे । वुकंतजोणिएणं पयोयणं तेणिम होइ॥ १३ ॥
पृथ्वीपिण्डव्याख्या-इह सर्वत्र सक्षमी तृतीयाय प्राकृतलक्षणवशात, तथा चाइ पाणिनिः प्राकृतलक्षणे-पत्षयोऽप्यासा' मित्यत्र सूत्रे ||
निक्षेप सप्तमी तृतीयार्थे, यथा 'तिमे तेसु अलंकिया पुहवी' इति, ततोऽयमर्थः-शीतोष्णक्षारक्षत्रेण, तत्र शीत-अतीतम् उष्णः-सूर्यादिपरितापः क्षार:-यवक्षारादिः क्षत्र-करीपविशेषः, एतैः, तथा ' अग्गिलोणूसअंबिलेनेहे' इति, अग्नि:-पैश्वानरः लवणं-प्रतीतम् ऊपः-ऊपरादिक्षेत्रोद्भवो लवणिमसम्मिश्रो रजोविशेषः, आम्ल-कालिकं स्नेहः-तैलादिः एतैश्वाचितः पृथिवीकायो भवति, इद शीताम्यम्लक्षारक्षत्रस्नेहाः परकायशस्त्राणि, ऊपः स्वकायशस्त्रम् , उष्णवेद सूर्यपरितापरूपः स्वभावोष्णः तथाविधपृथिवीकायपरितापरूपो वा गृह्यते, नाग्निपरितापरूपस्तस्यामिग्रहणेनैव गृहीतत्वात्। ततः सोऽपि, स्वकायशस्त्रोपादानेन परकायशखोपादानेन चान्यान्यानि स्वकायपरकायशस्खापलक्ष्यन्ते, यथा कटुकरसो मधुररसस्य स्वकायशस्त्रमित्यादि, एतेन पृथिवीकायस्याचित्ततया भवनं चतुद्धों प्रतिपादितं द्रष्टप्प, तयथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतच, तब स्वकायेन परकायेण वा यदचिचीकरणं तद्रव्यतः यदा तु क्षारादिक्षेत्रोत्पत्रस्य मधुरादिक्षेत्रोवनस्य च तुल्प-1 वर्णस्य भूम्यादेः पृथिवीकायस्य परस्परं सम्पर्केगाचित्तताभवनं तदा तत् क्षेत्रता, क्षेत्रस्य प्राधान्येन विवक्षणात, यहा मा भूदपरक्षेत्रोद-1 चेन पृथिवीकायान्तरेण सह मीलनं, किन्त्वन्यत्र क्षेत्रे योजनशतात्परतो यदा नीयते तदा सर्वोऽपि पृथिवीकायः सर्वस्मादपि क्षेत्रायोजन शतादूर्द्धमानीतो भिन्नाहारत्वेन शीतादिसम्पर्कतचावश्यमचित्तीभवति, इत्यं च क्षेत्रादिक्रमेणाचित्तीभवनमा कायादीनामपि भावनीयं, या
त्रिभिस्तैरलङ्कृता पृथ्वी।
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२०] .→ “नियुक्ति: [१३] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३||
दीप
वनस्पतिकायिकानां, तथा च हरीतक्पादयो योजनशवादूईमानीताऽचिचीभूतत्वादोपपायर्थ साधुभिः प्रतिगृह्यन्ते इति । कालतस्त्वधिचता स्वभावतः स्वायुःक्षयेण, सा च परमार्थतोऽतिशयज्ञानेनैव सम्पपरिज्ञायते न छामस्थिकज्ञानेनेति न व्यवहारपथमवतरति, अत एव च तृषाऽतिपीडितानामपि साधूनां स्वभावतः स्वायुःक्षयेणाचित्तीभूतमपि तडागोदकं पानाय वर्द्धमानस्वामी भगवान् नानुज्ञातवान् , इत्थंभूतस्याचित्तीभवनस्य छास्थानां दार्चक्षस्वेन मा भूत सर्वत्रापि तहागोदके सचिनेऽपि पाश्चात्यसाधूनां प्रवृत्तिप्रसङ्ग इतिकत्वा, भावतोऽचित्तीभवन पूर्ववर्णादिपरित्यागतोऽपरवादितया भवनं । तदेवमुक्तोऽचित्तोऽपि पृथिवीकायः। एतेन चाचित्तेन साधूनां प्रयोजनं, तथा चाह-'युक्त इत्यादि, पुत्कान्ताः-अपगता योनिः-उत्पत्तिस्थानं यत्र तेन विध्वस्तयोनिना-भामुकेन 'इदं वक्ष्यमाणस्वरूपं प्रयोजनं साधूनां भवति ।। तदेवोपदर्शयतिA अवरद्विगविसबंधे लवणेन व सुरभिउवलएणं वा । अच्चित्तरस उ गहणं पओयणं तेणिमं बडनं ॥ १४ ॥
व्याख्या-अपराधनम् अपराद्ध-पीडाजनकता तदस्यास्तीति अपराद्धिको लूतास्कोट: सपोदिशो वा विष-प्रतीतं तब दद-1 प्रभृतिषु चारितं सम्भवति तयोरुपशमनाय बन्ध इव बन्धः-प्रलेपस्तस्मिन् कर्तव्येऽचित्तपृथिवीकायस्प गौरमृत्तिकाकेदारतरिकादिरूपस्य || ग्रहणं प्रयोजनं, यदा लवणेन प्रतीतेन 'अचित्तस्स' ति विभक्तिपरिणामेनेह तृतीयान्तं सम्बध्यते, अचित्तेनालवणभक्तभोजनादौ प्रयोजनम् , अथवा मुरभ्युपलेन-गन्धपापाणेन गन्धरोहकाख्येन प्रयोजनं, तेन हि पामाप्रसूतदातधातादिः क्रियते, चाशब्दो विकल्पार्थः, अथवा तेन पृथिवीकायेनेदमन्यत्प्रयोजनम् ।। तदेवाह
ठाणनिसियणतयट्टण उच्चाराईण चेव उस्सग्गो । घुट्टगडगलगलेको एमाइ पओयणं बहुहा ॥ १५ ॥
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२२] » “नियुक्ति: [१५] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पृथ्वीपिण्डनिक्षेपे
रीयावृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५||
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पिण्डनियु- व्याख्या-इह साधुभिः सचित्तमिश्रपरिहारद्वारेणाचित्ते भूतलमदेशे यत् स्थान-कायोत्सग्गों विधीयते, यच निषीदनम्-उपवेशनं मलयाग यच्च त्वम्वनं-स्वापः, यश्च उच्चारादीनां पुरीषप्रस्रवणश्लेष्मनिष्ठधूतानामुत्सर्गः, तथा यो घुट्टको-लेपितपात्रमणताकारकः पाषाणो ये च
डगलका:-पुरीपोत्सर्गानन्तरमपानमोज्छनकपाषाणादिखण्डरूपा यश्च लेपो-भोगपुरपाषाणादिनिष्पनस्तोम्बकपात्राभ्यन्तरे दीयते, एवमादि ॥९ ॥
बहुधा ' बहुप्रकारम् अचिनेन पृथिवीकायेन प्रयोजनम् ।। उक्तः सचित्तादिभेदभिन्नः पृथिवीकायपिण्डः, सम्पत्यप्कायपिण्डं सचित्तादिभेदभिन्नमाह
आउक्काओ तिविहो सच्चित्तो मीसओ य अच्चित्तो । सच्चिचो पुण दुविहो निच्छयववहारओ चेव ॥ १६॥
व्याख्या-अप्कायत्रिविधा, तद्यथा-सचित्ती मिश्रोऽचित्तश्च, तत्र सचित्तो द्विधा-निश्यतो व्यवहारतश्च ॥ एतदेव सचित्तस्य निश्रयव्यवहाराभ्यां वैविध्यमुपदर्शयति- . घणउदही घणवलया करगसमुहहहाण बहुमज्झे । अह निच्छयसच्चित्तो ववहारनयस्स अगडाई ॥ १७ ॥
व्याख्या-'घनोदधयः नरकपृथ्वीनामाधारभूताः कठिनतोयाः समुद्राः, 'धनवलयाः' तासामेव नरकपृथिवीनां पार्श्ववर्तिहत्ताकारतोयाः ये च 'करकाः' धनोपलाः तथा 'समुद्रहदानां' लवणादिसमुद्रपद्यादिहदानां च बहुमध्यभागे येऽप्कायाः 'अह' चि एप सर्वोप्यष्कायो 'निश्चयसचित्तः' एकान्तसचिचः, शेषस्तु 'अवटादि' अक्टवापीतडागादिस्थः, इहावादिस्थोऽवटादिशब्देनोक्ता, तातस्थ्येन तद्वयपदेशप्रत्तेः, यथा मञ्चाः क्रोशन्तीत्यादौ, तत्रावट: कूपस्तदादिगतोऽप्कायो 'व्यवहारनयस्य' ब्यवहारनयमतेन सचित्तः ।। उक्तः सचित्तोऽप्कायः, सम्मति मिश्रमाह
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'अप्काय पिण्डस्य निक्षेपा: वर्णयते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२५] .→ “नियुक्ति: [१८] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
པའི་
ཟླ་
བའི་རྒྱུ་བ་
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८||
उसिणोदगमणुवत्ते दंडे वासे य पडियमित्तमि । मोत्तूणादेसतिगं चाउलउदगेऽबहुपसन्नं ॥ १८ ॥
व्याख्या-अनुद्वृत्ते दण्डे, अत्र जाताचेकवचनं, ततोऽयमर्थ:--अनुत्तेषु त्रिषु दण्डेषु-उत्कालेषु यदुष्णोदकं तन्मिश्रमिति प्रस्तावादादम्यते, तथाहि-प्रथमे दण्डे जायमाने कश्चित्परिणमति कश्चिन्नेति मिश्रा, द्वितीये प्रभूतः परिणमति स्तोकोऽवतिष्ठते, तृतीये तु सर्वोऽप्यचित्तो
भवति, ततोऽनुवृत्तेषु त्रिषु दण्डे पूष्णोदकं (मिथ) सम्भवति, तथा वर्षे-वृष्टौ पतितमात्रे यजलं ग्रामनगरादिषु प्रभूततिर्यग्मनुष्यप्रचारसम्भविषु भूमी वर्चते तयावन्नायाप्यचित्तीभवति तावनिमश्रमवगन्तव्यं, ग्रामनगरादिभ्योऽपि बहिस्तायदि स्तोक मेघजलं निपतति तदानीं तदपि जापतितमा मिश्रमवसेय, पृथिवीकायसम्पर्कतस्तस्य परिणममानत्वाव, यदाऽप्यतिप्रभूतं जलं मेघो वर्षति तदापि प्रथमतो निपतत पृथिवी
कायसम्पर्कतः परिणममानं मिश्र, शेषं तु पश्चानिपतत् सचित्तमिति, तथा 'मुक्त्वा ' परिहत्य ' आदेशत्रिक' मतत्रिक, तदुक्ता मिश्रता न ग्राह्येति भावार्थः, 'चाउलोदकं तण्डुलोदकम् 'अबहुप्रसन्न ' नातिस्वच्छीभूतं, मिश्रमिति गाथार्थः । अबहुप्रसन्नमित्यत्रादावकारलोप आपत्वात् ।। आदेचत्रिकमेव दर्शयति
भंडगपासवलग्गा उत्तेडा बुब्बुया न संमति । जा ताव मीसगं तंदुला य रज्झंति जावऽन्ने ॥ १९ ॥
व्याख्या-तण्डलोदके तण्डुलप्रक्षालनभाण्डादन्यस्मिन् भाण्डे मक्षिष्यमाणे ये त्रुटित्वा भाण्डकस्य पार्थेषु 'उत्चेडा' विन्दवो लग्नाः ते यावन्न 'शाम्यन्ति ' विध्वंसमुपगच्छन्ति तावत्नत्तण्डलोदकं मिश्रमित्येके १, अपरे पुनराहुः-तण्डुलोदके तण्डुलप्रक्षालनभाण्डकादपरस्मिन् भाण्डके प्रक्षिप्यमाणे ये तण्डुलोदकस्योपरि समुद्धता बुद्धदास्ते यावदद्यापि 'न शाम्यन्ति 'न विनाशमियूति तावत्तत्तण्डलोदकं
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२६] .→ “नियुक्ति: [१९] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१९||
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पिण्डनियु- मिश्रमिति २, अन्ये पुनरेवमाहुः-सण्डलप्रक्षालनानन्तरं तण्डुला राद्धमारख्यास्ततस्ते यावन्न राध्यन्ति, यावन्नाचापि सिध्यन्तीति भावः, अप्कायपिकेमेलयगि- तावत्तत्तण्डलोदकं मिश्रमिति ३॥ एषां त्रयाणामप्यादेशानां दूषणान्याह
पिण्डनिक्षेपे रीयावृतिः
एए उ अणाएसा तिन्निवि कालनियमस्सऽसंभवओ । लुक्खेयरमंडगपवणसंभवासंभवाईहिं॥२०॥ ॥१०॥ व्याख्या-एते त्रयोऽप्यादेशा अनादेशा एव, तुशब्द एवकारार्थो भिन्नक्रमश्च, कुतोऽनादेशाः ? इत्याह-कालनियमस्यासम्भवात,
हान खलु बिन्द्वपगमे बुहुदापगमे तण्डुलपाकनिष्पत्ती चा सदा सर्वत्र प्रतिनियत एव कालः, येन प्रतिनियतकालसम्भविनो मिश्रत्वादूम | चित्तत्वस्याभिधीयमानस्प न व्यभिचारसम्भवः, कथं प्रतिनियत: कालो न घटते ? इति कालनियमासम्भवमाह-'लुक्खेयरे' त्यादि,रूक्षेत-18 रभाण्डपवनसंभवासम्भवादिभिः, अत्रादिशब्दाचिरकालसलिलभिन्नत्वाभिन्नत्वादिपरिग्रहः, इयमच भावना-इह पदापाकतः प्रथममानीतं || चिरानीतं वा स्नेहजलादिना न भिन्न भाण्डं तलमुच्यते, स्नेहादिना तु भिन्न स्निग्ध, तत्र रूक्षे भाण्टे तण्डलोदके प्रक्षिप्यमाणे ये बिन्दवः। पार्थेषु लग्रास्ते भाण्डस्य रूक्षतया अटित्येव शोषमुपयान्ति, स्निग्वे तु भाण्डे भाण्डस्य स्निग्यतया चिरकालं, ततः पथमादेशवादिना मते कले भाण्डे चिन्दूनामपगमे परमार्थतो मिश्रस्याप्यचित्तवसम्भावनया ग्रहणप्रसङ्गः, स्निग्धे तु भाण्डे परमार्थतोऽचित्तस्यापि बिन्दूनामनपगमे मिश्रत्वेन सम्भावनया न ग्रहणमिति । तथा बुद्बुदा अपि प्रचुरखरपवनसम्पर्कतो झटिति विनाशमपगच्छन्ति, अनुरखरपवनस-1
॥१०॥ पोभावे चिरमप्यवतिष्ठन्ते, ततो द्वितीयादेशवादिनामपि मते यदा खरमचुरपवनसम्पर्कतो झटिति विनाशमैयरुर्बुद्धदास्तदा परमार्थतो मिश्रस्यापि तण्डुलोदकस्याचित्तच्चन सम्भावनया ग्रहणप्रसङ्गः, यदा तु खरप्रचुरपवनसम्पर्कोभावे चिरकालमप्पवतिष्ठन्ते बुद्दाः तदा परमार्थ-18 तोऽचित्तस्यापि तण्डुलोदकस्य बुद्बुददर्शनतो मिश्रत्वशडूनयां न ग्रहणमिति । येऽपि तृतीयादेशवादिनस्तेऽपि न परमार्थं पोलोचितवन्तः,
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२७] » “नियुक्ति: [२०] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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तण्डुलानां चिरकालपानीयभिन्नाभिन्नत्वेन पाकस्यानियतकालत्वात् , तथाहि-ये चिरकालसलिलभिन्नास्तण्डला न च नवीना इन्धनादि || सामग्री च परिपूर्णा ते सत्वरमेव निष्पधन्ते, शेपास्तु मन्द, ततस्तेषामपि मतेन कदाचिम्मिश्रस्याप्यचित्तत्वसम्भावनया ग्रहणासङ्गः, कदाचित्पुनरचित्तीभूतस्यापि मिश्रत्वशङ्कासम्भवादग्रहणमिति त्रयोऽप्यनादेशाः ॥ सम्पति यः प्रवचनाविरोधी आदेशः प्रागुपदिष्टस्त विभायिघुराह
जाव न बहुप्पसन्नं ता मीसं एस इत्थ आएसो। होइ पमाणमचित्तं बहुप्पसन्नं तु नायब्वं ॥२१॥
व्याख्या-यावत्तण्डुलोदकं न बहुप्रसन्न' नातिस्वच्छीभूतं तावन्मिश्रमगन्तव्यम्, एषः 'अत्र' मिश्रविचारपक्रमे भवत्यादेशः प्रमाणं, न शेषः, यत्तु 'बहुप्रसन्नम्' अतिस्वच्छीभूतं तदचितं ज्ञातव्यं, ततोऽचित्तत्वेन तस्य ग्रहणे न कश्चिदोषः ।। उक्तो मिश्रोऽप्कायः, अधुना तमेवाचित्तमाह
सीउण्हखारखत्ते अग्गीलोणूसअंबिलेनेहे । वुकंतजोणिएणं पओयणं तेणिम होइ ॥ २२ ॥ व्याख्या---इयं गाथा मागिव व्याख्पेया, नवरं पृथिवीकायस्थानेऽकायाभिलापः कर्तव्यः । इह या वकायपरकायशत्रपोजना द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया वाऽचित्तत्वभावना सापि मागिव यथायोगमकायेऽपि भावनीया । तथा यदा दधितैलादिसत्केषु घटेषु क्षिप्तस्य
शुद्धजलादेरुपरि दध्यायवयवसका तरी जायते तदा सा यदि परिस्थूरा त:कया पौरुष्या तत्परिणमति, मध्यमभावा चेत्तद्विाभ्यां पौरुषीदाभ्यां, स्तोका चेतहि तिमभिः पौरुषीभिरिति ।। इह तेन व्युक्रान्तयोनिकेनाप्कायेनेदं प्रयोजनमित्युक्तम् , अतस्तदेव दर्शयति---
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[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [३०] → “निर्युक्तिः [२३] + भाष्यं [७] + प्रक्षेपं [[" ←
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्यु
तेर्मलयगि
यावृतिः
॥ ११ ॥
परिसेयपियणहत्याइधोवणं चीरधोवणं चैत्र । आयमण भाणधुवणं एमाइ पओयणं बहुहा ॥ २३ ॥
व्याख्या -- परिषेको - दुष्टव्रणादेरुत्थितस्योपरि पानीयेन परिषेचनं, पानं वडपनोदाय जलस्याभ्यवहरणं, 'हस्तादिधावनं ' करचरणप्रभृतिशरीरावयवानां कारणमुद्दिश्य प्रक्षालनं, ' चीवरघावनं ' वस्त्रपक्षालनम् अस्य भिन्नविभक्तिनिर्देशो न सदैव साधुनोपधिप्रक्षालनं कर्त्तव्यमिति प्रदर्शनार्थः, 'आचमनं' पुरीषोत्सर्गानन्तरं शौच करणं 'भाणधुवणं' ति पात्रकादिभाजनप्रक्षालनम्, एवमादिकम्, आदिशब्दात् ग्लानकार्यादिपरिग्रहः, अचित्तेनाप्कायेन प्रयोजनं, 'बहुधा ' बहुप्रकारं द्रष्टव्यम् ॥ इह चीवरधावनमित्युक्तं तच संयतानां वर्षाकालादर्वाक् कल्पते न शेषकालं, शेषकाले त्वनेकदोपसम्भवात् तानेव दोषान् दर्शयति
उउबद्ध ध्रुवण बाउस बंभविणासो अठाणठवणं च । संपाइनबाउवही पावण भूओवघाओ य ॥ २४ ॥
व्याख्या - वर्षाकालस्य प्रत्यासन्नं कालमपहाय शेषे ऋतुबद्धे काले चीवरस्य धावने चरणं वकुशं भवति, उपकरणवकुशत्वात्, तथा ● 'ब्रह्मविनाशः' मैथुनप्रत्याख्यानभङ्गः, प्रक्षालितवासः परिधानभूषितशरीरो हि विरूपोऽपि रमणीयत्वेन प्रतिभासमानो रमणीनां रमणयोग्योऽयमिति प्रार्थनीयो भवति, किं पुनः शरीरावयवरामणीयकोपशोभितः ?, ततः समस्तकामिनीनां प्रार्थयमानानां सललितदर्शित तिर्यग्वलिताक्षनिरीक्षणाङ्गमोटनव्याजोपदर्शित कक्षा मूलसद्वृत्ततारमणीयपीनकठिन पयोधरविस्तारगम्भीरनाभी प्रदेशपरिभावनतोऽवश्यं ब्रह्मचर्यादपभ्रंशमधिश्रयते, तथा अस्थानस्थापनम् इयमंत्र भावना-यदि नाम कथञ्चित्तत्त्ववेदितया संयमविषय निष्प्रकम्पनृत्यवष्टम्भतो न ब्रह्मचर्यादपत्रइयति, तथाऽपि लोकेन सोऽस्थाने स्थाप्यते, यथा नूनमयं कामी, कथमन्यथाऽऽत्मानमित्थं भूषयति ?, न खल्वकामी मण्डनप्रियो भवतीति, तथा
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अप्कायपिपिण्डनिक्षेपे
॥ ११ ॥
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३१] .→ “नियुक्ति: [२४] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||२४||
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संपातिमाना मक्षिकादीनां प्रक्षालनजलादिषु निपततां वायोश्च वधः' विनाशो भवति, तथा 'प्लावनेन' प्रक्षालनजलपरिष्ठापने पृथिव्या रेलणेन भूतोपघातः' पृथिव्याश्रितकीटिकादिसचोपमदों भवति, तस्मान्न ऋतुबद्ध काले वस्त्रं प्रक्षालनीयम् ।। नन्वेते दोषा वर्षाकालादा-| गपि धावने सम्भवन्ति ततस्तदानीमपि न चीवराणि प्रक्षालनीयानि, तन्न, तदानीं चीवरामक्षालनेऽनेकदोषसम्भवात् तानेवाह
अइभार चुडण पणए सीयलपाउरणऽजीरगेलण्णे । ओहावणकायवहो वासासु अ धोवणे दोसा ॥ २५ ॥ ।
व्याख्या-इह वर्षाकालादोगपि यदि वासांसि न प्रक्षाल्यन्ते तदानीम् ' अतिभारः' गुरुत्वं वस्त्राणां भवति, तथाहि-वासांसि मलविद्धानि यदा जलकणानुषक्तसमीरणमात्रेणापि स्पृष्टानि भवन्ति तदाऽपि स मलः क्लिनीभूय-दृढतरं वस्त्रेषु सम्बन्धमापद्यते, कि पुनर्वासु सर्वतः सलिलमयीषु ?, ततो वर्षासु क्लिन्नमलसम्पर्कतो वासांसि गुरुतरभाराणि भवन्ति, तथा 'चुडणन्ति वाससा वर्षा-2 कालादब्बोगप्यधावने वर्षासु जीर्णता भवति शाटो भवतीत्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-यदि नाम वर्षाकालाद|गपि वस्त्राणि न प्रक्ष्याल्यन्ते ततो वर्षामु तेषां मलक्लिन्नतया जीर्णताभवनेन शाटो भवति, न च वर्षास्वभिनववस्त्रग्रहणं, न चाधिकः परिग्रहः, ततो ये वस्त्राभावे दोषाः समये प्रसिद्धास्ते सर्वेऽपि यथायोगमुपढौकन्ते इति, तथा मलक्लिन्नेषु वखेषु शीतलजलकणसंस्पर्शतो मलस्याद्रीभावतः 'पनकः' वनस्पतिविशेषः प्राचुर्येणोपजायते, तथा च सति माणिव्यापादनासक्तिः, तथा निरन्तरं सर्वतः मसरेण निपतति वर्षे शीतले च मारते वाति मामलस्याद्रीभावतः शीतलीभूतानां वाससां प्रावरणे भुक्ताऽऽहारस्याजीर्णतायाम्-अपरिणती 'ग्लानता' शरीरमान्धमुज्जृम्भते, तथा च सति
प्रवचनस्यापभाजना, यथा-अहो बठरशिरोमणयोऽमी तपखिनो न परमार्थतस्तत्त्ववेदिनो ये नाम वर्षांखप्रक्षालितानां वाससां परिभोगे| |मान्यमुपजायते इत्येतदपि नावबुध्यन्ते ते पृथग्जनापरिच्छेयं स्वर्गापवर्गमार्गमवगच्छन्तीति दुःश्रद्धेयं, तथा वर्षास्वमक्षालितानि वस्त्राणि
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[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [३२] → “निर्युक्तिः [२५] + भाष्यं [७] + प्रक्षेपं [[" ←
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
॥ १२ ॥
प्रानृत्य भिक्षार्थं विनिर्गतस्य साधोर्मेषदृष्टौ मलिनवकम्बलसम्पर्कतोऽकायचिराधना भवति एते 'वर्षास्विति वर्षाकालप्रत्यासन्नोऽपि कालो वर्षा इत्युच्यते, तत्सामीप्यात् भवति च तत्सामीप्यात्तच्छदव्यपदेशो यश गङ्गायां घोष इत्यत्र, ततो 'वर्षासु वर्षाप्रत्यासन्ने काले वस्त्रादीनामप्रक्षालने दोषाः तस्मादवश्यं वर्षाकालादर्वागू वासांसि मशालनीयानि । ये च सम्पातिमसत्वोपयातादयो दोपार्थीवर* प्रक्षालने प्रागुक्तास्तेऽपि सूत्रोक्तनीत्या यतनया प्रवर्त्तमानस्य न सम्भवन्तीति वेदितव्यम् । यो हि सूत्राज्ञामनुसृत्य यतनया सम्यक् प्रवर्त्तते स यद्यपि कथञ्चित्प्राण्युपमर्दकारी तथापि नासौ पापभाग भवति, नापि तीव्रप्रायचितभागी, सूत्रबहुमानतो यतनया प्रवर्त्त मानत्वात्, वक्ष्यति च सूत्रम्- 'अपत्ते चिय वासे सबं उबहिं ध्रुवंति जयणाए' इति, ततो न कश्विदोषः, नापि तदा वस्त्रपक्षालने वकुशं चरणं, सूत्राज्ञया प्रवर्त्तमानत्वात् नाप्यस्थानस्थापनदोषो, लोकानामपि वर्षासु वाससामप्राक्षलने दोषपरिज्ञानभावात् न चैतेऽनन्तरोक्ता अतिभारादयो दोषा ऋतुबद्धे काले वाससामप्रक्षालने सम्भवन्ति, तस्मान्न तदा प्रक्षालनं युक्तमिति स्थितम् । सम्मति वर्षाकालादर्धा* गपि यावानुपधिरुत्कर्षतो जघन्यतथ प्रक्षालनीयो भवति तावत्तमभिधित्सुराह
पिण्डनिर्युमलयगि यावृत्तिः
अप्पत्तेच्चिय वासे सव्वं उवहिं धुवति जयणाए । अस इए उदवस्त य जहन्नओ पाय निज्जोगो ॥ २६ ॥
'अप्राप्ते एव ' अनायते एव 'वर्षे' वर्षाकाले, वर्षाकालात् मनागर्योक्तने काले इत्यर्थः, जलादिसामग्र्यां सत्यां ' उपधिम् उपकरणं यतनया यतयः मक्षालयन्ति, 'द्रवस्य जलस्य पुनः 'असति' अभावे, जघन्यतोऽपि पात्रनिर्योगोऽवश्यं प्रक्षालनीयः इह निस्पूर्वी युजिरुपकारे वर्त्तते, तथा चोक्तं-' पाठो दुखले निज्जोगो उपयारो' इति, ततो निर्युज्यते - उपक्रियतेऽनेनेति नियोग-उपकरणम्, १ अप्राप्तायामेव वर्षायां सर्वमुपचि प्रक्षालयन्ति यतनया ।
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अप्कायपि पिण्डनिक्षेपे
॥ १२ ॥
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं ! → “नियुक्ति: [२६] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२६||
अकर्तरीत्यनेन बञ् प्रत्ययः, पात्रस्य नियोगः पात्रनिर्योगः-पात्रोपकरणं पात्रकबन्धादिः, उक्तं च-"पेत्तं पत्ताबंधो पायहवणं च पायके सरिया । पटलाई रयत्ताणं च गोच्छओ पायनिज्जोगी।" इति । आह-कि सब्येषामेव वस्त्राणि वर्षाकालादागेव पक्ष्याल्यन्ते ? कि वास्ति केपाश्चिद्विशेषः ?, अस्तीति ब्रूमः ।। केषामिति चेदत आह| आयरिय गिलाणाण य मइला मइला पुणोऽवि धावति । मा हु गुरूण अवण्णो लोगंमि अजीरणं इयरे ॥ २७॥
व्याख्या-इह ये कृतपूविणो भगवत्मणीतप्रवचनानुगताचारादिशास्त्रोपधानानि अधीतिनः स्वसमयशानेषु ज्ञातिनः सकलस्वपरसमयशाखार्थेषु कृतिनः कारितिनश्च पञ्चविधेष्वाचारेषु प्रवचनार्थव्याख्याधिकारिणः सद्धम्मदेशनाऽभियुक्ताः सूरयस्ते आचार्याः, आचार्यग्रहणमुपलक्षणं तेनोपाध्यायादीनां प्रभूणां परिग्रहः, तेषां, तथा 'ग्लानाः' मन्दाः तेषां च, पुनः पुनः मलिनानि वस्त्राणि 'धाव्यन्ते प्रक्षाल्यन्ते, मलिनानीत्यत्र नपुंसकत्वे प्राप्तेऽपि सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतलक्षणवशात् , तथा चाह-पाणिनिः स्वमाकृतलक्षणे-"लिङ्ग व्यभिचार्यपी"ति, प्रस्तुतेऽर्थे कारणमाह-'मा हु' इत्यादि, मा भवतु, 'हु' निश्चितं, गुरूणां मलिनवलपरिधाने लोके ' अवर्णः' अ-14 श्लाघा, यथा-निराकृतयोऽमी मलदुरभिगन्धोपदिग्धदेहास्ततः किमेतेषामुपकाउंगतैरस्माभिरिति, तथा 'इतरस्मिन् ' ग्लाने मा भवत्वनीमिति भूयो भूयो मलिनानि तेषां प्रक्षाल्यन्ते । सम्पति ये उपधिविशेषा न विश्रभ्यन्ते तनामनाई गृहीत्वा तेषां धावने विधिमाह
पायरस पडोयारो दुनिसिज्ज तिपट्ट पोत्ति रयहरणं । एए उन बीसामे जयणा संकामणा धुवर्ण ॥२८॥ १ पात्रं पात्रबन्धः पात्रस्थापनं च पात्रकेशरिका । पटला रजत्राणं च गोच्छकः पात्रनियोगः ॥ १ ॥
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| पिण्डनिक्षेपे वस्त्र-धावन विधि:
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३५] .→ “नियुक्ति: [२८] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं . . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२८||
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पिण्डनियु-18
व्याख्या-प्रत्यवतायते पात्रमस्मिन्निति प्रत्यवतार:-उपकरणं पात्रस्य प्रत्यवतार:-पात्रवः पात्रनियोगः पदुिधः, तथा रजोहर- पिण्डनिक्षेपे मलयगि
माणस्य सक्ते द्वे निपये, तद्यथा-बाह्या अभ्यन्तरा च, इह सम्पति दशिकाभिः सह या दण्डिका क्रियते सा सूत्रनीत्या केवलैव भवति न वस्त्रधावनं रीयावृत्तिः
सदशिका, तस्या निपद्यात्रयं, तब या दण्डिकाया उपरि एकहस्तप्रमाणायामा तियग्वेष्टकत्रयपृथुत्वा कम्पलीखण्डरूपा सा आद्या निषद्या, तस्याश्चाग्रे दशिकाः सम्बध्यन्ते, तां च सदशिकामने रजोहरणशब्देनाचार्यों ग्रहीष्यति, ततो नासाविह ग्राह्या, द्वितीया तु एनामेव निषद्यां तिर्यग् बहुभिःष्टकरावेष्टयन्ती किश्चिदधिकहस्तप्रमाणायामा हस्तप्रमाणमात्रपृथुत्वा वखमयी निषद्या सा अभ्यन्तरा निषयोच्यते, तृतीया तु तस्या एवाभ्यन्तरनिषद्यायास्तियन्वेष्टकान् कुर्वती चतुरङ्गलाधिकैकहस्तमाना चतुरस्रा कम्बलमयी भवति, सा चोपवेशनोपकारित्वादधुना पादपोच्छनकमिति रूढा, सा बाह्या निषयेत्यभिधीयते, मिलितं च निषयात्रयं दण्डिकासहितं रजोहरणमुच्यते, ततो रजोहरणस्य सक्ते द्वे निषये इति न विरुध्यते, तथा प्रयः पट्टाः, तद्यथा-संस्तारकपट्ट उत्तरपट्टश्वोलपट्टश्य, एते च सुमतीता, तथा 'पोत्ति'त्ति मुखपोतिका, मुखपिधानाय पोत-वस्त्रं मुखपोतं मुखपोतमेव इस्वं चतुरङ्गलाधिकक्तिस्तिमात्रप्रमाणत्वात् मुखपोतिका, मुखवत्रिकेत्यर्थः, 'अतिवर्त्तन्ते । ||स्वार्थे प्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानी ति वचनान प्रथमतो नपुंसकत्वेऽपि प्रत्यये समानीते खीत्वं, तथा 'रजोहरणं ति दण्डिकायष्टकवय-18
प्रमाणपृथुत्वा एकहस्तायामा हस्तत्रिभागायामदशापरिकलिता प्रथमा या निषद्या प्रागुक्ता सा रजोहरण, तथा च भाष्यकद्रक्ष्यति-'एगनिसज्जं च रयहरण, बाह्याभ्यन्तरनिषद्यारहितमेकनिषधं सदर्श रजोहरणमिति । एतानुपधिविशेषान् 'न विश्रमयेत्। नापरिभोग्यान् स्थापयेत , कस्मादिति चेत?, उच्यते, प्रतिवासरमवश्यमेतेषां विनियोगभावात् , ततो यतनया-वसान्तरितेन हस्तेन ग्रहणरूपया सक्रम णा-षट्पादिकानामप्रक्षालनीयेषु वस्त्रेषु सङ्क्रमण, सतो धावनं' प्रक्षालनमिति ।। एनामेव गाथां भाष्यकूद गाथात्रयेण व्याख्यानयति
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३५] » “नियुक्ति: [२८] + भाष्यं [८] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
.
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८||
दीप
पायरस पडोयारो पत्तगवजो य पायनिजोगो । दोन्नि निसिज्जाओ पुण अभितर बाहिरा चेव ॥ ८॥ संथारुत्तरचोलग पट्टा तिन्नि उ हवंति नायब्वा । मुहपोत्तियत्ति पोची एगनिसेज्जं च रयहरणं ॥९॥ एए उ न वीसामे पइदिणमुवओगओ य जयणाए । संकामिऊण धोवंति छप्पइया तत्थ विहिणा उ ॥१०॥(भाष्यम्)
व्याख्या-एतास्तिस्रोऽपि व्याख्याता , नवरं 'संकामिऊण' इत्यादि, तत्र विश्रामाभावे सति यतनया पदपदिका अन्यत्र सक्रमय्य विधिना 'धावयंति' प्रक्षालयन्ति ॥ तदेवमविश्रमणीय उपधिरुक्तः, तद्भणनाच शेषो विश्रमणीयोपधिर्गम्यते, ततस्तस्य विश्रमणविधि विभणिषुरिदमाह
जो पुण वीसामिज्जइ तं एवं बीयरायआणाए । पत्ते धोवणकाले उवहिं वीसामए साहू ॥ २९ ॥
व्याख्या-यः पुनरूपधिः प्राप्त धावनकाले-मक्षालनकाले, अनेन अकालमसालने भगवदाज्ञाभङ्गालक्षणं दोषमुपदर्शयति, 'विश्र-12 म्यते' निःशेषषट्पदिकाविशोधनार्थमपरिभुक्तो ध्रियते, तमुपधि वीतरागाऽऽज्ञया' सर्वज्ञोपदेशेन, सर्वशोक्तमवधार्येति भावः, "एवं' वक्ष्यमाणेन प्रकारेण, साधुर्विश्रमयेत् ॥ विश्रमणाप्रकारमेवाह
अभितरपरिभोगं उरि पाउणइ नाइदूरे य। तिन्नि य तिन्नि य एगं निसिं तु काउं परिच्छिज्जा ॥ ३० ॥ व्याख्या-ह साधूनां द्वौ कल्पौ सौमौ एकः कम्बलपयः, तत्र यदा ते प्राब्रियन्ते तदा एकः सौमोऽभ्यन्तरं प्रावियते, शरीर
अनक्रम
1381
~38~
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४०] .. "नियुक्ति: [३०] + भाष्यं [१०] + प्रक्षेपं . . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियु- कर्मलयगि-
रोयार्तिः
विधिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३०||
॥ १४ ॥
दीप
लमः मावियते इत्यर्थः, द्वितीयः क्षोमस्तस्योपरि, तृतीयः कम्बलमयस्तस्याप्युपरि, ततः प्रक्षालनकाले विश्रमणाविधिमारम्भे रात्रौ स्वपन | पिण्डनिक्षेपे अभ्यन्तरपरिभोग सदैव शरीरेण सह संलग्नं परिभुज्यमानं क्षौम कल्पमुपरि शेषकल्पद्वयादहिखीणि दिनानि यावत्पाहणोति येन तत्स्थाः वधावनषट्पदिकाः क्षुधा पीब्यमाना आहारार्थम् अथवा शीतादिना पीब्यमानास्तं बहिः प्राब्रियमाणं कल्पमपहायान्तरे कल्पवये शरीरे वा लगति, एष प्रथमो विश्रमणाविधिः, एवं त्रीणि दिनानि प्रावृत्य ततस्त्रीप्येव दिनानि यावदात्री स्वापकाले नातिदुरे स्थापयति, किमुक्तं भवति ?-स्वापकाले संस्तारकतट एवं स्थापयति, येन प्रथम विश्रमणविधिना या न निःमता: पटपदिकास्ता अपि क्षुधा पीढयमाना आहारार्थ ततो विनिर्गत्य संस्तारकादौ लगन्ति, एप द्वितीयो विश्रमणाविधिः, तत एका 'निशां' रात्रिं, तुः समुच्चये, स्वपन | स्वापस्थानस्योपरि लम्बमानमधोमुखं शरीरलनभायपर्यन्तं प्रसारितं कृत्वा संस्थापयेत्, संस्थाप्य च पश्चात्परीक्षेत, दृष्ट्या प्रावरणेन च षट्पदिका निभालयेत्, तद्यथा-प्रथमं तावदृष्टया निभालयेत् , दृड्या निभालिता अपि यदि न दृष्टास्ततः सूक्ष्मपदपदिकारक्षणार्थ भूयः शरीरे प्राकृणोति, येन ता आहारार्थ शरीरे लगन्ति, एवं परीक्षणे कृते यदि ता न स्युस्तदा प्रक्षालयेत् , अथ स्युस्तीह पुनः पुनर्निोल्य यदा न सन्तीति निश्चितं भवति तदा प्रक्षालयेत्, एवं सप्तभिर्दिनैः कल्पशोधना, एतदनुसारेण शेषस्याप्युपधेः शोधना भावनीया । इह विश्रमणा प्रक्षालनीयस्यापरिभोगरूपा उक्ता, ततो यत्तस्य वहिः प्रावरणादिरूपः परिभोगः स परमार्थतोऽपरिभोग इति न तदा विश्रमणा विरुध्यते । एनामेव गायां भाष्यकृद् व्याख्यानयतिधोवत्थं तिन्नि दिणे उवरि पाउणइ तह य आसन्नं । धारेइ तिन्नि दियहे एगदिणं उबरि लंबतं ॥११॥ (भा०)
इयं व्याख्यातार्था । अत्रैव विश्रमणाविधौ मतान्तरमाह
अनक्रम
[४०]
For P
OW
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४१] .. "नियुक्ति: [३१] + भाष्यं [११] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१||
दीप
केई एकेकनिास संवासेउं तिहा परिच्छंति । पाउणइ जइ न लग्गंति छप्पइया ताहि धोवति ॥ ३१॥
व्याख्या केचिद् एके सूरय एचमाहुरेकैका 'निशा' रात्रि विधा' त्रिभिः प्रकारैः पूक्तिः संवास्प तयथा-एकां निशां शोध-15 नीय कल्प यहिः पाहणोति, द्वितीयां निशं संस्तारकतटे स्थापयति, तृतीयां तु निशां स्वपन स्वापस्थानस्योपरि लम्बमानमधोमुखं प्रसा-15 रितं शरीरलनमायपर्यन्तं स्थापयति, एवं त्रिधा संवास्य 'परीक्षन्ते ' दृष्ट्या निभालयन्ति, निभालितान्न दृष्टास्ततः सूक्ष्मपदपदिकाविशोधनार्थ शरीरे प्राकृण्वन्ति, पाटने च यदि 'न लगति' न लगाः प्रतिभासन्ते पदपदिकास्ततः प्रक्षालयन्ति, लगन्ति चेचहि भूयो भूयस्ताबदृष्टया शरीरमावरणेन च परीक्षन्ते यावन्न सन्तीति निश्चितं भवति, ततः प्रक्षालयन्तीति, एषोऽपि विधिरदूषणात्समीचीन इवाऽऽचार्यस्य प्रतिभासत इति मन्यामहे ॥ वखप्रक्षालनं च जलेन भवति, अतो जलग्रहणे विधिविशेषमाह
निब्बोदगस्स गहणं केई भाणेसु असुइ पडिसेहो । गिहिभायणेसु गहणं ठिय वासे मीसगं छारो ॥ ३२ ॥ ___ व्याख्या-वर्षामु गृहच्छादनमान्तगलितं जलं नीबोदकं तस्य, इद्द यदि वर्षाकालादाक् सोऽप्युपधिः कथञ्चित्सामय्यभावतो न प्रक्षालितस्तहि प्राप्ते वर्षे सति साधुभिनीबोदकस्य-गृहपटलान्तोत्तीर्णस्य जलस्य वस्खपक्षालनार्थ ग्रहणम्' आदानं कर्तव्यं, तद्धि रजोगुण्डितधूमधूम्रीकृतदिनकरातपसम्पर्कमोष्मतीव्रसंस्पर्शतः परिणतत्वादचित्तम् , अतस्तद्हणे न काचिद्विराधना, नीबोदकस्य ग्रहणे केचिदामाहु-भाजनेषु' स्वपात्रेषु नीत्रोदकस्य ग्रहणं कर्त्तव्यमिति, अनाऽचार्य आह–'अमुइ पडिसेहो' 'अनुचि भावप्रधानोऽयं निर्देशः,ततो-11
यमर्थ:-अशुचित्वाद्' अपवित्रत्वात्परोक्तविधिना नीबोदकग्रहणस्य प्रतिषेधः, नीबोदकं हि मलिनं मलिनत्वाचाशुचि ततः कथं येषु पात्रेषु |भोजन विधीयते तेषु तस्य ग्रहण पपत्रं भवति ?, मा भूत लोके प्रवचनगहों यथाऽमी अशुचय इति, ततः 'गृहिभाजनेषु' गृहिसत्केषु कु
अनक्रम
॥४२॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४३] .. "नियुक्ति: [३२] + भाष्यं [११...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३२||
दीप
पिण्डनियु-[ण्डिकादिषु भनेषु तस्य नीबोदकस्य ग्रहणं, तब नीबोदकग्रहण 'स्थिते' निवते 'वर्षे' वृष्टी, अन्तर्मुह दूर्द्धमिति गम्पते, अन्तर्महन पिण्ड निक्षेपे
सर्वात्मना परिणमनसम्भवात् , नास्थिते, किमित्याह-'मीसगति मिश्र, निपतति वर्षे नीबोदकं मित्रं भवति, तथाहि-पूर्व निपतित- वस्खधावने रीयावृत्तिः
मचिनीभूतं तत्कालं तु निपतत्सचित्तमिति मिश्र, ततः स्थिने वर्षे तत्मतिमाहवं, तस्मिश्च प्रतिगृहीते तन्मध्ये 'छारो' ति क्षारः प्रक्षेपणीयो जलग्रहः ॥१५॥ येन भूयः सचित्तं न भवति, जलं हि केवलं मासुकीभूतमपि भूयः प्रहरत्रयाय सचित्तीभवति, ततस्तन्मध्ये क्षारः प्रक्षिप्पने, अपि च
क्षारक्षेपे समलमपि जलं प्रसन्नतामाभजति, प्रसनेन च जलेन प्रक्षाल्यमानान्याचार्यादिवासांसि सुतेजांसि जायन्ते, तत एतदर्थमपि क्षारप्रक्षेपो न्याय्यः ।। सम्पति धावनगतमेव क्रमविशेषमाह
गरुपकाक्खाणिगिलाणसेहमाईण धोवणं पुवं । तो अप्पणो पब्वमहाकडे य इयरे दुवे पच्छा ॥ ३३ ॥ ___व्याख्या-गुरुमस्याख्यानिग्लानशक्षादीनां 'पूर्व प्रथम धावनं कुर्यात् 'ततः' पश्चादात्मनः, इयमत्र भावना-इह साधुभिः परमहितमात्मनः समीक्षमाणैरवश्यं गुवादिषु विनयः प्रयोक्तव्यः, विनयवलादेव सम्पग्दर्शनज्ञानचारिद्धिसम्भवाद, अन्यथा दुर्विनी-| तस्य सतो गछयासस्यैषासम्भवतः सकलमूलहानिप्रसक्तः, ततो धावनप्रवृत्तेन साधुना प्रथमतो गुरूणाम्-आचार्याणां वासांसिप्रक्षालनी-18 यानि, ततः प्रत्याख्यानिना-क्षपकमभृतीनां तदनन्तरं ग्लानानां ततोऽपनन्तरं शैक्षकादीना, तत्र शेक्षा अभिनवप्रनजिता आदिशब्दाद्वालादिपरिग्रहा, सूत्रे च 'सेहमाईण' इत्यत्र मकारोऽलाक्षणिकः, 'ततः तदनन्तरमात्मनः, इह सर्वेषामपि गुर्वादीनां यथायोग त्रिविधान्यपि प्रक्षालनीयवखाणि सम्भवन्ति, तद्यथा-यथाकृतान्यल्पपरिकर्माणि बहुपरिकर्माणि च, तत्र यानि परिकर्मरहितान्येव तथारूपाणि लब्धानि तानि यथाकृतानि, यानि चैकं वारं खण्डित्वा सीवितानि तान्पलपरिकर्माणि, यानि च बहुधा खण्डित्वासीवितानि तानि बहुपरि
अनुक्रम
[४३]
SARERainintenatural
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४४] » “नियुक्ति: [३३] + भाष्यं [११...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||३३||
दीप
कर्माणि, ततस्तत्रापि धावनक्रममाह-'पुग्वमहागडे यत्ति, पूर्व प्रथमं सर्वेषामपि यथाकृतानि वासांसि धारयेत्, पश्चास्त्रमेण इतरे दे, किमर्थमिति चेत् ? उच्यते-विशुद्धाध्यवसायस्फातिनिमित्तं, तथाहि-यान्यल्पपरिकम्माणि तानि बहुकम्मापेक्षया स्तोकसंयमव्याघातकारीणि भवन्तीति तदपेक्षया शुद्धानि, तेभ्योऽपि यथाकृतान्यतिशुद्धानि, मनागपि पलिपन्धदोपकारित्वाभावाव, ततो यथा यथा पूर्व पर्व शुद्धानि प्रक्षाल्पन्ते तथा तथा संपमबहुमानढद्धिभावतो विशुद्धाध्यवसायस्फातिरिति पूर्व यथाकृतानीत्यादिक्रमः । सम्पत्ति प्रक्षालनक्रियाविधिमुपदर्शयति
___ अच्छोडपिट्टणासु य न धुवे धोए पयावणं न करे । परिभोग अपरिभोगे छायायव पेह कल्लाणं ॥ ३४॥ __ व्याख्या-इह वस्त्राणि धावन् आच्छोटनपिट्टनाभ्यां न धावेत् , तत्र आच्छोटनं-रजकरिव शिलायामास्फालनं पिट्टन-धनहीनरण्डारमणीभिरिव पुनः पुनः पानीयप्रक्षेपपुरस्सरमुयात्विट्टनेन कुट्टनं, सूत्रे च सप्तमी तृतीयाऽर्थे, यथा 'तिम तेमु अलहिन्या पुहवी' इत्यादी, तृशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः, स च पाणिपादन प्रमृज्य प्रमुज्य यतनपा प्रक्षालयेदिति समुचिनोति, ततो 'धौते ' प्रक्षालिते, धावनजलस्पर्शजनितशीतापनोदायात्मनो वखस्य वा शोषणायाग्नेः प्रतापनं न कुर्यात्, मा भूत धावनजलाद्रीभूतहस्तादितो वखतो या कथश्चिद्विन्दुनिपातेनानिकायविराधना, यद्येवं तहि कथं वस्त्रस्य शोषणं कर्तव्यमिति शोषणविधिमाइ-परिभोग्यानि आरिभोग्यानि च यथा-1 क्रमं छायाऽऽतपपोशोपयेत् , सूत्रे च विभक्तिलोप आपत्वात , परिभोम्येषु दि वाघु तथा पूर्व शोधितेष्वपि कथश्चित् पट्पदिकाः सम्भवन्ति, सा च प्रक्षालनकाले तथोपमर्दिताऽपि कथञ्चिजीविता सती दिनकराऽऽतपसम्पर्क म्रियन्ते, ततस्तद्रक्षणार्थ तानि छायायां शोषयेत् ,
१ त्रिभिस्तैरलयकृता पृथ्वी।
अनक्रमा
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३४||
दीप
अनुक्रम [४५]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ४५] • → "निर्युक्तिः [३४] + भाष्यं [१९... ] + प्रक्षेपं
८०
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्युतेर्मलयगि
रीयावृत्तिः
५१६ ।।
इतराणि त्वातपे, दोषाभावात्, तानि च छायायामावपे च शेोषार्थी विसारितानि निरन्तरं 'पेहि'त्ति प्रेक्षेत, येन परास्कन्दिनो नापहरन्ति इह पूर्वोक्तविधिना यतनापुरस्सरमपि धाव्यमानेषु वस्त्रेषु कथञ्चिद्वायुविराधनारूपः षट्पदकोपमर्दादिरूपो वाऽयमोऽनि सम्भा - व्यते, ततस्तच्छुद्धधर्थं तस्य साधेोर्गुरुणा कल्याणसंज्ञं प्रायश्चित्तं देयम् ॥ तदेवमुक्तः समपञ्चमप्कायपिण्डः, सम्मति तेजस्कायापेण्डमाहतिविहो उक्काओ सच्चित्तो भीसओ य अचित्तो। सच्चितो पुण दुविहो निच्छयववहारओ चेव ॥ ३५ ॥
व्याख्या — त्रिविधस्तेजस्कायः, तद्यथा-सचित्तो मिश्रोऽचित्त, सचित्तः पुनद्विविधः- निश्रयतो व्यवहारत । निश्रयव्यवहा राभ्यामेव सचित्तस्य द्वैविध्यमाह
इगपागाईणं बहुमज्झे विज्जुमाइ निच्छ्यओ । इंगालाई इयरोति
व्याख्या - इष्टकापाकः प्रतीतः, आदिशब्दात् कुम्भकारपाकेक्षुरसकथनतुल्या (चुल्या) दिपरिग्रहः, तेषां च बहुमध्यभोग विदादिश्य, विद्युदुकाप्रमुखतेजस्कायो निश्रयतः सचित्तः, शेषस्त्वङ्गारादिकः, 'अङ्गारः 'ज्याकारहितोऽग्निः, आदिशब्दाद् ज्वालादिपरिग्रहः, व्यवहारतः सचित्तः ॥ सम्मति मिश्रं तेजस्काय माह
मुम्मुरमाईड मिस्सो उ ॥ ३६ ॥
व्याख्या -'मुर्मुरः ' कारीषोऽग्निः आदिशब्दाद देविध्यातादिपरिग्रहः, इत्थंभूतो मिश्र इति ॥ साम्प्रतमचित्तं तेजस्कायपिण्डमाह
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अथ तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय पिण्ड विषयक वर्णनं क्रियते
For Parts Only
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पिण्डनिक्षेपे तजस्कायः
।। १६ ।।
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४८] .. "नियुक्ति: [३७] + भाष्यं [११...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||३७||
ओयणवंजणपाणगआयामुसिणोदगं च कुम्मासा । डगलगसरक्खसूई पिप्पलमाई उ उवओगो ॥ ३० ॥
व्याख्या-ओदनः-शाल्पादि भक्तं व्यञ्जन-पत्रशाकतीमनादि पानकं काजिक, तत्र झवश्रावण प्रक्षिप्यते, ततस्तदपेक्षया काजिकस्याग्निकायता आयामम्-अवश्रावणम् उष्णोदकम्-उवृत्तत्रिदण्डम्, एतेषां च पदानां समाहारद्वन्दा, चकारो मण्डकादिसमुच्चयार्थः, 'कुहाल्मापाः' पक्वा मापाः, एते चौदनादयोऽग्निनिष्पन्नत्वेनानिकार्यत्वादग्नयो व्यपदिश्यन्ते, भवति च तत्कार्यत्वात्तच्छन्देन व्यपदेशो यथा ॥
दम्मो भतितोऽनेनेत्यादी, ओदनादयश्चाचित्तास्तत एतेषामचित्ताग्निकायत्वेनाभिधानं न विरुध्यते, तथा 'डगलकाः' पकेटकानां खण्डानि 'सरजस्कः' भस्म 'सूची' लोहमयी वस्त्रसीवनिका, अथवा सरक्खसूइत्ति रक्षा-भस्म सह रक्षया वर्तते इति सरक्षा सूची, किमुक्तं भवति?-रक्षा सूची चेति, 'पिप्पलकः किश्चिदकः क्षुरविशेषा, आदिशब्दानखरदनिकादिपरिग्रहः, एतानि च गलकादीनि पूर्वमग्नि
रूपतया परिणतान्यासीरन्, ततो भूतपूर्वगत्या सम्मस्पप्यामिकायत्वेन ध्यपदिश्यन्तेऽचित्तानि च, न चैतेपामचिचामिकायत्वाभिधाने विविरोधः ।। सम्मत्यचित्तानिकायस्य प्रयोजनमाह-उबओगो' एतेषामोदनादीनां य उपयोगो-भोजनादावृपयुज्यमानता तदचिचाग्नि
कायेन साधनां प्रयोजन, द्रव्यादिभेदाच चतुर्विधत्वमचिचाग्निकायस्थ प्रागिव यथायोगं भावनीयम् ।। उक्तस्तेजस्कायपिण्डः, सम्मति वायुकायपिण्डमाह
बाउकाओ तिविहो सच्चित्तो मीसओ य अच्चित्तो। सच्चित्तो पुण दुविहो निच्छयववहारओ चे ॥ ३८ ॥
व्याख्या-वायुकायखिविधः, तयथा-सचित्तो मिश्रोऽचित्तश्च, सचित्तः पुनधिा-निश्चयतो व्यवहारतश्च ।। एतदेव निश्चयव्यवहाराभ्यां सचित्तस्य वैविध्यमचित्तं चाह
दीप
अनुक्रम
[४८]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१०] » “नियुक्ति: [३९] + भाष्यं [११...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियुकेमेलपगि-1 रीयावृत्तिः
पिण्डनिक्षेपे वातकायः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३९||
॥१७॥
दीप
सवलय घणतणुवाया अइहिम अइदुहिणे य निच्छयओ। वबहार पाइणाई अताई य अचित्तो ॥३९॥
व्याख्या-सह वलयैर्वर्तन्ते इति सवलया ये 'पणतणुवाय 'त्ति वातशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, घनवातास्तनुवाताच, किमुक्तं भवति?-ये नरकपृथिवीनां पार्थेषु घनवातास्तनुवाता वा वलयाकारेण व्यवस्थिता वलपशब्दवाच्याः, ये च नरकथिवीनामेवाधस्ताद् धनवातास्तनुवाताच, तथा ' अइहिम अइदुर्बिणे अति अतिशयेन हिमे निपतति अतिशयेन च 'दुर्दिने मेघतिमिरे मेधैर्गगनमण्डलस्याऽsच्छादने ये वायवः, एष सर्वोऽपि वायुकायो निश्चयतः सचित्तः, अतिहिमातिदुर्दिनाभावे तु या 'प्राचीनादिवातः । पूर्वादिदिग्वातः स व्यवहारतः सचित्ता, यस्तु 'आक्रान्तदिकः' आक्रान्तपनादिसमुत्थप्रभृतिकः पञ्चभकारो वक्ष्यमाणस्वरुपः सोऽचित इति ।। आक्रान्तादिस्वरुपमेवाह
अकंतर्धतघाणे देहाणुगए य पीलियाइसु य । अच्चित्त वाउकाओ भणिओ कम्मट्टमहणेहिं ॥ ४० ॥
व्याख्या-आक्रान्ते-पादेनाकान्ते कर्दमादी यो बातश्चिदिति शब्दं कुर्वन् समुच्छलति, यश्चाध्माते मुखबातभृते इत्यादौ वर्तते यो वा 'घाणे' तिलपीडनयन्त्रे तिलपीडनवशात्सशब्दं विनिर्गच्छन्नुपलभ्यते, यश्च 'देहानुगतः' शरीराश्रितः, उच्छासनिःश्वासबातनि-1 सगरूपः,' पीलितं' सजलं निश्चोत्यमानं वस्त्रादि, आदिशब्दात्तालसन्तादिपरिग्रहः, तेषु च यः सम्भवति वातः एष पञ्चपकारोऽपि वातः कर्माष्टकमधनैरचित्ता प्रतिपादितः ।। सम्पति मिश्र वायुकार्य प्रतिपिपादयिषुटत्यादिस्थस्याचित्तवातकायस्प जले स्थितस्य क्षेत्रमाश्रित्य स्थलस्थितस्य (च) कालमाश्रित्याचित्तादिविभागमाह
अनुक्रम
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१२] .→ “नियुक्ति: [४१] + भाष्यं [११...] + प्रक्षेपं r . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४१||
दीप
हत्थसयमेग गंता दइओ अञ्चित्तु बीयए मीसो। तइयंमि उ सच्चित्तो वत्थी पुण पोरिसिदिणेस ॥४१॥
व्याख्या-इदोर्जुमपाटितेनापनीतमस्तकेन निकर्षितचन्तिर्वतिसर्वास्थ्यादिकचवरेणापरचर्ममयस्थिग्गलकस्थगितापानच्छिद्रेण सङ्कीर्णमुखीकृतग्रीवान्तर्विवरेणाजापश्वोरन्यतरस्य शरीरेण निष्पन्नश्चममयः प्रसेवक: कोत्पलकापरपयोयो इतिः, स चाचित्तमुखवातभृतः। सन् दवरकेण गाढवद्धमुखो नयादिजले प्लाव्यमानः क्षेत्रतो हस्तशतमेकं यावदन्ता तावत्सः 'तिः' इतिस्थो वातकायोऽचित्तः, प्रथमे| च हस्तशतेऽतिक्रान्ते सति द्वितीये प्रविशन् मिश्रो भवति, स च मिश्रस्तावद्भवति यावद् द्वितीयहस्तशतपर्यन्तः, ततो द्वितीये हस्तशतेऽतिकान्ते तृतीये प्रविशन् सचिचो भवति, तत ऊदै सचित्त एक, अधवैकस्मिन्नेव हस्तशते गमनेन आगमनेन पुनर्गमनेन च क्रमेणाचित्तत्वादिकमवगन्तव्यं, यदिवा-हस्तशतगमनकालं परिभाम्पैकस्मिन्नपि स्थाने जलमध्यस्थितस्योक्तक्रमेणाचित्तत्वादिकं परिभावनीयं, इतिग्रहणं चो-18 पलक्षणं तेन वस्तावप्येवं द्रष्टव्यं, बस्तिश्च इतिवत्स्वरूपतो भावनीयः, नवरमपरचर्ममयस्थिम्गलकस्थगितग्रीवान्तर्विवरोऽतिविटतमुखीकृत-18 पाश्चात्यप्रदेशः स विशेषः, तथा 'वत्थी पुण पोरसिदिणेमुनि स्थले स्निग्धं रुक्षं च कालमाश्रित्य ' वस्तिः । बस्तिस्थो वातः, उपलक्षशणमेतत् , तेन दृतिस्थोऽपि वातः स्थलस्थः स्निग्धं रूक्षं च कालमधिकृत्य यथाक्रमं पौरुषीषु दिनेषु चाचित्तादिरुपो वेदितव्यः ॥ एनमेव गाथाञ्चयवं भाष्यकृद् गाथाचतृष्टयेन व्याख्यानयति
निडेयरो य कालो एगंतसिणिहमज्झिमजहन्नो । लुक्खोधि होइ तिविहो जहन्न मझो य उफोसो ॥१२॥ एगंतसिणिहमी पोरिसिमेगं अचेअणो होइ । बिइयाए संमीसो तइयाइ सचेयणो वत्थी ॥ १३ ॥
अनक्रम
[५२]
~46~
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१५] .. "नियुक्ति: [४१] + भाष्यं [१४] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियु
मलयगिरीयातिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१४||
"०"
दीप
मज्झिमनिटे दो पोरिसीउ अञ्चित्तु मीसओ तइए। चउत्थीए सचित्तो पवणो दइयाइ मज्झगओ ॥१४॥ पिण्डनिक्षेपे
वातकायः पोरिसितिगमच्चित्तो निहजहन्नंमि मीसग चउत्थी। सच्चित्त पंचमीए एवं लुक्खेऽवि दिण वुड़ी ॥१५॥ (भा.)
व्याख्या-इह काला सामान्यतो द्विविधः, तद्यथा-स्निग्धो रूक्षश्च, तब यः सजलः सशीतश्च स स्निग्धा, उष्णो रूक्षः, स्निग्धोपि विधा, तयथा-एकान्तस्निग्धो मध्यमो जघन्यश्च, तत्र एकान्तस्निग्धः अतिस्निग्धः, रूक्षोऽपि विधा, तबधा-पन्यो मध्यम उत्कृष्टः उत्कृष्टो नाम अतिशयेन रूक्षः, तत्रैकान्तसिग्धकाले बस्तिगतो वायुकायः उपलक्षणमेतत् तेन रतिस्थोऽपि एका पौरुषी यावदचेतनो । भवति, द्वितीयस्यास्तु पौरुष्याः पारम्भेऽपि मिश्रः, स च तावद्यावत्परिपूर्णा द्वितीया पौरुनी, तृतीयस्यां तु पौरुण्यामादित एवं सचित्तः, तत ऊर्दू सचित्त एव, मध्यमे तु स्निग्धकाले वे पौरुष्यौ यावदचित्तस्तृतीयस्यां तु पौरुष्या मिश्रा,चतुर्यो सचेतनः, जघन्ये च स्निग्धकाले हत्यादिमध्यगतो यायुः पौरुषीत्रिकं यावदचित्तः, चतुर्थपौरुष्या मिश्रा, पञ्चम्यां तु सचेतनः, एवं रूक्षेऽपि द्रष्टव्यं, केवलं तत्र दिनवदिः कर्तव्या, सा चैवं--जघन्यरूक्षकाले वस्त्यादिगतः पवनो दिनमेकमचित्तो द्वितीये दिने मिश्रस्तृतीये सचित्तः, मध्यमरूक्षकाले| दिनद्वपमचित्तस्तृतीयदिने मिश्रचतुर्थदिने सचेतना, उत्कृष्टरक्षकाले दिनत्रयमचित्तश्चतुर्थदिने मिश्रः पञ्चमदिने सचित्तः । सम्पत्यचित्तवायुकायप्रयोजनमाह
॥१८॥ दइएण वस्थिणा वा पओयणं होज्ज वाउणा मुणिणो। गेलन्नंमि व होज्जा सचित्तमीसे परिहरेज्जा ॥४२॥ व्याख्या-तिना' दृतिस्थेन 'वस्तिना' बस्तिस्थेन वेति समुच्चये नयाधुत्तारे प्रयोजनं भवेद्वायुना मुनेः, अनेन जलस्थो वायु
अनक्रम
[१५]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५७] .. "नियुक्ति: [४२] + भाष्यं [१५] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४२||
दीप
बाह्यते, अथवा 'ग्लानत्वे' मन्दत्वे सति वायुना प्रयोजनं भवति, क्वापि हि रोगे हत्यादिना संगृह्य बातोऽपानादौ मक्षिप्यते, अनेन स्थल|स्थो गृहीतः, सचित्तमिश्री तु यत्नतः परिहरेत् , जलमध्ये त्वशक्ये परिहारे प्रायश्चित्तं पश्चादभिगृह्णीयात् । तदेवमुक्तो वायुकायापिण्डः-18
सम्पति बनस्पतिकायपिण्डमाहII वणस्सइकाओ तिविहो सच्चित्तो मीसओ य अच्चित्तो । सच्चित्तो पुण दुविहो निन्छयववहारओ चेव ॥४३॥
व्याख्या-वनस्पतिकायस्त्रिविधः, तयथा-सचित्तो मिश्रोऽचित्तश्च, सचित्तः पुनर्द्विधा, तद्यथा-निश्यतो व्यवहारतश्च ॥ इदमैव । निश्चयव्यवहाराभ्यां सचिवस्य द्वैविध्यं मिथं च प्रतिपादयतिसव्वोऽवऽणंतकाओ सच्चित्तो होइ निच्छयनयस्स । ववहारस्स य सेसो मीसो पव्वायरोट्टाई ॥ १४ ॥
व्याख्या-निचयनयस्य मतेन सर्वोऽपि 'अनन्तकायः वनस्पतिकायः सचित्तो भवति, शेषः पुनः 'प्रत्येकः' निम्बाम्रादिकः । काव्यवहारस्प' व्यवहारनयस्य मतेन सचिचः, मिश्रो म्लानलोट्टादिः, तत्र प्रम्लानः सर्वोऽपि वनस्पतिकायोऽर्द्धशुष्को ज्ञेयः, तत्र हि-योऽश:
शुष्कः सोऽचित्तः शेषस्तु सचित्त इति मिश्रा, 'लोहः' घरट्टादिचूर्णः, तत्र काश्चिन्नखिकाः सम्भवन्ति ताश्च सचित्ताः शेषस्त्वचित्त इति| मिश्रा, आदिशब्दात्तत्कालदलितकणिकादिपरिग्रहः, तत्रापि कियन्तोऽवयवा अद्याप्यपरिणता इति सचित्ताः कियन्तस्त्वचिचा इति मिश्रता : साम्पतमचित्तं वनस्पतिकायमाह
पुष्फाणं पत्ताणं सरडुफलाणं तहेव हरियाणं । बंटमि मिलाणंमी नायव्वं जीवविप्पजढं ॥ १५॥
अनक्रम
५ि७
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६०] » “नियुक्ति : [४५] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४५||
पिण्डनियु- व्याख्या-पुष्पाणां पत्राणां 'शलादुफलानां' कोमलफलाना, तथा 'हरितानां' बीहिकादीनां 'पृन्ते । प्रसवबन्धने ' म्लाने'
पिण्डनिक्षेप मेलयनि- शुष्कमाये ज्ञातव्यं स्वरूपं जीवविषमुक्तम् ।। सम्प्रत्यचित्तवनस्पतिकायस्थ प्रयोजनमाह
वनस्पति रीयात्तिः
पिण्डः संथारपायदंडगखोमिय कप्पा य पीढफलगाई । ओसहभेसज्जाणि य एमाइ पओयणं बहुहा ॥ ४६॥ ॥१९॥
ध्याख्या-येऽमी 'संस्तारकादयः' शय्यापादयः यतिभिरपिसइन्शन्ते, यानि च पाचाणि ये च 'दण्डका दण्डविदण्डादयः || यौ च सौमौ कल्पौ यच्च पीठफलकादिकम् , अादिशब्दात्कपलिकादिपरिग्रहः, यानि औषधानि भेषनानि चेत्येवमादिकं बहुधा' बहुप्रकार प्रयोजनमचित्तवनस्पतिकायस्थ, इह 'औषधानि' केबलहरीतक्यादीनि 'भेषजानि' तु तेषामेव यादीनामेकत्र मीलित्वा चूर्णानि, यद्वाऽन्तरुपयोगीन्यौषधानि चहिरुपयोगीनि प्रलेपादीनि भेषजानि । उक्तो वनस्पतिकायपिण्डः, सम्पति द्वीन्द्रियादिपिण्डचतुष्टयं प्रतिषिपादयिषुस्तत्मयोजन चोपचिक्षिप्मुरिदमाह
बियतियचउरो पंचिंदिया य तिप्पभिइ जत्थ उ समेति । सहाणे सट्ठाणे सो पिंडो तेण कज्जमिणं ॥४७॥
___ व्याख्या-यत्र मेलके स्वस्थाने स्वस्थाने स्वेषाम्-आत्मीयानां स्थानम्-अवस्थानं यत्र तत्र, सजातीयवर्गरूपे इत्यर्थः, द्वित्रिचतुबाप्पञ्चेन्द्रियास्त्रिप्रभृतयः संयन्ति-एकत्र संश्लिष्टा भवन्ति, तथथा-त्रयः त्रयः चत्वारः चत्वार इत्यादि, विप्रभृतिग्रहणं चोपलक्षणं, तेन द्वी द्वावपि, गायत्र संश्लिष्यतः स पिण्डः स्वस्थाने स्वस्थाने इति भूयोऽपि सम्बध्यते, ततोऽषमर्थ:-तेषां द्वीन्द्रियादीनां स्वजातौ स्वजातौ स पिण्डो वेदि-।
१वंडो बाहुपमाणो विडओ कक्खमित्तो उ (दण्डो बाहुप्रमाणो विदण्डकः कक्षामात्रस्तु)
दीप
०००००००००००००००००००० 0400643
अनक्रम
[६०
वा॥१९॥
~49~
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६२] .. "नियुक्ति: [४७] + भाष्यं [१५] + प्रक्षेपं . . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४७||
दीप
तव्यः, सोऽपि च त्रिधा, तद्यथा-सचित्तो मिश्रोऽचित्तश्च, तत्र सचित्तस्त्रिप्रभृतीनां अक्षादीनां जीवतामेकत्र संश्लेषण मिलन, मिश्रस्तेषामेव : केपाश्चिजीवतां केषाश्चिन्मृतानामेकत्र संश्लेषः, अचित्तो जीवविषमुक्तानां तेषामेवाक्षादीनामेकत्र मिलनं, तेन च पिण्डेन अत्र जातावेकवचनं | त' द्वीन्द्रियादिपिण्दै: 'कार्य' प्रयोजनम् 'इदं ' वक्ष्यमाणम् ।। तत्र द्वित्रिचतुष्पिण्डप्रयोजनं सार्द्धगाथयाऽभिधित्सुराह| बेइंदियपरिभोगो अक्खाण ससिप्पसंखमाईणं । तेइंदियाण उद्देहिगादि जंवा वए वेज्जो ॥४८॥
चरिदियाण मच्छियपरिहारो आसमच्छिया चेव ॥ व्याख्या--इह साघोदींन्द्रियादीनां यथासम्भव प्रयोजनं द्विधा, तयथा-शब्देन शरीरेण च, तत्र शब्देन प्रयोजनं शकुनादिपरि-1 भावने, तथाहि-शासशब्दमाकर्ण्यमानं प्रशस्तं महाशकुनमामनन्ति शाकुनिकाः, शरीरेण प्रयोजनं त्रिधा, तद्यथा-सम्पूर्णेन शरीरेण तदेकदेशेन शरीरसम्पर्कसमुद्रतेन चान्येन वस्तुना, तत्रामीषां चतुर्णामपि प्रयोजनानां मध्ये किमपि केषाश्चित्साधूनामुपयोगवद्भवति, पाश्चित्तु चत्वार्यपि, तत्र द्वीन्द्रियाणां सम्पूर्णशरीरेण प्रयोजनं साक्षादभिधत्ते-दीन्द्रियाणां 'परिभोगः ' उपयोगोऽक्षाणां 'सशुक्तियादीनां ' शक्तिशङ्खादिसहितानां, तत्र 'अक्षाः' चन्दनकाः 'शुक्तयः सुप्रतीताः यत्र स्वातिनक्षत्रसम्भविजलसम्पर्कतो मौक्तिकानि जायन्ते, 'शङ्खा शम्बूकाः, आदिशग्दास्कपर्दादिपस्ग्रिहा, तत्राक्षाणां कपर्दकादीनां चोपयोगः समवसरणस्थापनादौ शक्तिकानां | चक्षुःपुष्पकाद्यपनोदादौ, त्रीन्द्रियाणां परिभोगमाह-त्रीन्द्रियाणां परिभोग उद्देहिकादि, इह उद्देहिकाशब्देन उद्देहिकाकृतवल्मीकमृत्तिका परिगृह्यते, आदिशब्दादन्यस्याप्येवंविधस्य त्रीन्द्रियमृत्तिकादेः परिग्रहः, स परिभोगः परिभोगविषयत्वात् , यद्वाऽत्र कर्मसाधनः परि
अनक्रमा
अथ द्वी, त्रि चतुर् पञ्च-इन्द्रियपिण्ड विषयक वर्णनं क्रियते
~50~
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
॥४८॥
दीप
अनुक्रम [ ६३ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ६३ ] • → “निर्युक्तिः [ ४८] + भाष्यं [१५] + प्रक्षेपं
८०
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - ४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्युकर्मलयगिरीयावृत्तिः
॥ २० ॥
भोगशब्दो विवक्षणीयः, परिभुज्यते इति परिभोगः - परिभुज्यमानता (स) च उद्देहिकामृत्तिकादेः सर्पदंशादौ दाहोपशमनाय वेदितव्यः, यद्वाकिमपि वैद्यस्त्रीन्द्रियविशेषशरीरादिकं बाह्यमलेपादिनिमित्तं वदेत् तद्वा परिभोगस्त्रीन्द्रियाणां तथा चतुरिन्द्रियाणां मध्ये मक्षिकाणां परिहारः- पुरीषं परिभोगः, तद्धि वमननिषेधादौ प्रत्यलमुपवर्ण्यते, यद्वा-अश्वमक्षिका उपयुज्यते अक्षिभ्योऽक्षरसमुद्धरणाय चैवेति एवंप्रायचतुरिन्द्रियपरिभोगसमुचयार्थः ॥ पञ्चेन्द्रियपिण्डविषये सामान्यत उपयोगमा ह-
पंचेदिय पिंडंमि उ अव्यवहारी उ नेरइया ॥ ४९ ॥
व्याख्या - पञ्चेन्द्रियपिण्डे उपयोगविषयतया परिभाव्यमाने सर्वोऽपि तिर्यगादिपिण्डो यथायोगमुपयोगं समायाति, नैरयिकाः पुनः 'अव्यवहारिणः' अनुपयोगिनः ॥ तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यगुपयोगमाह
चम्मद्विदंतनहरोमसिंगअविलाइछ्गणगोमुत्ते । खीरदधिमाइयाण य पंचिदियतिरियपरिभोगो ॥ ५० ॥
व्याख्या–पञ्चेन्द्रियतिरथां परिभोगश्चर्मास्थिदन्तनखरोमशृङ्गाविलादिच्छगण गोमूत्रे क्षीरदध्यादीनां च तत्र चर्मणः परिभोगः | क्षुरादिधरणार्थं कोशकादिकरणे, अस्थ्नो गृद्रनखिकादेः, तद्धि शरीरस्फोटापनोदायर्थं बादादौ बध्यते, दन्तस्य शूकरदंष्ट्रायाः, सा हि दृष्टिष्ट पुष्पिकापनोदाय घर्षित्वा क्षिप्यते, नखानां जीवविशेषसत्कानां ते हि कापि धूपे पतन्ति गन्धञ्च तेषां कस्यापि रोगस्यापनोदाय प्रभवति, रोम्लामविमेषी (वी) ला सत्कानां तन्निष्पन्नो हि कम्बलः साधूनामुपयोगवान् शृङ्गस्य महिष्यादिसत्कस्य, तद्धि मार्गे गच्छात्परि
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पिण्ड निक्षेपे
पञ्चेन्द्रिय
ड
॥ २० ॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६५] » “नियुक्ति: [१०] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५०||
दीप
भ्रष्टानां साधूनां मीलनाय वाचते, तथाऽविलादिगणस्य गड्डरिकाया गडरकस्य वा, आदिशब्दादन्येषां च पुरीषस्य, गोमूत्रस्य पामामाधुपमईने, क्षीरादीनां भोजने ।। सम्पति मनुष्यस्य सचित्तादिभेदात् त्रिषिधस्याप्युपयोगमाह| सचित्ते पव्वावण पंथुवएसे य भिक्खदाणाई । सीसढिग अच्चित्ते मीसहिसरक्खपहपुच्छा ॥ ५१ ॥
व्याख्या-सचित्ते इति षष्ठीसप्तम्पोरर्य प्रत्यभेदात् सचित्तस्य मनुष्यस्य प्रयोजनं पथि पृष्टे 'उपदेशः' कथनं, तथा भिक्षादानम्, आदिशब्दाद्वसत्यादिदानं चोपयोगः, शिरसोऽस्थि, तदि लिने व्याधिविशेषापनोदाय घर्पित्वा दीयते, यदा कदाचित्कवित्परिरुटो राजादिः साधूनां विनाशाय कृतोद्यमो भवेत् ततस्ते साधवः शिरोऽस्थिकमादाय कापालिकवेषेण नंष्टा देशान्तरं वजितुमिच्छन्तीति । तेन प्रयोजनं, तथा मिश्रस्य मनुष्यस्पोपयोगः, 'अविसरक्खि ति ' अस्थिभिः ' आभरणकल्पैः भूषितस्य सरजस्कस्य सरक्षाकस्य वा भस्मावगुण्ठितवपुष्कस्येत्यर्थः, कापालिकस्य पार्चे यत्पयि विषये प्रच्छनम् ।। सम्पति देवताविषयमुपयोगमाह
खमगाइ कालकाजाइएसु पुच्छिज्ज देवयं कचि । पंथे सुभासुभे वा पुच्छेज्जह दिव्य उवओगो ॥ ५२ ॥
व्याख्या-क्षपकादिः, आदिशब्दादत्राऽऽचार्यादिपरिग्रहा, क्षपकस्य हि तपोविशेषाकृष्टत्वेन प्रायः समासना एव देवता भवन्ति । तत इद्द साक्षात्क्षपकग्रहणं कृतं, 'कालकार्यम् ' मरणरूपं प्रयोजन, तदादिकेषु प्रयोजनेपस्थितेषु काश्चिदेवतां पृच्छेत् , तथा पथिविषयेषु
शुभाशुभे' सापायत्वे निरपायत्वे वा देवतां काञ्चन पृच्छेत्, एष 'दिव्य उपयोगः 'देवताविषय उपयोगः ।। तदेवं सचित्तादिभेदभिभत्रिपकारोऽपि द्रव्यपिण्डः प्रत्येकं पृथिवीकायादिभेदानवविध उक्तः, सम्पत्येतेषामेव नवानां पृथिवीकायादीनां ह्यादिमिश्रणतो मिश्र द्रव्यपिण्डमभिधित्मराह
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६८] » “नियुक्ति: [१३] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५३||
दीप
पिण्डनियु- अह मीसओ य पिंडो एएसि चिय नवण्ह पिंडाणं । दुगसंजोगाईओ नायव्यो जाव चरमोत्ति ॥ ५३ ॥ पिण्डनिक्षेपे क्र्मळयगि
मिश्रपिण्डः रीयावृत्तिः
व्याख्या-अथेत्यानन्तर्ययोतने, केवलपृथिवीकायादिपिण्डाभिधानानन्तरं मिश्रकपिण्डो व्याख्यायते इति द्योतयति, "मिश्रका
सजातीयविजातीयद्रव्यमिश्रणात्मकः पिण्डः एतेषामेव नवानां पिण्टानां द्वयादिसंयोगात्मको ज्ञातव्याः, तयथा-पृथिवीकायोऽप्कायोति ॥ २१॥ द्विकसंयोगे प्रथमो भङ्गः, पृथिवीकायस्तेजस्काय इति द्वितीयः, एवं द्विकसंयोगे षट्त्रिंशद्भङ्गा भावनीयाः, तथा त्रिकसंयोगे पृथिवीकायो
कायस्तेजस्काय इति प्रथमो भगः पृथिवीकायोडप्कायो वायुकाय इति द्वितीयः एवं त्रिकसंयोगे चतुरशीतिकाः, तथा चतुष्कसंयोगे| पृथिवीकायोऽकायस्तेजस्कायो वायुकाय इति प्रथमो भङ्गः, पृथिवीकायोऽप्कायस्तेजस्कायो वनस्पतिकाय इति द्वितीयः, एवं चतुष्कसंयोगे पदिशं शतं भङ्गानां भावनीय, पञ्चकसंयोगेऽपि पड़िशं शतं, पडसंयोगे चतुरशीतिः, सप्तकसंयोगे पढ़िशव , अष्टकसंयोगे नव, नवकसंयोगे एकः, सर्वसङ्ख्यया भङ्गानां पञ्च शतानि यधिकानि, एतेषां च भङ्गानामानयनामियं करणगाथा, “ उभयमुहं रासिदुर्ग विडिल्लाणंतरेण भय पढमं । लदह रासिविभत्ते तस्सुवरि गुणितु संजोगा ॥१॥ अस्याक्षरगमनिका-दह नवानां पदानां यादि
संयोगभङ्का आनेतुमभिप्रेतास्ततस्तावत्प्रमाणो द्वौ राशी उभयमुखौ स्थाप्येते, स्थापना चेयं अकस्योपरि नवका, तत एक-18 18|कसंयोगे नव भङ्गा द्रष्टव्याः, न च तत्र करणगाथाया व्यापारः, द्वयादिसंयोगभङ्गानयनायैव तस्याः प्रवृत्तत्वात् , ततोऽधस्तने राशी पर्यन्तव-| मार्जिन एककस्थानन्तरेण विकलक्षणेनोपरितनराशौ प्रथममईं नवकरूपं भजेत्-तस्य भागहारं कुर्यात, ततो लब्धाः सादोश्चत्वारः, तेन च सा-18|॥ २१ ॥
चतुष्केणाधोराशिनोपरितने प्रथमेऽङ्के विभक्ते लब्धेन तस्य द्विकलक्षणस्याङ्कस्योपरितनमङ्कमष्टकलक्षणं गुणयेत्-ताइयेत, जाता पत्रिंशत्र, इत्थं च गुणयित्वा 'संयोगाः संयोगभना वाच्याः, यथा द्विकसंयोगे भङ्गाः पदत्रिंशदिति, ततो भूयोऽपि त्रिकसंयोगभङ्गानयनाय प्रथमपा-1
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६८] » “नियुक्ति: [१३] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५३||
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दररिता करणगाथा व्यापार्यते, अधस्तने राशौ स्थितेन द्विकादनन्तरेण विकेणोपरितनराशिव्यवस्थित त्रिकोपरितनसप्तकरूपाहापेक्षया || आय पत्रिंशपमहूं भजेत, ततो लब्बा द्वादश तैश्चाधोराशिनोपरितनेऽङ्के विभक्ते लम्धेखिकलक्षणस्याङस्योपरितनं सप्तकलक्षणमडूं गुणयेत, गुणिते च सति जाताचतुरशीतिः, एतावन्तस्त्रिकसंयोगेष्वपि भङ्गा आनेतष्पाः, यावन्नवकसंयोगे एको भन्नः, तथा चाह-जाव चरिमोति तावहिकसंयोगादिको मिश्रपिण्डो ज्ञातव्यो यावचरमो नवकनिष्पन्न एकसङ्खचो मिश्रपिण्डा, स च लेपमधिकृत्योपदीते, इहालस्य धुरि मक्षितायां रजोरूपः पृथिवीकायो लगति, नदीमुत्तरतोऽकायः, लोहमयावपनघर्षणे तेजस्कायः, यत्र तेजस्तत्र वायुरिति वायुकायोऽपि, वनस्पतिकायो धूरेष, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः सम्पातिमाः सम्भवन्ति, महिप्यादिचर्ममयनाडिकादेश्च घृष्यमाणस्यावयवरूपः पश्चेन्द्रियपिण्डः, इत्थंभूतेन चाक्षस्य खञ्जनेन लेपः क्रियते इत्यसाबुपयोगी, इतिशब्दो मिश्रपिण्डसमाप्त्यर्थः, एतावानेव द्रव्यपिण्डो मिश्रः सम्भवतीति ।। सम्पत्यस्यैव मिश्रपिण्डस्य कानिचिदुदाहरणान्युपदर्शपति
सोचीरा गोरसासव वेसण भेसज्ज नेह साग फले । पोग्गल लोण गुलोयण णेगा पिण्डा उ संजोगे ॥ ५४॥ । ___व्याख्या-सौवीर' काजिक, तथाकायतेजस्कायवनस्पतिकायादिपिण्डरूपं, तथाहि-तत्राकायस्तण्डुलधावनं तेजस्कायोऽवश्रावर्ण वनस्पतिकायस्तण्डुलाक्यवा यत्सम्पर्कतस्तण्डलोदकं गडुलमुपजायते, लवणावयवान केचन तत्र लवणसम्मिश्रतण्डलोदकादिभिः सह पतन्ति ततस्तत्र पृथिवीकायोऽपि सम्भवतीति, एवमन्यत्रापि भावना स्वधिया कर्तव्या, तथा 'गोरसं' तक्रादि, तचापकायत्रसकायसम्मिश्र भवति, तथा 'आसवः' मयं, तयाकायतेजस्कायवनस्पतिकायादिपिण्डरूपं, 'वेसन' जीरकलवणादि, तच वनस्पतिपृथिवीकायादिपिण्ड-18 रूपं, 'भेपर्ज' यवागूप्रभृति, तथाकायतेजस्कायवनस्पतिकायपिण्डरूपं, 'स्नेहा' घृतवशादि, तब तेजस्कायत्रसकायादिपिण्ड रूपं, 'शा-18|
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६९] » “नियुक्ति: [१४] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनिक्षेपे क्षेत्रकालपिण्टः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५४||
दीप
पिण्डनियु- क' वत्थुलभाजिकादिरूपः, स च वनस्पतिकायपृथिवीकायत्रसकायादिपिण्डरूपः, 'फलम् ' आमलकादि, तबेद पकं ग्राहय, ततस्तदपी-
मलयगि- त्यमेव भावनीयं, 'पोग्गलं' मांसं, तदपीह पकं गृह्यते, ततस्तदपि शाकवद्भावनीयं, 'लवणं' प्रतीतं, तबाकायपृथिवीकायरूपं, 'गुडौ- रोयात्तिः दनौं' प्रतीतो, तावपि फलवद्धावनीयो, एवमन्येऽप्यनेके यथासम्भवं संयोगे पिण्डा भावनीयाः, केवलं तं तं संयोग परिभाव्य यो यत्र ॥२२॥
द्विकसंयोगादावन्तर्भवति स तत्र स्वयमेवान्तर्भावनीयः ॥ तदेवमुक्तः समपञ्चं द्रव्यापिण्डः, सम्पति क्षेत्रकालपिण्डायभिधित्सुराहall तिन्नि उ पएससमया ठाणहिइउ दविए तयाएसा । चउपंचमपिंडाणं जत्थ जया तप्परूवणया ॥ ५५ ॥
___ व्याख्या-इह क्षेत्रकालपिण्डौ ' नाम ठवणापिंडे दवे खेते य काल भावे य' इति गाथानिर्देशक्रमापेक्षया चतुर्थपञ्चमपिण्डौ, क्षेत्रम्-आकाशं काला-समयविवरूपः, तत्र प्रयः प्रदेशाः क्षेत्रप्रस्तावादाकायप्रदेशाः तथा त्रयः समयाः कालस्य निर्विभागा भागाः, तुशब्दो विशेषणार्थ:, स च परस्परमनुगता इति विशेषयति, 'चतुष्पञ्चमपिण्डयोः' क्षेत्रकालपिण्डयोः स्वरूपम् , इयमत्र भावना-त्रयः पर
परमनुगता आकाशप्रदेशास्त्रयः परस्परमनुगताः समया यथाक्रम क्षेत्रपिण्डः काळपिण्ड इति वेदितव्याः, त्रिग्रहणं चोपलक्षणं, तेन द्विचतुरादयोऽपि द्रष्टव्याः, तदेवं क्षेत्रकालपिण्डौ निरुपचरिती प्रतिपाद्य सम्पति तावेव सोपचारावभिधचे-ठाणहिइउ दविए तयाएसाग 'दविएत्ति द्रव्ये-पुद्गलस्कन्धरुपे स्थानम्-अवगाइः स्थिति:-कालतोऽवस्थानं स्थानं च स्थितिश्च स्थानस्थिती ताभ्यां स्थानस्थितितः | अत्र पञ्चमी 'यपः कांधारे' इत्यनेन सूत्रेण, ततोऽयमर्थ:-स्थानं स्थिति चाश्रित्य यस्तदाऽऽदेश:-क्षेत्रकालादेशः क्षेत्रकालमाधान न्यविवक्षया क्षेत्रेण कालेन च व्यपदेशस्तस्माचतुष्पञ्चमपिण्डयोः प्ररूपणा कार्या, किमुक्तं भवति ?-स्कन्धरूपे पुङ्गलद्रव्येऽवगाइचिन्तामाश्रित्य क्षेत्रप्राधान्यविवक्षया यदा क्षेत्रेण व्यपदेशो यधा एकमादेशिकोऽयं द्विपादेशिकोऽयं त्रिप्रादेशिक इत्यादि स इत्थं क्षेत्रतो व्यपदिश्यमानः
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॥२२॥
अथ क्षेत्र-काल पिण्ड विषयक वर्णनं क्रियते
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आगम
(४१/२)
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
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अनुक्रम [७०]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [७०] ●→ “निर्युक्तिः [५५] + भाष्यं [१५] + प्रक्षेपं
८०
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
क्षेत्र पिण्ड इत्युच्यते, क्षेत्रतो व्यपदिष्टः दिष्टः क्षेत्र पिण्ड इति व्युत्पत्तेः, यदा तु कालतोऽवस्थानमधिकृत्य कालमाधान्यविवक्षया कालेन व्यपदेशो यथा - एकसामयिको द्विसामयिक इत्यादि तदा स कालपिण्डोऽपि भण्यते, कालतो व्यपदिष्टः पिण्डः कालपिण्ड इति समासाऽऽश्रयणात्, अथवा त्रिपदेशाद्यात्मक क्षेत्र पिण्डे यदिवा त्रिसमयाथात्मक कालपिण्डे यदवस्थितं पुद्गलद्रव्यं तत्तदादेशात् क्षेत्रकालव्यपदेशात्- क्षेत्र कालोपचारादित्यर्थः यथाक्रमं क्षेत्रपिण्डः कालपिण्डः । प्रकारान्तरेण सोपचारौ क्षेत्रकालपिण्डावाद' जत्य जया तप्परूवणया 'यत्र वसत्यादौ यदा प्रथमपौरुष्यादौ ' तत्प्ररूपणा' पिण्डप्ररूपणा क्रियते स पिण्डः प्ररूप्यमाणो नामादिपिण्डो वसत्यादिक्षेत्रमधिकृत्य क्षेत्रपिण्ड उच्यते, यथाऽमुक वसतिरूपक्षेत्रपिण्ड इति, प्रथमपौरुष्यादिकं तु कालमधिकृत्य कालपिण्डो यथाऽमुकप्रथममहरादिरूपः कालपिण्ड इति ।। ' इद तिन्नि उपएससमया' इत्यत्र पर आक्षेपमाह-ननु मूर्त्तेषु द्रव्येषु परस्परमनुवेधतः सङ्ख्यावाहुल्यतश्च पिण्ड इति व्यपदेशो घटते, क्षेत्रकालपोस्तु न परस्परमनुवेधो नापि काले सङ्ख्याबाहुल्यं, तथाहि क्षेत्रमाकाशमुच्यते 'खेतं खलु आगास ' मिति वचनात् तच नित्यमकृत्रिमत्वाद, ततः सदैव विविक्तमदेशात्मकतया व्यवस्थितमिति कथमाकाशप्रदेशानामनुवेधः ?, एकत्र मिश्रणाभावात्, कालोऽपि पूर्वापरसमयविविक्तो | वार्त्तमानिकसमयरूप एव पारमार्थिकः, पूर्वापर समय योर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन परमार्थतोऽसच्चात्, सतां च परस्परमनुवेधः सङ्ख्याबाहुल्यं वा नासतां सदसतां वा ततः कालद्वयमपि नोपपयते इति कथं तत्र पिण्ड इति व्यपदेशः ?, अत्र प्रतिविधानमभिधित्सुराह
मुत्तदविएस जुज्जइ जइ अन्नोऽन्नाणुबेहओ पिंडो । मुत्तिविमुत्तेमुवि सो जुज्जइ नणु संखबाहुला ॥ ५६ ॥
व्याख्या - ननु यदि मूर्त्तेषु द्रव्येष्ठ 'अन्योऽन्यानुवेधतः ' परस्परानुवेधतः, 'संखबाहुला' इत्यप्यत्र सम्बध्यते, 'सङ्ख्याबा हुव्यतश्च' ट्र्यादिसङ्ख्यासम्भवतथ पिण्ड इति व्यपदेशो 'युज्यते' योगमुपैति घटते इत्यर्थः तदि स पिण्ड इति व्यपदेशः ' मूर्त्तिविमु
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१] » “नियुक्ति: [१६] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डौ
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१६||
पिण्डनियु- तेष्वपि ' मूर्तिरहितेष्वपि अमूर्तेष्वित्यर्थः, क्षेत्रप्रदेशकालसमयेषु युज्यते, तत्रापि पिण्डशब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य परस्परानुषेधस्य सङ्ख्या-पिण्डनिक्षेपे
बाहुल्यस्य च सम्भवात, तथाहि-सर्वेऽपि क्षेत्रप्रदेशाः परस्परं नैरन्तर्यलक्षणेन सम्बन्धेन सम्पद्धा अप्रतिष्ठन्ते, ततो यथा बादरनिष्पादिते क्षेत्रकालरीयाचिः
चतुरस्रादिघने परस्परनैरन्तर्परूपानुवेधतः मङ्खचावाहुल्यतश्च पिण्ड इति व्यपदेशः प्रवर्तते तथा क्षेत्रप्रदेशेष्वपि पिण्डशब्दः प्रवर्त्तमानो न ॥२३॥
विरुध्यते, तत्रापि परस्परनरन्तर्यरूपस्यानुवेधस्य सङ्ख्यावाहुल्यस्य च सम्भवात, तथा कालोऽपि परमार्थतः सन् द्रव्यं च, ततः सोऽपि
परिणामी, सतः सर्वस्य परिणामित्वाभ्युपगमाद, अन्यथा सत्त्वायोगात, एतच्चान्यत्र धर्मसङ्ग-हणिटीकादौ विभावितमिति नेह भूयो विभाकाव्यते, ग्रन्थगौरवमयात, परिणामी चान्वयी तेन तेन रूपेण परिणममान उच्यते, ततोऽस्ति वार्त्तमानिकस्यापि समयस्य पूर्वापरसमया
भ्यामनुवेधः, केवल सी पूर्वापरसमयावसन्तावपि बुद्धया सन्ताविव विवक्षिती, ततः सङ्घयावाहुल्यमपि तत्रास्तीति पिण्डशब्दप्रयविरोधः ॥ सम्भति क्षेत्रे पिण्डशब्दप्रवृत्त्यविरोधं दृष्टान्तद्वारेण समर्थयते--
जह तिपएसो खंधो तिसुवि पएसेसु जो समोगाढो । अविभागिण संबद्धो कहं तु नेवं तदाधारो ? ॥ ५७ ॥
व्याख्या-यथा कश्चिदनिर्दिष्ट व्यक्तिकः 'त्रिमदेशिकः त्रिपरमाण्वात्मकःस्कन्धस्थिवष्याकाशप्रदेशेष्वरगाढो न त्वेकस्मिन् द्वयो1वत्यपिशब्दार्थः, 'अविभागेन सम्बन्धो' विभागो-नरन्तर्याभावस्तदभावोऽविभागो नैरन्तर्यमित्यर्थः तेन सम्बन्धो नैरन्तर्यसम्बन्धसम्बद्ध इति | ril॥२३॥
भावः, पिण्ड इति व्यपदिश्यते, नैरन्तयेणावस्थानभावात् सङ्घचावाहुल्यतव, एवं-त्रिप्रदेशावगाडत्रिपरमाणुस्कन्ध इव तदाधार:-त्रिपरमागुस्कन्धाधारः प्रदेशत्रयसमुदायः कथं तु न पिण्ड इति व्यपदिश्यते !, सोऽपि पिण्ड इतिष्पपदिश्यताम् , उभपत्रायुक्तनीत्या विशेषाभा
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [७२] .. "नियुक्ति: [१७] + भाष्यं [१५] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५७||
दीप
बाबात ॥ सम्पति जय जया तप्परूवणया' इत्येतद्वयाचिरुषासुनोमस्थापनाद्रपभावपिण्डानां योगविभागसम्भवात् पारमार्थिक पिण्डत्वं । क्षेत्रकालयोस्तु योगविभागासम्भवत औपचारिक प्रतिपादपनाह
अहवा चउण्ह नियमा जोगविभागेण जुज्जए पिण्डो । दोसु जहियं तु पिण्डो वणिज्जइ कीरए वावि ॥ ५८॥
व्याख्या-अथवेति प्रकारान्तरद्योतने, पूर्व हिक्षेत्रकालयोर्यथासङ्खधं प्रदेशसमयानां परस्परानुवेधतः सङ्ख्यावाहुल्यतश्च पारमावाधिक पिण्डत्वमुक्त, यद्वा तन्न युज्यत एव, योगविभागासम्भवात्, तथाहि-लोक या योगे सति विभागः कर्तुं शक्यते विभागे वा सति | बायोगः तत्र पिण्ड इति व्यपदेशः, न च क्षेत्रप्रदेशेषु योगे सत्यपि विभागः कर्तुं शक्या, नित्यत्वेन तेषां तथा व्यवस्थितानामन्यथा कत्तु । मशक्यत्वात, ततो न तत्र पारमार्थिक पिण्डत्वं, तश समयो वर्तमान एच सन् नातीतोऽनागतो वा, तयोविनष्टानुत्पनत्वेनाविद्यमानत्वात् ततोऽत्र विभाग एव न तु कदाचनापि योग इति पारमार्थिकपिण्डत्वाभावः, ततोऽन्यथा क्षेत्रकालपिण्डमरूपणा कर्तव्येति प्रकारान्तरता, 'चतुर्णी' नामस्थापनाद्रव्यभावपिण्डाना 'योगविभागेन' योगविभागसम्भवेन नियमात्पिण्ड इति व्यपदेशो युज्यते, तथाहि-नाम्न:पिण्डो नामनामयतोरभेदोपचारात् यद्वा नाम्ना पिण्डो नामपिण्ड इति व्युत्पत्तेः पुरुषादिकमेव भण्पते, तस्य च इस्तपादादिभिरक्यपैथुक्तस्पापि खड्दादिभिर्विभागः कर्तुं शक्यते इत्यस्ति योगे सति विभागः, यद्वा पूर्व गर्भे मांसपेशीरूपस्य सतो इस्तादिभिरवपवेवियोगा। पश्चात्क्रमेण तैः सह संयोग इति विभागे सति योगः ततः पिण्डरूपता, तथा स्थापनापिण्डेशत्रिकादिको पूर्व विभागे सति संयोगः संयोगे वा सति विभाग इति पिण्डरूपता, द्रव्यपिण्डेऽपि गुडौदनादिके विभागपूर्वकः संयोगः संयोगपूर्वको वा विभागः सुप्रतीत इति पारमाविकपिण्डरूपता, भावपिण्डेऽपि भावभाववतोः कथञ्चिदभेदात्सावादिरेव मूतों विग्रहवान् गृखते, ता संपोगविभागौ नामपिण्ड इव तात्विका
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [७३] » “नियुक्ति : [१८] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८||
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पिण्डनियु- विति पारमार्थिकी पिण्डरूपता, क्षेत्रवालयोरतूबतीत्या न संयोगविभागाविति न तत्र पिण्डयाब्दप्रत्तिः, तस्मान्नामादिपिण्ड एव तत्तत् क्षेत्र-पिण्डनिक्षेपे
निवासादिकं पर्यायमुद्भूतरूपं विवक्षित्वा क्षेत्रपिण्डकासपिण्डशब्दाभ्यां व्यपदिश्यते, तथा चाह-'दोसु जहियं तु इत्यादि द्वयोः' क्षेत्र-1 भावपिण्डः रीयात्तिःकालयो
कालयोः 'यत्र ' वसल्यादौ यदा वा प्रथमपौरुष्यादी यः पिण्डो नामादिरूपो व्यावते यद्वा यत्र गृहे महानसादी वा पिण्डो गुडपिण्डा-14 ॥२४॥
दिर्मोदकादिपिण्डो वा क्रियते यदा वा प्रथमपहरादौ निष्पाद्यते स व्यावीमानो नामादिपिण्डः क्रियमाणो वा गुडौदनादिपिण्डस्तत्लेत्रकालापेक्षया क्षेत्रपिण्डः कालपिण्डश्च व्यपदिश्यते, यथाऽमुकवसत्यादिक्षेत्रपिण्डः प्रथमपौरुषीपिण्ड इत्यादि ।। उक्तौ क्षेत्रकालपिण्डौ, सम्पति भावपिण्डमभिधित्सुराहall दुविहो उ भावपिण्डो पसत्थओ चेव अप्पसत्थो य । एएसि दोण्हंपि य पत्तेय परूवणं वोच्छं ॥ ५९॥
व्याख्या-द्विविधा दिपकारः भावपिण्डः, तथथा-प्रशस्तोप्रशस्तथ, तत एतयोयोरपि प्रत्येक प्ररूपणां-प्ररुप्येते द्वावलि 18||भावपिण्डो यया गाथापद्धत्या सा प्ररुपणा तां वक्ष्ये । प्रतिज्ञातमेव माथाचतुष्टयेन नियोहयति
एगविहाइ दसविहो पसत्थओ चेव अप्पसत्थो य । संजमै विज्जाचरणे नाणादितिगं च तिविहो ॥६॥ नाणं दसण तव संजमो ये वय पंच छर्च जाणेज्जा । पिंडेसण पाणेसण उग्गहपडिमा य पिंडम्मि ॥ ६॥ पवयणमा नव बंभगुत्तिओं तह य समणधम्मो थे । एस पसत्थो पिंडो भणिओ कम्मट्ठमहणेहिं ॥ २ ॥ अपसत्थो य असंजम अन्नाणे अविरईय मिच्छत्तं । कोहार्योसवैकायाँ कम्मेगुत्ती अहम्मो य ॥ ६३ ॥ .
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अथ भावपिण्डस्य वर्णनं क्रियते
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र
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अनुक्रम [ ७८ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ७८ ] • → “निर्युक्तिः [ ६३ ] + भाष्यं [१५] + प्रक्षेपं [ ८० पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
व्याख्या - प्रशस्तो प्रशस्तश्च भावपिण्डः प्रत्येकं दशविधः दशमकारः, किंरुपः ? इत्याह-' एकविधादिकः ' एकविधो द्विवि धस्त्रिविधचतुर्विधो यावदशविध इति, तंत्र प्रथमत उद्देशक्रमप्रामाण्यानुसरणात्प्रशस्तं भावपिण्डं दशविधमप्यभिदधाति -'सञ्जने'त्यादि, तंत्रकवियः प्रशस्तो भावपिण्डः संयमः इह संयमो ज्ञानदर्शने विना न भवति, पूर्वद्रयलाभः पुनरुत्तरलाभे भवति सिद्ध:' इति वचनप्रामाण्यात्, ततो ज्ञानदर्शने संयम एवान्तर्भूते विवक्षिते इति संयम एवैकः प्रशस्तभावपिण्डत्वेन प्रतिपाद्यमानो न विरुध्यते, द्विविधः पिण्डो ९) 'विद्याचरणे' विद्या-ज्ञानं चरणं क्रिया, अत्र सम्यग्दर्शनं ज्ञान एवान्तर्भूतं विवक्षितमिति न पृथग्गणितं विवक्षा हि वक्त्रधीना, वक्ता च कदाचित्संक्षेपेणाभिधित्सुस्तां तां प्रत्यासत्तिमधिकृत्य तचदन्तर्भावेनाभिधत्ते कदाचित्पुनर्विशेषपरिज्ञानोत्पादनाय विस्तरेणाभिधित्सुः सर्व वैविक्त्येन पृथक् प्रतिपादयति, ततः कदाचित् ज्ञानादित्रिकं संयम इति प्रतिपाद्यते कदाचित् ज्ञानक्रिये इति कदाचित्पुनः परिपूर्णमपि साक्षाद्यथा ज्ञानादित्रिकमिति न कविदोषः, त्रिविधः पिण्डः पुनः 'ज्ञानादित्रिकं ' ज्ञानदर्शन चारित्राणि चतुर्विधः पिण्डो ज्ञानदर्शन तप: संयमाः, पञ्चविधः पञ्च व्रतानि-प्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहनिवृत्तिलक्षणानि अत्रापि ज्ञानदर्शने अन्तर्भूते विवक्षिते इति न पृथगणिते, रात्रिभोजनविरमणमध्येतेषु पञ्चसु यथायोगमन्तर्भूतं विवक्षितं ततो न पञ्चविधत्वव्याघातः, एवमुत्तरत्वापि यथायोगमन्तर्भावभावना भावनीया, षड़िधो भावपिण्डः - पडू व्रतानि, तत्र पञ्च व्रतानि पूर्वोक्तान्येव प्राणातिपातविरमणादीनि षष्ठं तु रात्रिभोजनविरमणलक्षणं, तथा सप्तविधे पिण्डे सप्त पिण्डेषणाः सप्त पानैषणाः सप्त अग्रहमतिमाः, तत्र पिण्डैषणाः पानैषणाथ सप्त संसृष्टादयः, तामा:-'संसदम
१ अप्रतिमाः सप्त अवगृह्यते इत्यवमहस्तस्य प्रतिमा अभिप्रहाः, तत्र पूर्वमेवैवंभूतः प्रतिश्रयो मया ग्राह्यो नान्यथाभूत इति विचिन्त्य तमेव याचित्वा गृहतः प्रथमा १ तथा यस्यैवंभूतोऽभिग्रहो भवति-अहं खल्बन्येषां कृतेऽयमहं महीष्यामि, अन्यैश्च गृहीतेऽवमहे वत्स्यामीति द्विती
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [७८] » “नियुक्ति: [६३] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६३||
पिण्डनियु-
व्याग यावृत्तिः ॥२॥
संसट्टा उद्धढ तह अपलेवढा चेव । उग्गहिया पगहिया एशियधम्मा य सचमिया ॥१॥ अवग्रहमतिमा वसतिविषयनियमविशेषाः, तथाऽष्टविधः पिण्डोष्टौ प्रवचनमातरः, ताश्च पश्च समितयस्तिस्रो गुप्तयः, तथा नवविधः पिण्डो नव बह्मचर्यगुप्तयः, तासां चेदं स्वरूप-वसहि
प्रशस्तामश
स्ताभावपिकह निसिजिदिय कुटुंतर पुन्वकीलिय पणीए । अइमायाहार विभूसणं च नव बंभगुत्तीओ ॥१॥ तथा चेति समुच्चये, दशविधः पिण्डो
ण्डा दशाप्रकारः श्रमणधम्मः, स चाय-खंती य मावज्जव मुत्ती तव संजमे य बोद्धध्वे । सर्व सोयं आकिंचणं च'भं च जइधम्मो ||१||
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अनुक्रम
या, तत्र प्रधमा सामान्येन, इयं तु गच्छान्तर्गतानां साम्भोगिकानां चोयुक्तविहारिणां यतस्तेऽन्योऽन्वार्थ याचन्ते २ । अन्यार्थमवप्रहं याचिष्ये । | अन्यावगृहीते तु न स्थास्यामीत्येषाहालन्दिकानां, यतस्ते सूत्रावशेषमाचार्यादभिकाङ्क्षन्त आचार्यार्थ तं याचन्ते ३ । अहमन्यार्थमवग्रहं न याचिध्ये,
अन्यावगृहीते तु वस्यामीति, एषा गच्छ एवोद्युतविहारिणां जिनकल्पाद्यर्थ परिकर्म कुर्वता ४ । आत्मकृतेऽवग्रह याचिष्ये न परार्थम् , एषा जिनक|ल्पिकस्य ५ । यदीयमहमवग्रहं ग्रहीष्यामि तदीयमेव चेत्कटादि संस्तारकं ग्रहीष्यामि, अन्यथोस्कुटुक उपविष्टो वा रात्रि गमयिष्यामीत्येषा जिनकल्पिकादेः६ । सप्तमी त्वैव पूर्वोक्ता नवरं यथासंस्तृतमेव शिलादि प्रहीष्यामि नान्यदिति ७ ॥२ व्याख्या-असंसृष्टा हस्तमात्राभ्यां चिन्त्या, “असंसटे हत्थे असंसट्टे मते, अखरंटिअत्तियुत्तं भवइ, एवं गृहत: प्रथमा, गाथाभड़भयाद्विपर्ययनिर्देशः १, संसृष्टापि ताभ्यां चिन्त्या, " संसट्टे हत्थे संसट्टे | मत्ते, खरंटिमत्तिबु भवा २, उद्धता पाकस्थानाद्यत् स्थाल्यादौ स्वयोगेन भोजनजातमुद्धतं तत एव गृहतः ३, अल्पलेपाऽल्पशब्दोऽभाववाचकततो निलेप पृथुकादि गृहतः ४, अवगृहीता भोजनकाले भोक्तुकामस्य शरावादिना यदुपहतं तव एवं गृहतः ५, प्रगृहीता भोजनवेलायां भोक्तुकामाच दातुमभ्युद्यतेन भोत्रा वा स्वहस्तादिना यत्मगृहीतं तहतः ६, उज्झितधर्मा यत्परित्यागार्ह भोजनजातमन्ये च द्विपदादयो नावकान्ति तदह | त्यक्तं वा गृहतः ७ । पानैषणा अप्येवमेव, नवरं चतुर्थ्यामायामसापीरादि निर्लेप ज्ञेयं ।
[७८]
॥२५॥
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [७८] » “नियुक्ति: [६३] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||६३||
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प्रशस्तभावपिण्डस्योपसंहारमाह-एसो' इत्यादि, 'एष'दशमकारोऽपि भावपिण्डः काष्टकमयनैः-तीर्थकृनिर्भणितः, अनेन स्वमनीपिकाव्युदासमाह || सम्पति अप्रशस्तं भावपिण्डं दशविधमपि क्रमेणाह-'अपसत्यो य' इत्यादि, अप्रशस्त: पुनर्भावपिण्ड एकविधोऽसंयमो
विरत्यभावः, अत्राज्ञानमिथ्यात्वादीनि सोण्यप्यन्तर्भूतानि विवक्ष्यन्ते सतो न कश्चिदोषः, द्विविधोऽज्ञानाविरती, पशब्दो मिथ्यात्वशब्दा*नन्तरं योजनीयः, अत्र मिथ्यात्वकषायादयः सर्वेऽप्यत्रैवान्तर्भूता विवक्षितास्ततो न द्विविधत्वव्याघातः, एवमुत्तरत्राप्यन्तर्भावभावना भाव
नीया, विविधो मिथ्यात्वं चशब्दादज्ञानाविरती च, चतुर्विधः चत्वारः क्रोधादयः क्रोधमानमायालोभाः, पश्चविधः पञ्चाश्रवद्वाराणि प्राणातिपातमपावादादत्तादानपैथुनपरिग्रहरूपाणि, पड्डिधः 'काय'ति कायवधा:-पृथिवीकायिकादिविनाशाः, सप्तविधः कर्मणि-कर्मविषयो द्रष्ट-|| व्यः, इह कर्मशब्देन कर्मबन्धनिबन्धनभूता अध्यवसाया गृहान्ते, भावपिण्डाधिकारान् , तत आयुर्वर्जशेषसप्तकर्मबन्धनिवन्धनभूताः काषायिका |अकापायिका बा परिणामविशेषा जातिभेदापेक्षया सप्तभेदाः सप्तविघोऽप्रशस्तो भावपिण्डः, अष्टविधोऽपि भावपिण्डः कर्मविषयः, तत्रापीयं । भावना-कर्माष्टकबन्धनिबन्धनभूताः काषायिकाः परिणामविशेषा जातिभेदापेक्षयाऽटभेदा अष्टविधोऽप्रशस्तो भावपिण्डः, 'अगुत्तीओचि। नवब्रह्मचर्यगुप्तिमतिपक्षभूता नवाब्रह्मचर्यगुप्तयः, तथा अधर्मो-दशविधधर्मप्रतिपक्षभूतो दशविधोऽप्रशस्तो भावपिण्डः । सम्मति प्रशस्ता-1 प्रशस्तयोर्भावपिण्ड यो क्षणमाह| बज्झइ य जेण कम्म सो सब्बो होइ अप्पसत्थो उ । मुच्चइ य जेण सो उण पसत्थओ नवरि विन्नेओ ॥६४॥ ___व्याख्या-इह येन भावपिण्डेनेकविधादिकेन भवर्तमानेन 'कर्म' ज्ञानावरणीयादि बध्यते, चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः, स च दीर्घस्थित्तिकदीर्घसंसारानुवन्धि विपाककटुकं च येन बध्यते इति समुचिनोति, स सर्वोऽप्यपशस्तो भावपिण्डो ज्ञातव्यः, येन पुनरेकविधादिना
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॥६४॥
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अनुक्रम [७]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [७९] • → "निर्युक्तिः [ ६४ ] + भाष्यं [१५] + प्रक्षेपं पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
८०
पिण्डनिर्यु- प्रवर्त्तमानेन कर्मणः सकाशात् शनैः शनैः सर्वात्मना वा मुच्यते स प्रशस्तो भावपिण्डो विज्ञेयः, आह-पिण्डो नाम बहूनामेकत्र मीलनमुतेर्मलयगियते, पिण्डनं पिण्ड इति व्युत्पत्तेः, भावाच संयमादयो यदा प्रवर्त्तन्ते तदैकसङ्ख्या एव, एकस्मिन् समये एकस्यैवाध्यवसायस्य भावात्, रीयाहृतिः ततः कथं पिण्डत्वम् ? इति अत्रोत्तरमाह
दंसणनाणचरित्ताण पज्जत्रा जे उ जत्तिया वावि । सो सो होइ तयक्खो पज्जवपेयाला पिंडो ॥ ६५ ॥
।। २६ ।।
व्याख्या - इह चारित्रग्रहणेन तपःप्रभृत्यपि गृह्यते, तस्यापि विरतिपरिणामरूपतया चारित्रभेदत्वात् ततो दर्शनज्ञान चारित्राणां प्रत्येकं ये ये ' पर्यवा: पर्यायाः अविभागपरिच्छेदरूपा यदा यदा ' यावन्तो यत्परिमाणा वर्त्तन्ते स स तदा तदा तत्तदाख्यो-दर्श> नाख्यो ज्ञानाख्यश्चारित्राख्यः 'पर्यवपालना पिण्डः' पर्यायप्रमाणकरणेन पिण्डः पर्यायसंहतिविवक्षया पिण्डो भवतीत्यर्थः इयमत्र भावना* इद्द यदा संयम एव केवलः प्राधान्येन विवक्ष्यते न तु सती अपि ज्ञानदर्शने संयमस्य तदविनाभावित्वेन तयोस्तत्रैवान्तर्भावविवक्षणात्, तदा ये तस्य संयपस्याविभागपरिच्छेदाख्याः पर्यायास्ते समुदायेनैकत्र पिण्डीभूय व्यवतिष्ठन्ते, परस्परं तादात्म्यसम्बन्धेन सम्बद्धत्वात्, ततः संयमपर्यायसंहत्यपेक्षया पिण्ड इति संयम एकविधभावपिण्डत्वेनोच्यमानो न विरुध्यते, यदा तु तस्मिन्नेव संयमरूपेऽध्यवसाये पृथ १९ ज्ञानविवक्षा क्रियाविवक्षा च भवति, यथा – वस्तुयाथात्म्यपरिच्छेदरूपोऽंशो ज्ञानं प्राणातिपातादिविरतिरूपः परिणामविशेषस्तु क्रियेति तदा ये ज्ञानस्याविभागपरिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते परस्परं तादात्म्यसम्बन्धेनावस्थिता इति ज्ञानपिण्डः ये तु क्रियाया अविभागपरिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते क्रियापिण्डः, ततो द्विविधो भावपिण्डो ज्ञानक्रियाख्यः प्रतिपाद्यमानो न विरुध्यते, यदा तु तस्मिन्नेव संगमरूपेऽध्यवसाये पृथग् ज्ञानविवक्षा दर्शनविवक्षा चारित्रविवक्षा च यथा वस्तुयाथात्म्यपरिच्छेदरूपोऽंशो ज्ञानं तस्मिन्नेव वस्तुनि परिच्छिद्यमाने जिनैरित्थ
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पिण्ड निक्षेपे
प्रशस्ता प्रश
स्वाभावपि -
ण्डाः
।। २६ ।।
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अनुक्रम [ ८० ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [८०] • → “निर्युक्तिः [ ६५ ] + भाष्यं [ १५... ] + प्रक्षेपं [" ८०
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
मुक्तम् अत इदं तथेतिप्रतिपत्तिनिबन्धनं रुचिरूपः परिणामविशेषो दर्शनं प्राणातिपातादिविरार्तरूपस्तु परिणामविशेषवास्त्रिमिति, तदा ये ज्ञानस्याविभागपरिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते समुदिता ज्ञानपिण्डो ये तु दर्शनस्य ते दर्शनपिण्डः ये तु चारित्र ते चारित्रपिण्ड इति त्रिवि धो ज्ञानदर्शनचारित्रारूपो भावपिण्ड उपपद्यते, यदा तु तपोरूपोऽपि परिणामो भवति भिन्न चारित्राद्विक्ष्यते तदा त्रयःपिण्डाः पूर्वीतार्थस्तु तपःपिण्ड इति चतुर्विधो भावपिण्डः यदा तु पञ्च महाव्रतान्येव केवलानि विवश्यन्ते ज्ञानदर्शनतपांसि पुनस्तत्रैवान्तर्भूतानि तदा ये प्राणातिपातविरतिपरिणामस्याविभाग परिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते परस्परं समुदितत्वात् प्राणातिपातविरतिपिण्डः ये तु मृषावादविरतिपरिणामस्य ते मृषावादविरतिपिण्डः एवं यावद्ये परिग्रहविरतिपरिणामस्य से परिग्रहविरतिपिण्ड इति पञ्चविधो भावपिण्ड उपपद्यते, एवं शेषेष्वपि पिण्डेषु पिण्डत्वभावना भावनीया । एवमप्रशस्तेष्वपि भावपिण्डेषु । तदेवं पिण्डनं पिण्ड इति भावविषयां व्युत्पत्तिमधिकृत्य संयमादेः पिण्डत्वमुक्तम्, अथवा भावपिण्डविचारे पिण्डशब्दः कर्तृसाधनो विवक्ष्यते, यथा पिण्डयति कर्मणा सहात्मानं मिश्रयतीति पिण्डो भावश्चासौ पिण्डव भावपिण्डः, एतदेवाह---
कम्माण जेण भावेण अप्पगे चिणइ चिक्कणं पिंडं । सो होइ भावपिंडो पिंडयए पिंडणं जम्हा ॥ ६६ ॥
व्याख्या -पेन 'भावेन परिणामविशेषेण कर्म्मणां पिण्डं 'चिकणन्ति ' अन्योऽन्यानुवेधेन गादसंश्लेषरूपमात्मनि चिनोति स भावो भवति भावपिण्डः, अत्र हेतुमाह-पस्मात्पिण्डनमिति पिण्डयते आत्मा स्वेन सह येन तत्पिण्डनं-कर्म ज्ञानावरणीयादि तत्पिण्डयति-आत्मना सह सम्बद्धं करोति स भावस्तस्मात्कारणात्स भावपिण्ड इत्युच्यते, अत्र चेत्थं प्रशस्तामशस्तत्वभावना येन भावेन शुभं
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अनुक्रम [८१]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [८१] • → “निर्युक्ति: [ ६६ ] + भाष्यं [१५] + प्रक्षेपं
८०
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्युतेर्मगिपावृत्तिः
॥२७॥
कर्म्म आत्मन्युपचीयते स प्रशस्तो भावपिण्डः येन त्वशुभं सोऽमशरत इति ॥ तदेवमुक्तो भावपिण्डः, तदुक्तौ च व्याख्याताः षडपि ना-पिण्डनिक्षेपे मादयः पिण्डाः सम्प्रत्यमीषां पिण्डाना मध्ये येनात्राधिकार स्तमभिधित्सुराद्द
दव्ये अचित्तेणं भावमि पसत्यएहिं पगयं । उच्चारित्थसरिसा सीसमविकोवणट्ठाए ॥ ६७ ॥
व्यारूपा - 'इइ' अस्यां पिण्डनिर्युक्तौ 'द्रव्ये द्रव्यपिण्डविषये 'अचित्तेन' अचित्तद्रव्यपिण्डेन 'भावे भावपिण्डविषये पुन: 'प्रशस्तेन ' प्रशस्तभावपिण्डेन 'प्रकृतं प्रयोजनं, यद्येवं तर्हि शेषाः किमर्थमभिहिताः ? अत आह—' उच्चारिए 'त्यादि, शेषा-नामादयः पिण्डाः पुनरुचरितार्थसदृशा उच्चरित :- प्रतिपादितः योऽर्थः पिण्डशब्देनान्वर्थयुक्तेन तत्सदृशाः तेन तुल्याः तेषामपि पिण्डा इत्येवमुच्चार्यमाणत्वात् ततः शिष्याणां मतेः विकोपनं -- प्रकोपनं झटिति तत्तदर्थव्यापकतया मसरीभवनं तदर्थमुक्ताः, इयमत्र भावना — जगति नामादयोऽपि पिण्डा उच्यन्ते, तत्रापि पूर्वोक्तप्रकारेण पिण्डशब्दमचिदर्शनात्, केवलमिह तेषां मध्येऽचित्तद्रव्यपिण्डेन प्रशस्तेन च भाव| पिण्डेनाधिकारः, न शेषेरप्रस्तुतत्वादिति, अस्यार्थस्य वैविक्त्येन प्रतिपादनार्थ शेषनामादिपिण्डोपन्यास इति । आह-मुमुक्षूणां सकलकर्म्मशृङ्खलाबन्धविमोक्षाय प्रशस्तेन भावपिण्डेन प्रयोजनं भवतु, अचित्तेन तु द्रव्यपिण्डेन किं प्रयोजनम् ?, उच्यते, भावपिण्डोपचयस्य तदुपष्टम्भकत्वाद्, एतदेवाह-
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आहारउवहिसेज्जा पसत्यपिंडस्वग्गहं कुणइ । आहारे अहिगारो अट्ठहिं ठाणेहिं सो सुद्धो ॥ ६८ ॥
१ स (व्यपिण्ड ) उपष्टम्भको यस्य तत्त्वं
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अधिकारदर्शनं
॥ २७ ॥
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [८३] » “नियुक्ति: [६८] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||६३||
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व्याख्या-इहाचित्तद्रव्यापिण्डविधा, तद्यथा--आहाररूप उपधिरूपः शय्यारूपथ, एप च विविधोऽपि प्रशस्तस्य-ज्ञानसंवमादि-16 रूपस्य भावपिण्डस्य 'उपग्रहम्' उपष्टम्भं करोति, सतसिविधेनाप्यतेन यतीनां प्रयोजनं, केवलमिह ग्रन्ये 'अधिकार प्रयोजनम्, 'आहारे' आहारपिण्डे, स चाष्टभिः स्थान:-उद्रमादिभिः परिशुद्धो यथा यतीनां गवेषणीयो भवति तथाऽभिधास्पते ॥ किं कारणमत्र विशेषत आ-18 हारपिण्डेन प्रयोजनम् ?, अत आह
निवार्ण खल कर्ज नाणाइतिगं च कारणं तस्स । निव्वाणकारणाणं च कारणं होइ आहारो ॥ ६९ ॥
व्याख्या-इह ममणां कार्य कर्तव्यं निर्वाणमेव न शेष, खलुशब्दोऽवधारणार्थः, शेषस्य सर्वस्यापि तुच्छत्वात् , 'तस्य' निर्वाणस्य कारणं 'झानादित्रिक' ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति (तत्वा०अ०१०१) वचनप्रामाण्यात, ततस्तदवश्यमुपादेयम् , उपायसेवामन्तरेणोपेयमात्यसम्भवात् , तेषां ज्ञानादीनां निर्वाणकारणानां कारणमष्टभिः स्थानः परिशुद्ध आहारः, आहारमन्तरेण धर्मकायस्थितेरसम्भवात् , उद्मादिदोषदुष्टस्य च चारित्रभ्रंशकारित्वात् ।। एतदेवाहारस्य निर्वाणकारणज्ञानादिकारणत्वं दृष्टान्तेन समर्थयते
जह कारणं तु तंतू पडरस तेसिं च होति पम्हाई । नाणाइतिगरसेवं आहारो मोक्खनेमस्स ॥ ७० ॥
व्याख्या-यथा पटस्य तन्तवः कारणं तेषामपि तन्तूनां कारणानि पक्ष्माणि भवन्ति, ' एवम् ' अनेन प्रकारेण ज्ञानादित्रिकस्य 'मोक्खनेमस्स ति नेमशब्दो देश्यः कार्याभिधाने रूढः, ततो मोक्षो नेमः-कार्य यस्य तस्य कारणं भवत्याहारः । इह कवित ज्ञाना-1 दीनां मोक्षकारणतामेव न प्रतिपद्यते, विचित्रत्वात्सवनित्तटचेः, ततस्तं पति ज्ञानादीनां मोक्षकारणता रष्टान्तेन भावयति
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८३॥
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [८६] .→ “नियुक्ति: [७१] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७१||
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पिण्डनियु- जह कारणमणुवहयं कज्ज साहेइ अविकलं नियमा । मोक्खक्खमाणि एवं नाणाईणि उ अविगलाई ॥१॥ आहारादेतेर्मलयगिव्याख्या-यथा बीजादिलक्षणं कारणमनुपहतम्-अग्न्यादिभिरविध्वस्तम् 'अविकलं' परिपूर्णसामग्रीसम्पन्न नियमाद कुरादिल- भावापाडता
क्षणायाजराया तिक्षणं कार्यं जनयति, 'एवम् ' अनेनैव प्रकारेण ज्ञानादीन्यप्यविकलानि-परिपूर्णानि तुशब्दादनुपहतानि च नियमतः 'मोक्षक्षमाणि ' मो-18
पक्रमच ॥२८॥
क्षलक्षणकार्यसाधनानि भवन्ति, तथाहि-संसारापगमरूपो मोक्षः, संसारस्य च कारणं मिथ्यात्वाज्ञानाविरतयः, तत्पतिपक्षभूतानि च ज्ञा-3 नादीनि, सतो मिथ्यात्वादिजनितं कर्म नियमतो ज्ञानायासेवायामपगच्छति, यथा हिमपातजनितं शीतमनलासेवायामिति, कारणानि मोक्षस्य ज्ञानादीनि, तानि च परिपूर्णानि तुशब्दादनुपातानि च, अनुपहतत्वं च चारित्रस्योद्मादिदोषपरिशुद्धाहारग्रहणे सति, नान्यथा, ततोऽभिः स्थानराहारो यतिभिध इत्येतदा वक्तव्यम् , अत आहारपिण्डेनेहाधिकारः ।। तदेवमुक्तः पिण्डः, सम्पत्पेषणा वक्तव्या, ततः। पिण्डस्योपसंहारमेषणायाधोपक्षेपं चिकीरिदमाह
संखेवर्षिडियत्थो एवं पिंडो मए समक्खाओ । फुडवियडपायडत्थं वोच्छामी एसणं एत्तो ।। ७२ ।।
व्याख्या एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण 'सक्षेपपिण्डितार्थः सङ्क्षेपेण-समासेन सामान्यरूपतयेत्यर्थः पिण्डितः-एकत्र मीलितः तात्पर्यमात्रव्यवस्थापितोऽर्थः-अभिधेयं यस्य स तथारूप: पिण्डो मया व्याख्यातः, 'इत:' ऊर्द्धम् एषणाम् एषणाभिधायिका गाथासन्ततिं ' स्फुटविकटमकटार्थी स्फुटः-निर्मल: न तासानवबोधेन कइमलरूपः विकट:--सूक्ष्ममतिगम्यतया दुर्भेदः प्रकट:-तथा- ॥ विधविशिष्टवचनरचनाविशेषतः सुखप्रतिपायो योऽक्षरेष्वव्याख्यातेष्वपि प्रायः स्वयमेव परिस्फुरचिव लक्ष्यते स प्रकट इति भावार्थः अर्थःअभिधेयं यस्याः सा तथा तां वक्ष्ये ॥ तत्र तसभेदपर्यायव्याख्येति प्रथमतः मुखावयोधार्थमेषणाया एकाधिकान्यभिपिरसुराह
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अनुक्रम [८]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [८८] • → “निर्युक्तिः [ ७३]
भाष्यं [ १५...] + प्रक्षेपं " ८०
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
एसण गवेसणा भग्गणा य उग्गोवणा य बोद्धव्या । एए उ एसणाए नामा एगडिया होंति ॥ ७३ ॥
व्याख्या -- एषणा गवेषणा मार्गणोद्रोपना एतानि चशब्दादन्वेषणाप्रभृतीनि चैषणाया एकार्थिकानि नामानि भवन्ति, तत्र 'इ इच्छायां एषणम् एषणा इच्छा, गवेषणा-अन्वेषणा गवेषणं गवेषणा, मार्गणं मार्गणा, उद्रोपनम् उद्रोपना ।। एवं नामान्यभिधाय सम्मति भेदानभिधित्सुराह
+
नाठवणा दविए भावंय एसणा मुणेयव्या । दव्वे भावे एक्केकया उ तिविहा मुणेयव्या ॥ ७४ ॥
व्याख्या - एषणा चतुर्विधा ज्ञातव्या, तथथा - नामैषणा स्थापनैषणा तथा 'द्रव्ये ' द्रव्यविषयेपणा भावे 'भावविषया च तत्र नामैषणा एषणा इति नाम यद्वा --- जीवस्याजीवस्य वैषणाशब्दान्वर्थरहितस्य एषणा इति नाम क्रियते स नामनामवतोरभेदोपचारात्, यद्वानाम्ना एषणा नामैषणा इति व्युत्पत्तेर्नामैषणेत्यभिधीयते, स्थापनैपणा एषणावतः साध्वादेः स्थापना, इषणा साध्यादेरभिन्ना तत उपचा रात्साध्वादिरेव एषणेत्यभिधीयते, ततः स स्थाप्यमानः स्थापनैषणा, स्थाप्यते इति स्थापना स्थापना चासौ एवणा च स्थापनैषणा, द्रव्येपणा द्विधा - आगमतो नोआगमतञ्च तत्राऽऽगमत एषणाशब्दार्थस्य ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, 'अनुपयोगो द्रव्य मिति वचनात्, नोआग२ मतविधा, सद्यथा ज्ञशरीरद्रव्यैषणा भव्यशरीरद्रव्यैषणा ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यैषणा च तत्रैषणाशब्दार्थज्ञस्य यच्छरीरमपगतजीवितं सिद्धशिलातलादिगतं तद्भूतभावतया ज्ञशरीरद्रव्यैषणा, यस्तु वालको नेदानीमेपणाशब्दार्थमवबुध्यते अथ चायत्यां तेनैव शरीरसमु च्छ्रयेण परिवर्द्धमानेन भोत्स्यते स भाविभावकारणत्वाद्भव्यशरीरद्रव्यैषणा, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता तु द्रव्यैपणा सचित्तादिद्रव्यविप
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'एषणा संबंधी कथनं आरभ्यते
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१०] » “नियुक्ति: [७५] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७||
दीप
पिण्डनियु- या, भाषणाऽपि विधा-आगमतो नोगमतश्च, तत्र आगमत एषणाशब्दार्थस्य परिज्ञाता तत्र चोपयुक्तः, 'उपयोगो भावनिक्षेप' इति एषणानिमेलयगि- वचनात्, नोआगमतो गवेषणाएषणादिभेदात विधा, तत्र नामैपणां स्थापनैपणां द्रव्यैषणां आगमतो नोआगमतश्च शशरीरभव्यशरीररूपा क्षेपाः रायाष्टाचाभावैषणां वागमतः सुज्ञानत्वादनादृत्य शेषां द्रव्यषणां भावैपणां च व्याचिख्यामुरिदमाह-'दग्वे' इत्पादि, द्रव्ये-द्रव्यविषया 'भावे ॥२९॥
च' भावविषया, एकैका 'प्रिविधा विकारा ज्ञातव्या, तत्र द्रव्यविषया त्रिविधा सचित्तादिभेदात् , तयथा-सचित्तद्रव्यविषया अचित्तद्रयविषया मिश्रद्रव्यविषया च, भावविषयापि विधा गवेषणादिभेदात् , तद्यथा-गवेषणषणा ग्रहणपणा ग्रासैपणा च ॥ तत्र द्रव्यैषणापि सचित्तद्रव्यविषया विधा, तयथा-दिपदविषया चतुष्पदविषया अपदविषया च, तत्र प्रथमतो द्विपदद्रव्यविषयामेपणामाइ--
जम्म एसइएगा सयरस अन्नो तमेसए नहूँ। सत्तं एसइ अनो पएण अन्नो य से मच्चु ॥ ७५ ॥
व्याख्या-इह यद्यपि एपणादीनि चत्वारि नामानि मागेकाथिकान्युक्तानि, तथाऽपि तेषां कथश्चिदर्थभेदोऽप्यस्ति, तथाहि-एषणा बाइच्छामात्रमभिधीयते, तच गवेषणादावपि विद्यते, अत एव गवेषणादय एपणायाः पर्याया उक्ताः, गवेषणादीनां तु परस्परं नियतोऽप्यर्थ-|
भेदोऽस्ति, तथाहि-गवेषणमनुपलभ्यमानस्य पदार्थस्य सर्वतः परिभावन, मार्गण-निपुणबुद्धयाऽन्वेषणम् , उगोपन-विवक्षितस्य पदार्थस्य
जनप्रकाशचिकीपों, तत एतेषां क्रमेणोदाहरणान्याह-एकः कोऽप्यनिर्दिष्टनामा देवदत्तादिकः सन्तत्यादिनिमित्तं सुतस्य 'जन्म' उत्पत्ति नाएपते' इच्छति, इदमेषणाया उदाहरणम्, अन्यः पुनः कोऽपि यज्ञदत्तादिकः सुतं कापि नष्टम् 'पपते' गवेषयते, इदं गवेषणाया उदानाहरणम् , अन्यः कोऽपि विष्णुमित्रादिकः 'पदेन' पदानुसारेण धूलीबहलभूमिसमुत्थचरणप्रतिविम्चानुसारेणेत्यर्थः, शत्रुम् 'एप' मृगयते इदं पागंणाया उदाहरणम्, अन्यः पुन: ' से ' तस्य शत्रोः 'मृत्यु'मरणम् 'एपते ' उद्गोपयति, सर्वजनप्रकाशं मृत्युमभिधातुमभिल-16
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१०] .→ “नियुक्ति: [७५] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं .. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||७||
दीप
पतीत्यर्थः, इदमुद्रगोपनाया उदाहरणम् । तदेवमुक्ता सचित्तद्विपदद्रव्यविषया एषणा, सम्मति सचित्तचतुष्पदापदविषयां मिश्रविषयामचिविषयां च प्रतिपादयति
एमेव सेसएसुवि चउप्पयापयअचित्तमीसेसु । जा जत्थ जुज्जए एसणा उ तं तत्थ जोएज्जा ॥ ७६ ॥
व्याख्या-'एवमेव ' द्विपदेष्विव 'शेषेष्वपि ' द्विपदेभ्यो व्यतिरिक्तेष्वपि चतुष्पदापदाचित्तमिश्रेषु गवादिवीजपूरकादिद्रम्मादिकटककेयूरायाभरणविभूषितसुतादिरूपेषु द्रव्येषु विषयेषु या यत्रैषणा-इच्छागवेषणामार्गणादिरूपा 'युज्यते' घटते तां तत्र पूर्वोक्तगा-1 यानुसारेण योजयेत्, यथा कोऽपि दुग्धाभ्यवहाराय गामिच्छति, कोऽपि पुनस्तामेव कापि नष्ट गवेषयते, अन्यः पुनस्तामेव गां परास्क|न्दिभिरपहियमाणां गवादिपदप्रतिविम्बानुसारेण मृगयते, कोऽपि पुनः स्वशौर्यप्रकटनाय जनप्रकाशं व्याघ्रमपगतासं चिकीर्षति, एवमपदादिष्यपि भावना कायों ।। उक्ता द्रव्येषणा, साम्मतं भावेषणां निमकारामभिषित्सुराह
भावेसणा उ तिविहा गवेसगहणेसणा उ बोद्धव्वा । गासेसणा उ कमसो पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥ ७७ ।।
व्याख्या-'भावः' झानादिरूपः परिणामविशेषः वद्विषया एषणा भाषणा, यथा ज्ञानदर्शनचारित्राणामेकदेशतः समूलपातं वा। घावो न भवति तथा पिण्डादेषणमिति भावः, साऽपि 'त्रिया' त्रिप्रकारा 'क्रमशः' क्रमेण प्रज्ञता वीतरागैः, केन क्रमेण ! इत्यत आहगवेसे 'त्यादि, पूर्व गवेषणेषणा ततो ग्रहणपणा ततो ग्रासैषणा || कस्मात्पुनरित्वं गवेषणादीनां क्रम ? इत्याइअगविट्ठस्स उ गहणं न होइ न य अगहियस्स परिभोगो । एसणतिगरस एसा नायव्वा आणुपुष्वी उ ॥ ७८ ॥
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SAREauraton Intemational
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः)
मूलं [९३] » “नियुक्ति: [७८] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं । . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियु
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७८||
दीप
व्याख्या-इह न 'अगवेषितस्य ' अपरिभावितस्य पिण्डादेग्रहण, नाप्यगृहीतस्य परिभोगः, तत एपगात्रिकस्य एषा ' पूर्वोक्ता |गवेपणानि मेलयगि-18'आनुपुब्बी' क्रमो ज्ञातव्यः ।। सम्पति गवेषणाया नामादीन् भेदानाह
क्षेपाः रीयावृत्तिः
नामं ठवणा दविए भावंमि गवेसणा मुणेयव्वा । दव्वंमि कुरंगगया उग्गमउप्पायणा भावे ॥ ७९ ॥ ॥३०॥ व्याख्या-नाम ति नामगवेषणा स्थापनागवेषणा एते च एपणे इव सप्रपञ्चं स्वयमेव भावनीये, 'द्रव्ये' द्रव्यविषया 'भावे ।
भावविषया, तत्र द्रव्यविषया आगमनोभागमभेदाद्विधा, तत्राऽऽगमतो गवेषणाशब्दार्थज्ञाता तब चानुपयुक्तः, 'अनुपयोगो द्रव्य 'मिति । वचनात् , नोआगमतस्त्रिधा शरीरभव्यशरीरतद्वयतिरिक्तभेदात् , तत्र ज्ञशरीरभव्यशरीररूपे द्रव्पगवेषणे एषणे इव भावनीये, शशरीरभव्य-MAI शरीरव्यतिरिक्तगवेषणा सचिचादिद्रव्यविपया, तत्र कुरङ्गगजा उदाहरणं, तथा चाह-दमि कुरंगगया' द्रव्ये-द्रव्यविषयायां गवेपणायां कुरङ्गाः-मृगाः गजाः-हस्तिनो दृष्टान्ताः, 'भावे भावविपया गवेषणा 'उग्गमउपायणचि सूचनात्सूत्रमिति न्यायादुद्मोत्सादनादोपविमुक्काहारविषया ।। यदुक्तं-'दब्बंमि कुरंगगया' इति, तत्र कुरणादृष्टान्तं गाथादिकेनाभिधित्सुराह
जियसत्तु देवि चित्तसभ पविसणं कणगपिट्ठपासणया । दोहल दुब्बल पुच्छा कहणं आणा य पुरिसाण॥८॥ सीवन्निसरिसमोयगकरणं सीवन्निरुक्खहेढेसु । आगमण कुरंगाणं पसत्थ अपसत्थ उवमा उ ॥ ८ ॥
व्याख्या-मुगम, नवरं भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदं-क्षितिप्रतिष्ठितं नाम नगरं, तत्र राजा जितशत्रुस्तस्य भार्या पट्टमहा-81 देवी नाम्ना सुदर्शना, तस्याः कदाचिदापन्नसत्त्वाया राज्ञा सह चित्रसभायां प्रविष्टायाचित्रलिखितान् कनकपृष्ठान्मृगानवलोक्य तन्मांसभ-1
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१६] » “नियुक्ति: [८१] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||८१||
दीप
क्षणे दौडदमजायत, दौडदे चासम्पद्यमाने तस्याः खेदवशतः शरीरस्य दौर्बल्यमभवत्, तब दृष्ट्वा नृपतिः सखेदं तां पृष्टवान् , यथा-दा। प्रिये ! किमतीव शरीरे तब दौर्बल्यमजायत !, ततः सा दोहदमचकयत । ततो राजा सत्वरं कनकटकुरकानयनाव पुरुषान् प्रेषितवान् , तिऽपि च पुरुषाः स्वचेतसि चिन्तयामासुः-इह यस्य यदलभं स तत्रासक्तः सन् प्रमादभावं भजमानः मुखेनैव बध्यते, कनकपृष्ठानां च कुरगाणामिष्टानि श्रीपीफलानि, सानि च सम्पति न विद्यन्ते, ततस्तत्सदृशान्मोदकान् कृत्वा श्रीपणांक्षतळेषु सर्वतः पुञ्जकपुञ्जका-|| कारेण क्षिप्त्वा तेषां समीपे पाशान स्थापयाम इति तथैव कृतं, ते च कनकपृष्ठा रुरवो निजेन यूधाधिपतिना सह स्वेच्छया परिभ्रमन्तस्तत्रागता:, यूथाधिपतिय श्रीपणीफलाकारान् पुञ्जकपुञ्जकस्थितान्मोदकानवलोक्य मृगानुक्तवान् , यथा--भो रुखो ! युष्माकं बन्धनार्थमिदं केनापि धूर्तेन कृतं कूटं वर्तते, यत्तो न सम्पति श्रीपर्णीफलानि सम्भवन्ति, न च सम्भवन्त्यपि पुञ्जकपुञ्जकाकारेण घटन्ते, अथ : मन्पेयास्तथाविधपरिभ्रमद्वातसम्पर्कतः पुजकपुञ्जकाकारेण घटन्ते, तदप्ययुक्तं, ननु पुरापि वाता वान्ति स्म, न तु कदाचनाप्पेवं पुञ्जकपु-18 अकाकारण भवन्ति स्म, तथा चैतदेव नियुक्तिकारः पठति
विइअमेयं कुरंगाणं, जया सीवन्नि सीयइ । पुरावि वाया वायंता न उणं पुंजकपुंजका ॥ ८२ ॥
व्याख्या-'विदित' प्रतीतम् , एतत्कुरगाणां यदा श्रीपणी 'सीदति' धातूनामनेकार्थत्वाकलति, तस्मान्नेदानी फलानि सम्भवन्ति, सम्भवन्तु वा तथाऽपि कथं पुजकपुञ्जकाकारेण स्थितानि !, वातशाचेन्ननु पुरापि वाता वान्ति स्म, न पुनरेवं पुञ्जकपुञ्जकाः फलानामभवन, तस्मास्कूटमिदमस्माकं बन्धनाय कृतं वत्तते इति मा यूयमेतेषामुपकण्ठं गमत, एवमुक्ते यैस्तद्वचः प्रतिपनं ते दीर्घजीचिनो बनेषु खेच्छाविहारसुखभागिनश्चाजायन्त, यस्त्वाहारलम्पटतया तदवो न प्रतिनं ते पाशवन्धनादिदुःखमागिनोऽभवन् । इह या
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [९७] » “नियुक्ति: [८२] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं । . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२||
दीप
पिण्टनियु- थाधिपतेः श्रीपणीफलसहशमोदकद्रव्यसदोषत्वनिर्दोषत्वपर्यालोचनं सा द्रव्यगवेषणा । इह निीतकारेण 'पसस्थअपसत्य उवमा उ' इति द्रव्यागवेषतर्मलयाग-ALIENCE रीयावृत्तिः
प्रतिपादयता दार्शन्तिकोऽप्यर्यः सूचितो द्रष्टव्यः, स चाय-पूयाधिपतिस्थानीया आचार्याः मृगयूथस्थानीयाश्च साधवः, तत्र ये गुरुनियोगतणार्या कुरा आधाकम्मोदिदोषदुष्टाहारपरिहारिणस्ते प्रशस्तकुरकोपमा द्रष्टव्याः, ये त्वाहारलाम्पटवतो गुव्वाज्ञामपाकृत्याधाकम्मोदिपरिभोगिणो |
दृष्टान्तः ॥३१॥ बभूवः ते अमशस्तकुरङ्गसदृशा वेदितव्याः, अत्रार्थे च कथानकमिदं-हरन्तो नाम सन्निवेशः, तत्र यथाऽऽगर्म विहरन्तः समिता नाम
सूरयः समाययुः, तत्र च जिनदत्तो नाम श्रावक आसीत्, स च जिनवचनसाधुभक्तिपरीतचेता दानशौण्डः कदाचित्साधुनिमितं भक्तमाधाकर्म कारितवान, सूरयव सर्वमपि ते वृत्तान्तं कथन्नित्परिज्ञातवन्तः, ततस्तैः साधवस्तत्र प्रविशन्तो निवारिताः, यथा-भोः। साधवस्तत्र साधुनिमित्त आहारः कृतो वर्चते इति मा तत्र पूर्य गमत, एवमुक्ते यैस्तद्वचः प्रतिपन ते आधाकर्मपरिभोगजनितपापकमेणा न बद्धा गुर्वाज्ञा च परिपालिता, ततः शुद्धशुद्धतरसंयमप्रवृत्तिभावतो मुक्तिसुखभागिनोऽभवन् , यैस्त्वाहारलाम्पटयतो भाविनं| दोषमवगणय्याधाकर्मणि झपा इव बडिशनिवेशिते मांसे मवृत्ताः ते कुगतिहेत्वाधाकर्मपरिभोगतो गुवोज्ञाभावश्च दीर्घतरसंसारभागिनो जाताः।। साम्पतं गजदृष्टान्तमाह
हत्थिरगहणं गिम्हे अरहट्टेहिं भरणं च सरसीणं । अच्चुदएण नलवण आरूढा गयकुलागमणं ॥ ८३ ॥ - व्याख्या-दस्तिग्रहणं मया कार्यमित्येवं राज्ञश्चिन्ता, ततस्तद्भहणाय ग्रीष्मकालेऽपि पुरुषप्रेषणा तैश्च सरसीनामरघट्टकैर्भरणं । ॥३१॥
कृतं, ततोऽत्युदकेन नलवनान्यतिशयेन प्ररूढानि, ततो गजकुलस्यागमनमिति गाथातरार्थः ॥ भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तिचेदम्-आनन्दं नाम पुरं, तत्र रिपुमईनो नाम राजा, तस्य भार्या धारिणी, तस्य च पुरस्य प्रत्यासनं गजकुलशतसहस्रसंकुलं ।
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [९८] » “नियुक्ति: [८३] + भाज्यं [१५...] + प्रक्षेपं ।' . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||८३||
दीप
विन्ध्यमरण्य, ततो राजा कदाचिद् गजबलं महावलमित्यवश्यं मया गजा ग्रहीतव्या इति परिभाव्य गजग्रहणाय सत्वरं पुरुषान् प्रेरयामास, बाते च पुरुषाथिन्तितवन्तो यथा-गजानां नलचारिरभीष्टा, सा च सम्पति ग्रीष्मकाले न सम्भवति, किन्तु वर्षाम, तत इदानीमरघ? का
सरसीविभृमो येन नलवनान्यतिपरूढानि भवन्तीति, तथैव कृतं, नलवनप्रत्यासन्नाश्च सर्वतः पाशा मण्डिताः, इतश्च परिभ्रमन्तो यूथाधिपतिसहिता इस्तिनः समाजग्मुः, यूथाधिपतिश्च तानि नलवनानि परिभाव्य गजान प्रति उवाच-भोः स्तम्बेरमा! नामूनि नलवनानि स्वाभाविकानि, किन्त्वस्माकं बन्धनाय केनापि धूचेंन कृतानि कूटानि, यत एवं नलवनान्यतिप्ररूढानि सरस्यो चाऽतीव जलसम्भृता वर्षासु सम्भवन्ति नेदानी ग्रीष्मकाले, अथ ब्रवीरन् प्रत्यासन्नचिन्ध्यपर्वतनिझरणप्रवाइत एवं सरस्यो भृता नलवनानि चातिप्ररूढानि ततो नामूनि कूटानि, तदयुक्तम्, अन्यदाऽपि हि खलु निझरणान्यासीरन, न चैवं कदाचनाप्यतिजकभृताः सरस्योऽभूवन् , तथा चैतदर्थसमाहिकामेव नियुक्तिकारो गाथां पठति
विइयमेयं गजकुलाणं, जया रोहंति नलवणा । अन्नयावि झरंति हृदा, न य एवं बहुओदगा ॥ ८४ ॥
व्याख्या-विदितमेतद् गजकुलानां यदा 'रोहन्ति । अतिशयेन प्ररूढानि भवन्ति नलवनानि, तस्मान्नामूनि स्वाभाविकानि, अथ निर्झरणवशादेवं पदानि तत आह-अन्यदाऽपि इदा झरन्ति, न वे कदाचनापि बहूदकाः सरस्योऽभवन् , तस्मादून केनाप्यमूनि कृतानि कूटानीति मात्र यूयं यासिष्ट, एवमुक्ते यैस्तद्वचः प्रतिपन्नं ते दीर्घकाले वनस्वेच्छाविहारमुखभागिनो जाताः, यैस्तु । न कृतं ते बन्धबुभुक्षादिदुःखभागिनः, इहापि गजयूथाधिपतेर्नकवनसदोषनिर्दोषरूपतापरिभावनं द्रव्यगवेषणा, दाष्टन्तिकयोजना तु पूर्व
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [९९] → “नियुक्ति: [८४] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
भेदाच
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८४||
पिण्डनियु- चत स्वयमेव भावनाया, तदेवमुक्ता द्रव्यगवेषणा, साम्पतं भावगवेषणा कर्तव्या, सा च उगमाशुद्धाहारविषया, तत्र प्रथमत उद्गमस्यै- उद्गमस्यैतेर्मलयगि |काथिकानि नामानि नामादिकांश्च भेदान प्रतिपादयति
कार्थिकानि रीयावृत्तिः ।
उग्गम उग्गोवण मग्गणा य एगद्रियाणि एयाणि । नामं ठवणा दविए भावमि य उग्गमो होई ॥८५॥ | ॥३२॥ व्याख्या-उद्गम उगोपना मार्गणा च एकाथिकान्येतानि नामानि, स चोद्मश्चतुर्धा भवति, तयथा-'नाम'ति नामोद्गमः-यद-
दम इति नाम, अथवा जीवस्पाजीवस्य वा यद् उद्गम इति नाम स नामनामवतोरभेदोपचारात्, यद्वा नाना उद्मो नामोद्गम इति । व्युत्पत्तेनोंमोद्रमः, स्थापनोद्गमः उद्मः स्थाप्यमानः, 'द्रव्ये' द्रव्यविषयः, 'भावे' भावविषयः । तत्र द्रव्योगमो विवा-आगमतो नोआगमतच, नोआगमतोऽपि त्रिधा-ज्ञशरीरभव्यशरीतद्वयतिरिक्तभेदात् , तत्राऽऽगमतो नोआगमतश्च ज्ञशरीरभव्यशरीररूपौ द्रव्यगवेषणा६ वद् भावनीयौ, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं तु द्रव्योगमं तथा नोभागमतो भावोद्गमं च प्रतिपादयति
दुव्बंमि लड्डुगाई भावे तिविहोग्गमो मुणेयव्यो । दसणनाणचरिते चरित्तुगमेणेत्थ अहिगारो ॥ ८६ ॥ व्याख्या-'द्रव्ये ' द्रव्यविषये उद्गमः 'लड्डुकादौ' लड्डुकादिविषयो लड्डुकादेः सम्बन्धी वेदितव्या, अत्राऽऽदिशब्दाद ज्योतिरादिपरिग्रहा, तथा 'भावे' भावविषयः 'त्रिविधः' त्रिपकारः ज्ञातव्यः, तद्यथा-'दर्शने ' दर्शनविषयः ज्ञाने' ज्ञानविषयः, ॥३२॥ चारित्रे' चारित्रविषयः, अत्र तु चारित्रोद्गमेनाधिकार:-प्रयोजनं, चारित्रस्य प्रधानमोक्षाङ्गत्वात्, तथाहि-ज्ञानदर्शने सती अपि न चारित्रमन्तरेण कर्ममलापगमाय प्रभवतः, श्रेणिकादौ तबाऽनुपलम्भात्, चारित्रं पुनरवश्यं ज्ञानदर्शनाविनाभावि स्वरूपेणाप चाभि
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀.
दीप
अनक्रम
'उद्गमस्य पर्याया: एवं तस्य विषयक वर्णनं
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [१०१] . "नियुक्ति: [८६] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८६||
दीप
नवकम्मोपादाननिषेधपूर्वोपार्जितकर्मापगमकरणस्वरूपं, ततस्तत्प्रधानं मोक्षस्याङ्गं, प्रधानानुयायिन्पश्च प्रेक्षावतां प्रात्यः, ततोऽत्र चारित्रोद्गमेन प्रयोजनम् ।। लड्डुकादेरित्यत्रादिशब्देन लब्धं ज्योतिरुद्मादिरूपं द्रव्योगमं विवरीतुमाइ| जोइसतणोसहीणं मेहरिणकराणमुग्गमो दधे । सो पुण जचो य जया जहा य दवुगामो वयो । ८७ ॥
व्याख्या-ज्योतिषां-चन्द्रसूर्यादीनां तृणानां दर्भादीनां औषधीनां-शाल्यादीनां मेघानां-जीमूतानां ऋणस्य-उत्तमाय दातव्यस्य कराणा-राजदेयभागानां, उपलक्षणमेतत् अन्येषामपि द्रव्याणां, य उद्गमः स 'द्रव्ये द्रव्यविषयो द्रव्यस्प सम्बन्धी वेदितम्यः स पुनद्रव्योगमः 'यतः' यस्मात्सकाशात 'यदा' यस्मिन् काले 'यथा' येन प्रकारेण भवति तथा वाच्यः, तत्र ज्योतिषां मेघानां च। आकाशदेशात् तृणानामौषधीनां च भूमेः ऋणस्य व्यवहारादेः कराणां नृपतिनियुक्तपुरुषादेः, तथा यदेति ज्योतिषां मध्ये सूर्यस्य प्रभाते शेषाणां तु कस्यापि कस्याश्चिद्वेलायां तृणादीनां प्रायः श्रावणादौ, तथा यथेति ज्योतिषां मेघानां चाऽऽकाशे प्रसरणेन तृणा-| नामौषधीनां च भूमी स्फोटयित्वा ऊर्दू निस्सरणेन ऋणस्य पञ्चकशतादिवर्द्धनरूपेण कराणां प्रतिवर्ष गृहस्य गृहस्य उम्मद्वयादि ग्राह्यमित्येवंरूपेण, एवं शेषाणामपि द्रव्याणां यतो यदा यथा च यथासम्भवमुद्रमो भावनीयः । इद पार 'दब्बंमि लड्डुगाई' इत्युक्तं, तेन च लडकमियकुमारकथानकं सूचितम् , अतस्तदेवेदानी गाथाश्येणोपदर्शयतिवासहरा अणुजत्ता अत्थाणी जोग किड्डकाले य । घडगसरावेसु कया उ मोयगा लड्डुगपियरस ॥ ८८॥ जोग्गा अजिण्ण मारुय निसग्ग तिसमुत्थ तो सुइसमुत्थो । आहारुग्गमचिंता असुइति दुहा मलप्पभवो ॥ ८९ ॥
अनुक्रम [१०१]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१०५] » “नियुक्ति: [१०] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियं- तेर्मलयगिरीयावृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२०||
दीप
तस्सेवं वेरग्गुग्गमेण सम्मत्तनाणचरणाणं । जुगवं कमुग्गमो वा केवलनाणुग्गमो जाओ ॥ ९ ॥ | द्रव्योद्गमे
व्याख्या-'वासगृहात् ' वासभवनात् अनुयात्रा-निर्गमः, तत आस्थान्यां योग्य क्रीडा सा व्यधीयत, ततः 'काले' भोजन- लड्डुकमिवेलायां तस्य 'लड्डुकप्रियस्य' मोदकप्रियस्य कुमारस्य योग्या घटेषु शरावेषु च कृत्वा मोदका जनन्या प्रेषिताः, ते च परिजनेन सह स्वेच्छ तेन भुक्ताः, ततो भूयोऽपि योग्यक्रीडा निरीक्षणासक्तचित्ततया तस्य रात्री जागरणभावतस्ते मोदका न:
कथा जीणोंः, ततोऽजीणेदोषप्रभावतोऽतीव पूतिगन्धो मारुतनिसर्गोऽभवत् , तत आहारोगमचिन्ता जाता, यथा 'त्रिसमुत्या' घृतगुडक-1 णिकासमुद्भवा एते मोदकाः, ततः शुचिसमुत्थाः, सूत्रे च जातावेकवचनं, केवळ द्विधा मलप्रभवोऽयं देहः, ततस्तत्सम्पर्कतोऽशुचयो | जाता इत्येवं तस्य वैराग्योरमेन ज्ञानदर्शनचारित्राणां युगपत्क्रमेण वा उद्मो जातः, ततः केवलज्ञानोद्गम इति गाथातरार्थः ।। भावार्थस्तु | कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-श्रीस्थलकं नाम नगरं, तत्र राजा भानुः, तस्य भार्या रुक्मिणी, तया सुरूपनामा तनयः, स च यथासुखं पञ्चभिधोत्रीभिः परिपाल्यमानः प्रथममुरकुमार इवानेकस्वजनहृदयाभिनन्दनं कुमारभावमधिरुरोह, ततः शुक्लपक्षचन्द्रबिम्बामिव | प्रतिदिवसं कलाभिरभिवर्द्धमानः क्रमेण कमनीयकामिनीजनमनःप्रहादकारिणीं यौवनिकामधिजगाम, तस्मै च स्वभावत एव रोचन्ते मोदकाः | ततो लोके तस्य मोदकपिय इति नाम प्रसिद्धिमगमत, स च कुमारोऽन्यदा वसन्तसमये वासभवनात पातरुत्थाय आस्थानमण्डपि-1 कायामाजगाम, तत्र च निजशरीरलवणिमापाकृतमुरसुन्दरीरूपाहडनरमनोहरविलासिनीजनगीतनृत्तादिकं परिभावयितुं पावत्तेत, तत्र च स्थितस्य भोजनवेलायामागतायां भोजननिमिचं जननी प्रधानशरावसम्पुटेषु शेषपरिजननिमित्तं च घटेषु कृत्वा मोदकान् प्रेषितवती, ततस्तेन परिजनेन सह मोदका यथेच्छं बुभुजिरे, ते च रात्रावपि गीतनृत्तादिव्यालिप्तचिचतया जागरणभावतो न जीर्णाः, ततोऽजीण
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [१०५] . "नियुक्ति: [१०] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२०||
दीप
दोषपभावतोऽधोबातोऽतीय प्रतिगन्धिनिर्जगाम, तद्भन्धपुद्गलाश्च सर्वतः परिभ्रमन्तस्तन्नासिका प्रविविशुः, ततस्तं तथारूपं पूतिगन्धमाघ्रया चिन्तयामास, यथाऽमी मोदका घृतगुडकणिकादिनिष्पन्नास्ततः शुचिद्रव्यसमुत्था एवैते केवलमयं यो देहो जननीशोणितजनक्शुक्ररूपद्विधामलमभवत्वादशुचिरूपः, तत्सम्पर्यवशतोऽशुचिरूपा जाताः, दृश्यन्ते च कर्पूरादयोऽपि पदार्थाः स्वरूपतः सुरभिगन्धयोऽपि देहसम्प-18 केतः क्षणमात्रेण दुरभिगन्धयो जायमानाः, क्षणान्तरे शरीरगन्धस्यैव पूत्पात्मकस्योपलम्भात् , तत इत्यमशुचिरूपस्यानेकापायशतसकुलस्य शरीरस्यापि कृते ये गृहमासाद्य नरकादिकुगतिविनिपातकारीणि पापकर्माणि सेवन्ते ते सचेतना अपि मोहमयनिद्रोपहतविवेकचेतनत्वादचेतना एव परमार्थतो बेदितव्याः, यदपि च तेषां शास्त्रादिपरिज्ञानं वदपि परमार्थतः शरीरायासफलं, यद्वा तदपि पापानुवन्धिकम्मोदयतस्तथाविधक्षयोपशमनिवन्धनत्वादशुभकर्मकार्यवेति तस्ववेदिनामुपेक्षास्पदं, विद्वचा हि सा तत्त्ववेदिनां प्रशंसाहो या यथाऽवस्थितं वस्तु विविच्य हेयोपादेयहानोपादानप्रवृत्तिफला, या तु सकलजन्माभ्यासमवृत्या कथमपि परिपाकमागवाऽपि सती सदैव तथाविधपापकम्मोदयवशत एकान्ताशुचिरूपेष्वपि युवतिजनवदनजघनवक्षोरुहादिशरीरावयवेषु रामणीयकव्यावर्णनफला सा इहलोकेऽपि शरीरायासफला परलोके च कुगतिविनिपातहेतुरित्युपेक्षणीया, ये पुनः परमर्पयः सर्वदैव सर्वज्ञमतानुसारितोगमशाखाभ्यासतो विदितय
थाऽवस्थितहेयोपादेयवस्तव इत्थं शरीरस्याशुचिरूपतां परिभाष्य युवतिकलेघरेषु नाभिरज्यन्ते नापि कम्मोणि स्वशरीरकृते पापानि समाचिरन्ति किन्तु शरीरादिनिस्पृहतया निरन्तरं सम्यक्शास्त्राभ्यासतो ज्ञानामृताम्भोधिनिमनाः सममित्रशत्रवः परिषहादिभिरजिताः सक
लकम्मनिम्मूलनाय यतन्ते ते धन्यास्ते तत्त्वेदिनस्तानहं नमस्करोमि तदनुष्ठितं च मार्गमिदानीमनुतिष्ठामि, इत्येवं तस्य मोदकमियस्य || कुमारस्य वैराग्योद्गमेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामुद्रमो बभूक, ततः केवलज्ञानोद्गम इति ॥ तदेवमुक्तं मोदकप्रियकुमारकथानकं, सम्पति
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [१०५] . "नियुक्ति: [१०] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
उद्मशुद्ध
पिण्डनियु- केमेलयगि- रीयावृत्तिः
मोक्षहेनुता
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२०||
॥३४॥
दीप
100०००००००००००००००००००००००००
यदुक्तं-'चारित्रोद्गमेनाधिकार' इति, तत्र चारित्रस्योद्गमेनाधिकारः शुद्धस्य द्रष्टव्यो, नाशुद्धस्य, अशुद्धस्य मोक्षलक्षणकार्यसम्पादकत्वायोगात्, न खलु धीजमुपहतमकुरं जनयति,सर्वत्राप्यनुपहतस्यैव कारणस्य कार्यजनकत्वात् , चारित्रस्य च शुद्धेः कारणं द्विपा, तयथा- आन्तरं वाद्यं च, ते द्वे अपि प्रतिपादयति
दसणनाणप्पभवं चरणं सुद्धेसु तेसु तस्सुद्धी । चरणेण कम्मसुद्दी उग्गमसुद्धा चरणसुद्धी ॥ ११ ॥
व्याख्या-इह यतो ज्ञानदर्शनमभवं चारित्रं, ततस्तयोः शुद्धयोस्तस्य चारित्रस्य शुद्धिर्भवति नान्यथा, तस्मादवश्यं चारित्रशुद्धिनिमित्तं चारित्रिणा सम्यग्ज्ञाने सम्यग्दर्शने च यतितव्यं, यत्नच निरन्तरं सद्गुरुचरणकमलपर्युपासनापुरस्सरं सर्वज्ञमतानुसारितोगमशास्त्राभ्यासकरणम्, एतेन चारित्रशुद्धेरान्तरं कारणमुक्तम्, अथ चारित्रशुद्धयाऽपि किं प्रयोजनं येनेत्यं तच्छुद्धिरन्वेष्यते ?, अत आह-चरणेन कर्मशुद्धिा, चरणेन विशुद्धेन कर्मणो-ज्ञानावरणीयादिकस्य शुद्धिः-अपगमो भवति, तदपगमे चात्मनो यथाऽवस्थितस्वरूपलाभात्मको मोक्षः, ततो मोक्षार्थिना चरणशुद्धिरपेक्ष्यते, तथा न केवलयोरेव ज्ञानदर्शनयोः शुद्धौ चारित्रशुद्धिः किन्तुद्मशुद्धौ चारित्रशुद्धिः । एतेन वाह्य कारणमुक्तं, ततश्चरणशुद्धिनिमित्तं सम्यग्दर्शनज्ञानवतापि नियमत उद्गमदोषपरिशुद्ध आहारो ग्राह्यः ॥ ते चोद्गमदोषाः षोडश, तानेव नामतो निर्दिशति
आहाकम्मदेसिय पूईकम्मे 2 मीसजाएँ य । ठवर्णा पाहुडियाएं पाओअर कीर्यं पामिच्चे ॥ ९२ ॥ परियट्टिएँ अभिहँडे उब्भिन्ने" मालोहडे" इय । अच्छिजे" अणिसँढे अज्झोयर, य सोलसमे ॥ ९३ ॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [१०८] . "नियुक्ति: [१३] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||९३||
दीप
ध्याख्या-'आधाकम्भेति आघानं-आधा उपसर्गादात' इत्यङ्-प्रत्ययः, साधुनिमित्त चेतसः प्रणिधान, यथाऽमुकस्य साधो कारणेन मया भक्तादि पचनीयमिति, आधया कर्म-पाकादिक्रिया आषाकर्म तद्योगाद् भक्ताद्ययाधाकर्म, इह दोषाभिधानसक्रमेऽपि यदोषवतोअभिधानं तदोपदोपवतोरभेदविवक्षया द्रष्टव्यं, यद्वा-आधाय-साधुं चेतसि प्रणिधाय यत्क्रियते भक्तादि तदाधाकम्में, पृषोदरादित्वा | यलोपः १, तथा उद्देशनम् उद्देशः-यावदर्थिकादिप्रणिधानं तेन निर्दृत्तमौदेशिकं २, तथा उद्गमदोषरहिततया स्वतः पवित्रस्य सतो भक्तादेरन्यस्याविशुद्धकोटिकभक्तादेरवयवेन सह सम्पर्कतः पूते:-पूतीभूतस्य कर्म-करणं पूतिकर्म तयोगाद्भक्तायपि पूातकम्म ३, तथा मिश्रेण-कुटुम्बप्रणिधानसाधुप्रणिधानमीलनरूपेण भावेन जातं यद् भक्कादि तन्मिश्रजातं ४, तथा स्थाप्यते-साधुनिमित्तं कियन्तं कालं यावनिधीयते इति स्थापना, यदा-स्थापनं साधुभ्यो देयमितिबुद्धथा देयवस्तुनः कियन्तं कालं व्यवस्थापनं स्थापना, तद्योगादेयमपि स्था-||3|| पना ५, तथा कस्मैचिदिष्टाय पूज्याय वा बहुमानपुरस्सरीकारेण यदभीष्टं वस्तु दीयते तत्माभूतमुच्यते, ततः प्रातमिव भाभृतं साधुभ्यो |३|| भिक्षादिकं देयं वस्तु, प्राभृतमेव प्राभूतिका, 'अतिवर्तन्ते स्वार्थे प्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानीति वचनात् पूर्व नपुंसकत्वेऽपि कमत्यये समानीते सति स्त्रीत्वं, यद्वा-प इति प्रकर्षण आ इति साधुदानलक्षणपर्यादया भृता निर्वाचिता यका भिक्षा सा प्राभृता, ततः खार्थिककप्रत्ययविधानात् प्राभूतिका ६, तथा साधुनिमित्तं मण्यादिस्थापनेन भित्ताचपनपनेन वा मादुः-प्रकटत्वेन देयस्य वस्तुनः || करणं प्रादुष्करणं तद्योगाद्भक्ताद्यपि मादुष्करणं, यद्वा प्रादुः-प्रकट करणं यस्य तत् प्रादुष्करणं ७, तथा क्रीतं यत्साध्वर्थ मूल्येन परिगृहीतं ८, तथा 'पामिथे' इति अपमित्य-भूयोऽपि तव दास्यामीत्येवमभिधाय यत् सावुनिमित्चमुच्छि गृह्यते तदपमित्यम्, इह ||
१ 'अव्ययत्वे त्यत्राव्ययशब्दसम्बन्धिनो हि स्वादेर्लुप् , तेन प्रणम्येत्यादौ भावप्रधानत्वेन कोदौ अवतभानवाद् अन्यपदार्थादिसम्बन्धि
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [१०८] .. "नियुक्ति: [१३] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिन्डनियु- मलयागि- रीयातिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||९३||
दीप
यदपमित्य गृह्यते तदप्युपचारादपमित्यमित्युक्तं ९, तथा परिवर्तितं यत्साधुनिमित्तं कृतपरावर्त १०, तथा अभिहृतं यत्साधुदानाय उदमदोषास्वग्रामात्परग्रामाद्वा समानीतम्, अभि-साध्वभिमुख हृतं-स्थानान्तरादानीतम् अभिहृतमिति व्युत्पतेः, ११, तथा उद्भेदनम् उद्भिव- आधाकसाधुभ्यो घृतादिदाननिमित्तं कुतुपादेमुखस्य गोमयादिस्थगितस्योद्घाटनं तयोगाद्देयमपि घृतादि उद्भिनं १२, तथा मालात-पश्चादेर- मोद्याः पहृत-साध्वर्थमानीतं यद्भक्तादि तन्मालापहृतं १३, तथा आच्छिद्यते-अनिच्छतोऽपि भृतकपुत्रादेः सकाशात्साधुदानाय परिगृह्यते यत् । तदाच्छेद्य १४, तथा न निसृष्टं सबै स्वापिभिः साधुदानार्थमनुज्ञातं यत् तदनिसष्टं १५, तथा अधि-आधिक्येन अवपूरणं स्वाथेदत्ताद्रहणादेः साध्वागमनमवगम्य तद्योग्यभक्तसिद्धयर्थ भाचुर्येण भरणम् अध्यवपूरः, स एव स्वार्थिककमत्ययविधानादध्ययपूरकः तद्योगाद्वक्ताद्यप्यध्यवपूरका, पोडश उद्रमदोषाः ॥ तदेवमुक्तान्युद्गमदोषनामानि, सम्पति ' यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात्पथमत आधा-18|| कर्मदोष व्याचिख्यासुस्तत्मतिबद्धद्वारगाथामाहत्वाभावेनाव्ययसम्बन्धित्वामुक्तं स्यादेलुप् , अत्युथैस: पुरुषस्येत्यादौ तु न स्यादेर्लुप् , अतिक्रान्तादिसम्बन्धित्वेनाव्ययसम्बन्धित्वाभावात, नन्वेव-: मुचैः पुरुषस्येत्यादावपि स्यादेलन प्राप्नोति, अत्रापि पुरुषलक्षणान्यपदार्थसम्बन्धिस्यादिभावात्, नैवम्, अत्रापि स्वादेरुचैराद्यव्ययसम्बन्धित्वात्, यी एसोचैःशब्देन विशेषणसवा पुरुषलक्षणोऽन्योऽयं उच्यते तस्यैव हि सम्बन्थ्यत्र स्यादिः, एवमपमित्यमित्यादावपि नाव्ययसम्बन्धित्वाभावात्स्यादे-1|| लप्, अपमित्येत्यनेन प्राकालविशिष्टं भूयोऽपि तव दास्यामीत्येवमभिधानमात्रं यदि प्रोच्यते तथा हि स्यादव्ययसम्बन्धिलं स्यादेः, न त्वेवमत्र, अपमित्येत्यस्य भूयोऽपि तब दास्यामीत्येवमभिधाय यत्साधुनिमित्तमुच्छिन्नं गृह्यते तस्यान्नादेरभिधानात् , तेनात्र अपमित्यदोषसम्बन्धी स्यादिन तुला
कालविशिष्टभूयोऽपि तब दास्यामीत्यर्थाभिधायिनोऽपमित्येति क्वान्तस्य, यथा 'प्रसज्यस्तु निषेधकदि त्यत्र प्रसङ्गत्वेत्यर्थस्य प्रसज्येत्यस्य सम्ब-18| न्धित्वाभावात्स्यादेन लुप्, प्रसज्यप्रतिषेधेतिसमाससम्बन्धित्वात्स्यादेः ।
अनुक्रम [१०८]
Halinrary.org
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [१०९] .. "नियुक्ति : [९४] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ .. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||९४||
आहाकम्मिय नामा एगट्ठा कस्स बावि किं वावि । परपक्खे य सपक्खे चउरो गहणे य आणाइ ॥९॥
व्याख्या-इह प्रथमत आधाकम्मिकस्य नामान्येकाथिकानि वक्तव्यानि, ततस्तदनन्तरं कस्यार्थाय कृतमाधाकर्म भवतीति विचारणीय, तदनन्तरं च किस्वरूपमाषाकर्मेति विचार्य, तथा 'परपक्षः' गृहस्थवर्ग: 'स्वपक्ष: ' साध्वादिवर्गः, तत्र परपक्षनिमित्तं कुतमाधाकर्म न भवति, स्वपक्षनिमित्तं तु कृतं भवतीति वक्तव्यं, तथा आधाकर्मग्रहणाविषये चत्वारोऽतिक्रमादयः प्रकारा भवन्तीति वक्तव्यं, तथा 'ग्रहणे' आधाकर्मणो भक्तादेरादाने आज्ञादयः 'सूचनात्सूत्रमिति न्यायादाशाभङ्गादयो दोषा वक्तव्याः ॥ तत्रैकाधिकाभिधानलक्षणं प्रथमं द्वारं विवक्षुराह
आहा अहे य कम्मे आयाहम्मे य अत्तकम्मे य । पडिसेवण पडिसुणणा संवासऽणुमोयणा चेव ॥ ९५ ॥
व्याख्या-'आहा अहे य कम्मे 'त्ति अत्र कर्मशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, चकारश्च कम्मेत्यनन्तरं समुच्चयाओं द्रष्टव्यः, तत एवं निर्देशो ज्ञातव्य:-श्राधाकर्म अधःकर्म च, तत्राऽऽधाकम्र्मेति प्रागुक्तशब्दार्थम् , अधःकम्र्मेति अधोगतिनिबन्धनं कर्म अधाकर्म, तथाहि-भवति साधूनामाधाकर्म भुञ्जानानामधोगतिः, तन्निबन्धनप्राणातिपाताद्यास्रवेषु प्रवृत्तेः, तथा आत्मानं दुर्गतिमपातकारणतया हन्तिविनाशयतीत्यात्मनं, तथा यत् पाचकादिसम्बन्धि कर्म-पाकादिलक्षणं ज्ञानावरणीयादिलक्षणं वा तदात्मनः सम्बन्धि क्रियते अनेनेति । आत्मकर्म । एतानि च नामान्याधाकर्मणो मुख्यानि सम्पति पुनयः प्रतिषेवणादिभिः प्रकारैस्तदाधाकर्म भवति तान्यप्यभेदविवक्षया | नामत्वेन प्रतिपादयति-पडिसेवणेत्यादि' प्रतिसेव्यते इति प्रतिपेवणं, तथा आधाकर्मनिमन्त्रणानन्तरं प्रतिश्रूयते-अभ्युपगम्यते यत
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अनुक्रम [१०९]
अथ आधाकर्म दोष संबंधी वर्णनं क्रियते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [११०] .→ “नियुक्ति: [९५] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||९५||
दीप
पिण्डनियु- आधाकर्म तन प्रतिश्रवणं तथा आधाकम्पभोक्तृभिः सह संवसन-संवासः तद्वशात् शुद्धाहारभोज्यपि आधाकर्मभोजी द्रष्टव्यः, या हि |आधाकमैं
मलयगि- तैः सह संवासमनुमन्यते स तेपामाधाकर्मभोक्तृत्वमप्यनुमन्यते, अन्यथा तैः सह संवसनमेव नेच्छेन्, अन्यच संवासवशतः कदाचिदा, काथिकानि रीयादृत्तिःधाकर्मगतमनोज्ञगन्धाघ्राणादिना विभिन्नचित्तः सन् स्वयमप्याधाकर्मभोजने प्रवर्चेत, ततः संवास आधाकर्मदोपहेतुत्वादाधाकर्म उक्तः
समिक्षपाश्च तथा 'अनुमोदनम् ' अनुमोदना-आधाकर्मभोक्तृपश्चंसा, साऽपि आधाकर्मसमुत्यपापनिबन्धनत्वादाधाकर्मप्रवृत्तिकारणत्वाच आधाकम्मति उक्तं, अमीपां च प्रतिपेवणादीनामाधाकर्मत्वमात्मकर्मरूपं नाम प्रतीत्य वेदितव्यं, तथा च वक्ष्यति-'अचीकरेइ कंपमित्यादि।
इह आधाकम्भेति शब्दार्थविचारे आधया कर्म आधाकर्मेत्युक्तं, साऽपि चाधा नामादिभेदाचतुर्दा, तद्यथा-नामाधा स्थापनाधा द्रव्याधा || भावनाधा च, तत्र नामाधा स्थापनाचा द्रव्याधाऽपि च आगमतो नोआगमतश्च शरीररूपा भव्पशरीररूपा चैषणेव भावनीया, शरी-|| नरभव्यशरीरव्यतिरिक्तां तु द्रव्याधामभिधित्मुराह
धणुजुयकायभराणं कुडुंबरज्जधुरमाइयाणं च । खंधाई हिययं चिय दध्वाहा अंतए धणुणो ॥ ९६ ॥ ____ व्याख्या-इह द्रव्याधायां विचार्यमाणायामाधाशब्दोऽधिकरणप्रधानो विवक्ष्यते आधीयतेऽस्यामित्याधा, आश्रय आधार इत्यनाशान्तरं तत्र 'धणु 'चि धनुः चापं तदाधा-आश्रयः प्रत्यश्चाया इतिसामर्थ्यागम्यते, 'यूपः' प्रतीतः, 'काय' कापोती यया पुरुषाः स्कन्धा-16 रूढया पानीयं वदन्ति 'भरा' यवसादिसमूहः, तथा 'कुटुम्ब' पुत्रकलबादिसमुदायः, 'राज्य' प्रतीतं, तयोः घू:-चिन्ता आदि-18
॥३६॥ शब्दान्महाजनधूम्प्रभृतिपरिग्रहः, तेषां च यथासङ्खचं द्रव्याधा-द्रव्यरूप आधारः स्कन्धादि हृदयं च, तत्र स्कन्धो बलीवदोदिस्कन्धो नरादिस्कन्धश्च परिगृह्यते, आदिशब्दागन्यादिपरिग्रहः, तत्र यूपस्य द्रव्याधा द्रव्यरूप आश्रयो वृषभादिस्कन्धः, स हि यूपस्तत्रा-10
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [१११] » “नियुक्ति: [९६] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||९६||
दीप
glssरोप्यते, कापोत्या आश्रयो नरस्कन्धः, नरो हि पानीयानयनाय कापोती स्कन्धेन वहति, भरस्याश्रपो गन्पादिः, महापमाणो हि भरो गन्यादिनैवानेतुं शक्यते नान्येन, तथा कुटुम्बचिन्ताया राज्यचिन्तायाश्चाश्रयः 'हृदय' मनः, हृदयमन्तरेण चिन्ताया अयोगात धनुर्विपये भावनामाह-'अन्तके' करहसझे धनुषः सम्बन्धिनि प्रत्यश्वाऽऽरोप्यते ततो धनुः प्रत्यञ्चाया आश्रयः, एवं शेषाणामपि यूपादीनां प्रत्याश्रयत्वं भावनीयं, तब भावितमेव ।। उक्ता द्रव्याधा, सम्पति भावाधा वक्तव्या, सा प दिया-आगमतो नोआगमतच, तत्रागमत आधाशब्दार्थपरिज्ञानकुशलः तत्र चोपयुक्तः, 'उपयोगो भावनिक्षेप' इति वचनात् , नोआगमतस्तु भावाधा यत्र तत्र वा मन:प्रणिधानं, तथादि-भावो नाम मानसिकः परिणामः तस्य चाधानं-निष्पादनं भवति मनसस्तदनुगुणतया तेन तेन रूपेण परिणमने सति नान्यथा, सतो मनामणिधानं भावाधा, सा चेह प्रस्तावात्साघुदानार्थमोदनपचनपाचनादिविषया द्रष्टव्या तया यत्कृतं कर्म--ओदनपाकादि तदाधाकर्म, तथा चाह नियुक्तिकृत्
ओरालसरीराणं उद्दवण तिवायणं च जरसट्टा । मणमाहिता कीरइ आहाकम्मं तय बैंति ॥ ९७ ॥ व्याख्या-औदारिकं शरीरं येषां ते औदारिकशरीराः-तिर्यञ्चो मनुष्याच, तत्र तिर्यश्च:-एकेन्द्रियादयः पञ्चेन्द्रियपर्यन्ता द्रष्टव्याः, एकेन्द्रिया अपि सूक्ष्मा बादराश्च, नन्विद येऽपद्रावणयोग्यास्तियेचस्ते ग्राह्याः, न च सूक्ष्माणां मनुष्यादिकृतमपद्रावणं सम्भवति, सूक्ष्मत्वादेव, ततः कथं ते इह गृह्यन्ते!, उच्यते, इह यो यस्मादविरतः स तदकुर्वनापि परमार्थतः कुर्वन्नेव अवसेयो यथा रात्रिभोजनादानिवृत्तो रात्रिभोजनं, गृहस्थश्च सूक्ष्मैकेन्द्रियापदाषणादनिवृत्तः, ततः साध्वर्थ समारम्भं कुर्वन् स तदपि कुर्मनवगन्तव्य इति सूक्ष्मग्रहणं, यदाएकेन्द्रिया बादरा एव ग्राद्या न सूक्ष्माः, तथा च वक्ष्यति भाष्यकृत्-"ओरालगहणेणं तिरिक्खमणुयाऽहवा मुहुमवजा " तेषामो-||
अनुक्रम [१११]
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आगम
(४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [११२] » “नियुक्ति : [९७] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२, मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रात गावक विशाल
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पिण्डनियु- दारिकशरीराणां यदपद्रावणम्-अतिपातविवर्जिता पीडा, किमुक्तं भवति?-साध्वर्थमुपस्क्रियमाणेष्वोदनादिषु यावदद्यापि शाल्यादिव- आधाकर्मसेमलयगि-ISH
नस्पतिकायादीनामविपात:-प्राणव्युपरमलक्षणो न भवति तावदागवचिनी सर्वाऽपि पीडा अपद्रावणं, यथा साध्वर्थं शाल्योदनकृते । वाहतुः रीयात्तिः
शालिकरटेयोचद्वारद्वयं कण्डनं, तृतीयं तु कण्डनमतिपातः, तस्मिन् कृते शालिजीवानामवश्यमतिपातभावात, ततस्तृतीयं कण्डनपतिपात-|| ॥३७॥ ग्रहणेन गृह्यते, वक्ष्यति च भाष्यकृत्-" उद्दवणं पुण जाणमु अइवायविवन्जियं पीडं" ति, उद्दवणशब्दात्परतो विभक्तिलोप
आपत्वात् , तथा 'तिपायणं' ति त्रीणि कायवाग्मनांसि, यद्वा त्रीणि देहायुरिन्द्रियलक्षणानि पातनं चातिपातो विनाश इत्यर्थः, तत्र च विधा समासविवक्षा, तबधा-पष्टीतत्पुरुषः पश्चमीतत्पुरुषस्तृतीयातत्पुरुषश्न, तत्र पठीतत्पुरुषोऽयं-त्रयाणां कायवादमनसां पातनं-विनाशनं विपातनम् । एतम परिपूर्णगर्भजपश्चेन्द्रियविर्यग्मनुष्याणामवसेयम्, एकेन्द्रियाणां तु कायस्यैव केवलस्य विकलेन्द्रियसम्मूछिमतियेमनुष्याणां तु कायवचसोरेवेति, यदा-त्रयाणां देहापुरिन्द्रियरूपाणां पातन-विनाशनं त्रिपातनम्, इदं च सर्वेषामपि तियेग्मनुष्याणां परिपूर्ण घटते, केवलं यथा येषां सम्भवति तथा तेषां वक्तव्यं यथैकेन्द्रियाणां देहस्य-औदारिकस्य आयुषा-तियेंगापूरूपस्य इन्द्रिय
स्य-स्पर्शनेन्द्रियस्य, द्वीन्द्रियाणां देहस्यौदारिकरूपस्य आयुषस्तिर्यगायुष इन्द्रिययोश्च स्पर्शनरसनलक्षणयोरित्यादि, पञ्चमीतत्पुरुष|| स्त्वयं-त्रिभ्यः-कायवाश्मनोभ्यो देहायुरिन्द्रियेभ्यो वा पातनं-च्यावनमिति त्रिपातनम् , अत्रापि त्रिभ्यः परिपूर्णेभ्यः कायवाङ्म
नोभ्यः पातनं गर्भजपश्चेन्द्रियतिर्यन्मनुष्याणाम् एकेन्द्रियाणां तु कायादेव केवलाद् विकलेन्द्रियसंमूर्षिछमतियंदमनुष्याणां तु काया-||॥३७॥ ग्भ्यामिति, देहायुरिन्द्रियरूपेभ्यस्तु त्रिभ्यः पातनं सर्वेषामपि परिपूर्ण सम्भवति, केवलं यथा येषां सम्भवति तथा तेपी मागिव वक्तव्यं, तृतीयातत्पुरुषः पुनरयं-त्रिभिः कायबामनोभिविनाशकेन स्वसम्बन्धिभिः पातनं-विनाशनं त्रिपातनं, चशब्दः समुच्चये, भिन्नवि
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [११३] .→ “नियुक्ति: [१७] + भाष्यं [१६] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१६||
दीप
भक्तिनिर्देशश्वशब्दोपादानं च यस्य साध्वर्थमपद्रावणं कृत्वा गृही स्वार्थमतिपातं करोति तत्कल्प्य, यस्य तु गृही त्रिपातनमपि साध्वर्थे । विधत्ते तन्न कल्प्यमिति ख्यापनार्थम् , इत्थंभूतमौदारिकशरीराणामपद्रावणं त्रिपातनं च यस्य साधोरेकस्पानेकस्य वार्थाय-निमित्र 'मन आधाय' चित्तं प्रवर्त्य क्रियते तदाधाकर्म ब्रुवते तीर्थकरगणधराः । इमामेव गाथा भाष्पकृद् गाथात्रयेण व्याख्यानयति
ओरालग्गहणेणं तिरिक्खमणुयाऽहवा सुहुमवज्जा । उद्दवणं पुण जाणसु अइवायविवज्जियं पीडं ॥ २५ ॥ कायवइमणो तिनि उ अहवा देहाउइंदियप्पाणा । सामित्तावायाणे होइ तिवाओ य करणेसुं ॥ २६ ॥ हिययंमि समाहेउं एगमणेगं च गाहगं जो उ । वहणं करेइ दाया कायेण तमाह कम्मति ॥ २७ ॥ (भा.)
व्याख्या-मुगमाः, नवरं 'देहाउइंदियप्पाणे 'ति देहायुरिन्द्रियरूपास्त्रयः प्राणाः, 'सामित्ते'त्यादि, स्वामित्वे-स्वामित्वविषये सम्बन्धविवक्षयेति भावार्थः, एवमपादाने-अपादानविवक्षया करणेषु विषये करणविवक्षया अतिपातो भवति, यथा त्रयाणां पातनं त्रिपा-18 तनं, यद्वा-त्रिभ्यः पातनं त्रिपातनं, त्रिभिर्वा करणभूतैः पातनं त्रिपातनं, भावार्थस्तु मागेवोपदर्शितः ॥ तदेवमुक्तमाधाकर्मनाम, सम्पत्यधाकर्मनाम वक्तव्यं, तदपि चाधाकर्म चतुर्दा, तद्यथा-नामाधःकर्म स्थापनाधःकर्म द्रव्याधःकर्म भावाधाकर्म च, एतचाधा-1 कर्मवत्तावद्वक्तव्यं यावन्नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीररूपं द्रव्याधःकर्म, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं तु द्रव्याधःकर्म नियुक्तिकृदाह
जं दव्वं उदगाइस छूढमहे वयइ जं च भारेणं । सीईए रज्जुएण व ओयरणं दब्बहेकम्मं ॥ १८ ॥
अनुक्रम [११३]
अत्र मूल संपादने २५' इत्यादि भाष्य क्रमांकनं स्खलनत्वात् मुद्रितं दृश्यते तेषां क्रमाकनं '१६, १७, १८ इत्यादि सन्ति
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [११६] » “नियुक्ति: [१८] + भाष्यं [१८] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियु-18
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२८||
दीप
व्याख्या-यत्किमपि 'द्रव्यम् ' उपलादिकम् 'उदकादिषु' उदकदुग्धादिषु मध्ये लिप्तं सत् 'भारेण' स्वस्य गुरुतया अयो। अधाकर्मतेर्मळयगि- ब्रजति, तथा 'जं चेति' यच 'सीईए प्रति निश्रेण्या रज्ज्वा वा अवतरणं पुरुषादेः कूपादौ मालादेवो भुवि ततः अधोऽधो वजनम-3 ताहेतुः रीयावृत्तिः |वतरणं वा द्रव्याधःकर्म, द्रव्यस्य-उपलादेरधः-अधस्ताद्मनरूपमवतरणरूपं चा कर्म द्रव्याधाकमेति व्युत्पतेः ॥ सम्पति भावाध:कम्मेराणोऽवसरः, तच्च द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमतोऽधःकर्मशब्दार्थशाता तब चोपयुक्तः, नोआगमत आह
संजमठाणाणं कंडगाण लेसाठिईविसेसाणं । भावं अहे करेई तम्हा तं भावहेकम्मं ।। ९९ ॥
व्याख्या-संयमस्थानानां वक्ष्यमाणानां 'कण्डकानां सङ्ख्यातीतसंयपस्थानसमुदायरूपाणाम् , उपलक्षणमेतत् पदस्थानकानां संयमश्रेणेय, तथा लेषानां तथा सातवेदनीयादिरूपशुभप्रकृतीनां सम्बन्धिना स्थितिविशेषाणां च सम्बन्धिषु विशुद्धेषु विशुद्धतरेषु । स्थानेषु वर्तमान सन्तं निजं 'भावम् ' अध्यवसायं यस्मादाधाकर्म भुञ्जानः साधुरधः करोति-हीनेषु हीनतरेषु स्थानेषु विषते तस्मानदाधाकम्में भावाधाकर्म, भावस्य-परिणामस्प संयमादिसम्बन्धिषु शुभेषु शुभतरेषु स्थानेषु वर्तमानस्य अध:-अधस्तनेषु हीनेषु| दीनतरेषु स्थानेषु कर्म-क्रिया यस्मात्चद्भावाध:कर्मेति व्युत्पत्तेः ।। एनामेव गाथा भाष्यकद् गाथात्रयेण व्याख्यानयतितत्थाणता उ चरित्तपज्जवा होति संजमट्ठाणं । संखाईयाणि उ ताणि कंडगं होइ नायव्वं ॥२८॥
॥३८॥ संखाईयाणि उ कंडगाणि छठ्ठाणगं विणिहिट्ठ । छट्ठाणा उ असंखा संजमसेढी मुणेयध्वा ॥ २९ ॥ किण्हाइया उ लेसा उक्कोसविसुद्धिठिइबिसेसाओ। एएसि विसुद्धाणं अप्पं तग्गाहगो कुणइ ॥ ३० ॥ (भा०)
अनुक्रम [११६]
N
IRam
अत्र मूल संपादने २८' इत्यादि भाष्य क्रमांकनं स्खलनत्वात् मुद्रितं दृश्यते तेषां क्रमाकनं १९, २०, २१ एव भवति
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१२०] » “नियुक्ति: [९९] + भाष्यं [२१] + प्रक्षेपं । . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१||
दीप
व्याख्या-इह सर्वोत्कृष्टादपि देशविरतिविशुद्धिस्थानाजघन्यमपि सर्वविरतिविशुद्धिस्थानमनन्तगुणम् , अनन्तगुणता च सर्वचापि षटस्थानकचिन्तायां सर्वजीवानन्तकप्रमाणेन गुणकारेण द्रष्टव्या, इयं चात्र भावना-जघन्यमपि सर्वविरतिविशुद्धिस्थान केवलिप्रज्ञाच्छेदकेन छियते, छिया छिया च निर्विभागा भागाः पृथक् क्रियन्ते, ते च निर्षिभागा भागाः सर्वसङ्कल्पनया परिभाष्यमानाःया सर्वोत्कृष्टभेदेन देशविरतिविशुद्धिस्थानगता निर्विभागा भागाः सर्वजीवानन्तकरूपेण गुणकारेण गुण्यमाना यावन्तो जायन्ते तावल्प-10 माणाः पाप्यन्ते, अत्राप्ययं भावार्थ:-इह किलासत्कल्पनया सर्वोत्कृष्टस्य देशविरतिविशुद्धिस्थानस्य निर्विभागा भागा दश सहस्राणि १००००, सर्वजीवानन्तकप्रमाणश्च राशिः शतं, ततस्तेन शनसख्येन सर्वजीवानन्तकपमाणेन राशिना दशसहस्रसङ्पाः सर्वोत्कृष्ट-1 देशविरतिविशुद्धिस्थानगता निर्विभागा भागा गुण्यन्ते, जातानि दश लक्षाणि १००००००, एतावन्तः किल सर्वजवन्यस्यापि सर्वविरतिविशुद्धिस्थानस्य निर्विभागा भामा भवन्ति । सम्पति सूत्रमनुसियते-'तत्र' तेषु संयमस्थानादिषु वक्तव्येषु प्रथमतः संयमस्थान
मुच्यते इति शेषः, 'अनन्ता' अनन्तसङ्ख्याः पाश्चात्यासत्कल्पनया दशलक्षप्रमाणा ये चारित्रपाया:-सर्वजघन्य चारित्रसस्कविशुद्धिस्थान-1 बगता निर्विभागा भागाः ते समुदिताः संयमस्थानम्, अथोत्सर्वजघन्यं भवति, तस्मादनन्तरं यद्वितीयं संयमस्थानं तत्पूर्वस्वादनन्त
भागद्ध, किमुक्तं भवति? -प्रथमसंयमस्थानगतनिर्विभागभागापेक्षया द्वितीयसंयमस्थाने निर्विभागा भागा अनन्ततमेन भागेनाधिका भवन्तीति, तस्मादपि यदनन्तरं तृतीयं तत्ततोऽनन्तभागद्धम्, एवं पूर्वस्मादुत्तरोचराण्पनन्ततमेन भागेन वृद्धानि निरन्तर संयमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावदङ्गुलमात्रक्षेत्रास-ख्येयभागमतप्रदेशराशिप्रमाणानि भवन्ति, एतावन्ति च समुदितानि स्थानानि कण्डकमित्युच्यते, तथा चाह-'सइनख्यातीतानि' असरूपेयानि तुः पुनरर्थे 'तानि' संयमस्थानानि कण्डकं भवति ज्ञातव्यं, कण्डक नाम समयपरिभाषया
अनुक्रम [१२०]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१२०] » “नियुक्ति: [९९] + भाष्यं [२१] + प्रक्षेपं । . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१||
दीप
पिण्डनियु-| ङ्गलमात्रक्षेत्रासहपेयभागगतपदेशराशिममाणा सख्याऽभिधीयते, तथा चोक्तं-केण्डति इत्य भण्णइ अंगुलभागो असंखेजो । " अधःकर्मतमेलयगि- अस्माच कण्डकात्परतो यदन्यदनन्तरं संयमस्थानं भवति तत्पूर्वस्मादसपेयभागाधिकम्, एतदुक्तं भवति–पाश्चात्यकण्डकसत्क- ताहेतु: रीयावृत्तिः ||चरमसंयमस्थानगतनिर्विभागभागापेक्षया कण्डकादनन्तरे संयमस्थाने निर्विभागा भागा असङ्ख्येयतमेन भागेनाधिकाः पाप्यन्ते, ततः। ॥३९॥
पराणि पुनरपि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि यथोत्तरमनन्तभागद्धानि भवन्ति, ततः पुनरेकमसङ्खधेयभागाधिक संयमस्थानं, ततो भूयोऽपि ततः पराणि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि यधोत्तरमनन्तभागवृद्धानि भवन्ति, ततः पुनरप्येकमसङ्ख्ये यभागाधिकं संयमस्थानम्, एवमनन्तभागाधिकैः कम्मकप्रमाणैः संयमस्थानयवाहितानि असमस्येयभागाधिकानि संपमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावतान्यपि कण्डकमात्राणि भवन्ति, ततश्चरमादसख्येयभागाधिकात् संयमस्थानात्पराणि यथोत्तरमनन्तभागद्धानि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि भवन्ति, ततः परमेकं सख्येयभागाधिक संयमस्थानं, ततो मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति भूयोऽपि तेनैव क्रमेणाभिधाय पुनरप्येकं सख्येयभागाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् , इदं द्वितीयं समस्येयभागाधिकं संयमस्थान, ततोऽनेनैव क्रमेण तृतीयं वक्तव्यम्, अमूनि चैवं सङ्घयेभागाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति, तत उक्तक्रमेण भूयोऽपि सङ्खचेयभागाधिकसंयमस्थानप्रसङ्गे सङ्खधेयगुणाधिकमेकं संयमस्थानं वक्तव्यं, ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि मागतिक्रान्तानि तावन्ति भूयोऽपि तथैव वक्तव्यानि, ततः पुनरप्येकं सङ्खयेयगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यं, ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति संथमस्थानानि तथैव वक्तव्यानि, ततः पुनरप्येकं सङ्ख्येयगुणाधिकं संयमस्थानम्, अमून्यप्येवं सहायगुणाधिकानि संयमस्था
१ कण्डकमिति अत्र भण्यते अङ्गुलभागोऽसंख्येयः ।
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॥३९॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१२०] » “नियुक्ति: [९९] + भाष्यं [२१] + प्रक्षेपं । . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१||
दीप
नानि तावद्वक्तव्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति, तत उक्तक्रमेण पुनरपि सङ्घचेयगुणाधिकसंयमस्थानप्रसङ्गेऽसङ्ग्येयगुणाधिकं संयमस्थान । वक्तव्यं, ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि मागतिक्रान्तानि तावन्ति तेनैव क्रमेण भूयोऽपि वक्तव्यानि, ततः पुनरप्ये कमसङ्खचेयगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम्, ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति संयमस्थानानि तथैव वक्तव्यानि, ततः पुनरपि एकमसंख्येयगुणाधिक संयमस्थानं वक्तव्यम्, अमूनि चैवमसङ्खयेयगुणाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति, ततः पूर्वपरिपाट्या पुनरप्यसङ्ग्येयगुणाधिकसंयमस्थानप्रसङ्गेऽनन्तगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यं, ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति तथैव क्रमेण भूयोऽपि वक्तव्यानि, ततः पुनरप्पेकमनन्तगुणाधिक संयमस्थानं वक्तव्यं, ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति संयमस्थानानि तथैव वक्तव्यानि, ततः पुनरप्पेकमनन्तगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् , एवमनन्तगुणाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति, ततो भूयोऽपि तेषामुपरि पञ्चद्धयात्मकानि संयमस्थानानि मूलादारभ्य तथैव । वक्तव्यानि, यत्पुनरनन्तगुणद्धिस्थानं तन प्राप्यते षट्स्थानकस्य परिसमाप्तत्वात् , इत्थंभूतान्यसङ्ग्यानि कण्डकानि समुदितानि पदस्थानकं भवति, तथा चाह भाष्यकृत्-'संखाईयाणि उ कंडगाणि छहाणगं विणिदिई' सुगम, अस्मिश्च षट्स्थानके घोढा वृद्विरुक्ता. तद्यथा-अनन्तभागद्धिरसङ्घचेयभागवृद्धिः सङ्खयेयभागवृद्धिः सङ्ख्थेषगुणवृद्धिरसङ्ख्थेयगुणद्धिरनन्तगुणवृद्धिश्च, तत्र यादृशोऽनन्ततमो भागोऽसतायतमः सङ्गचेयतमो वा गृाते यादशस्नु सङ्कयेयोऽसङ्ख्येयोऽनन्तो वा गुणकारः स निरूप्यते-तत्र यदपेक्षयाऽनन्तभाग-2 द्धता तस्य सर्वजीवसइख्याप्रमाणेन राशिना भागो हियते हृते च भागे यलुब्धं सोऽनन्ततमोभागः, तेनाधिकमुत्तरं संयमस्थानं, किमुक्तं || भवति?-प्रथमस्य संयमस्थानस्य ये निर्विभागा भागास्तेषां सर्वजीवसङ्ख्याममाणेन राशिना भागे हते सति ये लभ्यन्ते तावत्प्रमाणे
अनुक्रम [१२०]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१२०] » “नियुक्ति: [९९] + भाष्यं [२१] + प्रक्षेपं । . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
अध:कर्म
वाहेतुः
रीयातिः
गाथांक नि/भा/प्र ||२१||
दीप
पिण्डनियु- निविभागै गर्दितीये संयमस्थाने निर्षिभागा भागा अरिकाः प्राप्यन्ते, द्वितीयस्य संयमस्थानस्य ये निर्विभागा भागास्तेषां सर्वजीवसङ्खथा- केमेलपगि-प्रमाणेन राशिना भागे हते सति यावन्तो लभ्पन्ने तावत्पमाणनिविभागै गैरधिकास्तृतीपे संयमस्थाने निविभागा भागाः पाप्यन्ते, एवं
यद्यत् संयमस्थानमनन्तभागद्धमुपलभ्यते तत्तत्पावास्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य सर्व जीवसल्ख्याप्रमाणेन राशिना भागे हृते सति || ॥४०॥
यद्यलुभ्यते तावत्यमाणेन तावत्प्रमाणेनानन्ततमेन भागेनाधिकमवगन्तव्यम् , अप्सहयेयभागाधिकानि पुनरेवं–पाश्चात्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य सत्कानां निर्विभागभागानामसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशपमाणेन राशिना भागे हृते सति यद्यल्लभ्यते स सोऽसङ्ख्यतमो भागः, ततस्तेन तेनासङ्घयतमेन भागेनाधिकानि असलयेयभागाधिकानि वेदितव्यानि, सङ्खधेयभागाधिकानि चै-पाचात्यस्य पाचा-12 त्यस्य संयमस्थानस्योत्कृष्टेन सङ्खधेयेन भागे हृते सति यद्यल्लभ्यते स स सङ्खधेपतमो भागः, ततस्तेन तेन सङ्घयतमेन भागेनाधिकानि सङ्खयेयभागाधिकानि संयमस्थानानि वेदितव्पानि, सङ्घयेयगुणवृद्धानि पुनरेवं-पाचात्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य ये ये निर्विभागा। भागास्ते ते उत्कृष्टेन सङ्ख्यकममाणेन राशिना गुण्यन्ते, गुणिो च सति यावन्तो यावन्तो भवन्ति तावत्पमाणानि तावत्पमाणानि स-11
येयगुणाधिकानि संयमस्थानानि द्रष्टव्यानि, एवमसङ्ख्येयगुणद्धानि अनन्तगुणवृद्धानि च भावनीयानि, नवरमसख्येयगुणद्धौ पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य निर्षिभागा भागा असरूयेयलोकाकाशपदेशपमाणेनासङ्ख्पेयेन गुण्यन्ते, अनन्तगुणद्धी तु सर्वजीवप्रमाणेनानन्तेन, इत्थं च भागहारगुणकारकल्पनं मा वमनीपिकाशिल्पकल्पितं मस्थाः, यत उक्तं कर्मप्रकृतिसजदण्या पटूस्थानकगतभागहारगुणकारविचाराधिकारे-"सब्यजियाणपसंखेजलोग संखिज्जगस्स भिहस्स | भागो तिमु गुणणातिमु” इति, पथमाञ्च पटूस्थानकादू मुक्तक्रमेणैव । द्वितीयं षट्स्थानकमुत्तिष्ठति, एवमेव च तृतीयम् , एवं षट् स्थानकान्पपि तादाच्यानि यावदसङ्खधेयलोकाकाशपदेशपमाणानि भवन्ति,
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१२०] » “नियुक्ति: [९९] + भाष्यं [२१] + प्रक्षेपं । . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१||
दीप
००००००००००००००००००44600000००००
उक्तंच-छहाणगणवसाणे अयं छहाणयं पुणो अन्नं । एवमसङ्खा लोगा छटाणाणं मुणेषण्या ॥१॥” इत्यंभूतानि चासङ्गयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि पट् स्थानकानि संयमणिरुच्यते, तथा चाह-छहाणा उ असंखा संजमसेही मुणेयवा। तथा 'लेसा'त्ति | कृष्णादयो लेश्याः, स्थितिविशेषा उत्कृष्टानां सर्वोत्कृष्टानां सातावेदनीयमभृतीनां विशुदप्रकृतीनां सम्बन्धिनो विशुद्धाः स्थितिविशेषा वेदितव्याः, तत एतेषां संयमस्थानादीनां सम्बन्धिषु शुभेषु स्थानेषु वर्तमानस्तद्वाहका-आधाकम्भग्राहक आत्मानमेतेप-संयमस्थानादीनां विशुद्धानामधोवस्तात्करोति ॥ यदि नाम संयमस्थानादीनामधस्तादात्मानमाधाकर्मग्राही करोति ततः किं दूषणं तस्यापतितमत आह
भावावयारमाहेउमापगे किंचिनूणचरणग्गो । आहाकम्मग्गाही अहो अहो नेइ अप्पाणं ॥ १० ॥
भावानां संयमस्थानादिरूपाणां विशुद्धानामधस्तात् हीनेषु हीनतरेषु अध्यवसायेषु 'अवतारम्' अवतरणमात्मनि आधाय । कृत्वा 'किश्चिनूनचरणग्गो' इति इह चरणेनाग्र:-प्रधानश्चरणानः, स च निश्चयनयमतापेक्षया क्षीणकषायादिरकपायचारित्रः परिगृह्यते, न च तस्य प्रमादसम्भवो नापि लोल्यम् , एकान्तेन लोलादिमोहनीयस्य विनाशात, ततो न तस्याधाकर्मग्रहणसम्भव इति किश्चिन्ननग्रहणं, किश्चिम्यूनेन चरणेनाम: प्रधानः किश्चिम्यूनचरणाग्रः, स च परमार्थत उपाशान्तमोह उच्यते, अतिशयख्यापनार्थ चैतदुक्तं, ततोऽयमर्थ:किश्चिन्यूनचरणाग्रोऽपि यायदास्तां प्रमत्तसंयतादिरिति, आधाकर्मग्राही अधोऽयो-रत्नप्रभादिनरकादी नयत्वात्मानम्, एतदूपणमाधाकर्मग्राहिणः ।। एतदेव भावयति--
बंधइ अहेभवाऊ पकरेइ अहोमुहाई कम्माई । घणकरणं तिब्वेण उ भावेण चओ उवचओ य ॥ १०१ ॥
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आगम
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प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
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अनुक्रम [१२२]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१२२]
• "निर्युक्तिः [ १०१] + भाष्यं [ २१...] + प्रक्षेपं " FO
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्युतेर्मलयगि रीयाहृतिः
॥। ४१ ।।
व्याख्या — आधाकर्म्मग्राही विशुद्धेभ्यः संयमादिस्थानेभ्यो ऽवतीर्य 'अध:' अधोऽधोवर्तिषु होनेषु हीनतरेषु भावेषु वर्त्तमानोऽधोभवस्य रत्नप्रभादिनारकरूपस्य भवस्य सम्बन्धि आयुः 'करोति' बध्नाति, शेषाण्यपि कर्माणि गत्यादिनामादीनि 'अधोमुखानि' अधोगत्य भिमुखानि अधोगतिनयनशीलानि इत्यर्थः, 'प्रकरोति' प्रकर्षेण दुस्सहकटुकतीवानुभावयुक्ततया करोति-बध्नाति, बद्धानां च सतामाधाकविषयपरिभोगला म्पयवृद्धितो निरन्तरमुपजायमानेन 'तीव्रण' तीव्रतरेण 'भावेन' परिणामेन घनकरणं यथायोगं निधेत्तिरूपतया निकाचनारूपतया वा व्यवस्थापनं, तथा प्रतिक्षणमन्यान्यपुद्गलग्रहणेन चय उपचयथ, तत्र स्तोकतरा दृद्धिश्रयः प्रभूततरा वृद्धिरुपचयः, एतेन च व्याख्याप्रज्ञ सिसूत्रमाचार्येणानुवर्तितं तथा च व्याख्यामज्ञतावालापकः - "आहाक में णं जमाणे समणे निमांये अडकम्मपगडीओ बंधइ अहे पकरेइ अहे चिणइ अहे उवचिणइ" इत्यादि । तत एवं सति
तेसिं गुरुणमुदएण अप्पगं दुग्गईऍ पवडतं । न चएइ विधारेउं अहरगतिं निति कम्माई ॥ १०२ ॥
व्याख्या—' तेषाम् ' अधोभवायुरादीनां कर्म्मणां 'गुरूणां ' अधोगतिनयनस्वभावतया गुरूणीव गुरूणि तेषाम्, 'उदयेन ' * विपाकवेदनानुभवरूपेण, विपाकवेदनानुभवरूपोदयवशादित्यर्थः, दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं ' विधारयितुं ' निवारयितुम् आधाकर्म्मग्राही न * शक्नोति यतोऽतः कर्माणि अधोभवायुरादीनि उदयप्राप्तानि वलादू 'अधरगतिं ' नरकादिरूपां नयन्ति न च कर्म्मणां कोऽपि वलीयान,
१ स्थित्यनुभागयोवृहत्करणमुद्रर्त्तना, तयोरेव म्हस्वीकरणमपवर्त्तना, उत्तनाऽपवर्त्तनावशेषसङ्कमा किरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापनं निवन्तिः, ॐ समस्तकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापनं निकाचना, [ सङ्क्रमः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशानामन्य कर्मरूपतया स्थितानामन्यकर्मस्वरूपेण व्यवस्थापनम्, आदिशब्देनोदीरणोपशमने गृह्येते ] । २ आधाकर्म भुञ्जानः श्रमणो निर्मन्थोऽ कर्मप्रकृतीनाति अबः प्रकरोति अवचिनोति अब उपचिनोति ।
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अधःकर्मताहेतुः
॥ ४१ ॥
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१२३] » “नियुक्ति: [१०२] + भाष्यं [२१...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१०२||
दीप
अन्यथा न कोऽपि नरकं यायात्, न वा कोऽपि दुःखमनुभवेत, तस्मादाधाकर्म अधोगतिनिबन्धनमित्यधःकम्त्यु च्यते ॥ तदेवमुक्तमधःकति नाम, सम्पत्यात्मननान्नोऽवसरः, तदपि चात्मनं चतुओं, तद्यथा-नामात्मघ्नं स्थापनात्मनं द्रव्यात्मन्नं भावात्मन्नं च, इदमप्यधःकर्मवत्तावन्दावनीयं यावनोआगमतो ज्ञशरीरद्रव्यात्मन्नं भव्यशरीरद्रव्यात्मनं, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं तु द्रव्यात्मनं नियुक्तिकदाह
अहाए अणट्ठाए छक्कायपमहणं तु जो कुणइ । अनियाए य नियाए आयाहम्मं तयं बेति ॥ १०३ ॥
व्याख्या-यो गृही 'अर्थाय स्वस्य परस्य वा निमित्तम् 'अनाय' प्रयोजनमन्तरेण एवमेव पापकरणशीलतया 'अणियाए य कानियाएति निदानं निदा-पाणिहिंसा नरकादिदुःखहेतुरिति जानताऽपि यद्वा साधूनामाधाकर्म न कल्पते इति परिज्ञानवताऽपि यज्जी-||
वानां प्राणव्यपरोपणं सा निदा, तभिषेधादनिदा, पूर्वोक्तपरिज्ञानविकलेन सता यत्परमाणनिवईणं सा अनिदेति भावार्थः, अधवा स्वार्थ परार्थ चेति विभागेनोद्दिश्य यत पाणव्यपरोपणं सा निदा, तनिषेधादनिदा यत् स्वं पुत्रादिकमन्यं वा विभागेनाविविच्य सामान्येन
विधीयते, अथवा व्यापाद्यस्य सवस्य हा ! धिक् सम्पत्येष मां मारयिष्यतीति परिजानतो यत् प्राणव्यपरोपणं सा निदा, तद्विपरीता हाअनिदा, यदजानतो व्यापायस्य सत्वस्य व्यापादनमिति ।। तथा चाह भाष्पकत
जाणंतु अजाणतो तहेव उद्दिसिय ओहओ वावि । जाणग अजाणगं वा वहेइ अनिया निया एसा ॥३१॥ (भा०)| भा० २२
व्याख्यातार्या, ततो निदयाऽनिदया वा यः पटकायप्रमर्दनं करोति-पण्णां पृथिव्यादीनां कायानां प्राणव्यपरोपणं विदधाति, तत् षटूकायममर्दनं आत्मन्नं नोआगमतो द्रव्यात्मन्नं सुवन्ति तीर्थकरगणधराः । अथ पटुकायममनं कथं नोआगमतो द्रव्यात्मत्रं ?, यावता भावात्मनं कस्मान्न भवति ?, अत आह
अनुक्रम [१२३]
SARERatinintenarama
अत्र मूल संपादने ३१' इति भाष्य क्रमांकनं स्खलनत्वात् मुद्रितं दृश्यते तेषां क्रमाकनं '२२ एव भवति
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||१०३||
दीप
अनुक्रम [१२५ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
+
भाष्यं [२२] + प्रक्षेपं " ८०
मूलं [ १२५ ] → “निर्युक्तिः [१०३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्डकेर्मलयगि रीयावृत्तिः
दवाया खलु काया |
व्याख्या--' कायाः पृथिव्यादयः 'खलु' निश्चयेन 'द्रव्यात्मानो' द्रव्यरूपा आत्मानः, जीवानां गुगपर्यायवत्तया द्रव्यत्वात्, उक्तं च- " अजीवकायाः धर्म्माधर्म्माकाशपुद्गलाः द्रव्याणि जीवाचे " ( तत्वा० अ० ५-सू. १-२ ) ति । ततस्तेषां यदुपमर्दनं तद् ।। ४२ ।। ॐ द्रव्यात्मन्नं भवति । उक्तं द्रव्यात्मन्नं, सम्मति भावात्मन्नं वक्तव्यं तच द्विधा -- आगमतो नोआगमतच, तत्र आगमत आत्मन्नशब्दार्थज्ञाता तत्र चोपयुक्तः, नोआगमतो भावात्मन्नमाह
भावाया विन्नि नाणमाईणि । परपाणपाडणरओ चरणायं अप्पणो हणइ ॥ १०४ ॥
व्याख्या- 'भावात्मानो' भावरूपा आत्मानः 'श्रीणि ज्ञानादीनि ' ज्ञानदर्शनचारित्राणि, आत्मनो हि पारमार्थिकं स्वस्वरूपं ज्ञानदर्शन चरणात्मकं ततस्तान्येव परमार्थत आत्मानो न शेषं द्रव्यमात्रं स्वस्वरूपाभावात्, ततो यथास्त्रिी सन् परेषां पृथिव्यादीनां ये माणाः- इन्द्रियादयः तेषां यत् पातनं विनाशनं तस्मिन् रतः - आसक्तः स आत्मनश्चरणरूपं भावात्मानं हन्ति, चरणात्मनि च हते. ज्ञानदर्शनरूपावप्यात्मानौ परमार्थतो हतावेव द्रष्टव्यौ यत आह
निच्छयनयरस चरणायविघाए नाणदंसणवहोऽवि । वबहारस्स उ चरणे हयंमि भयणा उ सेसाणं ॥ १०५ ॥ व्याख्या - निश्चयनयस्य मतेन चरणात्मविघाते सति ज्ञानदर्शनयोरवि वधो-विघातो द्रष्टव्यः, ज्ञानदर्शनयोर्हि फलं चरणप्रतिपत्तिरूपा सन्मार्गमतिः, सा चेन्नास्ति तहिं ते अपि ज्ञानदर्शने परमार्थतोऽसती एव, स्वकार्याकरणात् उक्तं च मूलटीकायां-'चरणा
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आत्मन्नताहेत:
॥ ४२ ॥
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१२७] .. "नियुक्ति: [१०५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१०५||
दीप
त्मविघाते शानदर्शनषधोऽपि, तयोश्चरणफलत्वात्, फलाभावे च हेतोनिरर्थकत्वादिति, अपिच-यवरण प्रतिपयाऽऽ हारलाम्पट्यादिना । तितो न विनिवर्तते स नियमाउदगवदाशाविलोपादिदोषभागी, भगवदाज्ञाविलोपादौ च वर्तमानो न सम्पज्ञानी नापि सम्पदर्शनी, उक्त च-"आणाए थिय चरणं तम्भंगे जाण किन भगति । आणं च आइको कस्साएसा कुणइ सेसं ? ॥१॥" तथा "जो अहवायं न कुणइ मिच्छट्ठिी तओ हु को अन्नो ? । वड्ढेइ य मिच्छत्तं परस्स सके जणेमाणो ॥ २॥" ततश्चरणविधाते नियमतो ज्ञानदर्शनवि-1 घातः, 'व्यवहारस्य' व्यवहारनयस्य पुनर्मतेन हते चरणे 'शेषयोः शानदर्शनयोः 'भनना' कचिदवतः कचिन, य एकान्तेन भगवतो विप्रतिपन्नस्तस्य न भवतो यस्तु देशविरति भगवति श्रद्धानमा वा कुरुते तस्य व्यवहारनयमतेन सम्पष्टित्वाद्भवत इति, ततो निश्चयनयमतापेक्षया चरणात्मनि हते ज्ञानदर्शनरूपावप्यात्मानौ इतावेवेति परमाणव्यपरोपणरतः समूकघातमात्पन्न इति परमाणव्यपरोपणमात्मनं, तय साधोराधाकर्म भुजानस्यानुमोदनादिद्वारेण नियमतः सम्भवतीत्युपचारत आधाकर्म आत्मन्नमित्युच्यते ॥ तदेवमुक्तमात्मन्ननाम, ||| सम्मत्यात्मकर्मनाम्नोऽवसरः, तदपि चात्मकर्म चतुर्दा, तद्यथा-नामात्मकर्म स्थापनात्मकर्म द्रव्यात्मकर्म भावात्मकर्म च, इदं| चाधाकर्मेव तावदावनीयं यावनोआगमतो भव्यशरीरद्रव्यात्मकर्म, शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं तु द्रव्यात्मकर्म प्रतिपादयति
दध्वंमि अत्तकम्मं जं जो उ ममायए तयं दध्वं । व्याख्या-यः पुरुषो यद् द्रम्मादिक द्रव्यं 'ममायते' ममेति प्रतिपद्यते तत्-ममेति प्रतिपादनं तस्य पुरुषस्य 'दमि अत्तक१ आज्ञवैव धरणं तने जानीहि किन भग्नमिति । आज्ञा चातिक्रान्तः कस्यादेशात् करोति शेषम् ॥१॥ २ यो यथावाई न करोति मिथ्या दृष्टिस्ततः क एवान्यः । वर्धयति च मिथ्यात्वं परस्य शक जनयन् ।।२।।
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१२७] » “नियुक्ति: [१०५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
व्याख्या
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१०५||
दीप
पिण्डनियु- म्मति ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्ये-द्रव्यविषयमात्मकर्म भवति, आत्मसम्बन्धित्वेन कर्म-करणम् आत्मकर्मेति व्युत्पत्त्याश्रय-18 रीयावृत्तिः णात् । भावात्मकर्म च द्विधा, तद्यथा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्राऽऽगमत आत्मकर्मशब्दार्थज्ञाता तत्र चोपयुक्तः, नोआगमतः पुनराह
भावे असुहपरिणओ परकम्मं अत्तणो कुणइ ॥ १०६ ॥ ॥४३॥
व्याख्या-अशुभपरिणतः' अशुभेन प्रस्तावादाधाकर्मग्रहणरूपेण भावेन परिणतः परस्य-पाचकादेः सम्बन्धि यत् कर्म-Ma पचनषाचनादिजनितं ज्ञानावरणीयादि तत् आत्मनः सम्बन्धि करोति, तच्च परसम्बन्धिनः कर्मणः आत्मीयत्वेन करणं 'भावे' भावतः । आत्मकर्म, नोआगमतो भावात्मकर्मेत्यर्थः, भावेन-परिणामविशेषेण परकीयस्यात्मसम्बन्धित्वेन कर्म-करणं भावात्मकम्मेंति व्युत्पत्तेः॥ एतदेव सार्द्धया गाथया भावयति| आहाकम्मपरिणओ फासुयमवि संकिलिट्ठपरिणामो । आययमाणो बज्झइ तं जाणसु अत्तकम्मन्ति ॥ १०७ ॥
__ परकम्म अत्तकम्मीकरेइ तं जो उ गिहिउं भुंजे । व्याख्या-प्रामुकम्-अचेतनम् उपलक्षणमेतद् एषणीयं च स्वरूपेण भक्तादिकमास्तामाधाकम्मेंत्यपिशब्दार्थः, 'सकिष्टपकारिणामः सन्' आधाकर्मग्रहणपरिणतः सन् 'आददानो' गृह्णन् यथाऽहमतिशयेन व्याख्यानलब्धिमान् मगुणाबासाधारणविद्वत्ता-11 दिरूपाः सूर्यस्य भानव इव कुत्र कुत्र न प्रसरमधिरोहन्ति !, ततो मगुणावर्जित एष सर्वोऽपि लोकः पक्त्वा पाचयित्वा च मामिष्टमिदमोदनादिकं प्रयच्छत्तीत्यादि, स इत्थमाददानः साक्षादारम्भकत्व ज्ञानावरणीयादिकर्मणा बध्यते, ततस्तद् ज्ञानावरणीयादिकर्म
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१२९] » “नियुक्ति: [१०७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||१०७||
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बन्धनमात्मकर्म जानीहि, इयमत्र भावना-आधाकर्म यद्वा स्वरूपेणानाधाकापि भक्तिवशतो मदर्थमेतन्निष्पादितमित्याधाकर्मग्रहणपरिणतो यदा गृह्णाति तदा स साक्षादारम्भकत्तेच स्वपरिणामविशेषतो ज्ञानावरणीयादिकर्मणा बध्यते, यदि पुनर्न गृह्णीयाचा न वध्यते, तत आधाकर्मग्राहिणा यत्परस्य पाचकादेः कर्म तदात्मनोऽपि क्रियते इति परकर्म आत्मकर्म करोतीत्युच्यते, एतदेव स्पष्ट व्यनक्ति-'परकम्मे 'त्यादि, तत आधाकर्म यदा साधुहीत्वा भुते स परस्य पाचकादेयत्कर्म तदात्मकर्मीकरोति, आत्मनोऽपि सम्बन्धि करोतीति भावार्थः ॥ अमुं च भावार्थमस्य वाक्यस्याजानानः परो जातसंशयः प्रश्नयति
तत्थ भवे परकिरिया कहं नु अन्नत्थ संकमइ ? ॥ १०८ ॥ व्याख्या-तत्र' परकर्म आत्मकर्मीकरोतीत्यत्र वाक्ये भवेत् परस्य वक्तव्यं यथा-कथं 'परक्रिया' परस्य सत्कं ज्ञानावरणीयादिकर्म अन्यत्र आधाकर्मभोजके साधौ संक्रामति', नैवं सक्रामतीति भावः, न खलु जातुचिदपि परकृतं कर्म अन्यत्र सङ्का कामति, यदि पुनरन्यत्रापि सङ्क्रामेत् वदि क्षपकश्रेणिमधिरूढः कृपापरीतचेताः सकलजगजन्तुकम्मनिर्मूलनापादनसमर्थः सर्वेषामपि |
जन्तूनां कर्म ज्ञानावरणीयाद्यात्मनि सङ्क्रमय्य क्षपयेत् । तथा च सति सर्वेषामेककालं मुक्तिरुपजायेत, न च जायते, तस्मान्नैव परकृतकर्मणामन्यत्र सक्रमः, उक्तं च-"क्षपकश्रेणिपरिगतः स समर्थः सर्वम्मिणां कर्म । क्षपयितुमेको यदि कर्मसङ्क्रमः स्यात्परकृतस्य ॥१॥ परकृतकर्मणि यस्मान्न कामति सङ्क्रमो विभागो वा । तस्मात्सत्त्वानां कर्म यस्य यत्तेन तदेयम् ॥ २॥" वतः
कथमुच्यते-परकर्म आत्मकमींकरोतीति ? । इदं च वाक्यं पूर्वान्तर्गतमन्यथाऽपि केचित्परमार्थमजानाना व्याख्यानयन्ति, ततस्तजन्मतमपाकर्तुमुपन्यस्यन्नाह
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१३१] » “नियुक्ति: [१०९] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियु-1
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१०९||
तमलयगिरीयात्तिः ॥४४॥
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कूडउवमाइ केइ परप्पउत्तेऽवि बेंति बंधोत्ति ।
आत्मकर्मीव्याख्या-'केचित् । स्वयूथ्या एवं प्रवचनरहस्यमनानानाः 'कूटोपपया' कूटष्टान्तेन बुबते 'परप्रयुक्तेऽपि' परेण पाचका- करणनादिना निष्पादितेऽप्योदनादौ साधोस्तद्भग्राहकस्प भवति बन्धः, एतदुक्तं भवति-यथा व्याधेन कूरे स्थापिते मृगस्यैव बन्यो न व्याधस्य,
त्मकमेवा तथा गृहस्थेन पाकादी कृते तद्भाहकस्य साधोबन्धो न पाककर्तुः, ततः परस्य यत्कर्म ज्ञानावरणीयादि सम्भवति तदाधाकर्मग्राही स्वस्यैव सम्बन्धि करोतीति परकर्म आत्मकम्मींकरोतीत्युच्यते, तदेतदसदुत्तरं, जिनवचनविरुद्धत्वात् , तथादि-परस्यापि साक्षादारम्भकलेन नियमतः कर्मबन्धसम्भवः, ततः कथमुच्यते तद्राहकस्य साघोबन्धो न पाककर्तुः, न च मृगस्यापि परपयुक्तिमात्राद् बन्धः, किन्तु स्वस्मादेव प्रमादादिदोषात्, एवं साधोरपि । तथा चैतदेव नियुक्तिकदाह
भणइ य गुरू पमत्तो बज्झइ कूडे अदक्खो य ॥ १०९॥ एमेव भावकूडे बज्झइ जो असुभभावपरिणामो । तम्हा उ असुभभावो बज्जेयवो पयत्तेणं ॥ ११॥
व्याख्या-'भणति' प्रतिपादयति, 'च:' पुनरर्थे, पुनरर्थश्चायम्-एके केचन सम्पग्गुरुचरणपर्युपासनाविकलतया यथाऽवस्थित तत्त्वमवेदितारोऽनन्तरोक्तं ब्रुवते, गुरुः पुनर्भगवान् श्रीयशोभद्रसूरिरेवमाह, एतेनैतदावेदयति-जिनवचनमवितर्थ जिज्ञासुना नियमतः||: प्रज्ञावताऽपि सम्पग्गुरुचरणकमलपर्युपासनमास्थेयम्, अन्यथा प्रज्ञाया अवैतथ्यानुपपत्तेः, उक्तं च-" तत्तदुरप्रेक्षमाणानां, पुराणैराग-II
॥४४॥ विना। अनुपासितवृद्धानां, प्रज्ञा नातिप्रसीदति ॥ १॥" गुरुवचन मेव दर्शयति-मृगोऽपि खा कूटैः स वध्यते यः पमत्तोऽदक्षश्च भवति, यस्त्वप्रमत्तो दक्षश्च स कदाचनापि न बध्यते, तथाहि-अपमतो मृगः प्रथमत एक कूरदेश परिहरति अथ कथमपि प्रमादवशात् कूटदेश-12
अनुक्रम [१३१]
RELIGunintentiaTATE
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[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१३२] ● → “निर्युक्तिः [११० ] + भाष्यं [ २२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
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मपि प्राप्तो भवति तथापि यावनाद्यापि बन्धः पतति तावदक्षतया झांगेति तद्विषयादपसर्पति, यस्तु प्रमत्तो दक्षतारहितश्च स बध्यते एव, तस्मान्मृगोऽपि बध्यते परमार्थतः स्वप्रमादक्रियावशतो न परप्रयुक्तिमात्रात्, 'एवमेव' अनेनैव मृगदृष्टान्तोक्तप्रकारेण 'भावकूटे संयमरूपभावबन्धनाय कूटमिव कूटम् आधाकर्म तत्र स ' वध्यते' ज्ञानावरणीयादिकर्म्मणा युज्यते, योऽशुभभावपरिणामः- आहारकाम्पय्यत आधाकर्मग्रहणात्मकाशुभभावपरिणामो न शेषः, न खल्वाधाकर्म्मणि कृतेऽपि यो न तद्गृह्णाति नापि भुङ्क्ते स ज्ञानावरणीयादिना पापेन बध्यते, न हि कूटे स्थापितेऽपि यो मृगस्तद्देश एवं नाऽऽयाति आयातोऽपि यत्नतस्तदेशं परिहरति स कूटेन बन्धमामोति, तन्न परप्रयुक्तिमात्राद्वन्धो येन परोक्तनीत्या परकृतकर्म्मण आत्मकम्मकरणमुपपद्यते किन्त्वशुभाध्यवसायभात्रतः, तस्मादशुभो भाव आधाक| ग्रहणरूपः साधुना प्रयत्नेन वर्जयितव्यः, परकर्म्म आत्मकर्म्म करोतीत्यत्र च वाक्ये भावार्थः प्रागेव दर्शितः, यथा परस्य पाचकादेर्यत्कर्म तदात्मकम्मकरोति, किमुक्तं भवति ? तदात्मन्यपि कम्र्म करोतीति, ततो न कश्विदोषः, परकर्म्मणश्वात्मकम्मकरणमाधा कर्मणा ग्रहणे भोजने वा सति भवति नान्यथा, तत उपचारादाधाकर्म्म आत्मकर्मेत्युच्यते । नतु तदाधाकर्म यदा स्वयं करोत्यन्यैव कारयति कृतं वाऽनुमोदते तदा भवतु दोषो यदा तु स्वयं न करोति नापि कारयति नाप्यनुमोदते तदा कस्तस्य ग्रहणे दोष इति ?, अत्राह
कामं सयं न कुब्बइ जाणतो पुण तहावि तग्गाही । वड्ढेइ तप्पसँग अगिण्हमाणो उ वारेइ ॥ १११ ॥
व्याख्या--' कामं सम्मतमेतद्, यद्यपि स्वयं न करोत्याधाकर्म्म उपलक्षणमेतन कारयति तथाऽपि मदर्थमेतन्निष्पादितमिति जानानो यथाधाकर्म्म गृह्णाति तर्हि तग्राही 'तत्प्रसङ्गम् ' आधाकर्मग्रहणप्रसङ्गं वर्द्धयति, तथाहि यदा स साधुराधाक जानानो गृह्णाति तदाऽन्येषां साधूनां दायकानां चैवं बुद्धिरुपजायते - नाऽऽघाकम्र्म्मभोजने कथनापि दोषः, कथमन्यथा स साधुजनानोऽपि गृही
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१३३] .→ “नियुक्ति: [१११] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
दीप
पिण्डनियु-तवानिति, तत एवं तेषां बुद्धयुत्पादे सन्तत्या साधूनामाधाकर्मभोजने दीर्घकालं षड्जीवनिकायविधातः स परमार्थतस्तेन प्रवर्यते, यस्तु : आधाकर्मक्तमलयाग- न गृहाति स इत्थंभूतप्रसङ्गदि निवारयति, प्रवृत्तेरेवाभावात् , तथा चाह-अगिण्हमाणो उ वारेइ' ततोऽतिप्रसङ्गदोपभयात्कृतकारि- ग्रहणे भरापाटा तदोपरहितमपि नाधाकर्म भुञ्जीत, अन्यच तदापाकर्म जानानोऽपि भुञ्जानो नियमतोऽनुमोदते, अनुमोदना हि नाम अप्रतिषेधनम् ॥ सङ्गः प्रति॥४५॥ अपतिपिद्धमनुमत 'मिति विद्वत्मवादात, तत आधाकम्मेभोजने नियमतोऽनुमोदनादोषोऽनिवारितप्रसरः, अपि च-एवमाधाकर्मभोजनेवणाद
कदाचिन्मनोज्ञाहारभोजनभित्रदंष्ट्रतया स्वयमपि पचेत्याचयेदा, तस्मान्न सर्वथाऽधाकर्म भोक्तव्यमिति स्थितम् ।। तदेवमुक्तमात्मकर्मेति नाम, सम्मति प्रतिषेवणादीनि नामानि वक्तव्यानि, तानि चात्मकर्मेति नामाङ्गत्वेन प्रवृत्तानि, ततस्तेपामात्मकम्मति नामाङ्गत्वं परस्परं गुरुलघुचिन्तां च चिकीर्षुरिदमाइal अचीकरेइ कम्म पडिसेवाईहिं तं पुण इमेहिं । तत्थ गुरू आइपयं लहु लहु लहुगा कमेणियरे ॥ ११२॥
व्याख्या-तत्पुनीनावरणीयादिकं परकर्म 'आत्मीकरोति' आत्मसात्करोति 'एभिः' वक्ष्यमाणस्वरूपैः प्रतिपेवणादिभिः ततः प्रतिषेवणादिविषयमाधाकापि प्रविषेवणादिनाम, तत्र तेषां प्रतिषेवणादीनां चतुर्णा मध्ये 'आदिपदं ' प्रतिषेवणालक्षणं 'गुरु' महादोष, शेषाणि तु पदानि प्रतिषेवणादीनि लघुलघुलघुकानि द्रष्टव्यानि, प्रतिषेवणाऽपेक्षया प्रतिश्रवणं लघु प्रतिश्रवणादपि संवासनं लघु संवासनादप्यनुमोदनमिति ।। सम्मत्येतेषामेव प्रतिषेवणादीनां स्वरूपं दृष्टान्तांच प्रतिपिपादयिपुस्तद्विषयां प्रतिज्ञामाह--
पडिसेवणमाईणं दाराणऽणुमोयणावसाणाणं । जहसंभवं सरूवं सोदाहरणं पवक्खामि ॥ ११३ ॥ व्याख्या-प्रतिषेवणादीनां द्वाराणामनुमोदनापर्यवसानानां यथासम्भवं यद्यस्य सम्भवति तस्य तत्स्वरूपं 'सोदाहरणं' सह
अनुक्रम [१३३]
'प्रतिषेवना' स्वरुपम् एवं दृष्टांता: कथयते
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आगम
(४१/२)
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अनुक्रम [१३५ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१३५] • → “निर्युक्तिः [ ११३] + भाष्यं [ २२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
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शन्तं प्रवक्ष्यामि, तत्र प्रथमतः प्रतिषेवणास्वरूपं वक्तव्यं तत्रापि य आधाकम् स्वयमानीय मुझे स आधाकर्म्मपतिसेवी प्रतीत एव ॥ केवळमिह ये परेणोपनीतमाधाक भुञ्जानस्य न कश्विदोष इति मन्यन्ते तन्मतविकुट्टनार्थं परेणोपनीतस्याऽऽधाकर्म्मणो भोजने प्रतिषेवणादोषमाद
अन्नेणाहाकम्मं उवणीयं असइ चोइओ भणइ । परहत्येणंगारे कहूंतो जह न उज्झइ हु ॥ ११४ ॥
एवं खु अहं सुद्धो दोसो तरस कूडउवमाए । समयत्थमजाणतो मूढो पडिसेवणं कुणइ ॥ ११५ ॥
व्याख्या--' अन्येन ' साधुना भक्तादिकमाधाक 'उपनीतं ' गृहस्थगृहादानीय समर्पितं तद्योऽश्नाति स प्रतिषेवणां करोतीति सम्बन्धः स चाघाकर्म भुञ्जानः केनाप्यपरेण साधुना धिग्गमहे यच तत्र भवान्विद्वानपि संयतोऽप्यधाकर्म भुञ्जीतेति चोदितः विक्षिप्तः सन् प्रत्युत्तरं भणति यथा न मे कश्विदोषः, स्वयंग्रहणस्याभावात्, यो हि नाम स्वयमाधाकर्म्म गृहीत्वा मुझे तस्य दोषो, यस्तु परेणोपनीतं मुझे तस्य न कश्चित, तथा चात्र दृष्टान्तो यथा- परहस्तेनाङ्गारान् कर्षयन्न दद्यते, एवमहमप्याधाकम्भोजी 'खु' निभितं शुद्ध एव दोषः पुनर्ददतो यथा परस्य स्वहस्तेनाङ्गारानाकर्षतः, एवं 'कूटया उपमया अलीकेन दृष्टान्तेन 'समयार्थ' भगवत्प्रवचनोपनिषदं "अस्सद्वा आरंभो पाणिवहो होइ तस्स नियमेणं । पाणिवहे वयभंगो वयभंगे दोग्गई चैव ।। १ ।। " इत्यादिरूपम् अजानानः, अत एव मूढः प्रतिषेवणं कुरुते । तदेवमुक्तं प्रतिषेवणस्य स्वरूपं, सम्पति प्रतिश्रवणस्य स्वरूपमाह
१ स्वार्थमारम्भः प्राणिवधो भवति तस्य नियमेन । प्राणिवचे व्रतभङ्गो व्रतभङ्गे दुर्गतिरेव ॥ १ ॥
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नि/भा/प्र
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अनुक्रम [१३८]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१३८ ] • → “निर्युक्तिः [ ११६] + भाष्यं [ २२...] + प्रक्षेपं 40
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्य
तेर्मलयगिरीयावृत्तिः
।। ४६ ।।
उवओगंमि य लाभ कम्मग्गाहिरस चिचरक्खट्टा । आलोइए सुलद्धं भणइ भगतस्स पडिसुणणा ॥ ११६ ॥
व्याख्या - इह यो गुरुरूपयोगकरणवेलायां कर्म्मग्राहिण आधाकग्रहणाय प्रवृत्तस्य शिष्यस्य 'चित्तरक्षार्थी' मनोऽन्यथा भावनिवारणार्थ दाक्षिण्याद्युपेतो 'लाभं भणति' लाभ इति शब्दमुच्चारयति, तथाऽऽयाकर्म्मणि गृहस्थगृहादानीय आलोचिते श्राद्धिकयेदं करोटिकया। दत्तमित्येवं निवेदिते 'मुलद्धं ' शोभनं जातं यत्त्वयेदं लब्धमिति भणति तस्य गुरोरित्यं भणतः प्रतिश्रवणं नाम दोष:, सूत्रे तु स्त्रीत्वनिर्देश: प्राकृतत्वात् माकृते हि लिङ्गं व्यभिचारि, यदाह पाणिनिः स्वमाकृतलक्षणे-“ लिङ्गं व्यभिचार्यपीति, प्रतिश्रवणं च नामाभ्युप गमः ॥ सम्पति संवासानुमोदनयोः स्वरूपं प्रतिपादयति
संवासो उपसिद्धो अणुमोयण कम्मभोयगपसंसा । एएसिमुदाहरणा एए उ कमेण नायव्त्रा ॥ ११७ ॥
व्याख्या--' संवासः ' आधाकर्म्मभोक्तृभिः सहैकत्र संवसनरूपः प्रसिद्ध एव, अनुमोदना स्वाघाकर्म्मभोजकप्रशंसा - कृतपुण्याः * मुलब्धिका एते ये इत्थं सदैव लभन्ते भुञ्जते वेत्येवंरूपा ॥ तदेवमुक्तं प्रतिषेत्रणादीनां चतुर्णामपि स्वरूपं, सम्पत्येतेषामेव प्रतिषेवणादीनां क्रमेण एतानि वक्ष्यमाणस्वरूपाणि उदाहरणानि ज्ञातव्यानि सूत्रे च उदाहरणशब्दस्य पुंल्लिङ्गता प्राकृतलक्षणवशात् ॥ तत्र यान्युदाहरणानि वक्तव्यानि तेषां नामानि क्रमेण प्रतिपादयति
पडिसेवणाऍ तेणा पडिसुणणाए उ रायपुत्तो उ । संवासंभि य पट्टी अणुमोयण रायदुट्ठो य ॥ ११८ ॥
व्याख्या-प्रतिषेवणस्य स्तेना उदाहरणं, प्रतिश्रवणस्य तु राजपुत्रं, राजपुत्रोपलक्षिताः शेषाः पुरुषाः, संवासे 'पल्ली' पल्लीवा स्तव्या वणिजः, अनुमोदनायां राजदृष्टो, राजदुष्टशेपलक्षितास्तत्प्रशंसकारिणः । तत्र प्रथमतः प्रतिषेवणसम्बधिनं स्तेनदृष्टान्तं भावयति
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प्रतिषेवणादो दोषाः
।। ४६ ।।
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प्रत गाथांक नि/भा/प्र
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अनुक्रम [१४१ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १४१] → “निर्युक्तिः [११९] + भाष्यं [ २२... ] + प्रक्षेपं [[" ← पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
गोणीहरण सभूमी नेऊ गोणिओ पहे भक्खे । निव्विसया परिवेसण ठियात्रि ते कूविया घत्थे ॥ ११९ ॥
व्याख्या - इद्द गाथाक्षरयोजना सुगमस्वात्स्वयमेव कर्त्तव्या केवलं 'निर्विशका उपभोक्तारो, निष्पूर्वस्य विशेरुपभोगे वर्त्तमानत्वात् तथा चोक्तम्- “निर्वेश उपभोगः स्यात्', 'कूजकाः व्याहारकारिणः, गवां व्यावर्त्तका इत्यर्थः, 'घत्थे' इति गृहीताः, कथानकमुच्यते-इह कचिद्रामे बहवो दस्यवः, ते चान्यदा कुतश्चित्सन्निवेशाद्रा अपहृत्य निजग्रामाभिमुखं प्रचलिताः, गच्छतां च तेषामपान्तराले केऽप्यन्ये दस्यवः पथिका मिलितवन्तः, ततस्तेऽपि तैः सार्द्धं ब्रजन्ति, वजन्तत्र स्वदेशं प्राप्ताः, ततः प्राप्तः स्वदेश इति निर्भया भोजनवेलायां कतिपया गा विनाश्य भोजनाय तन्मांस पक्कुमारब्धवन्तः अस्मिंश्व प्रस्तावे केऽप्यन्येऽपि पथिकाः समाययुः, ततस्तेऽपि तैर्दस्युभिभोजनाय निमन्त्रिताः, ततो गोमांसे पके केऽपि चौराः पथिकाश भोक्तुं प्रवृत्ताः केऽपि गोमांसभक्षणं बहुपापमिति परिभाव्य न भोजनाय प्रवृत्ताः केवलमन्येभ्यः परिवेषणं विदधति, अत्रान्तरे च निष्पत्या कारनिशितकरवाळभीषणमूर्तयः समाययुः कूजकाः, ततस्तैः सर्वेऽपि भोक्तारः परिवेषकाच परिगृहीताः, तत्र ये पथिका अपान्तराले मिलितास्ते पथिका वयमिति ब्रुवाणा अपि चौरोपनीतगोमांसभक्षणपरिवेषणपवृत्ततया चौवदुष्टा इति गृहीता विनाशिताय || अनुमेवार्थ दार्शन्ति के योजयति
जेऽविय परिवेसंती, भायणाणि घरंति य । तेऽवि बज्झति तिब्वेण, कम्मुणा किमु भोइणो ? ॥ १२० ॥
व्याख्या - इह चौराणां येऽपान्तराले भोजनवेलायां वा ये मिलिताः पथिकास्तत्रापि ये परिवेषमात्रं भाजनधारणमात्रं वा कृतवन्तस्तेऽपि कूजकैरागत्य बद्धा विनाशिताथ, एवमिहापि ये साधवोऽन्येभ्यः साधुभ्यः आधाकर्म्म परिवेषयन्ति वा घरन्ति तेऽपि 'तीवेण दुस्सहविपाकेन नरकादिगतिहेतुना कर्म्मणा वध्यन्ते, किं पुनराधाकर्म्मभोजिनः ? । तत एतदोषभयात्परिवेषणादिमात्रमध्याधाकर्मणः
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(४१/२)
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नि/भा/प्र
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अनुक्रम [१४२ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१४२ ] ● → “निर्युक्तिः [१२०] + भाष्यं [ २२...]
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्युक्तेर्मलयगि याहृति:
॥ ४७ ॥
प्रतिषेवर्ण यतिभिर्न कर्त्तव्यम, इह चौर स्थानीया आधाकर्म्मनिमन्त्रिणः साधवो गोमांसभक्षकचौरपथिकस्थानीयाः स्वयंगृहीत निमन्त्रिताधाकर्मभोजिनो गोमांसपरिवेषकादिस्थानीया आधाकर्म्मपरिवेषकादयः गोमांसस्थानीयमाधाक पथस्थानीयं मानुषं जन्म कूजकस्थानीयानि कर्माणि मरणस्थानीयं नरकादिप्रपातः ॥ सम्पति प्रतिश्रवणस्य पूर्वोक्तं राजसुतदृष्टान्तं भावयति—
सामत्थण रायसुए पिवहण सहाय तह य तुहिका । तिपि हु पडिसुणणा रण्णा सिहंमि सा नन्थि ॥ १२१ ॥
व्याख्या - गुणसमृद्धं नाम नगरं तत्र महाबलो राजा तस्य शीला नाम देवी, तयोर्विजितसमरो नाम ज्येष्ठः कुमारा, सच राज्यं जिघृक्षुः पितरि दुष्टाशयश्चिन्तयामास यथा ममैप पिता स्थविरोऽपि न म्रियते नूनं दीर्घजीवी सम्भाव्यते ततो निजभटान् सहायीकृत्यैनं मारयामीति, एवं च चिन्तयित्वा निजभटैः समं मन्त्रयितुं प्रावर्तत तत्र केचिदुक्तं वयं ते साहायककारिणोऽपरैरुक्तम्- एवं कुरु, केचित्पुनस्तृष्णीं प्रतिपेदिरे, अपरे पुनश्वेतस्यप्रतिपद्यमानाः सकलमपि तद्वृत्तान्तं राज्ञे निवेदयामासुः, ततो राजा ये साहायकं प्रतिपक्षा ये चैवं कुवित्युक्तवन्तो येऽपि च तूष्णीं तस्थुः तान् सर्वानपि ज्येष्ठं च कुमारं वैवस्वतमुखे प्रतिचिक्षेप, यैस्त्वागत्य निवेदितं ते पूजिताः, गाथाक्षरयोजना त्वियं-' सामत्थणं ' स्वभटैः सह पर्यालोचनं, 'राजहुए चि तृतीयार्थे सप्तमी, ततोऽयमर्थः- राजमुतेन कर्तुमारब्धमिति शेषः, तत्र केचिदुक्तं पितॄहनने कर्त्तव्ये तव सहाया वयमिति ' तथा ' इति समुचये चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः स च केचिदेवं कुर्विति भाषितवन्त इति समुचिनोति, केचित्पुनस्तूष्णीका जाता:- पौनेनावस्थिताः, एतेषां च त्रयाणामपि प्रतिश्रवणदोषः, यैस्तु राज्ञे शिष्टं तेषां 'सा' तत् प्रतिश्रवणं नास्ति । अमुमेवार्थ दार्शन्तिके योजयति
भुंज न भुंजे भुंजसु तइओ तुसिणीए भुंजए पढमो । तिव्हंपि हु पडिसुणणा पडिसेहंतस्स सा नत्थि ॥ १२२ ॥
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प्रतिषेवणा
यां स्तेनोदाहरणं
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१४४] » “नियुक्ति: [१२२] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं .
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गाथांक नि/भा/प्र ||१२२||
व्याख्या-इह किल केनापि साधुना चत्वारः साधव आधाकर्मणे निमन्त्रिता यथा भुड्गध्वं यूयमेनमाहारमिति, तत्रैवं निमन्त्रणे कृते प्रथमो मुझे, द्वितीयः माह-नाई भुञ्जे मुडव त्वमिति, तृतीयो मौनमाश्रितः, चतुर्थः पुनः प्रतिषिद्धवान् यथा-न कल्पते । साधूनामाधाकर्म तस्मादहं न भुझे इति, तत्र त्रयाणामायाना प्रतिश्रवणदोषः, चतुर्थस्य प्रतिपेषतः 'सा' तत्पतिश्रवणं नास्ति, अत्राह-नन्यायस्याधाकम्में भुखानस्य प्रतिपेवणलक्षण एव दोषः, कथं प्रतिश्रवणदोष उक्तः, उच्यते, इह यदाऽऽधाकमेनिमन्त्रितः संस्तदोजनमभ्युपगच्छति तदा नाद्यापि प्रतिपेवणमिति प्रतिश्रवणदोपः, तत ऊई तु प्रतिषेवणं, ततो न कश्चिदोषः । अथामीषामेव । भोजकादीनां कस्कः कायिकादिको दोषः स्याद् !, अत आह| आणत जगा कम्मुणा उ बीयरस वाइओ दोसो । तइयरस य माणसिओ तीहि विसुद्धो चउत्थो उ ॥१२॥
व्याख्या-इह य आधाकर्मणः स्वयमानेता यशानीतस्य निमन्त्रितः सन् भोक्ता तौ द्वावपि कर्मणा-आनयनभोजनरूपया कायक्रियया तुशब्दान्मनसा वाचा च दोषवन्तो, द्वितीयस्य तु भुक्ष्य त्वं नाई भुझे इति ब्रुवाणस्य याचिको दोषः, उपलक्षणमेतन्मानसिकच, तृतीयस्य तु तूष्णी स्थितस्य मानसिको, यस्तु चतुर्थः स त्रिभिरपि दोपैर्विशुद्धः, तस्माचतुर्थकल्पेन सर्वदेव साधुना भवितव्यम् ।। सम्मति दृष्टान्तोक्तस्य कुमारस्य ये दोषाः संप्रभवन्ति तानुपदश्योधाकम्मेणो भोक्तरि योजयति
पडिसेवण पडिसुणणा संवासऽणुमोयणा उ चउरोवि । पियमारग रायसुए विभासियव्वा जइजणेऽवि ॥ १२४॥ ___ व्याख्या--पितृमारके राजमुते प्रतिषेवणप्रतिश्रवणसंवासानुमोदनारूपाश्चत्वारोऽपि दोषा घटन्ते, तथाहि-तस्य स्वयं पितृमारणाय प्रवृत्तत्वात्मतिषेवणं, वयं तव सहाया इति निजभटवचनं प्रतिपद्यमानस्य प्रतिश्रवणं, तैरेव सार्द्धमेकत्र निवसनेन संवासः, तेषु बहुमानक
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१४६] » “नियुक्ति: [१२४] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१२४||
प्रतिश्रवणे राजमुतोदा० सेवासे पल्युदा०
पिण्डनियु-बरणादनुमोदना, एवं यतिजनेऽप्याधाकर्मणो भोक्तरि 'विभाषितव्याः ' योजनीयाः, अत्र यः स्वयमानीयान्यैः सह मुले तत्र प्रथमतो
मेंळयगि- योज्यन्ते, तस्याऽऽधाकर्म गृहस्थगृहादानीय भुञ्जानस्य प्रतिषेवणं, गृहस्पेनाऽऽधाकर्मग्रहणाय निपन्त्रितस्य तदहणाभ्युपगमः प्रतिश्र- रीवावृत्तिः
वर्ण, यस्मै तदाधाकर्म आनीय संविभागेन प्रयच्छति तेन सहकत्र संवसतः संवासा, तत्रैव बहुमानकरणादनुमोदना, यश्चान्येनाऽनीत- ॥४८॥
माधाकर्म निमन्त्रितः सन् मुड़े तस्य प्रथमतो निमन्त्रणाऽनन्तरमभ्युपगच्छतः प्रतिश्रवणं, ततो भुञानस्य प्रतिषेवणं, निमन्त्रकेण सहकत्र संवसतः संवासः, तत्र बहुमानकरणादनुमोदना, तदेवं यत्र प्रतिषेवणं तत्र नियमतश्चत्वारोऽपि दोषाः, प्रविश्रवणे च केवले त्रयः हासंवासे द्वौ, अनुमोदनायां त्वनुमोदनैव केवला, अत एवादिपदं गुरु शेषाणि तु पदानि लघुलपुलघुकानीति ॥ सम्मति संवासे पल्ली
दृष्टान्तं भावयति| पल्लीवहमि नट्ठा चोरा वणिया वयं न चोरत्ति । न पलाया पावकरत्ति काउं रन्ना उवालडा ॥ १२५ ॥
व्याख्या-वसन्तपुरं नाम नगरं, तत्रारिमर्दनो नाम राजा, तस्य प्रियदर्शना देवी, तस्य वसन्तपुरस्य प्रत्यासमा भीमाभि-11 धाना पल्ली, तस्यां च बहवो भिल्लरूपा दस्यवः परिवसन्ति वणिजश्थ, ते च दस्यवः सदैव स्वपल्ल्या विनिर्गत्य सकलमष्यस्मिद्दनराजमण्डलमुपद्रवन्ति, न स कश्चिदस्ति राज्ञः सामन्तो माण्डलिको वा यस्तान् साधयति, ततोऽन्यदा तत्कृतं सकलमण्डलोपद्रवमाकण्ये महाकोपावेशपूरितमानसो राजा स्वयं महती सामग्री विधाय भिल्लान् प्रति जगाम, भिल्लाश्च पल्लिं मुक्त्वा सम्मुखीभूय सङ्काम दातुमुद्यताः, राजा पवलसेनापरिकलिततया तान् सर्वानप्यवगणय्य सोत्साहो हन्तुमारब्धवान्, ते चैवं हन्यमानाः केऽपि तत्रैव परासवो बभूवः, केऽपि पुनः पलायितवन्तः, राजा च सामर्षः पल्ली गृहीतवान् , वणिजश्च तत्रत्या न वयं चौरास्ततः किमस्माकं राजा कारष्यति ? इति युद्धया नाने
दीप अनुक्रम [१४६]
॥४८॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१४७] » “नियुक्ति: [१२५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||१२५||
शन, राज्ञा च तेऽपि ग्राहिताः, ततस्तैर्विज्ञपयांचके यथा-देव ! वयं वणिजो न चौरा इति, ततो राजावादीत-यूर्य चौरेभ्योऽप्यतीवाप-1 राधकारिणो येऽस्माकमपराधकारिभिधौरैः सह संक्सथेति, ततो निगृहीताः । गाथाक्षरयोजना तु सुगमत्वात्स्वयं कार्या । दार्शन्तिके योजनां करोति
आहाकडभोईहिं सहवासो तह य तब्विवज्जंपि । दसणगंधपरिकहा भाविति सुलहवितिपि ॥ १२६ ॥
भावना-यथा वणिजां चौरैः सहकत्र संवासो दोषाय बभूव तथा साधूनामप्याधाकर्मभोक्तृभिः सहकत्र संबासो दोषाय वेदितव्यः, यतः 'तद्विवर्जमपि' आधाकर्मपरिहारमपि तथा 'सुरुक्षत्तिमपि मुटु-अतिशयेन रूक्षा द्रव्यतो विकल्यपरिभोगेण भावतोऽभिप्वङ्गाभावेन निःस्नेहा वृत्तिः-वर्तनं यस्य स तथा तमपि आधाकर्मसम्बन्धिन्यो दर्शनगन्धपरिकथा ‘भावयन्ति' आधाकर्मपरिभोगबाछापादनेन बासयन्ति, तथाहि 'दर्शनम् ' अवलोकनं, तच मनोझमनोजतराधाकाहारविषयं नियमाद्वासयति, यतः कस्य नाम शाकुन्दावदातो रसपाकमिधाननिष्णातमहासूपकारसुसंस्कृतः शाल्याधोदनो न मनःक्षोभमुत्पादयति, गन्धोऽपि सधस्तापितघृतादिसम्बन्धी नासिकेन्द्रियाप्यायनशीलो बलादपि तदोजने श्रद्धामुपजनयति, परिकथाऽपि च विशिष्टविशिष्टतरद्रव्यनिष्पादितमोदकादिविषया विधीयमाना तदास्वादसम्पच्याशंसाविधौ चेत उत्साहयितुमीश्वरा, तथादर्शनात् , ततोऽवश्यमाधाकर्मभोक्तृभिः सह संबासो यतीनां । दोषायेति ।। अनुमोदनायां राजदुष्टदृष्टान्तं भावयति
रायारोहऽवराहे विभूसिओ घाइओ नयरमज्झे । धन्नाधन्नत्ति कहा वहाबहो कप्पडिय खोला ॥ १२७॥ व्याख्या-श्रीनिलयं नाम नगरं तत्र गुणचन्द्रो नाम राजा, तस्य गुणवतीपमुखमन्तःपुरं, तत्रैव च पुरे सुरूपो नाम वणिक, स:
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अनुक्रम [१४७]
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आगम
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गाथांक
नि/भा/प्र
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अनुक्रम [१४९ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १४९ ] • → पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
“निर्युक्तिः [१२७]
+ भाष्यं [ २२...]
+ प्रक्षेपं " ०
पिण्डनतेर्मलयगिपावृत्तिः
।। ४९ ।।
च निजशरीरसौन्दर्यविनिर्जितनकरध्वजलवणिमा कमनीयका मिनीनामतीच कामास्पदं स्वभावतच परदाराभिवङ्गलालसः ततः सोऽन्यदा राजाऽन्तःपुरसन्निवेशसमीपं गच्छन्नन्तःपुरिकाभिः सस्नेहमवलोकितः तेनापि च ताः साभिलापमवेक्षिताः, ततो जातः परस्परमनुरागः, दूतीनिवेदितप्रयोगवशेन च ताः प्रतिदिनं तेन सेवितुमारब्धाः राज्ञा च कथमप्ययं वृत्तान्तो जज्ञे, ततो यदा सोऽन्तःपुरं प्राविशत्तदा निजपुरुपैग्रहितो ग्राहयित्वाच्च यैरेवाभरणैरलङ्कृतोऽन्तःपुरं प्रविवेश तैरेवाभरणैर्विभूषितो नगरमध्ये चतुष्पथे सकलजनसमक्षं विचित्रकदर्थनापुरस्सरं विनिपातितो राजा चान्तःपुरविध्वंसेनातीव दूनमनास्तस्मिन् विनाशितेऽपि न कोपाऽऽवेशं मुञ्चति, ततो हरिकान् प्रेषयामास, यथा रे ! दुरात्मानं तं ये प्रशंसन्ति ये वा निन्दन्ति तान् द्रयानपि मां निवेदय ? इति एवं च ते प्रेषिताः काटिक वेषधारिणः सर्वत्रापि नगरे परिभ्रमन्ति, लोकांश्च तं विनाशितं दृष्ट्वा केचन ब्रुवते, यथा अहो ! जातेन मनुजन्मनाऽवश्यं तावन्मर्त्तव्यं परं या अस्मादृशामधन्यानां दृष्टिपथमपि कदाचनापि नायान्ति ता अप्येष यथासुखं चिरकालं भुक्त्वा मृतस्तस्मादन्य एष इति, अपरे ब्रुवते - अधन्य एप उभयलोकविरुद्धकारी, स्वामिनोऽन्तःपुरिका हि जननीतुल्याः, ततस्तास्वप्येष सञ्चरन् कथं प्रशंसामर्हति शिष्टेभ्यः ! इति, ततस्ते द्वयेऽपि हेरिकैर्निवेदिता राज्ञेो राज्ञा च ये तस्य निन्दाकारिणस्ते सदबुद्धय इतिकृत्वा पूजिताः, इतरे तु कृतान्तमुखे माक्षिष्यन्त, गाथाक्षरयोॐ जना त्वेवं राज्ञोऽवरोध- अन्तःपुरं तद्विषयेऽपराधे यैरेवाऽऽभरणैर्विभूषितोऽन्तःपुरे प्रविष्टस्तैरेव विभूषितो नगरमध्ये घातितः, ततः कापटिकवेषधारिणः 'खोला: देरिका राज्ञा नियुक्ताः, लोकानां च तद्विषया धन्याधन्यकथा, ततो धन्यकथाकारिणां विनाशः इतरेषां ॥ ४९ ॥ त्वविनाश इति, दान्तिक योजना त्वेवम् एके साधवस्तावदाधाकर्म भुञ्जते, तत्रापरे जल्पन्ति -- धन्या एते सुखं जीवन्ति, अन्ये ब्रुवतेघिगेतान् ! ये भगवत्प्रवचनप्रतिषिद्धमाहारमश्नन्ति तत्र ये प्रशंसिनस्ते कर्म्मणा बध्यन्ते इतरे तु न, इहान्तः पुरस्थानीयमाधाकर्म, अन्त:
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आधाकर्मणि अनुमोदनायां राजदष्टोदा •
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [१४९] » “नियुक्ति: [१२७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२७||
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पुरद्रोहकारिस्थानीया आधाकर्मभोजिनः साधवः, नृपस्थानीयं ज्ञानावरणादिकं कर्म, मरणस्थानीयः संसारः, तत्र ये आधाकर्मभीक्तृमशंसकास्ते कर्मराज्ञो निग्राह्याः, शेषास्त्वनिग्राह्याः ॥ सम्पत्यनुमोदनाप्रकारमेव दर्शयति
साउं पज्जतं आयरेण काले रिउक्खमं नि । तग्गुणविकत्थणाए अभुंजमाणेऽवि अणुमन्ना ॥ १२८ ॥ ___व्याख्या-आधाकर्मभोजिन उद्दिश्य केचिदेवं युवते-वर्य तावन्न कदाचनापि मनोझमाहारं लभामहे, एते हुनः सदैव स्वादु लभ-8 ते, तदपि च 'पर्याप्तं ' परिपूर्ण, तत्रापि 'आदरेण बहुमानपुरस्सरं तत्रापि 'काले प्रस्तुतभोजनवेलायां तदपि 'ऋतुक्षम शिशिरादिऋतूपयोगि तथा 'खिग्ध घृतपूरादि, तस्माद्धन्या अमी मुखं जीवन्ति, एवं 'तद्गुणविकत्यनया' तद्गुणप्रशंसया 'अभुमानेऽपि' अनभ्यवदर-18 त्यपि अनमन्या। अनुमोदना र अनुमन्याजनितो दोपोऽपि कार्य कारणोपचारादनुमन्येत्युक्तः, ततोऽयमर्थ:-अभुञ्जानेऽपि अनुमो-18 दनाद्वारेणाधाकर्मभोजिन इव दोषो भवतीति, अन्ये तु तद्गुणविकत्यनामेवं योजयन्ति-आधाकर्मभोजिनं कोऽपि कन्दर्पणानाभोगेन वा पृच्छति-साधु लब्धं त्वया भोजनं, तथा पर्याप्तं, तथा आदरेण भक्त्या इत्यादि?, तत्राप्यविरोधः॥ तदेवमुक्तान्याधाकर्मणो नामानि, तदुक्तौ च यदुक्तं माम् मूलद्वारगाथायाम् ‘आधाकम्मियनामा' इति तयाख्यातं, सम्पति 'एगहा। इत्यवयवं व्याचिख्यामुरिदमाह___ आहा अहे य कम्मे आयाहम्मे य अत्तकम्मे य । जह बंजणनाणत्तं अत्थेणऽवि पुच्छए एवं ॥ १२९ ॥
व्याख्या-अत्र पर एवं पृच्छति, यथा आधाकर्म अधःकर्म आत्मघ्नमात्मकर्म इत्येतेषु चतुर्यु नाममु व्यञ्जनैर्नानात्वं विद्यते, तथा 'अर्थेनापि ' अर्थापेक्षयापि, नानात्वमस्ति किंवा न? इति, पृच्छतवायमभिप्रायः-इह आधाकादीनां नाम्नां सर्वेषामपि व्युत्प-18 चिनिमित्तं पृथक् पृथगुक्तं, तद्यथा-आधया कर्म आधाकर्म, अत्र साधुविषयमणिधानपुरस्सरपाकादिक्रियास्वारम्भो व्युत्पत्तिनिमित्तम् ,
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१५१] » “नियुक्ति: [१२९] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२, मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१२९||
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पिण्डनियु- अधोऽध:कर्म अधः कर्म, अब विशुद्धेभ्यः संयमादिस्थानेभ्योऽधोऽधस्तरामागमनम् , आत्मानं हन्तीत्यात्मनामति, अत्र चरणाद्यात्म-18| आधाकमैंक्र्मळयगि-विनाशनं, परकर्मा आत्मकर्म क्रियते इत्यात्मकर्म, अत्र परकर्मण आत्मसम्बन्धितया करणं, ततोऽत्र संशयो, यथा व्युत्पत्तिनिमित्त कार्थाः रीयावृत्तिः पृथक् पृथग भिन्नमेवं प्रवृत्तिनिमित्तमपि पृथक् पृथग् भिन्नं यथा घटपटशकटादिशब्दानां, किंधा न यथा घटकलशकुम्भादीनामिति, अत्र ||
आहा अहे य कम्मे' इत्यादायक्षरयोजना मागिव भावनीया ॥ एवं परेण प्रश्ने कृते सति शिष्यमतिमागलभ्याधानाय सामान्यतो नाम-18 विषयां चतुर्भलिकामाह
एगट्टा एगवंजण एगट्ठा नाणवंजणा चेव । नाणट्ठ एगवंजण नाणट्ठा वंजणानाणा ॥ १३ ॥ व्याख्या-इह नामानि जगति मवर्तमानानि कानिचिदुपलभ्यन्ते एकार्यानि एकव्यञ्जनानि, कानिचिदेकार्थानि नानाव्यञ्जनानि, कानिचिन्नानार्थानि एकव्यञ्जनानि, कानिचित्पुनर्नानार्थानि नानाव्यञ्जनानि ॥ अस्या एव चतुर्भङ्गिकायाः क्रमेण लौकिकनिदर्शनानि गाथाद्वयेनोपदर्शयति
दिलु खीरं खीरं एगढ़ एगवंजणं लोए । एगहुँ बहुनामं दुद्ध पओ पीलु खीरं च ॥ १३१ ॥ गोमहिसिअयाखीरं नाणहँ एगवंजणं नेयं । घडपडकडसगडरहा होइ पिहत्वं पिहनामं ॥ १३२॥
॥५०॥ व्याख्या-इह सर्वत्रापि जातावेकवचनं, ततोऽयमर्थः-एकार्थानि एकव्यञ्जनानि नामानि लोके मवर्तमानानि दृष्टानि, यथा | क्षीरं क्षीरमिति, इयमत्र भावना-एकत्र कचिगृहे गोदुग्धादिविषये क्षीरमिति नाम प्रवृत्तमुपलब्धं, तथाऽन्यत्रापि गोदुग्धादावेच विषये |
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१५४] » “नियुक्ति: [१३२] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||१३२||
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सीविति नाम प्रवर्तमानमपलभ्यते, एवं ततोऽप्यन्यत्र गृहान्तरे, ततोऽभूनि सर्वाण्यपि क्षीरं क्षीरमित्येवरूपाणि नामानि एकार्थानि एकजायनानि, तथा एकार्थानि बहुव्यञ्जनरूपाणि नामानि यथा दुग्धं पयः पील कीरमिति, अनि हि नामानि सर्वाण्यपि विवक्षितगो-||
दुग्धादिलक्षणेकार्थाभिधायितया नानापुरुपरेककालं क्रमेणकपुरुषेण का प्रयुज्यमानानि एकार्थानि नानाध्यञ्जनानि च ततो द्वितीये भले निपतन्ति, नानार्थान्येकव्यञ्जनानि, यथा-गोमहिष्यजासम्बन्धिषु क्षीरं क्षीरमिति नामानि प्रवर्त्तमानानि, एतानि हि नामानि सर्वाण्यपि समानव्यञ्जनानि भिन्नभिन्नगोदुग्धमहिषीदुग्धादिरूपार्थवाचकतया भिन्नानि च तत उच्यन्ते-नानार्थान्येकव्यञ्जनानि, नानार्थानिक नानाव्यञ्जनानि यथा घटपटशकटरथादीनि नामानि ॥ तदेवमुक्तानि चतुर्भशिकाया निदर्शनानि, साम्पतमिमामेव चतुर्भङ्गिकामाधाकर्म-18 णि यथासम्भवं गाथाढ्येन योजयवि
आहाकम्माईणं होइ दुरुत्ताइ पढमभंगो उ । आहाहेकम्मति य बिइओ सकिंद इव भंगो ॥ १३३ ॥
आहाकम्मतरिया असणाई उ चउरो तइयभंगो। आहाकम्म पड़च्चा नियमा सुन्नो चरिमभंगो॥ १३ ॥
व्याख्या-आधाकादीनां नाम्नां युगपद्धभिः पुरुपैरेकेन वा कालभेदेनैकस्मिन्नेव अशनादिरूपे वस्तुनि यद् ‘द्विरुक्तादि' al विरुच्चारणादि, आदिशब्दात त्रिरुचारणादिपरिग्रहः स भवति प्रथमो भङ्गः, किमुक्तं भवति ?-एकत्र वसतावशनविषये केनाप्याधाकसम्मेति नाम प्रयुक्तं, तथाऽन्यत्रापि वसत्यन्तरेऽशनविषये एवाधाकम्मति नाम प्रयुज्यते, तथा ततोऽन्यत्रापि वसत्यन्तरे, तान्यमूनि सर्वा-18
ण्ययाधाकम्मति नामानि एकार्थानि एकव्यञ्जनानि इति प्रथमे भनेऽवतरन्ति, आधाकर्म अधाकम्मेत्यादीनि तु नामानि विवक्षिताश-18 नादिरूपैकविषये प्रवर्त्तमानानि द्वितीयो भङ्गः, एकार्थानि नानाव्यञ्जनानीत्येवंरूपद्वितीयभङ्गविषयाणि 'सकिंद इवे ति यथा इन्द्रः शक्र 8
अनुक्रम [१५४]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१५४] » “नियुक्ति: [१३२] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३२||
इत्येवमादीनि नामानि, तथा 'अशनादयः' अशनपानखादिमस्यादिमरूपाः चत्वार 'आधाकान्तरिता' आधाकर्मशब्देन व्यव- आधाकहिता यथाऽशनमाधाकर्म पानमाधाकर्मेत्येवमादि, 'तृतीयभङ्गः तृतीयभङ्गविषयाः, अवाप्ययं भावार्थ:-यदाऽशनादयः प्रत्येकमाधाकर्म मणि एआधाकमेति देशभेदेन बहुभिः पुरुषैरेककालमेकेन वा पुरुषेण कालभेदेनोच्यन्ते तदा तानि आधाकर्म आधाकम्भेति नामानि काधादिनानार्थान्येकव्यञ्जनानीति तृतीये भङ्गेऽवतरन्ति, अधाकर्मरूपं नामाश्रित्य पुनश्चरमो भङ्गो नानार्थानि नानाव्यञ्जनानीत्येवरूपो नियमाच्छून्य आषाकर्म आधाकम्मत्येवमादिनाम्नां सर्वेषामपि समानव्यञ्जनत्वात , उपलक्षणमेतत, तेन सर्वाष्यपि नामानि प्रत्येकं चररामभङ्गेन वर्तन्ते, यदा तु कोऽप्यशनविषये आधाकम्मेति नाम मयुङ्क्ते पानविषये त्वधःकति खादिमविषये स्वात्मनमिति खादिमविषये स्वात्मकम्मेति तदाऽमूनि नामानि नानार्थानि नानाव्यञ्जनानि चेति चरमोऽपि भगः पाप्यते, इह विवक्षिताशनादिरूपकविषये प्रवर्तमानानि आधाकाधाकर्मप्रभृतीनि नामानि द्वितीयभङ्ग उक्तस्ततस्तदेव भावयति
इंदत्थं जह सदा पुरंदराई उ नाइवत्तंते । अहकम्म आयहम्मा तह आहे नाइवर्तते ॥ १३५ ॥
व्याख्या-यथा 'इन्द्रार्थम् ' इन्द्रशब्दवाच्यं देवराजरूपं 'पुरन्दरादयः' पुरन्दरशक्र इत्येवमादयः शब्दा नातिवर्तन्ते-नातिकमन्ति, तथा अध:कम्मेवात्मनशब्दो उपलक्षणमेतत् आत्मकर्मशब्दश्च 'आह'न्ति सूचनात्सूत्र मिति न्यायादापाकम्मोध-आधाकम्भेशब्द-|| सवाच्यं नातिवर्तन्ते, यदेव येन दोपेण दुष्टमाधाकर्मशब्दवाच्यमोदनादि तदेव तेनैव दोषेण दुष्टमधःकम्मोदयोऽपि शब्दा युवते इति || भावः । एतदेव भावयति
आहाकम्मेण अहेकरेति जं हणइ पाण भूयाई। जं तं आययमाणो परकम्मं अत्तणो कुणइ ॥ १३६ ॥
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१५८] » “नियुक्ति: [१३६] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३६||
व्याख्या-आधाकर्मणा भुज्यमानेन कृत्वा यस्माद्विशुद्धेभ्यो विशुद्धतरेभ्यः संयमादिस्थानेभ्योऽवतीर्याधस्तादात्मानं करोति तेन कारणेन तदेवाधाकर्म अध:कम्त्युच्यते, तथा यस्मादाधाकर्मणा भुज्यमानेन कृत्वा स एव भोक्ता परमार्थतः 'माणान् द्वीन्द्रियादीन || 'भूतान् ' बनस्पतिकायान् उपलक्षणमेतत् जीवान सच्चांश्च इन्ति-विनाशयति, जस्सहा आरंभो पाणिवहो होइ तस्स नियमेण ' इति ।
वचनप्रामाण्यात, प्राणादीवघ्नन् नियमतः चरणादिरूपमात्मानं हन्ति, 'पाणिवहे वैयभंगो' इत्यादिवचनाचत आधाकर्म आत्मनमि।त्युच्यते, तथा ' यत्' यस्मात्कारणात् 'तत् । आधाकर्म आददानः परस्य-पाचकादेः सम्बन्धि यस्कम्र्म-आरम्भजनितं ज्ञानावरणी
यादिकमुत्पन्नमासीत् तदात्मनोऽपि करोति, ततस्तदाधाकर्म आत्मकम्मॆत्युच्यते, तस्मादधःकर्मादीनि नामानि सर्वाप्पपि नाधाकर्मशब्दार्थमतिवर्तन्ते इति द्वितीये भङ्गेऽवतरन्ति । तदेवं भूलद्वारगाथायां 'एगट्ठा' इत्यपि व्याख्यात, सम्मति 'कस्स बाधि' इत्यवयव ।। व्याचिख्यासुराहकरसत्ति पुच्छियमी नियमा साहम्मियरस त होइ । साहम्मियस्स तम्हा कायब्ध परूवणा बिहिणा ॥ १३७ ॥
व्याख्या-'कस्य' पुरुषविशेषस्य अर्थाय कृतमाधाकर्म भवतीति परेण पृष्टे उत्तरमभिधीयते, नियमात्साधर्मिकस्यार्थाय कृतं तत्' आधाकर्म भवति, तस्मात्साधर्मिकस्यागमोक्तेन विधिना प्ररूपणा कर्तव्या । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति
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अनुक्रम [१५८]
१ प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूतास्तु तरचः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः ॥ १॥ २ यस्यार्थमारम्भः प्राणिवधः भवति तस्य नियमेन। ३ प्राणिवधान् तभङ्गः ।
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अनुक्रम
[१६० ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १६० ]
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“निर्युक्ति: [ १३८]
+ भाष्यं [ २२...]
+ प्रक्षेपं " ०
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्युतेर्मष्ठयगिरीयावृत्तिः
॥ ५२ ॥
नाम ठवणा दविए खेत्ते काले अ पत्रयणे लिंगे । दंसण नाण चरिते अभिग्गहे भावणाओ य ॥ १३८ ॥
व्याख्या--' नाम 'ति नाम्न्नि साधम्पिकः स्थापनासाधर्मिकः, 'द्रव्ये ' द्रव्यविषयः साधर्मिकः एवं क्षेत्रसाधर्मिकः, कालसाधर्मिकः, प्रवचनसाधर्मिकः, लिङ्गसाधर्मिकः, दर्शनसाधर्मिकः, ज्ञानसाधर्मिकः, चारित्रसाधर्मिकः, अभिग्रहसाधर्मिकः, 'भावणाओ य 'त्ति भावनातश्च साधर्मिको भवति, तदेवं द्वादशधा साधर्मिकाः ॥ एनामेव गाथां गाथात्रयेण व्याख्यानयति
नामंमि सरिसनामो उवणाए कटुकम्ममाईया । दव्वंभि जो उ भविओ साहंमि सरीरगं चैव ॥ १३९ ॥ खेत्ते समाणदेसी कालंमि समाणकालसंभूओ । पवयणि संधेगयरो लिंगे स्यहरणमुहपोती ॥ १४० ॥ दंसण नाणे चरणे' तिग पण पण तिविह होइ उ चरिते । दव्वाइओ अभिग्गह अह भावणमो अणिच्चाई ॥ १४१ ॥
व्याख्या--' नाम्न्नि' नामविषयः साधर्मिकः सदशनामा, किमुक्तं भवति ? - विवक्षितस्य साधोर्यन्नाम तदेव यदा इतरस्यापि तदानीं स इतरस्तस्य साधोर्नामसाधर्मिको भवति, यथा देवदत्तनाम्नः साधोर्देवदत्तनामा कश्चित् तथा 'स्थापनायां ' स्थापनाविषये साधर्मिकः 'काष्ठकर्म्मादिका' दारुमयप्रतिमामभृतिका, इह स्नेहवशात् कश्चिभिजपुत्रादेः साधोर्जीवितो मृतस्य वा कानुमयीं प्रतिमां कारयति सा प्रतिमा अन्येषां जीवतां संयतानां स्थापनासाधर्मिकः, आदिशब्दात्पापाणादिकप्रतिमापरिग्रहः अनेन सद्भावस्थापनासाधर्मिक उक्तो, यदा त्वक्षादी साधुस्थापना तदा सोऽसद्भावस्थापनासाधर्मिकः, तथा द्रव्ये भावप्रधानोऽयं निर्देशः 'द्रव्यत्वे' द्रव्यत्यविषयः साधर्मिको यो भव्यो योग्यः साधर्मिकत्वस्य किमुक्तं भवति ? - यस्तेनैव शरीरसमुच्छ्रयेण प्रवर्द्धमानेन साधोः साध
साधर्मिकाणां द्वादश-भेदा: उच्यते
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आधाकर्म
णि साघर्मिकमरू
पणा
।। ५२ ।।
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१६३] » “नियुक्ति: [१४१] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१४१||
कमिको भविष्यतीति स भव्य इत्यर्थः, तथा यञ्च साधर्मिकशरीरं सिद्धिशिलातलादिगतमपगतजीवितं भव्यशरीररूपोऽतीतसाधर्मिकशरीर
रूपश्च द्रव्यसाधर्मिकः, 'क्षेत्रे' क्षेत्रविषयः साधर्मिक, 'समानदेशी' समानदेशसम्भूतः, कालसाधर्मिकः समानकालसम्भूतः, प्रवचनसाधर्मिक: साध्वादिचतृष्टयरूपसङ्खमध्यादन्यतमः कश्रित, लिङ्गसाधर्मिको स्यहरणमुहपोती इति सूचनात् सूत्रमितिन्यायात् रजोहरणमुखपोतिकाग्रुपकरणवान्, 'दर्शनसाधर्मिकः' समानदर्शनः, दर्शनं च विधा, तद्यथा-सायिक क्षायोपशमिकमौपशमिकं च, ततो दर्शनद्वारेण यः साधर्मिकः सोऽपि त्रिधा, तद्यथा-सायिकदर्शनसाधर्मिक क्षायोपशमिकदर्शनसाधर्मिक औपशमिकदर्शनसाधर्मिकश्च, तत्र क्षायिकसम्यग्दृष्टेः क्षायिकसम्यम्टष्टिः क्षायिकदर्शनसाधर्मिक इत्यादि, 'ज्ञानसाधर्मिक' समानज्ञान:, ज्ञानं च पश्वधा, तथथामतिझानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं केवलज्ञानं च, ततो ज्ञानद्वारेण साधर्मिकोऽपि पञ्चधा, तयथा-पतिज्ञानसाधर्मिक इत्यादि तत्र मतिज्ञानिनो मतिज्ञानी मतिज्ञानसाधर्मिक इत्यादि । चारित्रसाधर्मिकः समानचारित्रः, चारित्रमपि च पञ्चधा, तद्यथा--सामायिक
छेदोपस्थापनं परिहारविशुद्धिक सूक्ष्मसम्परायं यथाख्यातं च, ततश्चारित्रेण साधर्मिकोऽपि पञ्चधा, तयथा-सामायिकचारित्रसाधजाकिश्छेदोपस्थापनिकचारित्रसाधर्मिक इत्यादि, तब सामायिकचारित्रस्य योऽपरः सामायिकचारित्रः स सामायिकचारित्रसाधर्मिक
इत्यादि, 'तिविह होइ उ चरिते' मतान्तरेण पुनश्चारित्रे-चारित्रविषयः साधर्मिकत्रिविधो भवति, यतश्चारित्र मतान्तरेण विधाऽत्र विवक्षितं, तद्यथा-सायिक क्षायोपशमिकमौपशमिकं च, ततस्तद्वारेण या साधर्मिकः सोऽपि त्रिधा, तयथा-शायिकचारित्रसार्मिक इत्यादि, तत्र क्षायिकचारित्रस्यापरः क्षायिकचारित्र: क्षायिकचारित्रसाधर्मिक इत्यादि, अभिग्रहा द्रव्यादी-द्रव्यादिविषयाश्चतुर्विधास्तद्यथा-द्रव्याभिग्रहाः क्षेत्राभिग्रहाः कालाभिग्रहाः भाषाभिग्रहाच तद्वारेण साधर्मिका अपि चतुर्विधास्तद्यथा-द्रव्याभिग्रहसाध
।
दीप अनुक्रम [१६३]
RELIGunintentiated
Marauranorm
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१६३] » “नियुक्ति: [१४१] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१४१||
दीप
पिण्डनियु-18मिकाः क्षेत्राभिग्रहसाधर्मिका इत्यादि, सत्र द्रव्याभिग्रहस्यापरो द्रव्याभिग्रहो द्रव्याभिग्रहसाधर्मिक इत्यादि, भावना द्वादशधा, तद्यथा- आधाकर्म
अनित्यत्वभावना (१) अशरणत्वभावना (२) एकत्वभावना (३) अन्यत्वभावना (४) अशुचित्वभावना (५) संसारभावना णि साधर्मिरीयावृत्तिः
(६) कर्माश्रवभावना (७) संवरभावना (८) निर्जरणभावना (९) लोकविस्तारभावना (१०) जिनप्रणीतधर्मभावना कमरूपणा ॥५३॥ (११) बोधिदुर्लभत्वभावना (१२), भावनाद्वारेण साधर्मिका अपि द्वादशधा, तद्यथा-अनित्यत्वभावनासाधर्मिकोऽशरणत्वभावना
साधर्मिक इत्यादि, तत्रानित्यत्वभावनासहितस्यापरोऽनित्यत्वभावनासहितोऽनित्यत्वभावनासाधर्मिक इत्यादि, तदेवं व्याख्याताः सर्वेऽपि | साधर्मिकाः । सम्प्रत्येतानेवाधिकृत्य कल्प्याकल्प्यविधिर्वक्तव्यः, तत्र नामसाधर्मिकमधिकृत्य प्रथमतः कल्प्याकल्प्यविधि गावाद्येन। प्रतिपादयति
जावंत देवदत्ता गिहीव अगिहीव तेसि दाहामि । नो कप्पई गिहीणं दाहंति विसेसिये कप्पे ॥ १४२ ॥ पासंडीसुवि एवं मीसामीसेसु होइ हु विभासा । समणेसु संजयाण उ विसरिसनामाणवि न कप्पे ॥ १४३ ॥
व्याख्या-इह कोऽपि पितरि मृते जीवति वा तमामानुरागतस्तन्नामयुक्तभ्यो दानं दिल्मुरेवं सङ्कल्पयति, यथा यावन्तो गृहस्था। अगृहस्था वा देवदत्तास्तेभ्यो मया भक्तादिकमुपस्कृत्य दातव्यं, तत्रैव सङ्कल्पे कृते देवदचाख्यस्य साधोने कल्पते, देवदत्तशब्देन तस्यापि सङ्कल्पविषयीकृतत्वात, यदा पुनरेवं सङ्कल्पयति, यथा यावन्तो गृहस्था देवदत्तास्तेभ्यो दातव्यमिति, तदा एवं 'विशेषिते ॥३॥ निद्धारिते सति तद्योग्यमुपस्कृतं देवदत्ताख्यस्य साधोः कल्पते, तस्य विवक्षितसङ्कल्पविषयीकरणाभावात, तथा पाखण्डिष्वपि मिश्रा-18 मिश्रेष्वेवं पूर्वोक्तमकारेण विभाषा कर्तव्या, इह सामान्यसङ्कल्पविषया मिश्रा उच्यन्ते, यथा यावन्तः पाखण्डिनो देवदत्ता इति, पति
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अनुक्रम [१६३]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [१६५] » “नियुक्ति: [१४३] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१४३||
नियतसङ्कल्पविषयास्त्वमिश्रा यथा यावन्तः सरजस्काः पाखण्डिनो यदिवा सौगता देवदत्ता इत्यादि, तत्र यावन्तो देवदत्ताः पाखण्डिन इति मिश्रसङ्कल्पे कृते न कल्पते पाखण्डिदेवदत्तशब्दाभ्यां देवदत्ताख्यस्यापि साधोः सङ्कल्पविषयीकृतत्वात् , यदा पुनरमियः सङ्कल्पो
यथा यावन्तः सरजस्काः पाखण्डिनो देवदत्ता यदिवा यावन्तः सौगता देवदत्ता या साधुव्यतिरेकेण सर्वेऽपि पाखण्डिनो देवदत्ताहस्तेभ्यो दास्यामीति, तदा देवदत्ताख्यस्य साधोः कल्पते, तस्य सङ्कल्पविषयीकरणाभावात् , यथा च पाखण्डिषु मिश्रामिश्रेषु विभाषा
कृता तथा श्रमणेष्वपि मिश्रामिश्रेषु कर्तव्या, श्रमणा हि शाक्यादयोऽपि भण्यन्ते, यतो वक्ष्यति-निग्गंथसकतावसगेरुयआजीव पञ्चद्दा समणा'ततो यदेवं मिश्रा सङ्कल्पो यावन्तः श्रमणा देवदत्ताख्यास्तेभ्यो दास्यामीति तदा देवदत्वाख्यस्य साधोर्न कल्पते, तस्य श्रमणदेवदत्तशब्दाभ्यां सङ्कल्पविषयीकृतत्वात् , यदा पुनरेवममिश्रः सङ्कल्पो याचन्तः शाक्याः श्रमगा यदिवा आजीविका देवदत्ता यदा-साधुव्यतिरेकेण सर्वं श्रमणा देवदत्तास्तेभ्यो दास्यामीति तदा कल्पते, तस्य विवक्षितसङ्कल्पविषयीकरणाभावात् , संयतानां तु निम्रन्थानां विसदृशनानामपि सङ्कल्पे कृते देवदत्ताख्यादेः साधोन कल्पते, किमुक्तं भवति ?-चैत्रनाम्नोऽपि संयतस्योद्देशेन कृतं । देवदत्ताख्यस्य साधोने कल्पते, तथा भगवदाज्ञाविजूंभणात, यदा पुनस्तीर्थकरपत्येकबुद्धसङ्कल्पनेन कृतं तदा कल्पते, तीर्थकरप्रत्येक-। बुद्धानां सङ्घातीतत्वेन सडमध्यवर्तिभिः साधुभिः सह साधर्मिकत्वाभावात् , ' संजयाण उ विसरिसनामाणविन कप्पे' इति वचनाचार्थापत्त्या यावन्तो देवदत्ता इत्यादी विसदृशचैत्रादिनाम्नां साधूनां कल्पत एवेति प्रतिपादितं द्रष्टव्यं । तदेवमुक्तो नामसाधर्मिकमधिकृत्य कलप्याकल्प्यविधिः, सम्पति स्थापनाद्रव्यसाधर्मिकावधिकृत्य तमाह---
नीसमनीसा व कडं ठयणासाहम्मियम्मि उ विभासा । दवे मयतणुभत्तं न तं तु कुच्छा विवज्जेज्जा ॥१४॥
दीप
अनुक्रम [१६५]
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||१४४||
दीप
अनुक्रम [१६६ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १६६ ]
• →
+ भाष्यं [ २२...]
+ प्रक्षेपं " ०
“निर्युक्तिः [ १४४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्यु - तेर्मळ गियावृत्तिः
॥५४॥
व्याख्या - इह कोऽपि गृही गृहीतप्रवज्यस्य मृतस्य जीवतो वा पित्रादेः स्नेहवशात् प्रतिकृतिं कारयित्वा तत्पुरतो ढौकनाथ वलिं निष्पादयति, तन्निष्पादनं च द्विधा, तयथा - निश्रया अनिश्रया च तत्र ये रजोहरणादिवेषधारिणो मत्पितृतुल्यास्तेभ्यो दास्यामीति सङ्कल्प्य निष्पादयति तदा तद्बलिनिष्पादनं निश्राकृतमुच्यते, यदा त्वेवंविधः सङ्कल्पो न भवति, किन्त्वेवमेव ढौकनाय बलिं निष्पादयति तदा तद्बलिनिष्पादनमनिश्राकृतमुच्यते, तथा चाह-'नीसमनीसा व कटं' इह प्रथमा तृतीयार्थे वेदितव्या, ततोऽयमर्थः --- निश्रयाऽनिश्रया वा यत्कृतं - निष्पादितं भक्तादिस्थापनासाधर्मिकविषये तत्र विभाषा कर्त्तव्या, यदि निश्राकृतं तदपि च ढौकितमढौकितं वा तर्हि न * कल्पते, अनिश्राकृतं तु ढौकितमढौकितं वा कल्पते, परं तत्रापि प्रवृत्तिदोषप्रसङ्ग इति पूर्वसूरयो निषेधमाचक्षते तथा 'द्रव्ये ' द्रव्यसाधर्मिकविषये यन्मृततनुभक्तं- तत्कालं मृतस्य साधोर्या तनुस्तस्याः पुरतो ढौकनाय यदशनादि तत्पुत्रादिना कृतं तन्मृततनुभक्तं तदपि द्विधा- निश्राकृतमनिश्राकृतं च तत्र साधुभ्यो दास्यामीति सङ्कल्प्य कृतं निश्राकृतमितरत्तु स्वपित्रादिभक्तिमात्रकृतमनिश्राकृतं, तत्र यन्निश्राकृतं तन्निषेधयति-नैव कल्पते, इतरच्चनिश्राकृतं कल्पते, किन्तु तद्ग्रहणे लोके जुगुप्सा-निन्दा प्रवर्त्तते यथा अहो ! अमी भिक्षवो निःशूका मृततनुभक्तमपि न परिहरन्तीति ततो विवर्जयन्ति तत्साधवः ।। सम्मति क्षेत्रकालसाधर्मिकावधिकृत्यातिदेशेन कल्प्या कल्प्यविधिमाहपासंडियसमणाणं गिहिनिग्गंथाण चेव उ विभासा । जह नामंमि तव य खेते काले य नायव्वं ॥ १४५ ॥ व्याख्या – यथा ' नाम्नि ' नामसाधर्मिकविषये पाषण्डिनां श्रमणानां ' गिहित्ति' सूचनात्सूत्रमिति न्यायाद गृह्मगृहिणां निर्ग्र
१ अन्यत्र प्रसिद्धस्यान्यत्र कथनमतिदेशः ।
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For Parts Only
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आधाकर्मणि स्थाप
नाद्रव्यसा
॥ ५४ ॥
org
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आगम
(४१/२)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||१४५||
दीप
अनुक्रम [१६७ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १६७ ] “निर्युक्ति: [ १४५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
• →
+ भाष्यं [ २२...]
+ प्रक्षेपं " ०
न्यानां च विभाषा कृता तथा क्षेत्रे काले च विभाषणं ज्ञातव्यं तत्र 'क्षेत्र' सौराष्ट्रादिकं 'कालो ' दिनपौरुष्यादिकः, तत्र क्षेत्रविषये | विभाषा एवं यदि सौराष्ट्र देशोत्पनेभ्यः पापण्डिभ्यो भया दातव्यमिति सङ्कल्पः तदा सौराष्ट्र देशोत्पन्नस्य साधोर्न कल्पते, सौराष्ट्रदेशोत्पन्नत्वेन तस्यापि सङ्कल्पविषयीकरणात्, शेषदेशोत्पन्नानां तु कल्पते, तेषां सङ्कल्पविषयीकरणाभावात्, यदि पुनः सौराष्ट्र देशोत्पन्नेभ्यः पापष्टिभ्यः सरजस्केभ्यो यदिवा सौगतेभ्यो यद्वा साधुव्यतिरेकेण सर्वपापण्डिभ्यो दास्यामीति सङ्कल्पः तदा सौराष्ट्र देशोत्पन्नस्यापि साधोः कल्पते, तस्य सङ्कल्पाकोडीकरणात् एवं श्रमणेष्वपि सामान्यतः सङ्कल्पितेषु न कल्पते, साधुव्यतिरेकेण तु सङ्कल्पितेषु कल्पते, तथा गृागृदिषु सामान्यतः सौराष्ट्रदेशोत्पन्नत्वेन सङ्कल्पितेषु न कल्पते, केवलेषु तु गृहिषु कल्पते, निर्ग्रन्थेषु तु सौराष्ट्र देशोत्पन्नेष्वसौराष्ट्र देशो* त्पन्नेषु वा संकल्पितेषु सौराष्ट्रदेशोत्पन्नानामन्यदेशोत्पन्नानां वा सर्वथा न कल्पते, तदेवं क्षेत्रसाधर्मिके विभाषा भाविता, एवं कालसाधर्मिकेऽपि भावनीया, यथा विवक्षितदिनजातेभ्यः पाषण्डिभ्यो मया दातव्यमिति सङ्कल्पिते तस्यापि तद्दिनजातस्य साधोर्न कल्पते, तस्यापि ॐ तद्दिनजातत्वेन सङ्कल्पविषयीकरणातू, शेषदिनजातानां तु कल्पते सङ्कल्पविषयीकरणाभावात् इत्यादि सबै पूर्वोक्तानुसारेण भावनीयं, प्रवचनादिपदसप्तके पुनरेवं पूर्वाचार्यव्याख्या - प्रवचन लिङ्गदर्शनज्ञानचारित्राभिग्रह भावनारूपेषु सप्तसु पदेषु द्विसंयोगभङ्गा एकविंशतिः, तद्यथा प्रवचनस्य लिङ्गेन सहैको, दर्शनेन सह द्वितीयो, ज्ञानेन सह तृतीयः एवं यावद्भावनया सह षष्ठ इति षद् भङ्गाः, एवं लिङ्गस्य दर्शनादिभिः सह पञ्च, दर्शनस्य ज्ञानादिभिः सह चत्वारः, ज्ञानस्य चारित्रादिभिः सह त्रयः, चारित्रस्याभिग्रह भावनाभ्यां दौ, अभिग्रहस्य भावनया सहेक इत्येकविंशतिः, एतेषु चैकविंशतिसङ्ख्यैषु भङ्गेषु प्रत्येकमेकैका चतुर्भङ्गिका, तद्यथा- प्रवचनतः साधर्मिको न लिङ्गतः, लिङ्गतः साधर्मिको न प्रवचनतः, प्रवचनतः साधर्मिको वितथ, न मवचनतो न लिङ्गतथ, शेषेषु भङ्गेषु यथास्थानं चतुर्भङ्गिका दर्शयिष्यते । तत्र प्रथमचतुर्भङ्गिकाया आद्यभङ्गद्वयोदाहरणमुपदर्शयति-
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||१४६||
दीप
अनुक्रम [१६८ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १६८ ] • → “निर्युक्तिः [ १४६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
+ भाष्यं [ २२...]
+ प्रक्षेपं " ०
पिण्डनिर्यु
क्तेमलयगि
यावृतिः
॥ ५५ ॥
दस ससिहागा सावग पवयण साहम्मिया न लिङ्गेण । लिङ्गेण उ साहम्भी नो पवयण निहगा सव्वे ॥ १४६ ॥
व्याख्या--प्रवचनतः साधर्मिका न लिङ्गेन अविरतसम्यग्दृष्टेरारभ्य यावदशमीं श्रावकप्रतिमां प्रतिपन्ना ये श्रावकास्तेऽत्र द्रष्टव्याः, कुत इत्याह- 'दस ससिहागा' इत्यत्र 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां मायो दर्शन मिति न्यायाद्धेतौ प्रथमा, ततोऽयमर्थःयतस्ते दशमीं श्रावकप्रतिमां प्रतिपन्नाः 'सशिखाकाः शिखासहिताः केशसहिता एवेत्पर्थः, ततस्ते प्रवचनत एव साधर्मिका भवन्ति न लिङ्गतो, ये स्वेकादशीं श्राचकप्रतिमां प्रतिपन्नास्ते निष्केशा इत्यादिना लिङ्गतोऽपि साधर्मिका भवन्तीति तद्विवर्जनम्, एतेषां चार्थाय यस्कृतं तत्साधूनां कल्पते, तथा लिङ्गतः साधर्मिका न प्रवचनतो निवाः तेषां प्रवचनवहिर्भूतत्वेन प्रवचनतः साधर्मिकत्वाभावात् लिङ्गं तु तेषामपि रजोहरणादिकं विद्यते इति लिङ्गतः साधर्मिकाः तेषामप्पर्थाय कृतं साधूनां कल्पते, निहवा दिवा-छोके निवत्वेन ज्ञाता | अज्ञाताच, तत्र ये ज्ञातास्ते इद ग्राद्याः, अज्ञातानां लोके साधुत्वेन व्यवहरणभावतः प्रवचनान्तर्वर्त्तित्वात् इहाय भयेन उदाहृते शेषमुत्तरं * भङ्गद्वयं स्वयमेव श्रोतारोऽवभोत्स्यन्ते इति बुद्धया निर्युक्तिन्नोदाहृतवान्, अनेनैव च कारणेन शेषाणामपि चतुर्भङ्गिकाणामाद्यमेव भङ्गद्वयमुदाहरिष्यति नोत्तरं भङ्गद्वयं वयं तु सुखावबोधायोदाहरिष्यामः, तत्रास्यामेव प्रथमचतुर्भङ्गिकायां प्रवचनतः साधर्मिका लिङ्गतथेति तृतीयभङ्गे उदाहरणं साधवः एकादशीं प्रतिमां प्रतिपन्नाः श्रावका वा, तत्र साधूनामर्थाय कृतं न कल्पते श्रावकाणा स्वर्थाय कृतं कल्पते, न प्रवचनतः साधर्मिका नापि लिङ्गतस्तीर्थकरमत्येकबुद्धाः तेषां प्रवचनलिङ्गातीतत्वात् तेषामर्थाय कृतं कल्पते, द्वितीया चतुमेङ्गिका प्रवचनतः साधर्मिका न दर्शनतो, दर्शनतः साधर्मिका न प्रवचनतः, प्रवचनतः साधर्मिका दर्शनतथ न प्रवचनतो न दर्शनतः, तत्राद्यभङ्गद्वयोदाहरणमाह
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आधाकर्मणि साधर्मिकाणां चतुर्भङ्गी कथयते
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आधाकर्म
णि साधमिकचतु
यः
॥ ५५ ॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१६९] » “नियुक्ति: [१४७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१४७||
विसरिसदसणजुत्ता पवयणसाहम्मिया न दंसणओ। तित्यगरा पत्तेया नो परयणदंसप्ताहम्मी ॥ १४७ ॥
व्याख्या-प्रवचनतः सामिका न दर्शनतः, 'विसदृशदर्शनयुक्ताः' विभिन्नायिकादिसम्यक्त्वयुक्ताः साधवः श्रावका वा, किमुक्तं भवति ?-एकेषां साधूनां श्रावकाणां वा क्षायोपशमिक दर्शनमपरेषां त्वौपशमिक क्षाषिक वा ते परस्परं प्रवचनतः साधर्मिका न दर्शनतः, सत्र साधूनामर्थाय कृतं साधूनां न कल्पते श्रावकाणां त्वर्थाय कृतं कल्पते तथा दर्शनतः साधर्मिका न मवचनतः, तीर्थकराः प्रत्येकबुद्धा वा समानदर्शना वेदितव्याः, तेषामर्थाय कृतं साधूनां कल्पते, प्रवचनतः साधर्मिका दर्शनतच, साधवः श्रावका वा समानदर्शनाः, अत्रापि साधूनामर्थाय कृतं न कल्पते श्रावकाणां त्वाय कृतं कल्पते, न मवचनतो नापि दर्शनतस्तीर्थकरप्रत्येकबुद्धनिवाः, तत्र तीर्थकराः प्रत्येकबुद्धाश्च विभिन्नदर्शना वेदितव्याः, निहवाश्च मिथ्यादृष्टयः प्रतीता एव, एतेषां च सर्वेषामर्थाय कृतं कल्पते । तृतीया चतुभङ्गिका प्रवचनतः साधर्मिका न ज्ञानतः, ज्ञानतः साधर्मिका न प्रवचनतः, प्रवचनतोऽपि साधर्मिका ज्ञानतश्च, न प्रवचनतो नापि ज्ञानतः, एवं चतुर्थ्यपि चतुर्भङ्गिका प्रवचनस्य चारित्रेण सह वेदितव्या, एतयोईयोरपि चतुर्भडिकयोरायमाय भङ्गयमतिदेशेनोदाहरति
नाणचरित्ता एवं नायव्या होति पवयणेणं तु । व्याख्या-यथा प्रवचनेन सह दर्शनमुक्तम् , एवं ज्ञानचारित्रे अपि प्रवचनेन सह ज्ञातव्ये, तद्यथा-प्रवचनतः साधर्मिका न ज्ञानतः, विसदृशज्ञानसहिताः साधवः श्रावका वा, अत्रापि यदि साधास्तर्हि न कल्पते, अथ श्रावकारतहि कल्पते, ज्ञानतः साधर्मिका न प्रवच-|
दीप
अनुक्रम [१६९]
SARERatininematural
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गाथांक
नि/भा/प्र
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दीप
अनुक्रम [१६९ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १६९ ] • →
“निर्युक्तिः [ १४७]
+ भाष्यं [ २२...]
+ प्रक्षेपं " ०
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
-
कूर्मलयगि यावृत्तिः
॥ ५६ ॥
नतः तीर्थकराः प्रत्येकबुद्धा वा समानज्ञानाः तेषामर्थाय कृतं कल्पते, प्रवचनतः साधर्मिका ज्ञानतथ, साधवः श्रावका वा समानज्ञानाः, अत्रापि साध्वर्थं कृतं न कल्पते, श्रावकाणां स्वर्थाय कृतं कल्पते, न प्रवचनतो नापि ज्ञानतस्तीर्थकर प्रत्येकबुद्धनिवाः, तत्र तीर्थकराः प्रत्येकयुद्धाय विभिन्नज्ञाना वेदितव्याः, निवास्तु मिथ्यादृष्टिवादज्ञानिनः प्रतीता एव एतेषां सर्वेषामप्यर्याय कृतं कल्पते, तथा प्रवच नतः साधर्मिका न चारित्रतः साधवः श्रावकाथ, तत्र साधवो विसदृशचारित्रसहिता वेदितव्याः, श्रावकाणां त्वविरतसम्यग्दृष्टीनां सर्वथा विरत्यभावेन देशविरतानां तु देशचारित्रतया चारित्रतः साधर्मिकत्वाभावः सुमतीतः साध्वर्थं चेत्कृतं न कल्पते श्रावकार्यं चैत्तर्हि कल्पते, चारित्रतः साधर्मिका न प्रवचनतः, तीर्थकर प्रत्येकबुद्धाः समानचारित्राः तेषामर्थाय कृतं कल्पते, प्रवचनतः साधर्मिकाश्चारित्रतश्च साधवः समानचारित्राः तेषामर्थाय कृतं न कल्पते, न प्रवचनतो नापि चारित्रतस्तीर्थकरमत्येकबुद्ध निवाः, तत्र तीर्यकरमत्येकबुद्धा विसदृशचारित्रा वेदितव्याः, निहवास्त्वचारित्रिण एवं एतेषां च सर्वेषामप्यर्थाय कृतं कल्पते ॥ पञ्चमी चतुर्भङ्गिका प्रवचनतः साधर्मिका नाभिग्रहतः, अभिग्रहतः साधर्मिका न प्रवचनतः, प्रवचनतोऽपि साधर्मिका अभिग्रहतश्च न प्रवचनतोऽपि नाप्यभिग्रहतथ, एवं पष्ठचपि चतुर्भङ्गिका प्रवचनस्य भावनया सह वेदितव्या, एतयोर्द्वयोरपि चतुर्भङ्गिकयोः प्रत्येकमायं भङ्गद्वयमुदाहरति
पवयणओ साहम्मी नाभिग्गह सावगा जइणो ॥ १४८ ॥
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साहम्मऽभिग्गणं नोपत्रयण निण्ह तित्थ पत्तेया । एवं पवयणभावण एन्तो सेसाण वोच्छामि ॥ १४९ ॥ व्याख्या - प्रवचनतः साधर्मिका नाभिग्रहतः श्रावका यतयश्च विसदृशाभिग्रहसहिताः तत्र श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधू
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आधाकर्म
णि साथमिंकूचतुभङ्गय:
॥ ५६ ॥
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आगम
(४१/२)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||१४९||
दीप
अनुक्रम [१७१]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
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+ भाष्यं [ २२...]
+ प्रक्षेपं " ०
मूलं [ १७१] “निर्युक्तिः [ १४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
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नाम्, अभिग्रहेण साधर्मिका न प्रवचनेन, निवतीर्थकर प्रत्येकबुद्धाः, एतेषां चार्याय कृतं कल्पते, प्रवचनतः साधर्मिका अभिग्रहतश्च साधवः श्रावकाश्च समानाभिग्रहाः, अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनों, न प्रवचनतो नाप्यभिग्रहतः तीर्थकर प्रत्येकयुद्ध - निहवा विसदृशाभिग्रहकलिता निरभिग्रहा वा तेषामर्थाय कृतं कल्पते, 'एवं पवयणभावण 'ति एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण प्रवचनभावनेतिप्रवचनभावनाचतुर्भङ्गिका भावनीया, तद्यथा- प्रवचनतः साधर्मिका न भावनातः साधवः श्रावका वा विसदृशभावनाकाः, अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनां भावनातः साधर्मिका न प्रवचनतः, निवतीर्थकरमत्येकबुद्धास्तेषामर्थाय कृतं कल्पते, प्रवचनतः | साधर्मिका भावनातञ्च साधवः श्रावकाच समानभावना काः, तत्र भावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनां न प्रवचनतो नापि भावनातः तीर्थकरमत्येकबुद्धनिवा विसदृशभावनाकाः, एतेषामर्थाय कृतं कल्पते, तदेवमुक्तानि प्रवचनाश्रितानां पण्णां चतुर्भङ्गिकानामुदाहरणानि, 'एत्तो सेसाण वोच्छामि'त्ति इत ऊर्ध्वं शेषाणां चतुर्भङ्गिकाणामुदाहरणानि वक्ष्ये । प्रतिज्ञातमेवातिदेशेन निर्वाहयति---
लिंगाई हिवि एवं एक्केकेणं तु उवरिमा नेया । जेऽनन्ने उवरिला ते मोतुं सेसए एवं ॥ १५० ॥
व्याख्या--' लिङ्गाईहिवि ' इत्यत्र सप्तम्यर्थे तृतीया ततोऽयमर्थ:-एवं-पूर्वोक्तेन प्रकारेण लिङ्गादिष्वपि - लिङ्गदर्शनप्रभृतिष्वपि पदेषु एकैकेन लिङ्गादिना पदेन 'उपरितनानि ' दर्शनज्ञानप्रभृतीनि पदानि नयेत् किमुक्तं भवति ? - लिङ्गदर्शनप्रभृतिषु पदेषु दर्शनज्ञानादिभिः पदैः सह याश्चतुर्भङ्गिकास्ताः पूर्वोक्तानुसारेणोदाहरेत्, अतीवेदं सङ्क्षिप्ततरमुक्तम्, अतो न्यत्रेण विवक्षुरिदमाह– 'जेऽनन्ने' इत्यादि, ये अनन्ये- उदाहरणापेक्षया अन्यादृशा न भवन्ति भङ्गाः तान्मुक्त्वा शेषकान् भङ्गकान् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण जानीत, इयमत्र भावना-इह लिङ्गदर्शनयोर्ये चत्वारो भङ्गाः सोदाहरणा वक्ष्यन्ते - तादृशा एवं प्राय उदाहरणापेक्षया किङ्गज्ञानलिङ्ग
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१७२] » “नियुक्ति: [१५०] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५०||
दीप
पिण्डनियु-18 चरणयोरपि भङ्गाः, ततस्तान् मुक्त्वा लिङ्गदर्शनलिङ्गाभिग्रहादिसत्कान् भङ्गानुदाहरिष्यामीति, तत्र लिङ्गदर्शनयोरिय चतुर्भङ्गिका आधाकर्म
मेळयगि-लिङ्गतः साधर्मिका न दर्शनतः, दर्शनतः साधर्मिका न लिङ्गतः, लिङ्गतोऽपि साधर्मिका दर्शनतश्च, न लिङ्गतो नापि दर्शनतः, तत्रायं साधरीयात्तिः मङ्गद्वयमुदाहरति
मिकचतु॥५७॥ लिङ्गेण उ साहम्मी न दंसणे वीसुदसि जइ निण्हा । पत्तेयबुद्ध तित्थंकरा य बीयंमि भगमि ॥ १५॥
व्याख्या-लिङ्गेन साधर्मिका 'न दसणे' इत्पत्र तृतीयार्थे सप्तमी न दर्शनेन, 'विष्यगदर्शना' विभिन्नदर्शना यतयो निह. वाथ, उपलक्षणमेतत् , विभिन्नदर्शना एकादापतिमापतिपन्नाः श्रावकाच, तत्र निहवा मिथ्पादृष्टियान दर्शनतः साधर्मिकाः, अत्र च। कानिहवानां श्रावकाणां चार्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, द्वितीये भने दर्शनतः साधर्मिका न लिङ्गत इत्येवंरूपे प्रत्येकबुद्धास्तीकृत एका
दशमतिमापतिपन्नवर्जाः श्रावकाच समानदर्शना ज्ञेयाः, तेषामर्थाय कृतं कसते, शेष भादयं वपदाहरामः, लिङ्गतः साधर्मिका दर्शनतश्च || बासमानदर्शना साधव एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नाः श्रावकाश, अवापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनां, न लिङ्गतो नापि दशेनतो गाविसहशदर्शनाः प्रत्येकबुद्धतीर्थकरा एकादशमतिमापतिपनवजोंः श्रावकाच, तेषामर्थाय कृतं कल्पते, लिङ्गज्ञानचनुभैङ्गिका क्षेत्र, लिङ्गतः।
साधर्मिका न ज्ञानतः, ज्ञानतः साधर्मिका न लिङ्गतः, लिङ्गतः साधर्मिका ज्ञानतश्च, न लिङ्गतो नापि ज्ञानतः, अस्याश्चतुर्भशिकाया आबाघभङ्गाद्वयोदाहरणानि पायो लिङ्गदर्शनचतुर्भशिकायद्यसहशानीतिकृत्वा नियुक्तिनोदाहरति, ततो चयमेवोदाहरामः-लिङ्गतः साध-18|॥५॥
मिका न ज्ञानतः, विभिन्नज्ञाना यतय एकादशी प्रतिमा पतिपत्राः श्रावका निहवाच, अप्रापि आवकाणां निहवानां चार्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, ज्ञानतः साधर्मिका न लिङ्गतः समानज्ञानास्तीर्थकरपत्येकबुद्धा एकादशमतिमावर्नाः श्रावकाच, तेषामर्थाय कृतं कल्पते, लिङ्गतः
अनुक्रम [१७२]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१७३] » “नियुक्ति: [१५१] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१५१||
साधर्मिका जानतब समानज्ञानाः साधव एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नाः श्रावकाच, अप्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, न । पालितो नापि ज्ञानतो, विभिन्नज्ञानाः प्रत्पेकबुद्धतीर्थंकरा एकादशमतिमापतिपत्रवाः श्रावकाच, एतेषामर्थाय कृतं कल्पते, लिङ्गचरणयो
रियं चतुर्भडिका, लिगतः सार्मिका न चरणतः, चरणतः साधर्मिका न लिङ्गतो, लिङ्गतः साधर्मिकाश्चरणतच, न लिङ्गतो नापि चरणतः । अस्या अपि चतुर्भनिकाया उदाहरणानि प्रायः पूर्वसदृशानीतिकृत्वा नियुक्तिन्नोदाहृतवान् ततोऽइमेवोदाहरामि, लिङ्गतः साधर्मिका न चरणतो विभित्रचारित्रा यतया, एकादशी प्रतिमा प्रतिपनाः श्रावका नियान, अत्र श्रावकाणां निद्वानां चार्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, चरणतः सामिका न लिङ्गता, प्रत्येकबुद्धास्तीकृतच समानचारित्राः, तेपामर्थाय कृतं साधूनां कल्पते, लिङ्गतः साधर्मिकावरणतच समानचारित्रा यतयः, तेषामर्थाय कृतं न कल्पते, न लिङ्गतो नापि चरणतो विसदृशचरणाः प्रत्येकबुद्धतीर्थकरा एकादशप्रतिमावर्जाः श्रावकाच, तेषामर्थाय कृतं करपते ।। लिङ्गाभिग्रहयोश्चतुर्भङ्गिका इयं-लिङ्गतः साधर्मिका नाभिग्रइतः, अभिग्रहतः साधर्मिका न लिङ्कतो, कित: साधर्मिका अभिग्रहतध, न लिङ्गतो नाप्यभिग्रहतः, तत्रार्थ भयमुदाहरति| लिंगेण उ नाभिग्गह अणभिग्गह वीसुऽभिग्गही चेव । जइ साबग बीयभंगे पत्तेयबुहा य तित्थयरा ॥ १५२ ॥
___ व्याख्या-लिङ्गेन साधर्मिका नाभिग्रहतोऽनभिग्रहाः, यद्वा 'विष्वाभिहिणो' विभिन्नाभिग्रहकलिता यतय एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नाः श्रावकाच वेदितव्याः, उपलक्षणमेतन्निवाथ, अआपि निदवानां श्रावकाणां चार्थाय कृतं कल्पते न यतीनाम् १, अभिग्रहतः साप
मिका न लिङ्गात इत्येवंरूपे द्वितीये भने प्रत्येकबुद्धास्तीर्थ कराश्वशब्दादेकादशप्रतिमावजोः श्रावकाच समानाभिग्रहा द्रष्टव्याः, एतेषा-17 समर्थाय कृतं कल्पते २, लिङ्गतः साधर्मिका अभिग्रहतश्च समानाभिग्रहाः साधन एकादशी प्रतिमा प्रतिपत्राः श्रावका निवाश्थ, अत्रापि
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अनुक्रम [१७३]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१७५] » “नियुक्ति: [१५३] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
मिकचतु
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५३|
पिण्डनियु- श्रावकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनां ३, न लिङ्गतो नाप्यभिग्रहतश्च विसदृशाभिग्रहास्तीर्थकरमत्येकबुद्ध कादशप्रतिमावर्जश्रावका आधाकर्मतेमेळयगि- एतेषामर्थाय कृतं कल्पते ॥ लिङ्गभावनयोरियं चतुर्भङ्गिका-लिइन्तः साधर्मिका न भावनातः भावनातः साधर्मिका न लिङ्गतो लिङ्गतःणिसाधरोयात्तिसाधर्मिका भावनातश्च न लिङ्गतो नापि भावनातः, तत्रास्या उदाहरणान्यतिदेशेनाह
भेयः ॥५८॥16
एवं लिङ्गेण भावण । व्याख्या-यथा लिने अभिग्रहेण भने दाहृतमेवं भावनयाऽऽप्युदाहर्त्तव्यं । तच्चैवम्-लिङ्गातः साधर्मिका न भावनातः, भावनारनाहिता विष्वगूभावना वा यतय एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नाः श्रावका निहवाच, अत्र श्रावकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनामयोय १, भावनातः साधर्मिका न लिङ्गतः, प्रत्येकयुद्धास्तीर्थकृत एकादशी प्रतिमां प्रतिपन्नाः श्रावकाच समानभावनाकाः, एतेषामोंय कृतं कल्पते २.१ लिङ्गतः साधर्मिका भावनातच समानभावनाकाः साधव एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नाः श्रावका निहवाच, अत्रापि श्रावकनिहवानामथाय || कृतं कल्पते न यतीनां ३, न लिङ्गतो नापि भावनातो विसदृशभावनाकास्तीर्थकरमत्येकबुद्धैकादशपतिमावर्जबावकाः, एतेषामोय कृतं । कल्पते ॥ तदेवं लिङ्गविषया पञ्च चतुर्भङ्गिका उक्ताः, सम्पति दर्शनस्य नानादिभिः सह वक्तव्याः, तत्र दर्शनज्ञानयोरियं चतुभेनिका-- दर्शनतः सामिका न ज्ञानतः ज्ञानतः साधार्मका न दर्शनतः दर्शनतोऽपि साधर्मिका ज्ञानतश्च न दर्शनतो नापि ज्ञानतः, तत्राचं ॥५८॥ भङ्गादयमुदाहरति
दसणनाणे य पढम भंगो उ । जइ साबग बीसुनाणी एवं चिय बिइयभंगोऽवि ॥ १५३ ॥
दीप
अनुक्रम [१७५]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [१७५] » “नियुक्ति: [१५३] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५३||
दीप
व्याख्या-'दर्शनज्ञाने' दर्शनज्ञानविषयायां 'चा' समुच्चये, प्रथमो भगो दर्शनतः साधर्मिका न ज्ञानत इत्येवरूपः 'विष्यम्ज्ञानिनः' विभिन्मज्ञानाः समानदर्शना यतयः श्रावकाच वेदितव्याः, तत्र श्रावकाणामर्याय कृतं कल्पते न यतीनामर्थाय कृतम् । एवमेव ज्ञानतः साधर्मिका न दर्शनत इत्येवंरूपो द्वितीयो भङ्गोऽपि ज्ञातव्यः, तत्रापि यतयः श्रावकाच वेदितव्या इत्यर्थः, केवलं विभिन्नदर्शनाः समानज्ञानाः, अत्रापि कल्प्याकल्प्यविधिः प्रागिव, ज्ञानतः साघमिका दर्शनतच समानज्ञानाः समानदर्शना यतयः श्रावकाच, अत्रापि कल्प्याकल्प्यविधिः माग्वत , न ज्ञानतो नापि दर्शनतो विसदृशज्ञानदर्शनाः साधवः श्रावका निहवाश्च, अत्र श्रावकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न साधनां ।। दर्शनचरणयोचतुर्भशिका त्वियं-दर्शनतः साघमिका न चरणतः चरणतः साधर्मिका न दर्शनतः दर्शनतोऽपि साधर्मिकाश्चरणतश्च न दर्शनतो नापि चरणतः, तत्राय भङ्गद्वयमुदाहरतिदसणचरणे पढमो सावग जइणो य बीयभंगो उ । जइणो विसरिसदंसी दंसे य अभिग्गहे वोच्छं । १५४ ॥
व्याख्या-'दर्शनचरणे' दर्शनचरणचतुर्भङ्गिकायां प्रथमो भङ्गो दर्शनतः सामिका न चरणत इत्येवंरूपः समानदर्शनाः श्रावका : विसदृशधरणा यतयच, अत्र श्रावकाणामर्याय कृतं कल्पवे न यतीनामोंय कृतं १, द्वितीयो भङ्गः पुनश्चरणतः सामिका न दर्श-13 नत इत्येवंरूपो विसदृशदर्शनाः समानचारित्रा यतयः, एतेपामर्थाय कृतं न कल्पते २, दर्शनतः साधर्मिकाश्चरणतश्च समानदर्शनचरणा यतयः, अप्रापि न कल्पते ३,न दर्शनतो नापि चरणतो निदवा विसदृशदर्शनाः श्रावका विसदृशदर्शनचरणा यतयश्च, तत्र निवश्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न यतीना, दर्शनाभिग्रहयोरियं चतुर्भशिका-दर्शनतः साधर्मिका नाभिग्रहतः, अभिग्रहतः साधमिका न दर्शनतः,
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [१७६] » “नियुक्ति: [१५४] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५४||
पिण्डनियु- दर्शनतः साधर्मिका अभिग्रहतश्च, न दर्शनतो नाप्यभिग्रहतः, तत्राय भङ्गादपमुदानिहीपुरिदमाह-'दंसग' इत्यादि, दर्शनेऽभिग्रहे चायभ- आधाकर्मतेर्मळयगि-1 अद्वयमधिकृत्योदाहरणं वक्ष्ये । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति
णि साथरीयावृत्तिः
कार्मिकचतुसावग जइ वीसऽभिग्गह पढमो बीओ य ॥ ५९॥ व्याख्या-समानदर्शनाः 'विष्वगभिग्रहाः ' विभिन्नाभिग्रहाः श्रावका यतयश्च दर्शनतः साधर्मिका नाभिग्रहत एवंरूपः प्रथमो |
भङ्गः, अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, द्वितीयोऽपि भोऽभिग्रहतः साधर्मिका न दर्शनत इत्येवलक्षणः श्रावकयतिरूप एव, केवलं ते यतयः थावकाश्च विसदृशदर्शनाः समानाभिग्रहा वेदितव्याः, उपलक्षणमेतत, तेन निहवाश्च समानाभिग्रहाः ज्ञातव्याः, अत्र श्रावकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, दर्शनतः साधर्मिका अभिग्रहतश्च समानदर्शनाभिग्रहाः साधुश्रावकाः, अत्रापि । श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधना, न दर्शनतो नाप्यभिग्रहतो विसदृशदर्शनाभिग्रहाः साधुश्रावकनिहवाः, अत्र कल्प्याकल्प्यविधिद्वितीयभङ्गवत् । दर्शनभावनयोरियं चतुर्भङ्गिका-दर्शनतः साधर्मिका न भावनातो, भावनातः साधर्मिका न दर्शनतः, दर्शनतोऽपि साधर्मिका भावनातच, न दर्शनतो नापि भावनातः । अस्या आधभषोदाहरणातिदेशार्थमाह
भावणा चेवं । व्याख्या-न्यथा दर्शनेन अभिग्रह उदाहृत एवं भावनाऽप्युदाहर्तव्या, सा चैव-दर्शनतः साघमिका न भावनातः, विसदृशभावनाकाः समानदर्शनाः श्रावका यतयः, भावनातः साधर्मिका न दर्शनतो विसरश दर्शनप्तपानभावनाकाः साधवः आवका निवाश्च, दर्श
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asurary.com
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आगम
(४१/२)
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गाथांक
नि/भा/प्र
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अनुक्रम [१७७]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
• →
+ भाष्यं [ २२...]
+ प्रक्षेपं " ०
मूलं [ १७७] “निर्युक्ति: [ १५५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
नतः साधर्मिका भावनातच समानदर्शनभावनाका साधुभावकाः, न दर्शनतो नापि भावनातो विसदृशदर्शन भावनाकाः साधुश्रावकनिहवाः, अत्र चतुर्ष्वपि भङ्गेषु कल्य्याकल्पविधिः प्रागिव । तदेवं दर्शनविषया अपि चतस्रचतुर्भङ्गिका उक्ताः, सम्पति ज्ञानस्य चारित्रादिभिः सह वक्तव्याः, ताथातिदेशेनाह
नाणेणऽवि नेज्जेव
व्याख्या—यथा दर्शनेन सह चतस्रचतुर्भङ्गिका उक्ताः एवं ज्ञानेनापि सह चारित्रादीनि पदान्यधिकृत्य तिस्रवतुर्भङ्गिका भावनीयाः । अतीवेदं सङ्क्षिप्तमुक्तमतः स्पष्टं वित्रियते- ज्ञानचरणयोरियं चतुर्भङ्गिका, ज्ञानतः साधर्मिका न चरणतः, चरणतः साधर्मिका न ज्ञानतः, ज्ञानतोऽपि साधर्मिकाधरणतथ, न ज्ञानतोऽपि नापि चरणनः । तत्र ज्ञानतः साधर्मिका न चरणतः समानज्ञानाः श्रावका विसदृशचरणसमानज्ञाना यतयथ, अत्र श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनां १, चरणतः साधर्मिका न ज्ञानतो विसदृशज्ञानाः समानचरणा यतयः, अत्र न कल्पते २, ज्ञानतः साधर्मिकाधरणतश्च समानज्ञानचरणा यतयः, अत्रापि न कल्पते ३, न ज्ञानतो नापि चरणतो विसदृशज्ञानचरणा यतयो विज्ञानाः श्रraat farare, अत्र श्रावकनिवानामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनां ४, ज्ञानाभिग्रहयोरियं ॐ चतुर्भङ्गिका-ज्ञानतः साधर्मिका नाभिहतः, अभिहतः साधर्मिका न ज्ञानतः, ज्ञानतोऽपि साधर्मिका अभिग्रहतच, न ज्ञानतो नाप्यभिग्र६ हतः । तत्र ज्ञानतः साधर्मिका नाभिग्रहतः सपानज्ञाना विसाभिग्रहाः साधुभावकाः अत्र श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनाम् १, अभिग्रहतः साधर्मिका न ज्ञानतो विसदृशज्ञानाः समानाभिग्रहाः साधुभावकाः समानाभिग्रहा निवाथ, अत्रापि श्रावकनिवानामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनां २, ज्ञानतः साधर्मिका अभिग्रह समानज्ञानाभिग्रहाः साश्रावकाः, अत्र कल्प्याकल्प्यविधिः प्रथमभङ्ग इव ३,
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१७७] » “नियुक्ति: [१५५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५५||
भेद्यः
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पिण्डनियु-न ज्ञानतो नाप्यभिग्रहतो विसदृशज्ञानाभिग्रहाः साधुश्रावका विसदशाभिग्रहा निवाश्च, अत्र द्वितीयभङ्गे इव कल्प्याकल्प्यभावना ४ा आधाकर्मतेमेळयगि-ज्ञानभावनयोरियं चतुर्भडिका-ज्ञानतः साधमिका न भावनातः, भावनातः माधर्मिका न ज्ञानतः, ज्ञानतोऽपि साधर्मिका भावनातचणि साधरायाटत्ति न झानतो नापि भावनातः । तत्र ज्ञानतः साधर्मिका न भावनातः समानज्ञाना विसदृशभावनाकाः साधुश्रावकाः १, भावनात: साध- मकचतु:
मिका न ज्ञानतो विसदृशज्ञानाः समानभावनाकाः साधुश्रावकाः समानभावना निवाश्च २, ज्ञानतः साधर्मिका भावनातश्च समानज्ञानभावनाकाः साधुश्रावकाः ३, न ज्ञानतो नापि भावनातो विसदृशभावनाः साधुश्रावका विसहशभावना निहवाश्च ४, अत्र चतुष्यपि। भङ्गकेषु कल्प्याकम्प्यभावना मागिव । तदेवं ज्ञानविषया अपि तिस्रश्चतुर्भनिका उक्ताः, सम्मति चरणेन सह यचनु निकाद्वयं || तदुदाहमाह
एत्तो चरणेण वोच्छामि ॥ १५५ ॥ व्याख्या-इत ऊर्दै चरणेन सह ये द्वे चतुति के तदुदाहरणानि वक्ष्ये तत्र चरणाभिग्रहयोरियं चतुर्भशिका-चरणत: सामिका || नाभिग्रहतः, अभिग्रहतः साधर्मिका न चरणतः, चरणतोऽपि साधर्मिका अभिग्रहतश्च, न चरणतो नाप्यभिग्रहतः । तत्राचं भङ्गाद्वयमुदाजिहीर्घराहजइणो वीसाभिग्गह पढ़मो बिय निण्हसावगजइणो उ (ईणो)।
६०॥ व्याख्या-चरणतः सामिका नाभिग्रहत इत्येवंरूपः प्रथमो भङ्गः, समानचरणा 'विष्वगभिग्रहा: 'विभिन्नाभिग्रहा यतयः, अत्र न कल्पते, अभिग्रहतः साधर्मिका न चरणतः इत्येवंरूपो द्वितीयो भङ्गः समानाभिग्रहा निहवाः श्रावका विभिन्नचरणा यतयश्च, अत्र
अनुक्रम [१७७]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [१७८] » “नियुक्ति: [१५६] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५६||
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श्रावकाणां निहवानां पार्थाय कृतं कल्पते न यतीनां २, चरणतः सामिका अभिग्रहतश्च समानचरणाभिग्रदा यतयः, अत्र न कल्पते ३॥ न चरणतो नाप्यभिग्रहतः विसदृशाभिग्रहचरणाः साधवो विसदृशाभिग्रहाः श्रावकानिहवाश्थ, अत्र कल्प्याकल्प्यभावना द्वितीयभङ्ग इव का चरणभावनयोरिय चतुर्भडिका-चरणत: साधर्मिका न भावनात: भावनातः सामिका न चरणतः चरणतः साधमिका भावनातच न चरणतो नापि भावनातः, अस्या उदाहरणान्यतिदेशत आह
एवं तु भावणासुऽवि व्याख्या-यथा चरणेन सहाभिग्रहे उदाहृतम् एवं भावनास्वप्युदाहर्त्तव्यं, तचैव-चरणतः साधमिका न भावनात: समानचरण-18 विभिन्नभावना यतयः १, भावनातः साधर्मिका न चरणतः समानभावना निहवाः श्रावका विभिन्नचरणा यतपक्ष २, चरणतः | साधर्मिका भावनातच समानचरणभावना यतयः३, न चरणतो नापि भावनातो विसदृशचरणभावनाः साधयो विसदृशभावनाः श्रावका निवाश्च ४, अत्र चतुर्ध्वपि भङ्गकेषु कल्प्याकल्प्यविधिः मागिव । तदेवं चरणविषयेऽपि वे चतुर्भनिके उक्ते, सम्पत्यभिग्रहभावनयोचतुर्भशिका वक्तुकाम आह
वोच्छं दोण्हंतिमाणित्तो ॥ १५६ ॥ व्याख्या-इत ऊर्य द्वयोरन्तिमयोः-अभिग्रहभावनालक्षणयोः पदयोचतुर्भङ्गिकामुदाहरणतो वक्ष्ये । तत्र तयोरियं चतुर्भङ्गिकाअभिग्रहतः साधर्मिका न भावनातः, भावनातः साधर्मिका नाभिग्रहतः, भावनातः साधर्मिका अभिग्रहतच, नाभिग्रहतो नापि भावनातः।। तत्राय भङ्गद्रयमुदाजिहीपुराइ
अनुक्रम [१७८]
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(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
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अनुक्रम [१७९]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १७९]
● →
“निर्युक्ति: [ १५७]
+ भाष्यं [ २२...]
+ प्रक्षेपं " ०
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्यु
तेर्मलयगि रीयावृत्तिः
॥ ६१ ॥
जो साना नि
पढमे विइए य हुंति भंगे य ।
व्याख्या - अभिहतः साधर्मिका न भावनात इत्येवंरूपे प्रथमे भने भावनातः साधर्मिका नाभिग्रहत इत्येवंरूपे द्वितीये च भने यतयः श्रावका निवाञ्च भवन्ति, केवलं प्रथमभङ्गे समानाभिग्रहा विससभावना वेदितव्याः द्वितीये भने पुनः समानभावना विसदृशाभिग्रहाः, अभिग्रहतः साधर्मिका भावनातच समानभावनाभिग्रहाः साधुभावकनिहवाः, नाभिग्रहतो नापि भावनातो विसदृशभावनाभिग्रहाः साधु श्रावकनिङ्गवाः । अत्र चतुर्ष्वपि भङ्गेषु श्रावकनिडवानामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनामिति । तदेवमुक्का एकविंशतिरपि चतुर्भङ्गिकाः, सम्मति सामान्यकेवलिनं तीर्थकरं चाधिकृत्य कल्प्या कल्प्यविधि कथयतिकेवलनाणे तित्थंकरस्स नो कप्पड़ कयं तु ॥ १५७ ॥
व्याख्या—' केवलज्ञाने ' केवलज्ञानिनः सामान्यसाधोः उपलक्षणमेतत् तेन तीर्थकरमत्येकबुद्धवर्णानां शेषसाधूनामित्यर्थः, तीर्थकरस्य, तीर्थकरग्रहणमुपलक्षणं तेन प्रत्येकबुद्धस्य चार्याय कृतं यथाक्रमं न कल्पते, तुशब्दस्यानुक्तार्थसमुच्चायकत्वात् कल्पते च, इयमत्र भावना - तीर्थकर प्रत्येकबुद्धवर्जशेपसाधूनामर्थाय कृतं न कल्पते, तीर्थकर प्रत्येकबुद्धानां स्वर्याय कृतं कल्पते, तथाहि— जीर्थकरनिमित्तं सुरैः कृतेऽपि समवसरणे तंत्र साधूनां देशनाश्रवणार्थमुपवेशनादि कयते, एवं भक्तायपि, एवं प्रत्येकबुद्धस्यापि सम्पति यानाश्रित्य पूर्वोक्ता भङ्गाः सम्भवन्ति स्म तान् प्रतिपादयति
पत्तेयबुद्ध निह उवास केवलीवि आसज्ज । खड्याइए य भावे पडुच्च भंगे उ जोएज्जा ॥ १५८ ॥
व्याख्या - प्रत्येकबुद्धान् निवान् 'उपासकान् श्रावकान् 'केवलिन: ' तीर्थकरान् अपिशब्दाच्छेष साधूवाश्रित्य तथा 'क्षायि
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आधाकर्म
णि साधर्मिक मरूपणा
।। ६१ ।।
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(४१/२)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
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दीप
अनुक्रम [१८० ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
मूलं [१८० ]
• →
“निर्युक्तिः [ १५८]
+ भाष्यं [ २२...]
+ प्रक्षेपं " ०
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
कादीन् भावान् क्षायिकक्षायोपशमिकोपशमिकानि दर्शनानि चशब्दाद्विचित्राणि ज्ञानानि चरणानि अभिग्रहान् भावना प्रतीत्य भङ्गान् योजयेत्, ते च तथैव योजिताः । तत्र प्रथमचतुर्भङ्गिकां प्रवचनलिङ्गविषयामधिकृत्य विशेषतः कल्पयाकल्प्यविधिमाहजत्थ उतइओ भंगो तत्थ न कप्पं तु सेसए भयणा । तित्थंकरकेवलिणो जहकप्पं नो य सेसाणं ॥ १५९ ॥
व्याख्या - यत्र साधर्मिके तृतीयो भङ्गः प्रवचनतः साधर्मिका लिङ्गतथेत्येवंरूपस्तत्र न कल्पते, यतः प्रवचनतो लिङ्गतथ साधर्मिकाः प्रत्येक बुद्धतीर्थकर वर्जा यतयः ततस्तेषामर्थाय कृतं न कल्पते, तुशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः, स च श्रावकस्यैकादश प्रतिमां प्रतिपन्नस्य तृतीयभङ्गभाविनोऽप्यर्याय कृतं कल्पते इवि समुचिनोति केचिदाहुः - एकादशीं प्रतिमां प्रतिपन्नः साधुकल्प इति तस्याप्पर्थाय कृतं न कल्पते, तदयुक्तं, मूलटीकायामस्यार्थस्यासम्मतत्वात्, मूळटीकायां हि लिङ्गाभिग्रहचतुर्भङ्गिकाविषये कल्प्या कल्प्यविधिरेवमुक्तः - “ लिङ्गे नो अभिगद्दे जड़ साहू न कप्पड़ मित्थनिहवे कप्पड़ "ति इह लिङ्गयुता गृहस्था एकादशी प्रतिमां प्रतिपन्नाः श्रावका एव लभ्यन्तेः ततस्तेषामर्थाय कृतं कल्प्यमुक्तं, 'सेसए भयण 'ति शेषके भङ्गकत्रये 'भजना' विकल्पना कचित् कथञ्चित्कल्पते कचिन्न, भङ्गवतुष्टयमप्यधिकृत्य सामान्यत उदाहरति-' तित्यंकरे 'त्यादि, यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः तीर्थकर केवलिनोऽर्थाय कृतं कल्पते, इह तीर्थकर उत्पन्न के*वलज्ञान एव मायः सर्वत्रापि भूमण्डले प्रतीतो भवति, प्रतीतस्य च तीर्थकरस्यार्थाय कृतं कल्पते नामतीतस्य ततः केवलिग्रहणं, यदा पुनश्छास्थावस्थायामपि तीर्थकरत्वेन प्रतीतो भवति तदा तस्यामप्यवस्थायां तन्निमित्तं कृतं कल्पते, तीर्थ करग्रहणं च प्रत्येकबुद्धानामुपलक्षणं, तेन तेषामध्यर्थाय कृतं कल्पते, 'नो य सेसाणं 'ति शेषसाधूनामर्याय कृतं न कल्पते, इदं च सामान्यत उक्तं ततोऽपुमेवार्थमुपजीव्य तृतीयवर्जे शेषे भङ्गत्रये भजना स्पष्टमुपदश्यते - प्रवचनतः साधर्मिका न लिङ्गतः एकादशपतिमापतिपशवः शेषावकास्ते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [१८१] » “नियुक्ति: [१५९] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५९||
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पिण्डनियु-पामर्थाय कृतं कल्पते, ये तु चौरादिमुपितरजोहरणादिलिङ्गाः साधवस्तेषामर्थाय कृतं न कल्पते, द्रव्यलिङ्गापेक्षया साधर्मिकत्वाभावेऽपि आधाकर्मतर्मलयगि- भावतश्चरणसाधर्मिकत्वात् , लिङ्गतः साधर्मिका न प्रवचनतो निहवाः ते यदि लोके निवत्वेन ख्यातास्ततस्तेषामर्थाय कृतं कल्पते, णि कित रीयावृत्तिः अन्यथा न, न प्रवचनतो न लिङ्गतः तीर्थकरप्रत्येकबुद्धास्तेषामर्थाय कृतं कल्पते, तदेवं प्रथमचतुर्भशिकामधिकृत्य कल्प्याकल्प्यविधिरुक्तः ।
दितिद्वार एतदनुसारेण च शेषास्वपि चतुर्भङ्गिकामु विज्ञेया, सच प्रागेव प्रत्येकं दर्शितः । सर्वत्राप्ययं तात्पर्यार्थीऽवधारणीयः-यदि तीर्थकराः प्रत्येकबुद्धा निवाः श्रावका वा तर्हि तेषामर्थाय कृतं कल्पते साधूनामर्थाय कृतं न कल्पते । तदेवमुक्तः करप्याकल्प्यविधिः, तदुक्तौ च आहाकम्मियनामे 'त्यादिमूलद्वारगाथायां 'कस्स बाबी 'ति व्याख्यातं, सम्मति 'किं वावी 'ति व्याचिख्यासुराहकिंतं आहाकम्मति पुच्छिए तरसरूवकहणत्थं । संभवपदरिसणत्थं च तरस असणाइयं भणइ ।। १६०॥
व्याख्या-किं तदाधाकर्म इति शिष्येण पृष्टे 'तत्स्वरूपकथनार्थम् ' आधाकर्मस्वरूपकथनार्थ तस्य ' आधाकर्मणः सम्भवप्रदर्शनार्थं च 'अशनादिकम् ' अशनपानखादिमस्वादिमं गुरुर्भणति, इयमत्र भावना-अशनादिस्वरूपमाधाकर्म-अशनादावेच चाधाकर्मणः सम्भवः, ततो गुरुः किमाधाकम् इति पृष्टः सनशनादिकमेव षक्ति, तथा च शय्यम्भवमूरिराधाकर्म दर्शयन् पिण्टेपणाध्ययने|ऽशनादिकमभिधत्ते, तद्यथा-" असणं पाणगं चेव, खाइमं साइमं तहा । जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, समणवा पगडं इमं ॥१॥ तं भवे भत्तपार्ण तु, संजयाण अकप्पियं । दंतियं पडियाइकरखे, न मे कम्पइ तारिसं ॥२॥" इति । सम्पत्यशनादिकमेव व्याचष्टे
१ अशनं पानकमेव खाद्यं वाद्यं तथा । यजानीयाच्छृणुयादा श्रमणार्थ प्रकृतमिदम् ॥ १॥
तद्भवेदकपानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ॥ २ ॥
अनुक्रम [१८१]
॥६२॥
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(४१/२)
प्रत गाथांक नि/भा/प्र
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अनुक्रम [१८३]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१८३ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
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“निर्युक्ति: [ १६१]
+ भाष्यं [ २२...]
+ प्रक्षेपं " ०
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सालीमाइ अबडे फलाइ सुंठाइ साइमं होइ ।
व्याख्या - शाल्यादिकमशनम्, अवट इति वापिकूपतडागाद्युपलक्षणं, ततः कूप वापीतडागादौ यज्जलं तत्पानं, तथा 'फलादि ' फलं- नालिकेरादि, आदिशब्दाचिञ्चिणिकापुष्पादिपरिग्रहस्तत् खादिमं शुष्ठ्यादिकं स्वादिमं तत्र शुण्ठी प्रतीता, आदिशब्दाद हरीतक्यादिपरिग्रहः । तदेवं व्याख्यातान्यशनादीनि सम्मत्येतेष्वेवाधाकरूपेषु प्रत्येकं भङ्गचतुष्टयमाह-
तरस कडनिट्ठियमी सुद्धमसुद्धे य चचारि ॥ १६१ ॥
व्याख्या— तस्येति प्रस्तावात् साधोरर्थाय ' कृतमित्यत्र बुद्धावादिकर्मविवक्षायां कप्रत्ययः, ततोऽयमर्थः कर्तुं प्रारब्धं, तथा तस्य साधोरर्थाय 'निष्ठितं ' सर्वथा प्रासुकीकृतमिति, अत्र विषये 'चत्वारि' इति चत्वारो भगा भवन्ति, तत्र प्रथम एष एव भङ्गः तस्य कृतं तस्य निष्ठितं द्वितीयस्तस्य कृतमन्यस्य निष्ठितं तृतीयोऽन्यस्य कृतं तस्य निष्ठितं चतुर्थोऽन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितं । तत्र प्रथमो व्याख्यातो द्वितीयादीनां तु भङ्गानामयमर्थः- पूर्व तावत्तस्य साधारर्थाय कर्तुमारब्धं ततो दातुः साधुविषयदानपरिणामाभावतोऽभ्यस्य- आत्मनः स्वपुत्रादेर्वाऽर्थाय निष्ठां नीतं, तथा प्रथमतोऽन्यस्य पुत्रादेरात्मनो वाऽर्थाय कर्तुमारब्धं ततः साधुविषयदानपरिणामभावतः साधोरर्याय निष्ठां नीतं, तथा प्रथमत एवान्यस्य निमित्तं कर्तुमारब्धमन्यस्यैव च निमित्तं निष्ठां नीतम्, एक्मराने पाने खादिमे स्वादिमे च प्रत्येकं चत्वारचत्वारो भङ्गा भवन्ति, तत्र 'सुद्धममुद्धे यति आर्यत्वात् शुद्धावशुद्ध चेति द्रष्टव्यं तत्र शुद्ध-साधोरा सेवनायोग्यौ, तौ च द्वितीयचतु भगौ, तथाहि क्रियाया निष्ठा प्रधाना, ततो यद्यपि प्रथमतः साधुनिमित्तं क्रिया प्रारब्धा तथापि निष्टामन्यनिमित्तं नीतेति द्वितीयो भङ्गः साधोः कल्पते, चतुर्थस्तु भङ्गः शुद्ध एव, न तत्र विवादः, अशुद्ध - अकल्पनीयों, तौ च प्रथमतृतीयौ, तत्र प्रथम एकान्तेनाशुद्ध एव साध्वर्थ
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१८३] » “नियुक्ति: [१६१] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियु- तमेलयगि-
आधाकर्मणि संभवस्तस्य
रीयावृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१६१||
दीप अनुक्रम [१८३]
भारब्धत्वानिष्ठितत्वाच, तृतीये तु भने ययपि पूर्व न साधुनिमिर्च पाकादिक्रियाऽऽरम्भस्तथापि सा साधुनिमित्वं निष्ठां नीता, निष्ठा च पघानेति न कल्पते । तदेवमाधाकर्मस्वरूपमुक्त, साम्प्रतमशनादिरूपस्याधाकम्मेणः सम्भवं प्रतिपिपादपिपुः कथानकं रूपकपटू केनाद
कोदवरालगगामे बसही रमणिज भिक्खसज्झाए । खेचपडिलेहसंजय सावयपुच्छुज्जुए कहणा ॥ १६२॥ जुज्जइ गणरस खेत्तं नवरि गुरूणं तु नस्थि पाउग्गं । सालित्ति कए रुंपण परिभायग निययगेहेसु ॥ १६३ ॥ बोलिता ते व अन्ने वा, अडंता तत्थ गोयरं । सुणंति एसणाजत्ता, बालादिजणसंकहा ॥ १६४ ॥ एए ते जेसिमो रहो, सालिकूरो घरे घरे । दिन्नो बा से सयं देमि, देहि वा विति वा इमं ॥ १६५ ॥ थके थकावडियं, अभत्तए सालिभत्त्यं जायं । मज्झ य पइस्स मरणं, दियरस्स य से मया भज्जा ॥ १६६ ॥ चाउलोदगंपि से देहि, सालीआयामकंजियं । किमेयंति कयं नाउं, वजंतऽन्नं वयंति वा ॥ १६७ ॥
व्याख्या-इह सङ्कलो नाम ग्रामः, तत्र जिनदत्तनामा श्रावकः, तस्य भार्या जिनमतिः तत्र च ग्रामे कोया राल काश्च प्राचुर्ये णोत्पयन्ते इति तेषामेव कूरं गृहे २ भिक्षार्थपटन्तः साधो लभन्ते, वसतिरपि त्रीपशुपण्ड कविवर्जिता सपभूतलादिगुणैरतिरमणीया कल्पनीया च पाप्यते,स्वाध्यायोऽपि तत्र यसतामविघ्नमभिवर्द्धते, केवलं शासोदनो न प्राप्यते इति न केचनापि सूरयो भरेण तत्रावतिष्ठन्ते । अन्पदा च सङ्कलग्रामप्रत्यासन्ने भद्रिलाभिधाने ग्रामे केचित्सूरयः समाजम्मः, तैश्च सङ्कलपामे क्षेत्रमत्युपेक्षगाय साधवः मेष्यन्ते, साधवोऽपि तत्रागत्य यथागर्म जिनदत्तस्य पाचे वसतिमयाचिषत, जिनदतेनापि च साधुदर्शनसमुच्छलिनरमोदभरस मुद्भिनरोमाञ्चकञ्चु
॥६३॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१८९] » “नियुक्ति: [१६७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१६७||
कितगात्रेण तेभ्यो वसतिः कल्पनीया उपादेशि, सायवश्व तत्र स्थिताः, ययाग भिशापवेशनेन वहिर्भूमौ स्थण्डि निरीक्षणेन च सकलमपि ग्रामं प्रत्युपेक्षितवन्तः, जिनदत्तोऽपि च श्रावको वसतावागत्य यथाविधि साधून वन्दित्वा महत्तरं साधुमपृच्छत्-भगवन् ! रुचितमिदं युष्मभ्यं क्षेत्रं ?, सूरयोऽत्र निजसमागमेनास्माकं प्रसादमावास्यन्ति ?, ततः स उपेठः साधुरवादीत-वमानयोगेन, ततो ज्ञातं जिनदत्तेन-यथा न रुचितमिदमेतेभ्यः क्षेत्रमिति, चिन्तपति च-अपेऽपि साधयोऽत्र समागच्छन्ति परं न केचिदवतिछुन्ते, तन जानामि | किमत्र कारणमिति, ततः कारणपरिज्ञानाय तेषां साधूनामन्यतमं कमपि साधुमनुं ज्ञात्वा पप्रच्छ, स च यथावस्थितमुक्तवान्, यथाऽत्र | सर्वेऽपि गुणा विद्यन्ते, गच्छस्यापि च योग्यमिदं क्षेत्र, केवलपराचार्यस्य प्रायोपः शाल्पोदनो न लभ्यते इति नावस्थीयते । तत एवं कारणं परिज्ञाय तेन जिनदत्तश्रावकेणापरस्मादामात शालीवीजमानीप नियामक्षेत्रभूपिषु बांपिनं, ततः सम्मनो भूवान शालिः, अम्पदा | च यथाविहारक्रमं ते वाऽन्ये वा साधवः समायासिपुः, श्रावकश्च चिन्तयामास-यथैतेभ्यो मपा शाल्पोदनो दातव्यो येन सूरीणामिदं योग्य क्षेत्रमिति परिभाष्य साधयोऽमी सूरीनानयन्ति, तत्र यदि निजगृह एवं दास्यामि ततोऽन्तु गृहेषु कोद्रारालकर लभमानानामेतेपामा-18 धाकर्मशङ्कोत्पत्स्यते तस्मात्सर्वेष्वपि स्वजनदरेषु शालिं प्रेषयामीति,तथैव च कृतं,सजनांचोक्तवान् यथा सपपपर्नु शालि पक्त्वा भुञ्जतका साधुभ्योऽपि च ददत, एष च वृत्तान्तः सर्वोऽपि बालादिभिरवजन्मे, साधवश्च भिक्षार्थमटन्तो यथाऽऽगममेवणासमितिसमिता बालादीना
मुक्तानि शृण्यन्ति, तत्र कोऽपि बालको बक्ति-एते ते साचो येषामर्थाय गृहे शाल्पोदनो निरपादि, अन्यो भाषते-साधुसम्बन्धी शाल्यो-|| दिनो मह्यं जनन्या ददे, दात्री वा कचिदेवं भाषते-दत्तः परकीयः शाल्योदनः सम्बत्यात्मीयं किमपि ददामि, गृहनायकोऽपि कापि ब्रूते
दत्तः शाल्योदनः परकीयः सम्मत्यात्मीयं किमपि देहि, बालकोऽपि कापि कोऽपनभित्रो जननीं बो-म सावुसम्बन्धित
दीप
अनुक्रम [१८९]
SARERainintamanna
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१८९] » “नियुक्ति: [१६७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१६७||
पिण्डानयु- शाल्योदनं देहीति, अन्यस्त्वीषदरिद्रः सहर्ष भाषते-अहो ! थके थक्कावडियमस्माकं सम्पन्नं, इह यद् अबसरेऽवसरानुरूपमाप- आधाकर्मते कयगि- तति तत् थकेयकावडियमित्युच्यते, ततः स एवमाह-येनाभक्ते भक्ताभावेऽस्माकं शालिभक्तमुदपादि । अत्रैवार्थे स लौकिक । णि अशनरीयात्तिः बादृष्टान्तमुदाहरति, सूरग्रामे यशोधराभिधाना काचिदाभीरी तस्या योगराजो नाम भर्ता, बत्सराजो नाम देवरः, तस्य भायोग
संभवाः ॥६४॥
बायोधनी, अन्यदाच मरणपर्यवसानो जीवकोको मरणं चानियतहेतुकमनियतकालमिति योधनीयोगराजौ समकालं मरणमुपागतो, ततो
यशोधरा देवरं वत्सराजमयाचत-तब भार्याऽहं भवामीति, देवरोऽपि च ममापि भार्या न विद्यते इति विचिन्त्य प्रतिपन्नवान् , ततः सा चिन्तयामास-अहो! अवसरेऽवसरापतितमस्माकमजायत, यस्मिन्नेवावसरे मम पतिः पश्चत्वमुपागमत् तस्मिन्नेवावसरे मम देवरस्यापि भार्या मृत्युमगच्छत् , ततोऽहं देवरेण भार्यात्वेन प्रतिपन्ना, अन्यथा न प्रतिपद्येत । तथा कापि चालको जननीमाचष्टेमातः ! शालितण्डुलोदकमपि साधुभ्यो देहि, अन्यस्त्वाह-शालिकाजिक, तत एचमादीनि बालादिजनजल्पितानि श्रुत्वा किमेतदिति पृच्छन्ति, पृष्टे च सति ये ऋजवस्ते यथावत्कयितवन्तो यथा युष्माकमायेदं कृतमिति, ये तु मायाविनः श्रावकेण वा तथा प्रज्ञापितास्ते न कथयन्ति, केवलं परस्परं निरीक्षन्ते, तत एवं नूनमिदमाधाकर्मेति परिज्ञाय तानि सर्वोण्यपि गृहाणि परिहत्यान्येषु भिक्षार्थमटन्ति स्म. ये च तत्र न निर्वदन्ति स्म ते तत्रानिर्वहन्तः प्रत्यासन्ने ग्रामे भिक्षार्थमगच्छन्, एवमन्यत्राच्याधाकम्मे सम्भवति, तच वालादिजल्पितविशेषैरवगत्य कथानकोक्तसाधुभिरिव नियमतो निष्कल(संयममिच्छुना परिहर्तव्यं, सूर्य तु सकलमपि सुगम, नवरं 'रुंपण 'ति रोपणं । 'परिभायणत्ति गृहे परिभाजनं 'से' इति एतेभ्यः 'अचंति अन्य ग्रामम् । तदेवमुक्तोऽशनस्याधाकर्मणः सम्भवः, सम्पति पानस्याह
लोणागडोदए एवं, खाणित्तु महुरोदगं । ढक्किएणऽच्छते ताब, जाव साहुत्ति आगया ॥ १६८ ॥ .
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१९०] » “नियुक्ति: [१६८] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१६८||
दीप
व्याख्या-यथाऽशनस्याधाकम्मणः कथानकसूचनेन सम्भव उक्तस्तथा पानस्याप्याधाकर्मणो वेदितव्यः, कथानकमपि तथैव, केवलमयं विशेष:-कचिद्धामे सर्वेऽपि कूपाः क्षारोदका आसीरन् , क्षारोदका नामामलकोदका विशेयाः, न त्वत्यन्तक्षारजलाः, तथा सति ग्रामस्याप्यवस्थानानुपपत्तेः, ततस्तस्मिन् लवणावटे क्षेत्रे क्षेत्रप्रत्युपेक्षणाय साधवः समागच्छन् , परिभाषयन्ति स्म च यथाऽऽगम सकलमपि । क्षेत्र, ततस्तन्त्रिवासिना श्रावकेण सादरम्परुध्यमाना अपि साधवो नावतिष्ठन्ते, ततस्तन्मध्यवर्ती कोऽपि ऋजुकोऽनवस्थानकारणं पृष्टः, स च यथावस्थित तस्मै कथयामास-यथा विद्यन्ते सर्वेऽप्यत्र गुणाः, केवलं क्षारं जलमिति नावतिष्ठन्ते, ततो गतेषु तेषु साधुपु स मधुरोदक
कूपं खानितवान् , तं खानयित्वा लोकमचिजनितपापभयाद् फलकादिना स्थगितमुखं कृत्वा तावदास्ते यावत्ते वाज्ये वा साधवः समाकाययुः, समागतेषु च साधुपु मा मम गृहे केवले आधाकम्भिकशङ्का भूदिति प्रतिगृहं तन्मधुरमुदकै भाजितवान् , ततः पूर्वोक्तकधानकप्रकारेण|
साधवो वालादीनामुल्लापानाकाधाकम्मति च परिझाय तं ग्राम परिहतवन्तः, एवमन्यत्राप्याधाकर्मपानीयसम्भवो द्रष्टव्यः तेऽपि च । बालाघुल्लापविशेषैः परिकलय्य कथानकोक्तसाधव इव परिहरेयुरिति । सूत्रं सुगमम् । सम्पति खादिमस्खादिमयोराधाकर्मणोः सम्भवमाइकक्कड़िय अंबगा वा दाडिम दक्खा य बीयपूराई । खाइमऽहिगरणकरणंति साइमं तिगडुगाईयं ॥ १६९ ॥
व्याख्या-कर्कटिका' चिर्भटिका 'आम्रकाणि' चूतफलानि, दाडिमानि द्राक्षाश्च मतीताः, बीजपूरकादिकम्, आदिवाबदाकपित्थादिपरिग्रहः, एतानाश्रित्य खादिमविषये 'अधिकरणकरणं भवेत् ' पापकरणं भवेत् , एतानि साधनां शालनकादिकार्येषु प्रयुज्यन्ते || इति तेषां वपनादि कुर्यादिति भावः । तथा 'त्रिकटुकादिकं ' मुण्ठीपिप्पलीमरिचकादिकमाश्रित्य स्वादिमे अधिकरणकरणं भवेत, साधू
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१९१] » “नियुक्ति: [१६९] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१६९||
पिण्डनियु- नामौषधाद्यर्थममूनि कल्पन्ते इति तेषां रोपणादि कुर्यादिति भावः । सम्मति यदुक्तं प्राक् तस्स कडनिहियम्मी ' त्यादि, तत्र कृतनि- आधाकर्मकेर्मलपगि-ष्ठितशब्दयोरर्थमाह
|णि अशनरीयावृत्तिः
स्य संभवः । असणाईण चउण्हवि आम जं साहुगहणपाउग्गं । तं निट्ठियं बियाणसु उवक्खडं तू कडं होइ ।। १७० ॥
___ व्याख्या-अशनादीनां चतुर्णामपि मध्ये यत् 'आमम्' अपरिणतं सत् साधुग्रहणमायोम्यं कृतं, प्रासुकीकृतमित्यर्थः, तं निष्ठितं ? विजानीत, उपस्कृतं तु अत्रापि बुद्धावादिकम्र्मविवक्षायां क्तप्रत्ययः ततोऽयमय:-उपस्कतुमारब्धमिति भावः कृतं भवति ज्ञातव्यम् ।। एतदेव विशेषतो भावयति
कंडिय तिगुणुकंडा उ निहिया नेगदुगुणउक्कंडा । निट्ठियकडो उ कूरो आहाकम्मं दुगुणमाहु ॥ १७१ ॥ व्याख्या-इह ये तण्डुलाः प्रथमतः साध्वर्थमुप्ताः ततः क्रमेण करटयो जातास्ततः कण्डिताः, कथंभूताः कण्डिताः ? इत्याहत्रिगुणोत्कण्डाः' त्रिगुण-त्रीन् पारान् यावत् उत्-भावल्पेन कण्डनं-छटनं येषां ते त्रिगुणोत्कण्डा, बीन् वारान् कण्डिता इत्पथे, ते | निष्ठिता उध्यन्ते, ये पुनर्वपनादारभ्य यावदेकगुणोत्कण्डा दिगुणोत्कण्डा वा कृता वर्तन्ते ते कृताः, अथवा मा भूवन साध्वमुताः केवलं ये कस्टयः सन्त: साध्वर्थं त्रिगुणोत्कण्डकण्डितास्ते निष्ठिता उपन्ते, ये लेकगुणोत्कण्डं द्विगुणोत्कडं वा कण्डितास्ते कृताः, अत्र वृद्धसम्मदायः-इह यद्येकं वारं द्वौ वा वारौ साध्वर्थ कण्डितास्तृतीयं तु वारमात्मनिमित्त कण्डिता राद्धाश्च ते साधूनां करपन्ते, यदि पुनरेक | द्वौ वा वारौ साध्व) कण्डितास्तृतीयं वारं स्वनिमित्तमेव कण्डिता रादास्तु आत्मनिमित्तं ते केपाश्चिदादेशेनैकेनान्यस्मै दत्तास्तेनाप्यन्य
दीप
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१९३] » “नियुक्ति: [१७१] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१७१||
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स्मायित्येवं यावत्सहस्रसङ्खये स्थाने गताः, ततः परं गताः कश्पन्ते नार्वाक, अपरेषा त्वादेशेन न कदाचिदपि, यदि पुनरेकं द्वौ वा बारौ || हासाधनिमित्तमात्मनिमितं वा कण्डितास्तृतीयं तु वारमात्मनिमित्तं राधाः पुनः साध्वर्य ते न कल्पन्ते, यदि पनर द्वौ वा वारौ साधु
निमित्तमात्मनिमित्तं वा कण्डितास्तृतीयं तु वारं साध्वमेव, तैरेव च तण्डलैः साधुनिमित्तं निष्पादितः कूरः स निष्ठितकृत उच्यते, निप्रितराधाकर्मतंडुलैः कृतो-निष्पादितो राद्ध इत्यर्थः निष्ठितकृतः, स साधूनां सर्वथा न कल्पते, कुतः ? इत्याह-'आहाकम्म ।
इत्यादि, आधाकर्म प्रतीतं द्विगुणमाहुस्तीथेकरादयस्तं निष्ठितकृतं कूरं, तत्रैकमाधाकम्मेनिष्ठिततण्डलरूप द्वितीयं तु पाकक्रियारूपं, तदेबचमुक्तो निष्ठितकृतशब्दयोरर्थः, सम्पति चतुष्प्यशनादिषु कृतनिष्ठितता भाव्यते-तत्र चपनादारभ्य याबद्वारद्वयं कण्डनं तावत्कृतत्वं,
तृतीयवारं तु कण्डनं निष्ठितत्वम्, एतचानन्तरमेवोक्तं पाने कूपादिकं साधुनिमित्तं स्खनितं, ततो जलमाष्ट, ततो यावत प्रामुकीक्रियमाणं नाद्यापि सर्वथा प्रामुकीभवति तावत्कृतं, मासुकीभूतं च निष्ठितं, खादिमे कर्कटिकादयः साधुनिमित्तमुप्ताः क्रमेण निष्पन्ना यावद्दात्रादिना खण्डिताः, तानि च खण्डानि यावनाद्यापि मासुकीभवन्ति तावत्कृतत्वमक्सेयं, प्रामुकीभूतानि च तानि निष्ठितानि । एवं स्वादिमेऽपि विज्ञेयं । सर्वत्रापि च द्वितीयचतुर्थभङ्गो शुद्धौ, प्रथमवृतीयौ त्वशुद्धाविति । सम्मति खादिमस्वादिममाश्रित्य मतान्तरं प्रतिनिक्षिप्राहA छायपि विवज्जती केई फलहेडगाइयुत्तस्स । तं तु न जुज्जइ जम्हा फलंपि कप्पं बिइयभंगे ॥ १७२ ।।
व्याख्या-इह 'फलहेतुकादेः' फलहेतोः पुष्पहेतोरन्यस्माद्वा हेतोः साध्वर्थमुप्तस्य वृक्षस्य 'केचिद् ' गीतार्थाश्छायामप्याधाककामिकक्षसम्बन्धिनीतिकृत्वा 'विवर्जयन्ति' परिहरन्ति, तत्तु छायाविवर्जन न युज्यते, यस्मात्फलमपि यदर्थं स वृक्ष आरोपितस्तत
आधाकम्भिकटासम्बन्धिद्वितीये भत्रे तस्य कृतमन्पार्थ निष्ठितमित्येवंलो वर्तमान सा कसते, किनकं भवति ?-साध्वपारोपितेऽपि
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अनुक्रम [१९३]
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||१७२||
दीप
अनुक्रम
[१९४]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१९४ ] ● → “निर्युक्तिः [ १७२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
+ भाष्यं [ २२...]
+ प्रक्षेपं " ०
पिण्डनकैर्मलयगिरीयावृत्तिः
॥ ६६ ॥
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कल्यादी वृक्षे यदा फलं निष्पद्यमानं साधुसत्ताया अपनीयात्मसत्तासम्बन्धि करोति श्रोटयति च तदा तदपि कल्पते, किं पुनश्छाया ?, सा हि सर्वथा न साधुसत्तासम्बन्धिनी विवक्षिता, न हि साधुच्छायानिमित्तं स वृक्ष आरोपितस्तत्कथं न कल्पते ? ।।
परपच्चइया छाया न विसा रुक्खोव्व वट्टिया कत्ता । नटुच्छाए उ दुमे कप्पइ एवं भणंतरस ॥ १७३ ॥
व्याख्या--सा छाया 'परप्रत्ययिका' सूर्यहेतुका, न वृक्षमात्रनिमित्ता, तस्मिन् सत्यपि सूर्याभावे अभावात्, तथाहि छायानाम पार्श्वतः सर्वत्रातपपरिवेष्टितप्रतिनियतदेशवर्त्ती श्यामपुद्गलात्मक आवपाभावः इत्यंभूता च छाया सूर्यस्यैव अन्वयव्यतिरेका, चतुविंधत्वेन द्रुमस्य, द्रुमस्तु केवलं तस्या निमित्तमात्रं, न चैतावता सा दुष्यति, छायापुद्गलानां द्रुमपुद्गलेभ्यो भिन्नत्वात् न च 'वृक्ष इव तरुरिव 'कर्त्रा वृक्षारोपण वृद्धिं नीता, तद्विषयतथारूपसङ्कल्पस्यैवाभावात्, ततो नाधाकस्मिकी छाया । किं चयद्याचाकमिकी छायेति न तस्यामवस्थानं कल्पते तत एवं परस्य भणतो यदा घनपटलैराच्छादितं गगनपण्डलं भवति तदा तस्मिन् दुमे नष्टच्छाये सति तस्याधः शीतभयादिनाऽवस्थानं कल्पते इति प्राप्तं, न चैतद्युक्तं, तस्मात्स एव द्रुम आधाकस्मिकस्तत्संस्पृष्टा श्राधः कतिपयप्रदेशा: पूतिरिति प्रतिपत्तव्यं, न तु च्छायाऽऽधाकर्मिकीति । पुनरपि परेषां दूषणान्तरमाह
वड्इ हायइ छाया तत्थिकं पूइयंपि व न कप्पे । न य आहाय सुविहिए निष्यत्तयई रविच्छायं ॥ १७४ ॥
व्याख्या – इह छाया तथातथासूर्यगतिवशादर्द्धते हीयते च ततो खेरस्तमयसमये प्रातःसमये चातिद्राघीयसी विवर्द्धमाना छाया सकलमपि ग्राममभिव्याप्य वर्तते, अतस्तत्स्पृष्टं सकलमपि ग्रामसम्वन्धि वसत्यादिकं 'पूतिकमित्र' तृतीयोद्मदोषदुष्टमशनादिकमिव न
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आधाकर्मणि अशन
स्य संभवः
॥ ६६ ॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१९७] » “नियुक्ति: [१७५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१७५|
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कल्पते, न चैतदागमोपदिष्ट, तन्नाधाकम्पिकी वृक्षस्य छाया, अपि च-पागेवैतदुक्तं सूर्यमत्यया सा छाया न वृक्षदेतुका, न च सूर्यः। सुविहितानाधाय छायां निवर्तयति ततः कथमाधाकर्मिकी ? । यदि पुनराधाकर्मिकी भवेत, तर्हि- अघणघणचारिंगगणे छाया नट्ठा दिया पुणो होइ । कप्पइ निरायवे नाम आयवे तं विवज्जेउं ॥ १७५॥
व्याख्या--अपना-विरला धना-मेघाः चारिणा-परिभ्रमणशीला यत्र इत्यंभूते गगने, विरलविरलेषु नभसि मेघेषु परिभ्रम-21 त्सु इत्यर्थः, छाया मष्टापि सती दिवा पुनरपि भवति, ततो मेधैरन्तरिते सूर्ये 'निरातपे' आतपाभावे तस्य वृक्षस्याधस्तनं प्रदेश सेवितुं कल्पते, आतपे तु तं वजेयितुं, न चायं विषयविभागः सूत्रेऽपदिश्यते न च पूर्वपुरुषाची! नापि परेषां सम्मतः तस्मादसदेतत्परोक्तमिति । इह पूर्वं वृक्षसम्बन्धित्वेन छायामाधाकर्मिकीमाशङ्कच 'नट्टच्छाए उ दुमे कप्पइ ' इत्याद्युक्तम् , इदानीं तु रविकृतत्वेनाधाकमिकीमाशङ्कच कप्पद निरायवे नाम' इत्याद्युक्तम्, अतो न पुनरुक्तता । सम्पति छायानिर्दोषतानिगमनमगीतार्थधार्मिकाणां परेषां किश्चिदाश्चासनं च विवक्षुराह| तम्हा न एस दोसो संभवई कम्मलक्खणविहूणो । तंपि य हु अइपिणिल्ला वज्जेमाणा अदोसिल्ला ॥ १७६ ॥
व्याख्या-यस्मात्फलमपि द्वितीये भने कल्पते तथा रविहेतुका छाया इत्यादि चोक्तं तस्मादाधाकम्मिकी छायेति यो दोष । उच्यते स एष दोषो न सम्भवति, कुतः ? इत्याह-'कर्मलक्षणविहीन' इति, अत्र हेतौ प्रथमा, कर्मेति च आधाकर्मेति द्रष्टव्यं, ततोऽयमर्थ:-यत आधाकर्मलक्षणविहीन एप दोषः, न हि तरुरिव छायापि की वृद्धि नीता इत्यादि, तस्मात्रैष दोषः सम्भवति अथवा 'तामपि' आधाकम्मिकक्षच्छायां ' दुः" निश्चितम् 'अतिघृणावन्त: ' अतिशयेन दयालवो विवर्जयन्तः परेऽदोषवन्तः । तदे
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१९८] » “नियुक्ति: [१७६] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१७६||
पिण्ड नियु-विमुक्तमानुषङ्गिक, तदुक्तौ च 'आहाकभियनाम' इत्पादिमूलद्वारगाथायां "कि वात्रि ?' इति व्यारूपातं, सम्पति 'परपक्खो य सपक्खो आधाकर्मकेमेलपगि- |||| इति द्वारद्वयं व्याख्यानयन् प्रसङ्गतो निष्ठितकृतयोः स्वरूपं ताभ्यामुत्पन्न भङ्गचतुष्टयं चाह
|णि स्वपररीयात्तिः
पक्षी कृतपरपक्खो उगिहत्था समणो समणीउ होइ उ सपक्खो । फासुकडं रह वा निहियमियरं कडं सव्वं ॥ १७७॥ निष्ठिते ॥६७॥
तस्स कडनिद्वियंमी अन्नस्स कडंमि निट्ठिए तस्स । चउभंगो इत्थ भवे चरमदुगे होइ कप्पं तु ॥ १७८ ॥
व्याख्या-इह परपक्षः 'गृहस्थाः' श्रावकादयः, तेषामर्याय कृतं साधूनामाधाकर्म न भवति, स्वपक्षः श्रमणाः' साधवः । समणीउ 'त्ति श्रमण्यो बतिन्यः, तेषामर्थाय कृतं साधूनामाधाकर्म पेदितव्यं, तथा प्रामुक कृतं करट्यादिकं सचेतनं सत् साध्वर्थं | निश्चेतनीकृतं यच्च स्वयमचेतनमपि तण्डुलादिकं कूरत्वेन निष्पादितं तनिष्ठितमित्युच्यते, इतरत्पुनरेकगुणद्विगुणकण्डिततण्डुलादिकं सर्वं कृत-18 मिति । अत्र च कृतनिष्ठितविषये तस्य साधोराय कृते निष्ठिते च तथा अन्यस्याप्यर्थाय कृते तस्य साधोराय निष्ठिते भक्तादौ चतुर्भ-13 जिका भवति, तब प्रथमतृतीयभङ्गौ साक्षाद्दर्शितो द्वितीयचतुर्थों तु गम्यौ, तौ चैवं-तस्य कृतमन्यस्य निष्ठितमन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितं, तत्रोपात्त्योद्वयोभद्योः चरमो-अनुक्ती पाश्चात्यो द्वौ भङ्गो, द्वितीय) चतुर्थावित्यर्थः, प्रथमस्य हि द्वितीयः पाश्चात्यस्तृतीयस्य तु चतुथें तत उपाचप्रथमतृतीयभङ्गापेक्षया चरमी द्वितीयचतुर्थी लभ्येते, तस्मिंश्चरमदिक भवति कल्प्यमशनादि, एतच्च यद्यपि मागेवोक्तं तथापि
॥६७॥ विस्मरणशीलानां स्मरणाय भूयोऽयुक्तमिति न कश्चिदोषः । उक्तं परपक्षस्वपक्षरूपं द्वारद्वपं, सम्पति 'चउरो' इति व्याचिख्यासुराहA चउरो अइक्कमवइक्कमा य अइयार तह अणायारो । निहरिसणं चउण्हवि आहाकम्मे निमंतणया ॥ १७९ ॥
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२०१] » “नियुक्ति: [१७९] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१७९||
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व्याख्या-आधाकर्मणि विषये केनाप्यभिनवेन श्राद्धेन निमन्त्रणे कृते चत्वारो दोषाः सम्भवन्ति, तपथा--अतिक्रमो व्यति-18 क्रमोऽतीचारोऽनाचारच, एते चत्वारोऽपि स्वयमेव सूत्रकृता व्याख्यास्यन्ते, एतेषां च चतुर्णामपि निदर्शनं दृष्टान्तो भावनीयः तमपि च वक्ष्यति ॥ तत्र प्रथमत आधाकर्मनिमन्त्रणं भावयति
सालीघयगुलगोरस नवेसु वल्लीफलेस जाएK । दाणे अहिगमसड्ढे आहायकए निमंतेइ ॥ १८ ॥
व्याख्या-'शालिषु' शाल्योदनेषु तथा घृतगुडगोरसेषु साधूनाधाय पदकायोपमईनेन निष्पादितेषु नवेषु च बल्लीफलेषु जातेषु । साधुनिमित्तमचित्तीकृतेषु 'दाने दानविषये कोऽप्यभिनवश्राद्ध-अव्युत्पन्नश्रावको निमन्त्रयते, यथा भगवन् ! प्रतिगृह्णीत यूयमस्मद्गृहे शाल्योदनादिकमिति । ततश्च
आहाकम्मग्गहणे अइक्कमाईसु बट्टए चउसु । नेउरहारिगहत्थी चउतिगद्गएगचलणेणं ॥ १८१॥ व्याख्या-आधाकर्मग्रहणे अतिक्रमादिषु चतुर्यु दोषेषु वर्तते, स च यथा यथा उत्तरस्मिन्नुत्तरस्मिन् दोषे वर्तते तथा तथा तोषजनितात्पापादात्मानं महता कष्टन व्यावर्तयितुमीशः, अत्र दृष्टान्तमाह-'नेउरे त्यादि इह नूपुरपण्डितायाः कथानकमतिप्रसिद्धत्वाद् बृहत्वाच न लिख्यते, किन्तु धर्मोपदेशमालाविवरणादेवगन्तव्यं, तत्र नूपुरं-मञ्जीरं तस्य हारो-हरण श्वशुरकृतं तेन या प्रसिद्धा । सा नूपुरहारिका, आगमे चान्यत्र नूपुरपण्डितेति प्रसिद्धा, तस्याः कथानके यो हस्ती राजपत्नी सञ्चारयन् प्रसिद्धः स नूपुरहारिकाहस्ती स यथा चिउतिगदुगएगचलणेणं 'ति पत्रानुपूर्व्या योजना, एकेन द्वाभ्यां त्रिभिधभिवरणराकाशस्थैर्महता महत्तरेण कष्टनात्मानं || व्यावयितुमीशः तथाऽऽधाकर्मग्राद्यपि, इयमत्र भावना-नूपुरहारिकाकथानके राज्ञा इस्ती स्वपस्नीमिण्ठाभ्यां सह छिन्नटड्ढे समारो
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२०३] » “नियुक्ति: [१८१] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८१||
दीप
पिण्डनियु- पितः, ततोऽपि मिण्टेन छिन्नटङ्कपर्वताग्रभागे व्यवस्थाप्यागेतनमेकं कंचिचरणमाकाशे कारितः, स च तथाकारितः सन् स्तोकेनैव क्लेशेन त आधाकर्मक्तमेळयांग- चरणं व्यावर्त्य तत्रैव पर्वते आत्मानं स्थापयितुं शक्रोति, एवं च साधुरपि कश्चिदतिक्रमाख्यं दोष प्राप्तः सन् स्तोकेनैव शुभाध्यवसायेन णि अतिरापाटात दोष विशोध्यात्मानं संयमे स्थापयितुमीशः, यथा च स हस्ती चरणद्वयमग्रेतनमाकाशस्थ क्लेशेन व्यावतयितुं शक्रोति, एवं च साधुरपि
क्रमाचा ॥१८॥ व्यतिक्रमाख्यं दोषं विशिष्टेन शुभेनाध्यवसायेन विशोधयितुमीष्टे, यथा च स हस्ती चरणत्रयमाकाशस्यमेकेन केनापि पाश्चात्येन चरणेन
इस्तिपदोलास्थितो गुरुतरेण कष्टेन व्यावर्तयितुं क्षमा, तथा साधुरप्यतीचारदोर्ष विशिष्टतरेण शुभेनाध्यवसायेन विशोधयितुं प्रभुः, यथा च स इस्ती
पनयः चरणचतुध्यमाकाशस्थितं सर्वथा न व्यावर्तयितुमीशः, किन्तु नियमतो भूमौ निपत्य विनाशमाविशति, एवं साधुरप्पनाचारे वर्तमानो नियमतः संयमात्मानं विनाशयति । इह दृष्टान्ते चरणचतुष्टयं हस्तिना नोत्पाटितं, किन्तु दार्शन्तिके योजनानुरोधात् सम्भावनामङ्गीकृत्य प्रतिपादितम् । सम्पत्यतिक्रमादीनां स्वरूपमाह__ आहाकम्मनिमंतण पडिसुणमाणे अइक्कमो होइ । पयभेयाइ बइकम गहिए तइएयरो गिलिए ॥ १८२ ॥
व्याख्या-आधाकर्मनिमन्त्रणे सति तत् आधाकर्म 'प्रतिशृण्वति' अभ्युपगच्छति अतिक्रमो भवति, स च पात्रोद्दणादारभ्य | || तावत् यावन्नाधाप्युपयोगकरणानन्तरं ग्रहणाय प्रचलति, 'पदभेदादौ'च पदस्य-चरणस्य भेद-उत्पाटनं तदादों, आदिशब्दामने गृहप्रवेशने करोटिकोत्पाटने ग्रहणाय पात्रप्रसारणे च व्यतिक्रमो दोषः, गृहीते त्वाधाकर्मणि तृतीयोऽतीचारलक्षणो दोषः, स च ताबद्यावदसतावागत्य गुरुसमक्षमालोच्य स्वाध्यायं कृत्वा गले तदाधाकर्म नाद्यापि मक्षिपति, गिलिते त्वाधाकम्मणि 'इतरः' चतुर्थो | दोषा-अनाचारलक्षणः । तदेवं 'चउरो' इति व्याख्यातं, सम्पति 'महणे य आगाई' इति व्याख्यानयनाह
अनुक्रम [२०३]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२०५] » “नियुक्ति: [१८३] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१८३||
दीप
कक०००००००००००००००००००००००००००
आणाइणो य दोसा गहणे जं भणियमह इमे ते उ । आणाभंगऽणवत्था मिच्छत्त विराहणा चेव ॥ १८३ ॥
व्याख्या-यदुक्तम् आधाकम्पियनामे ' त्यादिमूलद्वारगाथायामाधाकर्मग्रहणे 'आज्ञादयः' आज्ञाभङ्गादयो दोषाः ते इमे, वधया-आज्ञाभङ्गोऽनवस्था मिथ्यात्वं विराधना च ।। तत्र प्रथमत आज्ञाभङ्गदोपं भावयति| आणं सवजिणाणं गिण्हंतो तं अइक्कमइ लुडो । आणं च अइकमंतो कस्साएसा कुणइ सेसं ? ॥ १८ ॥
__व्याख्या-तिद्' आधाकमिकमशनादिकं सुब्धः सन् गृहानः सर्वेषामपि जिनानामाज्ञामतिकामति, जिना हि सर्वेऽप्येवदेव ब्रुवन्ति स्म-यदुत मा गृहीत मुमुक्षयो ! भिक्षव आधाकम्मिका भिक्षामिति, ततस्तदाददानो जिनाज्ञामतिकामति, तां चातिक्रामन् कस्य नाम ! आदेशाद्-आज्ञायाः ‘शेष केशुश्मश्रुलुश्चनभूशयनमलिनवासोधारणपत्युपेक्षणाधनुष्ठानं करोति !, न कस्यापीति भावः । सवेस्यापि सर्वज्ञाऽऽज्ञाभङ्गकारिणोऽनुष्ठानस्य नैष्फल्यात् ।। अनवस्थादोपं भावयति
एकेण कयमकजं करेइ तप्पच्चया पुणो अन्नो । सायाबहुलपरंपर वोच्छेओ संजमतवाणं ॥ १८५॥ ____ व्याख्या-इह प्रायः सर्वेऽपि प्राणिनः कर्मगुरुतया दृष्टमात्रमुखाभिलाषिणो न दीर्घमुखदर्शिनः तत एकेनापि साधुना यदाऽऽधाकर्मपरिभोगादिलक्षणमकार्यमासेव्यते तदा तत्मत्ययात् तेनापि साधुना तत्त्वं विदुषाऽपि सेवितमाधाकर्म ततो वयमपि किं न सेविप्यामहे । इत्येवं तमालम्बनीकृल्यान्योऽप्यासेवते तमप्यालम्ब्यान्यः सेवते, इत्येवं सातबहुलानां प्राणिनां परम्परया सर्वथा व्यवच्छेदः प्रामोति संयमतपसां, तयवच्छेदे च तीर्थव्यवच्छेदो, यश्च भगवतीर्थविलोपकारी स महाऽऽयातनाभागित्यनवस्थादोषभयान कदाचनाप्याधाकम्मे सेवनीयं ।। मिथ्यात्वदोष भावयति
अनुक्रम [२०५]
RELIGuninternational
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२०८] » “नियुक्ति: [१८६] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१८६||
दीप
पिण्डनियुः जो जह्वायं न कुणइ मिच्छविट्ठी तओ हु को अन्नो ? । वड्ढेइ य मिच्छत्तं परस्स संकं जणेमाणो ॥१८६||
आधाकर्मतर्मलयागरीयावृत्तिः । व्याख्या-इह यह देशकालसंहननानुरूपं यथाशक्ति यथावदनुष्ठानं तत्सम्यक्त्वं, यत उक्तमाचारसूत्रे-“जे माणति पासहा तं | are
नवस्थामिसम्मति पासहा, जं सम्मति पासहा तम्मोणंति पासहा" इति, ततो यो देशकालसंहननानुरूपं शक्त्पनिगृहनेन यथागमेऽभिहितं तथा न
ध्यात्वविकरोति ततः सकाशात्कोऽन्यो मिथ्याष्टिः, नैव कश्चित्, किन्तु स एव मिथ्यादृष्टीना धुरि युज्यते, महामियादृष्टित्वात् , कथं तस्य मिथ्याह
राधनः भाष्टिता? इत्यत आह-'यदेइ' इत्यादि, चशब्दो हेती यस्मात्स यधावादमकुर्वन परस्य शडूनमुत्पादयति, यथा (तधादि)-यदि यत्प्रव|चनेऽभिधीयते तत्त तर्हि किमयं तच जानानोऽपि तथा न करोति !, तस्माद्वितयमेतत्यवचनोक्तमिति, एवं च परस्य शडून जनयन् मिथ्यात्वं सन्तानेन वर्द्धयति, तथा च प्रवचनस्य व्यवच्छेदः, शेवास्तु मिथ्यादृष्टयो नैवं प्रवचनस्य मालिन्यमापाय परम्परया व्यवच्छेदमाधातुमीशा, ततः शेषमिच्यादृष्टयपेक्षयाऽसौ यथावादमकुर्वन् महामियादृष्टिरिति ।। अन्य
बड्ढेई तप्पसंगं गेही अ परस्स अप्पणो चेव । सजियंपि भिन्नदाढो न मुयइ निबंधसो पच्छा ॥ १८७ ॥ ___ व्याख्या--साधुराधाकर्म गृह्णानः परस्य 'एकेण कयमकज्ज' इत्यादिरूपया पूर्वोक्तनीत्या 'तत्मसङ्गम् ' आधाकर्मग्रहणकाप्रसङ्गं बयति आत्मनोऽपि, तथाहि-सकृदपि चेदाधाकम्में गृह्णाति नहिं तद्वतमनोज्ञरसास्वादलाम्पठ्यतो भूयोऽपि तदहणे प्रवत्तेते, तत|| ॥६९॥ एवमेकदाऽव्याधाकम्मे गृहन् परस्पात्मनश्च तस्मसङ्गं वर्दयति, तत्पसङ्गद्धौ च कालेन गच्छता परस्यात्मनब गृद्धिः-अत्यन्तमासक्तिः
१ यन्मौनमिति पश्यत तत्सम्यक्त्वमिति पश्यत, यत्सम्यक्त्वमिति पश्यत तन्मौनमिति पश्यत ।
अनुक्रम [२०८]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२०९] » “नियुक्ति: [१८७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८७||
उपजायते, ततो विशिष्टविशिष्टतरमनोहरसास्वाइनेन भिन्नदंष्टाको 'निन्धसः आगतसर्वथादयाबासनाको भूत्वा पचाप परो वा
सजीवमपि, सचेतनमपि चूतफलादिकं न मुञ्चति, तदमोचने च दुरंदरतरमपसपनपगतसर्ववाजिनाचनपरिणामो मिथ्यात्वमापि 18 गच्छतीति ।। सम्पति विराधनादोषं भावयति
खद्धे निद्धे य सया सुत्ते हाणी तिगिच्छणे काया । पडियरगाणवि हाणी कुणइ किलेसं किलिस्संतो ॥ १८८॥
व्याख्या-आधाकर्म प्रायः माघूर्णकस्यैव गौरवण क्रियते, ततस्त खाद स्निग्धं च भवति, तस्मिथ 'खद्धे प्रचरे 'निग्ये बहनेहे भक्षिते 'रुजा' रोगो ज्वरविसूचिकादिरूपः प्रादुर्भवति, इयमात्मविराधना, ततो रुजापीडितस्य 'सूत्रे' सूत्रग्रहणमुपलक्षणं । अर्यस्य च हानिः, तथा यदि चिकित्सां न कारयति तर्हि चिरकालसंघमपरिपालनभ्रंशः, अथ कारयति तहि चिकित्सने क्रियमाणे कायाः तेजस्कायादयो विनाशमाविशन्ति, तथा च सति संयमविराधना, तथा प्रतिचारकाणामपि ' परिपालकानामपि साधूनां तयासत्यव्यापृततया सूत्रार्थहानिः, षट्कायोपमईकारणानुपोदनाभ्यां च संयमस्वापि हानिः, तथा प्रतिचारकास्तदुक्तं यावन्न प्रपारयन्ति तावत्सः 'विश्यमानः 'पीडां सोहमशक्नुवन् तेभ्यः कुष्यति, कुप्पश्च तेषामपि मनसि क्लेशमुत्पादयति, अथवा तिश्पमानो-दीर्घकालं केशमनुभवन् प्रतिचारकाणामपि जागरणत: क्लेश-रोगमुत्पादयति, ततस्तेषामपि चिकित्साविधी पद कायविरावना । तदेवं व्याख्याता || सकलाऽपि ' आहाकम्मियनाम ' इत्यादिका मूलद्वारगाथा, सम्पत्याधाकर्मण एवाकल्प्यविधि विभणिपुः सम्बन्धमाहजह कम्मं तु अकप्पं तच्छिकं वाऽवि भायणठियं वा । परिहरणं तरसेव य गहियमदोसं च तह भणइ ॥ १८९ ॥
व्याख्या----यथा 'कर्म' आधाकर्प अकरायम, अभोज्य यथा च तेनायाकमेगा सुपकर यथा च 'भाजनस्थित।।
दीप
अनुक्रम [२०९]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२११] » “नियुक्ति: [१८९] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
Tre TAULA CIRCO
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८९||
दीप
पिण्डनियु- यस्मिन् भाजने तदाधाकर्म प्रक्षिप्तं तस्मिन्नाधाकर्मपरित्यागानन्तरमकृतकल्पत्रयप्रक्षालने यत् क्षित शुद्धमशनादि तदपि यथा न करप्यं आधाकर्मकमळयगि-1 यथा च तस्याधाकर्मणः परिहारो विध्यविधिरूपो यथा च गृहीतं सद्भक्तमदोष भवति तथा गुरुर्भणति । अनेन यथैवागमे पिण्डविश- णि तत्स्यूरीयाहत्तिः/दिरभाणि तथैवाहमपि भणामीत्यावेदितं द्रष्टव्यम् , अनया च गाथया पञ्च द्वाराणि प्रतिपाद्यान्युक्तानि ।। सम्पति तान्येव सविशेष ॥७०॥
प्रतिपाद्यत्वेनाद| अब्भोज्जे गमणाइ य पुच्छा दव्वकुलदेसभावे य । एव जयंते छलणा दिलुता तत्थिमे दोन्नि ॥ १९॥
व्याख्या-यथा साधूनामाधाकर्म तत्स्पृष्ट कल्पत्रयाप्रक्षालितभाजनस्थं वा अभोज्यं तथा भणनीय, तथा अविधिपरिहारे गमना-18 कादिकाः कायक्लेशादिलक्षणा दोषा वक्तव्याः, तथा विधिपरिहारे कर्तव्ये यथा द्रव्यकुलदेशभावे पृच्छा कर्तव्या चशब्दायथा च न कर्त्तव्या
तथा वक्तव्यम्, एवं यतमाने प्रायश्छलनाया असम्भवो, यदि पुनरेवमपि यतमाने ' छलना ' अशुद्धभक्तादिग्रहणरूपा भवेत् || ततस्तत्र दृष्टान्ताविमो बक्तब्यौ । इह 'अभोज्ये' इत्यनेन पूर्वगाधाया द्वारत्रयं परामष्टं 'गमणाइ य पुच्छा दबकुलदेसभावे य' इत्यनेन ||३| तु परिहरणस्य विशेषो वक्तव्य उक्तः, उत्तरार्दैन तु 'गहियमदोसं चेत्यस्य विशेषः । सम्प्रति प्रथम द्वारमाधाकम्मेणोऽकल्प्यतालक्षणं व्याचिख्यामुराह| जह वंतं तु अभोज भत्तं जइविय सुसक्कयं आसि । एवमसंजमवमणे अणेसणिज्जं अभोज्जं तु ॥ १९१ ॥ ॥ ७०॥
व्याख्या-इह यद्यपि वमनकालादर्जाग् 'भक्तम् । ओदनादिकं 'सुसंस्कृतं' शोभनद्रव्यसम्पर्ककतोपस्कारमासीत् तथापि यथा : तद्वान्तमभोज्यम् , एवमसंयमवमने कृते साधोरप्यनेषणीयमभोज्यमेव, 'तुः' एवकारार्थः, इयमत्र भावना-संयमप्रतिपत्तौ हि पूर्वमसंयमो|
अनुक्रम [२११]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२१३] » “नियुक्ति: [१९१] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१९१||
00000000000000000000000१00%%%
का वान्तः, असंयमरूपं चाधाकर्म, पदकायोपमईनेन तस्य निष्पनत्वात, न च वान्तमभ्यवर्जुमुचितं विवेकिनाम्, अत: साधोरनेषणीयम-| भोज्यमिति । पुनरप्याधाकर्मण एवाभोज्यतां दृष्टान्तान्तरेण समर्थयमानो गाथाद्वयमाह
मज्जारखइयमंसा मंसासित्थि कुणिमं सुणयवंतं । वन्नाइ अन्नउप्पाइयंपि किं तं भवे भोज्जं ॥ १९२॥ केई भणंति पहिए उट्ठाणे मंसपेसि वोसिरणं । संभारिय परिवेसण वारेइ सुओ करे घेत्तुं ॥ १९३ ॥
व्याख्या-बक्रपुरनाम पुरं, तत्र वसत्युग्रतेजाः पदातिः, तस्य भार्या रुक्मिणी, अन्यदा च उग्रतेजसो ज्येष्ठभ्राता सोदासाभिधानः प्रत्यासन्नपुरात् प्राघूर्णकः समाययो, उग्रतेजसा च भोजनाय कापि मांसं कृत्वा रुक्मिण्यै समर्पोमासे, तस्याश्च रुक्मिण्या गृहव्यापाव्यापृतायास्तन्मांसं माजोरोऽवभक्षत् , इतश्च सोदासोग्रतेजसोभोजनार्धमागमनवेला, ततः सा व्याकुलीवभूव, अत्रान्तरे च कापि कस्यापि मृतस्य कार्पटिकस्य शुना मांस भक्षयित्वा तद्गृहमाङ्गणपदेशे तस्याः साक्षात्पश्यन्त्याः पुरतः कथमपि वातसंक्षोभादिवशादुद्वमितं, ततः ।
साऽचिन्तयत्-यदि नाम कुतोऽपि विपणेरन्यन्मांसं क्रीत्वा समानेष्यामि तर्हि महदुत्सूरं लगिष्यति, प्राप्ता च समीपं पतिज्येष्ठयोर्भोजन-1 हावेला, तस्मादेनदेव मांसं जलेन सम्पक प्रक्षाल्य वेसवारेणोपस्करोमि, तथैव च कृतं, समागतो सोदासोग्रतेजसौ उपविष्टौ च भोजनार्थ,
परिवेषितं तयोस्तन्मांस, ततो गन्धविशेषेणोग्रतेजसा विजज्ञे यथा वान्तमेतदिति, ततस्तेन साक्षेपं भुवमुत्पाट्य रुक्मिणी पप्रच्छे, सा च साटोपभ्रूत्सेपदर्शनतो विभ्यती पवनधुतक्षशाखेव कम्पमानवपुर्यथाऽवस्थितं कथितवती, ततः परित्यज्य तन्मांसं साक्षेपं निर्भय भूयोन्यन्मांसं पाचिता, तद्भुक्तं । प्रथमगाथाक्षरयोजना त्वेवं-मार्जारेण खादितं-भक्षितं मांसं यस्याः सा माारखादितमांसा मांसाशिन उग्रतेनसः स्त्री-महेला अन्यन्मांसममामुवती श्ववान्तं कुणपं-मांसं गृहीतवती, तच वेसवारोपस्कारेण वर्णादिभिरन्यदिवोत्पादितमपि किं भवति ।
दीप
अनुक्रम [२१३]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२१५] » “नियुक्ति: [१९३] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियु
कर्मळयगि
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१९३||
दीप
भोज्यं !, नैव भवतीति भावः, एबमाधाकर्मापि संयमिनामभोज्यं । केचित्पुनरत्रैब कथानके एक्माहुः, तस्या रुक्मिण्या गृहे कोऽप्यती- आधाकर्म
सारेण पीडितो दुष्पभनामा कापेटिकः किश्चिद्विविक्तं स्थानं याचितवान् , सचातीसारेण मांसखण्डानि व्युत्सृजति, ततः सोदासे प्राघू-णि वान्तारीयावृत्तिः
के समागते सति भर्चा च समानीते मांसे माजोरेण च तस्मिन् भक्षिते रुक्मिणी प्रत्यासना समागता भोजनवेलेति भयभीता अन्यन्मां-18 नादाने उ॥७॥1||समप्राप्नुवती तान्येवातीसारव्युत्सष्टानि मांसखण्डानि गृहीत्वा जलेन प्रक्षाल्य वेसवारेण चोपस्कृत्य भोजनायोपविष्टयोः पतिज्येष्ठयोः परिचे- प्रतजउदा.
षितवती, अय च सा तानि मांसखण्डानि गृहन्ती मृतसपत्नीपुत्रेणोग्रतेजसो जातेन गुणमित्रेण ददृशे, न च तदानीं तेन किमपि भयाद्वक्तुं
शक्त, ततो भोजनकाले तौ द्वावपि पितृपितृव्यौ तेन करे गृहीत्वा निवारितो, यथा कार्पटिकातीसारसत्कान्यमूनि मांसखण्डानि तन्मा || यूयं विभक्षत, तत उग्रतेजसा सा दूरं निभेत्सयामासे, तस्यजे च तन्मांस । द्वितीयगाथाक्षरयोजना खे-केचिद्गणन्ति 'पथिक' पथिकस्य |
उट्ठाणे: अतीसारोस्थाने मांसपेशीव्युत्सर्जनं, ततस्तन्मांसपेशीरादाय तास सम्भृत्य ' वेसवारणोपस्कृत्य परिवेषणे कृते सुतः करेण गृहीत्वा तौ पितृपितृव्यौ भोजनाय वारयति स्म, ततो यथा पुरीषमांसमभोज्यं विवेकिनामेवमाधाकापि साधूनामिति । किंच- ।
अविलाकरहीखीर ल्हसण पलंडू सुरा य गोमंसं । वेयसमएवि अमयं किंचि अभोजं अपिजं च ।। १९४॥ ___ व्याख्या-'अविका करणी 'करभी' उष्ट्री तयोः क्षीर, तथा लशुनै पलाण्ड सुरा गोमांसं च घेदे यथायोग शेषेषु च 'समयेषु' निर्मपणीतेषु 'अमतम् ' असम्मतं भोजने पाने च, तथा जिनशासनेऽपि किश्चिदाधाकम्पिकादिरूपमभोज्यमपेयं च वेदितव्यं,
॥७१॥ इयमत्र भावना-पूर्वमिह संयमप्रतिपत्तावसंयमवमनेनाधाकापि साधुभिर्वान्तं, पुरीषमिवोत्सृष्टं वा, न च वान्तं पुरीषं वा भोक्तुमुचितं । विवेकिनामिति युक्तिवशादभोज्यमुक्तमाधाकर्म, अथवा मा भूत युक्तिः, केवलं वचनपामापाद मोज्यमबसेय, तथा च मिथ्यादृष्टयोऽपि
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२१७] » “नियुक्ति: [१९५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||१९५||
वेदेषु यथायोगमन्येष्यपि समयेषु गोमांसादिकं करभीक्षीरादिकं चाभिधीयमानं वचनमामाग्या पगमतस्तयेति प्रतिपयन्ते, तयदि मिथ्यादृष्टयः स्खसमयप्रामाण्याभ्युपगमतस्तथेति प्रतिपन्नाः ततः साधुभिर्भगवति सर्वज्ञे प्रत्ययदायवलम्बमानविशेषतो भगवत्पणीते वचस्पभिधीयमानमाधाकम्मोदिकमभोज्यमपेयं च तथेति प्रतिपत्तव्यम् । सम्मति तस्कृष्टस्पाकलप्पतामाह| वनाइजुयावि बली सपललफलसेहरा असुइनत्था । असुइस्स विप्पुसेणवि जह छिक्काओ अभोज्जाओ ॥ १९५ ॥ ___व्याख्या-यथा वर्णादियुतोऽपि 'बलि' उपहारः 'सपछलफलशेखरः' इह पललं-तिलक्षोद उच्यते फलं-नालिकेरादि तत्तहितः शेखरः-शिखा यस्य स तथा, आस्तामनेवविध इत्यपिशब्दार्थः, एतेनास्य प्राधान्यमुक्तं, स एवंविधोऽपि यदा अशुचौ न्यस्त:-पुरीपस्योपरि स्थापितः सन् अशुचेः 'विनुवापि' लोनापि, आस्ता स्तबकादिनेत्यपिशब्दार्थः, सृष्टो भवति तदा अभोज्यो भवति, एवं निर्दोषतया भोज्योऽप्याहार आधाकम्मोक्यवसंस्पृष्टतपा साचूनामभोज्यो वेदितव्यः । भोजनस्थितस्याकलप्यतां भावयति
एमेव उज्झियमिवि आहाकम्ममि अकयर कप्पे । होइ अभोजं भाणे जत्थ व सुद्धेऽवि तं पडियं ॥ १९६ ॥
व्याख्या-यथा आधाकावयवेन संस्पृष्टमभोज्यम् एवं यस्मिन् भाजने सदाधाकर्म ग्रहीत तस्मिन्नाधाकर्मणपुनितेऽपि अकते कल्पे वक्ष्यमाणप्रकारेण कल्पत्रयेणामक्षालिते यद्वा यत्र भाजने पूर्व शुद्धेऽपि भक्ते गृहीते आधाकर्म स्तोकमात्रं पतितं तस्मिन् भाजने पूर्वगृहीते शुद्ध आधाकर्मणि च सर्वात्मना त्यक्ते पश्चादकृतकल्पे-वक्ष्यमाणप्रकारेणाकृतकल्पत्रये यद् भूयः शुद्धमपि प्रक्षिप्यते तदभोज्य-13
मवसेयं, न खलु लोकेऽपि यस्मिन् भाजने पुरीष पपतत्तस्मिन्नशुचिपरित्यागानन्तरममक्षाकिते यदा यस्मिन् भाजने भक्तादिना पूर्णेऽपि मतदुपरि पुरीपं निपतितं भवेत् तस्मिन पूर्वपरिगृहीतभक्तादिपुरीषपरित्यागानन्तरममक्षालिते भूयः प्रतिपमानादिक भोज्यं भवति, पुरी-18|
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀.
दीप
अनुक्रम [२१७]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२१८] » “नियुक्ति: [१९६] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
णि परिहा
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१९६||
॥७२॥
पिम्डनियु- वस्थानीयं च संयमिनामाधाकर्म, ततस्तस्मिन् सर्वात्मना परित्यक्तेऽपि पश्चाददत्ते कल्पत्रये भाजने यत्प्रक्षिप्यते तदभोज्यमवसेयम् ॥ आधाकर्मतेर्मलयगि- सम्पति परिहरणं प्रतिपिपादयिषुरिदमाहरीयातिः
रेविष्यविवंतुञ्चारसरिच्छं कम्मं सोउमवि कोविओ भीओ । परिहरइ सावि य दुहा विहिअविहीए य परिहरणा॥१९७॥
व्याख्या-वान्तसदृशमुच्चारसदृशं च आधाकर्म यतीन् प्रति प्रतिपाद्यमानं श्रुत्वा 'अपिः' सम्भावने सम्भाव्यते एतनियमतः 'कोविदः संसारविमुखपतया पण्डितः अत एव 'भीतः आधाकर्मपरिभोगत: संसारो भवतीत्याधाकर्मणखस्तस्तदाधाकर्म 'परि|| हरति 'न गृहाति, परिहरणं च द्विधा-विधिनाऽविधिना च, सूत्रे च परिहरणशब्दस्य स्त्रीत्वेन निर्देशः माकृतत्वात, माकृते हि लिग व्यभिचारि । तत्राविधिपरिहरणं विभणिषुः कथानक गाथात्रयेणाह
सालीओअणहत्थं दर्दु भणई अकोविओ देति । कत्तोचउत्ति साली वणि जाणइ पुच्छ तं गंतु ॥ १९८॥ गंतूण आवणं सो वाणियगं पुच्छए कओ साली ? । पञ्चंते मगहाए गोब्बरगामो तहिं वयइ ॥ १९९ ॥ कम्मासंकाएँ पहं मोत्तुं कंटाहिसावया अदिसि । छायंपि [वि]वज्जयंतो डज्झइ उण्हेण मुच्छाई ॥२०॥
व्याख्या-शालिग्रामे ग्रामे ग्रामणीनामा वणिक, तस्य भार्याऽपि ग्रामणीः, अन्यदा च वणिजि विपणि गते भिक्षार्थमटन्नकोMविदः कोऽपि साधुस्तद्गृहं प्रविवेश, आनीतश्च तद्भार्यया ग्रामण्या शाल्योदनः, साधुना चाधाकर्मदोषाशङ्कापनोदाय सा पाच्छे, यथा
श्राविके ! कुतस्त्य एष शालिः ! इति, सा प्रत्युवाच-नाई जाने वणिक जानाति, ततो वणिज विपणी गत्वा पृच्छेति, तत एवमुक्तः सन ।
दीप
अनुक्रम [२१८]
॥७२॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२२२] » “नियुक्ति: [२००] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२००||
दीप
हास साधुस्तं शाल्पादनमपहाय वणिज विपणो गत्वा पृष्टवान् , वणिजाऽप्युक्तं-मगधजनपदमत्यन्तवतिनो गोरग्रामादागतः शालिरेप
इति, ततः स तत्र गन्तुं भावत, तत्रापि साधुनिमित्तं केनापि श्रावकेणार्य पन्थाः कृतो भविष्यतीत्याधाकर्मकाया पन्थान विमच्योत्पथेन व्रजति, उत्पथेन च व्रजन्नहिकण्टकश्वापदादिभिरभिद्रूयते, नापि काञ्चन दिशं जानाति, तथा आधाकर्मशडन्या वृक्षच्छायामपि परिहरन् मूर्तीि सूर्यकरनिकरप्रपातेन तप्यमानो मूर्छामगमत् , क्लेशं च महान्तं प्रापेति।
इय अविहीपरिहरणा नाणाईणं न होइ आभागी। दव्वकुलदेसभावे विहिपरिहरणा इमा तत्थ ।। २०१॥
व्याख्या-इति । एवमुक्तेन प्रकारेणाविधिना परिहरणात् ज्ञानादीनामाभागी न भवति, तस्माद्विधिना परिहरणं कर्तव्पं, तच्च विधिपरिहरणम् 'इदं वक्ष्यमाणं द्रव्यकुलदेशभावानाश्रित्य 'तत्र' आधाकर्मणि विषये द्रष्टव्यम् । तत्र प्रथमतो द्रव्यादीन्येव गाथाद्वयेनाह
ओयणसमिइमसत्तुगकुम्मासाई उ होति दवाई। बहुजणमप्पजणं वा कुलं तु देसो सुरहाई ॥ २०२॥ आयरऽणायर भावे सयं व अन्नेण वाऽवि दावणया । एएसि तु पयाणं चउपयतिपया व भयणा उ ॥ २०३ Mal
व्याख्या-ओदनः' माल्यादिकूरः 'समितिमाः' माण्डादिकाः सक्तवः कुल्माषाश्च प्रतीताः, आदिशब्दान्मुद्रादिपरिग्रहः, ॥ अमूनि भवन्ति ट्रव्याणि, कुलमल्पजनं बहुजनं चा, 'देशः' सौराष्ट्रादिकः, भावे आदरोऽनादरो बा, एतावेव स्वरूपतो व्याख्यानयति-
स्वयं वाऽन्येन वा-कर्मकरादिना यद् दापनं तौ यथासङ्खथमादरानादौ, एतेषां च पदानां 'भजना ' विकल्पना चतुष्पदा त्रिपदा वा स्यात्, किमुक्तं भवति ?-कदाचिचत्वार्यपि पदानि सम्भवन्ति कदाचित त्रीणि, तत्र यदा चत्वार्यपि द्रव्यादीनि प्राप्यन्ते तदा चतु
अनुक्रम [२२२]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२२५] » “नियुक्ति: २०१] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२०३||
याः
दीप
पिण्डनियु-गष्पदा, यदा तु नादरो नाप्यनादरः केवळ मध्यस्थत्तिता तदा भावस्पाभावात् त्रिपदेति ॥ सम्पति यादृशेषु द्रव्यादिषु सत्सु पृच्छा मा आधाकर्मतर्मळयगिMकर्त्तव्या यादृशेषु(च) न कर्त्तव्या तान्याह
णि पृच्छोरीयावृत्तिः
चितादन्याal अणुचियदेसं व्वं कुलमप्पं आयरो य तो पुच्छा । बहुएबि नत्थि पुच्छा सदेसदविए अभावेवि ॥ २० ॥ ॥७३॥
___व्याख्या-यदा 'अनुचितदे विवक्षितदेशासम्भवि द्रव्यं लभ्यते तदपि च प्रभूतम् एतच 'आयरो य' इत्यत्र चशब्दालभ्यते, एतेन द्रव्यदेशावुक्ती, कुलमपि च 'अल्पम् ' अल्पजनम् , अनेन कुलमुक्त, आदरश्च प्रभूतः, एतेन भाव उक्तः, ततो भवति । पृच्छा, आधाकम्नेसम्भवात, 'बहुकेऽपि च स्वदेशद्रव्ये' प्रभूतेऽपि च तद्देशसम्भविनि लभ्यमाने द्रव्ये यथा मालबके मण्डकादौ नास्ति पृच्छा, यत्र हि देशे यद्रव्यमुत्पद्यते तत्र तत्मायः माधुर्येण जनैर्भुज्यत इति नास्ति तत्र बहुकेऽपि लभ्यमाने पृच्छा, आधाकम्मो-| सम्भवात, परं तत्रापि कुलं महदपेक्षणीयम् , अन्यथाऽल्पजने भवेदाधाकर्मेति शङ्कर न निवर्तते, तथा 'अभावेऽपि' अनादरेऽपि नास्ति [पृच्छा, यो प्राधाकमें कृत्वा दद्यात् स प्राय आदरपपि कुर्यात, तत आदराकरणेन ज्ञायते यथा नास्ति तत्राधाकर्मेति न पृच्छा ।। तदेवं || यदा पृच्छा कत्चेव्या यदा च न कर्त्तव्या तत्प्रतिपादितं, सम्पति पृच्छायां यदा तद् ग्राह्यं भवति यदा च न तदेतत्यतिपादयति
तुज्झट्टाए कयमिणमन्नोऽन्नमवेक्खए य सविलक्खं । वज्जति गाढव्हा का भे तत्तित्ति वा गिण्हे ॥ २०५ ॥ | ___ व्याख्या-इह या दात्री ऋत्री भवति सा पृष्टा सती यथावत्कथयति, यथा भगवन् ! तवार्थाय कृतमिदमशनादिकमिति, यत्तु || भवति मायाविकुटुम्बं तन्मुखेनैवमाचष्टे गृहार्थमेतत्कृतं न तवायेति, परं ज्ञाता वमिति सविलक्षं सर्वाण्यपि मानुपाणि परस्परमवेक्षन्ते,
ななななな々々々々々々々々々々々々々々々な分からな
अनुक्रम [२०५]
~157.
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२२७] » “नियुक्ति: [२०५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२०५||
दीप
कपोलो दमानं च इसन्ति, ततो यदा तवार्थायेदं कृतमिति जल्पति यद्वा 'सविलक्ष' सलज्जमन्योऽन्यमवेसन्ते चशब्दात् हसन्ति वा तदा साधवस्त देयमाधाकम्मति परिज्ञाय वर्जयन्ति, यदा तु कस्यार्थायेदं कृतमिति पृष्टा सती गाद सत्यवृत्त्या रुष्टा भवति, यथा काभ'भहारक! तव तप्तिः इति तदा नैवाधाकम्भेति निःशङ्कं गृहीत ।। सम्पति 'गहियमदोस' चेत्यवयवं व्याचिख्यामुः परं प्रश्नयतिगूढायारा न करेंति आयरं पुच्छियावि न कहेंति । थोवंति व नो पुट्ठा तं च असुई कहं तत्थ ? ॥ २०६॥
व्याख्या-इह ये श्रावकाः श्राविकाश्चातीव भक्तिपरवशगा गूढाचाराश्च ते नादरमविशयेन कुर्वन्ति, मा भून्न ग्रहीष्यतीति, नापि पटाः सन्तो यथावत्कथयन्ति, यथा तवार्थायेदं कृतमिति, अथवा स्तोकमितिकृत्वा ते साधुना न पृष्टाः अथ च तदेयं वस्तु 'अशुद्धम् || आधाकम्भेदोषदुष्टम् , अतः कथं तत्र साधोः शुद्धिभविष्यति ? इति । एवं परेणोक्के गुरुराह--
आहाकम्मपरिणओ फासुयभोईवि बंधओ होइ । सुद्धं गवसमाणो आहाकम्मेवि सो सुद्धो ॥ २०७ ॥
व्याख्या-इह मासुक्ग्रहणेन एपणीयमुच्यते सामर्थ्यात्, तथाहि-साधूनामयं कल्प:-ग्लानादियोजनेऽपि प्रथमतस्तावदेषणीयमेषितव्यं, तदभावेऽनेषणीयमपि श्रावकादिना कारयित्वा, श्रावकाभावे स्वयमपि कृत्वा भोक्तव्यं, न तु कदाचनापि प्रासुकाभावेऽमासुकमिति, ततः कदाचिदप्यमामुकभोजनासम्भवे 'फासुयभोईति' इति वाक्यमनुपपद्यमानमर्थात्मामुकशब्दमेषणीये वयति, ततोऽयमर्थ:प्रामुकभोज्यपि ' एपणीयभोज्यपि यद्याधाकर्मपरिणतस्ताहि सोऽशुभकर्मणां बन्धको भवति, अशुभपरिणामस्यैव वस्तुस्थित्या बन्धकारणत्वात् , 'शुद्धम् । उद्गमादिदोषरहितं पुनर्गवेषयन् आधाकर्मण्यपि गृहीते भुक्ते च शुद्धो वेदितव्यः, शुद्धपरिणामयुक्तत्वात् । एतदेव कथानकाभ्यां भावयति
अनुक्रम [२२७]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२३०] » “नियुक्ति: [२०८] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२०८||
दीप
पिण्डनियु- संघुद्दिडं सोउं एइ दुयं कोइ भाइए पत्तो । दिन्नंति देहि मझतिगाउ साउं तओ लग्गो ॥ २०८ ॥ आधाकर्म केमेळयगि
णि परिणरीयावृत्तिः व्याख्या-शतमुखं नाम पुरं, तत्र गुणचन्द्रः श्रेष्ठी, चन्द्रिका तस्य भार्या, श्रेष्ठी च जिनप्रवचनानुरक्तो हिमगिरिशिखरानु- दोषादो.
कारि जिनमन्दिरं कारयित्वा तत्र युगादिजिनप्रतिमा प्रतिष्ठापितवान् , ततः सङ्गभोज्यं दापयितुमारब्धम् । इतच प्रत्यासन्ने कस्मिंश्रिदूपी अशुद्ध॥७४॥
ग्रामे कोऽपि साधुवेषविडम्बकः साधुवेत्तते, तेन च जनपरम्परया शुश्रुषे यथा शतमुखपुरे गुणचन्द्रः श्रेष्ठी सङ्घभोज्यमय ददातीति, ततः शुद्धसाचून कास तदाणाय सत्वरमाजगाम, सहभक्तं च सर्व दत्तं, तेन च श्रेष्ठी याचिती यथा पद्यं देहि, श्रेष्ठिना च चन्द्रिकाऽभ्यधायि, देहि साधवेAlsस्मै भक्तमिति, सा प्रत्युवाच-दत्तं सर्वं न किमपीदानी वर्तते, ततः श्रेष्ठिना सा पुनरप्यभाणि-देहि निजरसवतीमध्यात्परिपूर्णमस्याथिति, ततः सा शाल्योदनमोदकादिपरिपूर्णमदात, साधुश्च सङ्गभक्तमिति बुद्धया परिगृह्य स्वोपाश्रये भुक्तवान्, ततः स शुद्धमपि भुञ्जान आधाकम्मेग्रहणपरिणामवशादाधाकर्मपरिभोगजनितेन कर्मणा बद्धः । एवमन्योऽपि वेदितव्या, सूर्य सुगम, नवरं देहि मज्झतिगाउ'चि| भायेया दत्तमित्युक्ते श्रेष्ठी वभाण-देहि 'मम मध्यात्। मदीयभोजनमध्यात, दत्ते च स्वादु मिष्टमिदं सभक्तमिति भुजाना विचिन्तयति, ततो 'लमः' आधाकर्मपरिभोगजनितकर्मणा बद्धः । तदेवम् 'आधाकम्मपरिणओ' इत्यादि कथानकेन भावितं, सम्पति 'सुदं] गवेसमाणो' इत्यादि कथानकेन भावयतिमासियपारणगढा गमणं आसन्नगामगे खमगे। सड़ी पायसकरणं कयाइ अज्जेज्जिही खमओ ॥ २०९॥ खेल्छगमल्लगलेच्छारियाणि डिभग निभच्छणं च रुंटणया । हंदि समणत्ति पायस घयगुलजुय जावणढाए ॥२१०॥
अनुक्रम [२३०]
SARERatinintamanna
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२३३] » “नियुक्ति: [२११] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२११||
एगंतमवक्कमणं जइ साहू इज्ज होज तिन्नोमि । तणुकोटुंमि अमुच्छा भुमि य केवलं नाणं ॥ २११ ॥
व्याख्या-पोतनपुरं नाम नगरं, तत्र पश्चभिः साधुशतैः परितृता यथागमं विहरन्तो रत्नाकरनामानः सूरयः समाययुः, तस्याच|| साधुपञ्चशल्या मध्ये प्रियङ्कारो नाम क्षपकः, स च मासमासपर्यन्ते पारणकं विदधाति, ततो मासक्षपणपर्यन्ते मा कोऽपि मदीयं पारणकम-1181 वबुध्याधाकादिकं कार्षीदित्यज्ञात एव प्रत्यासने ग्रामे पारणार्थ बजामीति चेतसि विचिन्त्य प्रत्यासने कचिद् ग्रामे जगाम । तत्र च
यशोमतिनाप श्राविका, तया च तस्य लपकस्य मासक्षपणकं पारणकदिनं च जनपरम्परया श्रुतं, ततस्तया तस्मिन् पारणकदिने कदाचि-18 सदद्य स क्षपकोऽत्र पारणककरणाय समागच्छेदितिबुद्धया परमभक्तिवशतो विशिष्टशालितण्डुलैः पायसमपच्यत, घृतगुडादीनि चोपबृंह-18
कद्रव्याणि प्रत्यासन्नीकृतानि, ततो मा साधुः पायसमुत्तमं द्रव्यमितिकृत्वाऽऽधाकर्मशङ्का काषीदिति मातृस्थानतो बटादिपत्रः कुतेषु । शरावाकारेषु भाजनेषु डिम्भयोग्या स्तोका स्तोका रेयी प्रक्षिप्ता, भणिताश्च डिम्भा यथा रे बालकाः! यदा क्षपकः साधुरीदृशस्तादृशो वा समायाति तदा यूयं भणत-हे अम्ब ! प्रभूताऽस्माकं क्षरेयी परिवेषिता ततो न शक्नुमो भोक्तम्, एवं चोक्तेऽई युष्पानिर्भसैयिष्यामि,
ततो यूयं भणत-किदिने दिने पायसमपस्क्रियते !, एवं च बालकेषु शिक्षितेषु तस्मिन्नेव प्रस्तावे स क्षपको भिक्षामठन् कथमपि तस्या || एव गृहे प्रथमतो जगाम, ततः सा यशोमतिरन्तःसमुल्लसत्परमभक्तिर्मा साधो काऽपि शङ्कन भूदिति बहिरादरमकुवेती यथास्वभाव
मवतिष्ठते, बालकाश्च यथाशिक्षितं भणितुं प्रवृत्ताः, तथैव च तया निर्भत्सिताः, ततः सरुवानादरपरया क्षपकोऽपि तया चभणे, यथाऽमी | मत्ता बालकाः पायसमपि नैतेभ्यो रोचते, ततो यदि युष्मभ्यमपि रोचते तार्ह गृहीत क्षौरेयीं नो चेन बजतेति, तत एवमुक्ते स क्षपकसाधुनिःशड्रो भूत्वा पायसं प्रतिग्रहीतुमुद्यतः, सापि परमभक्तिमुद्रहन्ती परिपूर्णभाजनभरणं पापसं घृतगुडादिकं च दत्तवती, साधुव
दीप
अनुक्रम [२३३]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२३३] » “नियुक्ति: [२११] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२११||
दीप
मनसि निःशङ्को विशुद्धाध्यवसायः पायसं गृहीत्वा भोजनाय वृक्षस्व कस्यचिदधस्ताद् गतवान् , गत्वा च यथाविधिरीयर्यापथिकादि प्रतिक्रम्य आधाकमेंतमकयाग-I स्वाध्याय च कियन्तं कृत्वा चिन्तयामास, अहो ! लब्धमुत्कृष्टं मया पायसद्रव्यं धृतगुडादि च, ततो यदि कोऽपि साधुरागत्य संविभाग-
I ण परिणरीयादृचिः यति मा तहि भवामि संसारार्णवोत्तीर्णो, यतो निरन्तरं ये स्वाध्यायनिष्पन्नचेतसः प्रतिक्षणं परिभावयन्ति सकलमपि यथावस्थितवस्तुजा-1
तेर्दोषादो. ॥७॥ तम्, अत एव च दुःखरूपात् संसाराद्विमुखबुद्धयो मोक्षविधावेकताना यथाशक्ति गुर्वादिषु यावृत्पोयताः ये वा परोपदेशमवणाः स्वयं
पो अशुद्ध
साधसम्यक संयमानुष्ठानविधायिनश्च तेषां संविभागे कृते तद्भतं ज्ञानाद्युपष्टब्धं भवति, ज्ञानाद्युपष्टम्भे च मम महांल्लामा, शरीरकं पुनरिदम-||
दा० सारं मायो निरुपयोगि च, ततो येन तेन वीपष्टब्धं सुखेन वहतीत्येवं भुञ्जानोऽपि शरीरमू रहितः प्रवर्द्धमानविशुद्धाध्यवसायो भोजजनानन्तरं केवलज्ञानमासादितवान् । सूत्रं सुगमं नवरं 'खल्लगमलगलिच्छारियाणि ति मल्लक-शरावं तदाकाराणि यानि खल्लकानि
वटादिपत्रकृतानि भाजनानि दूतानीत्यर्थः, तानि केच्छारियाणि-डिम्भकयोग्यस्तोकस्तोकपायसपोपणेन खरण्टितानीव खरण्टितानि । कृतानि 'रुण्टणया इति अवज्ञया 'हन्दी 'स्थामन्त्रणे, भोः श्रमण ! यदि रोचते तहिं गृहाणेति शेषः, ततः पारीरयापनाय धृतगुढयुतं पायसं | गृहीत्वैकान्तेऽपक्रमणं, शेष सुगमम् , एवमन्येषामपि भावतः शुद्धं गवेषयतामाधाकर्मण्यपि गृहीते भुक्ते वा न दोषः, भगवदाशाऽऽराधनात् ।। तथा च भगवदाज्ञाराधनकृतमेवादोष भगवदाज्ञाखण्डनकृतमेव च दोष विभावयितुकामः कथानकं रूपकचतुष्केणाह
॥७५॥ चंदोदयं च सूरोदयं च रन्नो उ दोन्नि उज्जाणा । तेसि विवरियगमणे आणाकोवो तओ दंडो ॥ २१२ ॥ सरोदयं गच्छमहं पभाए, चंदोदयं जंतु तणाइहारा । दुहा रवी पच्चुरसंतिकाउं, रायावि चंदोदयमेव गच्छे॥२१३॥
अनुक्रम [२३३]
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SAREauratonintamational
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२३६] » “नियुक्ति: [२१४] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२१४||
पत्तलदुमसालगया दच्छामु निवंगणत्तिदुञ्चित्ता । उज्जाणपालएहिं गहिया य हया य बद्धा य ॥ २१४ ॥ सहस पइट्ठा दिट्ठा इयरेहि निवंगणत्ति तो बड़ा । निंतरस य अवरण्हे दंसणमुभओ वहविसग्गा ॥ २१५ ॥
ध्याख्या-चन्द्रानना नाम पुरी,तत्र चन्द्रावतंसो राजा, तस्य त्रिलोकरेखामभृतयोऽन्तःपुरिकाः,राजश्च द्वे उद्याने,तद्यथापर्वस्यां दिशि सूर्योदयाभिधानं, द्वितीयं पधिमायां चन्द्रोदयाभिधान, तत्र चान्यदा प्राप्ते वसन्तमासे कस्मिचिदिने रामा निजान्त:-12 पुरक्रीडाकौतुकार्थी जनानां पटहं दापितवान,यथा भोः शृणुल जनाः प्रभाते राजा सूर्योदयोयाने निजान्तःपुरिकाभिः सह स्वेच्छ विहरि-1 काव्यति, ततो मा तत्र कोऽपि यासीत् सर्वेऽपि तृणकाष्ठाहारादयश्चन्द्रोदयं गच्छन्विति एवं पटहे दापिते तस्य सूर्योदयोद्यानस्य रक्षणाय
पदातीनिरूपितवान् , यथा न तत्र कस्यापि प्रवेशो दातव्य इति, राजा च निशि चिन्तयामास, सूर्योदयमुयानं गच्छतामपि प्रभाते सूर्यः । प्रत्युरसं भवति, ततः प्रतिनिवर्तमानानामपि मध्याहे, प्रत्युरसं च सूर्यो दुःखावहः, तस्माञ्चन्द्रोदयं गमिव्यामीति, एवं च चिन्तयित्वा मातस्तथैव कृतवान् , इतश्व पटहश्रवणानन्तरं केऽपि दुर्वृत्ताश्चिन्तयामामुर्यथा न कदाचिदपि वयं राजान्तःपुरिका दृष्टयन्ता, मातश्च राजा सूर्योदये सान्तःपुरः समागमिष्यति, अन्तःपुरिकाश्च यथेच्छ विहरिष्यन्ति, तत: पत्रबहुलताशाखासु लीनाः केनाप्यलक्षिता वयं ताः परिभाक्यामः, एवं च चिन्तयित्वा ते तथैव कृतवन्तः, तत उद्यानरक्षकैः कथमपि ते शाखास्वन्तलीना दृष्टाः, ततो गृहीता लकुटादिभिश्च । हता रज्ज्वादिभिश्च बद्धाः, ये चान्ये तृणकाष्ठहारादयो जनास्ते सर्वेऽपि चन्द्रोदयं गताः, तैव सहसामविष्टैरग्रे यथेच्छ राज्ञान्तःपुरिकाः क्रीडन्त्यो दृष्टाः, ततस्तेऽपि राजपुरुषैर्बद्धाः, ततो नगराभिमुखमुद्यानानिर्गच्छतो राज उद्यानपालकैः पुरुषैद्रयेऽपि बद्धा दर्शिताः, कथितश्च ।
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अनुक्रम [२३६]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२३७] » “नियुक्ति: [२१५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१||
दीप
पिण्डनियु- सर्वोऽपि यथावस्थितो वृत्तान्तः, तत्र ये आज्ञाभङ्गकारिणस्ते विनाशिताः, इतरे मुक्ताः, सूत्र सुगम, नवरं 'तओ दंडो'त्ति दण्डो-पारणम्, आंधाकर्मकमलयाग- एतद्भावनार्थ रूपकत्रयं सूरोदयमित्यादि, तत्र 'पच्चुरसं' प्रत्युरसम्-उरसः सम्मुखं, 'नितस्स यति उद्यानादपराहे निर्यतः राज्ञ AM
णि परिणारीयात्तिः उभयेषां दर्शनं, ततो यथाक्रमं वधविसगौं, एतेन यदुक्तम्-' अब्भोजे गमणाइ य' इत्यादिगाथायां 'दिईता तस्थिमा दोन्नि' तदया
मप्राधान्ये ७ ख्यातं, साम्पतं दार्शन्तिके योजनामाह
धानोंदा जह ते दसणकंखी अपूरिइच्छा विणासिया रण्णा । दिद्वेऽवियरे मुक्का एमेव इहं समोयारो ॥ २१६ ॥ व्याख्या-यथा ते दुर्वृत्ता दर्शनकाङ्गिणः अपूरितेच्छा अपि आज्ञाभनकारिण इति राज्ञा विनाशिताः, 'इतरे' च तृणकाष्ठाहारादयश्चन्द्रोदयोद्यानगता दृष्टेऽपि तैरन्तःपुरे आज्ञाकारित्वान्मुक्ताः, एवमेव इहापि आधाकर्मविषये 'समवतारो' योजना कार्या, सा चैवम्आधाकर्मभोजनपरिणामपरिणताः शुद्धमपि भुञ्जाना आज्ञाभङ्गकारित्वाकर्मणा बध्यन्ते, साधुवेषविडम्बकसाधुवन, शुद्ध गवेषयन्त | आधाकम्मोपि मुञ्जाना भगवदाज्ञाऽधनात् न बध्यन्ते, प्रियङ्कराभिधक्षपकसाधुवदिति ।। आषाकर्मभोजिनमेव भूयोऽपि निन्दतिआहाकर्म भुंजइ न पडिक्कमए य तस्स ठाणस्स । एमेव अडइ बोडो लुकविलुक्को जह कवोडो ॥ २१७ ॥
व्याख्या-य आधाकर्म भने न च तस्मात 'स्थानात आधाकर्मपरिभोगरूपात 'प्रतिकामति प्रायश्चित्तग्रहणेन निवर्तते. ॥७६ ।। स 'बोड: ' मुण्डो जिनाज्ञाभङ्गे निष्फलं तस्य शिरोलुश्चनादीति बोड इत्येवमधिक्षिपति, एवमेव निष्फलम् 'अति' जगति परिभ्रमति, अधिक्षेपसूचकमेव दृष्टान्तमाह-' लुकविलुको जह कवोडो' लुञ्चितविलुश्चितो यथा 'कपोत: ' पक्षिविशेषः, यथा तस्य लुश्चनमटनं च न
अनुक्रम [२३७]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२३९] » “नियुक्ति: [२१७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२१७||
धर्माय तथा साधोरप्याघाकर्मभोजिन इत्यर्थः, तत्र सामान्यतो लुञ्चनं बिच्छिच्या विशवरं वा लुञ्चनं बिटुञ्चनम् ॥ सम्पत्याधाकर्मद्वारमपसञ्जिहीर्घरौदेशिकं च द्वारं व्याचिख्यामुराह
आहाकम्मदारं भणियमियाणि पुरा समुद्दिढ । उद्देसियंति वोच्छं समासओ तं दुहा होइ ।। २१८॥
व्याख्या-भणितमाधाकर्मद्वारम्, इदानीं 'पुरा' पूर्वम् औदेशिकमिति यद्वारं समुद्दिष्टं तद्वक्ष्ये । तच्च समासतो द्विधा भवति, विध्यमाइ
ओहेण विभागेण य ओहे ठप्पं तु बारस विभागे । उद्दिट्ट कडे कम्मे एकेकि चउकओ भेओ ॥ २१९ ॥
व्याख्या-द्विविधपौशिक, तयथा-ओपेन विभागेन च, तत्र 'ओघः' सामान्य विभागः' पृथकरणम, इयं चात्र भावना-|| नादत्तमिह किमपि लभ्यते ततः कतिपया भिक्षा दद्म इति बुद्धया कतिपयाधिकतण्डुलादिप्रक्षेपेण यन्नित्तमशनादि तदोघौदेशिकम् ।
ओधेन' सामान्येन स्वपरपृथग्विभागकरणाभावरूपेणौदेशिकमोघौदेशिकमिति व्युत्पत्तेः, तथा वीवाहमकरणादिषु यदुद्धरितं तत् पृथकृत्वा दानाय कल्पितं सत् विभागौदेशिकं, विभागेन-स्वसत्ताया उचार्य पृथकरणेनौदेशिक विभागौदेशिकमिति व्युत्पत्ते, तत्र यत् 'ओपे ओघविषयमौदेशिकं तत्स्थाप्यं, नात्र व्याख्येयं किन्स्वने व्याख्यास्यते इति भावः, यत्तु 'विभागे' विभागविषयं तत् 'बारस 'त्ति 'सूच-181 नात्सूत्र 'मिति न्यायात् द्वादशधा-द्वादशप्रकारं । द्वादशभकारतामेव सामान्यतः कथयति- उदिह' इत्यादि, प्रथमतनिषा विभागौदेशिक, तद्यथा-उद्दिष्टं कृतं कर्म च, तब स्वार्थमेव निष्पन्नमशनादिकं भिक्षाचराणां दानाय यत् पृथकल्पितं तदुदिष्ट, यत्पुनरुद्धरितं सत् शाल्यो
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अनुक्रम [२३९]
Hirwastaram.org
अथ 'औदेशिक द्वारम् प्रतिपाद्यते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२४१] » “नियुक्ति: [२१९] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१९||
पिण्डनियु- दनादिकं भिक्षादानाय करम्बादिरूपतया कृतं तत्कृतमित्युच्यते, यत्पुनर्विवाहप्रकरणादावृद्धरित मोदकचूादि तद्योऽपि भिक्षाचराणां
औद्देशिके मेळयगि-E दानाय गुडपाकदानादिना मोदकादि कृतं तत्कर्मेत्यभिधीयते । एकैकस्मिन उद्दिष्टादिके भेदे 'चतुष्कको ' वक्ष्यमाणवतुःसङ्ख्यो भेदो। ar
द्वादशधा
विभागी भवति, जयश्चतृभिर्गुणिता द्वादश, ततो विभागौदेशिक द्वादशधा । सम्मत्योचौदेशिकस्य पूर्व स्थाप्यतया मुक्तस्य प्रथमतः सम्भवमाह॥ ७७ ॥ जीवामु कहवि ओमे निययं भिक्खावि कइवई देमो । हंदि हु नस्थि अदिन्नं भुज्जइ अकयं न य फलेई ॥२२०॥
____ व्याख्या-इह दुर्भिक्षानन्तरं केचिद्गृहस्था एवं चिन्तयन्ति-कथमपि ' महता कप्टेन जीविताः 'अवमे' दुर्भिक्षे ततः 'नियतं ' प्रतिदिवसं कतिपया भिक्षा दम्रो यतः 'हु' निवितं 'इन्दी ति स्वसम्बोधने नास्त्येतद् यदुत भवान्तरेऽदत्तमिह जन्मनि भुज्यते, नापीह भवेऽकृतं शुभं कर्म परकोके फलति, तस्मात्परलोकाय कतिपयभिक्षादानेन शुभं कर्मोपार्जयाम इत्योधीदेशिकसम्भवः । सम्पत्योघौदेशिकस्वरूपं कथयति| सा उ अबिसेसियं चिय मियंमि भत्तमि तंडुले छुहइ । पासंडीण गिहीण व जो एहिइ तस्स भिक्खट्ठा ॥२२१॥1
___ व्याख्या-सा तु गृहनायिका योषित प्रतिदिवसं यावत्पमाणं भक्तं पच्यते तावत्पमाण एव भक्ते पक्तुमारभ्यमाणे पाखण्डिनां गृहिणां वामध्ये यः कोऽपि समागमिष्यति तस्य 'भिक्षार्थ' भिक्षादानार्थम् 'अविशेषितमेव ' एतावत्स्वायमेतावच भिक्षादानामित्येवं विभागरदि-15
॥७७॥ तमेव तण्डुलान् अधिकतरान पक्षिपति, एतदोघौदेशिकम् । अत्र परस्य पूर्वपक्षमाशङ्कायोत्तरमाह
छउमत्थोघुद्देसं कहं वियाणाइ चोइए भणइ । उवउत्तो गुरु एवं गिहत्थसहाइचिट्ठाए ॥ २२२ ॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२४४] » “नियुक्ति: [२२२] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२२२||
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व्याख्या-छवस्था अकेवली कथमोघौदेशिक-पूर्वोक्तस्वरूपं विजानाति !, न धेचं छपस्थेन ज्ञातुं शक्यते, यथा नात्र स्वार्थमारभ्यमाणे पाके मिक्षादानाय कतिपयतण्डुलपक्षेप आसीदिति, एवं 'चोदिते ' प्रेरणे कृते गुरुभणति-' एवं ' वक्ष्यमाणपकारेण गृहस्थशब्दादिचेष्टायामुपयुक्तो-दत्तावधानो जानातीति । एतदेव भावयति| दिनाउ ताउ पंचवि रेहाउ करेइ देइ व गणंति । देहि इओ मा य इओ अवणेह य एत्तिया भिक्खा ॥ २२३ ॥
___ व्याख्या-यदि नाम भिक्षादानसङ्कल्पतः प्रथपत एवाधिकतण्डुलप्रक्षेपः कृतो भवेत् तहि माय एवं गृहस्थानां चेष्टाविशेषा भवेयुः, यथा दत्तास्ताः पञ्चापि भिक्षाः, इयमन भावना-कापि यदे मिक्षार्थे प्रविष्टाय साधने तत्स्वामी निजभाषया भिक्षा दापयति, सा च साधोः ||
शृण्वत एवेत्थं प्रत्युत्तरं ददाति-पथा ताः प्रतिदिवस सङ्कल्पिताः पश्चापि भिक्षा अन्यमिक्षाचरेभ्यो दत्ता इति, यहा-भिक्षा ददती || कादभिक्षापरिगणनाय भित्यादिषु रेखाः करोति, अथवा प्रथमेयं भिक्षा द्वितीये भिवेत्येवं गणयन्ती ददाति, यदिवा काचित् कस्या ||
अपि सम्मुखमेवं भणति-पथाऽस्मादुदिष्टदत्तिसत्कपिटकादेर्मध्यादेदि, मा च इत इति, अथवा प्रथमतः साधी विवक्षिते गृहे भिसाय प्रविष्टे || काचित्कस्याः सम्मुखमेवमाह-'अपनय' पृथकुरु विवक्षितात् स्थानादेवावतीभिक्षा भिक्षाचरेभ्यो दानायेति, तत एवमुल्लापश्रवणे रेखा-|| कर्षणादिदर्शने च छास्थेनाप्योघौदेशिकं ज्ञातुं शक्यते, ज्ञात्वा च परिहियते, ततो न कश्चिदोपः । अत्र चायं दृद्धसम्पदाया-सङ्कल्पितासु दत्तिणु दचासु पृथगुद्धृतासु वा शेषपशनादिकं कल्प्यमवसेयमिति । इहोपयुक्तः सन् शुद्धमशुद्धं वाऽऽहारं ज्ञातुं शक्रोति, नानुपयुक्तः, ततो गोचरविषयां सामान्यत उपयुक्तता प्रतिपादयति
सहाइएस साहू मुच्छं न करेज गोयरगओ य । एसणजुत्तो होज्जा गोणीवच्छो गवत्तिव्य ॥ २२ ॥
अनुक्रम [२४४]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२४६] » “नियुक्ति: [२२४] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियुक्तमेलगि रीयावृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२२४||
॥७८||
0000000000000000000000000
व्याख्या-इह साधुः 'गोचरगतः' भिक्षार्थ प्रविष्टः सन् 'शब्दादिषु' शब्दरूपरसादिषु मूर्छ न कुर्यात्, किन्त्वेषणायुक्त औदेशिक उद्मादिदोषणेवषणाभियुक्तो भवेत् , यथा गोवत्सः 'गवचिच 'त्ति गोभक्त इव ।। गोवत्सदृष्टान्तमेव गाथाद्वयेन भावयति
एषणोप
योगे गोवऊसव मंडणवग्गा न पाणियं वच्छए न वा चारि । वणियागम अवरण्हे वच्छगरडणं खरंटणया ॥ २२५ ॥
al त्सोदा. पंचविहविसयसोक्खक्खणी बहू समहियं गिहं तं तु । न गणेइ गोणिवच्छो मुच्छिय गढिओ गवत्तमि ॥ २२६ ॥
व्याख्या-गुणालयं नाम नगरं, तत्र सागरदत्तो नाम श्रेष्ठी तस्य भार्या श्रीमती नामा, श्रेष्ठिना च पूर्वतरं जीर्णमन्दिरं भइन्वत्वा प्रधानतरं मन्दिरं कारयामासे, तस्य च चत्वारस्तनयाः, तद्यथा-गुणचन्द्रो गुणसेनो गुणचूडो गुणशेखरच, एतेषां च तनयानां: क्रमेण चतस्र इमा वध्वः, तद्यथा-प्रियङ्गुलतिका प्रियङ्गुरुचिका प्रियङ्गुसुन्दरी प्रियङ्गसारिका च, कालेन च गच्छता श्रेष्टिनो भार्या मरणमुपजगाम, ततः श्रेष्ठिना मियङ्गलतिव सर्वगृहतप्ती निरोपिता, गृहे च सवत्सा गौर्विद्यते, तब गौर्दिबसे बहिर्गस्वा चरति, वत्सस्तु गृह : एच बद्धोऽवतिष्ठते, तस्मै च चारि पानीयं च चतस्रोऽपि वध्वो यथायोगं प्रयच्छन्ति । अन्यदा च गुणचन्द्रप्रियङ्गुलतिकापुत्रस्य गुणसागरस्य विवाहदिवस उपतस्थे, ततस्ताः सर्वा अपि वध्वस्तस्मिन् दिने सविशेषमाभरणविभूषिताः स्वपरमण्डनादिकरणब्यापृता अभूवन , ततो वत्सस्तासां विस्मृतिं गतो, न कयाचिदपि तस्मै पानीयादि दौकितं, ततो मध्याह्ने श्रेष्ठी यत्र प्रदेशे वत्सो वत्तेते तत्र कथमपि समा-|| यातः, वत्सोऽपि च श्रेष्ठिनमायान्तं पश्यन्नारटितुमारब्धवान्, ततो जज्ञे श्रेष्टिना-यथाऽद्यापि बत्सो बुभुक्षितस्तिष्ठतीति, ततः कुपितेन तेन ता: सर्वा अपि पुत्रवध्वो निभेसयामासिरे, ततस्त्वरितं प्रियङ्गलतिका अन्या च यथायोग चारि पानीयं च गृहीत्वा बत्साभिमुखं चचाल,
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अनुक्रम [२४६]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२४८] » “नियुक्ति: [२२६] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२२६||
दीप
वत्सश्च ताभिः मुरसुन्दरीभिरिव समलङ्कृतमपि तादर्श गृहं नाक्लोकते, नापि ताः सरागदृष्टया वधूः परिभावयति, किन्तु तामेव केवला मचारि पानीयं वा समानीयमानं सम्यक् परिभावयति । सूत्रं सुगम, नवरं 'पञ्चविह' इत्यादि, पञ्चविधविषयसौख्यस्य खनय इव खनयो ।
या वध्वस्ताभिः 'सपधिकम् ' अतिशयेन रमणीयतया अधिकतरं तद्दं 'न गणपति' न दृष्टया परिभावयति, नापि ता वधूः, एवं साधु-1 रपि भिक्षार्थमटन्न रमणीया रमणीरवलोकयेत्, नापि गीतादिषु चितं निवनीयात्, किन्तु भिक्षामात्रानयनदानायुपयुक्तो भवेत , तथा च सति शास्यति शुदमशुद्धं वा भिक्षादिकम् । तथा चाहI गमणागमणुक्खेवे भासिय सोयाइइंदियाउत्तो । एसणमणेसणं वा तह जाणइ तम्मणो समणो ॥ २२७ ॥ ___ व्याख्या गमनं' साघोभिक्षादानार्थ भिक्षानयनाय दाव्या ब्रजनम् 'आगमनं ' भिक्षां गृहीत्वा साधोरभिमुखं चलनम् | उस्लेपः' भाजनादीनामूर्ध्वमुत्पाटनम् , उपलक्षणमेतत, तेन निक्षेपपरिग्रहः, ततो गमनादिपदानां समाहारो इन्दः तस्मिन् , तथा 'भाषि-18|| तेषु' जल्पितेषु देहि भिक्षामस्मै साघवे इत्यादिरूपेषु श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैरुपयुक्तः, तथा वत्स इव 'तन्मना: ' स्खयोग्यभक्तपानीयपरिभावनमनाः सन् श्रमण एषणामनेषणां वा सम्यग् जानाति, ततो न कश्चिदोषः । उक्तमोघौदेशिक, सम्पति विभागौदेशिकं विभणिषुः । प्रथमतस्तावत्तस्य सम्भवमाह
महईए संखडीए उव्वरियं कूरवंजणाईयं । पउरं दट्टण गिही भणइ इमं देहि पुण्णहा ॥ २२८ ॥
व्याख्या-इह सङ्खडि म विवाहादिकं प्रकरणं, सङ्खड्यन्ते-व्यापाद्यन्ते प्राणिनोऽस्यामिति सङ्खदिरिति व्युत्पत्तेः, तस्यां सङ्खयां । यदुद्धरित 'कूरव्यञ्जनादिक' शाल्योदनध्यादिकं प्रचुरं, तदृष्ट्वा गृही भणति स्वकुटुम्बतप्तिकारक मानुष-यथेदं देहि पुण्यार्थ भिलाच
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२५१] » “नियुक्ति: [२२८] + भाष्यं [२३] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२३||
धाः
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पिण्डनियु-रेभ्यः । तत्र यदा यथैवास्ति तथैव ददाति तदा तदुद्दिष्ट, यदा तु तदेयं करम्बादिकं करोति तदा तत्कृतं,यदा तु मोदकादिचूर्ग भूयोऽपि औद्देशिगुटपाकदानादिना मोदकादि करोति तदा तत्कर्म, एवं विभागौदेशिकस्य सम्भवः । तथा चाह भाष्यकृत
| कभेदाः रीयावृत्तिः
। तत्थ विभागुहेसियमेवं संभवइ पुब्बमुदिई । सीसगणहियढाए तं चेव विभागओ भणइ ॥ ३२ ॥ (भा.) भा० २३ ॥७९॥ व्याख्या-तत्रोद्धरिते प्रचुरकूरादौ एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण विभागौदेशिक पूर्वमुदिष्ट सम्भवति । सम्पति तदेव विभागौद्देशिक |
विभागतो भेदेन शिष्यगणहितार्थ ग्रन्थकारो भणति
उद्देसियं समुद्देसियं च आएसियं समाएसं । एवं कडे य कम्मे एकेकि चउको भेओ ॥ २२९ ॥
व्याख्या-उदिष्टं' विभागौदेशिक चतुर्दा, तद्यथा-औदेशिक समुद्देशिकमादेशं समादेशं च, एवं कृते च कर्मणि च एकैकस्मिन् 'चतुष्कः' चतुःसङ्ख्यो भेदो दृष्टः, सर्वसङ्ख्यया द्वादशधा विभागौदेशिकम् ॥ सम्मत्यौदेशिकादिकं व्याचिख्यासुराह---
जावंतियमुद्देसं पासंडीणं भवे समद्देसं । समणाणं आएसं निग्गंथाणं समाएसं ॥ २३०॥ व्याख्या-इह यत् उदिष्ट कृतं कर्म वा यावन्तः केऽपि भिक्षाचराः समागमिष्यन्ति पाखडिनो गृहस्था वा तेभ्यः सभ्योऽपि दातव्यमिति सङ्कल्पितं भवति तदा तदौदेशिकमुच्यते, पाखण्डिनां देयत्वेन कल्पितं समुदेश, श्रमणानामादेश, निन्यानां समादेशं । । ७९ सम्पत्यमीषामेव द्वादशानां भेदानामवान्तरभेदानाह
छिन्नमछिन्नं दुविहं दब्वे खेत्ते य काल भावे य । निष्काइयनिष्फन्नं नायध्वं जं जहिं कमइ ॥ २३१ ॥
अनुक्रम [२५१]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२५४] » “नियुक्ति: [२३१] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२३१||
दीप अनुक्रम [२५४]
व्याख्या-उदिष्टमुदेशादिकं प्रत्येक द्विधा, तयथा-छिन्नमच्छिन्नं च, छिन्नं नियमितम् अच्छिमपनियमितं, पुनरपि छिन्नमच्छिन। | च चतुर्दा, तद्यथा-द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च, एवं यथा उद्दिष्टमौदेशिकादि प्रत्यकेमष्टधा तथा निष्पादितनिष्पनामिति निष्पादितेन-गृहिणा स्वार्थ कृतेन निष्पन्नं यत् करम्बादि मोदकादि वा तनिष्पादितनिष्पन्नमित्युच्यते, ततो यन्निष्पादितनिष्पन्नं यत्र कते कणि वा 'क्रामति घटते, यथा यदि करम्बादि वहिं कृते अथ मोदकादि तहि कर्मणि, तत्पत्त्येकादेशिकादिभेदभिन्नं छिन्नमच्छिन्नं चेत्यादिना प्रकारेणाष्टधा ज्ञातव्यम् ।। सम्पत्यमुमेघ गाथार्थ व्याचिख्यासुः प्रथमतो द्रव्यायच्छिन्नं व्याख्यातिभत्तुवरियं खलु संखडीएँ तदिवसमन्नदिवसे वा । अंतो बहिं च सव्वं सबदिणं देहि अच्छिन्नं ॥ २३२ ॥
व्याख्या-यत् ससाड्यां भक्तमुद्धरित प्रायः प्राप्यते इति सङ्कुडिग्रहणम् , अन्यथा वन्यदापि यथासम्म द्रष्टव्य, तदिवसमिति 'व्यत्ययोऽप्यासा 'मिति प्राकृतलक्षणवशात् सप्तम्यर्थे प्रथमा, ततोऽयमर्थः-यस्मिन् दिवसे सलादः तस्मिन्नेव दिवसे, यहा-अन्य-18 स्मिन् दिवसे गृहनायको भार्यादिना दापयति, यथा यदन्तहस्य यच्च वदिः, अनेन क्षेत्राच्छिममुक्तं, तत् सर्व-सपस्तम् । अनेन द्रव्याच्छिन्नमुक्तं 'सर्वदिन' सकलमपि दिनं यावद् , उपलक्षणमेतत् तेन कर्मरूपं मोदकादि प्रभूतान्यपि दिनानि यावदिति द्रष्टव्यम् , अनेन | कालाच्छिन्नमुक्तम्, अच्छिन्नम्-अनवरतं देहि, भावाच्छिन्नं तु स्वयमभ्यूद्यं, तचैव-यदि तव रोचते यदिवा न रोचते तथाप्यवश्यं दातव्यमिति । सम्पति द्रव्यादिच्छिन्नमाह
देहि इमं मा सेसं अंतो बाहिरगयं व एगयरं । जाव अमुगत्तिवेला अमुगं बेलं च आरम्भ ॥ २३३ ॥
००००००००००
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२५६] » “नियुक्ति: [२३३] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२३३||
दीप
पिण्डनियु- व्याख्या--दर्द शाल्पोदनादिकमुद्धरितं देहि मा 'शेष' कोद्रवकूरादि, अनेन द्रव्यच्छिन्नमुक्तं, तदपि च शाल्पोदनादिकमन्तळ- २ औदेशिकेमेळयगि-18वस्थितं पहियवस्थितं वा एकतरं न शेषम्, अनेन क्षेत्रच्छिन्नमुक्तं, तथाऽमुकस्या वेलाया आरभ्य यावदमुका बेला, यथा प्रहरादारभ्य। कभेदाः रीयादृत्तिः यावत्महरद्वयं तावदेहि, अनेन कालच्छिन्नमुक्तं, भावच्छिन्नं तु स्वयमभ्यूय, तथैवं यावत्तव रोचते तावदेहि मा स्वरुचिमतिक्रम्यापि ।।
गाया ।। ८०॥ सम्पत्युदिष्टमधिकृत्य कल्प्याकल्प्यविधिमाद
| दवाईछिन्नपि हु जइ भणई आरओऽवि मा देह । नो कप्पइ छिन्नपि हु अच्छिन्नकडं परिहति ॥ २३४ ॥
ब्याख्या-रह यदू द्रव्यक्षेत्रादिभिः पृथग्निर्धारितं तदतिरिच्य शेषं समस्तमपि कल्पते, तस्य दानार्थं सङ्कल्पितत्वाभावात् केवलं द्रव्यादिच्छिन्नमपि-द्रव्यक्षेत्रादिभिः पृथनिर्धारितमपि 'हुः' निश्चितं यदि गृहस्वामी आरत एव-देयस्य वस्तुनो नियतादवधेरागपि भणति, यथा मा इत ऊर्च कस्मायपि देहीति, यथा महरदयं यावत्पूर्व किश्चिदातुं निरोपितं, ततो दानपरिणामाभावादयोगेव निषेधति'मा इत ऊर्च दद्या'दिति तदा तच्छिन्नमपि कल्पते, तस्य सम्पत्यात्मीयसचाकीकृतत्वात, यत्पुनरच्छिमकृतमच्छिन्नम्-अनिद्धारित कृतं वर्तते तत्परिहरन्ति, अकल्प्यत्वात् , इत्थमेव भगवदाज्ञाविज़म्भणात्, यदा वच्छिन्नमपि पवादानपरिणामाभावादवोगेवात्मार्थी कृतं भवति तदा तस्कल्पते । सम्पति सम्पदानविभागमधिकृत्य करण्याकल्प्यविधिमाह
॥ ८ ॥ अमुगाणंति व विजउ अमुकाणं मित्ति एत्थ उ बिभासा । जत्थ जईण विसिट्ठो निद्देसो तं परिहरंति ॥ २३५॥ व्याख्या-अमुकेभ्यो दद्यात् माऽमुकेभ्य इत्येवं सम्पदानविशेषविषये सङ्कल्पे कृते विभाषा द्रष्टव्या, कदाचित्कल्पते कदाचिन्न,
अनुक्रम [२५६]
weredturary.org
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२५८] » “नियुक्ति: [२३५] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२३५||
दीप
जातन्त्र यदा कल्पते यदा च न तदाह-'जत्थेत्यादि, यत्र देये वस्तुनि यतीनामप्यविशेषेण निर्देशो भवति, यथा ये केचन ग्रहस्था अग्रहस्था हवा भिक्षाचरा यदिवा ये केचित्पाखण्डिनो यद्वा ये केचन श्रमणास्तेभ्यो दातव्यमिति तत्परिहरन्ति, यत्र तु यतीनामेव विशेषेण निर्देशो।
यथा यतिभ्यो दातव्यमिति तत्परिहरन्त्येव नात्र कश्चित्सन्देह इति तत्पृथग्विशेषेण नोक्तं, यदि पुनहस्थेभ्य एव दीयता, यदिवा चरकादिभ्य एवं पाखण्डिभ्यो न शेषेभ्यस्तदा कल्पते, अपि च____ संदिरसंतं जो सुणइ कप्पए तस्स सेसए ठवणा । संकलिय साहणं वा करेंति असुए इमा मेरा ॥ २३६ ॥
व्याख्या-पन्नाचाप्यौदेशिकं जातं वर्तते केवलं तदानीमेवोद्दिश्यमानं वर्तते, यथा इदं देहि मा शेषमित्यादि, तत्सन्दिश्यमानमअर्थिभ्यो दानाय बचनेन सङ्कलप्पमानं यः साधुः शृणोति तस्य तत्कल्पते तदैव, दोषाभावात, तदपि च उदिष्टौदेशिकादि द्रष्टव्य, ना कृतं कर्म च, यत उक्तं मूलटीकायाम्-"अत्र चायं विधिः-संदिस्संतं जो मुणइ साह उदेसुदेस पडवन य कटकम्माई, तं कप्पए| तदैव दोषाभावा"दिति । यस्तु सन्दिश्यमानं न शृणोति तस्य न कल्पते, कुतः? इत्याह-'ठवगति स्थापनादोपात्, सच
निर्गतः सन्नन्येभ्यः साधुभ्यो निवेदयति, तथा चाह-'सङ्कलिए त्यादि 'अश्रुतेः शेषसाधुभिरनाकर्णिते इयं पूर्वपुरुषाचीर्णा मर्यादा, यदुत हसनलिकया एका सङगटकोऽन्यस्मै कथयति सोऽप्यन्यस्मायित्येवंरूपया 'साहणं' कथनं करोति, वाशब्दो यदि साधयो बहुप्रमाणास्त
देकस्यावस्थानमिति सूचनार्थः, स सर्वेभ्यो निवेदयति, यथा माऽस्मिन् गृहे ब्राजिषुः, अनेषणा वर्चत इति । एवपपि यैः सङ्घाटकैः नयमपि न ज्ञातं भवति तेषां परिज्ञानोपायमाह
___ मा एयं देहि इमं पुढे सिलुमि तं परिहरति । जं दिन्नं तं दिन्नं मा संपइ देहि गेहति ।। २३७ ॥
कककककककक०००००००००००००कककककक
अनुक्रम [२५८]
RELIGunintentrated
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२६०] » “नियुक्ति: [२३७] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियु
तर्मलयगि
रीयाचिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२३७||
॥८
॥
दीप अनुक्रम [२६०]
व्याख्या-साधुनिमित्त कुतोऽपि स्थानादू भिक्षामाददती कयाचिनिषिध्यते-मैतदेहि, किन्विद विवक्षितभाजनस्थं देहि, तत२ औद्देशिएवं कृते निषेधिते साधुः पृच्छति-किमेतनिषिध्यते ?, किंवा इदं दाप्यते ? इति, ततः सा पाह-इदमेव दानाय कालेपतं, नेदमिति के दोष तत एवं शिष्टे' कथिते साधवस्तत्परिहरन्ति, यदि पुनर्यदत्तं तदनं मा शेष सम्पति दद्यादिति निषिध्यात्मार्थीकृतमौदेशिकं भवति । झानहतु: तदा तत्कल्पते इतिकृत्वा गृहन्ति, तदेवमुक्तमुद्दिष्टोदेशिकं । सम्पति कृतौदेशिकस्य सम्भवहेतून स्वरूपं च प्रतिपादयति
रसभायणहेउं वा मा कुच्छिहिई मुहं व दाहामि । दहिमाई आयत्तं करेइ कूरं कडं एयं ॥ २३८ ॥
मा काहंति अवण्णं परिकलियं व दिजइ सुहं तु । वियडेण फाणिएण व निद्वेण समं तु वट्टति ॥२३९॥
व्याख्या-रसेन ' दध्यादिना रूद्धमिदं भाजनं तस्मादेतेन दध्यादिना यदुद्धरितं शाल्योदनादि तत् करम्बीकृत्य रिक्तमिदं भाजनं करोमि येनान्यत्मयोजनमनेन क्रियते इति रसभाजनहेतोः, यदा-इदं दध्यादिनामिथितं कोषिष्पति, न च कुथितं पाखण्डचा-1 दिभ्यो दातुं शक्यते, यद्वा-दध्यादिसम्मिश्रमेकेनैव प्रयासेन सुखं दीयते, इत्यादिना कारणजातेन 'दध्यायायत्तं दध्यादिसम्मिश्र| करोति 'कूरम् ' ओदनम्, एतत् कृतं ज्ञातव्यं, तथा यदि भिन्नभिन्नमोदकाशोकवादिचूर्णीदास्यामि ततो मे पाखण्डचादयः अवणम् ।। अश्लाघां करिष्यन्ति, यद्वा-'परिकलितम् ' एका पिण्डीकृतं मुखेन दीयते, अन्यथा क्रमेण मोदकाशोकवस्यादिचूगी: स्वस्वस्थानादानीयानीय दाने भूयान् गमनागमनप्रयासो भवति, अपान्तराले वा सा चूर्णिहस्तात् क्षरित्वा पति, ततो विकटेन' मयेन देशविशेषापे
||८१॥ क्षमेतत् , यदा-'फाणितेन' ककवादिना यदा 'निग्धेन' घृतादिना मोदक चूर्णादि सा वर्तयन्ति' पिण्डतया बनन्ति । अत्र द्वयोरपि | गाथयोः पूर्वार्द्धाभ्यां सम्भवहेतच उक्ताः, उत्तराद्धाभ्यां तु स्वरूपम् । सम्मति कपाँदेशिकस्य सम्भवहेतून् स्वरूपं चातिदेशेनाह
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२६३] » “नियुक्ति: [२४०] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२४०||
एमेव य कम्ममिऽवि उण्हवणे नवरि तत्थ नाणत्तं । तावियत्रि लीगएणं मोयगचुन्नी पुणकरणं ॥ २४ ॥
व्याख्या-यथा कृतस्य सम्भवः स्वरूपं चोक्तम् एवं कर्मण्यपि द्रष्टव्यं, नवरं तत्र कर्मणि 'उष्णापने उम्गीकरणे 'नानाव विशेषः, तथाहि-तापितविलीनेन' तापितेन विलीनेन च गुडादिना मोदकाः पुनर्मोदकत्वेन करणं नान्यथा, तथा तुवर्यादिभक्तमपि राज्युपितं द्वितीयदिने भूयः संस्कारापादनेन कर्पतया निष्पाद्यमानं नानिमन्तरेण निष्पाद्यते ततोऽवश्यं कर्मयुषणायने नानात्वम् । सम्पत्यत्रैव कल्प्याकलयविधिमाह
अमुगंति पुणो रडं वाहमकप्पं तमारओ कप्पं । खेत्ते अंतो बाहिं काले सुइव्वं परेव्वं वा ॥ २४१ ॥ ___व्याख्या-भिक्षार्थ प्रविष्ट साधु पनि यदि गृहस्थो भणति-यथाऽन्यस्मिन् गृहे विहत्य व्यावर्तमानेन त्वया भूयोऽपि महे समागन्तव्यं, यतोऽहम् 'अमुकं' मोदकचूोदि भूयोऽपि राद्धं गुडपाकादिदानेन मोदकादि कृत्वा दास्यामि, एवमुक्के तथाकृत्वा चेद-16 दाति तहि तन्न कल्पते, कम्मौदेशिकत्वात् , 'आरात् ' भूयः पाकारम्भादक पुनः कल्प्य, दोषाभावात् , तथा क्षेत्रेऽन्तर्वहिवा काले वस्तनं परतरदिनभवं वाऽकल्प्यमारत: कल्प्यम्, इयमत्र भावना-पद गृहस्पान्तबहिर्वा मोदकचूपादिक मोदकादितयोपस्करिष्यामि | कालविवक्षायां यदय श्वः परतरे वा दिने भूयोऽपि पक्ष्यामि तनुभ्यं दास्यामीत्युक्ते तथैव चेकवा ददाति ततो न कल्पते, भूयोऽपि पाकादू, आरतस्त्वसंसक्तं कल्पते । तथा चाह
जं जह व कयं दाहं तं कप्पइ आरओ तहा अकयं । कयपाकमणित्ति ठियपि जावत्तियं मोत्तं ॥२४२॥
दीप अनुक्रम [२६३]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२६६] » “नियुक्ति: [२४२] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२r . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२४२||
पिण्डनियु- व्याख्या-यत् सामान्यतो द्रव्यं यदा-यथा क्षेत्रनिर्धारणेन वा भूयोऽपि कृतं दास्यामीत्युक्ते तथैव कृतं चेददाति न कल्पते, 18 औदेशिकर्मळयनि- तथाऽकृतं तु भूयोऽपि पाकादारतः कल्पते, यत्तु निर्धारितक्षेत्रकालव्यतिरेकेण पच्यते तन्न दातुं सङ्कल्पितमिति कल्पते, यत्तु क्षेत्रका के कर्मभेदः रायाहात्तःगलनिद्धारणमविवक्षिचव सामान्यतो भूयोऽपि पक्त्वा दास्यामीति सङ्कल्पितं तदन्तर्बहिर्वा श्वस्तने परतरदिने वा न कल्पते । अथ प्रातदाप कम्मीदेशिकं कृतपाकमात्मा कृतमपि यावदक्षिक मुक्त्वा शेषमनिट-नानुज्ञातं तीर्थकरगणधरैः, यावदर्षिक वात्माकृितं कल्पते । अ-11
तद्भदौ थाऽऽधाकर्मिमककम्मोंदेशिकयोः कः परस्परं प्रतिविशेषः?, उच्यते, यत् प्रथमत एवं साध्वर्थ निष्पादितं तदाधाकमें, यत् प्रथमतः सद् भूयोऽपि पाककरणेन संस्क्रियते तत्कम्मैदेशिकमिति । उक्तमौदेशिकद्वार, सम्पति पूतिद्वारं वक्तव्यं-पूतिचतुर्दा, तयथा-नामपूतिः । | स्थापनापूर्तिद्रव्यपूतिर्भावपूर्तिश्च, तत्र नामस्थापने मुझानत्वादनादृत्य द्रव्यभावपूती प्रतिपादयति
पूईकम्मं दुविहं दब्वे भावे य होइ नायव्वं । दव्वंमि छगणधम्मिय भावमि य बायर सुहुमं ॥ २४३ ॥
व्याख्या-पूतिकर्म' पूतीकरणं द्विधा, तद्यथा-'द्रव्ये द्रव्यविषयं 'भावे भावविषय, तत्र द्रव्ये 'छगगधार्मिकः' मोमयोपलक्षितो धार्मिको दृष्टान्तः । भावविषयं पुनधिा-बादरं सूक्ष्मं च, इइ यद् द्रव्यस्य पूतिकरणं तद् द्रव्यपूतिः, येन पुनद्रेव्येण भावस्य पूतिकरणं तद् द्रव्यमप्युपचाराद् भावपूतिः, ततो वक्ष्यमाणमुपकरणादि भावपूतित्वेनाभिधीयमानं न विरुध्यते । तत्र प्रथमतो द्रव्यपूति
दीप
अनुक्रम [२६६]
गंधाइगुणसमिदं जं दव्वं असुइगंधदब्वजुयं । पूइत्ति परिहरिज्जइ तं जाणसु दव्वपूइत्ति ॥ २४४ ॥
E
अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते. सा मया संपादित: 'आगमसुत्ताणि' मूलं वा सटीकं पुस्तके वर्तते
... अथ पुतिकर्म-दोषस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२६८] » “नियुक्ति: [२४४] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२४४||
दीप
व्याख्या-इह यत् पूर्व स्वरूपतो 'गन्धादिगुणविशिष्टं' सुरभिगन्धादिगुणविशिष्टमपि, अपिरत्र सामानम्पते, पश्चादशचि-12 गन्धद्रव्ययुक्तं सत् गृतिरिति परिहियते तद्व्यं जानीहि द्रव्यपूतिरिति । अत्रार्थे गाथाद्वयेनोदाहरणमाह
गोष्ठिनिउत्तो धम्मी सहाएँ आसन्नगोष्ठिभत्ताए। समियसुरवल्लमीसं अजिन्न सन्ना महिसिपोहो ॥ २४५॥ : संजायलित्चभत्ते गोहिगगंधोत्ति वल्लवणिआयो । उक्खणिय अन्न छगणेण लिंपणं दब्वपूई उ॥ २४६ ॥ ____ व्याख्या-समिल्लं नाम पुरं, तत्र वहिरुद्याने सभाकलितदेवकुलिकायां माणिभद्रो नाम यक्षः, अन्यदाच तस्मिन् पुरे शीतलकाभिधमशिवमुपतस्थे, ततः कैश्चित्तस्य यक्षस्यौपयाचितकमिष्टुं यद्यस्मादशिवायं निस्तरामस्ततस्तपैक वर्षमष्टम्यादिषयापनिका करिष्यामः, ततो निस्तीर्णाः कथमपि तस्मादशिवात् , जातश्च तेषां चेतसि चमत्कारो यथा नूनमयं समातिहार्यो यक्ष इति, ततो देवशर्माभियो भाट-18 कादानेन पूजाकारको बभणे, यथा वर्षमेकं यावदष्टम्यादिषु प्रातरेव यक्षसभां गोमयेनोपलिम्पेः, येन तत्र पवित्रीभूतायां क्यमागत्योयापनिकां कर्मः, तथैव सेन प्रतिपन, ततः कदाचियोद्यापनिका भविष्यतीतिकृत्वा सभोपलेपनार्थमनुद्रत एव सूर्य कस्यापि कुटुम्बिनी गोपाटके छगणग्रहणाय प्रविवेश, सत्र च केनापि कर्मकरण रात्री मण्डकवल्लमुरायभ्यवहारतो जाताजीर्णेन पश्चिमरात्रीभागे तस्मिन्नेव । गोपाटके क्वचित्पदेशे दुर्गन्धमजीर्ण पुरीष व्युदसजि तस्य चोपरि कथमपि महिपी समागत्य छगणपोई मुक्तवती, ततस्तेन स्थगितं तद-15 जीर्ण पुरीष देवशर्मणा न ज्ञातमिति देवशर्मा त छगणपोई सकलमपि तथैव गृहीत्वा तेन सभामुपलिप्तवान् , उद्यापनिकाकारिणश्च जना नानाविधमोदनादिकं भोजनमानीय यावद् भोजनार्थं तत्रोपविशन्ति तावत्तेपामतीव दुरभिगन्धः समायातः, ततः पृष्टो देवशमों, यथा कुतो-18 यमशुचिगन्धः समायाति? इति, तेनोक्तं-न जाने, ततस्तैः सम्यक् परिभावयद्भिरुपलेपनामध्ये बल्लाद्यवयवा ददृशिरे सुरागन्धश्च नितिः,
अनुक्रम [२६८]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२७०] » “नियुक्ति: [२४६] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
तोदा.उ.
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२४६||
द्रमकोटीचे
पिण्डनियु- ततो जज्ञे यदुपलेपनमध्ये पुरीषमपतिष्ठते इति, ततः सर्वं भोजनमशुचीतिकृत्वा परित्यक्तम्, उपलेपनं च समूलमुत्खातम्, अन्येन च गोम-18| पूतिदोपे कमळयाग- येन सभोपलेपिता, भोजनादिकं चान्यत् पक्त्या भुक्तमिति । सूर्य मुगम, नवरं 'धमी' धार्मिक, 'समियात्ति मण्डकाः 'सज्ञा' पुरीषम् सभोपलेपरीयाचिः
18|अत्र यदुपलेपनं यच्च तत्र न्यस्त भोजनादिकं तत्सर्वं द्रव्यपृतिः ॥ उक्ता द्रव्यपुतिः, अथ भावपूतिमाह॥ ८३ ॥
उग्गमकोडिअवयवमित्तेणवि मीसियं सुसुद्धपि । सुद्धपि कुणइ चरणं पूई तं भावओ पूई ॥२४७ ॥ ___व्याख्या-'उद्गमस्या उद्गमदोपजालस्य या कोटयोऽस्त्रयः विभागा आधाकादिरूपा भेदा इत्यर्थः, ताश्च द्विधा-विशोधयोऽवि-18 शोधयश्च, तबेदाविशोधयो ग्राह्याः, तासामविशोधिरूपाणामुद्रमकोटीनामवयवमात्रेणापि मिश्रितपशनादिकं स्वरूपतः सुशुद्धमपि' उद्गमादिदोपरहितमपि सत् यद् भुज्यमानं चरणं 'शुद्धमपि । निरतिचारमपि पूर्ति करोति, तदशनादिकं भावपतिः। 'उनगमकोडी' इत्युक्त, ततस्ता एवोद्गमकोटीभिषितसुराह
आहाकम्मुद्देसिय मीसं तह बायरा य पाहुडिया। पूई अज्झोयरओ उग्गमकोडी भवे एसा ॥ २४८ ॥ व्याख्या-आधाकर्म सकलं तथा औदेशिकं यावदर्थिक मुक्त्वा शेष कमदेिशिक 'मिड' पाखण्डिसाधुमिश्रजातं बादरा च प्राभतिका प्रतिः भावतिः अध्ययपूरकश्चोत्तरभेदद्वयात्मकः, एपा भवति उद्गमकोटिरविशोषिकोटिरूपा, तदेवं भावपूर्ति स्वरूपत उपदश्य ॥८ ॥ सम्पति भेदत आह
बायर सुहम भावे उ पूइयं मुहुममुवरि वोच्छामि । उवगरण भत्तपाणे दुविहं पुण बायरं पूई ॥ २४९ ॥
दीप अनुक्रम [२७०]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२७३] .→ “नियुक्ति: [२४९] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२४९||
व्याख्या-भावे भावविषया पूतिधिा, तद्यथा-वादरा सूक्ष्मा च, सूत्रे च नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात् , तत्र समां भावपूर्तिमुपरि वक्ष्ये, बादरा पुनर्द्विधा, तद्यथा 'उपकरणे' उपकरणविषया 'भक्तपाने' भक्तपानविषया , नत्र भक्तपानपूर्ति सामान्यतो व्याचिख्यासुराह
चुल्लुक्खलिया डोए दब्बीछूढे य मीसगं पूई । डाए लोणे हिंगू संकामण फोडणे धूमे ॥ २५ ॥
ध्याख्या-चली प्रतीता. 'उखा' स्थाली 'डोयः वृहदारुहस्तकः, महावटक इत्यर्थः, 'दबी लघीयान् दारुहस्तकः, एतानि || याच सर्वाण्याधाकादिरूपाणि द्रव्यानि, सर्वत्रापि च तृतीयायें सप्तमी, ततोऽयमर्थः-एतैः सम्मिश्रं शुद्धमपि यदशनादि तत् प्रतिः । तत्र चुल्लयुखाभ्यां मिश्रिताभ्यां कृत्वा रन्धनेन यद्वा तत्र स्थापनेन, तथा 'डाय शाकं लवणं हिङ्गु च प्रतीतम् , एतैराधाकर्मिकैः सम्मिश्र पूतिः, तथा 'संक्रामणस्फोटनधूमः' इति, तत्र संक्रामणम्-आधाकर्मभक्तादिखरण्टिते स्थाल्यादौ शुद्धस्याशनादेः पचन मोचनं वा, यद्वा दारुहस्तेनाधाकर्मणाऽन्यत्र स्थाल्यां सञ्चारणं, स्फोटनम्-आधाकर्मणा राजिकादिना संस्कारकरणं धूमः-हिङ्ग्वादिसत्को वधारः ।। एनामेव गायां च्याचिख्यामुः प्रथमत उपकरणशब्दं व्याख्यानयति
सिझंतस्सुवयारं दिजंतस्स व करेइ जं दच्वं । तं उवकरणं चुल्ली उक्खा दध्वी य डोयाई ॥ २५१ ॥
व्याख्या-यच्चुल्यादिकं सिद्धयतोऽन्नस्य, यद्वा यदादिकं दीयमानस्य भक्तस्योपकारं करोति तच्चयादिकं दादिकं च उपकरणम्' इत्युच्यते, उपक्रियते अनेनेत्युपकरणमितिव्युत्पत्तेः । तत्र चुल्युखयोः स्थितमशनादिकमाश्रित्य कलप्पाकलप्पविधिमाह
दीप
अनुक्रम [२७३]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२७६] » “नियुक्ति: [२५२] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
1
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२५२||
दीप
पिण्डनियु- चुल्लुक्खा कम्माई आइमभंगेसु तीसुवि अकप्पं । पडिकुडं तत्थत्थं अन्नत्थगयं अणुन्नायं ॥ २५२ ॥ ३पूतिदोष तेर्मलयागि
भास्वरूपभेदो रीयाचिः व्याख्या-इह चुल्युखे कदाचिद् द्वे अप्याधाकम्भिके आधार्मिककर्दमसम्मिश्रे वा भवेता, कदाचिदेकतरा काचित्, तत्र च भङ्गा
चत्वारः, तथथा-चुल्ली आधाकर्मिकी उखा च १ चुल्ली आधाकर्मिकी नोखा २ उखा आधार्मिकी न चुल्ली ३ नोखा आधाकर्मिकी ॥८४॥
नापि चुल्ली ४ । तत्रादिमेषु विष्वपि भनेषु रन्धनेनावस्थानमात्रेण वा स्थितमकल्प्यं पूतिदोषात् । अकल्प्यस्यापि तस्य विषयविभागेन । कल्ल्यतामकलप्यतां चाह-तत्र'चुल्यादौ रन्धनेनान्यतो वाऽऽनीय स्थापनेन स्थितं सत 'प्रतिकुष्ठं ' निराकृतम् , अन्यत्र गतं पुनस्तदेनावानुज्ञातं तीर्थकरादिभिः, इयमत्र भावना-पदि तत्र राद्धमधवाऽन्यतः समानीय स्थापितं ततो यदि तदेवान्यत्र स्वयोगेन नीतं भवति नका
साध्वर्थ तर्हि कल्पते । तदेवं चुट्युखास्थितस्य कल्प्याकल्प्यविधिमुपदर्य सम्पति चुल्याद्युपकरणानां पूतिभावं दिदर्शयिषुः 'चुलुक्खलिया डोए' इति पूर्वोक्तगाथावयवं ब्याख्यानयति
कम्मियकद्दममिस्सा चुल्ली उक्खा य फड्डगजुया उ । उवगरणपृइमेयं डोए दंडे व एगयरे ॥ २५३ ॥
व्याख्या-आधाकम्मिकेन कईमेन या मिश्रा, किमुक्तं भवति ?-कियता शुद्धेन कियता चाधाकर्मिकेण या निष्पादिता चुल्ली || उखा च सा आधाकर्मिककर्दममिश्रा, कथम् ? इति, आह-'फगजुया उत्ति, अत्र हेती प्रथमा ततोऽयमय:-यतः फहगेन-आधाकमिकेन कर्दमसूचकेन युता तत आधार्मिककर्दम मिश्रा, सा इत्थंभूता उपकरणप्रतिः, तथा 'डोए' इति देशे समुदायशब्दोपचारात डोय । इत्युक्ते डोयस्याग्रभागो गृह्यते, तस्मिन् यद्वा दण्डे एकतरस्मिन्नाधाकर्मणि स दारुहस्तकः पूतिर्भवति, एचमनया दिशा अन्यस्याप्युपकर
000००००००००००००००००००००कर
अनुक्रम [२७६]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२७७] » “नियुक्ति: [२५३] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२५३||
पाणस्य पूतित्वं भावनीय, तत्र चुल्पुखाविषये कल्प्याकल्प्यविधिरनन्तरमेवोक्तो दारुहस्तके चाधाकर्मणि पूतिरूपे वा स्वपोगेन स्थालया। बहिष्कृते स्थाल्या स्थितमशनादि कल्पते, न तु तेन सम्मिश्रमिति । सम्पति 'दग्बी छुढे य' इति व्यानिख्यासुराह
दब्बीछुढेत्ति जं वुत्तं, कम्मदव्वीऍ जं दए । कम्मं घट्टिय सुई तु, घट्टए हारपूइयं ॥ २५४ ॥
व्याख्या-दब्बी छुढे ' इति यत् प्रागुक्तं, तस्यायमर्थः-कर्मदा आधाकम्मिकदा यत् शुद्धमप्यशनादिकं घट्टयित्वा । ददाति तद् 'आहारपूतिः। भक्तपूतिः । सा चेद्दवी स्थाल्याः सकाशानिष्काशिता तहिं स्थाल्याः सत्क कल्पते, यद्वा मा भूदाधाक-13
मिकी दबी, केवलं शुद्धयाऽपि दा यदि पूर्वमाधाकर्मिक 'घट्टयित्वा' चालयित्वा पश्चादाधाकर्मावयवखरण्टितया यदपरं शुद्धमपि | भक्तादिकं घट्टयति घट्टयित्वा च ददाति तदप्याहारपूतिः । अस्यां च दव्या स्थाल्या निष्काशितायामपि पावासं स्थालीभक्तं न कल्पते,18 |आधाकावयवमिश्रितत्वात् । 'डाए' इत्याद्युत्तरार्द्ध व्याचिख्यासुराह
अत्तद्विय आयाणे डायं लोणं च कम्म हिंगुं वा । तं भत्तपाणपूई फोडण अन्नं व जं छुहइ ॥ २५५॥
संकामेउं कम्मं सिहं जं किंचि तत्थ छूढं वा । अंगारधूमि थाली वेसण हेठा मुणीहि धूमो ॥ २५६ ।। " च्याख्या-आत्मार्थम् 'आदाने तक्रादिपाकारम्भकरणरूपे सति यदाधाकर्मिक 'डाय शाकं यदिवा लवणं यद्वा दिगुः अन्यद्वारा स्फोटनं राजिकाजीरकादि तत् तक्रादिकं तेन सम्मिथ भक्तपानपूतिः, एतेन 'डाए लोणे हिंगू फोडण' इति व्याख्यातं । तथा यस्यां स्थाल्या || राद्धमाधाकर्म तदन्यत्र संक्रमय्य-प्रतिक्षिप्य तस्यामेव स्थाल्पामकृतकल्पफ्यायां यदात्मार्थ सिद्ध किश्चित् यद्वा तत्र प्रक्षिप्तं तदपि भक्तपान
दीप
अनुक्रम [२७७]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२८०] .. "नियुक्ति: [२५६] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२..." . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पूतिदीपे बादरा पू.
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२५६||
पूते रसाध्यता
पिण्डनियु- पूतिः, अनेन 'संकमणंति व्याख्यातं, तथा ' अङ्गारेषु' नि मानिरूपेषु 'वेसने वेसनग्रहणमुपलक्षणं तेन वेसनहिङ्गाजीरकादौ पक्षिप्ते तेर्मलयगि- सति यो धूम उच्छलति स वेसनाङ्गारधूम इति ज्ञातव्यं, पूर्वगाथायां धूम इत्यस्य पदस्यायमों भावनीय इत्यर्थः । वेसनशब्दस्य च व्यस्तः पेयाष्ट्रातः सम्बन्ध आपत्वात, अङ्गारादीनां च मध्ये एकंदे त्रीणि चाऽऽधाकर्मिकाणि द्रष्टव्यानि, अनेन च धूपेन या व्याप्ता स्थाली तक्रादिक ॥८ ॥
वा तदपि पूतिः । उक्ता बादरपूति:, अथ सूक्ष्मपूतिमाह
'इंधणधूमेगंधेअवयवमाईहिं सुहुमपूई उ । सुंदरमेयं पूई चोयग भणिए गुरू भणइ ॥ २५७ ॥
व्याख्या-अत्रैकारद्वयस्य छन्दोऽर्थत्वादादिशब्दस्य व्यत्ययान्मकारस्य चालाक्षणिकत्वादेवं निर्देशो द्रष्टव्या-'इन्धनधूपगन्धाअवयवैः' इति, इन्धनग्रहणं चोपलक्षणं, ततोऽझारा अपि गृह्यन्ते, आदिशब्देन च बाष्पपरिग्रहः, ततोऽयमर्थः-इन्धनाङ्गारावयवधूमगन्धवाष्पैराधाकर्मसम्बन्धिभिः सम्मिश्रं यत् शुद्धमशनादिकं तत् सूक्ष्मपूतिः । एषा च किल सूक्ष्मपूतिर्न आगमे निषिध्यते, ततश्वोदक |आह-सुन्दरं ' युक्तमेनां पूर्ति वजेंयितुं, तल्कि नागमे निषिध्यते !, एवं परेणोक्ते गुरुभणति
इंधनधूमेगंधेअवयवमाई न पूइयं होइ । जेसिं तु एस पूई सोही नवि विजए तेसि ॥ २५८ ॥
व्याख्या--अत्रापि पदयोजना पागिव, ततोऽयमर्थ:-इन्धनामारावयवधूमगन्धवाष्पैराधाकर्मसम्बन्धिभिमिश्रं पूतिर्न भवति, येषां तु मतेन पूतिर्भवति तेषां मतेन साधोः शुद्धिः सर्वथा न विद्यते । एतदेव भावयति5 इंधनअगणीअवयव धूमो बफ्फो य अन्नगंधो या सव्वं फुसंति लोयं भन्नइ सव्वं तओ पई ॥ २५९ ॥
दीप
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अनुक्रम [२८०
111८५॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [२८३] » “नियुक्ति: [२५९] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२५९||
दीप
व्याख्या इन्धनान्यवयवाः सूक्ष्मा ये धूमेन सहादृश्यमाना गच्छन्ति, तथा धूमो बाष्पोऽनगन्धव, एते सर्वेऽपि पसरन्त: किल। सकलमपि लोकं स्पृशन्ति, तत्पुद्गलानां सकलमपि लोकं यावद्गमनसम्भवात् , ततस्तवाभिमायेण सर्वमपि पूतिरापद्यते, तथा च सति
साधोः कथं शुद्धिः इति । अत्र परः प्रागुक्तविरोध दर्शयन् स्वपक्षं समर्थयतिमानणु सुहूमपूइयस्सा पुवुदिहस्सऽसंभवो एवं । इंधणधूमाईहिं तम्हा पूइत्ति सिद्धमिणं ॥ २६ ॥
व्याख्या-ननु यदीन्धनाध्यषयवादिभिः पूतिर्न भवेत् , एवं सति तहि पूर्वोद्दिष्टस्य 'भावमि उ धायरं मुहूर्म' इत्येवमुक्तस्य सूक्ष्मपूतेरसम्भवः पामोति, अन्यस्य सूक्ष्मपूतेरभावात, तस्मात्सिद्धमिदं यदुत इन्धनधूमादिभिः सम्मिश्र पूति: सूक्ष्मपूतिरिति । अत्र गुरुराइ
चोयग इंधणमाईहिं चउहिवी सुहुमपूइयं होइ । पन्नवणामित्चमियं परिहरणा नत्थि एयरस ॥ २६१ ॥
व्याख्या-'हे चोदक: मेरक ! ' इन्धनादिभिः' इन्धनाम्न्यवयवधूमवाष्पगन्धैश्चतुर्भिरपि स्पृष्टं सूक्ष्मपूतिर्भवति, नात्र कश्चि-MA द्विवादः, एनामेव च सूक्ष्मपूतिमधिकृत्य प्रागुक्तं 'भावंमि उ वायरं मुहुमं' इति, केवलमिदं सूक्ष्मपूतित्वेन भणनं प्रमापनामात्रं, परिहरणं पुनस्तस्याः-सूक्ष्मपूतेनास्ति, अशक्यत्वात् ॥ एतदेव मपञ्चयतिसज्झमसज्झं कज्जं सझं साहिज्जए न उ असझं । जो उ असझं साहइ किलिस्सइ न तं च साहेई ॥२६२॥
व्याख्या-इह द्विविध कार्य-साध्यमसाध्यं च शक्यमशक्यं चेत्यर्थः, तत्र साध्यं साध्यते न त्वसाध्य, यस्त्वसाध्यं युष्मादृशः साधयति स नियमात् क्लिश्यते, न च तत्कार्य साधयति, अविद्यमानोपायत्वात्, एषोऽपि चानन्तरोक्तः सूक्ष्मपूतिरशक्यपरिहार, ततो न परिहियते । सम्पति परो 'बायरं मुहुर्मति समर्थयमानोऽपरं सूक्ष्मपूर्ति तस्य परिहरणं च शक्यं प्रतिपादयति
अनुक्रम [२८३]
RELIGunintentharastra
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||२६३||
दीप
अनुक्रम [ २८७]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ २८७] • → “निर्युक्ति: [ २६३] + भाष्यं [ २३...] + प्रक्षेपं [२... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
८०
पिण्डनिर्युतेर्मलयगिरीयावृत्तिः
।। ८६ ।।
आहाकम्मियभायणपरफोडण काय अकयए कप्पे । गहियं तु सुहुमपूई धोत्रणमाईहिं परिहरणा ॥ २६३ ॥
व्याख्या - यंत्र भाजने गृहीतमाधाकर्म्म तस्मिन् भाजने आधाकर्म्मपरित्यागानन्तरं 'प्रस्फोटनं कृत्वा इस्तेनास्फालनादिना सर्वानध्यापाकर्म्मावयवानपसार्य अकृते 'कल्पे' कल्पत्रये यद् गृहीतं तत्सूक्ष्मपूतिर्भवति, कतिपयोद्धरितसूक्ष्माधाकर्मावयव मिश्रणसम्भवात् तस्य च सूक्ष्मपूतेः परिहरणं धावनादिभिः किमुक्तं भवति ? - पात्रस्याधाकर्मिकपरित्यागानन्तरं कल्पत्रयधावनेन प्रक्षालनं क्रियते तर्हि सूक्ष्मपूतिर्न भवति, तत एवं सूक्ष्मपूतेः परिहरणमपि घटते, तस्मादिदमेव सूक्ष्मपूतिस्वरूपमुच्यतामिति भावः तदेतदयुक्तं यत इयं ६ बादरपूतिरेव तथाहि - गृहीतोऽस्ति तस्याधाकर्मणः सत्कैः स्थूलैः सिक्याद्यवयवैः । तन्मिश्रं सत्कथं स सूक्ष्मपूतिः ? । किञ्च -
धोपि निरावयवं न होइ आहच्च कम्मगहणमि । न य अदव्वा उ गुणा भन्नई सुद्धी कओ एवं ? ॥ २६४ ॥
व्याख्या---कदाचित् 'कर्मग्रहणे ' आधाकर्मिकग्रहणे सति तत्परित्यागानन्तरं पश्चात् 'धौतमपि प्रक्षालितमपि पात्रं सर्वथा न निरवयवं भवति, पश्चादपि गन्धस्योपलभ्यमानत्वात्, अथ गन्ध एवं केवल उपलभ्यते न तु तदवयवः कचिदस्तीति ब्रूपे तत आह-न च 'अद्रव्या: ' द्रव्यरहिताः 'गुणाः ' गन्धादयः सम्भवन्ति, ततो गन्धोपलम्भादवश्यं तत्र धौतेऽपि केचन सूक्ष्मा अवयवा द्रष्टव्याः, ततो भण्यते- 'एवमपि ' अपिरत्र सामर्थ्याद्रम्यते भवत्परिकल्पितप्रकारेणापि कुतः सूक्ष्मपूतेः 'शुद्धिः परिहारो ? नैव कथञ्चन इति भावः तस्मात्पूर्वोक्त एव सूक्ष्मपूतिः, तस्य च प्रज्ञापनामात्रं, न तु परिहरणं कर्त्तुं शक्यमिति स्थितं । ननु यदि स परमार्थतः सूक्ष्मपूतिस्तवस्तस्यापरिहारे नियमादशुद्धिः प्राप्नोति सोऽपि च सूक्ष्मपूतिः सकललोकव्यापीष्यते, गन्धादिपुद्रलानां क्रमेण सकललोकल्पापनसम्भ
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३ पूतिदोषे
सूक्ष्मपूते र शक्यपरिहायेता
॥ ८६ ॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२८८] » “नियुक्ति: [२६४] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२६४||
सवात, ततो यदा तदा वा काप्याधाकर्मसम्भवे सर्वेषामपि साधूनामशुद्धिः मामोतीति, नैष दोषो, गन्धादिपुद्गलानां चरणभ्रंशापादनसामर्थ्यायोगात, न चैतदनुपपन्न, लोकेऽपि तथा दर्शनात, तथाहिलोएवि असुइगंधा विपरिणया दूरओ न दूसंति । नय मारंति परिणया दूरगयाओ(अवि) विसावयवा ॥ २६५ ॥
व्याख्या-लोकेऽपि 'अशुचिगन्धाः' अशुचिसत्का गन्धपुद्गला दूरत आगता विपरिणताः सन्तः स्पृष्टा अपि 'न दुष्यन्ति' न स्पृष्टिदोषमशुचिस्पर्शनरूपं लोकमसिद्धं जनयन्ति, न च विषावयवा अपि दूरगताः सन्तः 'परिणताः' पर्यायान्तरमापत्रा मारयन्ति, तथेहाप्याधाकर्मणः सम्बन्धिनो गन्धादिपुला दूरतः समागच्छन्तो विपरिणता न चरणमाणान् विनाशयितुमीशाः, नाप्याधाकर्मसंस्पर्शलक्षणं दोपं जनयन्तीति । तदेवमिन्धनायवयवापेक्षया यः सूक्ष्मपूतिस्तमपरिहार्य प्रतिपाद्य सम्पति शेपद्रव्यपूर्ति परिहार्य प्रतिपादयति
सेसेहि उ दब्वेहिं जावइयं फुसइ तत्तियं पूई । लेवेहिं तिहि उ पूई कप्पइ कप्पे कए तिगुणे ॥ २६६ ॥
व्याख्या-शेषैः । इन्धनायवयवव्यतिरिक्तः शाकलपणादिभिर्यावस्थाल्पादिपरिमितं द्रव्यं सृष्टं भवति तावत्पमाणं पूतिः, तथा त्रिभिलेपैः पूतिः, इयमत्र भावना-स्थाल्यां किलाधाकर्म राद्धं, ततस्तस्या अपनीतम् , अपनीते च तस्मिन् या पाश्चात्या खरण्टिः सा एको लेपः, ततस्तस्यामेव स्थाल्पामकृतकल्पत्रयायां शुद्ध राद्धं पूर्तिः, एवं वारद्वयमन्यदपि राद पतिः, चतुर्थे तु वारे राद्धं न पूतिः, अथात्मयोगेन यदि गृहस्थाः तस्याः स्थाल्याः निःशेषावयचापगमाय कल्पत्रयं ददाति तर्हि का वाचर्चा , तत आह-कल्पते तस्यां स्थाल्यां शुद्धपशनादि राई, यदि 'कल्पे' प्रक्षालने 'त्रिगुणे' त्रिसङ्गधे कृते सति राध्यति, न शेषकालम् । एतदेव भावयति
दीप अनुक्रम [२८८]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२९१] » “नियुक्ति: [२६७] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियुः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२६७||
तेर्मळयगिरीयावृत्तिः ॥ ८७॥
दीप
इंधणमाई मोत्तुं चउरो सेसाणि होति व्वाइं । तेसिं पुण परिमाणं तयप्पमाणाउ आरम्भ ॥ २६७ ॥ ३ पूतिदोषे व्याख्या-इन्धनावयवादीनि चत्वारि पूर्वोक्तानि मुक्त्वा शेषाणि 'द्रव्याणि ' अशनादीनि पूतिकरणमवणानि ज्ञातव्यानि, तेषां
परिहार्यपू
तिः पूतिच शुद्धाशनादिपूतिकरणविषये परिमाणं त्वक्पमाणादारभ्य द्रष्टव्यम् । इयमत्र भावना-तण्डुलादीनामाषाकर्मणां गन्धादिचतुष्टयं परिहत्या शेष त्वगवयवमात्रमप्यादी कृत्वा यद्वत्तते तेन स्पृष्टं शुद्धमप्यशनादि पूतिर्भवतीति । सम्पति दाटई साधुपात्रं चाश्रित्य पूतिविषय पात्रयोः कल्प्याकल्प्यविधिमाह-- पढमदिवसंमि कम्मं तिन्नि उ दिवसाणि पूइयं होइ । पईसु तिसुन कप्पइ कप्पइ तइओ जया कप्पो ॥ २६८॥
व्याख्या-इह यस्मिन् दिने यत्र गृहे कृतमाधाकर्म तत्र तस्मिन् दिने 'कर्म' आधाकर्म व्यक्तमेतत् , शेषाणि तु त्रीणि दिनानि || पूतिर्भवति, तदं पूतिदोषवद्भवतीत्यर्थः, तत्र च 'पूतिषु' पूतिदोषवत्सु त्रिषु दिनेषु आधाकर्मदिने च सर्वसङ्ख्यया चत्वारि दिनानि | यावन्न कल्पते, साधुपात्रे च पूतिभूते तदा शुद्धमशनादि ग्रहीतुं कल्पते यदा तृतीयः कल्पो दत्तो भवति, न शेषकालं, पूतिदोषसम्भवाव ।। सम्मस्पाधाकर्म पूर्ति च वैविक्त्येन प्रतिपादयनुपसंहरति
॥८ ॥ समणकडाहाकम्मं समणाणं जं कडेण मीसं तु । आहार उवहि वसही सव्वं तं पूइयं होइ ॥ २६९ ॥
व्याख्या-श्रमणानामर्थाय कृतमाहारोपधिवसत्यादिकं यत् तत्सर्वमाधाकर्म, यत्पुनः श्रमणानामर्थाय कृतेनाधाकर्मणा मिश्रमाहा-II रादि तत्सर्व पूतिर्भवति । सम्पति परिज्ञानोपायमाह
अनुक्रम [२९१]
wirectorary.com
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२९४] » “नियुक्ति: [२७०] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२७०||
दीप अनुक्रम [२९४]
सडस्स थेवदिवसेसु संखडी आसि संघभचं वा । पुग्छिन्तु निउणपुच्छं संलाबाओ बऽगारीणं ॥ २७॥
व्याख्या-यह प्रथमत आगतेन श्राद्धगृहे तथाविधं किमपि सङ्खड्यादि चिह्नमुपलभ्य पूतिदोषसंशयभावे श्राद्धस्य पार्थे उपलक्षगमेतत् श्राविकादेव पार्षे निपुणपृच्छं प्रष्टव्यं, यथा--युष्माकं गृहे 'स्तोकदिवसेषु । स्तोकदिवसमध्ये, प्रभूतदिवसातिक्रमेण प्रतिदोषो न सम्भवतीति स्तोकदिवसग्रहणं, 'मजदिः । वीवाहादिपकरणरूपा सङ्घभक्तं वा दत्तमासीत् ?, समाज्यां वा साधुनिमित्रं किमपि कृतजा आभवत !, ततस्तदिनादर्याग दिनत्रयं पूतिरितिकृत्वा परिहर्त्तव्यं, चतुर्थादिषु तु दिनेषु परिग्राह्यम्, अथवा कापि प्रश्नमन्तरेणाप्यमारिणीनां | संलापात् पूतिरपूतिर्वेति ज्ञातव्यं, ता हि अपृष्टा एवान्यमुद्दिश्य कथयन्ति, यथाऽस्माकं श्वः परतरे वा दिने सकभक्तं दचमासीव, यदासङ्गतिः सङ्खड्यां च कृतं साध्वर्य प्रभूतमशनादिकमिति, तत एवं तासां संलापानाकये पूत्यपूती शात्या परिहारग्रहणे कार्ये, उक्तं पूतिद्वारं । सम्पति मिश्रजातद्वारमाह
मीसज्जायं जावंतियं च पासंडिसाहुमीसं च । सहसंतरं न कप्पइ कप्पइ कप्पे कए तिगुणे ॥ २७१॥
व्याख्या-मिश्रजातं विधा, तद्यथा-यावदर्थिकं पाखण्डिमिकं साधुमिश्रं च, तत्र यावन्तः केचन गृहस्था अगृहस्था वा भिक्षा-1 चराः समागमिष्यन्ति तेषामपि भविष्यति कुटुम्बे चेतिबुद्धया सामान्येन भिक्षाचस्योग्यं कुटुम्बयोग्यं चैकत्र मिलितं यत्पच्यते तद्या-1 चदर्थिक मिश्रजातं । यत्तु केवलपाखण्डियोग्यमात्मयोग्यं चैकत्र पच्यते तत्पाखण्डिमिश्र । यत्पुनः केवलसाधुयोग्यमात्मयोग्यं चैकत्र पच्यते || तत्साधुमिकं । श्रमणानां पाखण्टिबन्तर्भावविवक्षणात अमणमिदं पृथमोक्तम् । एतच्च मिश्रजातं ' सहस्त्रान्तरमपि' सहस्रान्तरे गतमपियेन तत्कृतं तेनान्यस्मै दत्तं तेनाप्यन्यस्मै यावत्सहस्रतमाय दत्तं, ततोऽपि परं यदि साधने ददाति तथापि न कल्पते । भाजनशुद्धो
अथ 'मिश्रजात' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं ॥ → “नियुक्ति: [२७१] + भाष्यं [२४] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२४||
पिण्डनियु- विधिमाह-येन भाजनेन तन्मित्रं गृहीतं तस्मिन् भाजने मिश्रपरित्यागानन्तरं 'कल्पे' प्रक्षालने त्रिगुणे कृतेऽन्यत् शुद्धं ग्रहीतुं कल्पते, ४ मिश्वजामेलयगि- नान्यथा । एनामेव गायां भाष्यकृयाचिख्यामुः प्रथमतो मिश्रजातस्य सम्भवमाह
ते भेदाः रीयात्तिः
दुग्गासे तं समइच्छिउं व अडाणसीसए जत्ता । सड्ढी बहुभिक्खयरे मीसज्जायं करे कोई ॥ ३३ ॥ (भा०) मा २५ ॥८८॥ व्याख्या-दुःखेन ग्रासो यत्र तद् दुसिं-दुर्भिक्षं तस्मिन् भिक्षाचरसचानुकम्पया, यद्वा तद् दुर्भिक्ष समतिक्रान्तः कश्चिद बुभुक्षा-नगा
कष्टं महत्परिज्ञाय यदिवा 'अध्वशीर्षके ' कान्तारादिनिर्गमरूपे प्रवेशरूपे खिन्नभिक्षाचरानुकम्पया यहा 'यात्रायां' तीर्थयात्रादिरूपे का उत्सवविशेपे दानश्रद्धया कोऽपि 'श्रद्धी' श्रद्धावान् बहुन भिक्षाचरानुपलभ्य 'मिश्रजातं । पूर्वक्तिशब्दार्थ करोति । सम्मति याचदर्यि-18 कस्य मिश्रजातस्य परिज्ञानोपायमाह--
जावंतहा सिद्ध नेयं तं देह कामियं जइणं । बहुसु व अपहुप्पते भणाइ अन्नपि रंधेह ॥ २७२ ॥
व्याख्या-काचित् किमपि साधवे ददती कयाचित्पतिषिध्यते-नेदं दीयमानं यावदर्थ सिद्ध-यावन्तः केचनापि भिक्षाचराः समागमिष्यन्ति तेषामर्थाय सिद्धं, किन्तु विवक्षितं, तस्मात्तदेहि यतिभ्यः कामितं यावद्गृह्णन्ति तावत्पमार्ण, यद्वा प्रचुरेषु भिक्षाचरेषु समाग-1 च्छत्सु अग्रेतनप्रमाणे राध्यमाने 'अप्रभवति' अपूर्यमाणे गृहनायको भणति-नैतावता राहेन सरिष्यति ततोऽन्यदप्यधिक प्रक्षिप्य राध्नुहि, एवं श्रुते यावदर्थिकं मिश्रं परिज्ञायते, ज्ञात्वा च परिहर्त्तव्यमिति । सम्पति पाखण्डिमिश्रसाधुमित्रे प्रतिपादयति
अत्तहा रंधते पासंडीणंपि बिइयओ भणइ । निगंथट्ठा तइओ अत्तहाएऽवि रंधते ।। २७३ ॥
दीप
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अनुक्रम [२९६]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [२९८] » “नियुक्ति: [२७३] + भाष्यं [२४...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२७३||
दीप अनुक्रम [२९८]
व्याख्या-आत्मार्थ ' कुटुम्बाथै गृहिण्या 'राध्यमाने ' पच्यमाने गृहनायको यावदकिमिश्रप्रवर्तकगृहनायकापेक्षया द्वितीयो भणति, यथा पाखण्डिनामप्यायाधिक प्रक्षिप । तथाऽऽत्मार्थमेव राध्यमाने तृतीयो गृहनायको ब्रूते, यथा-निग्रंन्धानामायाधिकं पक्षिपेति । तत एवं श्रुते पाखण्डिमिश्रसाधुमिश्रयोरपि परिज्ञानं भवति । सम्पति यदुक्तमेतत् 'मिश्रजातं पुरुषसहस्रान्तरगतमपि न कल्पते । इति, तदृष्टान्तेन भावयति| विसधाइय पिसियासी मरइ तमन्नोवि खाइउं मरइ । इय पारंपरमरणे अणुमरइ सहरससो जाव ।। २७४ ॥
व्याख्या-इह कोऽपि वेधकेन विषेण घातितः, तस्य पिशितं योऽश्नाति सोऽपि म्रियते, तस्यापि मांस यो भक्षयति सोऽपि म्रियते, एवं परम्परया मरणे तावद् 'अनु' पाश्चात्यः पाश्चात्यो म्रियते, यावत्ते म्रियमाणाः सङ्ख्यया सहस्रशो भवन्ति । इत्थं सहस्रवेधकस्य विपस्य प्रभावः यत्सहस्रान्तरगतमपि मारयतीति भावः ।
एवं मीसज्जायं चरणप्पं हणइ साह सविसई । तम्हा तं नो कप्प परिससहस्संतरगयपि ॥ २७५॥
व्याख्या एवं ' सहस्रवेधकविपमिव यावदर्थिकपाखण्डिसाधुविषयं मिश्रजातमप्येकेनान्यस्मै दत्तं तेनाप्यन्यस्मायित्येवं परम्परया पुरुषसहस्त्रान्तरगतमपि साधोः सुविशुद्धं चरणात्मानं हन्ति, तस्मान कल्पते साधूनां सहस्त्रान्तरगतमपि मिथं । सम्पति साधुविषयं विधिमाहनिच्छोडिए करीसेण बावि उव्वट्टिए तओ कप्पा । सुक्काविता गिण्हइ अन्न चउत्थे असुफेऽवि ॥ २७६ ॥ व्याख्या-मिथे कथमपि गृहीते पश्चाचस्मिस्त्यक्ते सति भाजने 'निच्छोटिते' अङ्कल्यादिना निरक्यवे कृते यदा 'करीपेण
rajastaram.org
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३०१] » “नियुक्ति: [२७६] + भाष्यं [२४...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२७६||
भेदाः
दीप
पिण्डनियु- शुष्कगोमयरूपेण उत्तिते पश्चात् त्रयः कल्पा दीयन्ते, तत आतपे तद् भाजनं शोपयित्वा पश्चात्तस्मिन्नव्यते-शुद्धं गृह्णाति, नान्यथा, पूति- ४ मिश्रजातेर्मकयगि- दोषसम्भवात, अन्ये तु सूरयः माहु:-चतुर्थे कसे दत्ते सति अशुष्केपि, गृहन्ति, नास्ति कश्चिद्दोषः, अयं च प्रक्षालनविषिः सर्वत्राप्यशो- कल्पकरीयादृचिःधिकोटिग्रहणे बेदितव्यः, उक्तं मिश्रद्वारम् । अथ स्थापनाद्वारमाह
रण विधि: सटाणपरटाणे दुविहं ठवियं तु होइ नायव्वं । खीराइ परंपरए हत्थगय घरतरं जाव ।। २७७ ।। ॥८९॥
५स्थापनाव्याख्या-स्थापितं साधुनिमित्तं घृतभक्तादि, तञ्च द्विधा, तद्यथा-स्वस्थाने परस्थाने च, तत्र स्वस्थानं चुल्पवचुझ्यादि, परस्थानं छब्बकादि, एकै द्विषा-अनन्तरं परम्परं च, तत्र यस्य साधुनिपित्तं स्थापितस्य सतो विकारान्तरं न भविष्यति यथा घृतादस्तदनन्तरस्थापित । क्षीरादिकं तु परम्परके परम्परास्थापितं , तथाहि-क्षीरं स्थापितं सद्दपि भवति, तद्दधि भूत्वा नवनीत, नवनीत भूत्वा घृतं, ततो यदैव साधुनिमित्तं क्षीरं धृत्वा घृतीकृत्य ददाति तदा तत् क्षीरं परम्परास्थापितं भवति, एवमन्यदपीक्षुरसादिकं द्रष्टव्यं, तथा पशिस्थिते गृहत्रये उपयोगावकाशसम्भवे सति हस्तगतासु तिसूषु भिक्षास्वेकः साधुरेका भिक्षा सम्यगुपयोगेन परिभावयन् गृह्णाति, द्वितीयस्तु योहयोईस्तगते द्वे भिक्षे परिभावयति, ततो गृहत्रयात्परतो यावद्गृहान्तरं न भवति तावन तस्य स्थापनादोषः, गृहान्तरे तु साधुनिमिर्त हस्तगता भिक्षा स्थापना, तत्रोपयोगासम्भवात् । तत्रनामेव गार्था भाष्यकृयाचिख्यामुः प्रथमतः स्वस्थानमाह
चुल्ली अवचुल्लो वा ठाणसठाणं तु भायणं पिढरे । सटाणाणंमि य भायणठाणे य चउभंगा ॥३॥ (भा०) भा० २५
व्याख्या-द्विविधं स्थानं, तद्यथा-स्थानस्वस्थानं भाजनस्वस्थानं च, तत्र स्थानरूपं स्वस्थानं चुल्ली अवचुल्लो बा, चुल्या अव-पवादवचुल्लो, राजदन्तादित्वादवशब्दस्य पूर्वनिपातोऽदन्तता च, तत्र 'चुल्ली' प्रतीता, 'अवचुल्ल' अवल्हका, एतयोश्च स्थितं सद् भक्तं पच्यते,
अनुक्रम [३०१]
SHREILLEGunintentrational
अथ 'स्थापना' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३०३] .. "नियुक्ति: [२७७] + भाष्यं [२५] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२५||
दीप
तत एतौ स्थानरूपं स्वस्थानं, भाजनरूपं तु स्वस्थानं 'पिठर' स्थाली, तत्र स्थानस्वस्थाने भाजनस्वस्थाने च चत्वारो भङ्गाः, तथथाचल्यां स्थापितं पिठरे च १, चुल्यां स्थापितं न पिठरे छब्बकादौ स्थापितत्वात २, न चुल्यां किन्तु पिठरे, तच्च चुट्यवचुल्लाभ्यामन्यत्र । प्रदेशान्तरे स्थापितं द्रष्टव्यं ३, न चुल्यां न पिठरे चुल्यवचुल्लाभ्यामन्यत्र छब्बकादौ स्थापितमित्यर्थः ४ । सम्पति परस्थानमाह
छब्बगवारगमाई होइ परट्राणमो वऽणेगविहं । सटाणे पिढरे छब्बगे य एमेव दूरे य ॥ २७८ ।। व्याख्या-छब्बकवारकादिकमनेकविध भाजनं परस्थानं भवति द्रष्टव्यं, तत्र 'छब्यक' पटलिकादिरूपं, 'वारका बघुर्घटः, आदि-1 शब्दात्पाकभाजनवर्जेचुल्यवचुल्लवशेषसकलभाजनपरिग्रहः, अत्रापि स्वस्थानपरस्थानापेक्षया चतुर्भङ्गी, तपथा-स्वस्थाने स्वस्थाने, स्वस्थाने परस्थाने, परस्थाने स्वस्थाने, परस्थाने परस्थाने । एनामेव चतुर्भङ्गी दर्शयति-'सटाण' इत्यादि, अत्र 'सहाणे पिढरे । छब्बगे य' इत्यनेन भङ्गादयं सूचितं, स्वस्थानस्य पिठरछब्बकाभ्यां प्रत्येकमभिसम्बन्धात, तद्यथा-स्वस्थाने चुल्यादौ पिठरे च, तथा । स्वस्थाने चुल्यादी छब्बके च परस्थाने, 'एमेव दूरे यति इह दूर चुल्यवचुल्लाभ्यामन्यत्मदेशान्तर, तत्रापि तदपेक्षयाऽपि एवमेव भङ्गद्वयं द्रष्टव्यं, तद्यथा-भाजनरूपे खस्थाने पिठरे परस्थानेऽन्यत्र प्रदेशान्तरे, तथा परस्थानेऽन्यत्र प्रदेशान्तरे परस्थाने छब्यगादाविति । सर्वसइन्ख्यया चत्वारो भङ्गाः । तदेवं मूलगाथायाः सहाणेत्यादिपूर्वार्दै व्याख्यातम् । अथ 'खीराइ परंपरए' इति व्याचिख्यासुराह
एकेकं तं दुविहं अणंतरपरंपरे य नायव्वं । अविकारिकयं दृव्वं तं चेव अणंतरं होई ॥ २७९ ॥
व्याख्या-तत्साधुनिमित्त स्थापितमेकैकं स्वस्थानगतं पूरस्थानगतं च द्विविधं ज्ञातव्यं, तद्यथा-'अनन्तरे' अन्तराभावे, विकाररूपन्यवधानाभावे इत्यथे, 'परम्परके ' विकारपरम्परायामित्यर्थः, तत्र यत् को स्वयोगेनाविकारि भूयोऽसम्भविविकारं घृतगुडादि कृर्त
अनुक्रम
SARERatininematural
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||२७९||
दीप
अनुक्रम [ ३०५ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ३०५ ] “निर्युक्ति: [ २७९] भाष्यं [२५...] + प्रक्षेपं [२... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
● →
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८०
न हि तस्य भूयोऽपि विकारः सम्भवति तत्साधुनिमित्तं स्थापितमनन्तरम् - अनन्तरस्थापितं, उपलक्षणमेतत् तेन क्षीरादिकमपि यस्मिन् दिने साधुनिमित्तं स्थापितं यदि तस्मिन्नेव दिने ददाति तर्हि तदपि दध्यादिरूपं विकारान्तरमनापयमानमनन्तरस्थापितं द्रष्टव्यं तदेव तु क्षीरं साधुनिमित्तं घृतं सद्दध्यादिरूपतया परिकर्म्यमाणं परम्परास्थापितं भवति, एवमिक्षुरसादिकमपि तस्मिन्नेव दिने स्थापितं दीयमानॐ मनन्तरस्थापित, कक्कवादिरूपतया तु परिकर्म्यमाणं परम्परास्थापितमिति । सम्प्रति विकारीतराणि द्रव्याणि प्रतिपादयति
॥ ९० ॥
पिण्डनिर्यु - तेर्मलायावृत्तिः
उच्छुकुखीराईयं विगारि अविगारि घयगुलाईयं । परियावज्जणदोसा ओयणदहिमाइयं वावि ॥ २८० ॥ व्याख्या--इश्चक्षीरादिकं विकारि तस्य कक्त्वादिदध्यादिविकारसम्भवात् घृतगुडादिकं त्वविकारि तस्य भूयोऽपि विकारासम्भवातू, तथा 'ओदनदध्यादिकमपि ' करम्वादिरूपं विकारि, कुत इत्याह- पर्यापादनदोषात् करम्वादिकं हि त्रियमाणं निय मात् पर्यापद्यते - कोथमायातीत्यर्थः, ततस्तदपि विकारि द्रव्यं । तदेवं विकारीतराणि द्रव्याण्यभिहितानि, सम्मति क्षीरादिकं परम्परास्थापितं भावयति----
उभट्टपरिन्नायं अन्नं लद्धं पओयणे वेत्थी । रिणभीया व अगारी दहित्ति दाहं सुए ठवणा ॥ २८१ ॥
वणी व जाव अतट्ठिया व गिण्हंति । देसूणा जाव घयं कुसणंपि य जन्तियं कालं ॥ २८२ ॥ व्याख्या- 'उन्महत्ति केनापि साधुना कस्याश्चिदगारिण्याः सकाशे क्षीरमभ्यर्थितं ततस्तया प्रतिज्ञातं - क्षणान्तरे दास्यामि, साधुना चान्यत्रान्यत् क्षीरं लब्धं ततः पूर्वमभ्यर्थितयाऽयारिण्या दुग्धसम्प्राप्तौ सत्यां साधुं प्रति प्रत्यपादि-गृहाण भगवन्निदं दुग्धमिति,
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५ स्थाप
नादोषे स्व
परस्थान | विकार्य वि
कारि द्रव्यविचार:
॥ ९० ॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३०८] » “नियुक्ति: [२८२] + भाष्यं [२५...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२८२||
साधुना चोक्तं-लम्धमन्यत्र मया दुग्ध, ततो यदि भूयोऽपि प्रयोजनं भविष्पति ताई 'घेत्थी' गृहीष्पामि, एवमुक्तं साऽगारिणी ऋणभी-1 तेव स्वयं नोपबुभुजे, किन्त्वेवं चिन्तयामास-:' कल्ये दपि कृत्वा दास्यामीति, तत एवं चिन्तयिता स्थापयति, ततो द्वितीयदिने दधि जातं तदपि साधुना न गृहीतं, ततो नवनीतं तकं च जातं, नवनीतमपि घृतं कृतं, इह क्षीरादिकं सकळमपि स्थापनादोषदुष्टत्वात् साधूनां न कल्पते, यद्वा क्षीरादिकं यावन्नवनीतं मस्तु तकं वा तावदेतानि सर्वाण्यप्यात्मार्थीकृतानि मा गृहीयात् साधुः कुटुम्बे भविष्यतीत्पे-181 वमात्मसचाकीकृतानि साधवो गृहन्ति । घृतं त्वात्मार्थीकृतमपि तेजःकायाऽऽरम्भादाधाकर्मेति न कल्पते, घृतं च स्थापित सत् तावद् । घटते याबद्देशोना पूर्वकोटी, तथाहि-पूर्वकोटयायुषा केनापि साधुना वर्षाष्टकप्रमाणेन कस्याश्चित्पूर्वकोव्यायुषोऽमारिण्या: पार्षे घृतं । ययाचे, तयोक्तं-क्षणान्तरे दास्यामि, साधुना चान्यत्र घृतं लब्ध, ततः सा ऋणभीतेव तावद् घृतं धृतवती यावत् साधोरायुः, ततो मुते साधौ तदन्यत्रोपयुक्तमिति नास्ति स्थापना, इह वर्षाष्टकस्याधः पूर्वकोटेरुपरि च चारित्रं न भवति, चारित्रिणं चाधिकृत्य स्थापनादोषः, ततो देशोना पूर्वकोटीत्युक्तम् । एवं गुडादेरप्यविनाशिनो द्रव्यस्य यथायोग स्थापनाकालपरिमाणं द्रष्टव्यं । 'कुसुणियमिति कुसुणितमपि करम्बादिरूपतया कृतमपि यावन्तं कालमविनाशि तावत्कालं तस्य स्थापना द्रष्टव्या, परतस्तु कुथितत्वादुज्यते एवेति भावः । तदेवं क्षीरादिक परम्परास्थापितमुक्तं, साम्पतमिक्षुरसादिकमपि परम्परास्थापितमाह
रस कक्कब पिंडगुला मच्छंडिय खंडसकराणं च । होइ परंपरठवणा अन्नत्य व जुज्जए जत्थ ॥ २८३ ॥
व्याख्या--इह केनापि साधुना किमपि प्रयोजनमुद्दिश्य कोऽपीक्षुरसं याचितः, स च प्रतिज्ञातवान्-क्षणान्तरे दास्यामि, साधुना चान्योक्षुरसो लब्धः, पूर्वमभ्यर्थितश्च ऋणभीत इब तमिक्षुरसं ककवं करोति यावत् शर्करेति, एषां चेक्षुरसककवादीनामुत्तरोत्तरपिण्ड-12
&00000000000000000000000000000.
दीप
अनुक्रम [३०८]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३०९] .→ “नियुक्ति: [२८३] + भाष्यं [२५...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२८३||
दीप
पिण्डनियु- गुल्यादिपर्यायापादनपुरस्सरं त्रियमाणानां स्थापना परम्परास्थापना, एवमन्यत्रापि द्रव्यान्तरे यत्रै परम्परया स्थापना घटते तत्र पर- उद्गमैपणा-, तिमलयाग-||म्परास्थापना द्रव्या । यावच स्थापितस्प नापाकर्मसम्भवस्तावदात्मार्थीकृतं कल्पते, कृतपाकारम्भ तु न कल्पते । सम्मति 'हत्थगय घर- यां स्थापरीयावृत्तिःवर जाव' इति व्याचिख्यासुराह
नादोष:५ भिक्खागाही एगत्थ कुणइ बिइओ उ दोसु उवओगं । तेण परं उक्खित्ता पाहुडिया होइ ठवणा उ ॥ २८४ ॥ ॥९ ॥
| व्याख्या-भिक्षाग्राही एकत्रोपयोगं करोति, द्वितीयस्तु योग्रहयोः, तत्र त्रिषु यदेपूपयोगसम्भवे स्थापनादोषो न भवति, गृहयात्परं साध्वर्यमुत्पाटिता भिक्षा माभूतिका स्थापना भवति ।। उक्तं स्थापनाद्वारं, सम्मति प्राभृतिकाद्वारमभिधित्सुराह
पाहुडियावि हु दुविहा बायर सुहमा य होइ नायब्वा । ओस्सकणमुस्सकण कब्बट्ठीए समोसरणे ॥ २८५॥
व्याख्या-द्विविधा प्राभृतिका, तद्यथा-बादरा सूक्ष्मा च, एकैकापि द्विधा, तद्यथा-अवष्वष्कणेनोवष्कणेन च, सूत्रे चात्री विभक्तिलोप आपत्वात, तत्र 'अवष्वष्कणं' स्खयोगप्रवृत्तनियतकालावधेरवाकरणम् 'उत्वष्कर्ण' परतः करणं, तत्र बादशाभूतिकाविषयमाह-कम्पहीए समोसरणे' इह समयपरिभाषया कन्बही लघ्वी दारिका भण्यते तस्याः सत्कस्य, उपलक्षणमेतत्, पुत्रादेश्व
सत्कस्य वीवाहस्यावष्वष्कणमुत्वष्कणं वा 'समवसरणे' साधुसमुदायविपये, इयमत्र भावना-साधुसमुदार्य यथाविहारक्रममायातं ||| Bारष्टा कोऽपि बावकश्चिन्तयति, यथा-ज्योतिर्विदोपदिष्टे विवाहदिने यदि विवाह: फियते ततोऽवागेव सुविहितजनो विहारक्रमेण गमि-II॥९॥ ष्यति ततो न किमपि मदीयं विवाहसम्भवं मोदकादिकं तण्डुलघावनादि वोपकरिष्यते, तत एवं चिन्तयित्वार्धाग् विवाई करोति, यदिवा भूयान सुविहितजनो यथाविहारक्रममागच्छन् श्रूयते वीवाहश्च तदागमनादक ततो न किमपि तेषां मदीयमुपकरिष्यतीति, तत81
अनुक्रम [३०९]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३१२] .→ “नियुक्ति : [२८५] + भाष्यं [२६] + प्रक्षेपं २... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२६||
दीप
एवं विचिन्त्य परतो बीवाई करोति, इदं च विवाहस्यावष्वष्कणमुत्वष्कणं वा कृत्वा यदुपस्क्रियते भक्तादि सा चादरा प्राभृतिका ॥ सम्मत्यपसप्पणरूपां सूक्ष्ममाभृतिका भाष्यकृद्गाथाद्वयेनाइ-- ___ कन्तामि ताव पेलु तो ते देहामि पुत्च! मा रोव । तं जइ सुणेइ साहू न गच्छए तत्थ आरंभो ॥३५॥ (भा०) भा०२६ ___ अन्नट्ट उहिया वा तुम्भवि देभित्ति किंपि परिहरति । किह दाणि न उहिहिसी ? साहुपभावेण लब्भामो ॥३६॥ (भा०) भा०२७
व्याख्या--काचित्कर्त्तनं कुर्वती भोजनं याचमानं बालकं प्रति वदति-कृणन्मि तावदिदं 'पेलु' रूतपूणिका, कृणन्मीति ‘कृदुपवेष्टने ' इत्यस्य रौधादिकस्य प्रयोगः, ततः पचात् 'ते' तुभ्यं दास्यामीति मा रोदी: अत्रान्तरे च साधुरागतो यदि शृणोति तर्हि तत्र हे न गच्छति, न तत्र भिक्षां गृह्णातीत्यर्थः, मा भून्साधुनिमित्त आरम्भो बालकभोजनदानतदनन्तरदस्तधावनादिरूपः, सा हि साध्वर्थमुत्थिता सती बालकस्यापि भोजनं ददाति, ततो हस्तधावनादिनाऽप्कायादिकं च विनाशयति, इह रूतपूणिकाकर्चनसमाप्त्यनन्तरं दातव्यतया बालकाय प्रतिज्ञाते भोजने साधुनिमित्तमर्वागुत्थानेन यदागेव बालस्य भोजनदानं तदवसर्पणम्, अथवा गृहस्था कर्चनं कुर्वती भोजनं याचमानं पुत्रं प्रति वदति-'अन्यार्थम्' अन्धन प्रयोजनेनोस्थिता सती 'तवापि' तुभ्यमपि किमपि खादिमादि दास्यामि, अत्रा
न्तरे च साधुरागत एवं श्रुते परिहरति, अथवा तथाभूतगृहस्थावचनानाकर्णनेऽपि साधी सपागते वालको जननीं वदति-कथमिदानी || दानोत्थास्यसि ?, समागतो ननु साधुस्ततोऽवश्यमुत्थातव्यं त्वया, तथा च सति साधुप्रभावेण वयमपि लप्स्यामहे, तत एवं बालकवचनं ||
श्रुत्वा तया दीयमानं परिहरति, मा भूदवसणरूपसूक्ष्मप्राभृतिकादोषः । सम्पत्पुत्सप्पणरूपां सूक्ष्मप्राभृतिका गाथाद्वयेनाह---
अनुक्रम [३१२]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३१४] .→ “नियुक्ति: [२८६] + भाष्यं [२७] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
उद्गमैषणा
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२८६||
पिण्डनियुतर्मलयगिरीयावृत्तिः ॥९२॥
मा ताव झंख पुत्तय! परिवाडीए इहेहि सो साहू । एयरस उढ़िया ते दाहं सोउं विवज्जेइ ॥ २८६ ॥ अहवा-अंगुलियाए घेत्तुं कट्टा कप्पट्टओ घरं जत्तो । किंति कहिए न गच्छइ पाहुडिया एस सुहुमा उ॥ २८७॥ या मातिव्याख्या-इह काचिदस्था भोजनं याचमानं पुत्रं प्रतिपादयति-हे पुत्रक! मा तावशष-वारं वारं जल्प, इह परिपाट्या साधुरा
कादोष:६ गमिष्यति ततस्तस्यार्थमुत्थिता सती ते तुभ्यं दास्यामि, अत्रान्तरे च साधुरागत इदं वचः श्रुत्वा विवजेयति, मा भूदुत्सप्पणरूपसूक्ष्म-| माभूतिकादोषः, अत्राोंग विवक्षितस्य भोजनदानस्य साधुभिक्षादानेन समं परत: करणमुत्सप्पणम् , अथवा प्राक्तने जनन्योक्ते बाळकेन । श्रुते सति स 'कप्पो ' बालकस्तं साधुमङ्गल्या गृहीत्वा यतो निजगृहं ततः समाकर्षति, ततः साधुस्तं बालकं पृच्छति-पथा कि मामाकसि?, ततः स पथावस्थित कथयति, पालकत्वेन ऋजुत्वात् , ततः कथिते तत्र न गच्छति, मा भूतसप्णरूपसूक्ष्मपाभृतिकादोषस-1 म्पकः, एषा सर्वाऽप्यनन्तरोक्ता सूक्ष्मप्राभृतिका । सम्पति 'कन्चट्ठीए समोसरणे' इत्यस्यवं व्याचिरूपामुः प्रथमतोऽवष्वष्कणरूपां बादरमाभृतिकामाइ| पुत्तस्स विवाहदिणं ओसरणे अइच्छिए मुणिय सट्टी। ओसकंतोसरणे संखडिपाहेणगदवट्ठा ॥ २८८ ॥ | व्याख्या-पुत्रस्य, उपलक्षणमतव पुत्रिकादेव, विवाहदिनं ज्योतिर्विदा 'अवसरणे' साधुसमुदाये यथाविहारक्रममतिक्रान्तेन्यत्र गते सत्युपदिश्यमानं श्रुत्वा श्रद्धी विवाहमवष्वष्कते, अर्वाग्दिनं दृष्ट्वा विवाई करोति, किमर्थम् !, इल्याह-समवसरणे' षष्ठी-1 ||९२॥ सप्तम्योरच प्रत्यभेदात्समवसरणस्य-साधुसमुदायस्य विवाहरूपायां सङ्खयां प्रहेणक-मोदकादि द्रवं-तण्डुलधावनादि तदर्थ-तदानार्थ, भावना च प्रथमगाथायामेव कृता । उत्सप्पणरूपा बादरपाभूतिकामाह
दीप
अनुक्रम [३१४]
404कर
अथ 'प्राभृतिका' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [३१६] » “नियुक्ति: [२८८] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२८८||
दीप
अप्पत्तमि य ठवियं ओसरणे होहिइत्ति उस्सकणं । व्याख्या-स्थापितं विवाहदिनं किलामासे-यथाविहारक्रममनागते 'अवसरणे' साधुसमुदायरूपे भविष्पति, ततो न किमपि मदीयं विवाहसकं साधूनामुपकरिष्यतीतिकृत्वा विवाहस्योत्सर्पणं करोति, साधुसमागमकाल एवं करोतीत्यर्थः । उक्ता बादरा प्राय तिका । सम्पति द्विविधाया अव्यवसपणोत्सर्पणरूपायाः कर्तारं प्रतिपादयति
तं पागडमियरं वा करेइ उज्जू अणुज्जू वा ॥ २८९ ॥ व्याख्या-'ताम्' अवप्वष्कणोत्वष्कणरूपां द्विविधामपि ऋजुः प्रकटं करोति, सकलजननिवेदनेन करोति, अनृजुरितरत-पच्छन्न, यथा न कोऽपि जानातीति भावः, तत्र यदि प्रकटं करोति तर्हि तां जनपरम्परात एवं ज्ञात्वा परिहरन्ति, अथाप्रकर्ट सहि निपुणं शोधयित्वा वर्जयन्ति, निपुणशोधनेऽपि यदि कथमपि न परिज्ञानं भवति तदा न कश्चिदोषः, परिणामस्य शुद्धत्त्वात् ।। अथ किमर्थं चादरमववष्कणादिकं करोति ?, तदाह
मंगलहेडं पुन्नट्ठया व ओसक्कियं दुहा पगयं । उस्सक्कियंपि किंति य पुढे सिद्धे विवज्जति ॥ २९॥
व्याख्या-'प्रकृत' विवाहादिकं 'द्विधा' द्वाभ्यां प्रकाराभ्यामवष्वष्कितं भवति, तद्यथा-'मङ्गलहेतोः' वीवाहे गृहस्य साधुचरणैः स्पर्शनं तेभ्यो दानं च मङ्गलायेतिकस्वा, यद्वा-पुण्यार्थम, एवमुत्पष्कितमपि द्विधा, ततो निपुणपृच्छं किमिदम् । इति पृष्टे गृहस्थेन च ॥ यथावस्थिते कथिते तद्वीवाहसत्कं परिहरन्ति, मा भूद्धादरमाभृतिकादोषानुषत्र इति । ये तु न परिहरन्ति तेषां दोपमाह
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अनुक्रम [३१६]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३१९] » “नियुक्ति: [२९१] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२९१||
उद्गमैपणायां प्रादुकरणं.७ साधुत्रयकथा
भा पिण्डनियु- पाहुडिभत्तं भुंजइ न पडिक्कमए अ तस्स ठाणस्स । एमेव अडइ बोडो लुकविलुक्को जह कवोडो ॥ २९१ ॥ तेर्मलयनि
व्याख्या--य: प्रातिकाभक्तं मुझेन च तस्मात् पाभृतिकापरिभोगरूपात स्थानात्मतिक्रामति स 'बोट' मुण्ड एवमेव-निष्फरापाहात्तःलमटति यथा लञ्चितविलुश्चितकपोतः । उक्त प्राभृतिकाद्वारम् , अथ प्रादुष्करणद्वारं विभणिषुः प्रथमतस्तत्सम्भवं गावापदेनाह
लोयविरलुत्तमंगं तवोकिसं जल्लखउरियसरीरं । जुगमेत्तरदिहिं अतुरियचवलं सगिहमितं ॥ २९२ ॥ दटूण य अणगारं सट्टी संवेगमागया काइ । विपुलन्नपाण घेत्तृण निग्गया निग्गओ सोऽवि ॥ २९३ ॥ नीयदुवारमि बरे न सुज्झई एसणत्तिकाऊणं । नीहमिए अगारी अच्छइ विलिया व गहिएणं ॥ २९४ ॥ चरणकरणालसंमि य अन्नभि य आगए गहिय पुच्छा । इहलोगं परलोगं कहेइ चइउं इमं लोगं ।। २९५ ॥ नीयदुवारंमि घरे भिक्खं निच्छंति एसणासमिया । जं पुच्छसि मज्झ कहं कप्पइ लिंगोबजीवीऽहं ॥ २९६ ।। साहुगुणेसणकहणं आउट्टा तंमि तिप्पइ तहेव । कुक्कुडि चरति एए वयं तु चिन्नव्वया बीओ ॥ २९७ ॥
व्याख्या काचित श्राविका अनगार' साधुमेकाकिविहारिणं लोचविरलोत्तमाक्रम, अप्रोतमाशब्देनोत्मास्थाः केशा उच्यन्ते, ततोऽयमर्थ:--लोचेन विरलोत्तमाङ्गकेशं तपाकृशं मलकलुषितशरीरं युगमात्रान्तरन्यस्तदृष्टिम् अस्त्वरितमचपलं स्वगृहमागच्छन्तं दृष्ट्वा संवेगमागता, ततो गृहमध्ये विपुलं भक्तं पानं च गृहीत्वा गृहमध्याद्विनिर्गता, सोऽपि च साधुनींचहारेऽस्मिन गृहे न शुध्यति ममै
दीप
अनुक्रम [३१९]
॥९
॥
अथ 'प्रादुष्करणत दोषस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३२५] » “नियुक्ति: [२९७] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||२९७||
भाषणेतिकृत्वा ततः स्थानाद्विनिर्जगाम, निर्गते च तस्मिन् गृहीतेन भक्तपानेन सजातविप्रियेवावतिष्ठते, अान्तरे चरणकरणालसोऽन्यस्त
स्मिन् गृहे साधुभिक्षार्थमागतः, ततस्तस्मै सा भिक्षा तया दत्ता, गृहीतायां च भिक्षायां स साधुः पृष्टः-यथा भगवन् ! इदानीमेव || साधुरीदशस्ताहशो वाऽत्र समागतः, परं तेन भिक्षा न गृहीता, त्वया गृहीबा, तत्र कि कारणं, ततः स पेहलौकिक भिक्षालाभमात्रा-| दिकं पारलौकिकं धर्म यथाक्रममल्पगुणं बहुगुणं च विचिन्त्येमं लोक-लोकात् लभ्यं भिक्षामात्रादिकं परित्यज्योक्तवान् यथा नीचद्वारे गृहे साधव एषणासमितिसमिता भिक्षां नेच्छन्ति, तत्रान्धकारमावत एपणाशुद्धचभावात् , सोऽपि च भगवान् साधुरेपणासमितस्ततो न गृहीतवानिति, ययप्युक्तं-किं कारणं त्वया गृहीता ? इति, तत्राई लिङ्गमात्रोपनीची, न साधुगुणयुक्तः, ततः साधूनां गुणानेषणांच यथाऽऽगम कथितवान् , ततः सा स्वचेतसि चिन्तयामास-अहो ! जगति निजदोषप्रकटनं परगुणोत्कीचनं चातिदुष्कर, तदप्येतेन कृतमिति तस्मिन्नतिशयेन भक्तिं कृतवती, विपुलं च भक्तपानं तिप्पइ' इति तेपते क्षरति ददाति स्मेति भावार्थः, गते च तस्मिन्नन्यः कोऽप्यगणितदीर्घसंसारपरिभ्रमणभयो निद्धमा साधुराजगाम, सोऽपि भिक्षां दत्वा तथैव पृष्टः, ततः स पापीयानुक्तवान्-रते इत्थंभूताः 'कुक्कय्या ' मायया चरन्ति, ततस्त्वदीयचित्तावर्जनार्थ तेन मातृस्थानतो न भिक्षा गृहीता, यावता न तत्र कश्चिदोषः, ईदृशानि च मातृस्थानबहुलानि व्रतान्यस्माभिरपि पूर्व चीर्णानि, परमिदानी चिन्तित-कि मातृस्थानकरणेनेति न मायां कुर्मः, ततः सा चिन्तितवती-अहो ! अयं निर्द्धमा महापापीयान् यस्तादृशमपि सार्बु निन्दतीति विसर्जितः । इत्यंभूता च भक्तिपरवशगा साधुदानाय पादुष्करणमपि कुयोंदिति प्रादुष्करणसम्भवः । सम्पति तदेव पादुकरणं गाथाद्वपेनाह
पाओकरणं दुविहं पागडकरणं पगासकरणं च । पागड संकामण कुड्डदारपाए य छिन्ने व ॥२९८ ॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३२७] » “नियुक्ति: [२९९] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२९९||
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पिण्डनियु- रयणपईवे जोई न कप्पइ पगासणा सुविहियाणं । अत्तहि अपरिभुत्तं कप्पइ कप्पं अकाऊणं ॥ २९९ ॥ उद्गमैषणातेर्मलयगि
___व्याख्या-पादुष्करणं द्विधा, तद्यथा-प्रकटकरण प्रकाशकरणं च, तत्र 'प्रकटकरणम्' अन्धकारादपसार्य पहिः प्रकाशे स्थापन, रीयादृत्तिः 'प्रकाशकरणं' स्थानस्थितस्यैव भिचिरन्धकरणादिना प्रकटीकरणम्, एतदेवाह-सत्र प्रकटकरणमन्धकारादन्यत्र सङ्क्रामणेन प्रकाश-181
रणदोषः७ ॥१४॥ करणं, 'कुडदारपाए' इत्यादि, अन सर्वत्रापि तृतीयार्थे सप्तमी, कुड्यस्य द्वारपातेन-रन्ध्रकरणेन, यदिवा कुक्येन मूलत एवं छिन्नेन येन||
Talकुड्येन कुड्यैकदेशेन वाऽन्धकारमासीत् तेन मूलत एवापनीतेनेत्यर्थः, चशब्दादन्यस्य द्वारस्य करणेन चेत्यादिपरिग्रहः, तथा 'रत्नेन
पभरागादिना 'भदीपेन' प्रतीतेन 'ज्योतिपा' ज्वलता वैश्वानरेण तत्र प्रकाशना मुविहितानां न कल्पते, किमुक्तं भवति ?-प्रकाशकरणेन प्रकटकरणेन च यद्दीयते भक्तादि तत्संयतानां न कल्पते, तत्रैवापवादमाह-अत्तहि 'चि आत्मार्थीकृतं तदपि कल्पते, नवरं । ज्योतिम्प्रदीपौ वर्जयेत् , ताभ्यां प्रकाशितमात्मार्थीकृतमपि न कल्पते, तेजस्कायदीप्तिसंस्पर्शनाव , साधुपात्रमाश्रित्य विधिमाह-इह । सहसाकारादिना पादुष्करणदोषाघातं कथमपि भक्तं पानं वा गृहीतं ततस्तद अपरिभुक्तम् उपलक्षणमेतह अद्धभुक्तमपि परिस्थाप्यो- दरितसिवथुलेपादिना खरण्टितेऽपि तस्मिन् पात्रे 'कल्यं ' जलपक्षालनरूपमकृत्वाप्यन्यत् शुद्ध ग्रहीतुं कल्पते । एतदेव गाथाद्वयं विवरीपुः। प्रथमतश्चुल्लीसङ्क्रमणमाश्रित्य प्रकटकरणं स्पष्टयति
॥१४॥ संचारिमा य चुल्ली बहिं व चुल्ली पुरा कया तेसि । तहि रंधति कयाई उवही पूई य पाओ य ॥ ३० ॥ व्याख्या-इह विधा चुली, तद्यथा-एका सञ्चारिमा या गृहाभ्यन्तरवर्त्तिन्यपि बहिरानेतुं शक्यते, चशब्दात्साऽप्याधाकर्मिकी
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३२८] » “नियुक्ति: [३००] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३००||
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द्रव्या, द्वितीया बहिरेव तेषां साधूनां निमित्तं चुल्ली पुरा कृता आसीत्, चशब्दाचदानी वा साधुनिमित्तं बहिश्चुल्ली कता वेदितव्या, सा च तृतीया । ततो यदि कदाचित्तत्र तिमणां चुल्लीनामन्यतमस्यां गृहस्था राध्यन्ति ततो द्वी दोषी, तपथा-उपकरणपूतिः पादु-|| करणं च, यदा च चूल्याः पृथकृतं तद्देयं वस्तु तदा मादुष्करणरूप एवैकः केवलो दोषः, पूतिदोपस्तूतीर्णः, यदा चुल्योऽपि शुद्धास्त
दापि पादुष्करणरूप एवैको दोषः । यदर्थ मादुष्करणं गृहस्था कृतवती तं भिक्षायै गृहमागच्छन्तं दृष्ट्वा यहजुत्वेन भाषते तदाहAL नेच्छह तमिसंमि तओ बाहिरचुल्ली' साहु सिद्धपणे । इय सोउं परिहरए पुढे सिटुंमिवि तहेव ॥ ३०१ ।।
व्याख्या-हे साधो ! त्वं 'तमिले' अन्धकारे भिक्षां नेच्छसि ततो बहिश्चुल्यां सिद्धं पक्कम् 'अन्न मिति अस्माभिर्भक्तमिति श्रुत्वा तया दीयमानं परिहरति, प्रादुष्करणदोषदुएत्वात् , तथा प्रादुष्करणशङ्कायां किमर्थमयमाहारोऽय गृहस्य पहिस्तात्पका, इत्येवं पृष्टे तया ऋजुतया यथावस्थिते कथिते तथैव परिहरति, एतेनायगाथायां 'संकामण' इत्यवयवो व्याख्यातः । नन्वयं सङ्कामणकृत आहारः केनापि प्रकारेण कल्पते? किं वा न ? इति, उच्यते, आत्मार्थीकृतः कल्पते, कथमस्थात्माधीकरणसम्भव ? इति चेदत आह
मच्छियघम्मा अंतो बाहि पवायं पगासमासन्नं । इय अत्तट्ठियगहणं पागडकरणे विभासेयं ॥३०॥
व्याख्या-साध्व) पूर्व बहिश्चुल्यादि कृत्वा काचिदेवं चिन्तयति--गृहस्यान्तमतिका धर्मश्च, उपलक्षणमेतत् , तेनान्धकार दूर च पाकस्थानादोजनस्थानमित्यादिपरिग्रहः, बहिश्च प्रवातं तेन मक्षिकादयो न भवन्ति, तथा प्रकाशमासनं च पाकस्थानाभोजनस्थान, ततो वयमत्रैवात्मनिमित्तमपि सदैव पक्ष्याम इत्येवमात्मा कृते ग्रहणं, कल्पते इति भावः। इयं प्रकटकरणे कल्प्याकल्प्यविपया विभाषा, सम्पति मकाशकरण स्पष्टयन 'कुट्टदारपाए' इत्यादि व्याचिख्यासुराह
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३३१] .→ “नियुक्ति: [३०३] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियुतेर्मलयगिरीयावृत्तिः
उदमैपणायांप्रादुष्करणदोपः७
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३०३||
॥१५॥
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कुडुस्स कुणइ छिडं दारं वड्ढेइ कुणइ अन्नं वा । अवणेइ छायणं वा ठावइ रयणं व दिप्पंत ॥ ३०३ ॥ जोइ पइवे कुणइ व तहेव कहणं तु पुढ दुढे वा । अत्तहिए उ गहणं जोइ पइवे उ वज्जित्ता ॥ ३०४ ॥
व्याख्या-प्रकाशकरणाथै कुड्यस्य छिद्रं करोति, यद्वा द्वार लघु सद् 'वर्द्धयति ' बृहत्तरं करोति, यदिवाऽन्यड्वितीयं द्वारं करोति, अथवा गृहस्योपरितनं छादनं स्फेटयति, यदिवा दीप्यमानं रत्नं स्थापयति, यद्वा-ज्योतिः प्रदीपं वा करोति, तथैवानन्तरोक्तेन मकारेण स्वयमेव यदिवा पृष्टे सति मादुष्करणे कथिते यद्भक्तादि प्रादुष्करणदोषदुष्टं तत् साधूनां न कल्पते । यदि पुनः प्राक्तनेन प्रकारेणास्मार्थीकरोति तदा ग्रहणं कल्पते इति भावः । ज्योति:प्रदीपाभ्यां प्रकाशमात्माचीकृतमपि न कल्पते, तेजस्कायसंस्पशोत् । सम्पति अपरिभुत् कप्पइ कप्पं अकाऊणं' इति व्याचिख्यासुराह- . पागडपयासकरणे कयंमि सहसा व अबऽणाभोगा। गहियं विगिचिऊणं गेण्हइ अन्नं अकयकप्पे ॥ ३.५ ॥
व्याख्या-प्रकटकरणे प्रकाशकरणे वा कृते सति यत् सहसाऽनाभोगतो वा गृहीतं तद् 'विगिचिऊगं' परिष्ठाप्य तस्मिन् पात्रे उज्झिते लेशमात्रखरण्टितेऽपि 'अकृतकल्पे' जलपक्षालनरूपकल्पदानाभावेऽप्यन्यत शुदं गृहाति, नास्ति कश्चिदोपो, विशोधिकोटित्वात् ॥ उक्त प्रादुष्करणद्वारम् , अथ क्रीतद्वारमाहकीयगडंपि य दुविहं दवे भावे य दुविहमेक्केकं । आयकियं च परकियं परदवं तिविह चित्ताई ॥ ३०६ ॥ व्याख्या-क्रयणं क्रीतं तेन कृतं-निष्पादितं क्रीतकृतं, क्रीतमित्यर्थः, तदपि आस्तां पादुष्करणमित्यषिशब्दार्थः, 'द्विविधं ' द्विा
अनुक्रम [३३१]
॥९५॥
अथ 'क्रीत' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३३४] » “नियुक्ति: [३०६] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||३०६||
दीप
कारं, तद्यथा-'दब्वे भावे य' अत्र तृतीयार्थे सप्तमी, ततोऽयमर्थः-द्रव्येण क्रीत भावेन च क्रीतमित्यर्थः, पुनरप्येक द्रव्यक्रीतं भावक्रीतं च प्रत्येक द्विधा, तद्यथा-आत्मक्रीत परक्रीतं च, आत्मद्रव्यनीतमात्मभावक्रीतं च परद्रव्यकोत परभावक्रीतं चेत्यर्थः, तत्रात्मनास्वयमेव द्रव्येणोज्जयन्तभगवत्पतिमाशेषादिरूपेण प्रदानतः परमावर्ण्य यद्भक्तादि गृह्यते तदात्मद्रव्यनीतं, यत्पुनरात्मना स्वयमेव भक्ताद्यर्थ धर्मकथादिना परमावज्ये भक्तादि ततो गृहाते तदात्मभावक्रीतं, तथा यत्र परेण साधुनिमित्तं द्रव्येण की तपाद्रव्पक्रीत, यत्पुनः परेण | साध्वर्थ निजविज्ञानप्रदर्शनेनापरमावणं ततो गृहीतं तत्परभावक्रीतं, तत्र 'विचित्रा सूत्रगति रिति प्रथमतः परद्रव्यकीतस्य स्वरूपमाहपरदव्यं-गृहस्थसत्कं द्रव्यं त्रिविधं, तयथा-'चित्तादि' सचित्तमचित्तं मिधं च, तेन परेण सावर्थ यत्कीतं तसदम्प फीतम् ।। उक्त परद्रव्यक्रीत, सम्पति शेष भेदत्रयं सामान्यतः कथयति
आयकियं पुण दुविहं दध्वे भावे य व्व चुन्नाई । भावमि परस्सहा अहवावी अप्पणा चेव ॥ ३०७ ॥
व्याख्या-आत्मक्रीतं पुनद्विविध, तयथा-'दब्बे भावे य चि अत्रापि तृतीयार्थे सप्तमी, ततोऽयमः-आत्मनाऽपि क्रीतं द्विधा, विद्यथा-द्रव्येण भावेन च, तत्र द्रव्येण-चूणोंदिना वक्ष्यमाणेन, भावेन पुनः परस्य-साधोराय यनिजविज्ञान प्रदर्शनादिनोपाध्येते तद्भा
वक्रीत, परभावक्रीतमित्यर्थः, अथवा भावेन यदात्मना स्वयमेवाहारा) धर्मकथादिना परमावर्य ततो गृपने तद्भावक्रीतम् , आत्मभाव| क्रीतमित्यर्थः । तदेवं सामान्यतस्त्रयोऽपि भेदा उक्ताः, सम्पत्यात्मव्यक्रांत समपञ्च विवरीपरिदमाह
निम्मल्लगंधगुलिया बन्नय पोत्ताइ आयकय दवे । गेलने उड्डाहो पउगे चहुमारि अहिगरणं ॥ ३०८॥
अनुक्रम [३३४]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [३३६] » “नियुक्ति: [३०८] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३०८||
दीप
पिण्डनियु- व्याख्या-निर्माल्य तीर्थादिगतसप्रभावप्रतिमाशेषा 'गन्धाः' पटवासादयः 'गुलिका ' मुखे प्रक्षेपकस्य स्वरूपपरावादि- उद्गमेषणातेर्मलयगि- कारिका गुटिका 'वर्णकः' चन्दनं 'पोतानि'लघुवालकयोग्यानि वस्त्रखण्डानि, आदिशब्दात्कण्डकादिपरिग्रहः, एतानि कार्य कारणो- यां क्रीतरीयावृत्तिःपचारादात्मन्यक्रीतानि, किमुक्तं भवति?-निर्माल्यादिपदानेन परमावर्य यत्ततो भक्तादि गृह्यते तदात्मद्रव्यक्रांतामति । अत्र दोषा- दोषः८
नाह-'गेकन्ने' इत्यादि, निर्माल्यपदानानन्तरं यदि कथमपि दैवयोगतो ग्लानता भवति तहिं 'भवचनस्योड्डादः साधुनाऽहं ग्लानी॥९६॥ किकृत इत्यादि प्रजल्पनतः शासनस्य मालिन्योत्पते, अथ कथमपि 'प्रगुणः' नीरोगो भवति तर्हि स सर्वदा सर्वजनसमक्षं चढकारी भवति ।
यथाऽहं साधुना प्रगुणीकृतोऽतिशयी चासौ साधुः सकलज्ञातव्यकुशला परहितनिरत इत्यादि समक्ष परोक्षं वा सदैव प्रशंसां करोति, तथा
च सत्यधिकरणं-भूयस्तस्याधिकरणप्रवृत्तिः, तादृशीं हि तस्य प्रशंसामाकान्योऽन्यः समागत्य तं साधु निर्माल्यगन्धादि याचते, ततHal|स्तत्मार्थनापरवशाः अधिकरणमपि समारभते । सम्मति परभावक्रीतं विवृण्वन्नाद
वइयाइ मखमाई परभावकयं तु संजयहाए । उप्पायणा निमंतण कीडगडं अभिहडे ठविए ॥ ३०९ ॥
व्याख्या-वजिका' लघुगोकुलम्, उपलक्षणमेतत् , तेन पत्तनादिपरिग्रहः, तत्र जिकादौ 'मङ्खादिः' मङ्ग:-केदारको यः॥ पदमुपदर्य लोकमावर्जयति, आदिशब्दात्तथाविधान्यपरिग्रहः, भक्तिवशात् संयतार्थं यद् घृतदुग्धादेरुत्पादनं करोति कृत्वा च निमन्त्रपति तत्परभावक्रीतं, परेण-मजादिना संयतार्थ भावन-स्वपटप्रदर्शनादिरूपेण क्रीतं परभावक्रीतम् , इत्थंभूते च परभावक्रीते त्रयो दोषा: ॥१६॥ एकं तावत्क्रीतं, द्वितीयमन्यस्मादन्यस्माद्गृहादानीतमित्यभ्याहृतम्, आनीयानीय चैकत्र साधुनिमित्तं स्थाप्यत इति स्थापितं, तस्मात्ताहशमपि साधूनां न कल्पते । एतदेव गाथाद्वयेन स्पष्टयनाह
अनुक्रम [३३६]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३३८] » “नियुक्ति: [३१०] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
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गाथांक नि/भा/प्र ||३१०||
सागारि मंख छंदण पडिसेहो पुच्छ बहु गए वासे । कयरि दिसिं गमिस्सह ? अमुई तहिं संथवं कुणइ ॥ ३१ ॥ दिज्जते पडिसेहो कज्जे घेत्थं निमंतणं जइणं । पुचगय आगएK संछुहई एगगेहमि ॥ ३११॥
व्याख्या-शालिग्रामो नाम ग्रामः, तत्र देवशर्माभिधानो मङ्खः, वस्य च गृहैकदेशे कदाचित केचित् साधवो वर्षाकालमवस्थिताः, सच मस्तेषां साधूनामनुष्ठानमरक्तद्विष्टतां चोपलभ्यातीव भक्तिपरीतो बभूव, प्रतिदिवसं च भक्तादिना निमन्त्रयति, साधयक्ष शय्या-1
तरपिण्डोऽयमिति प्रतिषेधन्ति, ततः स चिन्तयामास-ययैते मम गृहे भक्तादि न गृह्णन्ति यदि पुनरन्यत्र दापयिष्यामि तथापि न ग्रहीबाध्यन्ति, तस्माद्वर्षाकालानन्तरं यत्रामी गमिष्यन्ति तत्राग्रे गत्वा कधमप्येवेभ्यो ददामीति, ततः स्तोकशेपे वर्षाकाले साधवस्तेन पच्छिरे
यथा भगवन् ! वर्षाकालानन्तरं कस्यां दिशि गन्तव्यं !, ते च यथाभावं कथयामामुः-यथाऽमुकस्यां दिशि, ततः स तस्यामेव दिशि कचिद्रोकुळे निजपटमुपदर्य बचनकौशलेन लोकमावर्जितवान् , लोकश्च तस्मै घृतदुग्धादिकं. दातुं प्रावतिष्ठ, ततः स वभाण-यदा याचिष्ये (याचे) तदा दातव्यमिति, साधयश्च वर्षाकालानन्तरं यथाविहारक्रम ताजग्मुः, तेन चात्मानमज्ञापयता पूर्वमतिषिद्धघृतदुग्धादिकं । प्रतिगृहं याचित्वैकत्र च गृहे संमील्य मुक्तं, ततः साधवो निमन्त्रिताः, तैश्च यथाशक्ति छद्मस्थदृष्टया परिभावितं, परं न लक्षितं, ततः शुद्ध-18 मितिकृत्या गृहीत, न च तेषां तथा गृह्णवां कश्चिदोषः, यथाशक्ति परिभावनेन भगवदाज्ञाया आराधितत्वात् , यदि पुनरित्थंभूतं कथमपि का ज्ञायते ताहि नियमतः परिहत्तेंव्यं, क्रीताभ्यवहृतस्थापनारूपदोषत्रयसद्भावादिति । सूत्रं सुगम, नवरं 'सागारिक: ' शय्यातरः 'संस्तवः' परिचयः, निजपटमदशेनेन लोकावजेनमिति तात्पयाथः । तदेवमुक्तं परभावक्रीत, सम्पत्यात्मभावकीत स्पष्टयन्नाह
धम्मकह वाय खमणं निमित्त आयावणे सुयट्ठाणे । जाई कुल गण कम्मे सिप्पम्मि य भावकीयं तु ॥३१२ ॥
दीप
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अनुक्रम [३३८]
16000रूर
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३४०] » “नियुक्ति: [३१२] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१२||
दीप
पिण्डनियु- च्याख्या-धर्मकथादिषु भावक्रीतं भवति, इयमत्र भावना-पत् परचित्तावर्जनार्य धर्मस्थां बादं 'क्षपण' घटाष्टमादिरूपं तपोalenीतदोषः तर्मलयागि- निमित्तमातापनां वा करोति, यद्वा-श्रुतस्थानमाचार्योऽहमित्यादिकं कथयति, यदिवा जाति कुलं गणं शिल्प कर्म वा परेभ्यः प्रकटयति,
MA इत्थं च परमावर्य यत्ततो भक्तादि गृहाति तदात्मभावक्रीत, यदा तु दुःखक्षयार्थ कर्मक्षयार्थं च धर्मकथादिकं यथायोग करोति तदा।
स प्रवचनप्रभावकतया महानिर्जराभाग भवति, उक्तं च-"पौवयणी धम्मकही वाई नेमित्तिो तबस्सी य । विजा सिद्धो य कई अवेव पभावगा भणिया ॥१॥" सम्पति धर्मकथारूपं प्रथमं द्वारं प्रपश्चयितुमाह
धम्मकहाअक्खित्वे धम्मकहाउठियाण वा गिण्हे । कडुति साहवो चिय तुमं व कहि पुच्छिए तुसिणी ॥ ३१३ ॥ . व्याख्या-आहारापर्थ धर्मकयां कथयता यदा ते श्रोतारो धर्मकथया सम्यगाक्षिप्ता भवन्ति तदा तेषां पार्षे यथाचते, ते हि तदा प्रहर्षमागताः सन्तोऽभ्यर्थिता न तिष्ठन्ति, यदा-धर्मकथात उत्थितानां सतां तेषां पार्षे यद्हाति तदात्मभावक्रीतम् , आत्मना-स्वयमेव भावेन-धर्मकथनरूपेण क्रीवमात्मभाववामिति, यहा-धर्मकथाकथक कोऽपि प्रसिद्धो वर्चते, तदनुरूपाकारश्च विवक्षितः साधुः,ततस्तं श्रावकाः पृच्छन्ति-यः 'कधी धर्मकथाकथक:श्रूयते, स किं त्वम् ? इति, ततः स भक्तादिलोभादेवं वक्ति-यथा साधव एव पायो धर्मकयां कथयन्ति, नान्यः, यदिवा तूष्णीं-मोनेनावतिष्ठते, ततस्ते श्रावका जानन्ते-पथा स एवार्य, केवलं गम्भीरत्वादात्मानं न साक्षादचसा प्रकाशयतीति, ततः प्रभूततरं तस्मै प्रयच्छन्ति, तच्च तेभ्यः प्रभूततरं लभ्यमानमात्मभावकृतम्, आत्मना-स्वयमेव भावेन-स्वय-18 मसोऽपि कथकः सोऽहं कथक इति ज्ञापनलक्षणेन क्रीतमितिकृत्वा । अथवा
१ प्रवचनी धर्मकधी वादी नैमित्तिकः तपस्वी च । विद्यावान् सिद्धश्च कविरष्टावेव प्रभावका भणिताः ।। १।।
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अनुक्रम [३४०]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [३४२] » “नियुक्ति: [३१४] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१४||
पिण्डनियु- च्याख्या-धर्मकथादिषु भावक्रीतं भवति, इयमत्र भावना-पत् परचित्तावर्जनार्य धर्मस्थां बादं 'क्षपण' घटाष्टमादिरूपं तपोalenीतदोषः तर्मलयागि- निमित्तमातापनां वा करोति, यद्वा-श्रुतस्थानमाचार्योऽहमित्यादिकं कथयति, यदिवा जाति कुलं गणं शिल्प कर्म वा परेभ्यः प्रकटयति,
MA इत्थं च परमावर्य यत्ततो भक्तादि गृहाति तदात्मभावक्रीत, यदा तु दुःखक्षयार्थ कर्मक्षयार्थं च धर्मकथादिकं यथायोग करोति तदा।
स प्रवचनप्रभावकतया महानिर्जराभाग भवति, उक्तं च-"पौवयणी धम्मकही वाई नेमित्तिो तबस्सी य । विजा सिद्धो य कई अवेव पभावगा भणिया ॥१॥" सम्पति धर्मकथारूपं प्रथमं द्वारं प्रपश्चयितुमाह
धम्मकहाअक्खित्वे धम्मकहाउठियाण वा गिण्हे । कडुति साहवो चिय तुमं व कहि पुच्छिए तुसिणी ॥ ३१३ ॥ . व्याख्या-आहारापर्थ धर्मकयां कथयता यदा ते श्रोतारो धर्मकथया सम्यगाक्षिप्ता भवन्ति तदा तेषां पार्षे यथाचते, ते हि तदा प्रहर्षमागताः सन्तोऽभ्यर्थिता न तिष्ठन्ति, यदा-धर्मकथात उत्थितानां सतां तेषां पार्षे यद्हाति तदात्मभावक्रीतम् , आत्मना-स्वयमेव भावेन-धर्मकथनरूपेण क्रीवमात्मभाववामिति, यहा-धर्मकथाकथक कोऽपि प्रसिद्धो वर्चते, तदनुरूपाकारश्च विवक्षितः साधुः,ततस्तं श्रावकाः पृच्छन्ति-यः 'कधी धर्मकथाकथक:श्रूयते, स किं त्वम् ? इति, ततः स भक्तादिलोभादेवं वक्ति-यथा साधव एव पायो धर्मकयां कथयन्ति, नान्यः, यदिवा तूष्णीं-मोनेनावतिष्ठते, ततस्ते श्रावका जानन्ते-पथा स एवार्य, केवलं गम्भीरत्वादात्मानं न साक्षादचसा प्रकाशयतीति, ततः प्रभूततरं तस्मै प्रयच्छन्ति, तच्च तेभ्यः प्रभूततरं लभ्यमानमात्मभावकृतम्, आत्मना-स्वयमेव भावेन-स्वय-18 मसोऽपि कथकः सोऽई कथक इति ज्ञापनलक्षणेन क्रीतमितिकृत्वा । अथवा
१ प्रवचनी धमकी वादी नैमित्तिकः तपस्वी च । विद्यावान् सिद्धश्च कविरष्टावेव प्रभावका भणिताः ।। १।।
दीप
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अनुक्रम [३४२]
પેજ બદલાવવું અહી મૂળ પ્રતનું પૃષ્ઠ ૯૮/૧ સ્કેન થયું નથી તેને બદલે પૃષ્ઠ ૯૭૨ બે વખત સ્કેન થયેલ છે.
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३४६] » “नियुक्ति: [३१६] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१६||
पिण्डनियु- तमेळयगि- रीयावृत्तिः ॥९८॥
दीप
चार्यत्वं, आदिशब्दात् मवर्चकत्वादिपरिग्रहः, तत्र भक्ताद्यर्थमाचार्या वयमुपाध्याया वयमित्यादि जनेभ्यः प्रकाशयति येन जना आचार्य- मामित्यवादिकमवगम्य प्रभूततरं वितरन्ति, गद्वा-ये आचार्या महाविद्वांसः श्रूयन्ते ते कि यूयम् ? इत्यादि तथैव भावनीय, जात्यादिकं वेत- दोषे भगिदर्थ कथयति येन समानं जात्यादिकमकई च शिल्पादि ज्ञात्वा प्रभूतं प्रयच्छन्ति, तव तथा प्रभूतं लभ्यमानमात्मभावक्रीतं । तदेवमुक्तं मन्युदाहरण क्रीतद्वारं, सम्पति प्रामित्यद्वारमाह
पामिपि य दुविहं लोइय लोगुत्तरं समासेण । लोइय सझिलगाई लोगुत्तर वत्थमाईसु ॥ ३१६ ॥
व्याख्या-मामित्यमपि समासेन 'द्विविध' द्विपकार, तद्यथा-लौकिकं लोकोत्तरं च, तत्र लोके भवं लौकिक, तच साधुविषयं सज्झिलगाई' सझिलगा-भगिनी, आदिशब्दादात्रादिपरिग्रहः तस्मिन् , किमुक्तं भवति?-भगिन्यादिभिः क्रियमाणं द्रव्यमिति, अत्र च भगिनीशब्देन कथानकं सूचितं, तदने स्वयमेव वक्ष्यति, लोकोत्तरं प्रामित्यं वस्त्रादिषु । बलादिविषयं साधूनामेव परस्परमवसेयम् । इहलौकिकं भगिन्यादा' वित्युक्तं, तत्र भगिन्युदाहरणमेव गाथात्रयेण प्रकटयति
सुयअभिगमनाय विही बहि पुच्छा एग जीवइ ससा ते । पविसण पाग निवारण उच्छिदण तेल्ल जइदाणं ॥३१७॥ अपरिमिय नेहवुड्डी दासत्तं सो य आगओ.पुच्छा । दासत्तकहण मा रुय अचिरा मोएमि एत्ताहे ॥ ३१८॥ भिक्खदगसमारंभे कहणाउट्टो कहिंति वसहित्ति । संवेया आहरणं विसज्जु कहणा कइवया उ ॥ ३१९ ॥ व्याख्या-कोशलाविषये कोऽपि ग्रामस्तत्र देवराजो नाम कुटुम्बी, सारिकाभिधा तस्य भार्या, तस्याच सम्मतप्रमुखा बहवः
अनुक्रम [३४६]
अथ 'प्रामित्य दोषस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३४७] » “नियुक्ति: [३१९] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||३१९||
सुताः, सम्मतिप्रभृतयश्च प्रभूता दारिकाः, तथ सकलमपि कुटुम्ब परमश्रावक, तथा तस्मिन्नेव ग्रामे शिवदेवो नाम श्रेष्ठी, तस्य भाय शिवा, अन्यदा च समुद्रघोषाभिधाः सूरयः समागच्छन् , तेषां समीपे जिनप्रणीतं धर्ममाकये जातसंवेगः सम्मतो दीक्षा ग्रहीतवान्, कालक्रमेण च गुरुचरणप्रसादतोऽताव गीता)समजनि । स चान्यदा चिन्तयामास-यदि मदीयः कोऽपि प्रवज्यां गृहाति ततः शोभना भवति, इदमेव हि ताचिकमपकारकरणं यत्संसाराणवादुत्चारणमिति, तत एवं चिन्तयित्वा गुरूनापृच्छय निजवन्धुग्रामे समागमत, तत्रच बहिः प्रदेशे कमपि परिणतवयस पृष्टवान् पुरुष-यथान देवराजाभिधस्य कुटुम्बिन: सत्कः कोऽपि विद्यते ! इति, समाह-मृतं सर्वमपि तस्य कुटुम्ब केवलमेका सम्मल्यभिधा विधवा पुत्रिका जीवतीति, ततः स तस्या गृहे जगाम, सा च भ्रातरमायान्तं दृष्टा मनसि बह-18 मानमुद्वदन्ती वन्दित्वा कश्चित्कालं पर्युपास्य च तन्निमित्तमाहारं पक्तुमुपतस्थे, साधुश्च तां निवारितवान्-यथा न कल्पतेऽस्माकमस्म
निमित्तं किमपि कृतमिति, ततो भिक्षावेलायां सा दुर्गतत्वेनान्यत्र कचिदपि तैलमात्रमप्पलभमाना कथमपि शिवदेवाभिवस्य वणिजो विप-81 हाणेस्तैलपलिकादयं दिने दिने द्विगुणवृद्धिरूपेण कलान्तरेण समानीय भ्रात्रे दत्तवती, भात्रा च तं वृत्तान्तमजानता शुद्धमिति ज्ञात्वा प्रति
जगृहे, सा च तदिनं भ्रातुः सकाशे धर्म श्रुतवती, तेन न पानीयानयनादिना तत्तैलपलिकाद्वयं प्रवेशयितुं प्रपारितवती, द्वितीये व दिने । भ्राता (यथा) विहारक्रमं गतः, ततस्तस्मिन्नपि दिने तद्वियोगशोकाकीर्णमानसतया न तत्तैलपलिकाद्वयं द्विगुणीभूतं प्रवेशयितुं शक्तवती, तृतीये । च दिने कर्षद्वयमणे जातं तच्चातिप्रभूतत्वान्न प्रवेशयितुं शक्तम् , अपिच भोजनमपि पानीयानयनादिना कर्तव्यं, ततो भोजनायेच यत्नविधौ । सकलमपि दिनं जगामेति न ऋणं प्रवेशयितुं शक्नोति, ततो दिने दिने द्विगुणवृद्धया प्रवर्द्धमानमृणमपरिमितघटप्रमाणं जातं, ततः श्रेष्टिना सा बभणे-यथा मम तैलं देहि यद्वा मे दासी भव, ततः सा तैलं दातृमशक्नुवती दासत्वं प्रतिपदे, कियत्सु च वर्षेष्वतिक्रान्तेषु भूयो
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अनुक्रम [३४७]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३४७] » “नियुक्ति: [३१९] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१९||
पिण्डनियु- पि सम्मतामिषः साधुस्तस्मिन्नेव ग्रामे यथाविहारक्रममागमत, सा च भगिनी स्वगृहे न दृष्टा, तत आगता सती पपच्छे, तया च प्राचीनः मामित्यतमेलयगि- सर्वोऽपि व्यतिकरस्तस्मै न्यवेदि यावदासत्वं शिवदेवगृहे जातमिति, निवेद्य च स्वदुःखं रोदितुं प्रवृत्ता, ततः साधुरखोचत-मा रोदीरीयावृत्तिः रचिरादहं त्वां मोचयिष्यामि, ततस्तस्या मोचनोपायं चिन्तयन् प्रथमतः शिवदेवस्यैव गृहे प्रविवेश, शिवा च तस्य भिक्षादानार्थ जलेन हस्तौ |
न्युदाहरणं ॥९९॥
पक्षालयितुं लग्ना, तां च साधुनिवारयामास, ययैवमस्माकं न कल्पते भिक्षेति, ततः समीपदेशवत्ती श्रेष्ठी प्रोवाच-कोत्र दोषः, ततः साधुः। कायविराधनादीन् दोषान् यथागर्म सविस्तरमचीकथत् ततः स आतो भणति यथा भगवन् ! कुछ युष्माकं वसतिर्येन तत्रागता वयं धर्म || शृणुमः ततः साधुरवादीत-नास्ति मेऽयापि मतिश्रयः, ततस्तेन निजगृहैकदेशे वसतिरदाधि, प्रतिदिनं च धर्म शृणोति, सम्यक्त्वमणुव्रतानि च । मतिपन्नाानि, साधुश्च कदाचनापि वासुदेवादिपूर्वपुरुषाचीननेकानभिग्रहान् व्यावर्णयामास, यथा वासुदेवेनायमभिग्रदो जगृहे-पदि मदीयः पुत्रोऽपि प्रवज्यां जिघृक्षति ततोऽई न निवारयामीत्यादि, एवं च श्रुत्वा शिवदेवोऽप्यभिग्रहं गृहीतवान्-यदि भगवन् ! मदीयोऽपि कोऽपि भव्रज्यां प्रतिपद्यते ततोऽहं न निवारयामीति, अत्रान्तरे च शिवदेवस्य तनयो ज्येष्ठः सा च साधुभगिनी सम्मतिः प्रवज्यां ग्रहीतुमुपतस्थे, श्रेष्ठिना च वी द्वावपि विसर्जितो, ततः प्रव्रज्या प्रतिपन्नाविति । सूत्रं सुगम, केवलं 'श्रुताधिगमज्ञातविधिः श्रुताधिगमात् ज्ञातो विधिः-क्रियाविधिर्येन स तथा, अत्राह-नन्वेतल्यामित्यं साधुना विशेषतो ग्रहीतव्यं, परम्परया प्रव्रज्याकारणत्वात् , अत आह
'कइक्या उ' एवंविधा गीतार्थी विशिष्टश्रुतविदो देशनाविधिनिपुणाः कतिपया एव भवन्ति, न भूयांसः, कतिपयानामेव च प्रव्रज्यापरिMणामः, ततः पामित्यं दोषायैव । तदेवं तैलविषपे प्रामित्ये दोष उक्तः, सम्पत्यतिदेशेन वस्त्रादिविषये दोषानभिधित्सुराह
एए चेव य दोसा सविसेसयरा उ वत्थपाएसं । लोइयपामिच्चेसुं लोगुत्तरिया इमे अन्ने ॥ ३२० ॥
दीप
अनुक्रम [३४७]
0000000000000000016
॥२९॥
SARERatinintenmarana
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३४८] » “नियुक्ति: [३२०] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३२०||
व्याख्या-एते एव' दासत्वादयो दोषा वस्त्रपात्रविषयेषु लौकिकेषु प्रामित्येषु सविशेषतरा निगडादिनियन्त्रणपुरस्सरा द्रष्टव्याः, लोकोतरिकाः लोकोत्तरमामित्यविषयाः पुनरिमेऽन्ये दोषाः, तानेवाह| मइलिय फालिय खोसिय हियनढे वावि अन्न मग्गंते । अवि सुंदरेवि दिण्णे दुकररोई कलहमाई ॥ ३२१ ॥
व्याख्या-इह द्विधा लोकोत्तरं मामित्यं--कोऽपि कस्यापि सत्कमेवं वस्त्रादि गृह्णाति यया कियदिनानि परिभुज्य पुनरपि ते समर्पयिष्यामि, कोऽपि पुनरेवम्-एतावदिनानामुपरि तदेतत्सदृशमपरं वखादि दास्यामि, तत्र प्रथमे प्रकारे 'मलिनिते' शरीरादिमलेन लेदिते यदिवा पाटितेऽथवा 'खोसिते' जीर्णपाये कृते यदि वा चौरादिना हुते यदा-कापि मार्गपतिते कलहादयो दोषाः। द्वितीये च प्रकारेऽन्यदनादिकं याचमानो याचमानस्य 'अपिः' सम्भावनायां 'मुन्दरेऽपि' पूर्वभुक्तादवादेविशिष्टतरेऽपि दत्ते कोऽपि दुष्कररुचिर्भति, महता कप्टेन तस्य रुचिरापादयितुं शक्यते, ततस्तमधिकृत्य कलहादयो दोषाः सम्भवन्ति, तस्माल्लोकोत्तरमपि मामित्यं न कर्त्तव्यम् ।।
अत्रैवापवादमाहका उच्चत्ताए दाणं दुल्लभ खग्गूड अलस पामिन्चे । तंपि य गुरुस्स पासे ठवेइ सो देइ मा कलहो । ३२२ ॥ ILL व्याख्या-इह दुर्लभे वस्त्रादौ सीदतः साधोर्यदि वस्त्रादिकमपरेण साधुना दातुमिष्यते तहि तस्य 'उश्चतया' मुधिकतया दानं
कर्त्तव्यं, न पामित्यकरणेन, तथा यः 'खग्गूडः ' कुटिलो बैयाढत्यादौ न सम्यग् वर्चते योऽपि चालस: तौ दुर्लभवखादिदानमलोभनेनापि चैयाऋत्यं कार्येते, ततस्तद्विषयं पामित्यं सम्भवति, तत्रापि तदीयमानं वखादिक दायको गुरोः पार्थे स्थापयेत् , न स्वयं दद्यात, ततः स गुरुर्ददाति, मा भूदन्यथा तयोः परस्परं कलह इतिकृत्वा । उक्त प्रामित्यद्वारम्, अधुना परावर्तितद्वारमभिषित्सुराह
1406०००००००००००००००+000000000
दीप
अनुक्रम [३४८]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३५१] .→ “नियुक्ति: [३२३] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
तिदोषः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३२३||
पिण्डनियु- परियट्टियपि दुविहं लोइय लोगुत्तरं समासेणं । एकेकंपि अ दुविहं तद्दब्वे अन्नब्वे य ॥ ३२३ ॥ १८परिवतेर्मळयगि
व्याख्या-'परिवर्तितमपि ' उक्तशब्दार्थ 'समासेन ' सङ्केपेण द्विविधं, तद्यथा-लौकिकं लोकोत्तरं च, एकैकमपि द्विविध, FATE रीयात्तिः ।
भ्राताभगितद्यथा-'तहव्ये' तद्रव्यविषयम् 'अन्यद्रव्ये ' अन्यद्रव्यविषयं च, तत्र तव्यविषयं यथा कुथितं घृतं दत्त्या साधुनिमित्तं मुगन्धि घृतं । ॥१०॥ गृह्णातीत्यादि, अन्यद्रव्यविषयं यथा कोद्रवकूर समर्पयित्वा साधुनिमित्तं शाल्योदनं गृह्णातीत्यादि, इदं च लौकिकम् , एवं लोकोत्तरमपि
भावनीयं । सम्पति लौकिकस्योदाहरणं गाथात्रयेणाइ
अबरोप्परसजिझलगा संजुत्ता दोवि अन्नमन्नेणं । पोग्गलिय संजयट्ठा परियट्टण संखडे घोही ।। ३२४ ॥ अणुकंप भगिणिगेहे दरिद्द परियट्टणा य कूररस । पुच्छा कोद्दवकूरे मच्छर णाइक्ख पंतावे ॥ ३२५ ॥ इयरोऽविय पंतावे निसि ओसबियाण तेसि दिक्खा य । तम्हा उ न घेत्तव्वं कइ वा जे ओसमेहिंति ॥ ३२६ ॥
व्याख्या-वसन्तपुरे नगरे निलयो नाम श्रेष्ठी, तस्य सुदर्शना नाम भार्या, तस्या द्वौ पुत्रौ, तद्यथा-क्षेमकरो देवदत्तश्च, लक्ष्मीनामा च दुहिता, तत्रैव वसन्तपुरे तिलको नाम श्रेष्ठी, सुन्दरी नाम तस्य महेला, तस्या धनदत्तः पुत्रो बन्धुमती दुहिता,||| तत्र क्षेमडूरः समितसूरीणामुपकण्ठे दीक्षा गृहीतवान्, देवदत्तेन च बन्धुमती धनदत्तेन च लक्ष्मीः परिणीता, अन्यदा च कर्मवशतो धनदत्तस्य दारिद्रयमुपतस्थे, ततः स प्रायः कोद्रवकूर मुक्त देवदत्तश्वेश्वरः, ततः स सर्वदेव शाल्योदनं मुझे, अन्यदा च स क्षेमङ्करः । साधुर्यधाविहारक्रमं तत्राजगाम, स च चिन्तयामास-यदि देवदत्तस्य भ्रातृगृहे गमिष्यामि ततो मे भगिनी दारिद्रघेणाहमभिभूता ततो
दीप
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अनुक्रम [३५१]
।॥१०॥
PRIMaitaram.org
| अथ 'परिवर्तित' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३५४] » “नियुक्ति: [३२६] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३२६||
दीप
कान मम गृहे साधुरपि भ्राता समुत्तीर्ण इति परिभवं मंस्यते इति, ततोऽनुकम्पया तस्या एवं गृहे प्रविवेश, भिक्षावेलायां च तया लक्ष्म्या।
चिन्तितं-यथैकं तावदयं भ्राता द्वितीयं साधुः तृतीयं प्राघूर्णकः, मम च गृहे कोद्रवकूस, ततः कथमसावस्मै दीयते?, शाल्पोदनच मम ग्रह न विद्यते, ततो भ्रातृजायाया बन्धुमत्याः सकाशात् कोद्रवोदनपरावर्तनेन शाल्योदनमानीय ददामीति तथैव कृतम्, अत्रान्तरे च। देवदचो भोजनार्थ स्वगृहमागतः, वन्धुमत्या च पप्रच्छे यथाऽय कोदवौदनो जेमितव्यः, तेन चाविज्ञातपरिवर्तनवृत्तान्तेन चिन्तितंयथाऽनया कृपणतया कोद्रवौदनो राद्धो न शाल्योदना, ततस्तां ताडयितुमारेभे, सा च ताब्यमाना पाह-किं मां ताडयसि!, तवैव | भगिनी कोद्रोदनं मुक्त्वा शाल्योदनं नीतवती, धनदत्तस्यापि च भोजनार्थभुपविष्टस्य यः शाल्योदनः क्षेमङ्करस्य दीयमान उद्धरितः स गौरवेण लक्ष्म्या परिवेपितः, ततस्तेन सा पृष्टा-कुतोऽयं शाल्योदनः !, ततः कथितः सर्वोऽपि तया वृत्तान्तः, श्रुत्वा च तं वृत्तान्त चकोप धनदत्तो-यथा हा! पापे ! किमिति त्वया मानमेकं शाले: पक्त्वा साधवे शाल्योदनो न दत्तो यत्परगृहादानयनेन मम मालिन्यमापादितं, ततस्तेनापि सा ताडिता, साधुना चायं वृत्तान्तो गृहद्वयवर्ती सर्वोऽपि जनपरम्परातः शुश्रुवे, ततो निशि सर्वाग्यपि तानि प्रतिबोधितानि, यथेत्थमस्माकं न कल्पते परमजानता मया गृहीतम् । अत एव च कलहादिदोषसम्भवाद्भगवता प्रतिषिद्धं, ततो जिनप्रणीतं धर्म सविस्तरं कथितवान् , जातः सर्वेषामपि संवेगो, दत्ता च दीक्षा तेषां सर्वेषामिति । सूत्र मुगम, नवरम् 'अवरुप्परसज्झि
लगा' इति लक्ष्मीदेवदत्तौ बन्धुमतीधनदत्तौ परस्परं 'सज्झिलगौं' भ्रातरौ, ते च 'अपि । लक्ष्मीवन्धुमत्यौ अन्नमन्त्रेणं 'ति । अन्योऽन्यमपि सम्बद्ध देवदत्तस्य भगिनी लक्ष्मीर्धनदत्तेन धनदत्तस्यापि भगिनी बन्धुमती देवदत्तेन परिणीता इत्यर्थः, 'पोग्गलिय'त्ति
पौलिकस्य शाल्योदनस्य 'संयतार्थ क्षेमकरसाधुनिमित्तं परिवर्तनं कृतं, ततः 'संखड' कलहस्ततः 'बोधिः प्रवज्या, अस्या
अनुक्रम [३५४]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३५४] » “नियुक्ति: [३२६] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनिघु
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३२६||
77.HIANTRA
एव गाथाया विवरणभूतमुत्तरं गाथाद्वयं, तदपि च सुगर्म, नवरं मच्छर 'चि विभक्तिलोपात् मत्सरेण 'नाइक्ख 'ति परिवर्तनेऽकथिते ||१०परिवकेमेलयगि- पंतावे' अताडयत्, 'उपसमियाण'त्ति उपशमितानां, ननु परिवर्तनमपीदं प्रवज्यायाः कारणं बभूव ततो विशेषतः साधुभिरिदमाचरणी- तितदोषः
यमत आइ-'कइ बत्ति कति वा कियन्तो 'वा क्षेमरसाधुसदृशा भविष्यन्ति ये इत्वं परिवर्तनसमुत्थं कलहमपनीय प्रवज्यां ग्राह- भ्राताभागि यिष्यन्ति, तस्मात्रैवेदमाचरणीयम् । उक्तं लौकिकं परिवर्तनम्, अथ लोकोत्तरं तद्वक्तव्यं, तत्र यत् साधुः साधुना सह वखादिपरि- न्युदा
वर्त्तनं करोति तल्लोकोत्तरं परिवर्तनं, तंत्र दोषानुपदर्शयतिकाऊणहिय दुबलं वा खर गुरु छिन्न मइलं असीयसहं । दुव्वन्नं वा नाउं विपरिणमे अन्नभणिओ वा ॥ ३२७ ॥ | व्याख्या-बसपरिवर्तने कृते सतीदं न्यूनं यत्तु मदीयं बलं बभूव तन्मानयुक्तं-प्रमाणोपपन्न, यद्वा इदमधिकं मदीयं पुनर्मानआयुक्तमेवं सर्वत्र भावना, नवरं 'दुर्बलं' जीर्णप्राय 'खरं' कर्कशस्पर्श 'गुरुः' स्थूलसूत्रनिष्पन्नतया भारयुक्तं 'छिन्नं निपुष्पक
मलिनं मलाविलम् 'अशीतसई शीतरक्षणाक्षम' 'दुर्वण' विरूपच्छायम्, इत्थंभूतं स्वयमेव ज्ञात्वा 'विपरिणमेत् ' घृष्टोऽहमिति विचिन्तयेत् , यद्वा-अन्येन साधुना खम्गूडेन भणित उत्पासितो विपरिणमेत् । अवापवादमाहएगस्स माणजुत्तं न उ बिइए एवमाइ कज्जेसु । गुरुपामूले ठवणं सो दलयइ अन्नहा कलहो ॥ ३२८ ॥
॥१०॥ ___ व्याख्या-एकस्य साधोर्यस्य सत्कं तन्न भवति तस्य 'मानयुक्त' प्रमाणोपपन्नं वस्त्रादि, न द्वितीये-द्वितीयस्य साधोर्यस्य सत्कं । तस्य मानयुक्तं, किन्तु ?-न्यूनमधिकं वा, तत एवमादिषु कार्येषु समुत्पन्नेषु परिवर्चनस्य सम्भवो भवति, तत्र परिवर्तनस्य सम्भवे ।
दीप
अनुक्रम [३५४]
awraturasurare.org
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [३५६] » “नियुक्ति: [३२८] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३२८||
दीप
यस्य सत्कं तद्वस्त्रादि तेन मुरुपादमूले तस्य बत्रादेः स्थापन कर्त्तव्यं, गुरुपादमूले मोक्तव्यमित्यर्थः, ततो वृत्तान्त: कथनीयः, वृत्तान्ते च 15 कथिते सति स गुरुर्ददाति 'अन्यथा' गुरुपादमूलस्थापनाथभावे 'कलहः' परस्परं रातिः सम्भवतीति । उक्त परिवर्तितद्वारस , अथा
भ्याहृतद्वारमाह___ आइन्नमणाइन्नं निसीहऽभिहडं च नोनिसीहं च । निसिहाभिहडं ठप्पं वोच्छामी नोनिसीहं तु ॥ ३२९ ॥
व्याख्या-अभ्याहृतं द्विधा, तद्यथा-आचीर्णमनाचीर्णं च, तवानाचीर्ण द्विधा, तद्यथा-निशीथाभ्याहृतं नोनिशीथाभ्याहृतं च, तत्र निशीयम् -अर्द्धरात्रं तत्रानीतं किल प्रच्छन्नं भवति, एवं साधूनामपि यदविदितमभ्याहृतं तनिशीथाभ्याहृतामिव निशीथाभ्याहृतं, तद्विपरीतं नोनिशीथाभ्याहृतं यत्साधूनामभ्याहृतमिति विदितं भवति, तत्र निशीथाभ्याहृतं स्थाप्यम्, अग्रे वक्ष्यते इति भावः, सम्पति पुनवक्ष्यामि नोनिशीथाभ्याहृतं । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति
सग्गाम परग्गामे सदेस परदेसमेव बोद्धव्वं । दुहिं तु परग्गामे जलथल नावोडु जंघाए ॥ ३३ ॥
व्याख्या-नौनिशीथाभ्याहृतं द्विविध, तद्यथा-'स्वग्रामे स्वग्रामविषय 'परग्रामे' परग्रामविषय, तत्र यस्मिन ग्रामे साधुनिवसति सः किल स्थग्रामः, शेषस्तु परग्रामः, तत्र 'परग्रामे' परग्रामविषयमभ्याहृतं द्विविधं, तद्यथा-स्वदेशं परदेशं च, स्वदेशपरग्रामाभ्याहृतं परदेशपर-11 ग्रामाभ्याहृतं चेत्यर्थः । तत्र स्वदेशो यत्र देशे मण्डले साथुर्वर्तते, शेषस्तु परदेशः । एतद्विविधमपि प्रत्येकं द्विधा, तद्यथा-'जलथल 'त्ति
सूचनात्सूत्र 'मितिकृत्वा जलपथेनाभ्याहृतं स्थलपथेनाभ्याहृतं च, तत्र जलपयेनाप्यभ्याहृतं द्विधा-नावा उडुपेन च, उपलक्षणमेतत् || तेन स्तोकजलसम्भावनायां जडाभ्यामपि, तत्र नौ:-तरिका उडुपः-तरणकाष्ठं तुम्बकादि चोडपग्रहणेन गृहीतं द्रष्टव्यं, स्थलपथेनाप्यभ्या
अनुक्रम [३५६]
अथ 'अभ्याइत' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३३०||
दीप
अनुक्रम [३५८]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ३५८] “निर्युक्ति: [ ३३०] भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [२... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
● →
+
८०
पिण्डनिर्युकेर्मलयगि यावृत्तिः
॥१०२॥
हृतं द्विधा, स्थथा - जयाभ्यां पद्भचाम् उपलक्षणमेतत् तेन गन्ध्यादिना च ॥ तत्रामूनेव जकस्थलाभ्याहतभेदान् समपचं विभावयन ९११ अभ्या
| दोषान् प्रदर्शयति
हृतदोषः
जंघा बाह तरीइ व जले थले खंध आरखुरनिबद्धा । संजम आयविराहण तहियं पुण संजमे काया ॥ १३१ ॥
अत्थाहगाहका मगरोहारा जले अवाया उ । कंटाहितेणसावय थलंभि एए भवे दोसा ॥ ३३२ ॥
व्याख्या - तत्र जलमार्गे स्तोकजलसम्भावनायां जयाभ्याम् अस्ताघसम्भावनायां बाहुभ्यां यदिवा तरिकया, उपलक्षणमेतत् ॐ उडुपेन चाभ्याहतं सम्भवति, स्थलमार्गे तु स्कन्धेन यद्वा 'आरखुरनिबद्ध 'त्ति अत्र तृतीयार्थे प्रथमा, ततोऽयमर्थः - आरकनिबद्धा गन्त्री तया खुरनिबद्धा रासभवलीवर्षादयस्तैः अत्र च दोषाः संयमविराधनाऽऽत्मविराधना च ' तत्र संयमाऽऽत्मविराधनामध्ये संयमविषया विराधना जलमार्गे स्थलमार्गे च 'काया ' अप्कायादयो विराध्यमाना द्रष्टव्याः । जलमार्गे आत्मविशवनामाह - ' अत्याह ' इत्यादि, अत्र प्राकृतत्वात् कचिद्विभक्तिकोपः कचिद्विभक्तिपरिणामथ ततोऽयमर्थः - अस्ताघे पदादिभिरलभ्यमानेऽघोभूभागेऽघोनिमज्जन लक्षणोऽपायो भवति, तथा 'ग्राहेभ्यः' जलचर विशेषेभ्यः यद्वा 'पङ्कतः ' कलरूपात् अथवा मकरेभ्यः, यदिवा 'ओहारे' ति कच्छपेभ्यः, उपलक्षणमेतत् अन्येभ्यश्च पादबन्धकतन्त्वादिभ्यः 'अपाया विनाशादयो दोषाः सम्भवन्ति । स्थलमार्गे आत्मवि * राधनामाह-' कंटे'त्यादि कण्टकेभ्यो यदिवाऽहिभ्यो यद्वा स्तेनेभ्योऽयवा श्वापदेभ्यः उपलक्षणमेतत् ज्वराद्युत्पादकपरिश्रमादिभ्यश्र * 'स्थले ' स्थलमार्गे एत एवापायरूपा दोषाः प्रतिपत्तव्याः ॥ उक्तमनाचीर्ण परग्रामाभ्याहतं नोनिशीथं, सम्मति तदेव स्वग्रामाभ्याहृतं नोनिशीथं गाथाद्वयेनाह
Education Internation
For Pale On
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॥१०२॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३६१] .→ “नियुक्ति: [३३३] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३३३||
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सग्गामेऽवि य दुविहं घरंतरं नोघरतरं चेव । तिघरंतरा परेणं घरंतरं तं तु नायव्वं ॥ ३३३ ॥ नोधरंतरऽणेगविहं वाडगसाहीनिवेसणगिहेसु । काये खंधे मिम्मय कंसेण व तं तु आणेज्जा ॥ ३३४ ॥
व्याख्या-'स्वग्रामेऽपि ' स्वग्रामविषयमप्यभ्याहृतं द्विविधं, तद्यथा-गृहान्तरं नोगृहान्तरं च, नत्र त्रिगृहान्तरात परेण-त्रीणि गृहाप्यन्तरं कृत्वा परतो यदानीतं तद्गृहान्तरं, एवं च सति किमुक्तं भवति ?-यगृहत्रयमध्यादानीयते उपयोगश्च त(य)त्र सम्भवति तदाचीर्णकामवसेयं, नोगृहान्तरमनेकविधं, तच वाटकादिविषय, तत्र वाटक' परिच्छन्ना प्रतिनियतः सनिवेशः 'साही' वर्तनी सैवैकाऽपान्तराले
विद्यते न तु गृहान्तरमित्यर्थः 'निवेशनम्' एकनिष्क्रमणप्रवेशानि दयादिगृहाणि 'गृहं' केवलं मन्दिरम् । एतच सकलपपि वाटका-| दिविषयमनाचीर्णमनुपयोगसम्भवे वेदितव्यं, तदपि च गृहान्तराख्यं नोगृहान्तराख्यं च नोनिशीथं स्वग्रामाभ्याहृतं प्रतिलाभयितुमीप्सितस्य साधोरुपाथयमानयेत कापोत्या यदिवा स्कन्धेन, उपलक्षणमेतत्, तेन करादिना च, यदिवा मृन्मयेन भाजनेन यद्वा कांस्येन । सम्पत्यस्यैव स्वग्रामविषयनोनिशीथाभ्याहृतस्य सम्भवमाहसुन्नं व असइ कालो पगयं व पहेणगं व पासुत्ता । इय एइ काइ घेत्तुं दीवेइ य कारणं तं तु ॥ ३३५ ॥
व्याख्या-इह साधुभिक्षामटन् कापि गृहे प्रविष्टः, पर तत्तदानीं 'शून्य' बहिनिर्गतमानुषमासीत, यद्वाज्यापि तत्र राध्यते इति || असन् ' अविद्यमानो भिक्षाकाल:, यदिवा तत्र प्रकृत-गौरवाहस्वजनभोजनादिकं वर्चते, न ततो तदानीं साध भिक्षा दातुं प्रपारिता, यदि-10 कावा विहृत्य साधोर्गतस्य पश्चात् 'प्रहेणक, लाहनकमागतं, तचोत्कृष्टत्त्वाव किल साधये दातव्यम् , अथवा तदा श्राविका 'प्रमुप्ता 'शयि
अनुक्रम [३६१]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३६३] » “नियुक्ति: [३३५] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
उद्गपैषणाया अभ्याहतदोषः ११
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३३५||
दीप
पिण्डनियु- ताऽऽसीव, ततो न साध भिक्षा दत्ता इति, पतैः कारणैः काचित आद्धिका स्ववाहीत्वा साधोरुषाश्रयमानयेत्, तचानयनस्य कारणं
॥ तदा शून्यं गृहमासीदित्यादिरूपं दीपपति' प्रकाशयति, तत एवं नोनिशीथस्वग्रामाभ्याहृतसम्भवः । तदेवमुक्तं स्वग्रामपरग्रामभेदभिन्न रीयात्तिः नोनिशीथाभ्याहृतम्, अथ स्वग्रामपरग्रामभेदभित्रमेव निशीथाभ्याहृतमतिदेशेनाह॥१०॥
एमेव कमो नियमा निसीहऽभिहडेऽवि होइ नायब्बो । अविइअदायगभावं निसीहि तं तु नायव्वं ।। ३३६ ॥ | व्याख्या-य एव क्रमः स्वग्रामपरग्रामादिको नोनिशीथाभ्याहृत उक्तः स एव निशीथाभ्याहृतेऽपि नियमात् ज्ञातव्यः । सम्पति निशीथाभ्याहतस्वरूपं कथयति-'अविइय' इत्यादि, अविदितो-यतिना न विज्ञातो दायकस्याभ्याहृतदानपरिणामो यत्र तदविदितदायकभावं निशीथापाहृतमवगन्तव्यं, किमुक्तं भवति ?-सर्वथा साधुनाऽभ्याहतत्वेन यदपरिज्ञातं तन्निशायामाहतमिति ॥ परमामा याहृतस्य निशीथस्य सम्भवं गाथाचतुष्टयेनाह
अइदूरजलंतरिया कम्मासंकाएँ मा न घेच्छंति । आणंति संखडीओ सड़ो सडी व पग्छन्नं ॥ ३३७ ॥ निग्गम देउल दाणं दियाइ सन्नाइ निग्गए दाणं । सिट्ठमि सेसगमणं दितऽन्ने वारयंतऽन्ने ॥ ३३८ ॥ मुंजण अजीरपुरिमडगाइ अच्छंति भुत्तसेसं वा । आगमनिसीहिगाई न भुजई सावगासका ॥ ३३९ ॥ उक्खित्तं निक्खिप्पइ आसगयं मल्लगंमि पासगए । खाभित्तु गया सड़ा तेऽवि य मु(स)हा असढ भावा ॥३४॥ व्याख्या-कचिद्रामे धनावप्रमुखा बहवः श्रावकाः धनवतीप्रभृतयश्च श्राविकाः, एते च सर्वेऽप्येककुटुम्मवर्तिनः । अन्यदा
令哈西宁冷冷冷的心冷冷冷冷冷冷冷令分分合合令。
अनुक्रम [३६३]
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दीप
अनुक्रम
[ ३६८ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ३६८ ] • → “निर्युक्ति: [ ३४०] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [२... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
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तेषामावसथे वीवाहः समजाने, वृत्ते च तस्मिन् प्रचुरं मोदकाद्युद्धरितं ततस्तैरचिन्ति यथैतत्सावुभ्यो दीयतां येन महत्पुण्यमस्मा - कमुपजायते, अथ च केचित्साधवो दूरेऽवतिष्ठन्ते, केचित्पुनः प्रत्यासन्नाः, परमन्तराले नदी विद्यते, ततस्तेऽप्यप्कायविराधनाभयतो नागमिष्यन्ति, आगता अपि च प्रचुरं मोदकादिकमवलोक्य कथ्यमानमपि शुद्धमधाकर्मशङ्कया न ग्रहीष्यन्ति ततो यत्र ग्रामे साधवो निवसन्ति तत्रैव प्रच्छन्नं गृहीत्वा व्रजाम इति, तथैव च कृतं ततो भूयोऽपि चिन्तयन्ति यदि साधूनाहूय दास्यामस्ततोऽशुद्धमाशङ्कय ते न ग्रहीष्यन्ति तस्मात् द्विजादिभ्योऽपि किमपि दद्मः, तब तथा दीयमानमपि यदि साधवो न प्रेक्षिष्यन्ते ततस्तदवस्थैत्र तेषामशुद्धाशङ्का भविष्यति ततो यत्रोच्चारादिकार्यार्थ निर्गताः सन्तः साधवः प्रेक्षन्ते तत्र दद्म इति, एवं च चिन्तयित्वा विवक्षिते कस्मि चित्प्रदेशे कस्यचिदेवकुलस्य वहिर्भागे द्विजादिभ्यः स्तोकं स्तोकं दातुमारब्धं तत उधारादिकार्यार्थं विनिर्गताः केचन साधवो दृष्टाः, ततस्ते निमन्त्रिता यथा भोः ! साधवः ! अस्माकमुद्धरितं मोदकादि मचुरमवतिष्ठते ततो यदि युष्माकं किमप्युपकरोति तर्हि तत्पतिगृह्यतामिति, साधवोऽपि शुद्धमित्यवगम्य प्रत्यगृह्णन, तैश्च साधुभिः शेषाणामपि साधूनामुपादेखि यथाऽमुकस्मिन् प्रदेशे प्रचुरमेषणीयमशनादि लभ्यते, तवस्तेऽपि तद्ग्रहणाय समाजग्मुः, तत्र चैके श्रावकाः प्रचुरं मोदकादिकं प्रयच्छन्ति, अन्ये च मातृस्थानतो निवारव्यन्ति यथैतावद्दीयतां माऽधिकं शेषमस्माकं भोजनाय भविष्यति, अन्ये पुनस्तानेव निवारयतः प्रतिषेधयन्ति - पथा न कोऽप्यस्माकं भोक्ष्यते, सर्वेऽपि प्रायो भुक्ताः, ततः स्तोकमात्रेण किञ्चिदुद्धरितेन प्रयोजनं, तस्मायथेच्छं साधुभ्यो दीयतामिति । साधवश्च ये नमस्कारसहित प्रत्याख्यानास्ते भुक्ताः, ये च पौरुपी प्रत्याख्यानास्ते भुजाना वर्त्तन्ते ये चाजीर्णवन्तः पूर्वार्द्धादि प्रतीक्षमाणा वर्त्तन्ते ते नाद्यापि भुञ्जते, श्रावकाश चिन्तयामासुः - पथेदानीं साधवो भुक्ता भविष्यन्ति ततो वन्दित्वा निजस्थानं व्रजाम इति, एवं चिन्तयित्वा
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गाथांक
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अनुक्रम [ ३६९ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ३६९ ] • → “निर्युक्ति: [ ३४१] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [२...
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्युतेर्मयगि
रीयावृत्तिः
॥१०४॥
| समधिकमहारवेळाया साधुबसतावागत्य नैषेधिक्यादिकां सकलामपि श्रावकक्रियां कृतवन्तः ततो ज्ञातं यथाऽमी श्रावकाः परमविवेकिनो, ज्ञाताच परम्परया विवक्षितग्रामवास्तव्याः, ततः सम्पविमर्शतो निश्चितं - नूनमस्मन्निमित्तमेतत् स्वग्रामादभ्याहृतमिति ततो यैर्भुक्तं तैर्भुक्तमेव, ये त्वद्यापि पूर्वार्द्धादि प्रतीक्षमाणा न भुञ्जते तैर्न मुक्तं येऽपि च भुञ्जाना अवतिष्ठन्ते, तैरपि यः कवल उदक्षिप्तः स भाजनेऽमुच्यत, यत्तु मुखे प्रक्षिप्तं नाद्यापि गिलितं तन्मुखाद्विनिःसार्थ समीपस्थापिते मल के प्रचिक्षिपे, शेषं तु भाजनगतं सर्वमपि परिठापितं श्रावकाः श्राविकावर्ग सर्वोऽपि क्षमयित्वा स्वस्थानं जगाम तत्र ये भुक्ता ये चार्द्धमुक्तास्ते[ऽपि ] सर्वेऽप्यशठभावा इति शुद्धाः । सूत्रं सुगमं, केवलम् 'अइहरजतरिय 'चि केचिदतिदूरे केचिन्नयाऽन्तरिताः । उक्तं परग्रामाभ्याहृतनिशीथम्, अथ स्वग्रामाभ्याहृतं तदेव गाथाद्वयेनाह
लद्धं पणगं मे अमुगत्थगयाऍ संखडीए वा । वंदणगडपविद्वा देइ तयं पट्टिय नियत्ता ॥ ३४१ ॥
नीयं पहेणगं मे नियगाणं निच्छियं व तं तेहिं । सागारि सयझियं वा पडिकुटा संखडे रुहा ॥ ३४२ ॥
व्याख्या - इह काचिदभ्याहृताशङ्कानिवृत्यर्थं किमपि गृहं प्रति प्रस्थिता, ततो निवृत्ता सति साधोः प्रतिलाभनायोपाश्रयं प्रविश्य | साधुसम्मुखमेवमाह - भगवन् ! प्रदेणकमिदममुकास्मिन् गृहे गतया लब्धं यद्वा कापि सङ्घड्यां, सम्मति वन्दनार्थमत्र प्रविष्टा, ततो यदि युष्माकमिदमुपकरोति तर्हि प्रतिगृह्यतामिति तकदानीतं ददाति यद्वा एवमाह' निजकानां स्वजनानामर्थाय प्रहेणकं मया स्वगृहात् नीतं परं तैनैप्सितं, ततः स्वजनगृहात् प्रतिनिवृत्ता वन्दनार्थमत्रागतेति, तवस्तद्ददाति । यदिवा मायया काचिदभ्याहृतमानीय सागारिकांशय्यातरीं यद्वा ' सइज्झितं ' बसतीप्रवेशनीं पूर्वगृहीतसङ्केतां यथा साधवः शृण्वन्ति तथा प्रवक्ति-गृहाणेदं प्रहेणकमिति, तया च मातृ
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उद्गमैषणायां ११ अ भ्याहृतदो
पे धनावहादिदृशन्तः
॥१०४॥
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आगम
(४१/२)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
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दीप
अनुक्रम
[ ३७०]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ३७०] • → “निर्युक्तिः [ ३४२] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [२... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
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स्थानतः प्रतिषिद्धा यथा त्वयाऽप्यमुकस्मिन् दिने मदीयं प्रहेणकं न जग्रहे ततोऽहमपि त्वदीयं न ग्रहीष्यामीत्येवं निषिद्धा, ततः साऽपि मातृस्थानतः किञ्चित्परूपं प्रत्युक्तवती, द्वितीययाऽपि तथैव भाषितं तत एवं परस्परं 'संखडे' कलहे सति सा प्रणकनेत्री ' रुष्टा ' रो पवती बन्दनार्थ वसती प्रविशति, ततोऽनन्तरवृत्तं वृत्तान्तं कथयित्वा तदानीं ददाति । उक्तं स्वग्रामाभ्याहृतमपि निशीथं, सम्प्रत्यनाचीर्ण निगमयनाचीर्णस्य भेदानाह
एयं तु अणाइन्नं दुविपि य आहडं समक्खायं | आइन्नपि य दुविहं देसे तह देसदेसे अ ॥ ३४३ ॥ व्याख्या–‘एतत् ' पूर्वोक्तमभ्याहृतं निशीथनोनिशीथभेदाद् यद्वा स्वग्रामपरग्रामभेदाद्विविधमप्याख्यातमनाचीर्णम् - अकल्पनीयं सम्मत्याचीर्ण वक्ष्ये, तदपि द्विविधं तद्यथा-देशे देशदेशे च । सम्मति देशस्य देशदेशस्य च स्वरूपमाह
हत्थसयं खलु देसो आरेणं होइ देसदेसो य । आइन्नंमि ( उ ) तिगिहा ते चिय उवओगपुच्वागा ॥ ३४४ ॥ व्याख्या -' हस्तशतं ' हस्तशतममितं क्षेत्रं देशः, हस्तशतादाराद्धस्तशतमध्ये इत्यर्थः, देशदेशः, तत्र हस्तशतप्रमाणे आचीर्णे यदि गृहाणि त्रीणि भवन्ति नाधिकानि ततः कल्पते, तान्यपि चेद्राण्युपयोगपूर्वकाणि भवन्ति, उपयोगस्तत्र दातुं शक्यत इत्यर्थः, ततः कल्पते नान्यथेति । सम्पति गृहत्रयव्यतिरेकेण इस्तशतादिसम्भवं तद्विषयं कल्प्या कल्प्यविधिं चाह
परिवेसणपती दूरपवेसो य घंघसालगिहे । हत्थसया आइन्नं गहणं परओ उ पडिकुटं ॥ ३४५ ॥ व्याख्या -- परिवेष्यते - भोजनं दीयते येभ्यस्ते परिवेषणाः- भुञ्जानाः पुरुषास्तेषां पङ्किः-श्रेणिस्तस्यां तत्र ह्येकस्मिन पर्यन्ते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [३७४] » “नियुक्ति: [३४५] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियुतेर्मलयगि- रीयावृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३४५||
दीप
साधुसङ्घाटको वते द्वितीये तु देयं तिष्ठति, तत्र च स्पृष्टास्पृष्टभयादिना गर्नु न शक्यते, एवनुत्तरयोरपि पदयोर्भावनीय, ततः परिवे- उद्गमैपणापणपतयां, यहा 'दूरप्रवेशे' प्रलम्बगमनमार्गे चिण्डिकादौ, यदिवा घड्नुशालाग्रहे हस्तशतादानीतस्य ग्रहणमाचीर्ण, कल्पत इत्यर्थः, यां आचीपरतस्त्वानीतस्य ग्रहणं 'प्रतिकुष्ट' निराकृतं तीर्थकरादिभिः ।। सम्पत्यस्यैवाचीर्णस्य भेदान प्रदर्शयति
मभ्याह| उक्कोस मज्झिम जहन्नगं तु-तिविहं तु होइ आइ । करपरियत्त जहन्न सयमुक्कोसं मझिमं सेसं ॥ ३४६ ॥
व्याख्या-त्रिविधमाचीर्णमभ्याहृतं, तद्यथा-उत्कृष्टं मध्यमं जघन्य च, तत्र यदा ऊ8ोपविष्टा वा कथमपि सपोगेन मुष्टिष्टहीतेन मण्डकादिना, यदिवा स्वापत्यादिपरिवेषणार्थमोदनभृतया करोटिकयोत्पाटितया व्यवतिष्ठते, अप्रान्तरे च कथमपि साधुरागच्छति | भिक्षार्थ, तस्मै च यदि करस्यं ददाति तदा करपरिवर्तनमात्र जपन्यम पाहृतमाचीफ, हस्तशतादभ्याहृतमुत्कृष्ट, शेषं तु हस्तशतमध्यवर्ति मध्यमं । तदेवमुक्तमभ्याहृतद्वारम् , अधोद्भिनद्वारमाहपिहिउब्भिन्नकवाडे फासुय अपफासुए य बोहब्वे । अफासु पुढविमाई फासुय छगणाइदद्दरए ॥ ३४७ ॥
व्याख्या-उद्भिनं द्विधा, तयथा-पिहितोद्भिवं कपाटोदिन्नं च, तत्र यत् कुतुपादेः स्थगितं मुखं साधूनां तैलघृतादिदानार्थमनिय तैलादि साधुभ्यो दीयते तद्दीयमानं तैलादि पिहितोद्भिनं, पिहितमुद्भिन्नं यत्र तत् पिहितोद्भिन्नमिति पुत्पतेः, तथा यत् पिहितं कपाटमदिय-उद्घाट्य साधुभ्यो दीयते तत् कपाटोनिन, व्युत्पत्तिः प्रागिक, तत्र पिहितोदिने यत्पिधान ताहिया, तयथा-बासुकम-16॥१०॥ मासुकं च, सचेतनमचेतनं चेत्यर्थः, तब 'मास' सचित्तपृथिव्यादिमयं, 'प्रामुक' गणादिदईरके, तत्र छगण-गोमया, आदि-: शब्दावरमादिपरिग्रहः, दरकः-मुखबन्धनं चत्राखण्डम् । अत्र पिदिनोद्भिने कपाटोदि ने च दोषानभिषित्सुराह
अनुक्रम [३७६]
• अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते. सा मया संपादित: 'आगमसुत्ताणि' मूलं वा सटीकं पुस्तके वर्तते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [३७७] » “नियुक्ति: [३४८] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३४८||
उब्भिन्ने छक्काया दाणे कयविकए य अहिगरणं । ते चेव कवाडंभिवि सविसेप्ता जंतमाईस ॥ ३४८॥
व्याख्या-उद्भिने-पिहितोद्भिन्ने षट् काया:-उद्भेदकाले पट कायाः पृथिवीकायादयो विराध्यन्ते, ततः प्रथमतः साधुनिमित्त तपादिमुखे उन्निन्ने सति पुत्रादिभ्यस्तैलादिमदाने, तथा क्रयविक्रये-क्रये विक्रो चाधिकरणं-बापपत्तिरुपजायते, तथा एत एवं 18 पट्कायविराधनादयो दोषाः ‘कपाटेऽपि कपाटोद्भिन्नेऽपि सविशेषास्तु 'यत्रादिषु' यन्त्ररूपकपादादिषु द्रष्टव्याः, तत्र यान्यतीव सम्पुटमागतानि कुञ्चिकया चोद्घाट्यन्ते यानि च ददरकोपरि पिट्टणिकाया एकदेशवासिनि मालमवेशरूपद्वारे तानि यन्त्ररूपकपाटानि | आदिशब्दात्परिघादिग्रहः । सम्मत्येनामेव गायां व्याचिख्यासुः प्रथमतः 'उन्भिन्ने छकाया' इत्यस्यवं व्याख्यानयन गाथाद्वयमाह
सञ्चित्तपुढविलित्तं लेलु सिलं वाऽवि दाउमोलित्तं । सच्चि सुपुढविलेयो चिरंपि उदगं अचिरलिते ॥ ३४९ ॥ एवं तु पुय्वलित्ते काया उल्लिंपणेऽवि ते चेव । तिम्मेउं उवलिंपइ जउमुई वावि तावेउं ॥ ३५ ॥
व्याख्या--इइ कुतुपादिमुख दईरकोपरि कदाचित् 'लेणु' लेष्टुं शिलां वा-पाषाण वण्र्ड प्रक्षिप जलाद्रीकृत सचित्तपृथिवीकायलितं भवति, तत्र सचित्तपृथिवीलेपः सचित्तः सन् चिरकालमप्यवतिष्ठते, उदकं तु 'अचिरलिमे ' अचिरकाल लिसे सम्भ-11 यति, किमुक्तं भवति?-पदि चिरकालसचित्तपृथिवीकापलिममुद्भिधते तहि सचितथिवी कायविनाशोऽचिरलिले नियमानेऽकायस्यापविनाशः, अचिरलिप्तमप्यत्रान्तर्मुहूर्त्तकालस्य मध्यवत्तिं द्रष्टव्यम्, अन्तर्मुहूर्वानन्तरं पृथिवीकापशस्त्रसम्मत उदकपचि तीभवति, ततो न तद्विराधनादोषः, उपलक्षणमेतत् , तेन प्रसादेरपि तदाश्रितस्य विनाशसम्मको द्रष्टव्यः । एवमू-अनेन प्रकारेण पूर्वलिो साध्वर्थ मुनिया
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अनुक्रम [३७७]
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अथ उद्भिन्न दोषस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [३७९] » “नियुक्ति: [३५०] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३५०||
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पिण्डनियु-1-माने दोषा उक्ताः, एत एवं पृथिवीकायादिविराधनादोषा उपलिप्यमानेऽपि कुतुपादिमुखालघृतादिकं साधये दवा शेषस्य रक्षणार्थ | उद्गमैषणातर्मळयगि
भूयोऽपि कुतुपादिमुखे स्थग्यमाने द्रष्टव्याः, तथाहि-भूयोऽपि कुतुपादिमुखं सचित्तपृथिवीकायेन जलाद्रीकृतेनोपलिम्पति, ततः पृथिबी- यां १२ उरीयाचिः कायविराधनाऽकायविराधना च, पृथिवीकायमध्ये च मुद्रादयः कीटिकादयश्च सम्भवन्ति ततस्तेषामपि विराधना | तथा कोऽप्यभिज्ञानाद्भिनदोषः
जतु तापयित्वा कुतुपादिमुखस्योपरि जतृमुद्रां ददाति, तदा तेजःकायविराधनाऽपि, यत्रानिस्तत्र वायुरिति वायुकायविराधना च, ततः| ॥१०६॥
पिहितोदिन्ने पदकायविराधना । अमुमेवार्थ स्पष्टं भावयतिA जह चेव पुवलित्ते काया दाउं पुणोऽवि तह चेव । उवलिप्पंते काया मुइअंगाई नवरि छठे ॥ ३५१ ॥
व्याख्या-यथा चैव पूर्वलिले 'कायाः पृथिवीकायादयो विराध्यन्ते तथा साधुभ्यस्तैलादिकं दत्त्वा भूयोपि कुतुपादिमुखे उपलिप्यमाने काया विराध्यन्ते, नवरं षष्ठे काये तत्पकायरूपे विराध्यमाना जन्तवः पृथिव्याश्रिताः ' मुइंगादयः' पिपीलिकाकुन्थ्वादयो द्रष्टव्याः । सम्पति 'दाणे कयविकए य' इत्यवयवं व्याचिख्यामुराहपररस तं देइ स एव गेहे, तेल्लं व लोणं व घयं गुलं वा । उग्घाडिए तंमि करे अवस्स, सविक्कयं तेण किणाइ अन्न।।३५२॥
व्याख्या-तस्मिन् कुतुषादिमुखे साध्वर्थमुद्घाटिते सति परस्मै' याचकग्राहकादिकाय यद्वा-स्वकीय एव गृहे पुत्रादिभ्यस्तैलं ॥१०॥ लवणं घृतं गुडं वा ददाति, यदिवा स करोत्यवश्यं विक्रय, तेन च मूल्येनान्यत् क्रीणाति, एतच्च सर्व साध्वर्थमुद्घाटिते सति प्रवर्तते इति साधोः प्रवृत्तिदोषः । तथा चैतदे]व ' अहिंगरणम्' इत्यवयषं व्याचिख्यासुराह
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [३८२] » “नियुक्ति: [३५३] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||३५३||
दाणे कयविकए वा होई अहिंगरणमजयभावरस । निवयंति जे य तहियं जीवा मुइयंगमूसाई ॥ ३५३ ॥
व्याख्या-दाने क्रये विक्रये वाऽनन्तरोक्तस्वरूपे प्रवर्तमाने साधोः 'अयतभावस्य ' अयतोऽशुद्धाहारापरिहारकत्वेन जीवरक्षणरहितः भाषा-अध्यवसायो यस्य स तथा तस्य ' अधिकरणं' पापप्रवृत्तिरुपजायते, तथा तस्मिन् कुनुपादिमुखे उपाटिने ये जीवा मुह
मूषकादयो निपतन्ति निपत्य च विनाशमाविशन्ति तदप्यधिकरणं साधोरेव । सम्पत्ति ते चेव कवाडमि' इत्यवयवं व्याचिख्यासुराहजहेव कुंभाइसु पुब्बलित्ते, उब्भिज्जमाणे य हवंति काया। ओलिंपमाणेवि तहा तहेव, काया कवाडंमि विभासियव्वा ३५०
व्याख्या--यथैव 'कुम्भादौ' घटादौ, आदिशब्दात्कुतुपादिपरिग्रहः, पूर्वलिले उनियमाने 'कायाः पृथिवीकायादयो विराध्यमाना भवन्ति, उपलक्षणमेतत् , तेन दानक्रयविक्रयाधिकरणप्रवृत्तिश्च भवति, तथा कपाटेऽपि पूर्वदत्ते साध्वर्थमुद्घाटयमाने वेदितव्याः, तथाहि-यदा कपाटात् माकथमपि पृथिवीकायो जलभृतः करको वा वीजपूरादिकं वा मुक्तं भवति तदा तस्मिन्नुद्घाटयमाने कपाटे तदिराधना भवति, जलभृते करकादौ तु भिद्यमाने [वा] पानीयं प्रसपेत् प्रत्यासनचुल्यादावपि प्रविशेत, तथा च सत्यग्निविराधना, यत्र चाग्निस्तत्र वायुरिति वायुविराधना च, मूहकादिविवरप्रविष्टकोटिकागृहगोधिकादिसत्चविनाशे त्रसकायविराधना चेति, दानक्रयविक्रयाधिकरणमत्तिभावना च पूर्ववत्कर्तव्या । 'सम्पति सविसेसा' इत्यवयवं व्याचिख्यासुराह
घरकोइलसंचारा आवत्तण पीढगाइ हेट्रवरि । नितेवि एयअंतो डिभाईपेल्छणे दोसा ॥ ३५५॥ व्याख्या कपाटस्य ' सञ्चारात्' सञ्चलनागृहगोधिका, उपलक्षणमेतत् कीटिकोन्दुरादयश्च विराध्यन्ते, तथा मासादस्याधो भूमि
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [३८४] » “नियुक्ति: [३५५] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियु
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३५५||
रीयात्तिः ॥१०॥
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रूपा पीठिकेव पीठिका-चयिका तबाध उपरितले च कपाटकदेशस्यावर्त्तने तदाश्रिताः कुन्थुपिपीलिकादयो विनाशमश्नुवते, तथोधाव्य || उद्भेषणाकपाटे पश्चान्मुखं नीयमानेऽन्तःस्थिते(रिति) अन्तःस्थितस्प डिम्भादेः पेरणे दोषाः-शिरःस्फोटनादयो भवन्ति । सम्पत्यपवादमाह- या १२ उ
घेप्पइ अकुंचियागंमि कवाडे पइदिणे परिवहते । अजऊमुद्दिय गंठी परिभुज्जइ दद्दरो जो य॥३५६॥ दिनदोषः ___ व्याख्या-'अकुञ्चिकाके ' कुचिकारहिते, कुञ्चिकाविवररहित इत्यर्थः, तत्र हि किल पृष्ठभागे उलालको न भवति वेन न घर्षगद्वारेण सत्चविराधना, यद्वा-'अकुइयागे'त्ति पाठः, तत्र 'अकूजिकाके' कूजिकारहिते अक्रेङ्कनरारावे, किमुक्तं भवति ?-यदुद्घाव्यमानं कपाट क्रेडारवं न करोति, तद्धि पश्वास्क्रियमाणमूर्ध्वमस्तिर्यग् घर्षत प्रभूतसत्त्वव्यापादनं करोति तेन तर्जनं, तस्मिन्नपि किंविशिष्टे :इत्याह-प्रतिदिनं ' प्रतिदिवस-निरन्तरं 'प्रतिवहति' उद्घाध्यमाने दीयमाने चेत्यर्थः, तस्मिन् पायो न गृहगोधिकादिसत्त्वाश्रयस-| म्भवः, चिरकालमवस्थानाभावात् । इत्थंभूते कपाटे साध्वर्थमप्युद्घाटिते यद्ददाति गृहस्था तदृह्यते, स्थविरकल्पिकानामाचीर्णमेतत, वथा यश्च ।
दर्दरकः ' कुतुपादीनां मुखबन्धरूपः प्रतिदिवसं परिभुज्यते-बध्यते छोड्यते चेत्यर्थः, तत्र यदि जनुमुद्राव्यतिरेकेण केवलवस्त्रमात्रय|न्थिीयेत नापि च सचित्तपृथिवीकायादिलेपः तहि तस्मिन् साध्वर्थमुद्भिनेऽपि यहीयते तत्साधुभिगुह्यते इति उक्तमुद्भिनद्वारम् , अथ मालापहनद्वारमाह
॥२०७॥ मालोहडंपि दुविहं जहन्नमुक्कोसगं च बोद्धव्वं । अग्गतलेहि जहन्नं तबिवरीयं तु उक्कोसं ॥ ३५७ ॥ व्याख्या-मालापहृतं द्विविध, तयथा-जघन्यमुत्कष्टं च, तत्र यद्धन्यस्ताभ्यां पादयोस्प्रभागाभ्यां फलकसाभ्यां पाणिभ्यां |
अनुक्रम [३८४]
अथ 'मालापहत दोषस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३५७||
दीप
अनुक्रम
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[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ३८६ ] ● → “निर्युक्ति: [ ३५७] भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [३... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
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| चोत्पाटिताभ्यामूर्ध्वविलगितोचसिककादिस्थितं दाच्या दृष्टेगोचरं यदीयते तज्जन्यं माखापहतं, ' तद्विपरीतं ' जयन्यविपरीतं बृदभिःथेप्यादिकमारुह्य प्रासादोपरितलादानीय दीयते तदुत्कृष्टं मालापहृतं । सम्मत्यनयोरेव दृष्टान्ती सदोपी वक्तुकाम आइ
भिक्खू जहन्नगंमी गेरुय उक्कोसगंमि दिहंतो । अहिडसणमालपडणे य एवमाई भत्रे दोस्सा ॥ ३५८ ॥ व्याख्या - जघन्ये मालापहृते भिक्षुर्वन्दको दृष्टान्तः, उत्कृष्टे 'गेरुका' कापिलः, तत्र जघन्ये मालापहृते ' अहिदशनं ' सर्पदशनम्, उत्कृष्टे मालात्पतनमित्येवमादयो दोषा अभूवन् ॥ तत्र मिष्टान्तं गाथाद्वयेनाह-
मालाभिमुहं दट्टण अगारिं निग्गओ तओ साहू । तच्चन्निय आगमणं पुच्छा य अदिन्नदाणन्ति ॥ ३५९ ॥ मालंभि कुडे मोयग सुगंध अहि पविसणं करे डक्का । अन्नदिण साहु आगम निद्दय कहणा य संत्रोही ॥ ३६० ॥
व्याख्या - जयन्तपुरं नाम नगरं तत्र यक्षदिनो नाम गृहपतिः, तस्य भार्या वसुमती, अन्यदा च तदृद्दे धर्मरुचिनीम संयतो भिक्षार्थ मविवेश, तं च नियमितेन्द्रियम र तद्विष्टमेषणासमितमवलोक्य समुत्पन्नविशिष्टदानपरिणामेन यसदिनेन वसुमती सादरं बभणे, यथा देहि साधवेऽस्मै अमुकान मोदकानिति, ते च मोदका ऊर्ध्वं विलगितोच्चसिक रूमध्ये व्यवस्थिते घटेऽवतिपुन्ते ततः सा तद्रहणार्थमुत्थिता, साघुश्च तां मालापहृतां भिक्षामवबुध्यमानस्तद् हान्निर्जगाम । ततस्तरका तस्मिन्नेव गृहे भिक्षायै भिक्षुरागमत् पप्रच्छ च तं यक्षदिनो यथा किं [भोः? [ समं] तेन सिककादानीय दीपमाना भिक्षा न जगृहे ? ततः स प्रवचनमात्सर्यादेवमुवाच- अदत्त दाना अमी खलु वराकास्ततो न लभन्ते पूर्वकर्मविनियोग तो युष्मादृशामीश्वराणां गृहेषु स्निग्धमधुरादिकं भोजनं भोक्तुं किन्तु तैदुगतगृहेष्वन्तत्रान्तादिकं लब्धा भोक्तव्यमिति ततो
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [३८९] » “नियुक्ति: [३६०] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३६०||
दीप अनुक्रम [३८९]
पिण्डनियुः JA यक्षदिनेन तस्मायपि तानेव मोदकान् वसुमती दापिता, सा तस्मिन्नेव सिक्कविलगिते घटे मोदकानादातुमचालीत्, घटे च महोत्तमद्रव्य- उद्गमपणातेर्मलयगि-1 निष्पन्नमो दकगन्धाघाणवशतः कथमपि भुजङ्गमः समागतोऽवतिष्ठते, वसुमती चोत्पाव्य पाणी पादायतलभरेण यावन्मोदकपटे का- यां१२ उरीयाचिः केल्लिपद्धवोपमं करं प्रक्षिपति तावद्भुजङ्गमः कामुक इव सादरं तं प्रत्यगृह्णात्, ततो हा ! दष्टा दष्टेति पूत्कारं कुर्वती भूमौ निपपात, ददृशे दिनदोषे
च यक्षदिन्नेन फूत्कारं कुर्वन् दन्दशूकः, ततस्तत्क्षणादेव समाहूताः परममन्त्रवादिनः, समानीतानि च नानाविधानि भेषजानि, ततोऽद्या- यक्षदत्तह॥१०॥
प्यापुरत्रुटितमिति मन्त्रौषधमभावतः सा नीरुग्बभूव, समाजगाम च भूयोऽप्यपरस्मिन् दिने स एवं धर्मरुचिः संयतो भिक्षाये, उपालेभे च || शान्तः यक्षदिनेन यथा दयामधानो धर्मस्तकि भोः सायो ! सुविहित तव तदानीं सर्प पश्यतोऽप्युपेक्षा प्रावतिष्ठ,स माह-नाइमद्राक्षं तदानीं || दन्दशूकं, केवलमयमस्माकं सार्बज्ञ उपदेशो यथा मा ग्राहिपुः साधवो ! मालापहृतं भिक्षामिति, ततोऽहं प्रतिनिवृत्तः, एवं चोक्ते || यक्षदिनः वचेतसि चिन्तयामास-अहो ! निरपायो भगवता निरूपादेशि भिक्षूणां धर्मः, य एवं चेत्यं निरपायं धर्ममुपदिशति स्म स| एव सर्वज्ञो न खलु सुधाभ्यवहारमन्तरेण सुधोद्वार उज्जृम्भते, एवं न यावत्ज्ञेयव्यापिज्ञानमन्तरेणेत्थं सकलकालमनपायिनो धर्मस्योपदेशपचिः, बुद्धिप्रागल्भ्ये हि वचसि प्रागल्भ्यमुपालम्भि तस्मात्स एव सर्वज्ञ इति, इत्थं च विचिन्त्य भक्तिवशोच्छलितपुलकजालोपशोभिततनुः सादरं धर्मरुचिश्रमणमवन्दत, वन्दित्वा च जिनप्रणीतं धर्म पप्रच्छ, स च कथयामास सवेपतः, ततो जिनप्रणीतवाक्यामृतर-
I . सास्वादतस्तेषामवजगाम सकलमपि मायासूनवीयादिसम्पादितकुवासनामयं गरलं, पश्यति च यथावस्थितानि हेयोपादेयानि वस्तूनि, प्रमोदते च जात्यन्ध इव चक्षुलाभे सविशेषतरं, ततो मध्याह्ने विशेषतो गुरुसमीपे समागत्य धर्म श्रुत्वा जातसंवेगौ दम्पती अपि प्रव्रज्यां मपेदाते । सूत्रं सुगम । सम्मत्यस्मिन्नेव जघन्ये मालापहृतेऽन्यानपि दोपानभिषित्सुराह
॥१०८॥
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आगम
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गाथांक
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दीप
अनुक्रम [३९०]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [३९०] • → “निर्युक्ति: [ ३६१] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [३... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
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आसंदिपीढमंचकजंतोडूखल पडंत उभयवहे । वोच्छेय पओसाई उड्डाहमनाणिवाओ य ॥ ३६१ ॥
व्याख्या- ' आसंदी ' मञ्चिका 'पीठं गोमयादिमयमासनं 'मञ्चकः प्रतीतः ' यन्त्रं ' व्रीह्मादिदलनोपकरणस्, 'उडूखल:' प्रतीतः, एवेष्वारुह्य, उपलक्षणमेतत्, पाष्णीं चोत्पाव्य ऊर्ध्वविलगितसिक कादिस्थितमोदकादिग्रहणे कथमपि यदि मञ्चकादिहसनतो दात्री निपतति तर्हि ' उभयवधः ' दाव्याः पृथिव्यादिकायादीनां च विनाशः । तत्र दात्र्या हस्तादिभङ्गतो यदिवा विसंस्थुलपतनतः कथमध्य२ स्थानाभिघातसम्भवात्प्राणव्यपरोपणमपि तया च निपतन्त्या भूम्यायाश्रितानां पृथिवीकायादीनामपि विनाशः यथैतस्मै भिक्षामहं ददती प्रागपि महत्यनर्थे पतितेति न कोऽप्यस्मै दास्यतीति तद्गृहे तद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदः, तथा मुण्डेनानेन परमार्थतः पातितेति कस्यापि गृहस्वामिनः साधुविषयः प्रद्वेषोऽपि भवति, आदिशब्दात्ताडनादिपरिग्रहः, प्रद्वेषदग्धो हि कोऽपि कोपान्धतया वाडनमपि कुर्यात्, कोऽपि निर्भत्र्त्सनं, कोऽपि वधमपि, तथा च प्रवचनस्योड्डाहः- खिसा यथा - साध्वर्थमेषा भिक्षामाहरन्ती परासुरभूत्, तस्मान्नामी साधवः कल्याणकारिणः, कोके चाज्ञानवादः एवंविधमपि दाव्या अनर्थमेते न जानन्तीत्येवं मूर्खताप्रवादः, तस्माज्जघन्यमपि मालापहृतमवश्यं परिहर्त्तव्यं ॥ तदेवमुक्तो जघन्यस्य मालापहृतस्य सदोषो दृष्टान्तोऽन्येऽपि च दोषाः सम्मत्युत्कृष्टस्य तानाह
एमेव य उक्कोसे वारणनिस्सेणि गुब्विणीपडणं । गब्भित्थिकुच्छिफोडण पुरओ मरणं कहण बोही ॥ ३६२ ॥
व्याख्या - जयन्तीनाम पुरी, तत्र सुरदत्तो नाम गृहपतिः, तस्य भार्या वसुन्धरा, अन्यदा च तद्गृहे गुणचन्द्राभिधः साधुभिंक्षार्थी माविशत, तं च प्रशान्तमन समिहपरलोकनिःस्पृहं मूर्त्तं धर्ममिव समागच्छन्तमवेक्ष्य सुरदत्तो वसुन्धरामाभिहितवान - यथा देहि साधवे
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नि/भा/प्र
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दीप
अनुक्रम [३९१]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ३९१] • → “निर्युक्ति: [ ३६२] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [३...
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्युतेर्मलयगि रीयावृत्तिः
॥१०९ ॥
१३ माळा
वसुन्धरादृष्टान्तः
मालादानीय मोदकानिति, सा च तदानीमन्तवेत्नी, परं पत्युरादेशं देवताशेषामिव प्रतीच्छन्ती मोदकानयनाय मालाभिमुखां निश्रेणिमारोदुमयतिष्ट, साधुथ न कल्पवे मालापहृता भिक्षा संयतानामिति तां विनिवार्य सद्गृहान्निःससार, ततस्तत्क्षण एवं कोऽपि कापिलो भिक्षार्थ पहृतदोषे तस्मिन्नेत्र गृहे प्राविशत्, सुरदत्तेन च स पृष्टो यथा भोः ! किं संयतेन मालादानीयमाना भिक्षा न प्रतिजगृहे ?, ततः स मात्सर्यवशादसम्बद्धं किमप्यभाषिष्ट, ततस्तस्मायपि सुरदचो वसुन्धरया मोदकान् दापितवान् वसुन्धरा च मोदकानयनार्य निःश्रेणिमारोहन्ती कथमपि पादहसनतो विसंस्थलाङ्गी न्यपतत्, अधथ बीहिदलनयन्त्रकमासीत्, ततस्तत्कीलकस्तस्था निपतन्त्याः कुक्षिं द्विधा पाटयामास निर्गतश्च परिस्फुरंस्ततो गर्भः, कीलकविदारिततया महापीडाऽतिशयभावतः पश्यतामेत्र सकललोकानां सदुःखं स्पन्दमानः पञ्चत्वमगमत्, तथा वसुन्धरा च तत उच्छलितः पापीयसः कापिलस्यावर्णवादः, अन्यदा च भूयोऽपि तस्मिन्नेव गृहे स एव सावुर्भि क्षार्थमाजगाम, सुरदचश्च तमप्राक्षीत् भगवन् ! यथा यूयं ज्ञानचक्षुषा दाव्या विनाशमवेक्षमाणा भिक्षां परिहृतवन्तः तथाऽस्माकमपि किं नाचीकथत, येन तदानीं सा माळं नारोहेत्, ततः साधुरवोचत्-नाई किमपि जाने, केवलमयमस्माकं सार्वज्ञ उपदेशः यथा न कल्पते साधूनां मालापहृता भिक्षेति, ततः स पूर्ववदचिन्तयद्धर्ममश्रौषीत प्रवज्यां चाग्रहीदिति, सूत्रं युगमं, नवरम्, एवमेव जघन्यमालापहृते इवोत्कृष्टेऽपि मालापहृते 'पडन्त उभयवदो ' इत्यादयो दोषा वक्तव्याः । तत्र दाव्या वधे उदाहरणं 'वारणनिस्सेणि ' इत्यादि । सम्मति माला पहुतमेव भङ्गघन्तरेणाह -
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उड्डूमहे तिरियंपि य अहवा मालोहडं भत्रे तिविहं । उड्ढे य महोयरणं भणियं कुंभाइसू उभयं ॥ ३६३ ॥ व्याख्या --- अथवा मालापहृतं त्रिविधं तथथा - ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च तत्र ऊर्ध्वमेतदनन्तरोक्तमूर्ध्वविलगित सिक्ककादिगतम्, अधो
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [३९२] .→ “नियुक्ति: [३६३] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||३६३||
दीप
भूमिगृहादाववतरण-प्रवेशः, तत्राघोऽवतरणेन यद्दीयते तदप्युपचारादयोऽवतरण, तथा 'कुंभादिषु' कुम्भोष्ट्रिकाप्रभृतिषु यदत्तते देयं तदुभयम-ऊर्ध्वाधोमालापहतस्वमा भणितं तीर्थकरादिभिः, तथाहि-वृहत्तरोचस्तरकुम्भादिमध्यन्यवस्थितस्य देयस्य ग्रहणाय येन दात्री की पाण्युत्पाटनादि करोति तेनोप्रमालापहृतं, येन त्वयोमुखं बाहुमतिप्रभूतं व्यापारयति तेनायोमालापहृतं, दोषा अत्रापि पूर्ववद्भावनीयाः। अत्रैवापवादमाह
ददर सिल सोवाणे पुब्वारूढे अणुच्चमुक्खित्ते । मालोहडं न होई सेसं मालोहडं होइ ।। ३६४ ॥
व्याख्या-दरः निरन्तरकाष्ठफलकमयो निःश्रेणिविशेषः 'शिला' प्रतीता 'सोपानानि' इष्टकामयान्यवतरणानि, एतान्याAnा यदाति तन्मालापहृतं न भवति, केवलं साधुरप्येपणाशुद्धिनिमित्तं प्रासादस्योपरि दर्दरादिना चटति, अपवादेन भूस्थोऽप्यानीतं ।
गृह्णाति, तथा पूर्वारूढः साध्वागमनादग्रतः स्वयोगेन निःश्रेण्यादिना पासादोपरि घटितो दाता यददाति साधुपात्रके, कथंभूते ? इत्याहअनुचोक्षिप्ते, किमुक्तं भवति?-भूमिस्थः संयतो दृष्टेरधः पात्रं धारयन् यावरममाणे उच्चैःस्थाने स्थितो दाता पात्रे इस्तं प्रलिप्य ददाति तावत्प्रमाणे पूर्वारूढो यद्ददाति तन्मालापहृतं न भवति, शेषं तु सर्वमप्यनन्तरोक्तं मालापहृतमवसेयम् । इहानुचोत्क्षिप्तोचोरिक्षप्तयोः स्वरूपमाह
तिरियायय उज्जुगएण गिण्हई जं करेण पासतो । एयमणुच्चुक्खित्तं उच्चुक्खित्तं भवे सेसं ॥ ३६५ ॥
व्याख्या-तिर्यग् आयतेन-दीर्येण 'ऋजुकेन ' सरलेन 'करण' हस्तेन पात्रं दृष्ट्या निमालयन् यद्हाति तदित्यंभूतं पात्रमनुचोक्षिप्तमुच्यते, शेष पुनरुचोरिक्षत, इयमत्र भावना-यदृष्टरुपरि वाहुं प्रसार्य देयवस्तुग्रहणाय पात्र ध्रियते तत्तथा ध्रियमाणमुच्चोलिप्तमिति,
अनुक्रम [३९२]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [३९४] » “नियुक्ति: [३६५] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियु- केमेळयगि- रीयावृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३६५||
॥११॥
दीप
एतेन चोर्ध्वाधोमालापहृतव्याख्यानेन तिर्यगपि मालापहृतं व्याख्यातं द्रष्टव्यं, तत्राप्ययं कल्प्याकल्प्यविधिः-यत्पादस्याधो मञ्चिकादि ।
१४आच्छेदत्त्वा गवाक्षादौ स्थितं दानाय बा९ प्रसार्य महता कष्टेन समाकर्षति तन्न कल्पते, यच भूमौ स्वभावस्था गवाक्षादौ स्थितमयत्नेन ।
यभेदार किश्चिद्राहूं मसार्य साधोदानाय गृह्णाति तन्मालापहृतं न भवति, अतस्तस्कल्पते । तदेवमुक्तं मालापहृतम्, अथाऽऽच्छेयद्वारमाह| अच्छिज्जंपि य तिविहं पभू य सामी य तेणए चेव । अच्छिज्जं पडिकुटु समणाण न कप्पए घेत्तुं ॥ ३६६ ॥ | व्याख्या-आच्छेद्यमपि प्रागुक्तशब्दार्थ 'त्रिविध' त्रिप्रकार, तद्यथा-प्रभौ' प्रभुविषयं प्रभुरूपकाश्रितमित्यर्थः, एवं 'स्वामिनि स्वामिविषयं , स्तेनकविषयं च । एतच त्रिविधमध्याच्छेयं तीर्थकरगणधरैः 'प्रतिकुष्ट' निराकृतम्, अत: श्रमणानां || नाहीतुं न कल्पते । तत्र प्रथमतः प्रभुविषयं भावयति| गोवालए य भयएऽखरए पुत्ते य धूय सुहाए । अचियत्त संखडाई केइ पओसं जहा गोवो ॥ ३६७ ॥
व्याख्या-प्रभुकर्तृकमाच्छेचं 'गोपालके' गोपालविषय, तथा 'भृतकः' कर्मकरस्तद्विषयम् , अक्षरको-द्यक्षरकाभिधानो दास इत्यर्थः, तद्विषय, पुत्रविषयं दुहितृविषयं स्नुषाविषयम् , उपलक्षणमेतत्, भार्यादिविषयं च । अत्रैव दोषमाह-अचियत्त' इत्यादि, 'अचियत्तम् ' अमीतिः 'सर्ट' कला, आदिशब्दादात्मघातादिपरिग्रहः, केचित्पुनः प्रद्वेषमपि साधी गच्छन्ति, यथा 'गोपः' गोपा-II॥११॥ लकः । एनमेव दृष्टान्तं गाथाद्वयेन भावयति
गोवपओ अच्छेत्तुं दिन्नं तु जइस्स भइदिणे पहुणा । पयभाणूणं दुटुं खिसइ भोई रुखे चेडा ॥ ३६८ ॥
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अथ 'आच्छेध्य दोषस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [३९८] » “नियुक्ति: [३६९] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||३६९||
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पडियरणपओसेणं भावं नाउं जइस्स आलावो । तन्निब्बंधा गहियं हंदि स मुक्कोसि मा बीयं ॥ ३६९ ॥
व्याख्या-वसन्तपुरं नाम नगर, तत्र जिनदासो नाम थावकः, तस्य भार्या रुक्मिणी, जिनदासस्य गृहे वत्सराजो नाम गोपालः स चाष्टमे अष्टमे दिने सर्वासामपि गोमहिषीणां दुग्धमादत्ते, तथैव तस्य प्रथमतो धृतत्वात् , अन्यदा च साधुसङ्घनटको भिक्षायै । तत्रागमत, इतश्च तस्मिन् दिने गोपालस्य सर्वदुग्धादानवारकः, ततस्तेन सर्वा अपि गोमहिष्यो दुग्धा महती पारिदुग्धस्थापूर्णा, जिनदासश्च । जिनवचनभावितान्तःकरणतया साधुसङ्खभटकं परमपात्रभूतमायातमवलोक्य भक्तितो यथेच्छं भक्तपानादिकं तस्मै दत्तवान्, ततो 'दुग्धातानि भोजनानी ति परिभाव्य भक्तितरलितमनस्कतया गोपालस्य दुग्धं बलादाच्छिद्य कतिपयं ददौ, ततः स गोपालो मनसि साधोरूपरि मनाक पद्वेष ययौ, परं प्रभुभयान किमपि वक्तुमीशिता, ततस्तत्पयोभाजनं कतिपयन्यून स्वगृहे नीतवान्, तच्च तथाभूतं न्यून-11 मवलोक्य भार्या सरोषं पृष्टवती, किमिति न्यूनमिदं पयोभाजनम् ? इति, ततो गोपेन यथावस्थिते कथिते साऽपि साधुमाक्रोष्टुं मावत, चेटरूपाणि च दुग्धं स्तोकमवलोक्य किमस्माकं भविष्यतीति रोदितुं प्रवृत्तानि, तत इत्थं सकलमपि स्वकुटुम्बमाकुलमवेत्य स गोपः। सञ्जातसाधुविषयमहाकोपः साधु व्यापादयितुं चलितवान् , दृष्टश्च भिक्षार्थं परिभ्रमन् कापि प्रदेशे साधुः, ततः प्रधावितो लकुटमुत्पाव्य
साधोः पृष्ठतः, साधुनापि कथमपि पश्चादवलोकने तं गोपं तथाभूतं कोपारुणनयनमालोक्य परिभाषयामासे, नूनमेतस्य दुग्ध बलादाहाच्छिद्य जिनदासेन मह्यं ददे तेन मम मारणार्थमिव कुपित एष समागच्छन्नुपलक्ष्यते, ततः साधुर्विशेषतः 'प्रसन्नवदनो भूत्वा तस्यैव
सम्मुखं प्रत्यागन्तुं भावर्तत, बभाण च यथा-भो भोः क्षीरगृहनियुक्तक ! तब प्रभुनिबन्धेन मया तदानी दुग्धमा सम्पति तु गृहाण त्वमात्मीयं दुग्धमिति, एवं चोक्ते सत्युपशान्तकोपः साधु प्रति स्वस्वभावं प्रकटितवान् , यथा भोः साधो ! सुविहित ! तव मारणार्थमह
अनुक्रम [३९८]
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३६९||
दीप
अनुक्रम [३९८]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ३९८ ] • → “निर्युक्ति: [ ३६९] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [३... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
८०
पिण्डनिर्युकर्मकपगियावृत्तिः
॥१११॥
मिदानीमागतः परं सम्प्रति त्वद्वचनामृतपरिसेकत उपशशाम मे सर्वः कोपानलः, ततो गृहाण त्वमेवेदं दुग्धं, मुक्तश्चाक्षतप्राणो मया, परं भूयो ० ऽप्येवमाच्छेय न ग्रहीतव्यमिति निवृत्तो गोपः स्वस्थानं च गतः साधुरिति । सूत्रं सुगमं, नवरं 'पयभाणूणं 'ति विभक्तिलोपात्पयोभाजनमूनं दृष्ट्वा 'भोई' इति भोग्या - भार्या इत्यर्थः ' रोवे 'ति रुदन्ति, 'हंदी 'ति आमन्त्रणे तन्निर्वन्धात् स्वदीयजिनदासाख्यमभुनिर्वन्धागृहीतं, ततः स प्राह- मुक्तोऽसि सम्पति मा द्वितीयं वारमेवं गृहीथाः । सम्मति गोपालविषय एव अधियत्तसंखडाई |इत्येतद्वद्याचिख्यासुराह
नानिव्वि लग्भइ दासीवि न भुज्जए रिते भत्ता । दोन्नेगयरपओसं जं काही अंतरायं च ॥ ३७० ॥
व्याख्या - प्रभुणा बलादाच्छिद्यमाने दुग्बे कोऽपि गोपो रुढः प्रभोः सम्मुखमेवमपि ब्रुवाणः सम्भाव्यते, यथा किमिति मदीयं *दुखं बलादागृहासि ?, न खलु 'अनिर्दृष्टम् ' अनुपार्जितमिह किमपि लभ्यते, ततो मया स्वशरीरायासबकेनेदं दुग्धमुपार्जितम्, अतः कथमत्र प्रभवसि ? न हि दास्यप्यास्वामुत्तमवेश्यादिकमित्यपिशब्दार्थः, 'भक्तादृते ' भक्तपानमृते, भरणपोषणमृते इत्यर्थः, 'भुज्यते ' भोक्तुं लभ्यते, ततो मदीयं भोजनमिदम्, अतो न तेऽत्र प्रभुत्वावकाशः एवं चौक्ते सति कदाचिद्वयोरपि प्रभुगोपालकयोः परस्परमेकतरस्य वा द्वितीयस्योपरि प्रद्वेषो वर्द्धते, प्रद्वेषे च वर्द्धमाने यत् करिष्यति धनहरणमारणादिकं तत्स्वयमेवाऽऽच्छेयादाने दोषत्वेन विज्ञेयं । तथा यच्चान्तरायं गोपालकस्य तत्कुटुम्बस्य च तदपि दोषत्वेन विज्ञेयमिति । तदेवं 'गोवालपड़' इति व्याख्यातम् । एतदनुसारेण च भृतकादावपि यथायोगमप्रीत्यादिकं सम्भावनीयमिति । सम्प्रति स्वामिविषयमाच्छेयं विभावविषुराह
सामी चारभडा वा संजय दहूण तेसि अट्ठाए । कलुणाणं अच्छेज्जं साहूण न कप्पए घेत्तुं ॥ ३७१ ॥
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१४ आच्छेये गोपाळ
दृष्टान्तः
॥ १११ ॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४००] » “नियुक्ति: [३७१] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३७१||
दीप
व्याख्या-इह स्वगृहमात्रनायकः प्रभुः ग्रामादिनायकः स्वामी चारभया वा-स्वामिभटा वा, तेऽपि स्वामिग्रहणेन गृह्यन्ते ।। संयवान् दृष्ट्वा तेषां संयतानामर्थाय करुणानां कृपास्थानानां दरिद्रकौद्धम्बिकादीनां सम्बन्ध्याऽऽच्छिय यद्ददाति तत्साधूनां न कल्पते । एतदेव व्यक्तं भावयति
आहारोवहिभाई जइअट्ठाए उ कोइ अच्छिदे । संखडि असंखडीए तं गिण्हते इमे दोसा ॥ ३७२ ॥ . MA व्याख्या-यदि कोऽपि स्वामी भटो वा यतीनामर्थाय केषाञ्चित्सम्बन्ध्याहारोपध्यादिकं सङ्खव्या' कलहकरणेन 'असङ्ख्या
कहाभावेन, कोऽपि हि तत्सम्बन्धिनि बलादाच्छिद्यमाने कलहं करोति, कोऽपि स्वामिभयादिना न किमपि वक्ति, तत उक्त सङ्खड्याalsसङ्खड्या वेति, बलादारिद्य यतिभ्यो ददाति तद्यतीनां न कल्पते । यतस्तद्गृति यताचिमे दोषाः ।। तानेवाह
अचियत्तमंतरायं तेनाहड एगऽणेगवोच्छेओ। निच्छुभणाइदोसा तस्स अलंभे य जं पावे ॥ ३७३ ॥ व्याख्या-येषां सत्कमाच्छिय बलात् स्वामिना दीयते तेषाम् 'अचियत्तम् । अमीतिरुपजायते, तथा तेषाम् 'अन्तरायं 'दीयमानवस्तुपरिभोगहानिः कृता भवति, तथेत्य साधूनामाददानानां स्तेनाहुतं भवति-अदचादानदोषो भवति, दीयमानवस्तुनायकेनाननुज्ञातत्वात् , तथा येषां सम्बन्धि स्वामिना बलादाच्छिय दीयते ते कदाचित्मद्विष्टाः सन्तोऽन्यदाऽपि तस्यैकस्य साघोर्भक्तपानच्यवछेदं कुर्वन्ति, तथाऽनेन सम्पति बलादस्माकं भक्तादि गृहीतं सतः कालान्तरेऽप्यस्मै न किमपि दातव्यमस्माभिरिति, अथवा सामान्यतः प्रदेषमुपपान्ति, यथाऽनेन संपतेन बलादस्माकं भक्तादि गृह्यते तस्मात्कालान्तरेण न कस्मायपि संयताय दातव्यमित्यनेकसाधूनां
अनुक्रम [४००]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४०२] » “नियुक्ति: [३७३] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३७३||
दीप
पिण्डनिर्य- भक्तादिव्यवच्छेदः, तथा ते रुष्टाः सन्तो यः पूर्वमुपाश्रयो दत्तः तस्मानिष्काशयन्ति, आदिशब्दात्खरपरुषाणि भाषन्ते इति परिगृह्यते । १४आच्छेकर्मळयनि-तथा तस्य उपाश्रयस्यालाभे यत् किमपि कष्टं प्राप्नुवन्ति तदप्याच्छेद्यादाननिमित्तमिति दोषः । सम्पति स्तेनाच्छेयं भावयति
ये दोषे स्वे रीयावृत्तिः तेणो व संजयट्ठा कलुणाणं अप्पणो व अट्ठाए । वोच्छेय पओसं वा न कप्पई कप्पणुन्नायं ॥ ३७४ ॥ नाच्छेद्य ॥११२॥
व्याख्या-इह स्तेना अपि केचित् संयतान् प्रति भद्रका भवन्ति, संयता अपि कापि दरिद्रसार्थेन सह व्रजन्ति, ततस्तान भिक्षावेलायां भिक्षामप्राप्नुबतो दृष्ट्वा संयतानामर्थाय यद्वा खस्याऽऽत्मनोऽर्थाय तेषां 'करुणानां कृपास्थानानां दरिद्रसार्थमानुपाणां सकाशादाच्छिद्य यददाति स्तेनः तत् स्तेनाच्छेयं द्रष्टव्यं, तब साधूनां न कल्पते, यतस्तस्मिन् गृह्यमाणे येषां सम्बन्धि तद्रव्यं ते पूर्वोक्तप्रकारेणैकानेकसाधूनां भक्तादिन्यवच्छेदं कुर्वन्ति, यदा-प्रद्वेषं ' रोषमुपयान्ति, तथा च सति सार्थानिष्काशनं कालान्तरेऽपि तेषां पाचे उपाश्रयापतिलम्भ इत्यादयो दोपाः, यदि पुनस्तेऽपि साधिका वक्ष्यमाणपकारेणानुजानन्ते तहि कल्पते । एतदेव गाथादयेन : स्पष्टं भावयति
संजयभद्दा तेणा आयंती वा असंथरे जइणं । जइ देति न घेत्तब्वं निच्छुभवोच्छेउ मा होज्जा ॥ ३७५ ॥ घयसत्तुयदिढतो समणुन्नाया व घेत्तुणं पच्छा । देति तयं तेसिं चिय समणुन्नाया व भुंजंति ॥ ३७६ ।।
॥११॥ ___ व्याख्या-इह स्तेना अपि केचित् संयतभद्रका भवन्ति, साध्वश्च कदाचिदरिद्रसार्थेन सह कापि ब्रजन्ति, ततस्तेषां साधूनां । भिक्षावेलायाम् ' असंस्तरे' अनिर्वाहे ते स्तेनाः स्वग्रामाभिमुखं प्रत्यागच्छन्तो वाशब्दात् स्वग्रामादन्यत्र गच्छन्तो वा यदि तेषां दरिद्र
अनुक्रम [४०२]
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आगम
(४१/२)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||३७६||
दीप
अनुक्रम [ ४०६ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ४०६ ] ● → “निर्युक्तिः [३७६] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - ४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि रचिता वृत्तिः
८०
सार्थमानुषाणां बलादाच्छिय भक्तादि प्रयच्छन्ति तर्हि न ग्राह्यं यतो मा भूत् 'निच्छोभः ' सार्थान्निष्काशनं एकानेकसाधूनां तेभ्यो ॐ भक्तादिव्यवच्छेदो वा, यदि पुनस्तेऽपि सार्थिका स्तैनैर्बलादाप्यमाना एवं ब्रुवते यच्चास्माकमहो घृतसक्तदृष्टान्त उपातिष्ठत, घृतं हि सक्तुमध्ये प्रक्षिप्तं विशिष्टसंयोगाय जायते, एवमस्माकमप्यवश्यं चौरैर्ग्रहीतव्यं ततो यदि चौरा अपि युष्मभ्यं दापयन्ति ततो महानस्माकं समाधिरिति तत एवं सार्थिकैरनुज्ञाताः साधवो दीयमानं गृहन्ति, पञ्चाचौरेच्यपगतेषु भूयोऽपि सद्रव्यं गृहीतं तेभ्यः समर्पयन्ति, यथा * तदानीं चौरप्रतिभयादस्माभिर्गृहीतं, सम्पति ते गतास्तत एतदात्मीयं द्रव्यं यूयं गृह्णीयेति, एवं चोक्ते सति यदि तेऽपि समनुजानते || * यथा-युष्मभ्यमेतदस्माभिर्दत्तमिति तर्हि भुञ्जते, कल्पनीयत्वादिति । अनेन 'कप्पणुन्नायं' इत्यवयवो व्याख्यातः । तदेवमुक्तमाच्छेद्य* द्वारम् इदानीमनिसृष्टद्वारमाह- ●
अणिसिद्धं पडिकुटुं अणुनायं कप्पए सुविहियाणं । लड्डुग चोल्लग जंते संखडि खीरावणाईसु ॥ ३७७ ॥
व्याख्या — निसृष्टम् — अनुज्ञातं तद्विपरीतम निस्सृष्टमननुज्ञातमित्यर्थः, तत् 'प्रतिक्रुष्टं निराकृतं तीर्थकरगणधरैः, अनुज्ञातं पुनः कल्पते सुविहितानां तथानिष्ट्रमनेकधा, तद्यथा - 'लड्डुकविषयं ' मोदकविषयें, तथा 'चोलकविषयं' भोजनविषयं, ' यन्त्रे' इति कोल्हकादिघाणकविषयं तथा 'संखडिविषयं विवाहादिविषयं तथा 'क्षीरविषयं ' दुग्धविषयं, तथा आपणादिविषयम्, आदिशब्दाब्रहादिविषयमवसेयम् इयमत्र भावना-इह सामान्यतोऽनिस्सृष्टं द्विधा, तथया - साधारणानिसृष्टं भोजनानिसृष्टं च तत्र भोजनानिसृष्टं चोल्लकशब्देनोक्तं, साधारणानिसृष्टं तु शेषभेदैरिति । तत्र मोदकविषयसाधारणानिसृष्टोदाहरणं गाथाचतुष्टयेनाह
बचीसा सामन्ने ते कहिँ हाउं गयत्ति इअ वृत्ते । परसंतिएण पुन्नं न तरसि काउंति पच्चाह ॥ ३७८ ॥
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अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते सा मया संपादितः 'आगमसुत्ताणि मूलं एवं सटीकं उभये पुस्तके वर्तते अथ 'अनिसृष्ट' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४०९] » “नियुक्ति: [३७९] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियु
कर्मकपगि
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३७९||
मोदको
दीप
अविय हु बत्तीसाए दिन्नहिँ तवेगमोयगो न भवे । अप्पवयं बहुआयं जइ जाणसि देहि तो मज्झं ॥ ३७९ ॥ १५अतिस
टे द्वात्रिंशलाभिय नेतो पुट्ठो किं लई नत्थि पेच्छिमो दाए । इयरोऽवि आह नाहं देमित्ति सहोढ चोरत्ति ।। ३८० ॥ रीयादृत्तिः
गिण्हण कट्टण ववहार पच्छकडुड्डाह पुच्छ निव्विसए । अपहुंमि भवे दोसा पहुंमि दिन्ने तओ गहणं ॥ ३८॥ ॥११॥
व्याख्या-रत्नपुरे पुरे माणिभद्रप्रमुखा द्वात्रिंशद्वपस्याः, ते कदाचिद्यापनानिमित्तं साधारणान मोदकान कारितवन्तः, कारयित्वा च समुदायेनोद्यापनिकायां गताः, तत्र चैको मोदकरक्षको मुक्तः, शेषास्त्वेकत्रिंशनयां स्नातुं गताः, अत्रान्तरे च कोऽपि लोलुपः । साधुभिक्षार्थमुपातिष्ठत, दृष्टाश्च तेन मोदकाः, ततो जातलाम्पट्यो धर्मलाभयित्वा तं पुरुष मोदकान् याचितवान् , स माह-भगवन् ! न। ममैकाकिनोऽधीना पते मोदकाः, किन्त्वन्येषामप्येकत्रिंशज्जनानां ततः कथमहं प्रयच्छामि !, एवमुक्त साधुराइ-ते 'कहिं 'ति कुत्र गताः सास पाह-नया सातुमिति, तत एवमुक्ते भूयोऽपि साधुस्तं प्रत्याइ-परसत्केन मोदकसमूहेन त्वं पुण्यं कर्तुं न शक्रोपि ? यदेवं याचितोकाऽपि न ददासि, महानुभाव ! मूढस्त्वं, य: परसत्कानपि मोदकान मां दचा पुण्यं नोपार्जयसि, अपि च द्वात्रिंशतमपि मोदकान् यदि मे | प्रयच्छसि तथापि तव भागे एक एव मोदको याति, तत एवमल्पव्ययं बहायं दानं यदि जानासि सम्यग्रहदयेन तर्हि ततो देहि मे सवा-1
॥११३॥ नपि मोदकानिति, तत एवमुक्ते दत्तास्तेन सर्वेऽपि मोदकाः, भृतं साधुभाजनं, ततः सञ्जातहर्षः साधुस्तस्मात्स्थानादिनिगेन्तुं प्रवृत्तः, अत्रा-1 कान्तरे च सम्मुखमागच्छन्ति माणिभद्रादयः, पृष्टश्च तैः साधुः-भगवन् ! किपत्र त्वया लब्धी, ततः साधुना चिन्तितं, ययेते ते मोदक-
स्वामिनस्ततो यदि मोदका लब्धा इति वक्ष्ये तर्हि भूयोऽपि ग्रहीष्यन्ति, तस्मान्न किमपि लब्धमिति वच्मीति, तथैवोक्तवान् , ततस्तैर्मा
अनुक्रम [४०९]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४११] » “नियुक्ति: [३८१] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३८१||
मणिभद्रपमुखै राक्रान्तं साधुमवलोक्य सञ्जातशडैरभाणि-दर्शय निजभाजनं साधो ! येन प्रेक्षामहे, साधुश्च न दर्शयति, ततो वलात्म
लोकितं, दृष्टा मोदकाः, ततः कोपारुणलोचनैः साधिशेष रक्षकपुरुषः पृष्टः-यथा कि भोः ! त्वयाऽस्मै सर्वेऽपि मोदका दत्ताः!, स भयेन कम्पमानोऽवोचत न मया दत्ताः, एवं चोक्ते माणिभद्रादिभिः साधुरूचे-चौरस्त्वं पाप साधुवेषविडम्बका 'सहोद' इति सलोपत्र इदानी प्राप्तोऽसि ? कुतस्ते मोक्ष इति गृहीतो वखाश्चले?, कर्षितो बहुना, ततः पथात्कृत इति गृहीत्वा सकलमपि पावरजोहरणादिकम-|| पकरणं गृहस्थीकृतः, ततः 'उड्डाह' इति नीतो राजकुलं, कथितो धर्माधिकरणिकानां, पृष्टश्च तैः साधुश्च न किमपि कज्जया वक्तुं शक्तवान , ततस्तैः परिभावित-नूनमेष चोर इति, परं साधुवेषधारीतिकृत्वा प्राणैर्मुक्तो निर्विषयश्चाऽऽज्ञापितः, एवमत्र भावना-अनायके दातरि । एतेऽनन्तरोका ग्रहणकर्षणादयो दोपा भवन्ति, 'पहुंमिचि तृतीया सप्तमी, यथा 'तिसु तेसु अलंकिया पुहवी' इत्यत्र, ततोऽयमर्थःतस्मात् 'प्रभुणा' नायकेन दत्ते सति साधुना ग्रहणं भक्तादेः कर्तव्यं, तत्राप्याच्छेचादिकं सम्यक् परिहर्त्तव्यमिति । उक्तं सोदाहरणं || मोदकद्वारम् , अधुना शेषाण्यपि द्वाराण्यतिदेशेन व्याख्यानयति
एमेव य जंतंमिवि संखडि खीरे य आवणाईसं । सामन्नं पडिकुटुं कप्पइ घेत्तुं अणुन्नायं ॥ ३८२ ।।।
व्याख्या-'एचमेव' मोदकोदाहरणप्रकारेण यन्त्रेऽपि सङ्खड्यामपि क्षीरे चाऽऽपणादिषु च यत् 'सामान्य' साधारणं तत् स्वामिभिः सर्वैरप्यनिसृष्टं सत् प्रतिक्रुष्टं तीर्थकरगणधरैः, अनुज्ञातं पुनः सर्वैरपि स्वामिभिः कल्पते ग्रहीतुं, तत्र दोषाभावात् । सम्पति चुल्लकद्वारस्य प्रस्ताक्नां चुल्लकस्य भेदं च प्रतिपादयवि
चुल्लत्ति दारमहुणा बहुवत्तव्वंति तं कयं पच्छा । वन्नेइ गुरु सो पुण सामिय हत्थीण विन्नेभो ॥ ३८३॥ .
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आगम
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गाथांक
नि/भा/प्र
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[ ४१३]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ४१३] “निर्युक्ति: [ ३८३] भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [४... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
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पिण्डनिर्युतेर्मलयगि पावृत्तिः ॥११४॥ 8
व्याख्या - अधुना चुद्धकद्वारं व्याख्येयम्, अयोध्येत मूळगाथाया द्वितीये स्थाने निर्दिष्टमपि कस्माद्व्याख्यावेलाया पञ्चात्कृतं ?, तत आह-बहुवक्तव्यमिदं द्वारमतो व्याख्यावेलायां पथात्कृतं, तत्र 'गुरुः' तीर्थकरादिः ' वर्णयति' प्ररूपयति यथा स चुलको द्विधा, तद्यथा-स्वामिनो हस्तिनञ्च । तत्र प्रथमतः स्वाम्यनिर्दिष्टं चुलकमाह
छिन्नमछिन्नो दुविहो होइ अछिन्नो निसिहअणिसिहो । छिन्नंभि चुलगंमी कप्पइ घेत्तुं निसिमि ॥ ३८४ ॥
व्याख्या - इह द्विधा चुलकः, तद्यथा— छिन्नोऽच्छिन्नथ, इयमत्र भावना - इइ कोऽपि कौटुम्बिकः क्षेत्रगतहालिकानां कस्यापि पार्श्वे कृत्वा भोजनं प्रस्थापयति, स यदेके कहालिकयोग्यं पृथक् पृथग भाजने कृत्वा प्रस्थापयति तदा स चुलुकछिन्नः यदा तु सर्वेषामपि हालिकानां योग्यमेकस्यामेव स्थाल्यां कृत्वा प्रेषयति तदा सोऽच्छिन्नः एवमन्यत्राप्युयापनिकादौ छिन्नाच्छिनत्वं चुल्लकस्य भावनीयम् । अच्छिन्नोऽपि द्विधा, तयथा— निसृष्टोऽनिसृपृथ, तत्र निसृष्टः कौटुम्बिकेन येषां च दालिकानां योग्यः स चुलकः तेथ साधुभ्यो दानाय मुल्कलितः, इतरस्त्वमुत्कलितोऽनिसृष्टः । तत्र यस्य निमित्तं छिन्नः स एव चेतस्यात्मीयस्य छिन्नस्य दाता तर्हि तस्मिंश्छित्रेऽपि चुल्लके तत्स्वामिना दीयमाने साधूनां ग्रहीतुं कल्पते, दोषाभावात्, तथाऽच्छिन्नेऽपि सर्वैरपि तत्स्वामिभिर्निसृष्टे - अनुज्ञाते तं ग्रहीतुं कल्पते, तत्रापि दोषाभावात् । एनमेवार्थं सविशेषतरमाद
छिन्नो दिमदिट्ठो जो य निसिद्धो भवे अछिन्नो य । सो कप्पइ इयरो उण अदिदिट्ठो वऽणुन्नाओ ॥ ३८५ ॥ व्याख्या - पचुद्धको यस्य निमित्तं छिन्नः स तने दीयमानो मूलस्वामिना कौटुम्बिकेनादृष्टो दृष्टो वा कल्पते, तथा यधाच्छिन
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१५ अतिसृ
टदोषे छिन्नेतरानिसृष्टे
॥११४॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४१६] » “नियुक्ति: [३८६] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||३८६||
दीप
योऽपि च यस्य निमित्तं छिन्नः स स्वस्वस्वामिभिरनुज्ञातोऽन्येन दीयमानः स्वस्वस्वामिभिरदृष्टो दृष्टो वा कल्पते, 'इयरो उण'ति इतर एतदयतिरिक्त ता-पुनरर्थे छिचोऽछिनो वा स्वस्वस्वामिभिरननुहातोऽदृष्टो दृष्टो वा न कल्पते, पागुक्तपदणादिदोषसम्भवात, अयं च। विधिः साधारणानिसष्टेऽपि बेदितव्यः । तथा चैतदेव गाथार्दैन प्रतिपादयति
अणिसिट्ठमणुन्नायं कप्पइ घेत्तुं तहेव अद्दिढं । व्याख्या-अनिसृष्ट-साधारणानिसष्टं पूर्व स्वस्वामिभिः सर्वैरननुज्ञातमपि यदि पश्चादनुसातं भवति तहि कल्पते तद्रहीतुं । तथाMeऽनुज्ञातं सत् सर्वैः स्वामिभिरन्यत्रगतत्वादिना कारणेनादृष्टमपि ग्रहीतुं कल्पते, दोषाभावात् । सम्पति हस्तिनश्चुल्लकानिसृष्टं गायोत्तरार्दैन भावयति
जजुस्स य अनिसिटुं न कप्पई कप्पइ अदिडं ॥ ३८६॥ व्याख्या--हस्तिनो भक्तं मिष्ठेनानुज्ञातमपि राज्ञा गजेन चानिसृष्टम् --अननुज्ञातं न कल्पते, वक्ष्यमाणग्रहणादिदोषमसतात, तथा मिण्ठेन स्वलभ्यं भक्तं दीयमानं गजेनादृष्टं कल्पते, गजदृष्टग्रहणे तु वक्ष्यमाणोपाश्रयभङ्गादिदोपप्रसङ्गः । अस्यैव विधेरन्ययाकरणे दोषानाह
निवपिंडो गयभत्तं गहणाई अंतराइयमदिन्नं । डुंबरस संतिएवि हु अभिक्ख वसहीएँ फेडणया ॥ ३८७ ।।
अनुक्रम [४१६]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४१७] » “नियुक्ति: [३८७] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२, मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३८७||
पिण्डनियु- व्याख्या-दह यदजस्य भक्तं तदाज्ञः पिण्डो-राज्ञो भक्त, ततो राज्ञाऽननवातस्य ग्रहणे ग्रहणादयो-ग्रहणाकर्षणवेषोडालना- १५ अनितेर्मलयगि- दयो दोषा भवेयुः, तथा 'आन्तरायिकम् । अन्तरायनिमिर्च पापं साधोः प्रसज्यते, राजा हि मदीयाज्ञामन्तरेणैष साधवे पिण्ड ददातीति | मष्टदोषः रीयात्तिः स्टः सन् कदाचिद् मिष्ठं स्वाधिकारावंशयति, ततो मिण्ठस्य वृत्तिच्छेदः साधुनिमित्त इति साधोरन्तरायिक पापं, तथा 'अदिन्न'
ति१६ अध्य
वपूरका ॥११॥
|| अदत्तादानदोषो, राज्ञाऽननुज्ञातत्वात, तथा 'टुम्बस्य मिण्ठस्य सत्के पिण्डे मिण्टेन स्वयं दीयमाने 'अभीक्ष्णं' प्रतिदिवसं यदि साधुस्तं
पिण्डं गजस्य पश्यतो गृह्णाति तदा मदीयकवकमध्यादनेन मुण्डेन पिण्डो गृह्यते इत्येवं कदाचिद्रुष्टः सन् यथायोग मागें परिभ्रमन्नु- पाथेय तं साधुं दृष्ट्वा तमुपाश्रयं स्फोटयेत , साईं च कथमपि प्राप्य मारयेत् , तस्मान्न गजस्य पश्यतो मिण्ठस्यापि सत्तं गृह्णीयात् । तदेवमुक्तमनिमष्टद्वारम्, अधुनाऽध्यवपूरकद्वारमाह
अझोयरओ तिविहो जावंतिय सघरमीसपासंडे । मूलंमि य पुवकये ओयरई तिण्ह अह्राए ॥ ३८८ ॥
व्याख्या-अध्यवपूरक: 'त्रिविधः' त्रिपकारः, तद्यथा-जातिय' इति स्वगृहमिश्रशब्दयोरत्रापि सम्बन्धनात् स्वगृयावदविकमिशः 'सघरमीसे 'ति अब साधुशब्दोऽध्याहियते, स्वगृहसाधुमिश्रा, 'पासंडे' इति अत्रापि यथायोग स्वगृहमिश्रशब्दसम्बन्धः, स्वगृहपापण्डिमिश्रः, स्वगृहश्रमणमिश्रः स्वगृहपापण्डिमिशेऽन्तर्भावित इति पृथनोक्तः । त्रिविधस्यापि सामान्यतो लक्षणमाह-'मूलंमी 'ल्पादि, मूले-आरम्भेऽनिसन्धुक्षणस्थाळीजलपक्षेपादिरूपे पूर्व-यावदर्थिकाद्यागमनात् प्रथममेव स्वार्य निष्पादिते पचायथासम्भव | ॥११॥ 'त्रयाणां' यावदर्थिकादीनामर्थाय 'अवतारयति ' अधिकतरांस्तण्डुलादीन् प्रक्षिपति, एषोऽध्यवपूरका, अत एव चास्य मिश्रजातानेदः, यतो मिश्रजातं तदुच्यते यत्प्रथमत एवं यावदर्थिकाद्यर्थयात्मार्य च मिश्र निष्पाद्यते, यत्पुनः प्रथमत आरभ्यते खार्थे पश्चात्मभूतान
るゆらゆらゆらりゆらりゆらゆるゆるゆるなるなるなるなる
दीप
अनुक्रम [४१७]
अथ 'अध्यवपूरक' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४१८] » “नियुक्ति: [३८८] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३८८||
दीप
र्थिनः पापण्डिनः साधून वा समागतानवगम्य तेषामायाधिकतरं जळतण्डुलादि प्रक्षिप्यते सोऽध्ययपूरक इति मिश्रजातादस्य भेदः।
अमुमेव भेदं दर्शयति8 तंडुलजलआयाणे पुएफफले सागवेसणे लोणे । परिमाणे नाणतं अज्झोयरमीसजाए य ॥ ३८९ ॥
___व्याख्या-इह 'व्यत्ययोऽप्यासा 'मिति वचनात्सप्तमी यथायोग षष्ठयर्थे तृतीयार्थे च वेदितव्या, ततोऽयमर्थ:-अध्यवपूरकस्य । मिश्रजातस्य च परस्परं नानात्वं तण्डुलजलपुष्पफलशाकवेसनलवणानाम् 'आदाने' आदानकाळे यत् विचित्रं परिमाणं तेन द्रष्टव्यं, तथाहि । मिश्रजाते प्रथमत एवं स्थाल्यां प्रभूतं जलमारोप्यते, अधिकतराव तण्डुलाः कण्डनादिभिरुपक्रम्यन्ते, फलादिकमपि च प्रथमत एव । प्रभूततरं संरभ्यते, अध्यक्षपूरके तु प्रथमतः स्वार्थ स्तोकतरं तण्डुलादि गृह्यते, पश्चाद्यावदर्थिकादिनिमित्तमधिकतरं तण्डलादि मक्षिप्यते, तस्मात्तण्डुलादीनामादानकाले यद्विचित्रं परिमाणं तेन मिश्राध्यवपूरकयोनानात्वमवसेयं । सम्पत्यध्यवपूरकस्य कल्प्याकल्प्यविधिमाद
जावंतिए विसोही सघरपासंडि मीसए पूई । छिन्ने विसोही दिन्नंमि कप्पइ न कप्पई सेसं ॥ ३९ ॥ व्याख्या-यावदर्थिक ' यावदपिकमिश्रेऽध्यवपूरके शुद्धभक्तमध्यपतिते यदि तावन्मात्रमपनीयते ततो विशोधिर्भवति, अत एव । च स्वगृहयावदर्थिकमिश्रोऽध्यवपूरको विशोधिकोटिवक्ष्यते, स्वगृहपापण्डिमिश्रे उपलक्षणमेतत् स्वगृहसाधुमिश्रे च शुद्धभक्तमध्यपतिते पूतिर्भवति, सकलमपि तद्भक्तं पूतिदोषदृष्टं भवतीत्यर्थः, तथा विशोधिकोटिरूपे यावदर्थिकाध्यवपूरके छिन्ने यावन्तः कणाः कार्पटिकाद्यर्थ पश्चालिप्ताः तावन्माने स्थाल्पाः पृथकृते सति यद्वा तावन्माने कापटिकादिभ्यो दत्ते सति शेषमुद्धरितं यद्भक्तं तत्साधूनां कल्पते, शेषं पुनः
अनुक्रम [४१८]
SARERainintentmarana
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३९०||
दीप
अनुक्रम [ ४२० ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ४२० ] • → “निर्युक्ति: [ ३९०] भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [४... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
+
८०
पिण्डनिर्युकेर्मकयगि
रीयावृत्तिः
॥ ११६ ॥
.....................
स्वगृहपापण्डिमिश्रस्वगृहसाधु मिश्राध्यवपूरकरूपं न कल्पते, किमुक्तं भवति ? - यदि तत्तावन्मात्रं स्थारपाः पृथकृतं दत्तं वा पापण्ड्यादिभ्यस्तथापि यच्छेषं तन्न कल्पते इति । 'जावंतिए विमोही' इत्यवयवं विशेषतो व्याख्यानयति-
छिन्नंमि तओ उक्कड्डियंमि कप्पइ पिहीकए सेसं । आहारणाए दिन्नं च तत्तियं कप्पए सेसं ॥ ३९१ ॥
व्याख्या----विशोधिकोटिरूपे यावदर्शिकेऽध्यवपूरके यावदधिकं पश्चात् प्रक्षिप्तं तावन्मात्रे 'छिन्ने पृथकृते तत्र छेदो रेखयापि भवति तदाह - 'तओ उकट्टियमि ततः स्वस्थानादुत्कर्षिते उत्पादिते, इहोत्कर्षितं स्वस्थानादुत्पाव्य शेषभक्तस्योपरि निक्षिप्तमपि भण्यते ततो विशेषणान्तरमाह - पृथकृते स्थाल्या बहिर्निष्काशिते शेषं यद्भक्तं तत्साधूनां कल्पते । अथवा 'आभावनया उद्देशेन न तु | सिक्थादिपरिगणनेन यदि तावन्मात्रं कार्पटिकादिभ्यो दत्तं स्यात् ततः शेषं कल्पते । तदेवमभिहितमध्यवपूरकद्वारं तदभिधानाचाभिहिताः षोडशाप्युद्रमदोषाः । सम्प्रत्येतेषामेव विभागमाह
एसो सोलसभेओ, दुहा कीरइ उग्गमो । एगो विसोहिकोडी, अविसोही उ चावरा ॥ ३९२ ॥
व्याख्या - एप षोडशभेद उद्मः सामान्येन द्विधा, तद्यथा— 'एको विशोधिकोटि: ' एको भेदो विशोधिकोटिरूपः अपरा च 'अविशोधि:' 'अविशोधिकोटि:' अविशोधिकोटिरूपो द्वितीयो भेद इत्यर्थः । तत्र यद्दोषस्पृष्टभक्ते तावन्मात्रेऽपनीते सति शेषं कल्पते स दोषो विशोधिकोटिः, शेषस्त्वविशोधिकोटिः । तत्र प्रथमतोऽविशोधिकोटिमाह
आहाकम्मुदेसिय चरमतिगं पूइ मीसजाए य । बायरपाहुडियावि य अज्झोयरए य चरिमदुगं ॥ ३९३ ॥
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उद्गमदो
षाणां विशोध्यविशोधिकोटीता
॥ ११६ ॥
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३९३||
दीप
अनुक्रम [४२३]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [४२३] → “निर्युक्तिः [ ३९३] + भाष्यं [ २८ ] + प्रक्षेपं [४] ८०
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
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व्याख्या – भाषाकर्म समभेदम्, १ 'औद्देशिकस्य' विभागौदेशिकस्यान्त्यभेदत्रयं २ तथा 'प्रति:' भक्तपानरूपा ३ 'मिश्रजातं ' पाषण्डिगृहमिश्रसाधुगृहमिश्ररूपं ४ बादरा प्राभृतिका ५ अध्यवपूरकस्य च 'चरमद्विकं ' स्वगृहपाषण्डिमिथस्वगृहसाधुभिश्ररूपम् ६, एते उद्मदोषा अविशोधिकोटिः । अनया चाविशोधिकोट्या अवयवेन स्पृष्टं शुद्धं भक्तं यदोषदुष्टं भवति तं दोषमाहउग्गमकोडी अवयव लेवालेवे य अकयए कप्पे । कंजियआयामगचाउलोय संसह पूईओ ॥ ३९४ ॥
I
व्याख्या- ' उद्रमकोव्याः ' उद्गमदोषरूपाया अविशोधिकोट्या 'अवयवेन' शुष्कसिक्थादिना तथा 'लेपेन' तकादिना 'अलेपेन' वल्लचणकादिना संस्पृष्टं यद्भक्तं तस्मिनुज्झितेऽपि यत् अकृते कल्पे-अकृतकल्पत्रये इत्यर्थः पात्रे यत्पञ्चात्परिगृह्यते तत्पूतिरवगन्तव्यम् ३६ कचिन्मतिदौर्बल्यादित्थं विकल्पेत-यथा यदेव साधूनाधाय निर्वर्त्तितं तदेवैकमोदनपाधाकर्म भवति, न शेषमव श्रावणकाञ्जिकादि, अतस्तत्संस्पृष्टं पूतिर्न भवतीति ततस्तदभिप्रायनिराकरणार्थमाह- 'कंजि ' इत्यादि, इह साध्वर्थमोदनेऽभिनिर्वर्धमाने यत्तत्सत्कं काखि कादि तदप्याचा कर्मैव तदवयवरूपत्वात् ततः काञ्जिकेनाऽऽयामेन - अवश्रावणेन चाउछोदकेन च यत्संस्पृष्टं तदपि पूतिर्भवति । एतदेव रूपकत्रयेण भाष्यकृयाख्यानयति---
सुकेण विजं किंतु असुइणा घोवए जहा लोए। इह सुक्केणऽवि छिक्कं धोवइ कंमेण भाणं तु १ ॥ ( भा० ३७) लेवालेवत्ति जं वृत्तं, जंपि दव्यमलेवडं । तंपि घेतुं ण कप्पंति, तकाइ किमु लेवडं ? ॥ ( भा० ३८ )
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अत्र आरभ्य भाष्य क्रम संख्याविषयक मुद्रण दोष: संभाव्यते, तत्कारणात् पूज्यपाद् सागरानन्दसूरिजी संपादिता 'आगममञ्जूषायाः उद्धृत क्रम मया अत्र प्रक्षेपितम्
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भा० २८ भा० २९
nayor
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४२७] .→ “नियुक्ति: [३९४] + भाष्यं [३०] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
विशोध्य
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३९४||
दीप
पिण्डनियु
आहाय जं कीरइ तं तु कम्म, वजेहिही ओयणमेगमेव । कर्मकयगि
भा० ३० सोवीर आयामग चाउलो वा, कम्मति तो तगहणं करेंति ॥ (भा० ३९)
विशोधिरीयावृत्ति
व्याख्या-गर्म नवरमापरूपकेण 'अवयव' इति पदं व्याख्यातं, द्वितीयरूपकेण 'लेबालेव' इति, तत्रा भावार्थ:- काटाता ॥११७॥
बलचनकादिद्रव्यमलेपकृत् यदि प्रथममनाभोगादिकारणतः पात्रे गृहीत्वा पश्चात्कथमपि परिज्ञाते परित्यज्य पात्रं कल्पयन्ति-कल्पत्रयेण प्रक्षालयन्ति, किं पुनस्तकादिकं लेपकगृहीत्वा, तत्र सुतरां कल्पत्रयेण प्रक्षालनं कर्तव्यम् इति परिज्ञापनार्थे लेपालेप इत्युक्त, तथा यदेव मुख्यवृत्त्या साधूनाधाय क्रियते तदेवाधाकर्म नान्पदिति बुद्धया शिष्या वर्जयिष्यन्ति ओदनमेव केवलं न शेषं तण्डुलोदकादिकं ततो का गुरवो-भद्रबाहुस्वामिनः सौवीरावश्रावणतण्डलोदकान्पप्याधाकवि परिज्ञापनार्थं तद्वाण-सौवीरादिग्रहणं विशेषतः कुर्वन्ति । तदेव
मविशोधिकोटिरुक्ता, सम्पति विशोधिकोटिमाह। सेसा विसोहिकोडी भत्तं पाणं विगिंच जहसत्ति । अणलक्खिय मीसदवे सव्वविवेगेऽवयव सुद्धो ॥ ३९५ ॥
व्याख्या-शेषौघौदेशिक नवविधमपि च विभागौदेशिकम् उपकरणपूतिमिश्रस्यायो भेदः स्थापना सूक्ष्ममाभूतिका पादुष्करणं क्रीतं पामित्यकं परिवर्तितमभ्याहृतमुद्भिवं मालापहतमाच्छेद्यमनिसष्टमध्यवपूरकस्यायो भेदश्वेत्येवंरूपा विशोधिकोटिः, विशुध्यति । शेष शुद्ध भक्तं यस्मिन्नुढते यदा विशुद्धधति पात्रमकृतकल्पत्रयमपि यस्मिन्नज्झिते सा विशोधिः, सा चासौ कोटिश्व-भेदच विशोधि-18" कोटिः , उक्तं च-" उद्देसियमि नवगं उवगरणे जं च पूइयं होई । जातियमीसगयं च अज्झोयरए य पढमपयं ॥ १ ॥ परियट्टिए
अनुक्रम [४२७]
कककककल
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४२८] .” “नियुक्ति : [३९५] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३९५||
अभिहडे उभिने मालोहडे इय | अपिछज्जे अणिसिहे पाओयर कीय पामिचे ॥२॥ मुहमा पाहुडियावि य ठवियगपिंटो य जो भवे दुविहो । सव्वोबि एस रासी विसोहिकोडी मुणेषच्चो ॥३॥" अत्र विधिमाह-'विगिंच जहसत्तिं ' अनया विशोधिकोव्या यत् संस्पृष्टं भक्तं पानं वा तद्यथाशक्ति विगिश्च' परित्यज, इसमत्र भावना-भिक्षामटता पूर्व पात्रे शुदं भक्तं गृहीतं, ततस्तत्रैवानाभोगादिकारण-11 विशतो विशोधिकोटिदोषदुष्टुं गृहीतं, पश्चाच कथमपि ज्ञात-यथेतद्विवक्षितं विशोधिकोटिदोषदुष्टुं मया गृहीतमिति, ततो यदि तेन विनापि|| निर्वहति तर्हि सकलमपि तद्विधिना परिष्ठापयति , अथ न निर्वदति तदा यदेव विशोधिकोटिदोषदुष्टं तदेव तावन्मात्रं सम्यक् परिज्ञाय । परित्यजति, यदि पुनरलक्षितेन सदृशवर्णगन्धादितया पृथक् परिज्ञातुमशक्येन मिश्रितं भवति यदा 'द्रवेण' तक्रादिना तदा सर्वस्यापि तस्य विवेकः, कृते च सर्वात्मना विवेके यद्यपि केचित्सूक्ष्मा अवयवा लगिता भवन्ति तथापि तत्र पात्रेऽकृतकल्पेऽप्यन्यतः परिगृहन
शुद्धो पतिः, स्यक्तभक्तादेविंशोधिकोटित्वादू, विवेकश्चतृो भवति, तयथा-द्रव्यतः क्षेपतः कालतो भावतच, तथा चारका दब्बाइओ विवेगो दब्बे जं दध्वजं जहिं खेत्ते। काले अकालहीणं असढो जं पस्सई भावे ॥ ३९६ ॥
व्याख्या-'द्रव्यादिकः' द्रव्यक्षेत्रकालभावविषयो विवेकः, तत्र यव्यं परित्यजति स द्रव्यविवेकः, तथा परित्याज्यं यत्र क्षेत्रे परित्यज्यते स क्षेत्रविवेकः, क्षेत्रे विवेकः क्षेत्रविवेक इति व्युत्पत्तेः, तथा यद्विशोधिकोटिदोषदुष्टमकालहीन-शीघ्रं परित्यज्यते एष कालतो विवेका, इह यदैव दोषदुष्ट भक्तादिपरिज्ञातं तदैव तत्कालविलम्बाभावेन परित्यक्तव्यं, परित्यागबुदद्या वा पृथगू-भिन्ने स्थाने कर्त्तव्यम-18 न्यथा भावतस्तत्परिग्रहात्संयमहानिप्रसक्तेः, तत उक्तमकालहीनमिति , तथा यत् ' अशटः' अरक्तद्विष्टः सन् दोषदुष्टं पश्यति दृष्ट्वा ।
दीप
अनुक्रम [४२८]
For P
OW
MAnurary.orm
द्रव्य-आदिभि: भक्तादि विवेकं वर्णयते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४२९] » “नियुक्ति: [३९६] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
दिविवेकः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३९६||
दीप
पिण्डनिघु- चाकालहीनं शीघ्रं परित्यजति स 'भावे' भावतो विवेकः । इह निर्वाहे सति विशोधिकोटिदोषसम्मिश्रं सकलमपि परित्यक्तव्यम् , केर्मळयगि-1 अनिर्वाहे तु तापमात्र, तत्र विधिमुपदर्शयितुकामः प्रथमतश्चतुर्भलिकामाहरीयावृत्तिः सुकोल्लसरिसपाए असरिसपाए य एत्थ चउभंगो। तुल्ले तुल्लनिवाए तत्थ दुवे दोन्नतुल्ला उ॥ ३९७ ॥ ॥११८॥
व्याख्या-अत्र शुष्कस्थाऽद्रस्य च 'सदृशे' समानेऽन्यस्मिन् वस्तुनि मध्ये पतिते सति तथा ' असदृशे' असमानेऽन्यस्मिन् । वस्तुनि मध्ये पतिते सति चतुर्भती भवति, सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आर्षत्वात् , चत्वारो भङ्गा भवन्तीत्यर्थः, ते चेमे-शुष्के शुष्कं पतितं,
शुष्के भाम, आर्दै शुष्कम्, आर्दै आमिति, तत्र येन येन पदेन यो यौ महौलब्धौ तौ तौ तथा दर्शयति-तत्यति तत्र 'तल्ये ||समाने सति अन्यस्मिन् वस्तुनि मध्ये तुल्पनिपातेऽधिकरणसदृशस्य वस्तुनः प्रक्षेपे 'दो' प्रथपचतुर्थरूपी भङ्गो लब्धी, सौ च 'सुकोल्ल- कसरिसपाए' इत्यनेन पदेन सूचिती, तथा द्वौ भक्ती द्वितीयतृतीयरूपौ'अतुल्यात्' विसहशाव पक्षिप्यमाणात् लम्धी, ती च 'असरिस-1
पाए या इत्यनेन पदेनोक्तौ । तदेवं चतुर्भङ्गिकामभिधाय सम्मत्यत्रैवोद्धरणविधिमाहII सके सुक्कं पडियं विगिचिउं होइ तं सुहं पढमो । बीयंमि दवं छोढुं गालंति दवं करं दाउं ॥ ३९८ ॥
तइयंमि कर छोडं उल्लिंचइ ओयणाइ जं तरइ । दुल्लहदव्वं चरिमे तत्तियमित्तं विगिचंति ॥ ४९९ ॥
व्याख्या-'शुष्के' वल्लचनकादौ मध्ये यत् ' शुष्कं ' वल्लुचनकादि पतितं तत्सुख-जलपक्षेपादिकष्टमन्तरेण 'विगिंचिउँ होइन परित्यक्तुं भवति, परिस्याज्यं भवतीत्यर्थः, एष प्रथमो भङ्गः, तथा द्वितीये भने 'शुष्के' वल्लचनकादौ मध्ये कथमयाई तीमनादि विशो
अनुक्रम [४२९]
॥११
॥
H
uniorammar
~2474
Page #248
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||३९९||
दीप
अनुक्रम [४३२]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [४३२ ] • → “निर्युक्ति: [ ३९९] + भाष्यं [ ३०...] + प्रक्षेपं [४... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
८०
धिकोटिदोषवत् पतितमित्येवंरूपे 'द्रवं काञ्जिकादि तत्र मध्ये प्रभूतं प्रक्षिप्य पञ्चात्पात्रमवनभ्य पात्रकर्णैकदेशे च शुद्धभक्तपानरक्षणार्थ करं च दत्वा सर्व द्रवं गाळ्यन्ति । तथा तृतीये शुद्धे आर्द्रे तीमनादौ मध्यपतितं शुष्कं कुरवल्लचनकादिरूपमोदनमित्येवंरूपे तत्र तीमनादौ मध्ये 'करं ' हस्तं प्रक्षिप्योदनादि यथावन्मात्रं शक्नोति तावन्मात्रमशठः सन् 'उल्लिंचति' आकर्षति, ततः शेषं तीमनादि कल्पते, तथा * 'चरमे ' आर्द्रे आर्द्र पतितमित्येवंरूपे यदि तद्द्रव्यं 'दुर्लभम् ' अन्यत्र न प्राप्यते तत्रोदेशतस्तावन्मात्रं परित्यजन्ति, शेषं कल्पते, एषा चतुर्भङ्गिका साधूनामसंस्तरणे वेदितव्या, संस्तरणे च सकलमपि परित्यजन्ति । तथा चाह
संघरे सव्वमुज्झति, चउभंगो असंथरे । असढो सुज्झई जेसुं, मायावी जेसु बज्झई ॥ ४०० ॥
व्याख्या – 'संस्तरे' निर्वाहे सति सर्वमपि पात्रस्थितं विशोधिकोटिसंसृष्टमुज्झन्ति, 'असंस्तरे ' अनिर्वाहे पुनः 'चतुर्भङ्गी ' चत्वारोऽनन्तरोक्ता भङ्गाः, सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आर्षत्वात् कथंभूतास्ते भङ्गाः ? इत्याह-येषु भङ्गेषु 'अशठः ' अरक्तद्विष्टः सन् ॐ वर्त्तमानः शुध्यति - शुद्धिमापद्यते, मायावी च येषु बध्यते । तदेवं विशोध्यविशोधिरूपं कोटिद्वयं सप्रपञ्चमुक्तम्, इदानीं तदेवोपसंहार* व्याजेन सङ्क्षेपत आह-
कोडीकरणं विहं उग्गमकोडी विसोहिकोडी य । उग्गमकोडी छक्कं बिसोहिकोडी अणेगविहा ॥ ४०१ ॥
व्याख्या — कोटीकरणं 'द्विविधं द्विमकारं, द्विधा कोटिरित्यर्थः, तद्यथा— उद्गमकोटिर्विशोधिकोटिश, तत्रोद्रमकोटिः 'षट्कम् | आधाकर्मिकौदेशिकान्त्यभेदत्रिकादिपद्भेदाः, विशोधिकोटिः पुनरनेकविधा - ओघौदेशिकादिरूपा । सम्प्रत्यन्यथा कोटीः प्रतिपादयति
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४३५] » “नियुक्ति: [४०२] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियं-18
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४०२||
दीप
नव चेव अढारसगं सत्तावीसा तहेव चउ पन्ना । नउइ दो चेव सया उ सत्तरी होइ कोडीणं ॥ ४०२॥ तर्मकयगि
व्याख्या-प्रथमतः कोटयो नव भवन्ति, तद्यथा-स्वयं हननमन्येन घातनमपरेण हन्यमानस्यानुमोदनं, तथा स्वयं पचनमन्येन यादयो रीयादृत्तिः
पाचनमपरेण पच्यमानस्यानुमोदनं, तथा स्वयं क्रयणमन्येन क्रायणमपरेण क्रीयमाणस्यानुमोदनम् , इहाद्याः षडविशोधिकोटयोऽन्तिमास्तु
तिस्रो विशोधिकोटयः, एता अपि नवकोटीः कोऽपि रागेण सेवते कोऽपि द्वेषेण, ततो द्विकेन गुणिता अष्टादश भवन्ति, अथवैवं ताः॥११९|
कोऽपि मिथ्याष्टिः कुशाखसम्पर्कसमुत्थवासनावशतो निःशहू. सेवते, कोऽपि सम्पदृष्टिः सन् विरतोऽप्यनाभोगादिकारणतोऽपरिज्ञानतः, कोऽपि पुनः सम्यग्दृष्टिरपि सन्नविरतत्वेन गार्हस्थ्यमवलम्बमानः, ततो मिथ्यात्वाज्ञानाविरतिरूपेण त्रिकेण नव गुणिताः सप्तविंशतिर्भ-81
वति, रागद्वेषौ त्वत्र पृथग्न विवक्ष्येते, यदा तु पृथम् विवक्ष्येते तदा ताभ्यां सप्तविंशतिर्गणिता चतुष्पश्चाशद्भवति, तथा ता एव नव कोटयः दाकदाचित पुष्टमालम्बनमधिकृत्य दशविधक्षान्त्यादिधर्मपरिपालनार्थ सेव्यन्ते. यथा दर्भिक्षे कान्तारे चान्येन फलादिनाऽभ्यवहुतेनाई देह
धृत्वा शान्ति मार्दवमार्जवं यावद्दाम पालयिष्यामीति हन्ति, एवमन्येन घातनायपि भावनीय, ततो नव दशभिर्गुणिता जाता नवतिः, काइयं च सामान्यतश्चारित्रनिमित्ता, काचित् पुनश्चारित्रनिमित्ता विशिष्टज्ञानलाभसम्भवनिमित्ता च, यथाऽस्मिन् कान्तारादावनेन फलादि
नाऽभ्यवहतेन देवमह धृत्वा क्षान्त्यादिकं पालयिष्यामि प्रभूतानि च शाखाण्यध्येष्ये इति हन्तीत्यादि, एषा च ज्ञानस्य प्राधान्यविवक्षणात ज्ञाननिमित्ता भण्यते, काचित्पुनश्चारित्रनिमित्ता दर्शनस्थिरीकरणहेतुशास्त्रार्यपरिज्ञाननिमित्ता च, यथाऽस्मिन् कान्तारादावनेन फलादि-MAILan नाऽभ्यवहतेन देहं परिपाल्य क्षान्त्यादिकं पालयिष्यामि दर्शनं च निर्मलं विधास्ये इति हन्तीत्यादि, एषा च दर्शनस्य प्राधान्यविवक्षणादर्शननिमिचाऽभिधीयते, तत एवं त्रिप्रकारा नवतिरिति त्रिभिर्नवनिर्गुण्यते, ततो वे शते सप्तत्यधिक कोटीनां भवतः , उक्तं च-" रागोई
00000000000000000000
अनुक्रम [४३५]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४३५] » “नियुक्ति: [४०२] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४०२||
मिच्छोई रागाई समणधर्म नाणोई । नवे नवे सत्तावीसी नर्वे नईएँ उ गुणकारा ॥१॥" या तु दर्शनस्थिरीकरणार्थ प्रभूतषशाखावगाहनार्थ चारित्रार्थ च सेव्यते सा सामान्यतश्चारित्रनिमित्तायामन्तभोच्यते, ततो न सूत्रोक्तभेदसंख्यानियमव्याघातः । सम्पत्युद्मदारदोषाणां वक्ष्यमाणोत्पादनाद्वारदोषाणां च यतः सम्भवस्तांस्तदुत्थितान् वैविक्त्येनाह
सोलस उग्गमदोसे गिहिणो उ समुढ़िए वियाणाहि । उप्पायणाएँ दोसे साहूउ समुढिए जाण ॥ ४०३ ॥ ___ व्याख्या-एताननन्तरोक्तान् षोडशसङ्खचानुद्गमदोषान् गृहिणः सकाशादुस्थितान् विजानीहि, तथाहि-आधाकर्मादिदोषदुष्ट । भक्तादि गृहस्थैरेव क्रियते, ये तूत्पादनाया दोषा वक्ष्यमाणास्तान् 'साधुतः' साधोः सकाशादुत्थितान् जानीहि, धात्रीत्वादीनां साधु-1 भिरेव क्रियमाणत्वात् । तदेवमुक्तमुद्रमदारं, सम्मत्युत्पादनाद्वारं वक्तव्यं, तत्र प्रथमत उत्पादनामाह
णाम ठवणादविए भावे उप्पायणा मुणेयव्वा । दध्वंमि होइ तिविहा भावंमि उ सोलसपया उ ॥ ४०४ ॥
व्याख्या-उत्पादना चतुर्दा, तद्यया-'णाम 'ति नामोत्पादना स्थापनोत्पादना 'द्रव्ये ' द्रव्यस्योत्पादना 'भावे' भावस्योत्पादना च, तत्र नामस्थापने द्रव्यस्योत्पादना च यावनोआगमतो भव्यशरीरदन्योत्पादना पागुक्तगवेषणादिवि भावनीया, शरीरभष्पशरीरव्यतिरिक्ता तु द्रव्योत्पादना त्रिधा-सचित्तद्रव्योत्पादनाऽचित्तद्रव्योत्पादना मिश्रद्रव्योत्पादना च । भावोत्पादना द्विधा, तयधा-आगमतो नोआगमतच, तत्रागमत उत्पादनाशब्दाशस्तत्र चोपयुक्तः, नोआगमतो भावोत्पादना तु द्विधा, तद्यथा-प्रशस्ताऽप्रशस्ता च, तत्र प्रशस्ता जानाधुत्पादना, अपशस्ता 'षोडशपदा' वक्ष्यमाणधात्रीदूत्यादिषोडशभेदा । तत्र प्रथमतः सचिचद्रव्योत्पादनां विभावयिषुराह
दीप
अनुक्रम [४३५]
RELIGunintentATASHREE
अथ 'उत्पादना" दोष-विषयक वर्णनं आरभ्यते
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आगम
(४१/२)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||४०५||
दीप
अनुक्रम [४३८]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) • → “निर्युक्ति: [ ४०५ ] + भाष्यं [ ३०...] + प्रक्षेपं [४...
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मूलं [४३८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
आसूयमाइएहिं वालचियतुरंगबीयमाईहिं । सुयआसदुमाईणं उप्पायणया उ सच्चित्ता ॥ ४०५ ॥
पिण्डनिर्युकेर्मलयगि व्याख्या - सुताश्वमादीनां द्विपदचतुष्पदापदरूपाणाम्, अत्रादिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, सुतादीनामश्वादीनां द्रुमादीनां च रौयावृत्तिः * यथासङ्ख्चमासृयादिभिः, 'आसूयम् ' औपयाचितकम्, आदिशब्दाद्भाटक जलादिपरिग्रहः । तथा 'बालचिततुरङ्गवीजादिभिश्व' तत्र वाले:* केशरोमादिभेदभिन्नैश्रितो - व्याप्तो बालचितः - पुरुषो 'लोमशः पुरुष' इति वचनात्, तुरङ्गबीजे च सुप्रसिद्धे आदिशब्दादन्य हेतुपरिग्रहः, या उत्पादना, तथाहि-- केनचिभिजभार्यायाः कथमपि पुत्रासम्भवे देवताया औपयाचितकेन ऋतुकाळे स्वसंप्रयोगेण च सुतः पुत्रिका वोत्पाद्यते, तथा निजघोटिकायाः परस्य भाटकमदानेन परघोटकमारोप्य तुरङ्ग उत्पाद्यते, एवं यथायोगं बलीवर्दादिरपि तथा जलसेकेन बीजारोपणेन द्रुमवहयादिः, तत इत्थं सुतादीनामुत्पादना सा सचित्तद्रव्योत्पादना । सम्प्रत्यचित्तद्रव्योत्पादनां मिश्रद्रव्योत्पादनां च प्रतिपादयति
॥१२०॥
कणगरययाइयाणं जहधाउविहिया उ अच्चित्ता । मीसा उ सभंडाणं दुपयाइकया उ उप्पत्ती ॥ ४०६ ॥
व्याख्या--' कनकरजतादीनां ' सुवर्णरूप्यताम्रादीनां 'यथेष्टधातुविहिता यथेष्टो यो यस्यैष्टोऽनुकूलो धातुस्तस्माद्विहिता - कृता उत्पत्तिः सा 'अचित्ता' अचित्तद्रव्योत्पादना, तथा या 'द्विपदादीनां ' दासादीनां 'सभाण्डानां सालङ्कारादीनां वेतनप्रदानेन या कृता आत्मीयत्वेनोत्पत्तिः सा 'मिश्रा' मिश्रद्रव्योत्पादना । तदेवमुक्ता द्रव्योत्पादना, सम्पति भावोत्पादनामाह
भावे पत्थ इयरो कोहाउपायणा उ अपसत्था । कोहाइजुया धायाइणं च नाणाइ उपसत्था ॥ ४०७ ॥
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उत्पाद
नाया निक्षेपाः
॥१२०॥
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आगम
(४१/२)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||४०७||
दीप
अनुक्रम [ ४४० ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [४४०] ● → “निर्युक्तिः [४०७] + भाष्यं [ ३०...] + प्रक्षेपं [४... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
८०
व्याख्या- 'भावे' भावविषया उत्पादना द्विधा तद्यथा प्रशस्ता 'इतरा' अपशस्ता, तत्र या क्रोधादीनां क्रोबादियुता धात्रीत्वादीनां बोत्पादना साऽप्रशस्ता । या तु 'ज्ञानादे: ' ज्ञानदर्शनचारित्राणामुत्पादना सा प्रशस्ता । इह चापशस्तया भावोत्पादनयाऽधिकारः, पिण्डदोषाणां वक्तुमुपक्रान्तत्वात् । सा च षोडशभेदा, ततस्तानेव षोडश भेदान् गाथाद्वयेनाह
धाई दूइ निमित्ते आजीव वणीमगे तिमिच्छा य । कोहे माणे माया लोभे य हवंति दस एए ॥ ४०८ ॥ पुवि पच्छा संथव विज्जा मंते य चुन्न जोगे य । उप्पायणाइ दोसा सोलसमे मूलकम्मे य ॥ ४०९ ॥ व्याख्या – ' धात्री' बालकपरिपालिका, इह धात्रीत्वस्य यत्करणं कारणं वा तद्धात्रीशब्देनोक्तं द्रव्यं तथा विवक्षणात् एवं इत्यपि भावनीया, नवरं 'दूती' परसन्दिष्टार्थकथिका 'निमित्तम्' अतीताद्यर्थपरिज्ञानहेतुः शुभाशुभचेष्टादि, तथा चासुमेव निमित्तशब्दवाच्यमर्यमङ्गीकृत्य पूर्वसूरयो निमित्तशब्दस्य नैरुक्ति-शब्दव्युत्पत्तिमेवमाचक्षते निपतमिन्द्रियेभ्यः इन्द्रियार्थेभ्य: समाधानं चात्मनः समाश्रित्य यस्मादुत्पद्यते शुभाशुभातीताद्यर्थपरिज्ञानं तस्माचदिन्द्रियार्यादि निमित्तमिति, उक्तं चाङ्गविद्यायाम् - "इंदिए हिंदियत्थेदि, समादाणं च अपणो । नाणं पवचर जम्दा, निमित्तं तेण आहियं ॥ १ ॥ तचाङ्गादिभेदादष्ट्वा तदुक्तम्-अंग सैरो लक्खणं (च), वजेणं सुविणो तहा। छिन्नं भीमंत लिक्ख य, एमेए (एए) अट्ठ वियाहिया ॥ १ ॥ एए महानिमित्ता उ, अट्ठ संपरिकित्तिया । एएहि भाषा नज्जती,
१ अङ्ग - शरीरावयवप्रमाणस्यन्दनादिविकारफलोद्वावकं निमित्तशास्त्रं, २ स्वरः- जीवाजीवाश्रितस्वरस्वरूपफलाभिधायकं, ३ लक्षणं-उञ्छॐ नाद्यनेकविलक्षणत्र्युत्पादकं, ४ व्यजनं-मषादिव्यजनफलोपदर्शकं ५ स्वप्नं स्वप्र कलाविभावक, ६ छेदनं छिन्नं वस्त्रादीनां तद्विषयं शुभाशुभनिरूपकं शास्त्रं यथा 'देवेसु उत्तमो लाभो' इत्यादि ७ भौमं भूमिविकारफलाभिधानप्रधानं निमिवशात्रं ८ अन्तरिक्षम् आकाशप्रभवमहयुद्ध भेदादिभावफलनिवेदकं, कचिच्छिन्नस्थाने उत्पातं वदन्ति तत्रोत्पातं सहजरुधिरवृष्ट्यादिलक्षणोत्पातनिरूपकं निमित्तशास्त्रं,
Education Intentiona
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४४२] » “नियुक्ति: [४०९] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४०९||
पिण्डनियु- तीतानागयसंपया ॥२॥" निमिचहेतुकं च यद् ज्ञानं तदप्युपचारानिमित्तं तदेवेहाधिकृतं, तथा चाङ्गादिनिमित्तहेतुकं ज्ञानमेव मयु- उत्पादनाकेर्मलपगि-18 जानो यतिदोषवानग्रे वक्ष्यते, 'आजीव: आजीविका 'वनीपक: ' भिक्षाचरस्तस्येव यत्समाचरणं तदपि बनीपका, शब्दव्युत्पत्ति च दोषेषु धारीयाचिः स्वयमेवाग्रे वक्ष्यति, 'चिकित्सा रोगमतिकारः, क्रोधमानमायालोभाः प्रतीताः, 'पूर्वसंस्तवः' मात्रादिकल्पनया परिचयकरणं, 'पश्चा- त्रीदोषः
संस्तवः' ववादिकल्पनया परिचयकरणं, 'विद्या' खीरूपदेवताधिष्ठिता ससाधना वाऽक्षरविशेषपद्धतिः, सैव पुरुषदेवताधिष्ठिता ॥१२१॥
असाधना वा मन्त्रः, 'चूर्णः, सौभाग्यादिजनको द्रव्यशोदा, 'योगः' आकाशगमनादिफलो द्रव्यसनतः, एतेऽनन्तरोक्ता उत्पादनाया | दोषाः, पोडशो दोपो 'मूलकर्म' वशीकरणम् । इद धात्र्या पिण्ड:-धात्रीपिण्डा, किमुक्तं भवति ?-धात्रीवस्य करणेन कारणेन च या उत्पाद्यते पिण्डः स धात्रीपिण्डः, यस्तु दतीत्वस्य करणेनोत्पाद्यते स दूतीपिण्डः, एवं निमित्तादिष्वपि भावनीयं । तत्र प्रथमतो धात्रीपिण्डं व्याचिख्यासुर्धात्रीभेदानाह
खीरे य मजणे मंडणे य कीलावणंकधाई य । एकेकावि य दुविहा करणे काराबणे चेव ॥ ४१० ॥
व्याख्या-क्षीरे' क्षीरविषये एका धात्री या स्तन्यं पाययति, द्वितीया मज्जनविषया, तृतीया मण्डनविषया, चतुर्थी क्रीडनधात्री, पञ्चम्पान्धात्री । एकैकाऽपि च द्विधा, तपथा-स्वयं करणे कारणे च, तथाहि-या स्वयं स्तन्यं पाययति बालकं सा स्वयंकरणे||
।१२॥ क्षीरधात्री, या त्वन्यया पाययति सा कारणे, एवं मज्जनादिधात्र्योऽपि भावनीयाः । सम्पति धात्रीशब्दस्य व्युत्पत्तिमाह
धारेइ धीयए वा धयंति वा तमिति तेण धाई उ । जहविहवं आसि पुरा खीराई पंच धाईओ ॥ ४११ ॥
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अनुक्रम [४४२]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४४४] » “नियुक्ति: [४११] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४११||
व्याख्या-धारयति बालकमिति धात्री, यद्वा धीयते भाटकमदानेन 'ध्रि(धी)यते । पोष्यते इति धात्री, अथवा 'धयन्ति' पिवन्ति बालकास्तामिति धात्री, 'धात्रीति निपातनसूत्राद्रूपनिष्पत्तिः, ताश्च धान्यः 'पुरा' पूर्वस्मिन् काले 'यथाविभव' विभवानुसारेण क्षीरा-1 दिविषया बालकयोग्याः पश्च आसन् , सम्पति तथारूपविभवाभावेन ता न दृश्यन्ते । तत्र यथा स्तन्यदापनधात्रीत्वं साधुः करोति || तथा दर्शयतिखीराहारो रोबइ मज्झ कयासाय देहि णं पिज्जे । पच्छा व मज्झ दाही अलं व भुज्जो व एहामि ॥ ४१२॥
व्याख्या-पूर्वपरिचिते गृहे साधुभिक्षार्थ प्रविष्टः सन् रुदन्तं बालकं दृष्ट्वा तज्जननीमेवमाह-एष बालोऽद्यापि क्षीराहारस्ततः क्षीरमन्तरेणावसीदन् 'रोदिति' आरटति, तस्मान्मह्यं कृताशाय-विहितभिक्षालाभमनोरथाय झटित्येव भिक्षा देहि, पश्चात् 'णम्' एन । हा बालकं 'पेज्जे पायय स्तन्यं, यद्वा प्रथमत एनं स्तन्यं पायय पश्चान्महा भिक्षा देहि, यदिवाऽलं मे सम्पति भिक्षया पायय स्तन्य बालकमहं पुनर्भूयोऽपि भिक्षार्थमेष्यामि । तद्यथा
मइमं अरोगि दीहाउओ य होइ अविमाणिओ बालो । दुल्लभयं खु सुयमुहं पिज्जाहि अहं व से देमि ॥ ४१३॥ ___व्याख्या-'अविमानित: ' अनपमानितो बालो मतिमानरोगी दीर्घायुश्च भवति, विमानितः पुनविपरीतः । तथा दुर्लभं खलु लोके 'मृतमुर्ख' पुत्रमुखदर्शनं, तस्मात्सर्वाण्यप्यन्यानि कर्माणि मुक्त्वा त्वमेनं बालकं स्तन्यं पायय, यदि वं न पाययसि ताई वा ददाम्पस्मै क्षीरं बालकाय, अन्यया वा स्तन्यं पाययामि । अत्र 'अई वा से देमि' इत्यनेन स्वयंकरण(णेन)धात्रीत्वं साधोर्दर्शितं, शेषपादः कारणेन । अत्र दोषमाह
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४४७] » “नियुक्ति: [४१४] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४१४||
पिण्डनियु
अहिगरण भद्दपंता कम्मुदय गिलाणए य उड्डाहो । चडुकारी य अवन्नो नियगो अन्नं च णं संके ॥ ४१४ ॥ ॥: उत्पादनातेर्मळयगि
दोषेषु धारीयात्तिः । व्याख्या-यदि बालकजननी भंद्रा-धर्माभिमुखी भवति तर्हि प्राक्तनैः साधुवचनैरावजिता सती अधिकरणम्-आधाकर्मादि |
श्रीदोषः करोति, अथ पान्ता-धर्मानभिमुखी वहि प्रद्वेषं यातीति शेषः, तथा यदि स्वकर्मोदयात्कथमपि स बालो ग्लानो भवति तदि ' उड्डाः। ॥१२॥ प्रवचनमालिन्यं, यथा साधुना तदानीमालपितः क्षीरं वा पायितोऽन्यत्र वा नीत्वा कस्या अपि स्तन्यं पायितस्तेन ग्लानो जाता, तथा
ऽतीव चाटुकारीति लोके 'अवर्णः' अश्लाघा, तथा 'निजकः' भा 'अन्यद्वा मैथुनादिकं 'णम्' इति वाक्यालङ्कमरे तथारूपसा| धुवचनश्रवणतः 'शङ्कते' सम्भावयति । अथवा प्रकारान्तरेण धात्रीकरणे यो दोषस्तं दर्शयति
अयमवरो उ विकप्पो भिक्खायरि सहि अदिई पुच्छा । दुक्खसहाय विभासा हियं मे धाइत्तणं अज्ज ॥ ४१५ ।। वयगंडथल्लतणुयत्तणेहिं तं पुच्छिउँ अयाणतो । तत्थ गओ तस्समक्खं भणाइ तं पासिउं बालं ॥ ४१६ ॥
व्याख्या-अयमपरो विकल्पो धात्रीकरणे, तमेवाह-भिक्षाचर्याप्रविष्टेन साधुना काचित आद्धिका 'अधृतिः 'धृतिरहिता दृष्टा ततः पृष्टा यथा-किमद्य त्वं सशोका दृश्यसे?, तत एवमुक्ता सती सा माइ-यो दुःखसहायो भवति तस्मै दुःखं निवेयते, दुःखसहायश्च स उच्यते यो दुःखमतीकारसमर्थः, ततः साधुराह-अदं दुःखसहायस्तस्मान्निवेद्यतां मे दुःख, ततः सा पाह-अब मे-प्रम धात्रीत्वममुकष्मि- ॥१२२|| नीश्वरगृहे 'हतं स्फेटितं ततोऽहं विषण्णा, ततः साधुराह-मा त्वं विषादं काषी: अहमवश्यं स्वांतत्राचिरेण धात्री स्थापयामीति प्रतिज्ञा विधाय तस्याः पाश्ऽभिनवस्थापिताया धाच्या वयःप्रभृतिकमजानानः पृच्छति, यथा किं तस्या वयः-तारुण्यं परिणतं चा?, गण्डावपि
दीप
अनुक्रम [४४७]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४४९] » “नियुक्ति: [४१६] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४१६||
दीप
स्तनापरपर्यायौ कि कूपराकारचीघों यद्वाऽतिशयेन स्थूलो ?, शरीरेऽपि तस्याः किं स्थूलत्वं किं वा कशख, तत एवं पृष्ट्वा तत्रेश्वरगृहे। |||गतः सन् 'सत्समक्ष ' गृहस्वाम्यादिसमक्षं तं बालकं दृष्ट्वा भणति । किं तद्भणति ? इत्पत आह
अणुडियं व अणविक्खियं व इणमं कुलं तु मन्नामि । पुन्नेहिं जहिताए(जदिच्छाए) तरई बालेण सएमो॥१७॥
व्याख्या-अहमिदं मन्ये-'इदं युष्मदीयं कुलमधुनोस्थित-सम्मत्येवेश्वरीभूतं, यदि पुनः परम्परागतलक्ष्मीकमिदमभविष्यत तहि कथं न परम्परया धात्रीलक्षणे कुशलमपि अभविष्यत् ? इति भावः, यद्वा 'अनवेक्षितम् ' अपरिभावितं महत्तरपुरुषः, तत एव, या हवासा वा धात्री प्रियते, एतब बालेनासङ्गतधात्रीस्तनपानविच्छायेन 'सूचयामः' लक्षयामः, तत एवंभूतधात्रीयुक्तमपीदं कुल 'तरति'
क्षेमेण वर्तते तत् मन्ये पुण्यैः प्राक्तनजन्मकृतैः यदिवा यदृच्छया-एवमेव ।। तत एवमुक्ते सति ससम्भ्रम बालकस्य जननी जनको वा
साधु मत्याह-भगवन् ! के धाच्या दोषाः ?, ततः साधुर्धात्रीदोषान् कथयति: थेरी दुबलखीरा चिमिढो पेल्लियमहो अइथणीए । तणुई उ मंदखीरा कुप्परथणियाएँ सूइमुहो ॥ ४१८॥
व्याख्या-या किल धात्री स्थचिरा सा ' अवलक्षीरा' अबलस्तन्या इति, ततो पालो न बलं गृह्णाति, या त्वतिस्तनी तस्याः स्तन्यं पिवन स्तनेन ' प्रेरितमुखः' चम्पितमुखावयबोष्टनासिकश्चिपिटनासिको भवति, या तु शरीरेण कशा सा ' मन्दक्षीरा ' अल्प-||
क्षीरा, ततः परिपूर्ण तस्याः स्तन्यं वालो न पामोति, वदभावाच्च सीदति , तथा या कूपरस्तनी तस्याः स्तन्यं पिबन् बालः सूचीमखो का भवति, स हि मुखं दीर्घतया प्रसार्य तस्याः स्तन्यं पिबति, ततस्तथारूपाभ्यासतस्तस्य मुखं सूच्याकारं भवति, उक्तं च-"निस्थामा स्थ
अनुक्रम [४४९]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४५१] » “नियुक्ति: [४१८] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४१८||
पिण्डनियु-विरा धात्री, सूच्यास्यः कूपरस्तनीम् । चिपिटः स्थूलवक्षोजा, धयंस्तन्वी कृशो भवेत् ॥ १॥ जाड्यं भवति स्थूरायास्तनुक्यास्त्ववलं- उत्पादनातमेलपगि-1 करम् । तस्मान्मध्यवकस्थायाः, स्तन्यं पुष्टिकरं स्मृतम् ॥ २॥ अतिस्तनी तु चिपिट, खरपीना तु दन्तुरम् । मध्यस्तनी महाच्छिद्रा, पात्री दोषेषु धारायाष्टाचन सौम्यमुखडूरी ॥३॥" इत्यादि । एषा चाभिनयस्थापिता धात्री उक्तदोषदृष्टा तस्मान युक्ता, किन्तु चिरंतन्येवेति भावः । तथा- त्रीदोषः ॥१२॥ जा जेण होइ बनेण उकडा गरहए य तं तेणं । गरहइ समाण तिव्वं पसत्यमियरं च दुव्वन्नं ॥ ४१९॥
व्याख्या-या अभिनवस्थापिता धात्री येन 'वर्णेन ' कृष्णादिनोत्कटा भवति तां तेन वर्णेन 'गईते । निन्दति, यथाका कृष्णा भ्रंशयते वर्ण, गौरी तु बलवर्जिता । तस्मारछपामा भवेद्धात्री, बलवणः प्रशंसिता ॥१॥” इत्यादि । तथा यामभिनवस्था-18 पिता गहते तस्याः 'समाना समानवर्णा चेचिरन्तनी स्थाप्यमाना भवति तर्हि ता 'तीवम् ' अतिशयेन 'प्रशस्तां' प्रशस्तवर्णी श्लाघते, इतर त्वभिनवस्थापितां दुणोंम् । एवं चोक्ते सति गृहस्वामी साध्वभिप्रेतां धात्री धारयति इतरां तु परित्यजति, तथा च सति|| यो दोषस्तमाहउव्वट्टिया पओसं छोभग उब्भामओ य से जं तु । होज्जा मज्झवि विग्यो विसाइ इयरीवि एमेव ॥ ४२० ॥
व्याख्या-या अभिनवस्थापिता धात्री उर्त्तिता-धात्रीत्वात् च्याविता सा साधोपरि मद्वेष कुर्यात, तथा सति छोभगं दद्याद्- ॥१२॥ यथा-अयम् 'उद्धामक' जारोऽनया धाच्या सह तिष्ठतीति, तथा 'से' तस्य साधोत्पद्वेषवशात्कर्तव्यं वधादि यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात्तदपि कुर्यात, याऽपि चिरन्तनी सम्पति स्थापिता साऽपि कदाचिदेवं चिन्तयति-पर्यंतस्या धात्रीत्वात् च्यावनं कृतम् , एवमेव कदा
दीप
अनुक्रम [४५१]
national
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||४२०||
दीप
अनुक्रम [ ४५३ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ४५३ ] • → “निर्युक्तिः [४२०] + भाष्यं [ ३०...] + प्रक्षेपं [४... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
८०
Education
चिदुष्टमनसा ममापि 'विनो' धात्रीस्वात् च्यावनरूपोऽन्तरायः करिष्यते, तत एवं विचिन्त्य मारणाय 'विषादि ' गरमवृत्तिं प्रयुञ्जीत । उक्ता क्षीरधात्री, साम्प्रतं शेषधात्रीराश्रित्य दोषानतिदेशेनाह-'
.
एमेव सेसियासुवि सुयमाइसु करणकारणं सगिहे । इड्डीसुं घाईसु य तहेव उट्टिया गमो ॥ ४२१ ॥
व्याख्या – अत्र पष्ठयर्थे सप्तमी, ततोऽयमर्थः -- एवमेव यथा क्षीरघापास्तथा 'शेषिकास्वपि शेषाणामपि मृज्जनादियात्रीणां 'सुतमातृषु' सुतमातृकल्पानां यत् स्वयं करणं मज्जनादेर्यथान्यया कारणं तत् ' स्वगृहे ' बालकमातृगृहे गतः सन् साधुर्यथा करोति तथा वाच्यं तथा च सतिं ' अहिगरण भद्द पंता' इत्यादिगायोक्ता दोषा वक्तव्याः, तथा तथैव-क्षीरधात्री गतेनैव प्रकारेण 'ऋद्धिषु ऋद्धिमत्सु ईश्वरगृहेषु अभिनवस्थापितानां मज्जनादिधात्रीणां 'धाईसु यत्ति भावप्रधानोऽयं निर्देशः पञ्चम्यर्थे च सप्तमी, ततोऽय* मर्थः धात्रीत्वेभ्य उद्वर्त्तितानांच्यावितानां (गमो ) योगः 'उब्बहिया पञसं' इत्यादिरूपः स सकलोऽपि तथैव वक्तव्यः । अतिसहित* मिदमुक्तम्, अतो विशेषत एतद्विभावयिष्णुः प्रथमतो मज्जनधात्रीत्वस्य करणं कारणं च तथाऽभिनवधाच्या दोषप्रकटनं च यथा साधुः * कुरुते तथा भावयति
लोलइ महीऍ धूलीऍ गुंडिओ व्हाणि अहव णं मज्जे । जलभीरु अबलनयणो अइउप्पिलणे अ रचच्छो ॥ १२२ ॥
व्याख्या- एष वालो मह्यां ‘छोलयति' लोटते ततो धूल्यां गुण्डितो वर्त्तते तस्मात्लापय, एतत् मज्जनधात्रीत्वस्य कारणम्, अथवा यदि पुनस्त्वं न पारयसि तहिं ' मज्जामि स्नपयामि, एतत्स्वयं मज्जनधात्रीत्वस्य करणम्, अथवाऽन्यथा मज्जनधात्रीत्वस्य
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४५५] » “नियुक्ति: [४२२] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
तर्मळयगि
उत्पादनादोषेषु धात्रीदोपः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४२२||
दीप
पिण्डनियु- कारण, क्यापीश्वरयदे काऽपि मज्जनधात्री धात्रीत्वात् स्फेटिता, साधुश्च तस्या गृहं भिक्षार्थ प्रविष्ट, तां च धात्रीत्वात्परिभ्रंशेन विषण्णां
दृष्ट्वा पूर्वप्रकारेण च पृष्ट्वा कृत्वा च प्रतिज्ञामीश्वरगृहे च. गत्वाऽभिनवमजनधात्रीदोपप्रकटनायाइ-जलभीरु' इत्यादि, अतिशये रीयावृत्तिःनोत्प्लावने प्रभूतजलप्लावनेन गुप्यमानो बालो गुरुरपि जातो नयादी जलप्रवेशे जलभीरुर्भवति, तथा निरन्तरजलेनोल्लाव्यमानः 'अब-
लनयना' अवलदृष्टिर्जायते रक्ताक्षश्च, यदि पुनः सर्वथाऽपि न मज्ज्यते न शरीरं चलमादत्ते नापि कान्तिभाग दृष्टया चावलो जायते, एषा ॥१२॥
च धात्री बालमतिजलोत्प्लावनेन मज्जयति ततो जलभीरतादयो दोषा बालस्य भविष्यन्ति, तस्मान्नैषा मजनधात्री युक्ता, एवमुक्ते सति तामभिनवस्थापितां मजनधात्री गृहस्वामी स्फेटयति, चिरन्तनीमेव कुरुते, तथा च सति त एवं प्राक्तना 'उबटिया पोसा इत्यादिरूपा दोषा वाच्याः, एवमुत्तरत्रापि प्रतिगार्थ भावना भावनीया । अथ मजनधात्री कथंभूतं वालं कृत्वा मण्डनधान्याः समपियति , तत आह। अन्भंगिय संवाहिय उव्वट्टिय मज्जियं च तो बालं । उवणेइ मज्जधाई मंडणधाईऍ सुइदेहं ॥ ४२३ ॥
व्याख्या-नानधात्री प्रथमतः स्नेहेनाभ्यङ्गितं ततो इस्ताभ्यां सम्बाधितं तदनन्तरं पिष्टिकादिनोद्वलितं ततो मजित-गुचीभूतदेई बालं कृत्वा मण्डनधान्याः समर्पयति ॥ उक्ता मज्जनधात्री, सम्पति मण्डनधात्रीत्वस्य कारणं करणं च तथाऽभिनवस्थापिताया धात्र्या दोषणकटनं च यथा साधुः कुरुते तथा दर्शयतिउसुआइएहि मंडेहि ताव णं अहव णं विभूसेमि । हत्थिचगा व पाए कया गलिच्चा व पाए वा ॥ ४२ ॥ . व्याख्या-'इघुकः' इछुकाकारमाभरणम् अन्ये तिलकमित्याहुः, आदिशब्दात् क्षुरिकाकारायाभरणपरिग्रहा, इह भिक्षार्थ प्रविष्टः
अनुक्रम [४५५]
॥११४॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४५७] » “नियुक्ति: [४२४] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४२४||
सन् श्राद्धिकाचित्तावर्जनार्थ बालकमनाभरणमवलोक्य तज्जननीमेवमाह-इपुकादिभिः आभरणविशेषैस्तावदेनं वालक मण्डय विभषय, || एतत् मण्डनधात्रीत्वस्य कारणम् । अथवा यदि पुनस्त्वं न प्रपारयास तोई विभूपयामि, एतत् स्वयं मण्डनधात्रीत्वस्य करणं । पूर्वधात्रीस्थानीयाभिनवस्थापिताया मण्डनधाच्या दोषानाह-'इत्थिचगा' इस्तयोग्यान्याभरणानि पादे कृतानि, अथवा 'गलिचा 'गलसत्कानि| आभरणानि पादे कृतानि तस्मात्रेयं मण्डनधात्री मण्डनेऽभिज्ञा, ततस्तस्या मण्डनधात्रीत्वाश्पावनमित्यादि पूर्वपदावनीयम् । उक्ता मण्डनधात्री, सम्मत्यभिनवस्थापितायाः क्रीडनधाच्या दोषप्रकटनं क्रीडनधात्रीत्वस्य करणं कारणं च यथा विदधाति साधुस्तथाऽऽह
ढङ्करसर छुन्नमुहो मउयगिरो मउयमम्मणुल्लावो । उल्लावणगाईहि व करेइ कारेइ वा किहुं ॥ ४२५ ॥
व्याख्या-एषाऽभिनवस्थापिता क्रीडनधात्री ढडरस्वरा, ततस्तस्याः स्वरमाकर्णयन् वालो 'छुन्नमुखः ' क्लीवमुखो भवति, अथवा मृदुगीरेपा ततोऽनया रम्यमाणो बालो मृदुगीभवति, यदिवा 'मृदुमन्मनोल्लापः' अव्यक्तवाक्, तस्मापा शोभना, किन्तु चिरन्तन्येवेस्यादि प्रागिव, तथा भिक्षार्थ प्रविष्टः श्राद्धिकाचित्तापर्जना बालमुल्लापनादिभिः स्वयं क्रीडा कारयति । उक्ता क्रीडनधात्री, सम्पत्यङ-12 धाच्या अभिनवस्थापितायाः स्फेटनाय सामान्यतो दोषपकटनं यथा साधुः करोति तथा दर्शयति| थुल्लीए वियडपाओ भग्गकडीसुक्कडाए दुक्खं च । निम्मंसकक्खडकरहिं भीरुओ होइ घेप्पते ॥ ४२६ ॥
व्याख्या-इह 'स्थूलया' मांसलया धात्र्या कठ्यां ध्रियमाणो बालः 'विकटपादः' परस्परवदन्तरालपादो भवति, भन्नकटया शुष्ककटधा वा कटयां श्रियमाणो दुःखं तिष्ठति, निर्मासकर्कशकराभ्यां च ध्रियमाणो बालो भीरुर्भवति, एषा चाभिनवस्थापिता धात्री
दीप
अनुक्रम [४५७]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४५९] » “नियुक्ति: [४२६] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४२६||
दीप
पिण्डानयु-18 अन्यतमदोषदुष्टा तस्मान युक्ता किन्तु प्राक्तन्येवेत्यादि पागिव । अधात्रीत्वस्य कारणं स्वयं करणं च स्वयमेव भावनीयं, तश्चैवं- १ धात्रीदोकेर्मलयगि- कोऽपि साधुर्भिक्षार्थं प्रविष्टो बालक रुदन्तमवलोक्य तज्जननीमेवमाह-अङ्के गृहाणेदं बालकं येन न रोदिति, यदि पुनस्त्वं न मपारयास संगमसूरीयावृत्तिः नद्यहं वा गृहामि । सम्मति कीडनधात्रीत्वस्य करणे दोष दृष्टान्तेन भावयति
Maरिदचोदा० कोल्लइरे वत्थव्वो दत्तो आहिंडओ भवे सीसो । अवहरइ धाइपिंड अंगुलिजलणे य सादिव्वं ॥ ४२७॥ ॥१२॥
| व्याख्या-कोल्लकिरे नगरे वाईके वर्तमानाः परिक्षीणजड्डमवलाः सङ्गमस्थविरा नाम सूरयः, तैवान्पदा दुर्भिक्षे जाते सति । सिंहाभिधानः स्वशिष्य आचार्यपदे स्थापयित्वा गच्छं च सकलं तस्य समन्यित्र मुभिने देशे विहारक्रमेण प्रेषितः, स्वयं चैकाकी तत्रैव तस्थौ, ततः क्षेत्रं नवभिर्भागैर्विभज्य तत्रैव यतनया मासकल्पान् वर्षारात्रं च कृतवान्, यतना च चतुर्विधा, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतच, तब द्रव्यतः पीठफलकादिषु क्षेत्रतो क्सतिपाटकेतु कालत एकत्र पाटके मासं स्थित्वा द्वितीयमासेऽन्यत्र वसतिगवेषणं भावतः सर्वत्र निर्ममत्वं, ततश्च किश्चिदूने वर्षेऽतिक्रान्ते सिंहाचार्यस्तेषां प्रदृचिनिमित्तं दत्तनामानं शिष्यं प्रेषितवान् , स चागतो, यस्मिन्नेव । क्षेत्रविभागे पूर्व मुक्ताः सूरयस्तस्मिन्नेव स्थिता दृष्टाः, ततः स खचेतसि चिन्तयामास-अहो ! भावतोऽप्यमी मासकल्प न व्यदधुः, तस्मान्न शिथिलैः सहकत्र वस्तव्यमिति परिभाव्य वसतेर्बहिर्मण्डपिकायामुत्तीर्णः, ततो वन्दिताः सूरयः, पृष्टाः कुशलवा , कथितं । सिंहाचार्यसन्दिएं, ततो भिक्षावेलायामाचार्यैः सह भिक्षार्थ प्रविवेश, अन्तमान्तेषु च गृहेषु प्रादितो भिक्षा जातो विच्छायमुखः, ततः
॥१२॥ सूरयस्तस्य भावमवगम्य कचिदीश्वरगृहे प्रविष्टः, तत्र व्यन्तयधिष्ठितः सदैव बालको रोदिति, ततः सूरयस्तं दृष्ट्वा चप्पुटिकापुरस्सरमालापयामासुः, यथा-वत्स! मा त्वं रोदीरिति, तत एषमालापिते मूरिप्रभावतः सा पूतना व्यन्तरी प्राणेशत, स्थितो रोदितुं (तात)
अनुक्रम [४५९]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४६१] .→ “नियुक्ति: [४२७] + भाष्यं [३१] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१||
दीप
बालक, जातः प्रहृष्टो गृहनायकः, ततो दापितास्तेन भूयांसो मोदकाः, ताँच ग्राहितो दत्तः सूरिभिः, अजायत प्रहृष्टः, ततो मुत्कलितो
वसती, ततः सूरयः स्वशरीरनिःस्पृहा यथाऽऽगमविधि प्रान्तकुलेष्वटिरवा वसतावृपाजग्मुः, प्रतिक्रमणवेलायां च दचो भणितो-वत्स!|| जापानीपिण्डं चिकित्सापिण्टं चालोचय, स पाह-युष्माभिरेव सहाई बिहुतः, ततः कर्य मे धात्रीपिण्डादिपरिभोगः, सूरयोऽवोचलघुवाककक्रीडनेन क्रीडनधात्रीपिण्डः, चप्पुटिकाकरणतः पूतनातो मोचितत्वाचिकित्सापिण्डः, ततः स प्रदुष्टः स्वचेतसि चिन्तयतिस्वयं भावतोऽपि मासकल्पं न विदधाति एतादृशं च पिण्डं दिने दिने गृहाति मां पुनरेकदिनगृहीतमप्यालोचयति, तत एवं विचिन्स्य प्रदूषतो वसतेवेदिः स्थितः, ततस्तस्य सूरिविषयप्रदेषदर्शनतः कुपितया सूरिगुणावर्जितया देवतया तस्य शिक्षार्य वसतावन्धकार सवात च वर्ष विकुर्वित, ततः स भयभीतः सूरीनाइ-भगवन् ! कुत्राई ब्रजामि', ततस्तैः क्षीरोदजलवदतिनिर्मलहृदयैरभाणि-वस्स ! एहि वसतौ भविशेति, दत्त आह-भगवन् ! न पश्याम्पन्धकारेण द्वारमिति, ततोऽनुकम्पया श्लेष्मणा सूरिभिर्निजाङ्गलिरुकृत्योड़ी-|| कृता, सा च दीपशिखेव ज्वलितुं प्रवृत्ता, ततः स दुरात्मा दत्तोऽचिन्तयत्-अहो! एतस्य परिग्रहे बहिरप्यस्ति, एवं च चिन्तयन् देवतया निभर्तिसती हा ! दुष्टशिष्याधम ! एतादृशानपि सर्वगुणरत्नाकरान् सूरीनन्यथा चिन्तयसि, ततो मोदकलाभादिको वृत्तान्तः सर्वोऽपि यथावस्थितो देवतया कथयामासे, जाता तस्य भावतः प्रत्यावृत्तिः क्षामिताः सूरयः, आलोचितं सम्यक् । सूत्र सुगर्म, नवरं 'सादिवं' देवतापातिहार्यम् । एतदेव गायायेन भाष्यकृष्टिणोतिओमे संगमथेरा गच्छ विसज्जंति जंघबलहीणा । नवभाग खेत्त वसही दत्तस्स य आगमो ताहे ॥ (भा०४०)।
भा०३१ उवसयबाहिं ठाणं अन्नाउंछेण संकिलेसो य । पूयणचेडे मा रुय पडिलाभण वियडणा सम्मं ॥ (भा०४१)
अनुक्रम [४६१]
भा०३२
Nirauasaram.org
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४६२] .→ “नियुक्ति: [४२७] + भाष्यं [३२] + प्रक्षेपं [४... .. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
घे संगमसू
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३२||
दीप
पिण्डनियु- व्याख्या-मुगम, नवरं पूयणचेडे'त्ति पूतना-दुष्टव्यन्तरी तया गृहीते 'चेटे' वालके रोदिति, 'विकटना : आलोचनम् । उक्त धात्रीदोतेर्मलयगि- धात्रीद्वारम् । अथ दूतीद्वारमाहरीयात्ति: सग्गाम परम्गामे दुविहा दुई उ होइ नायब्वा । सा वा सो वा भणई भणइ व तं छन्नवयणेणं ॥ ४२८॥ रिदचोदा०
___व्याख्या-इह दूती द्विधा, तद्यथा-स्वग्रामे परग्रामे च, तत्र यस्मिन् ग्रामे साधुर्वप्तति तस्मिन्नेत्र ग्रामे यदि सन्देशककथिका हातहि सा खग्रामदूती, या तु परग्रामे गत्वा सन्देशं कथयति सा परग्रामदूती, एकैकाऽपि च द्विधा, तपथा-कटा छन्ना च, तब
सा तव माता स वा तव पिता एवं भणति-सन्देशं कथयति, सा प्रकटा, या तु तं सन्देश छन्ववचनेन कथयति सा छत्रा । एनमेवार्थ ।। सविशेष व्यक्तीकरोतिएकेकावि य दुविहा पागड छन्ना य छन्न दुविहा उ । लोगुचरि तत्थेगा बीया पुण उभयपक्खेऽवि ॥ ४२९॥
व्याख्या-इह दूतीत्वसमाचरणमपि दूती, साऽपि चैकैका स्वग्रामविषया परग्रामविषया च द्विघा, तद्यथा-प्रकटा छन्ना च, सत्र साछन्ना पुनरपि द्विधा, तपथा-एका लोकोत्तरे लोकोत्तर एव, द्वितीयसकाटकसाधोरपि गुप्ता इत्यर्थः । द्वितीया पुनरुभयपक्षेऽपि लोके लोकोत्तरे च, पावर्तिनो जनस्य सङ्काटकसत्कद्वितीयसाधारपि च गुमेति भावः । स्वग्रामपरग्रामविषयां प्रकटा दूवीमाह
॥१२६॥ भिक्खाई वच्चंते अप्पाहणि नेइ खंतियाईणं । सा ते अमुगं माया सो व पिया ते इमं भणइ ॥ ४३०॥ . व्याख्या-'भिक्षादौ ' भिक्षादिनिमित्तं चेत्यर्थः, वर्जस्तस्यैव ग्रामस्य सत्के पाटकान्तरे परग्रामे वा खंतियाईणं' जनन्यादी
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४६५] » “नियुक्ति: [४३०] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [४... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४३०||
नाम् ' अप्पाणि ' सन्देशं कथयति, यथा सा ते माताऽमुकं भगति, स वा ते पिता इदं भगति । सम्मति स्वामारप्रामाविषयी लो को-18 त्तरे छन्नां दूतीमाह| दइत् ख गरहियं अप्पाहिउ बिइयपच्चया भणति । अविकोबिया सुया ते जा आह इमं भणसु खंति ॥ ४३१।।
व्याख्याकोऽपि साधः कस्याधित पुत्रिकया ' अपाहितः सन्दिष्टः सन् एवं विचिन्तयति द्वतीवं खल गर्हितं. सावयत्वात. तत एवं विचिन्त्य द्वितीयपत्ययात्-द्वितीयसलाटकसाधुमों मां दूतीदोपदुष्टुं ज्ञासीदिल्येवमर्थ भगवन्तरेणेदं भणति-पथा 'अविकोविदा' अकुशला जिनशासने सा तव सुता या आह-इदं भण मदीयां 'खन्ति' जननी मिति, साऽप्परगतार्थसन्देशिका द्वितीयसङ्घनाटकसाधुचिचरक्षणार्यमेव भणति-बारयिष्यामि तां निजमुतां येन पुनरेवं न सन्दिशतीति । सम्मति स्वग्रामविषपामुमयपक्षमच्छ मां दूतीमाहउभयेऽवि य पच्छन्ना खंत ! कहिज्जाहि खंतियाएँ तुमं । तं तह संजायंति य तहेव अह तं करेज्जासि॥४३२॥
व्याख्या-उभयस्मिन्नपि च ' लोकलोकोत्तररूपे पक्षे प्रच्छन्ना दूतीय, यथा 'खंत 'ति विभक्तिलोपात् खन्तस्य-पितृरथया । 'खन्तिकायाः जनन्यास्त्वं कथय, यया तद् विदितं विवक्षितं कार्य तथैव सञ्जातम् , अयत्रा तद्विवक्षितं तयैव कुर्याः । सम्पति प्रकट परग्रामहूतीत्वमाश्रित्य दोषान दृष्टान्तेनोपदर्शयति
गामाण दोण्ह वेरै सेज्जायरि धूय तत्थ खंतस्स । वहपरिणय खंतऽज्झत्थ(प्पाह)णं व णाए कए जुई ॥४३३॥
दीप
अनुक्रम [४६५]
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आगम
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गाथांक
नि/भा/प्र
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[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [४६९ ] “निर्युक्तिः [४३४] + भाष्यं [ ३२...] + प्रक्षेपं [४... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
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पिण्डनिर्यु
तेर्मलयगि
रीयावृत्तिः
॥१२७॥
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जामाइपुत्तपइमारणं च केण कहियंति जणवाओ । जामाइपुचपइमारएण खंतेण मे सिद्धं ॥ ४३४ ॥
व्याख्या - विस्तीर्णो नाम ग्रामः, तस्योपकण्ठे गोकुलाभिधो ग्रामः, विस्तीर्णग्रामे च धनदत्तो नाम कुटुम्बी, तस्य भार्या प्रियमतिः, तस्या दुहिता देवकी, सा च तस्मिन्नेव ग्रामे सुंदरेण परिणीता, तस्याः पुत्रो बलिष्ठो, दुहिता रेवतिः, सा च गोकुलग्रामे सङ्गमेन * परिणिन्ये, प्रियमतिश्चायुःक्षयात् पञ्चत्वमुपगता, धनदत्तोऽपि संसारभयभीतः मन्त्रज्यामग्रद्दीद्, गुरुभिश्च सार्द्धं विहरति । ततः कालान्तरे पुनरपि यथाविहारक्रमं तत्रैव ग्रामे समागतो निजदुहितृदेवक्या वसतावस्थात्, तदानीं च तयोर्द्वयोरपि ग्रामयोः परस्परं वैरं वर्त्तते, विस्तीर्णग्रामवासिना च लोकेन गोकुलग्रामस्योपरि घाटी सूत्रिता, घनदत्तश्च साधुर्गोकुलग्रामे भिक्षायै चलितवान् ततो देवक्या दुद्दित्रा शय्यातर्या भणितो - यथा हे पितः ! त्वं गोकुलग्रामे यास्यसि ततो निजदौहिश्या रेवत्याः कथय यथा तव जनन्या सन्दिष्टम् - अयं * ग्रामस्तव ग्रामस्योपरि छन्नघाटचा समागमिष्यति ततः सकलमपि स्वकीयमेकान्ते स्थापयेरिति, ततः साधुना तथैव तस्याः कथितं, तया च निजभर्तुः तेन च सकलग्रामस्य, ततः सर्वोऽपि ग्रामः सन्नद्धवद्धकवचोऽभवत् आगतश्च द्वितीयदिने घाटचा विस्तीर्णग्रामो, जातं परस्परं महद्युद्धं तत्र सुन्दरो बलि घाटा सह गतौ, सङ्गमथ गोकुलग्रामे वसति, तत्र त्रयोऽपि च युद्धे पञ्चत्वमुपजग्मुः, देवकी च पतिपुत्रजामातृमरणमाकर्ण्य विलपितुं प्रावर्त्तत, लोकच तन्निवारणाय समागतोऽवादीद-यदि गोकुळग्रामो घाटीमागच्छन्तीं नाज्ञास्यत् ततोऽसन्नद्धो नायोत्स्यत, तथा च न तव पत्यादयो त्रियेरन, ततः केन दुरात्मना गोकुलग्रामो ज्ञापितः, एतच लोकस्य वचः श्रुत्वा ॐ सञ्जातकोपा सैवमवादीत् मयाऽजानत्या पित्रा दुहितुः सन्दिष्टं ततस्तेन साधुवेषविडम्बकेन मत्पतिपुत्रजामातृमारकेण पित्रा ज्ञापितः, ॐ ततः स लोके स्थाने स्थाने धिक्कारं लभते । प्रवचनस्य च मालिन्यमुदपादि । सूत्रं सुगमम् उक्तं दूतीद्वारम् अथ निमित्तद्वारमाह-
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उत्पादना
दोषेषु २
दूत्यां धनदत्तकथा
॥१२७॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४७१] .→ “नियुक्ति : [४३५] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१||
नियमा तिकालबिसएऽवि निमित्ते छव्विहे भवे दोसा । सज्जं तु वट्टमाणे आउभए तत्थिमं नायं ॥ ४३५ ॥ ____ व्याख्या-त्रिकालविषयेऽपि । अतीतविषये वर्तमानविषये भविष्यद्विषये च प्रत्येक पविधे' लाभालाभमुखदुःखजीवितमरणरूपे निमित्ते नियमादोषा भवन्ति, ते च दोषा 'आउभए 'त्ति केचिदात्मविघातिनस्तस्य साधोारणादिहेतव इत्यर्थः, केचिदुभयविघातिनः ये साधोः शेषस्य च जीवस्य धातहेतवः, उपलक्षणमेतत्, केचित्केवळपरविघातिनच, तत्र 'वर्तमाने वर्तमानकालविषये निमित्ते प्रयुज्यमाने 'सद्यः । तत्क्षणं परविघातकारिणीद-वक्ष्यमाणं ज्ञातमुदाहरणं । तदेवाह
आकंपिया निमित्तेण भोइणी भोइए चिरगयमि । पुव्वभणिए कहं ते आगउ ? रुट्ठो य वडवाए ॥ ४३६ ॥
व्याख्या-कोऽपि ग्रामनायको निजभार्या पश्चान्मुक्त्वा दिग्यात्रां गतः, सा च तद्भार्या केनापि साधुना निमित्तेनावजिता, ग्रामनायकेन च दूरगतेन चिन्तितं, यथाऽहमेकाकी प्रच्छन्नो गत्वा निजभार्यायाश्चेष्टितमवेक्षिष्ये, सा किं दुःशीला सुशीलाइति । अथ च तदार्यया साधोः सकाशात्तदागमनमवगत्य परिजनः सर्वोऽपि तत्सम्मुखं प्रेषितः, पृष्टश्च भोजकेन परिजनो-यथा भोः! कयं मदागमनमज्ञायि! इति, स पाह-भोगिन्या कथितमिति, साधुश्च तदानी भोजकगृहे समागतो बत्तते, भोगिन्याश्च प्रत्ययपुरस्सरं| नायकेन सह यजल्पितं ययेष्टितं यो वाऽनया स्वमो दृष्टो यद्वा शरीरे मपतिलकादि तत्सर्वं कथयन्नास्ते, अत्रान्तरे च समागतो भोजकः,18 कृतश्च तया यथोचित उपचारः, पृष्टा च तेन-कथं त्वया ममागमनमवजम्मे? इति, साऽवादीत-साधुनिमित्तात्, ततस्तेन भणितम् , अस्ति कोऽप्यन्योऽपि प्रत्ययः, सा ततोऽवादी-युष्माभिः सह पूर्व जल्पितं चेष्टितं च यो वा मया स्वमो दृष्टः यश्च मम गुह्यपदेशे
दीप
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0000000००००००००००००००000000रुरुककर
अनुक्रम [४७१]
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अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते. सा मया संपादित: 'आगमसत्ताणि' मूलं एवं सटीकं उभये पुस्तके वर्तते
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
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दीप
अनुक्रम
[४७३]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ४७३] “निर्युक्तिः [४३६] + भाष्यं [३३] + प्रक्षेपं [५...
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्यु- तिल कस्तत्सर्वमनेना वितथं कथयामासे, ततः स ईर्ष्यावशविस्फुरितको पहुतवहः साधुमपृच्छत् कथय साथी ! किमस्या बडवाया गर्भेऽस्ति ? तेर्मलपगिइति साधुः मा पञ्चपुण्डः किशोरः, ततः सोऽचिन्तयत्-यदीदं सत्यं भविष्यति तर्हि मद्भार्यामपतिलकादिकथनमपि सत्यम्, इतरथा अब रीयावृत्तिः * इयमेष विरुद्धकर्मसमाचारीति विनिपात्यः, तत एवं विचिन्त्य वडवाया गर्भः पाटितः पातितः परिस्फुरन् पञ्चपुण्डुः किशोरः, ततस्तं दृष्ट्रा * सञ्जातको पोपशमः साधुमवादीत् यदीदं न भवेत्ता त्वमपि न भवेरिति । सूत्रं सुगमम् । एतदेव गाथाद्वयेन भाष्यकृद्विवृणोति - दूरा भोयण गागि आगओ परिणयस्स पञ्च्चोणी । पुच्छा समणे कहणं साइयंकार सुमिणाई || ( भा०४२)
॥१२८॥
कोवो वडवागमं च पुच्छिओ पंचपुंडमाहंसु । फालणदिडे जइ नेव तो तुहं अवित कइ वा ॥ ( भा०४३ ) व्याख्या - सुगमं । नवरं 'पचोणी' सन्मुखागमनं, 'साइयंकार' ति सप्रत्ययं स्वप्नादि, अपि च-अत्र साबुना समत्ययकथनेनात्मनो वधः पारदारिकत्वं च दूषणं परिहतं, कति पुनरेवंविधाः 'अवितथं ' निमित्तं कथयिष्यन्ति ?, तस्मात्सर्वथा साधुना निमित्तं न प्रयोक्तव्यमिति । उक्तं निमित्तद्वारं, साम्मतमाजीवद्वारमाह
जाई कुल गण कम्मे सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा । सूयाऍ असूयाऍ व अपाण कहेहि एकेके ॥ ४३७ ॥ व्याख्या - आजीवना पञ्चविधा, तयथा – 'जातिविषया' जातिमाजीवनीकरोतीत्यर्थः एवं कुलविषया गणविषया कर्मविषया शिल्पविषया च सा चाऽऽजीवनैकैकस्मिन् भेदे दिया, तद्यथा-सूचयाऽऽत्मानं कथयति असूचवा च तत्र 'सूचा ' वचनभङ्गिविशेषेण कथनं 'असूचा' स्फुटवचनेन । तत्र जात्यादीनां लक्षणमाह---
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उत्पादनादोषेषु ३
निमित्ते
भोजककथा
भा० ३३
भा० ३४
॥ १२८ ॥
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आगम
(४१/२)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
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दीप
अनुक्रम [४७६ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [४७६ ] ·→ “निर्युक्तिः [४३८] + भाष्यं [३४] + प्रक्षेपं [५...
जाईकुले विभासा गणो उ मलाइ कम्म किसिमाई । तुलाइ सिप्पऽणावज्जगं च कंमेयराऽऽज्जं ॥ ४३८ ॥ व्याख्या - जातिकुले ' विभाषा' विविधं भाषणं कार्य, तथैवं नातिः - ब्राह्मणादिका कुलम् - उग्रादि, अथवा मातुः समुत्था जातिः पितृसमुत्थं कुलं । 'गणः' मल्लादिवृन्दं, कर्म-कृप्यादि, 'शिल्लं' तूर्णादि तूर्णनसीवनप्रभृति, अथवा 'अनावर्तकम्' अमीत्युउत्पादकं कर्म इतरत्तु 'आवर्जकं ' प्रीत्युत्पादकं शिल्पम्, अन्ये त्वाहुः - अनाचार्योपदिष्टं कर्म आचार्योपदिष्टं तु शिल्पमिति । तत्र यथा साधुः सूचया स्वजातिमकटनाज्जातिमुपजीवति तथा दर्शयति
होमायवितह करणे नज्जइजह सोत्तियरस पुत्तोत्ति । वसिओ वेस गुरुकुले आयरियगुणे व सूएइ ॥ ४३९ ॥ "व्याख्या - साधुर्भिक्षार्थमटन् ब्राह्मणगृहे प्रविष्टः संस्तस्य पुत्रं होमादिक्रियाः कुर्वाणं दृष्ट्वा तदभिमुखं प्रति स्वनातिप्रकटनाय | जल्पति — होमादिक्रियाणामवितथकरणे एष तव पुत्रो ज्ञायते यथा श्रोत्रियस्य पुत्र इति यदिवोषित एष सम्यग्गुरुकुले इति ज्ञायते, अथवा सूचयत्येष तव पुत्र आत्मन आचार्यगुणान् ततो नियमादेष महानाचार्यो भविष्यतीति । ततः एवमुक्ते स ब्राह्मणो वदति - साधो ! त्वमवश्यं ब्राह्मणो येनेत्थं होमादीनामवितथत्वं जानासि, साबुच मौनेनावतिष्ठते, एतच सूचया स्वजातिमकटनम् । अत्र चानेके दोषाः तथाहि यदि स ब्राह्मणो भद्रकस्तर्हि स्वजातिपक्षपाततः प्रभूतमाहारादिकं दापयति, तदपि च जात्युपजीवननिमित्तमिति भगवता प्रतिषिद्धम्, अथ प्रान्तस्तहिं भ्रष्टोऽयं पापात्मा ब्राह्मण्यं परित्यक्तमिति विचिन्त्य स्वगृहनिष्कासनादि करोति, असूचया तु जात्याजीवनं पृष्टोऽपृष्टो वाऽऽहारार्थं स्वजातिं प्रकटयति यथाऽहं ब्राह्मण इति, तत्राप्यनन्तरोक्ता एव दोषाः, क्षत्रियादिजातिष्यपि, एवं कुला|दिष्वपि भावनीयम् । एतदेव किञ्चिदयक्तीकुर्वन्नाह -
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४७८] » “नियुक्ति: [४४०] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४४०||
पिण्डनियुमलयगिरीयावृत्ति ॥१२९॥
भेदः
दीप
सम्ममसम्मा किरिया अणेण ऊणाऽहिया व विवरीया । समिहामंताहुइठाणजागकाले य घोसाई ॥ ४४० ॥ उत्पादनाव्याख्या-साधुभिक्षार्थमटन क्वचिद् ब्राह्मणगृहे पविष्टः संस्तस्य पुत्र होमादिक्रियाः कुर्वाणं दृष्ट्वा पितरं प्रति स्वजातिप्रकटनाय
दोषेषु । जल्पति-अनेन तव पुत्रेण सम्पगसम्यग्वा होमादिका क्रिया कृता, तासम्यक् विधा, तद्यथा-ऊनाऽधिका विपरीता वा, सम्यक् समि
|आजीवधादीन् घोपादींश्च यथाऽवस्थितानाश्रित्य, तत्र 'समिधः अश्वत्थादिवृक्षाणां पतिशाखाखण्डानि 'मन्त्राः' प्रणवप्रभृतिका अक्षरपद्ध
| दोषे ५ तयः 'आहुतिः' अग्नौ घृतादेः प्रक्षेपः । स्थानम् ' उस्कटादि 'यागः' अश्वमेधादिः 'काल' प्रभातादि 'घोषा' उदाचादयः, आदिशब्दास्वदीयोंदिवणेपरिग्रहः, एवं चोक्के स साधु ब्राह्मणं जानाति, तथा च सति भद्रे प्रान्ते वा पूर्ववदोषा बक्तव्याः । उक्तं जातेरुपनीवनम्, अथ कुलायुपजीवनमाह
उम्गाइकुलेसुवि एमेव गणे मंडलप्पवेसाई । देउलदरिसणभासाउवणयणे दंडमाईया ॥ ४४१ ॥
व्याख्या-'एवमेव' जाताविव कुलादिष्वपि उग्रादिघूपजीवनं अवगन्तव्यं, यथा कोऽपि साधुरुग्रकुले भिक्षार्थं प्रविष्टः, तत्र च तत्पुर्व पदातीन् यथावदारक्षककर्मसु नियुञ्जानं दृष्ट्वा तत्पितरमाह-जायते तव पुत्रोऽप्रवेदितोऽपि यथायोग पदातीनां नियोजनेनोग्रकुलसम्भूत इति, ततः स जानाति-एपोऽपि साधुरुपकुलसमुत्पन्न इति, इदं तु सूचया स्वकुलप्रकाशनं, यदा तु स्फुटवाचैव स्वकुलमावेदयति । यथाऽहं उग्रकुलः भोगकुल इत्यादि तदाऽसूचया प्रकटनं, तेषां भद्रमान्तत्वे पूर्वोक्तानुसारेण दोषा वक्तव्याः । तथा गणे' गणविषये मण्डलमवेशादि, इहाकरवल(करबाट)के प्रविष्टस्यैकस्य मल्लस्य यलुभ्यं भूखण्डं तन्मण्डलं, तत्र वर्तमानस्य प्रतिद्वन्दिनो मल्लस्प विघाताय
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४७९] » “नियुक्ति: [४४१] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४४१||
या प्रवेशस्तदादि, आदिशब्दाद्रीचाग्रहादिपरिग्रहः, तथा ' देवकुलदर्शन' युद्धमवेशे चामुण्डापतिमापणमनं, 'भाषोपनयनं' प्रतिमल्लाहानाय तथा तथा वचनदौकनं दण्डादिका' धरणिपातच्छुप्ताङ्कयुद्धप्रभृतयः, एतान् गणपदे प्रविष्टः सन् तत्पुत्रस्य प्रशंसति, तथा च सति तेन ज्ञायते यथैपोऽपि साधुर्मल इत्यादि प्राग्वत् । कर्मशिल्पयोराजीवनमाह
कत्तरि पओअणावेक्खवत्थु बहुवित्थरेसु एमेव । कम्मसु य सिप्पेसु य सम्ममसम्मेसु सूईयरा ॥ ४४२ ॥ व्याख्या-कर्मसु शिल्पेषु चैवमेव-कुलादाविवोपजीवनं वक्तव्यं, कथम् ? इत्याह-कर्चरि' कर्मणां शिल्पानां च विधायके, उपलक्षणमेतत् विधापके च वणिजादौ, सप्तमी चात्र पाठयथे, ततोऽयमर्थ:-कर्तुः कारापकस्य च प्रयोजनापेक्षेषु भूमिविलिखनादिषु समयोजननिमित्तं धियमाणेषु हलादिषु वस्तु, सूत्रे चात्र विभक्तिलोप आपत्वात् , 'बहुविस्तरेषु प्रभूतेषु नानाविधेषु च, सम्पगसम्पगिति वा सामोच्यमानेषु-शोभनाम्यशोभनानीति वा कथ्यमानेषु यदात्मनि कर्माण शिल्पे वा कौशलज्ञापनं तत्तयोरुपजीवनम् । इयमत्र भावना-18 प्रविष्टः सन् साधुः कृष्यादेः कर्तुः कारापकस्य वा तत्पयोजनापेक्षणीयानि नानारूपाणि हलादीनि बहूनि वस्तूनि तानि दृष्ट्वाऽऽत्मनः कर्मणि शिल्पे वा कौशलज्ञापनाय शोभनान्यशोभनानीति वा यक्ति तत्कर्मशिल्पयोराजीवनम् । अनेन च प्रकारेण कौशलज्ञापन सूचास्फुटवचनेन च कौशलकथनमसूचा । उक्तमाजीवद्वारम्, अथ बनीपकद्वारं वक्तव्यं, तत्र प्रथमतो बनीपकस्य भेदान्निरुक्ति चा शब्दस्याह-- | समणे माहणि किवणे अतिही साणे य होइ पंचमए । वणि जायणत्ति वणिओ पायप्पाणं वणेइति ॥ ४४३ ।।
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४८१] » “नियुक्ति: [४४३] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४४३||
दीप अनुक्रम [४८१]
पिण्डनियु- व्याख्या-चनीपकः पञ्चधा, तद्यथा-' श्रमणे' श्रमणविषयः ब्राह्मगे कृपणेऽतिथौ शुनि च पञ्चमो भवति, तत्र चनीपक इति उत्पादनाकेर्मकयगि-1 वनिरित्ययं धातुर्याचने, 'वनु याचने' इति वचनात्, ततो वनुते-पायो दायकसम्मतेषु श्रमणादिष्वात्मानं भक्त दर्शयित्वा पिण्डं याचते | दोषेषु ५ रीयादृत्तिः इति 'वणिउत्ति बनीपकः, औणादिक ईपकात्ययः । सम्पति प्रकारान्तरेण बनीपकशब्दनिरुक्ति प्रतिपादयति
बनीपके मयमाइवच्छगंपिव वणेइ आहारमाइलोभेणं । समणेसु माहणेसु य किविणाऽतिहिसाणभत्तेसु ॥ ४४४ ॥ ॥१३०॥
| भेदाः व्याख्या—'मृता' पञ्चत्वमुपगता माता यस्य वत्सकस्य-तर्णकस्य तमिव गोपालकोऽन्यस्यां गीविशेषः, 'आहारादिलोभेन' भक्तपात्रवस्तुलुब्धतया श्रमणेषु ब्राह्मणेषु कृपणातिथिवभक्तेषु वनति-भक्तमात्मानं दर्शयतीति बनीपका, पूर्ववदोणादिक इंपकप्रत्ययः ।। सम्मति यावन्तः श्रमणशब्दवाच्यास्तावतो दर्शयित्वा तेषु वनीपकत्वं यथा भवति तथा दर्शयति| निग्गंथ सक्क तावस गेरुय आजीव पंचहा समणा । तेसि परिवेसणाए लोभेण वणिज को अप्पं ? ॥ ४४५ ॥
व्याख्या-'निर्ग्रन्थाः' साघवः 'शाक्याः' मायासूनवीयाः, तापसाः' वनवासिनः पाखण्डिनः 'गैरुकाः' गेहकरञ्जितकावाससः परिव्राजकाः 'आजीवकाः' गोशालकशिष्या इति 'पञ्चधा' पश्चमकाराः श्रपणा भवन्ति, एतेषां च यथायोग गृहिगृहेषु समा-|
गतानां 'परिवेषणे' भोजनप्रदाने क्रियमाणे सति कोऽप्याहारलम्पटः साधुः 'लोभेन' आहारादिलुब्धतया बनवि-शाक्यादिभक्तमा-18 त्मानं दर्शयति, तद्भक्तगृहिणः पुरत इति सामर्थ्यगम्पम् । इह प्रायः शाक्पा गैरुका वा गृहिगृहेषु मुजते ततस्तान् भुखानानधिकृत्य यथा साधुर्वनीपकत्वं कुरुते तथा दर्शयति
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४८४] » “नियुक्ति: [४४६] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४४६||
भंति चित्तकम्म ठिया व कारुणिय दाणरुइणो वा । अवि कामगद्दहेसुवि न नरसई किं पुण जईसु ?॥ ४४६॥
व्याख्या एवं नाम निश्चला भगवन्तोऽमी शाक्यादयो भुञ्जते यथा चित्रकर्मलिखिता इव भुञ्जाना लक्ष्यन्ते, तथा परमकारुणिका पते दानरुचयक्ष, तत एतेभ्योऽवश्यं भोजनं दातव्यम् , अपि च 'कामगर्दभेष्वपि ' मैथुने गई भेष्विवातिपस के ब्राह्मणेविति गम्यते, दर्स न नश्यति , किं पुनरमीषु शाक्यादिषु, एतेभ्यो दत्तपतिशयेन बहुफळमिति भावः, तस्मादातव्यपेतेभ्यो विशेषतः । अत्र | दोषान् दर्शयतिमिच्छत्तथिरीकरणं उगमदोसा य तेसु वा गच्छे । चडुकारदिन्नदाणा पञ्चत्थिग मा पुणो इंतु ॥४४॥
व्याख्या एवं हि शाक्यादिप्रशंसने लोके मिथ्यात्वं स्थिरीकृतं भवति, तथाहि-साधनोऽप्यमून प्रशंसन्ति तस्मादेतेषां सत्य इति, तथा यदि भक्ता भद्रका भवेयुः तत इत्वं साधुप्रशंसामुपलभ्य तयोगमाधाकर्मिकादि समाचरेयुः, ततस्तरमापा कदा-॥
चित्साधुवेषमपहाय तेषु शाक्यादिषु गच्छेयुः, तथा लोके चढ़कारिण एते जन्मान्तरेऽप्यदत्चदाना आहाराधय श्वान इवात्मानं दर्शयजन्तीत्यवर्णवादः, यदि पुनः शाक्यादयः शाक्यादिभक्ता चा 'प्रत्यर्थिकाः' अत्यनीका भवेयुः ततः प्रद्वेषतः प्रशंसावचनमवज्ञायेत्यं ब्रूयुः|मा पुनरत्र भवन्त आयान्विति । ब्राह्मणभक्तानां पुरतो ब्राह्मणप्रशंसारूपं बनीपकत्वं यथा करोति तथा दर्शयति
लोयाणुग्गहकारिसु भूमीदेवेसु बहुफलं दाणं । अवि नाम बंभबंधुसु किं पुण छक्कामनिरएसु ? ॥ ४४८ ॥ व्याख्या-पिण्डमदानादिना लोकोपकारिषु भूमिदेवेधु ब्राह्मणेष्वपि नाम ब्रह्मबन्धुष्वपि-जातिमात्रब्राह्मणेष्वपि दानं दीय
दीप
अनुक्रम [४८४]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४८६] » “नियुक्ति: [४४८] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियु- तेर्मलयगि-
रीयावृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४४८||
॥१३॥
मानं बहुफलं भवति, किं पुनर्यजनयाजनादिरूपपट्कर्मनिरतेषु ?, तेषु विशेषतो बहुफलं भविष्यतीति भावः । सम्पति कृपणभक्तानां । उत्पादनापुरतः कृपणप्रशंसारूपं वनीपकत्वं यथा समाचरति तथा प्रतिपादयति
दोषेषु ५ किवणेसु दुम्मणेसु य अबंधवायंकजुगियंगेसुं । पूयाहिज्जे लोए दाणपडागं हरइ दितो ॥ ४४९ ॥ वनीपकेषु व्याख्या-इह लोकः पूजाहार्यः-पूजया हियते-आवर्यते इति पूजाहार्यः-पूजितपूजको, न कोऽपि कृपणादिभ्यो ददाति,
भेदाः ततः कृपणेषु तथेष्टवियोगादिना दुर्मनस्तु तथाऽवान्धवेषु तथाऽऽतडो-ज्वरादिस्तयोगादातडिनोऽप्यातहास्तेषु तथा 'जुनिन्ताङ्गेषु च। कर्तितहस्तपादायवयवेषु निराकासतया दददस्मिल्लोके दानपताका 'हरति ' गृह्णाति । साम्पतमतिविभक्तानां पुरतोऽतिथिमशंसारूपं वनीपकत्वं यथा साधुर्विदधाति तथा दर्शयति| पाएण देइ लोगो उवगारिसु परिचिएसुऽज्झुसिए वा । जो पुण अढाखिन्नं अतिहिं पूएइ तं दाणं ॥ ४५० ।।
व्याख्या-इह प्रायेण लोक उपकारिषु यद्वा परिचितेषु यदिवा ' अध्युपिते' आश्रिते ददाति भक्तादि, यः पुनरध्वखिन्नमतिथि पूजयति तदेव दान, जगति प्रधानमिति शेषः । अधुना शुनां भक्तानां पुरतः शुनकपशंसारूपं वनीपकत्वं कुर्वन् यक्ति तदु-18 पदर्शयति
अवि नाम होज्ज सुलभो गोणाईणं तणाइ आहारो। छिच्छिक्कारहयाणं न हु सुलहो होइ सुणगाणं ॥ ४५१॥ केलासभवणा एए, आगया गुज्झगा महिं । चरंति जक्खरूवेणं, पूयाऽपूया हियाऽहिया ॥ ४५२॥
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अनुक्रम [४८६]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [४९०] » “नियुक्ति: [४५२] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४५२||
व्याख्या-अपि नाम गवादीनां तृणादिक आहारो भवेत् मुलभः, छिच्छिकारहतानां स्वमीषां शुनां न तु कदाचनापि भवति । सुलभः, तत एतेभ्यो यदीयते तदेव बहुफलमिति भावः, अपि च नेते श्वानः श्वान एव, किन्तु 'गुह्यका' देवविशेषा 'कैलासभवनात् कैलासपर्वतरूपादाश्रयादागत्य 'महीं' पृथिवीं यक्षरूपेण श्वाकृत्या चरन्ति, तत्त एतेषां पूजाऽपूजा च यथासङ्घर्थ हिताऽहिता || चेति । सम्पति ब्राह्मणादिविषयवनीपकत्वे दोपानाह-.
एएण मज्झ भावो दिट्ठो लोए पणामहेजंमि । एकेके पुष्वुत्ता भद्दगपंताइणो दोसा ॥ ४५३ ॥
व्याख्या-'एतेन' अनेन साधुना 'मज्झ' मदीयः 'भावः' भक्तत्वलक्षणः 'दृष्टः । अवगतो 'लोके' ब्राह्मणादौ, किंविशिष्टे ? इत्याह-प्रणामहायें' प्रणामः-प्रणमनं तेन, उपलक्षणमेतत् दानादिना च, हायें-आवर्जनीये, तत एकैकस्मिन् ब्राह्मणादिविषये बनीपकत्ये पूर्वोक्ता भद्रकमान्तादयो दोषा भावनीयाः, किमुक्तं भवति ?-यदि भद्रकस्तहिं प्रशंसावचनतो वशीकृत आधाकर्मादि कृत्वा प्रयच्छति, अध पान्तस्तहि गृहनिष्कासनादि करोति । इह पाक् 'साणे पुण होइ पंचमए । इत्युक्तं, तत्र साणग्रहणं काकादीनामु-18 पलक्षणं, तेन काकादिष्वपि वनीपकत्वं द्रष्टव्यं , तथा चाह
एमेव कागमाई साणग्गहणेण सूइया होति । जो वा जंमि पसत्तो वणइ तहिं पुढऽपुट्ठो वा ॥ ४५४ ॥
व्याख्या-'एवमेव ' बनीपकत्वमरूपणाविषयत्वेन श्वग्रहणेन काकादयोऽपि सूचिता भवन्ति, ततस्तत्रापि वनीपकत्वं भावनीयम् । एतदेव व्याप्तिपुरस्सरमाह-यो वा यत्र काकादौ पूजकत्वेन प्रसक्तस्तत्र काकादिस्वरूपं पृष्टोऽपृष्टो वा 'बनति ' प्रशंसाद्वारेणाऽऽत्पान || भक्तं दर्शयति । सम्पति बनीपकत्वं कुर्वतः साधोर्युक्त्या दोषगरीयस्त्वं प्रकटयति
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अनुक्रम [४९०]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [४९३] » “नियुक्ति: [४५५] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४५५||
दोषः
पिण्डनियु- दाणं न होइ अफलं पत्तमपत्तेसु सन्निजुजंतं । इय विभणिए वि दोसा पसंसओ किं पुण अपत्ते ? ॥ ४५५ ॥ उत्पादनाकेर्मलयाग
व्याख्या-इह पात्रेष्यपात्रेणु वा सत्रियुज्यमानं दानं न भवत्यफलमित्यपि भणिते दोपः, अपात्रदानस्य पात्रदानलमतया प्रश- दोषेषु ६ संयात्तिःसनेन सम्यक्त्वातिचारसम्भवात्, किं पुनः अपात्राण्येव साक्षात् प्रशंसता ?, तत्र सुतरां महान दोपो, मिथ्यात्वस्थिरीकरणादिदोपभा-चिकित्सा॥१३२॥
वादिति । तदेवमुक्तं वनीपकद्वारं, सम्पति चिकित्साद्वारमाह
भणइ य नाहं वेज्जो अहवाऽवि कहेइ अप्पणो किरियं । अवावि विज्जयाए तिविह तिगिच्छा मुणेयब्वा॥ ४५६ ॥ IT व्याख्या-इह 'चिकित्सा' रोगप्रतीकारो रोगप्रतीकारोपदेशो वा विवक्षिता, ततः साधूनधिकृत्य 'त्रिविधा त्रिप्रकारा चिकित्सा
ज्ञातव्या, तयथा केनापि रोगिणा रोगमतीकारं साधुः पृष्टः सन्नाइ-किमई वैद्यः, एतावता च किमुक्तं भवति ?-वैधस्य समीपे गत्वा || चिकित्सा प्रष्टण्या इत्पबुधबोधनादेका चिकित्सा, अथवा रोगिणः पृष्टः सन्नेमाह-ममाप्येवंविधो व्याधिरासीत्। स चामुकेन भेषजेनो-:। पशान्तिमगमत्, एषा द्वितीया चिकित्सा, अथवा वैद्यतया-वैधीभूय साक्षाचिकित्सां करोति, एषा तृतीया । इहाये द्वे चिकित्से सूक्ष्मे, तृतीया तु बादरा । तत्रायां व्याचिल्यासुराहl भिक्खाइ गओ रोगी कि विज्जोऽहंति पच्छिओ भणइ । अत्थावत्तीए कया अबुहाणं बोहणा एवं ॥ ४५७ ॥
I n व्याख्या-'भिक्षादौ भिक्षादिनिमित्तं गतः सन् 'रोगीति अत्र तृतीयायें प्रथमा रोगिणा पृष्टः सनाइ-किमई वैद्यः ? येन । कथयामि, पूर्व चोक्ते सति 'अर्थोपच्या ' सामोदबुधानां-वैद्यस्य पार्षे गत्वा चिकित्सा कार्यते इत्पनानां वोधना-अनन्तरोक्त । स्थार्थस्य ज्ञापना कृता भवति । द्वितीयां व्याख्यानयति
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अनुक्रम [४९३]
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||४५८||
दीप
अनुक्रम [ ४९६ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ४९६ ] • → “निर्युक्तिः [४५८] + भाष्यं [ ३४ ...] + प्रक्षेपं [५... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
८०
एरिस चिय दुक्खं भेसज्जेण अमुगेण पउणं मे । सहसुप्पन्नं व रुयं वारेमो अट्टमाईहिं ॥ ४५८ ॥
व्याख्या— एतादृशमेव ‘दुःखं ' दुःखकारणभूतं गद्दायमुकेन भेषजेन 'प्रगुणं' नष्टवेदनपभूत्, तथा वयं 'सहसोत्पन्नाम् ' अकस्मादुत्पन्नां रुजमष्टमादिभिर्वास्यामः । ' तेत्थोपनं रोगं अमेण निवारए' इत्यादि परममुनिवचनप्रामाण्यात्, तस्माद्भवताऽपि तथा कर्त्तव्यमिति भावः । तृतीयां चिकित्सां विपश्ञ्चयितुमाह
संसोधण संसमणं नियाणपरिवज्जणं च जं तत्थ । आगंतु घाउखोमे य आमए कुणइ किरियं तु ॥ ४५९ ॥
व्याख्या - आगन्तुके धातुक्षोभे च 'सूचनात्सूत्र' मितिकृत्वा धातुक्षोभ जे चामरोगे समुत्यन्ने सति तत्र यत्क्रियां करोति, तद्यथा— संशोधनं इरीतक्यादिदानेन पित्ताद्युपशमनं, तथा 'निदानपरिवर्जनं ' रोगकारण परिवर्जनं च एव तृतीया चिकित्सा । अत्र दोषानाह
अस्संजम जोगाणं पसंघणं कायधाय अयगोलो । दुब्बलवग्धाहरणं अच्चुये गिण्हणुाहे ॥ ४६० ॥
व्याख्या -' असंयमयोगानां सावयव्यापाराणां 'पसन्धनं सातत्येन प्रवर्त्तनमिदं चिकित्साकरणं यतो गृहस्थस्तप्तायोगोलकसमानः ततस्तेन नीरोगीभूतेन ये कायघाता यावज्जीवं मवन्ते ते सर्वेऽपि साधुचिकित्साप्रवर्त्तिता इति चिकित्साकरणं सातत्येनासंयमयोगानां निबन्धनम् । तथा चात्र दुर्बलव्याघ्रदृष्टान्तोपवाटच्यामाध्येन भक्ष्यनामुवन् दुर्बलो व्याघ्रः केनाप्याध्यापनय
१ सो रोगमनेन निवारये ।
Education Internation
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आगम
(४१/२)
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गाथांक
नि/भा/प्र
||४६०||
दीप
अनुक्रम [ ४९८ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [४९८ ] • → “निर्युक्तिः [४६०] + भाष्यं [ ३४ ...] + प्रक्षेपं [५... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
८०
पिण्डनिर्यु -
मलयगि
यावृत्तिः
॥१३३॥
नाय चिकित्स्यते, चिकित्सितश्च प्रगुणीभूतः प्रथमतस्तस्यैत्र वैद्यस्य विघातं करोति, ततः शेषाणां बहूनां जीवानाम्, एवमेषोऽपि गृहस्थः साधुना चिकित्स्यमानः साधोः संयमप्राणान् हन्ति, शेषश्च पृथिवीकायादीनिति । यदि पुनः कथमपि चिकित्स्यमानस्यापि तस्यातिशयेन रोगस्पोदय:- प्रादुर्भावो भवति, ततोऽहमनेनातिशयेन रोगीकृत इति सञ्जातकोपो राजकुलादौ ग्राहयति, तथा च सति उड्डाहः--: प्रवचनस्य मालिन्यमिति । उक्तं चिकित्साद्वारम् अधुना क्रोधादिद्वारचतुष्टयं विवक्षुः प्रथमतः क्रोधादिपिण्डदृष्टान्तानां नगराणि क्रोधाद्युत्पत्तेः कारणानि च प्रतिपादयति---
हत्यकप्प गिरिफुल्लिय रायगिहं खलु तहेव चंपा य । कडघयपुन्ने इट्टग लड्डुग तह सीहकेसरए ॥ ४६१ ॥
व्याख्या -- क्रोधपिण्डदृष्टान्तस्य नगरं हस्तकल्पं, मानपिण्डदृष्टान्तस्य गिरिपुष्पितं, मायापिण्डदृष्टान्तस्य राजगृह, लोभ पिण्डदृष्टाअन्तस्य चम्पा तथा कृतान् घृतपूर्णानलभमानस्य क्रोधोत्पत्तिः, सेवकिका अलभमानस्य मानस्योत्पत्तिः, मोदकानाश्रित्य मायोत्पत्तिः, सिंहकेसरसज्ञान् मोदकानलभमानस्य लोभोत्पत्तिः । सम्प्रति क्रोधपिण्डस्य सम्भवमाह-
विज्जातवप्पभावं रायकुले वाऽवि वल्लभत्तं से । नाउं ओरस्सबलं जो लब्भइ कोहपिंडो सो ॥ ४६२ ॥
व्याख्या - स साधोः 'विद्याप्रभावम् ' उघाटनमारणादिकं ' तपःप्रभावं शापदानादिकं राजकुले वल्लभत्वं वा ज्ञात्वा यदिवा औरस्यं बलं सहस्रयोधित्वादिकं ज्ञात्वा यः पिण्डो 'लभ्यते ' गृहस्थेन दीयते स staपिण्डः । अथवाऽन्यथा क्रोधपिण्डसम्भवः, तमेव दर्शयति---
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उत्पादना
यां ६ चि
कित्सापि
ण्डः ७-१०
क्रोधादि
काः
।। १३३ ।।
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [५०१] » “नियुक्ति: [४६३] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४६३||
अन्नेसि दिज्जमाणे जायंतो वा अलडिओ कुप्पे । कोहफलंमिऽवि दिटे जो लब्भइ कोहपिंडो सो ॥ ४६३ ॥
व्याख्या-'अन्येभ्यः' ब्राह्मणादिभ्यो दीयमाने याचमानोऽपि साधुर्यदा न लभते तदाऽलब्धिमान् सन् कुप्येत, कुपिते च सति तस्मिन् साधुः कुपितो भन्यो न भवतीवि यद्दीयते स क्रोधपिण्डः । यदिवा तस्मिन्नन्यत्र वा क्रोधफले मरणादिशापे फलपति दृष्टे । यो लभ्यते स क्रोधपिण्डः । अत्रैवोदाहरणमाह
करडुय भत्तमलढुं अन्नहिं दाहित्य एव वच्चंतो । थेरो भोयण तइए आइक्खण खामणा दाणे ॥ ४६४ ॥
ग्याख्या--हस्तकल्पे नगरे कचिड्राह्मणगृहे मृतकभक्ते मासिके दीयमाने कोऽपि साधर्मासक्षपणपर्यवसाने भिक्षार्थ प्रविवेश,81 शाश्व तेन घृतपूरा ब्राह्मणेभ्यो दीयमानाः, सोऽपि च साधुः प्रतिषिद्धो दौवारिकेण, ततः कुपितोऽवादीत, 'अनहिं दाहित्य 'चि अस्य चायमर्थः-अस्मिन् मासिके तावन्मया न लब्धं ततोऽन्यस्मिन् मासिके दास्यथेति, एवं चोक्त्वा निर्गतः, दैवयोगेन च तत्रान्यन्मा-|| नुष पञ्चषदिनमध्ये मृतं, ततस्तस्य मासिके दीयमाने भूयः स एव साधुर्मासक्षपणपारणे गतः, तथैव च प्रतिषिद्धो दौवारिकेण, ततः भूयोपि कुपितोऽवादीत-'अन्नहिं दाहित्य 'त्ति, ततः पुनरपि दैवयोगेन तवान्यन्मानुषमुपगतं, ततस्तस्यापि मासिके स एव साधुर्मासक्षपणः । पारणे भिक्षार्थमागतः, तथैव च प्रतिषिद्धो दौवारिकेण भणति-'अनहिं दाहित्यत्ति, एतच श्रुत्वा तेन स्थविरेण दौवारिकेण चिन्तितं, पुराऽप्येतेन वारद्वयमित्थं शापो वितीर्णस्ततो वे मानुषे उपगते सम्पत्ति तृतीयवेला ततो मा किमपि मानुषं म्रियतामिति जाताऽनुकशम्पेन सर्वोऽपि वृतान्तो गृहनायकाय निवेदितः, तेन च समागत्य सादरं साधु क्षमयित्वा घृतपूरादिकं तस्मै यथेच्छ व्यतारि, स क्रोधपिण्डः । सूत्रं सुगम, नवरं करटुकभक्त ' मृतकभोजनं मासिकादि । तदेवमुक्तः क्रोधपिण्डः । सम्पति मानपिण्डस्य सम्भवमाह
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अनुक्रम [५०१]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५०३] » “नियुक्ति: [४६५] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
दोपे क्रोध
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४६५||
शान्ती
पिण्डनियु-1 ओच्छाहिओ परेण व लद्धिपसंसाहिं वा समुत्तइओ । अवमाणिओ परेण य जो एसइ माणपिंडो सो ॥ ४६५ ॥ 13 उत्पादना तमेळयगि- व्याख्या-उत्साहितः । त्वमेवास्य कार्यस्य करणे समर्थ इत्येवमुत्कर्षितः परेण ' अपरेण साध्यादिना, 'वा' विकल्पे, तथा रीयावृत्तिः
लब्धिप्रशंसाभ्यां 'समुत्तइ भो' मर्वितो यथाऽई यत्र कापि बजामि तत्र सर्वत्रापि लभे तथैव च जनो मा प्रशंसतीत्येवमभिमानवान्,
यद्वा न किमपि त्वया सिद्धयतीत्येवमपमानितोऽपरेणाङ्कारवशाय एषयति पिण्डं स तस्य मानपिण्डः । अत्र च क्षुल्लकोदाहरणं-गिरिपु॥१३४||
पिते नगरे सिंहाभिधानाः सूरयः सपरिवाराः समाययुः, अन्यदा च तत्र सेवकिकाक्षणः समजनि, तस्मिंश्च दिवसे सूत्रपौरुष्यनन्तरमेकर तरुणश्रमणानां समवायोऽभवत् , बभूव च परस्परं समुल्लापः, तत्र कोऽप्यवादीत-को नामतेषां मध्ये मातरेव सेवकिका आनेष्यति तत्र गुणचन्द्राभिधः क्षुलकः प्रत्यवादीद्-अहमानेष्यामि, ततः सोऽभाणीन्-यदि ताः सर्वसाधूनां न परिपूर्णा घृतगुडरहिता वा ततो न
ताभिः प्रयोजन, तस्माययवश्यमानेतव्यास्ताहि परिपूर्णा घृतगुडसम्मिश्राश्चानेतव्याः, क्षुल्लक आह-याशीस्त्वमिच्छसि तादृशीरानेBण्यामि, एवं च कृत्वा प्रतिज्ञां नान्दीपात्रमादाय भिक्षार्थ निर्जगाम, प्रविष्टश्च कापि कौटुम्बिकगृहे, दृष्टाव तत्र प्रचुराः सेवकिकाः, घृत
गुडादीनि च प्रभूतानि प्रगुणीकृतानि, ततोऽनेकधा वचनभङ्गीभिः सुलोचनाभिधाना कौटुम्बिकगृहिणी याचिता, तया च सर्वथा पतिपिद्धो-न किमपि ते ददामीति, ततः सञ्जातामर्षेण वभणे क्षुलकेन-नियमादिमा: सेपकिकाः सवृतगुडा मया गृहीतव्याः, मुलोचनाऽपि| सामर्प क्षुल्लकवचः श्रुत्वा सखातप्रकोपा प्रत्युवाच-यदि त्वमेतासां सेवकिकानां किमपि लभसे ततो मे नासापुटे खया प्रस्रवणं कृतमिति ।। ४ ॥१३४॥ ततः क्षुल्लकोऽचिन्तयद्-अवश्यमेतन्मया विधातव्यम् , एवं च विचिन्त्य गृहान्निययो, पपच्छ चकस्यापि पायें-कस्पेदं गृहम् ? इति, सोऽवादी-विष्णुमित्रस्य, ततः पुनरपि क्षुल्लकः पृच्छति-स इदानीं क वर्तते , तेनोक्तं-पपदि, ततः पर्षदि गवा सहर्ष इस पर्पजनान्
दीप
अनुक्रम [५०३]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५०३] » “नियुक्ति: [४६५] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४६५||
पृष्टवान्-भो ! युष्माकं मध्ये को विष्णुमित्रः', जना अबादिषुः-कि साधो ! तब तेन प्रयोजनं ?, साधुस्वोचत्र-तं किमपि याचिष्ये स च तेषां सर्वेषामपि मायो भगिनीपतिरिति सहासं तैरवाचि-कृपणोऽसौ न ते किमपि दास्पतीत्यस्मानेव याचस्व, ततो विष्णुमित्रो |मा मेऽपभ्राजना भूदिति तेषामग्रतः कृत्वा वभाण-अहं भो ! विष्णुमित्रोऽई याचस्व मां किमपि, मा केलिवचनममीपां कणे कापी, ततोऽवादीत् क्षुल्लका-याचेऽहं यदि त्वं महेलाप्रधानानां पण्णां पुरुषाणामन्यतमो न भवति, ततः पर्पजना अवादिषः-के ते पट् पुरुषा महेलाप्रधाना ? येषामन्यतमोऽयमाशङ्कायते, ततः क्षुल्लक आह-श्वेताङ्गलिवकोडायक: किङ्करः सायकः धइवरिङ्गी हदझ इति, एतेषां ॥ |च पण्णामपि कथानकान्यमूनि-कचिद्रामे कोऽपि पुरुषो निजभार्याच्छन्दानुवर्ती, स च पातरेव जातयुमुक्षो निजभार्गी भोजनं याचते,18
सा च वदति-नाहमालस्येनोस्थातुमत्सहे ततस्त्वमेव समाकर्ष चुल्या भस्म प्रक्षिप तत्र प्रातिश्मिकगृहादानीय वहि प्रज्यालय तमिन्धनक्षेपेण समारोपय चुल्याः शिरसि स्थाली, एवं यावत्यक्त्वा कथप, ततोऽहं परिवेषयामीति, स च तयैव प्रतिदिवसं कुरुते, ततो लोकेन मातरेवास्य चुल्या भस्मसमाकर्षणेन चेतीभूताङ्गुलिदर्शनात्सहासं श्वेताङ्गुलिरिति नाम कृतम् , एष श्वेताङ्गुलिः । तथा कचिदामे कोऽपि पुरुषो निजभायोमुखदर्शनसुखलम्पटस्तदादेशवी, अन्यदा तया भार्यया बभणे-यथाऽहमालस्पेन भक्का, ततस्त्वमेवोदक ।
तडागादानय, स च देवताऽऽदेशमिव भार्याऽऽदेशमभिमन्यमानः प्रतिवदति-यदादिशसि प्रिये ! तदहं करोमि, ततो दिवसे मा लोको बामा द्राक्षीदिति रात्रौ पश्चिमयामे समुत्थाय प्रतिदिवसं तडागादुदकमानयति, तस्य च तत्र गमनागमने कुर्वतः पदसश्चारशब्दश्रवणतो | घटभरणबुद्धदशब्दश्रवणतश्च तडागपालीक्षेषु प्रमुप्ता बका उत्थायोड्डीयन्ते, एप च वृत्तान्तो लोकेन विदितः, ततोऽस्पार्थस्य सूचनार्थ हासेन बकोट्टायक इति नाम कृतं, एष बकोड्डायकः । तथा कचिद्वापे कोऽपि पुरुषो भार्यास्तनजयनादिस्पर्शलम्पटो भाच्छिन्दानुवती, सच
दीप
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अनुक्रम [५०३]
0000004
SAREILLEGunintentiaTASHREE
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५०३] » “नियुक्ति: [४६५] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४६५||
पिण्डनियु तेर्मलयगिरीयातिः ॥१३॥
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मातरेवोत्थाय कृताञ्जलिपग्रहो वदति-दयिते ! किं करोमि!, सा च बदति-तडागादुदकमानय, ततो यस्त्रिया समादिशतीत्युदित्वा उत्पादनातहागादुदकमानयति, पुनरपि भणति--किं करोमि पाणेश्वरि !, सा वदति-कुसूलादाकृष्य तण्डलान कण्डय, एवं यावद्भोजनादूर्वं मम || या मानपिपादान प्रक्षाल्य घृतेन फाणयेति, स च सर्व तथैव करोति, तत एवं लोकेन ज्ञात्वा तस्य किङ्कर इति नाम निवेशित, एप किङ्करःण्डे दृष्टान्तः तथा कचिद्रामे कोऽपि पुरुषो भार्याऽऽदेशवती, स चान्यदा निजभार्यामवादीत्-प्राणेश्वरि ! स्नातुमहमिच्छामि, तयोक्तं-ययेवं तद्यो-18 मलकान् शिलायां वय परिधेहि सानपोतिको अभ्यङ्गय तैलेनात्मानं गृहाण च घट ततस्तडागे स्नास्वा घटं च जलेन भृत्वा समागच्छेति, स च देवताशेषामिय भार्याऽऽदेशं शिरसि निधाय तथैव करोति, एवं च सर्वदैव, ततो लोकेनास्यार्थस्य प्रकटनार्थे हासेनास्य नायक इति नाम कृतं, एप स्नायकः । तथा कचिद्धामे कोऽपि पुरुषो भार्याऽऽदेशविधायी, अन्यदा च सा रसवत्यामासने समुपविष्टा | वर्तते, सा च तेन भोजनमयाचि, तयोक्त-मम समीपे स्थालमादाय समागच्छेः, सोऽपि यत्मियतमा समादिशति तन्मे प्रमाणमिति बुवंस्तस्याः समीपे गतः, तया परिवेपितं भोजन, तत उक्तं-भोजनस्थाने गत्वा भुइक्ष्व, ततः स भोजनस्थानं गत्वा भोक्तुं मत्तः, ततः पुनरपि तेन तीमनं याचितं, सा च प्रत्युवाच-स्थालमादाय मम समीपे समागच्छेः, ततः स गृध्र इव उत्कटिको रिजन स्थालेन गृही-1 तेन याति, एवं तक्रादिकमपि गृहाति, तत एतल्लोकेन ज्ञात्वा हासेन गृध्रावरिङ्गीति नाम कृतं, एप गृधइवरिङ्गी । तथा कचिद्दाम || भामुखमलोकनसुखलम्पटस्तदादेशकारी कोऽपि पुरुषः, तस्यान्यदा स्वभार्यया सह विषयसुखमनुभवतः पुत्रो बभूव, सच पाळनक ॥१३॥ एव स्थितोऽतिबालत्वात पुरीपमुत्सृजति, तेन च पुरीषेण पालनकं बालवस्त्राणि च खरण्ठ्यन्ते, ततः सा भणति-बालस्य पुते प्रक्षालय पालनकं वालवस्त्राणि च, ततो यलिया समादिशति तत्करोमीति वदैस्तथैव करोति, एवं सर्वदैव, ततो लोकेनैवद् ज्ञात्वा हदनं प्रक्षाल
अनुक्रम [५०३]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५०३] » “नियुक्ति: [४६५] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४६५||
यितुं वालस्य जानातीतिकृत्वा हदज्ञ इति नाम तस्य कृतं, एष हदशः । तत एवमुक्ते क्षुल्लकेन सर्वैरपि पर्पजनैरेककालमट्टहासेन इसद्भिरमाणि-क्षुल्लक ! एप षण्णामपि पुरुषाणां गुणानाददाति तन्मैनं महेलाप्रधानं याचिष्ट, विष्णुमित्रोऽवादीत-नाई षण्णां पुरुषाणां समानस्तस्माद्याचस्व मामिति, ततः क्षुलकेनोक्तं-देहि मे घृतगुडसंयुक्ताः पात्रभरणप्रमाणाः सेवकिकाः, विष्णुमित्रेणोक्तं-ददामि, ततः चलकं गृहीत्वा निजगृहाभिमुखं चलितवान, समागतो निजगृहद्वारे, ततः क्षुल्लकेनामाणि-प्रथममपि तव गृहे समागतोऽहमासं परं तव ||3|| भार्यया प्रतिज्ञा ब्यधायि यथा न किमपि ते दास्यामि, तत इदानीं ययुक्तं तत्समाचर, तत एवमुक्ते विष्णुमित्रोऽवादीत्-यद्येवं तर्हि क्षणमात्रमेव गृहद्वारेऽवतिष्ठस्त्र पश्चादाकारयिष्यामि, ततः प्रविष्टो गृहमध्ये मित्रः, पृष्टा च तन निजभार्या-यथा राद्धाः सेवकिकाः प्रगुणीकृतानि घृतगुढादीनि !, तयोक्त-कृतं सर्व परिपूर्ण, ततो गुई प्रलोक्य स्तोक एष गुडो नैतावता सरिष्यतीति मालादानय प्रभूतं |
गुढं येन द्विजान् भोजयामीति, ततः सा तद्वचनादारूढा मालं अपनीता तेन निःश्रेणिः, तत आकार्य क्षुल्लकं पात्रभरणप्रमाणा ददौ तस्मै हासेवकिकाः घृतगुडादीनि च दातुमारब्धानि, प्रान्तरे गुढमादाय सुलोचना मालादुत्तरित पत्ता परं न पश्यति निःश्रेणि, ततो विस्मितदृष्टया प्रसरं याबदालोकते तावत्पश्यति क्षुल्लकाय घृतगुडसंयुक्ताः सेवकिका दीयमानाः, ततोऽहमनेन शुलकेनाभिभूतेत्यभिमानपूरितहृदया माऽस्मै देहि माऽस्मै देहीति महता शब्देन पूरकुरुते, क्षुलकोऽपि तस्याः सम्मुखमवलोक्य मया तव नासिकापुटे मूत्रितमिति : निजनासापुटेऽडल्यभिनयेन दर्शयति, दर्शयित्वा च भृतघृतगुडसेवकिकापात्रो जगाम निजवसताविति । एतदेव रूपकाष्टकेन दर्शयति
इट्टगछणमि परिपिडियाण उल्लाव को णु हु पगेव । आणिज्ज इटगाओ ? खुड्डो पच्चाह आणेमि ॥ ४६६ ॥ जइवि य ता पज्जत्ता अगुलघयाहिं न ताहि णे कजं । जारिसियाओ इच्छह ता आणेमित्ति निक्खंतो ॥४६७॥
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अनुक्रम [५०३]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५०५] » “नियुक्ति: [४६७] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
तर्मकयगि
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४६५||
पिण्डनियु- ओहासिय पडिसिद्धो भणइ अगारि अवस्सिमा मझं । जइ लहसि तोतं मे नासाए कुणसु मोयंति[सा आह]॥४६८॥ उत्पादना
यांदोषमाकरस घर पुच्छिऊणं परिसाए अमुउ कइरो पुच्छित्तु । किं तेणऽम्हे जायसु सो किविणो दाहिइ न तुज्झ ॥४६९॥ रौयावृत्तिः
सुसा विणा दाहिन तु॥४६॥यायामाषादाहित्ति तेण भणिए जइ न भवसि छोहमसि पुरिसाणं । अन्नयरो तो तेऽहं परिसामझमि पणयामि ॥४७॥ दभूतिः ॥१३६॥
सेयंगुलि बगुड्डावे, किंकरे पहायए तहा । गिडावरंखि हद्दन्नए य पुरिसाहमा छाउ ॥ ४७१॥ जायसु न एरिसोऽहं इट्टगा देहि पुबमइगंतुं । माला उचारि गुलं भोएमि दिएत्ति आरूढा ॥ ४७२ ॥ सिइअवणण पडिलाभण दिस्सियरी बोलमंगुली नासं । दुण्हेगयरपओसो आयविवत्तीय उड्डाहो ॥ ४७३ ॥
व्याख्या-मुगम, नवरं 'इट्टगणमि' सेवकिकाक्षणे 'पगेवेति प्रभाते एव 'मोय ति मूत्रणं 'प्रणयामि' इति याचे, 'सिइहनाभवणण 'त्ति निःश्रेण्यपनयन, इत्थम्भूतश्च मानपिण्डो न ग्राह्यः, यतो द्वयोरपि दम्पत्योः प्रद्वेषो भवति, ततस्तद्न्यान्यद्रन्पव्यवच्छेदः ।
कदाचिदेकतरस्य ततस्तत्रापि स एव दोषः । अपि च-सैवमपमानिता कदाचिदभिमानवशादास्मविपत्तिं कुर्यात, तत उडाह-प्रवचनमालिन्य । उक्तो मानपिण्डदृष्टान्तः, सम्पति मायापिण्टष्टान्तमाह
रायगिहे धम्मरुई असाडभूई य खुड्डुओ तस्स । रायनडगेहपविसण संभोइय मोयए लंभो ॥ ४७४ ॥ आयरियउवज्झाए संघाडगकाणखुज्जतद्दोसी । नडपासणपज्जत्तं निकायण दिणे दिणे दाणं ॥ ४७५ ॥
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अनुक्रम [५०५]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [५१४] » “नियुक्ति: [४७६] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४७६||
धूयदुए संदेसो दाणसिणेह करणं रहेगहणं । लिंग मुयत्ति गुरुसिह विवाहे उत्तमा पगई ॥ ४७६ ॥ रायघरे य कयाई निम्महिलं नाडगं तडागत्था । ता य विहरति मत्ता उवरि गिहे दोवि पासुत्ता ॥ ४७७ ॥ वाघाएण नियत्तो दिस्स विचेला विराग संबोही । इंगियनाए पुच्छा पजीवणं रहवालंमि ॥ ४७८ ॥ इक्खागवंस भरहो आयंसघरे य केवलालोओ । हाराइखिवण गहणं उवसा न सो नियत्तोत्ति ॥ ४७९ ॥ तेण समं पव्वइया पंच नरसयत्ति नाडए डहणं । गेलन्न खमग पाहुण थेरा दिवा य बीयं तु ॥ ४८० ॥
व्याख्या-राजगृहं नाम नगरं, तब सिंहरयो राजा, विश्वकर्मा नाम नटः, तस्य द्वे दुहितरौ, ते चढे अप्यतिमुरूपे अतित्रयाते || 15 वदनकान्त्या दिनकरकरोझासितकमलश्रियं नयनयुगलेन सचञ्चरीककुवलययुगलं पीनोन्नतनिरन्तरपयोधरयुगलेन संहततालफलयुगल-1
लक्ष्मी वायुगलेन पलवलता त्रिवलिभतरेण मध्यभागेनेन्द्रायुधमध्यं जघनविस्तरेण जाह्नवीपुलिनदेशं ऊरयुगलेन गजकलभनासाभोग
जवायुगलेन कुरुविन्दवृत्तसंस्थितं चरणयुगलेन कूर्मदेहाकृतिं सुकुमारतया शिरीषकुसुमसञ्चयं वचनमधुरतया वसन्तमासोन्मत्तकोकिलाहारब, अन्यदा च तत्र यथाविहारक्रम समाययुर्धर्मरुचयो नाम सूरयः, तेषामन्तेवासी प्रज्ञानिधिराषाढभूतिः, स भिक्षार्थमटन् कथमपि विश्वकर्मणो नटस्य गृहे प्राविशत् , तत्र च कन्धः प्रधानो मोदका, द्वारे च विनिर्गत्य तेन चिन्तितम्-एष सूरीणां भविष्यति, तत || आत्मार्थ रूपपरावर्तमाधायान्यं मोदकं मार्गयामि, ततः काणरूपं कृत्वा पुनः प्रविष्टो, लग्धो द्वितीयो मोदका, ततो भूयोऽपि चिन्तितम्एष उपाध्यायस्य भविष्यति, ततः कुब्जरूपमभिनिर्त्य पुनरपि प्रविष्टः, लम्धस्तृतीयो मोदकः, एष द्वितीयसकाटकसापोर्भविष्यतीति ।
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अनुक्रम [५१४]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [५१८] » “नियुक्ति: [४८०] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४८०||
पिण्डनियु-विचिन्त्य कुष्टिरूपं कृत्वा चतुर्थवेलायां पविष्टः, लब्धश्चतयों मोदकः, एतानि च रूपाणि कुर्वन् मालोपरिस्थितेन विश्वकर्मणा नटेन ददृशे, उत्पादनायां तर्मकयगि- चिन्तितं चानेन सम्पगेपोऽस्माकं मध्ये नटो भवति, परं केनोपायेन सहीतव्य इति, एवं च चिन्तयतः समुत्पन्ना तस्य शेमुषी-|| मायायामारीयावृत्तिः दुहितभ्यां क्षोभयित्वा ग्रहीतव्य इति, ततो मालादुत्तीर्य सादरमाकार्याऽऽपादभूति: पात्रभरणप्रमाणैर्मोदकैः प्रतिलाभितः, भणितश्च सादरं- पाढभूतिः
भगवन् ! प्रतिदिवसमस्माकं भक्तपानग्रहणेनानुग्रहोऽनुविधातव्यः, ततो गतः स्वोपाश्रयमापाठभूतिः, अचकथधान्यान्यरूपपरावर्तन॥१३७॥
वृत्तान्तं विश्वकर्मा निजकुटुम्बस्य, भणिते च दुहितरौ यथा सादरं दानस्नेहदर्शनादिना तथा कर्तव्यो यथा युष्माकमायत्तो भवति | मतिदिवसमायाति च भिक्षार्थमाषाढभूतिः, दुहितरौ च तं तथैवोपचरतः, ततोऽत्यन्तमनुरक्तमवगम्य रहसि भणितो-यथा चयमत्यन्तं | मतवानुरक्ताः ततोऽस्मान् परिणीय त्वं परिभक्ष्वेति, अत्रान्तरे च तस्योदयमियाय चारित्रावरणं कर्म गलितो गुरूपदेशः माणेशदिवेको | का
दूरीभूतः कुलजात्यभिमानः, ततस्तेनोक्तम्-एवं भवतु, परमहं गुरुपादान्तिके लिहं विमुच्य समागच्छामि, गतो गुरुसमीपं प्रणतस्तेषां ||पादयुगलं प्रकटितो निजाभिषायः, ततो गुरुभिरवाचि-वत्स : नेदं युष्मादशां विवेकरत्नाकराणामवगाहितसकलशास्त्रार्थानामुभयलोकजुगुप्सनीयं समाचरितमुचितं, तथा “दीहरसीलं परिवालिऊण विसएमु वच्छ ! मा रमम् । को गोपयमि युहइ उयहि तरिऊण वाहादि | ॥१॥" इत्यादि, तत उवाचापाढभूति:-भगवन् ! यथा यूयमादिशथ तथैव केवलं प्रतिकूलकर्मोदयतः प्रतिपक्षभावनारूपकवचदुवे-15 लतया मदनशवरेण निरन्तरं समुत्रस्तमृगनयनरमणीकटाक्षविशिखोपनिपातमादधता शतशो मे जजेरीकृतं हृदयं, एवं चोक्त्या गुरुपादान ॥१७॥ प्रणम्य तदन्तिके रजोहरणं मुक्तवान् , ततः कथमहममीषामनुपकृतोपकारिणामपारसंसारोदधिनिमग्नजन्तुसमुद्धरणकचेतसा सकलजग
१दी शीलं परिपाल्य विषयेषु वत्स ! मारंसीः । को गोष्पदे निमज्जति उदधि बाहुभ्यां तरित्वा ॥१॥
दीप अनुक्रम [५१८]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [५१८] » “नियुक्ति: [४८०] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||४८०||
दीप अनुक्रम [५१८]
त्परमबन्धुकल्पानां गुरूणां पृष्ठं ददामि इति पश्चात्कृतपादमचारो हा ! कथमहं भूयोऽप्येवंविधगुरूणां चरणकमलं प्राप्स्यामि ? इति । विचिन्तयन् वसतेर्विनिर्गत्य विश्वकर्मणो भवनमायातः, परिभावितमस्य सादस्मनिमिपदृष्टया नटदुहितभ्यां वपुः, प्रत्पभासत सकल| जगदाश्चर्यमस्य रूपं, ततोऽचिन्तयतामिमे-अहो ! कौमुदीशशाङ्कमण्डलमिवास्य मनोहरकान्तिवदनं कमलदलयुगलमिव नयनयुगलं || गरुन्मत इव तुङ्गमायतं नाशानालं कुन्दमुकुलश्रेणिरिव मुस्निग्धा दशनपद्धति: महापुरकपाटमिव विशालमस्य मांसलं वक्षास्थलं मृगरिपोरिव संवर्तितः कटिपदेमूः निगूढनानुपदेशं जलायुगलं मुप्रतिष्टितकनककूर्मयुगलमिव चरणयुगलं, ततो विश्वकोऽवोचत्-महा-का |भाग ! तबाऽऽयते । अप्यमू कन्यके ततः स्वीक्रियतामिति, ततः परिणीते ते द्वे अपि तेन कन्यके, भणिते च विश्वकर्मणा-यो नामै-11 तादृशीमप्यवस्थां गतो गुरुपादान् स्मरति स नियमादुत्तमप्रकृतिः, तत एतच्चिचावर्जनार्थ सदैव मद्यपानविरहिताभिर्युष्माभिः स्थातव्यं । अन्यथैष विरक्तो यास्यति, आषाढभूतिश्च सकलकलाकलापपरिज्ञानकुशलो नानाविधैर्विज्ञानातिशयः सर्वेषामपि नटानामग्रणीभूव, लभते च सर्वत्र प्रभूतं द्रव्यं वस्त्राभरणानि च, अन्यदा च राज्ञा समादिष्टा नटा:-अद्य निर्मइलं नाटकं नर्चनीय, ततः सर्वेऽपि नटाः खां स्वां
युवति स्वस्वगृहे विमुच्य राजकुलं गताः, आपाढभूतिभार्याभ्यामपि चिन्तितम्-अद्य राजकुले गतोऽस्माकं भर्ती सकलामपि च रात्रि बागमयिष्यतीति, ततः पिबामो यथेच्छमासवमिति, तथैव कृतं, मदवशाचापगतचेतने विगतबस्ने द्वितीयभूमिकाया उपरि मुले तिष्ठतः ।
राजकुलेऽपि परराष्ट्रदूतः समायात इति राज्ञो व्यालेपो बभूव, ततोऽनवसर इतिकृत्वा प्रतीहारेण मुत्ककिताः सर्वेऽपि नटाः समागताः स्वं स्वं भवनं, आषाढभूतिश्च निजकाबासे समागत्य यावद्वितीयभूमिकामारोहति तावत्ते द्वे अपि निजमायें विगतवस्त्रतया बीभत्से पश्यति, ततः स महात्माऽचिन्तयत्-अहो ! मे मूढता अहो ! मे निर्विवेकता अहो! मे दुर्विलसितं य एतादृशामप्यशुचिकरण्डकभूतानामधोगतिनिवन्धनानां कृते परमशुचिभूतमिहपरलोककल्याणपरम्पराजनकमक्षेपेण मुक्तिपदनिबन्धनं संयम उज्झांबभूव, ततो
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [११८] » “नियुक्ति: [४८०] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४८०||
पिण्डनियु- Masद्यापि न मे किमपि विनष्टम् अपि गच्छामि गुरुपादान्तिक प्रतिपये चारित्रं प्रक्षालयामि पापपङ्कमिति विचिन्त्य विनिर्गतो गृहात, उत्पादनायां तेर्मलयगि-IIरएः कथमपि विश्वकर्मणा, ललित इणितादिना यथा विरक्त एष यातीति, ततः सत्वरं निजदुहितरावस्याप्य निर्भर्ल्सयति-हा! दुरा- मायायामारीयाचिःमिकेदीनपुण्यचतुर्दशीके ! युष्मद्विलसितमेताहशमवलोक्य सकलनिधानभूतो युष्मद्भर्त्ता विरक्तो यातीति तयदि निर्वतयितुं शक्नुथ- पाढभूतिः
स्तर्हि निवर्तयेथां नो चेत् मजीवनं याचध्वमिति, ततस्ताः ससम्भ्रमं परिहितनिवसनाः पृष्ठतः प्रचाप गच्छतः पादयोलमा, वदन्ति ॥१३८॥
च-हा स्वामिन् ! क्षमस्वैकमपराधं निवर्तस्व माऽस्माननुरक्ताः परिहर , एवमुक्तोऽपि स मनागपि न चेतास रज्यते, ततस्ताभ्यामवाचि-1 स्वामिन् ! यद्येवं तर्हि मजीवनं देहि, येन पश्चादपि युष्मत्प्रसादेन जीवामः, तत एवं भवत्विति दाक्षिण्यवशादनुमत्य प्रतिनिहत्तः, ततः कृतं भरतचक्रवर्तिनश्चरितप्रकाशकं राष्ट्रपालं नाम नाटक, ततो विज्ञप्तो विश्वकर्मणा सिंहरथो राजा-देव ! आषाढभूतिना राष्ट्रपालं नाम || नाटकं विरचितं, तत्सम्पति नर्त्यतामिति, परं तत्र राजपुत्रपञ्चशतैराभरणविभूषितैः प्रयोजनं, ततो राज्ञा दत्तानि राजपुत्राणां पश्चश-18 तानां, तानि यथायथमाषाढभूतिना शिक्षितानि, ततः पारब्ध नाटकं नर्तितुं, तत्राऽऽपाढभूतिरात्मनेक्ष्वाकुवंशसम्भूतो भरतश्चक्रवर्ती स्थितो राजपुत्राश्च यथायोगं कृताः सामन्तादयः, तत्र च नाटके यथा भरतेन भरतं षट् खण्डं प्रसाधितं यथा चतुर्दश रत्नानि नव महानिधयः ||३|| माता यथा चाऽऽदर्शगृहेऽवस्थितस्य केवलालोकप्रादुर्भावो यथा च पञ्चशतपरिवारेण सह प्रवज्यां प्रतिपनस्तत्सर्वमप्यभिनीयते, ततो राज्ञा कोकेन च परितुष्टेन सर्वेणापि यथाशक्ति दारकुण्डलादीन्याभरणानि सुवर्णवस्त्राणि च प्रभूतानि सितानि, ततः सर्वजनानां धर्म- ॥१३॥ लाभ मदाय पञ्चशतपरिवार आषाढभूतिर्गन्तुं पावर्त्तत, ततः किमेतत् ! इति राज्ञा निवारितः, तेनोक्तं-किं भरतश्चक्रवर्ती पत्रज्यामादाय निवृत्तः । येनाहं निवः इति गतः सपरिवारो गुरुसमीप, वस्त्राभरणादिकं च समस्तं निजभार्याभ्यां दत्तवान्, तच्च मजीवनकं किल
दीप अनुक्रम [५१८]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [११८] » “नियुक्ति: [४८०] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४८०||
दीप अनुक्रम [५१८]
तयोर्जातं, गृहीता दीक्षा, तदपि च नाटकं विश्वकर्षणा कुसुमपुरे नतिनुपारब्ध, तत्रापि पञ्चशतसङ्ख्याः क्षत्रियाः प्राण्यां गृहीतवन्तः, ततो लोकेन चिन्तितम्-एवं क्षत्रियाः प्रव्रजन्तो निःक्षत्रियां पृथिवीं करिष्यन्तीति नाटकपुस्तकमा प्रवेशितं । सूर्य सुगम, नवरं 'रायन-16 डगेहपवेसणं ति राजविदितो यो नटो विश्वकर्मा तस्य गृह प्रवेशा, 'त्वदोषी ' कुष्ठी, उपसर्गः-ज्याग्रहणे निवारण, दहनं नाटकपुस्तकस्य । अत्रैवापवादमाह-'गेलने 'त्यादि, ग्लानो-मन्दः, 'क्षपक: 'मासक्षपकादिः, 'मापूर्णक: ' स्थानान्तरादायातः, 'स्थविर वृद्धा, आदिशब्दात्सहकार्यादिपरिग्रहः, तेषामर्थाय द्वितीयमपवादपदमिति भावः, सेव्यते-खानायनि यो मायापिण्डोऽपि ग्राह्य इत्यर्थः ।
उक्तं मायाद्वारम् , अथ लोभद्वारमाहII लभतंपि न गिण्हइ अन्नं अमुगंति अज्ज घेच्छामि । भदरसंति व काउं गिण्हइ खई सिणिद्वाई ॥ ४८१ ॥
___ व्याख्या-अधाहममुक सिंहकेसरादिक ग्रहीष्यामीति बुद्धयाऽन्यदल्लचनकादिकं लभ्यमानमपि यन्न गृह्णाति, किन्नु त देवेप्सितं, स
लोभपिण्डः । अथवा पूर्व तथाविधबुद्धधभावेऽपि यथाभावं लभ्पमानं 'ख' प्रचुर 'निम्बादि' लानश्रीपति भाकरसमितिकस्वा कायद्हाति स लोभपिण्डः । तत्र प्रथमभेदमाश्रित्योदाहरणं गाथाद्वयेनाह
चंपा छणमि घिच्छामि मोयए तेवि सीहकेसरए । पडिसेह धम्मलाभ काऊणं सीहकेसरए ॥ ४८२ ॥ सडरत्तकेसरभायण भरणं च पुच्छ पुरिमड़े । उवओग संत चोयण साहुत्ति विगिचणे नाणं ॥ ४८३ ॥ व्याख्या-चम्पा नाम पुरी, तत्र सुव्रतो नाम साधुः, अन्पदा च तत्र मोदकोत्सवः समजनि, तस्पिच दिने सुबतोऽचिन्तयत्
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आगम
(४१/२)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||४८३||
दीप
अनुक्रम [५२१]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [५२१] • → “निर्युक्तिः [४८३] + भाष्यं [ ३४ ...] + प्रक्षेपं [५... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
८०
पिण्डनिर्यु- 8 अद्य मया मोदका एव ग्रहीतव्याः, तेऽपि सिंहकेसरकाः, तत इत्थं सम्प्रधार्य भिक्षां प्रविष्टो लोलुपतयाऽन्यत्मतिषेधेन सिंहकेसरमोदकांचाल - क्तेर्मलयगि- 8भमानस्तावत्परिभ्रमति स्म यावत्सार्द्धं महरद्वयं, ततो न लब्धा मोदका इति प्रनष्टचित्तो बभूव ततो गृहद्वारे प्रविशन् वक्तव्यस्य धर्मलाभस्य यावृत्तिः स्थाने सिंहकेसरा इति वदति, एवं च सकलमपि दिनं भ्रान्त्या रात्रौ तथैव परिभ्रमन् प्रहरद्वयसमये श्रावकस्य गृहे प्रविवेश, धर्मलाभभणनस्थाने सिंहकेसरा इत्युवाच सोऽपि च श्रावकोऽतीव गीतार्थी दक्षश्व, तवस्तेन परिभावयामासे--- नूनमेतेन क्वापि न लब्धाः ॥१३९॥ ॐ सिंहकेसरा मोदका इति चित्तमस्य प्रनष्टं ततस्तस्य चित्तसंस्थापनाय सिंहकेसराणां भृतं भाजनमुपढौकितं, भगवन् ! मतिगृहाण सर्वा नप्येतान सिंहकेसरमोदकानिति, सुव्रतेन च परिगृहीताः, ततः स्वस्थीभूतं तस्य चित्तं, श्रावकेण चोक्तं--भगवन् ! अब मया पूर्वार्द्धः प्रत्याख्यातः स किं पूणों न वा ? इति, ततः सुत्रत उपयोगमूर्ध्वं दत्तवान, पश्यति गगनमण्डलमनेकतारानिकरपरिकरितमर्द्धरात्रोपलक्षितं, ततो ज्ञातवानात्मनो भ्रमं, हा ! मूढेन मया विरूपमाचरितं धिग् मे लोभाभिभूतस्य जीवितं भोः आवक ! सम्यक् कृतं त्वया यदहं सिंहकेसरप्रदानपूर्व पूर्वार्द्धमत्याख्यानपरिपूर्णताप्रश्नेन संसारे निमज्जन् रक्षितः, सती मे तब चोदना, तत आत्मानं निन्दन् विधिना च मोदकान् परिष्ठापयन् तथा कथमपि ध्यानानलं प्रज्वालयितुं प्रवृत्तः यथा क्षणमात्रेण सकलान्यपि घातिकर्माण्युवोप, ततः प्रादुर्भूतं वस्य केवलज्ञानम् | सूत्रं सुगमम् । उक्तं लोभद्वारम् अथ संस्तवद्वारमाह
दुविहो उ संघवो खलु संबंधीवयणसंथवो चेव । एक्केकोवि य दुविहो पुचि पच्छा य नायव्त्रो ॥ ४८४ ॥ व्याख्या - द्विविधः खलु संस्तवः, तद्यथा - परिचयरूपः श्लाधारूपथ, तत्र परिचयरूपः सम्वन्धिसंस्तवः श्लाघारूपो वचनसं
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उत्पादना
यां लोभ
पिण्डे सुत्रतोदा०
॥१३९॥
yor
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||४८४||
दीप
अनुक्रम
[ ५२२]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [५२२ ] • → “निर्युक्तिः [४८४] + भाष्यं [ ३४ ...] + प्रक्षेपं [५... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
८०
स्तवः । तत्र सम्बन्धिनो मात्रादयः श्वश्रूवादयश्च तद्रूपतया यः संस्तवः स सम्बन्धिसंस्तवः वचनं श्लाघा तद्रूपो यः संस्तवः स वचनसंस्तवः, एकैकोऽपि च द्विधा, तथथा - 'पुवि पच्छा य'त्ति पूर्वसंस्तवः पश्चात्संस्तवञ्च । तत्र सम्बन्धिसंस्तवस्य द्विविधस्यापि स्वरूपमाह
मायपिइ पुव्वसंथव सासूसुसराइयाण पच्छा उ । गिहि संथवसंबंधं करेइ पुव्वं च पच्छा वा ॥ ४८५ ॥
व्याख्या--मातापित्रादिरूपतया यः संस्तत्रः- परिचयः स पूर्वसंस्तवो, मात्रादीनां पूर्वकालभावित्वात्, यस्तु श्वश्रूश्वशुरादिरूपतया संस्तवः स पश्चात्संस्तत्रः श्वश्वादीनां पश्चात्कालभावित्वात्, तत्र साधुभिक्षार्थं प्रविष्टः सन् गृहिभिः सह 'संस्तवसम्बन्धं परिचयघटनं 'पूर्व' पूर्वकालभावि मात्रादिरूपतया 'पञ्चाद्वा' पश्चात्कालभावि श्वश्रवादिरूपतया वा करोति । कथम् ? इत्याह
आयवयं च परवयं नाउं संबंध तयणुरुवं । मम माया एरिसिया ससा व धूया व नत्ताई ॥ ४८६ ॥
व्याख्या - इह साधुर्भिक्षार्थं गृहे प्रविष्टः सन्नाहारलम्पटतयाऽऽत्मत्रयः परवयश्च ज्ञात्वा ' तदनुरूपं ' वयोऽनुरूपं सम्बध्नाति, यदि सा वयोवृद्धा स्वयं च मध्यमवयाः ततो ममेदृशी माताऽभूदिति ब्रूते, यदि पुनः साऽपि मध्यमवयास्तत ईदृशी मम स्वसाऽभूदिति वदति, अथ बालवयास्ततो दुहिता नप्ता वेत्यादि । सम्मत्यस्यैव पूर्वरूपसम्बन्धिसंस्तवस्योदाहरणमाह
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अडिइ दिडपण्हव पुच्छा कहणं ममेरिसी जणणी । थणखेवो संबंधो विहवासुण्हाइदाणं च ॥ ४८७ ॥ व्याख्या -कोऽपि साधुर्भिक्षार्थं प्रविष्टः काञ्चिन्निजमातृसमानां स्त्रियमवेक्ष्याऽऽहारादिलम्पटतया मातृस्थानेनावृत्या दृष्टिप्रस्न
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [५२५] » “नियुक्ति: [४८७] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४८७||
दीप
पिण्डनियु-नवम्-ईपदश्रुविमोचनं करोति, ततः 'पुच्छ नि सा स्त्री पृच्छति, किं त्वमधृतो दृश्यसे ? इति, ततः साधोः कथन-मम 'ईशी ' त्वत्स-II
उत्पादनातेर्मळयगि- शी जनन्यभूदिति । अत्र दोषानाह-ततस्तया मातृत्वपकटनार्थ साधुमुखे स्तनपक्षेपः क्रियते, परस्परं च सम्बन्धः स्नेहबुद्धिरूपो जायते, यांसं. रीयावृत्तिः । तथा विधवास्नुषादिदानं च करोति-मृतपुत्रस्य स्थानेऽयं मे पुत्र इति बुद्धचा स्वस्नुपादानं कुर्यात, आदिशब्दात् स्नेहवशतो दास्पादिदान ।
स्तवदोषः च, उक्तं पूर्वसम्बन्धिसंस्तवोदाहरणं, एवं पश्चात्सम्बन्धिसंस्तवोदाहरणमपि भावनीयं । सम्पति पुनः पश्चात्सम्बन्धिसंस्तत्रे दोषानाइ॥१४॥
पच्छासंथवदोसा सासू विहवादिधूयदाणं च । भज्जा ममेरिसिच्चिय सज्जो घाउ बयभंगो वा ॥ ४८८ ॥
व्याख्या-पवात्सम्बन्धिसंस्तवयिमे दोषा: श्वश्रूरीदृशी ममाऽसीदित्युक्ते सा विधवाया आदिशब्दास्कुरण्डादिरूपायाः सुताया| दानं करोति, तथा भार्या ममेदृश्यभवदिल्युक्ते यदीालुस्तद्भर्चा समीपे च वर्तते तदा मम भार्याऽनेन स्वभार्या कवितेति विचिन्त्य साधो-11
तं कुर्यात् , अालुस्तदा न भवति समीपे वा न वर्तते तदा भार्याऽहमनेन कल्पितेत्युन्मना भार्येव समाचरंती चित्तक्षोभमापादियेत, ततो व्रतभङ्गः । एवं तावत्पूर्वसम्बन्धिसंस्तवस्प पश्चात्सम्बन्धिसंस्तवस्य च प्रत्येकमसाधारणान् दोषानभिधाय सम्पत्युभयोरपि । साधारणानभिधित्सुराह
॥१४॥ मायावी चडुयारी अम्ह ओहावणं कुणइ एसो । निश्छु भगाई पंतो करिज्ज भद्देसु पडिबंधो ॥ ४८९ ॥
व्याख्या-अधृतिदृष्टिमस्नवादि कुर्वन्मायावी एषोऽस्माकमावर्जनानिमित्तं चाटूनि करोतीति निन्दा, तथाऽस्माकं स्वस्थ कार्पटि-18 कायस्य जनन्पादिकल्पनेनापभ्राजनं विधत्ते, ततः एवं विचिन्त्य प्रान्तः स्वगृहनिष्काशनादि करोति, अब ते गृहिणो भद्रा भवेयुस्तहि ||
अनुक्रम [५२५]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [१२६] » “नियुक्ति: [४८९] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४८९||
दीप
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तेषु भद्रेषु साधोरुपरि प्रतिबन्धो भवेत् , प्रतिबन्ये च सत्पात्राकादिक कृत्वा दयादिति । उक्तो द्विविधोऽपि सम्बन्धिसंस्तवः, अथ वचनसंस्तवस्य पूर्वरूपस्य लक्षणमाह-- | गुणसंथवेण पुचि संतासंतेण जो थुणिजाहि । दायारमदिन्नमी सो पुविसंथवो हवइ ॥ ४९० ॥
व्याख्या-गुणाः । औदार्यादयः तेषां यः 'संस्तवः' मसारूयो वचन सङ्घरतस्तेन सत्यरूपेणासत्यरूपेण वा यः साधुर्दातव्ये भक्तादावदचे सति दातारं स्तूयात, स एप पूर्वसंस्तयो भवति । अस्पैचोल्लेखं दर्शयतिएसो सो जस्स गुणा वियरंति अवारिया दस दिसासु । इहरा कहासु सुणिमो पञ्चखं अज्ज दिट्ठोऽसि ॥४९॥1 व्याख्या-मुगर्म, नवरम् ‘इहरा' इतस्था, इदानी दर्शनात् पूर्वमित्यर्थः । सम्मति पश्चाद्रूपस्य वचनसंस्तवस्य लक्षणमाह
गुणसंथवेण पच्छा संतासंतेण जो थुणिज्जाहि । दायारं दिन्नंमी सो पच्छासंथवो होइ ॥ ४९२ ॥ व्याख्या-दचे भक्तादौ सति पवादातारं गुणसंस्तवेन सत्यरूपेणासत्यरूपेग वा यः साधुः स्तूयात् एव पश्चात्संस्तवो भवति । सम्पत्यस्यैवोल्लेखं दर्शयतिविमली कयऽम्ह चक्खू जहत्थया वियरिया गुणा तुझं । आसि पुरा मे संका संपय निस्संकियं जायं ॥ ४९३ ॥ व्याख्या-भिक्षार्थ प्रविष्टः साधुर्लब्धे भक्तादौ दातारं वक्ति यथा निजदर्शनेन त्वया विमलीकृते नवक्षुषी, तथा यथार्थास्तव
अनुक्रम [५२६]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [५३१] .→ “नियुक्ति: [४९३] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
उत्पादनायाँ ११ से | स्तवदोषः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४९३||
दीप
पिण्डनियु- गुणाः सर्वत्रापि विचरिताः, तथा 'पुरा' पूर्व मे शङ्काऽऽसीत-या गुणः श्रूयते स कि तादृशः एवोतान्यादृश इति ?, सम्पति तु तेर्मकपगि- त्वयि दृष्टे निम्शङ्कितं मे हृदयं जातम् ।। उक्त संस्तवद्वारम् , अथ विद्यामन्त्राख्यं द्वारमाहरीयादृचिन
विज्जामतपरूवण विज्जाए भिक्खुवासओ होइ । मंतमि सीसवेयण तत्थ मुरुंडेण दिलुतो ॥ ४९४ ॥ ॥१४॥ व्याख्या-विद्यामन्त्रयोः प्ररूपणा कर्तव्या, सा चैव-ससाधना स्त्रीरूपदेवताधिष्ठिता वाऽक्षरपद्धतिर्विद्या, असाधना पुरुषरूप
देवताधिष्ठिता वा मन्त्रा, 'तस्थ 'चि तत्र विद्यायां भिक्षूपासको दृष्टान्तः, मन्त्र शिरोवेदनायां मुरुण्डेन राशोपलक्षितः पादलिप्तसूरिः। तत्र भिक्षूपासकदृष्टान्तं गाथाद्वयेन भावयति
परिपिडियमुल्लावो अइपंतो भिक्खुवासओ दावे । जइ इच्छह अणुजाणह घयगुलवत्थाणि दावेमि ॥ ४९५ ॥ | गंतुं विज्जामंतण किं देमि ? घयं गुलं च वत्थाई । दिन्ने पडिसाहरणं केण हियं केण मुट्ठोमि ॥ ४९६ ॥
___ व्याख्या-गन्धसमृडे नगरे धनदेवो नाम मिथुपासकः, स च साधुभ्यो भिक्षार्थ गृहे समागतेभ्यो न किश्चिदपि ददाति, अन्यदा च तरुणश्रमणानामेकत्र परिपिण्डितानां परस्परमुल्लापः, तत्रैकेनोक्तम्-अतिप्रान्तोऽयं धनदेवः संयतानां न किमपि ददाति, तदस्ति कोऽपि साधुर्य एनं घृतगुडादिकं दापयति, ततस्तेषां मध्ये केनाप्यूचे-यदीच्छथ ततोऽनुजानीवं मां येनाई दापयामि, तैरनुज्ञातः, ततो गतस्तस्य गृहमभिमन्त्रितो विधया, ततो ब्रूते साधून-किं प्रयच्छामि !, तैरुक्तं-घृतगुडवखादि, ततो दापितं तेन संयतेभ्यः प्रचुरं घृतगुडादिकं, तदनन्तरं च प्रतिसंहता क्षुलकेन विद्या, जातः स्वभावस्थो भिलपासकः, ततो यावन्निभाळ्यति घृतादिकं तावत्स्तोकं पश्यति, ततः केन|
अनुक्रम [५३१]
॥१४॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [५३४] » “नियुक्ति: [४९६] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||४९६||
मे हृतं घृतादि ? केनाह मुषितोऽस्मि ? इति विलपितुं प्रवृत्तः, ततः परिजनेनाक्तं-युष्माभिरेव दापितं संयतेभ्यः सरिक यूयमेवं भणय ?, ततो मौनमवलम्ब्य स्थितः । अत्र दोषानुपदर्शयति| पडिविज्ज थंभणाई सो वा अन्नो व से करिज्जाहि । पावाजीवीमाई कम्मणगारी य गहणाई ॥ ४९७ ॥ ___व्याख्या—यो विद्ययाऽभिमन्त्रितः स च स्वभावस्थो जातः सन् कदाचित्मविष्टोऽन्यो वा तत्पक्षपाती प्रविष्टः सन् प्रतिविद्यया स्तम्भनादि स्तम्भनोचाटनमारणादि कुर्यात् , तथा 'पापाजीविनः' पापेन-विद्यादिना परद्रोहकरणरूपेण जीवनशीला मायिनः शठा । इति लोके जुगुप्सा, तथा कार्मणकारिण इमे इति राजकुले ग्रहणाकर्षणवेषपरित्याजनकदर्थनमारणादि । सम्पति मन्त्रविषये मुरुण्डराजोपलक्षितपादलितोदाहरणमाहजह जह पएसिणी जाणुगंमि पालित्तओ भमाडेइ । तह तह सीसे वियणा पणस्सइ मुरुंडरायरस ॥ ४९८ ॥
व्याख्या-प्रतिष्ठानपुरे मुरुण्डो नाम राजा, पादलिप्ता नाम सूरयः, अन्यदा च मुरुण्डराजस्य बभवातिशयेन शिरोवेदना, न बाकेनापि विद्यामन्त्रादिभिरुपशमयितुं शक्यते, तत आकारिता राज्ञा पादलिप्ताः सूरयः, कृतास्तेषामागतानां महसी प्रतिपत्तिः, कथितंभ
चाकारणकारणं शिरोवेदना, ततो यथा कोको न जानीते तथा मन्त्र ध्यायद्भिः प्रावरणमध्ये निजदक्षिणजानुशिरास पार्थतो निजदक्षिणहस्तपदेशिनी यथा यथा भ्राम्यते तथा तथा राज्ञः शिरोवेदना अपगच्छति, ततः क्रमेणापगता सकलाऽपि शिरोवेदना, जातोऽतिशयेन सूरीणामुपासकः, ततो विपुलं भक्तपानादिकं तेभ्यो दत्तवान् । अत्र दोषानाह
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अनुक्रम [५३१]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५३७] » “नियुक्ति: [४९९] + भाष्यं [३५] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४९९||
उत्पादनायां१२-१३ विद्यामनेयोः साधोर पादकिसस्य |दृष्टान्तो
पिण्डनियु- पडिमंतथंभणाई सो वा अन्नो व से करिज्जाहि । पाबाजीवियमाई कम्मणगारी भवे बीयं ॥ ४९९ ॥ तेर्मळयगि- __व्याख्या-इह कथानके न कोऽपि दोपो जातः, पादलिससूरीगों मुरुग्डराज प्रत्युपकारित्वात् , केवलं प्रागुक्तवियाकथानक इस रीयाचिः मन्त्रेऽपि प्रयुज्यमाने सम्भाव्यन्ते दोषाः ततस्तदुपदर्शनं क्रियते, तत्रेय गाथा पानिव व्यारूपेपा, नवरं 'भो बीयं 'ति पुष्टमालम्बनम
धिकृत्य द्वितीयम्-अपवादपदं भवेत, सहनदिप्रयोजने मन्त्रोऽपि प्रयोक्तव्य इति भावार्थः, एसब विधावामपि द्रष्टव्यम् । उक्त विद्यामकानाख्यं द्वारदपम्, अथ चूर्णयोगमूलकाख्यं द्वारवयमाइ--
चुन्ने अंतहाणे चाणके पायलेवणे जोगे। मूल विवाहे दो दंडिणी उ आयाण परिसाडे ॥ ५..॥
व्याख्या-चूर्णेऽन्त ने-लोके दृष्टिपथतिरोधानकारके दृष्ट्वान्ने चाणक्यविदिती द्वौ क्षुलकी, पादे-बादले नरूपे योगे दृष्टान्ताः समितसूरयः, तथा 'मूले ' मूलकमेणि अक्षतयोनिक्षतयोनिकरणरूपे युवतिय दृष्टान्तः, विवाहवियेऽपि मूलकर्मणि युवतिद्वयमुदाहरणं, तथा गर्भाधानपरिसाटरूपे मूलकर्मणि द्वे 'दण्डिन्यौ ' नृपपल्ल्याबुदाहरणं । तत्र 'चुने अंतद्धाणे चाणके' इत्यस्यवं भाष्यगाथात्रयण व्याख्यानयति
जंघाहीणा ओमे कुसुमपुरे सिरसजोगरहकरणं । खुड्डु दुगंजण सुगणा गमगं देसंतरे सरणं ॥४४॥ (भा.) भिक्खे परिहार्यते थेराणं तेसि ओमि दिताणं । सहभुज्ज चंदगुत्ते ओमोयरियाए दोबल्लं ॥ ४५ ॥ (भा०) चाणक पुच्छ इटालचुण्णदारं विहित्तु धूमे य । दुहुँ कुच्छपसंसा थेरसमीवे उबालंभो ॥ ४६॥ (भा.)
दीप
अनुक्रम [५३७]
भा०३५ भा० ३६ भा० ३७
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१४१] .→ “नियुक्ति: [५००] + भाष्यं [३७] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||३७||
ध्याख्या-कुसुमपुरे नगरे चन्द्रगुतो नाम राजा, तस्य मन्त्री चाणक्यः, तत्र च जलावलारिहीणाः सुस्थिनाभिवाः सूरयः, का अन्यदा च तत्र दुर्भिक्षमपतन, ततः मूरिभिचिन्तितम्-अमुं समृहाभिधानं शिष्य मूरिपदे संस्थाप्प सकलगसमेत मुभिक्षे कापि पेहापयामि, ततस्तस्मै योनिमाभूतमेकान्ते व्याख्यातुमारब्ध, तत्र च क्षुल्लकदयेन कथमपदृश्यीकरणनिवन्धनमञ्जन पारुपायमानं शववे,
यथा अनेनाञ्जनेनाञ्जितचक्षुर्न केनापि दृश्यते इति, योनिमाभृतव्याख्यानसमर्थनानन्तरं च समुद्धाभिरोऽन्नेवासी सीरपद स्थापितः, मुकलितश्च सकलगच्छसमेतो देशान्तरे, स्वयमेकाकिनस्तत्रैवावतस्थिरे सूरयः, कतिस्पदिनानन्तरं चाऽऽचास्नेहतस्तत् क्षुल्लकद्वयमाचार्यसमीपे समाजगाम, आचार्या अपि यत्किमपि भिक्षया लभन्ते तत्सम चिरिच्य (परिभाब्य ) क्षुलकदपेन सह भुञ्जते, तत आहाराप-|| रिपूर्णतया सूरीणां दौर्बल्यमभवत् , ततश्चिन्तितं क्षुलकद्वयेन-अवमोदरता सूरीणां ततो वयं पूर्वश्रुतमञ्जनं कृत्वा चन्द्रगुप्तेन सह भुञ्जावहे । इति, तथैव कृतं, ततचन्द्रगुप्तस्याहारस्तोकतया बभूव शरीरे कृशता, चाणक्पेन पृष्ट-कि ते शरीरदौर, समाद-परिपूर्णाहाराऽला-11 भता, ततचाणक्येन चिन्तितम्-एतावत्याहारे परिवेषयमाणे कथमाहारस्पापरिपूर्णता, तनूनपञ्जनसिद्धः कोऽपि समागल्प राज्ञा सह मुझे, ततस्तेनाअनसिद्धग्रहणाय भोजनमण्डपेऽतीव श्लक्ष्ण इष्टकाचूर्गों विकीणों, दृष्टानि मनुष्पपदानि, ततो निश्चिाये-नून द्वौ पुरुषावञ्जनसिद्धावायातः, ततो द्वारं पिधाय मध्येऽतिबहलो धूमो निष्पादितः, धूपबाधितनयनयोश्च तयोरञ्जन नयनाश्रुभिः सह विगलितं, ततो बभू. वतुः प्रत्यक्षी क्षुल्लकी, कृता चन्द्रगुप्तेनात्मनि जुगुप्सा-अहो ! विटालिनोऽहमाभ्यामिति, ततवाणयेन तरूप समाधाननिमित्तं प्रवचनमालिन्यरक्षार्थ च प्रशंसितो राजा-यथा धन्यस्त्वमसि यो बालब्रह्मचारिमियतिभिः पवित्रीकृत इति, ततो वन्दित्वा मुत्कलिनी द्वावपि शुल्लकी, चाणक्येन रजन्यां वसतावागत्य सूरय उपालम्या:-यथैतौ युवमनल काबुढाई कुरुतः, ततः सूरिभिः स एकोपालपा-पया
दीप
अनुक्रम [५४१]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१४१] .→ “नियुक्ति: [५००] + भाष्यं [३७] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
पिण्डनियु- तर्मकयगि- रीयादृत्तिः ॥१४॥
उत्पादनायां१४ चूमें चालक
गाथांक नि/भा/प्र ||३७||
दीप
त्वमेवात्रापराधकारी?, यो द्वयोरपि क्षुल्लकयोर्न निर्वाहं चिन्तयसि ?, स पाह-भगवन् ! एवमेतदिति पादयोनिपल्य सूरयस्तेन क्षामिताः, कता सकलस्यापि सङ्घस्य तत ऊर्ध्वं यथायोग चिन्ता । सूत्रं सुगमम् । अत्रातिदेशतः साक्षाय दोषानाह
जे विज्जमंतदोसा ते चिय वसिकरणमाइचुन्नेहिं । एगमणेगपओसं कुज्जा पत्थारओ वावि ॥ ५.१ ।।
व्याख्या-4 एवं विद्यायां मन्ये चोक्ता दोषास्त एव वशीकरणादिचूर्णेष्वपि द्रष्टव्याः, सूत्रे च तृतीया सप्तम्यर्थे, तथा चूणे प्रयुज्यमाने एकस्य चूर्णस्य प्रयोक्तुरनेकेषां वा साधूनामुपरि प्रदेष कुर्यात्, ततस्तत्र मिक्षालाभाघसम्भवः, 'पत्थारओ यावि' नाशो || वा भवेत् , अपिः समुच्ये, तदेवं चुन्ने अन्तद्धाणे चाणके' इति व्याख्यातं, तयाख्यानाच चूर्ण इति द्वारं समर्थित । इदानीं 'पायकेवणे जोग' इति व्याख्यानयन्नाह
सूभगदुब्भग्गकरा जोगा आहारिमा य इयरे य । आघसधूववासा पायपलेवाइणो इयरे ॥ ५०२ ॥
व्याख्या-योगाः 'सौभाग्यदौर्भाग्यकराः' जनप्रियत्याभियत्वकराः, ते च द्विधा-आहार्या इतरे च, तत्र 'आहार्या' ये पानीयादिना सहाभ्यवड़ियन्ते तद्विपरीता इतरे, तत्राद्या 'आघर्षधूपवासा' ये पानीयादिना सह घर्षयित्वा पीयन्ते ते आघाः, धपवासाःमतीताः । अथ चूर्णस्य वासानां च परस्परं का प्रतिविशेषो?, द्वयोरपि सोदरूपत्वाविशेषात् , उच्यते, सामान्यद्रव्यनिष्पन्नः शुष्क आद्रों चा क्षोदश्चूर्णः, सुगन्धद्रव्यनिष्पन्नाथ शुष्कपेपम्पिष्टा वासाः, इतरे चानाहार्या योगाः पादपलेपनादयः । तत्राऽऽहार्यरूपस्य पादपलेपनरूपस्य योगस्य दृष्टान्तं गाथात्रयेण भावयति
अनुक्रम [५४१]
॥१४॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [५४४] » “नियुक्ति: [५०३] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [५... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५०३||
दीप
नइकण्हबिन्न दीवे पंचसया तावसाण निवसति । पब्वदिवसेसु कुलवई पालेवुत्तार सक्कारे ॥ ५.३॥ जण सावगाण खिसण समियक्खण माइठाण लेवेण । सावय पयत्तकरणं अविणय लोए चलणधोए ॥५०४॥ पडिलाभिय वच्चंता निब्बुड नइकूल मिलण समियाओ। विम्हिय पंचसया तावसाण पव्वज्ज साहाय ॥५०५॥
व्याख्या-अचलपुरं नाम नगरं, तत्र प्रत्यासन्ने दे नयौ, तद्यथा-कृष्णा घेना च, तयोरपान्तराले ब्रह्मनामा द्वीपः, तत्र चैकोनपश्चशततापसपरितो देवशर्मनामा कुलपतिः परिवसति, स च सक्रान्त्यादिपर्वसु स्वतीर्थमभावनानिमित्तं सर्वैरपि तापसैः परिवृतः पादलेपेन कृष्णा नदीमुत्तीर्याचलपुरमागच्छति, लोकश्च तथारूपं तस्यातिशयमवलोक्य विस्मितचेताः सविशेष |
भोजनादिसत्कारमाचरति, श्रावकजनाश्च कुत्सयते-यथा न युष्मद्गुरूणामेताइशी शक्तिरस्तीति, ततः थावकैः समिताभिधसूरीणामाख्याकपि, तेश्च स्वचेतसि परिभाव्योक्तं-मावस्थानत एष पादलेपेन नदीमुत्तरति, न तपःशक्तिप्रभावतः, ततः श्रावकैस्तस्य मातृस्थानप्रकट
नार्थं सपरिवारो भोजनार्य निमन्त्रितः कुलपतिः, ततः समाजगाम भोजनवेळायां गृहे, मारब्धं तस्य श्रावकैः पादप्रक्षालनं कर्तुं, सच दान ददाति, मा पादलेपः पादयोरपयासीदितिकृत्वा, ततः श्रावकैरुक्तं-माऽस्माकमप्रक्षालितपादान् युष्मान् भोजयतामविनय इति बला-18
दपि प्रक्षालितौ पादौ, ततो भोजनानन्तरं निजस्थानगमनाय प्रचलिता, श्रावका अपि सकल जनानाहूयानुव्रजनबुद्धया तेन सह चलिर्नु । पत्ताः, ततः सपरिवारः कुलपतिः कृष्णा नदीमुत्तरितुं प्रावर्तत, पादलेपाभावे च निमड्क्तं नमः, ततो जाता जने तस्यापभ्राजना. अत्रान्तरे च तस्याववोधाय समितसूरयस्तत्राजग्मुः, वैः सकलजनसमक्षं नदी प्रत्युक्तं हे कृष्णे! परं पारं वयं गन्तुमिच्छामः, ततो दे।
अनुक्रम [५४४]
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||||
दीप
अनुक्रम [ ५४७ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [५४७] ● → “निर्युक्तिः [५०५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६]" ८० पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्युतेर्मलयगियावृत्तिः
॥ १४४॥
अपि कृष्णानयाः कूले एकत्र मिलिते, जातो विस्मयो छोकस्य सपरिवारस्य च कुलपतेः ततो गृहीता सपरिवारेण कुलपतिना दीक्षा, सा ब्रह्मशास्वा बभूव । सूत्रं सुगमं । तदेवं 'पायलेवणे जोगे ' इति व्याख्यातं तयारूपानाच्च योगद्वारं समर्थितं । सम्प्रति 'मूल 'त्ति व्याचिख्यासुरा-- ●
अधि पुच्छा आसन्न विवाहे भिन्नकन्नसाहणया । आयमण पियणओसह अक्खय जज्जीव अहिगरणं ॥ ५०६ ॥ जंघापरिजिय सड्डी अद्धिइ आणिज्जए मम सवती । जोगो जोणुग्धाडण पडिसेह पओस उड्डाहो ॥ ५०७ ॥
व्याख्या - चिरपुरे धननान्नः श्रेष्ठिनो भार्या घनप्रिया, तस्य दुहिता सुन्दरी, सा च भिन्नयोनिका, परमेनमर्थं माता जानाति न पिता, सा च पित्रा तत्रैव पुरे कस्यापीश्वरपुत्रस्य परिणयनाय दत्ता, समागतः प्रत्यासन्नो विवाहो, मानुचिन्ता वभूव एषा परिणीता सती यदि भर्ता भिन्नयोनिका ज्ञास्यते ततस्तेनोज्झिता वराकी दुःखमनुभविष्यति, अत्रान्तरे च समागतः कोऽपि संयतो भिक्षार्थ, तेन सा पृष्टा, तया कथितः सर्वोऽपि वृत्तान्तः, ततः साधुनोक्तं मा भैषीरमभिनयोनिकां करिष्यामि तत आचमनौषधं पानीपथं च तस्यै प्रदत्तं, जाता अभिन्नयोनिका । तथा चन्द्राननायां पुरि घनदत्तः सार्थवाहस्तस्य भार्या चन्द्रमुखा, तयोश्चान्यदा परस्परं कलहः प्रवृत्तः, ततोऽभिनिवेशेन तन्नगरवास्तव्यस्यैव कस्यापीश्वरस्य दुहिता धनदतेन परिणयनार्थ वृता, ज्ञातथायं वृत्तान्तश्चन्द्रमुखया, ततो बभूव महती तस्या अधृतिः, अत्रान्तरे च जङ्घापरिजितनामा साधुरागतो भिक्षार्थी, दृष्टा तेनावृतिं कुर्वती चन्द्रमुखा, ततः पृष्टा- किं भद्रे ! त्वमधृतिमती दृश्यसे ?, ततः कथितस्तया सपत्नीव्यतिकरः, ततः साबुना समर्पितं तस्या औषधं, भणिता च सा कथमपि तस्या भक्तस्य पानस्य मध्ये देयं येन सा भिन्नयोनिका भवति, ततः स्वयं निवेदयेः, येन सा न परिणीयते, तथैव कृतं न परिणीता सा भर्तेति । सूत्रं सुगमं । नव
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• अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते सा मया संपादित: 'आगमसुत्ताणि मूलं एवं सटीकं उभये पुस्तके वर्तते
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उत्पादना
१५ यो.
गे समिताचार्याः
॥ १४४॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५४९] » “नियुक्ति: [५०७] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५०७||
जज्जीयम्' इति यावज्जीवमधिकरण-मैथुनप्रवृत्तिः, 'पटिसेहि ति साऽभिनवा परिणेतुमारब्धा भिन्नयोनिकेति ज्ञात्वा प्रतिषिद्धा । अयं चेदर्थस्तया ज्ञातो भवेत् , तहिं तस्याः साधु प्रति महान् प्रदेषो भवेत, प्रवचनस्योड्डाहः । सम्पति 'विवाहे ' इति पदं व्याख्यानयन्नाह
मा ते फंसेज्ज कुलं अदिज्जमाणा सुया वयं पत्ता | धम्मो य लोहियरसा जइ बिंदू तत्तिया नरया ॥ ५०८ ) l किन ठविज्जइ पुत्तो पत्तो कुलगोत्तकित्तिसंताणो । पच्छावि य तं कज्जं असंगहो मा य नासिज्जा ॥५.९॥
___ व्याख्या-कचिद्रामे कोऽपि गृहपतिः, तस्य पुत्रिका वयःप्राप्ता, ततः कोऽपि साधुभिक्षार्थ प्रविष्टः सन् दृष्ट्वा तन्मातरमेवमभिदधातितब दुहिता वयःप्राप्ता-यौवनं प्राप्ता, तद्यदि सम्पति न परिणी(णाय्यते यते तर्हि केनापि तरुणेन सहाकार्य समाचर्य कुलमालिन्यमुत्पादयिष्यति, तथा 'धम्मो 'ति लोके एवं श्रुतिः-यदि कुमारी ऋतुमती भवेत् ताई यावन्तस्तस्या रुधिरबिन्दवो निपतन्ति तावतो वारान् । तन्माता नरकं याति । तथा कचिद्रामे कस्यापि कुटुम्बिनः पुत्रं यौवनिकामधिगतमवलोक्य साधुस्तन्मातरमेवं ब्रूते-यथा कुलस्य गोत्रस्य | कीर्तेश्च सन्तानो-निवन्धनमेष तव पुत्रो, यौवनं च प्राप्तः, ततः किं न सम्पति परिणाय्यते?, अपि च-परिणीतः सन् कलत्रस्नेहेन
स्थिरो भवत्यपरिणीतब कयाऽपि स्वच्छन्दचारिण्या सहोत्थाय गच्छेत् , पश्चादपि चैप परिणाययितव्यः तत्सम्मत्यपि कस्मान्न परि-18|| आणाय्यते ? इति । सम्पति 'दो दंडिणीओ आयाणपरिसाडे' इत्यवयवं व्याचिख्यामुराह
किं अडिइत्ति पुच्छा सवित्तिणी गम्भिणित्ति मे देवी । गम्भाहाणं तुज्झवि करोमि मा अडिई कुणसु ॥५१०॥ जइवि सुओ मे होही तहवि कणिहोत्ति इयरो जुवराया। देइ परिसाडणं से नाए य पओस पत्थारो ॥ ५११॥
दीप
अनुक्रम [५४९]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५५३] » “नियुक्ति: [५११] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५११||
पिण्डनियु- व्याख्या-संयुगं नाम नगरं, तत्र सिंधुराजो नाम राजा, तस्य सकलान्तःपुरमधाने द्वे पल्यौ, तद्यथा-शृङ्गारमतिर्जयसुन्दरी उत्पादना केर्मलयगि- च, नान्यदा बभूव शृङ्गारमतेर्गर्भाधानं, इतरा च जयसुन्दरी नूनमस्पाः पुत्रो भविष्यतीति विचिन्त्य मात्सर्यवशादधृति कुर्वत्यवति- यां१६मूरीयाटत्तिःहते, अत्रान्तरे च समागतः कोऽपि साधुः, तेन सा पपृच्छे-किं भद्रे ! स्वमधृतिमती दृश्यसे !, ततः सा तस्मै सपत्न्या व्यतिकरमचकथत् , |लकर्मदोषः
साधुरप्यब्रवीत-पा कापीरधृति, तवापि गर्भाधानमहं करिष्ये, ततस्त्रयोक्तं-भगवन् ! यद्यपि युष्मत्मसादेन मे पुत्रो भावी, तथापि स ॥१४॥
कनिष्ठत्वेन यौवराज्यं न प्राप्स्यति, किन्तु सपल्या एव सुतः, तस्य ज्येष्ठत्वात , ततः साधुना तस्या भेषजमेकं गर्भाधानाय दत्त, अपरं तु दापितं सपत्न्या गर्भशातनायेति । सूत्रं सुगम् । नवरमेतन्न कर्तव्यं, यतो गर्भशातने साधुकृते ज्ञाते सति प्रदेपो भवति, ततः शरीरस्थापि प्रस्तारः विनाशः । सम्मति सर्वस्मिन्नपि मुलकर्मणि दोषान् प्रदर्शयति
संखडिकरणे काया कामपविति च कुणइ एगत्थ । एगत्युवाहाई जज्जिय भोगतरायं च ॥ ५१२ ॥
व्याख्या-'संखटिकरणे मा ते फंसेज कुलं' तथा 'कि न ठविज' इत्यादिगाथाद्वयोक्ते वीवाइकरणे 'कायाः पृथिव्यादयो विराध्यन्ते, एकत्र पुनरक्षतयोनिकत्वकरणे गर्भाधाने च कामप्रवृत्तिं करोति, गर्भाधानादि पुत्रोत्पत्ती प्राय इष्टा भवति, ततः काम्या जायते, इति मैथुनसन्ततिः । एकत्र पुनर्गर्भपातने उड्डाहादि-प्रवचनमालिन्यात्मविनाशादि, एकत्र पुनः क्षतयोनिकत्वकरणे यावज्जी भोगान्तरायं, चशब्दादुडाहादि च, तदेवमभिहितं मूलकर्म तदभिधानाच व्याख्याता उत्पादनादोषाः, तयारुपाने च समथिता गवेषणेषणा । सम्पति ग्रहणैषणायाः सम्बन्धमाह
एवं तु गविट्ठस्सा उग्गमउप्पायणाविसुद्धस्स । गहणविसोहिविसुद्धस्स होइ गहणं तु पिंडस्त ॥ ५१३ ॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [५५५] » “नियुक्ति: [५१३] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५१३||
दीप
व्याख्या-'एवम् ' उक्तेन प्रकारेणोद्गमोत्पादनाविशुद्धस्य-उद्मोत्पादनदोषरहितस्य गवेषितस्य पिण्डस्य ग्रहणं भवति 'ग्रहण-18 विशोधिविशुद्धस्य ग्रहणविषयशङ्कगदिदोषाभावेन विशुद्धस्य, नान्यथा, ततो ग्रहणैषणादोषानहं वक्ष्ये इति भावः । ते च यत उत्पद्यन्ते । तत्समुत्थान् दर्शयति
उप्पायणाएँ दोसे साहूउ समुढ़िए वियाणाहि । गहणेसणाइ दोसे आयपरसमुढ़िए वोच्छं ॥ ५१४ ॥ * व्याख्या-उत्पादनाया दोषान् साधुतः समुत्थितान् विजानीहि, ग्रहणैषणाया दोषास्त्वात्मपरसमुत्थितान् तानई वक्ष्ये । तत्र ये आत्मसमुत्था ये च परसमुत्थास्तान् विभागतो दर्शयतिदोन्नि उ साहुसमुत्था संकिय तह भावोऽपरिणयं च । सेसा अट्ठवि नियमा गिहिणो य समुट्ठिए जाण ॥५१५॥
व्याख्या-द्वौ दोषौ साधुसमुत्थिती, तयथा-शङ्कित भावतोऽपरिणतं च, एतच द्वयमपि वक्ष्यमाणस्वरूप, शेपानष्टावपि दोषान गृहिणः समुत्थितान् जानीहि । सम्पति ग्रहणैषणाया निक्षेपमाह
नाम ठवणा दविए भावे गहणेसणा मुणेयव्वा । दब्वे वानरजूहं भावंमि य दुसपया हुँति ॥ ५१६ ॥
व्याख्या-चतुर्दा ग्रहणैषणा, तद्यथा-नामग्रहणैषणा स्थापनाग्रहणैषणा द्रव्यग्रहणैषणा भावग्रहणैषणा च, तत्र नामस्थापने द्रव्यग्रहणैषणाऽपि यावद्भव्यशरीररूपा तावद्वेषणावद्वक्तव्या, झशरीरभन्यशरीरव्यतिरिक्त तु द्रव्यग्रहणैषणामाह-'द्रव्ये ' द्रव्यग्रहणैषणायामुदाहरणं वानरयूथं, भावग्रहणैषणा द्विधा, तद्यथा-आगमतो नोआगमतश्व, तत्राऽऽगमतो ज्ञाता तत्र चोपयुक्ता, नोभागमतस्तु ।
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अथ एषणा विषयक दोष-संबंधी वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५५८] » “नियुक्ति: [५१६] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियु- क्तर्मळयगिरीयावृत्तिः
सायां वानर
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५१६||
॥१४६॥
द्विधा, तयथा-प्रशस्ता अप्रशस्ता च, तत्र प्रशस्ता-सम्यग्ज्ञानादिविषया, अप्रशस्ता-शन्तिादिदोपदुष्टभक्तपानादिविषया, सा च 'दशपदा' वक्ष्यमाणशङ्कितादिभेदैर्दशनकारा । तत्र वानरयूथोदाहरणं रूपकत्रयेण भावयतिपडिसडियपंडुपत्तं वणसंडं दहु अन्नहिं पेसे । जूहवई पडियरए जूहेण समं तहिं गच्छे ॥ ५१७ ॥
यूथदृष्टान्तः सयमेवालोएउं जूहबई तं वणं समंतेण । वियरइ तेसि पयारं चरिऊण य तो दहं गच्छे ॥ ५१८ ॥
ओयरत पयं दहुं, नीहरंतं न दीसई । नालेण पियह पाणीयं, नेस निकारणो दहो ॥ ५१९ ॥ व्याख्या-विशालशृङ्गो नाम पर्वतः, तत्रैकस्मिन् बनखण्डे वानरयूथमभिरमते, अथ च तत्रैव पर्वते द्वितीयमपि वनखण्डं सर्वपुष्पफलसमृद्ध समस्ति, परं तन्मध्यभागवर्तिनि हूदे शिशुमारोऽवतिष्ठते, स यत्किमपि मृगादिकं पानीयाय प्रविशति तत्सर्वमाकृष्य भक्ष-12 यति, अन्यदा च तद्वनखण्डं परिशटितपाण्डपत्रमपगतपुष्पफलमवलोक्य यूथाधिपतिरन्यस्य वनखण्डस्य निर्वाहसमर्थस्य गवेषणाय वानरयुगलं प्रेषितवान्, गवेषयित्वा च तेन यूथाधिपतेनिवेदितम्-अस्ति बनखण्डममुकप्रदेशे सर्व पुष्पफलपत्रसमुद्धमस्माकं निर्वाहयोग्य, ततो यूथाधिपतिः सह यूथेन तत्र गतवान , परिभावयितुं च प्रवृत्तः समन्ततस्तद्वनखण्ड, ततो दृष्टस्तन्मध्ये जलपरिपूर्णो इदः, परं तत्र । प्रविशन्ति श्वापदानां पदानि दृश्यन्ते, न निर्गच्छन्ति, ततो यूथमाहृय यूथाधिपतिरुवाच-माज यूयं प्रविश्य पिषय पानीयं, किन्तु तट- ॥१४॥ स्थिता एव नालेन पिबथ, यतो नैष हृदो निष्कारणो-निरुपद्रवः, तथाहि-मृगादीनापत्र पदानि प्रविशन्ति दृश्यन्ते न निर्गच्छन्तीति, एवं चोक्ते यैस्तद्वचः कृतं ते वानराः स्वेरछाविहारमुखभाजिनो जाता:, इतरे तु विनष्टाः । उक्ता द्रव्यग्रहणेपणा, सम्पति भावग्रहणेषणा
दीप
अनुक्रम [५५८]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५६१] » “नियुक्ति: [५१९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५१९||
वक्तव्या, तया चाधिकारोऽप्रशस्तया, पिण्डदोषाणां वक्तुं प्रक्रान्तत्वात् , सा च शङ्कितादिभेदादशमकारा, ततस्तानेव शन्तिादीन भेदान् प्रदर्शयति| संकिय मक्खिय निक्खित्त पिहिय साहरिय दायगुम्मीसे । अपरिणय लित्त छड्डिय एसणदोसा दस हवंति ॥५२॥
व्याख्या-शङ्कितं' सम्भाविताधाकर्मादिदोष 'प्रक्षिप्त' सचित्तपृथिव्यादिनाऽवगुण्डितं ' निक्षिप्त' सचित्तस्योपरि स्थापित पिहित सचित्तेन स्थगित 'संहृतम्' अन्यत्र क्षिप्तं 'दायक' दायकदोषदुष्टम् 'उन्मिश्रितं' पुष्पादिसम्मिश्रम् 'अपरिणतम् ' अप्राशासकीभतं, लिसं, 'छदित भूमावा पंडित, एते दश एषणादोषा भवन्ति । तत्र शन्तिपदं व्याचिख्यामुराह| संकाए चउभंगो दोसुवि गहणे य भुंजणे लग्गो । जं संकियमावन्नो पणवीसा चरिमए सुद्धो ॥ ५२१॥
व्याख्या-'शङ्कायां 'शङ्किते 'चतुर्भङ्गी' चत्वारो भङ्गाः, सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आपत्वात् , सा चेयं चतुर्भङ्गी-ग्रहणे शन्तिो भोजने चेति प्रथमो भङ्गः, ग्रहणे गाडिन्तो न भोजने इति द्वितीया, भोजने शङ्कितो न ग्रहणे इति तृतीयः, न ग्रहणे न भोजने इति चतुर्थ:, अत्र दोपानाह-'दोसुची 'त्यादि, द्वयोरपि शङ्कितस्य ग्रहणभोजनयोरपि यो वर्तते यश्च 'गहणे य'ति ग्रहणेऽर्थापच्या न भोजने तथा भोजने सामथ्योन्न ग्रहणे स सर्वोऽपि 'लगो' दोषेण सम्बद्धा, केन दोषेण ?, इत्याह-'जं संकिर्य ' इत्यादि, पोडशो।
दमदोषनवैषणादोषरूपाणां पञ्चविंशतिदोषाणां मध्ये येन दोषेण शङ्कितं-सम्भावितमापन्नः-धर्तते तेन दोषेण सम्बद्धः, इदमुक्तं भवतिकायदाधाकर्मत्वेन शङ्कितं तद् गृहानी भुजानो वाऽऽधाकर्मदोषेण सम्बध्यते, यदि पुनरौदेशिकत्वेन तत औदेशिकेनेत्यादि, चरमे चतुर्थभने।
पुनर्वर्तमानः शुद्धो, न केनापि दोषेण सम्बध्यते इत्यर्थः । इह 'पणवीसा' इत्युक्तं, ततस्तानेव पश्चविंशति दोषानाह
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अनुक्रम [५६१]
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||५२२||
दीप
अनुक्रम [ ५६४ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) + भाष्यं [ ३७...] + प्रक्षेपं [६...
“निर्युक्तिः [५२२]
८०
मूलं [५६४ ] • → पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्यु- उगमदोसा सोलस आहाकम्माइ एसणादोसा । नव मक्खियाइ एए पणवीसा चरिमए सुद्धो ॥ ५२२ ॥ तेर्मगिरीयावृत्तिः व्याख्या – आधाकर्मादयः षोडश उद्रमदोषाः, नव च प्रक्षितादय एपणादोषाः, एते मिलिताः पञ्चविंशतिः, चरमे तु भङ्गे न ग्रहणे न भोजने इत्येवंरूपे वर्त्तमानो यतिः शुद्धः, यत इहाशुद्धमपि उपस्थपरीक्षणा निःशङ्कितं गृहीतं शुद्धं भवतीति । एतदेवोप॥ १४७ ॥ ९ दर्शयति
छउमत्यो सुनाणी उवउत्तो उज्जुओ पयत्तेणं । आवन्नो पणवीसं सुयनाणपमाणओ सुद्धो ॥ ५२३ ॥
व्याख्या --- छद्मस्थः श्रुतज्ञानी 'ऋजुकः ' मायारहितः 'प्रयत्नेन ' यथाऽऽगममादरेण गवेषयन् पञ्चविंशतेर्दोषाणामन्यतम दोषमापन्नोऽपि 'श्रुतज्ञानप्रमाणतः आगमप्रामाण्येन शुद्धः । एनमेवार्थ स्पष्टयति
ओहो ओवउत्त सुयनाणी जइवि गिण्हइ असुद्धं । तं केवलीबि भुंजइ अपमाण सुयं भवे इहरा ॥ ५२४ ॥
व्याख्या- 'ओहो ' इत्यत्र प्रथमा तृतीयार्थे तत ओपेन - सामान्येन 'श्रुते' पिण्डनिर्युक्त्यादिरूपे आगमे उपयुक्तः संस्तदनुसारेण कल्पयाकल्प्यं परिभावयन् श्रुतज्ञानी यद्यपि कथमप्यशुद्धं गृह्णाति तथापि तत् 'केवल्यपि ' केवलज्ञान्यपि मुझे, इतरथा श्रुतज्ञानमप्रमाणं भवेत्, तथाहि छद्यस्थः श्रुतज्ञानबलेन शुद्धं गवेषयितुमीष्टे, न प्रकारान्तरेण, ततो यदि केवली श्रुतज्ञानिना यथाऽऽगमं ग पितमप्यशुद्धमितिकृत्वा न भुञ्जीत ततः श्रुतेनाश्वासः स्वादिति न कोऽपि श्रुतं प्रमाणत्वेन प्रतिपत, श्रुतज्ञानस्य चात्रामाण्ये सर्वक्रियाविलोपप्रसङ्गः श्रुतमन्तरेण उपस्थानां क्रियाकाण्डस्य परिज्ञानासम्भवात् । ततः किम् ? इत्याह
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एषणायां
शङ्कितदोषः
॥ १४७॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१६७] » “नियुक्ति: [५२५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५२५||
संत्तस्स अप्पमाणे चरणाभावो तो य मोक्खस्स । मोक्खस्सऽविय अभावे दिक्खपवित्ती निरत्था उ ॥५२५॥
व्याख्या-सूत्रस्यामामाण्ये 'चरणस्य' चारित्रस्याभाव, श्रुतमन्तरेण यथावत् सावयेतरविधिपतिधपरिज्ञानासम्भवात , चर-18 णाभावे च मोक्षाभावो, मोक्षाभावे च दीक्षा निरथिका, तस्या अनन्यार्थत्वात् । सम्पति 'ग्रहणे शङ्कितो भोजने चे 'त्यस्य प्रथमभङ्गस्य सम्भवमाह| किंतु(ति)ह खडा भिक्खा दिजइ न य तरइ पुच्छिउं हिरिमं । इअ संकाए घेत्तुं तं भुंजइ संकिओ चेव ॥५२६॥
व्याख्या-कोऽपि साधुः स्वभावतो लज्जावान भवति, तत्र कापि गृहे भिक्षार्थ प्रविष्टः सन् प्रचुये भिक्षा लभमानः स्वचेतसि । शन्से-किमत्र प्रचुरा भिक्षा दीयते?, न च लज्जया प्रष्टुं शक्नोति, तत एवं शङ्कया गृहीत्वा शन्ति एवं तद इति प्रथमभङ्गे चनेते । सम्मति 'ग्रहणे शान्तिो न भोजने' इति द्वितीयस्य भङ्गस्य सम्भवमाइ
हियएण संकिएणं गहिआ अन्नेण सोहिया सा य । पगयं पहेणगं वा सोउं निरसकिओ भुजे ॥ ५२७ ॥
व्याख्या-इह केनापि साधुना लज्जादिना प्रष्टुमशक्नुवता प्रथमतः शडिन्तेन हृदयेन या गृहीता भिक्षा साम्पेन सङ्घाटेकन शोधिता-यथा 'प्रकृतं ' प्रकरणं किमपि मापूर्णभोजनादिकं, यदिवा प्रदेणकं कृतविदम्पस्मागृहादायातामति, ततो द्वितीयसबाटकादे-11 तिच्छ्रुत्वा यो निःशङ्कितो मुझे स द्वितीये भङ्गे वर्तते । तृतीयभङ्गस्य सम्भवमाह
जारिसए चिय लडा खडा भिक्खा मए अमुयगेहे । अन्नेहिंवि तारिसिया वियत निसामए तइए ॥ ५२८ ॥
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अनुक्रम [५६७]
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||५२८||
दीप
अनुक्रम [ ५७० ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [५७० ] • → “निर्युक्ति: [ ५२८] + भाष्यं [ ३७...] + प्रक्षेपं [६... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
८०
पिण्डनिर्यु- व्याख्या - इह कोऽपि साधुर्लब्धप्रचुरभिक्षाको विकटयतां गुरोरग्रतः सम्यगालोचयतामालोचनाश्रवणे सति शङ्कते - यादृश्येव केमिया भिक्षा प्रचुरा लब्धा तादृश्येवान्यैरपि सङ्कटकैः तनूनमेतदाघाकर्मादिदो पदुष्टं भविष्यतीति सुजानो यतिस्तृतीये भङ्गे वर्त्तते ।
याचिः
॥१४८॥
अत्र पर आह
जइ संका दोसकरी एवं सुद्धपि होइ अविसुद्धं । निस्संकमेसियंति य अणेसणिज्जंपि निद्दोसं ॥ ५२९ ॥
व्याख्या --- यदि शङ्का दोषकरी तत एवं सतीदमायातं शुद्धमपि शङ्कितं सत् तदशुद्धं भवति, शङ्कादोषदुष्टत्वात्, तथा अनेपणीयमपि निःशङ्कितमन्वेषितं शुद्धं प्राप्नोति, शङ्कारहितत्वात्, न चैवं युक्तं, स्वभावतः शुद्धस्याशुद्धस्य वा शङ्काभावाभावमात्रेणाअन्यथा कर्तुमशक्यत्वात् । तत्र आचार्य आह- सत्यमेतत्, तथाहि----
अव परिणामो एगरे अवडिओ य पक्खमि । एसिपि कुणइ सिं अणेसिमेसि विसुद्ध उ ॥ ५३० ॥
व्याख्या - अविशुद्धः परिणामः' अध्यवसायः, किं रूपोऽविशुद्धः ? इत्याह-एकतरस्मिन्नपि शुद्धमेवेदं भक्तादिकं यदिवाऽशुद्धमेवेत्यन्यतरस्मिन्नपि पक्षेऽपतन् 'एसिपि 'ति एषणीयमपि शुद्धमपि करोति अनेषणीयम् - अशुद्धं विशुद्धस्तु परिणामो ययोक्ताssगमविधिना गवेषयतः शुद्धमेवेदमित्यध्यवसायः अनेपणीयमपि स्वभावतोऽशुद्धमपि शुद्धं करोति, श्रुतज्ञानस्प मामाण्यात्, तस्मान्न कश्चित् प्रागुक्तो दोषः । तदेवमुक्तं शङ्कितद्वारम् अधुना प्रक्षितद्वारमाह
दुहिं च मक्खियं खलु सच्चित्तं चैव होइ अच्चित्तं । सच्चित्तं पुण तिविहं अच्चित्तं होइ दुविहं तु ॥ ५३१ ॥
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एषणाय
१ शङ्कित
दोषः
॥ १४८ ॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५७३] » “नियुक्ति: [५३१] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५३१||
व्याख्या-म्रक्षितं द्विधा, तद्यथा-सचित्तमचित्तं च, सचितम्रक्षितमचित्तम्रक्षितं चेत्यर्थः, तत्र यत्सचित्चेन पृथिव्यादिनाऽवगुण्डितं तत्सचित्त, यत्पुनरचित्तेन पृथिवीरजःप्रभृतिनाऽवगुण्डितं तदचित्तं, तत्र 'सचिचं ' सचिचम्रक्षितं पुनखिधा । एतदेव व्याख्यानयतिपुढवी आउ वणरसइ तिविहं सच्चित्तमक्खियं होइ । अञ्चित्तं पुण दुविहं गरहियमियरे य भयणा उ ॥५३२॥
व्याख्या-सचित्तम्रतितं विधा, तयथा-पृथिवीकायम्रक्षितमकायम्रक्षितं वनस्पतिकायम्रक्षितं च, मने च पदैकदेशे पदसम-2|| दायोपचारात पृथिव्यादिमिश्रितं पृथिवीत्यायुक्तम् । अचित्र-अचित्तम्रक्षितं पुनविविध, तपथा-गर्हितमितरच, तत्र 'गर्हितं ' घसादिना लिप्तम् , इतरद् घृतादिना, अत्र च कलप्याकरप्यविधौ ‘भजना' विकल्पना, सा चाग्रे वक्ष्यते । सम्मति सचित्तपृथिवीकायप्रक्षित || प्रपञ्चतो भावयति| सुकेण सरक्खेगं मक्खिय मोल्लेण पुढविकाएण । सव्वंपि मक्खियं तं एत्तो आउंमि वोच्छामि ॥ ५३३ ॥ |
व्याख्या-इइ सचित्तपृथिवीकायो द्विधा, तथवा-शुष्क आर्द्रश्चन, तत्र शुष्केण सरजस्केनातीव श्लक्ष्णतया भस्मकल्पेन यद्देयं पात्र हस्तो चा म्रक्षितो यचाण पृथिवीकायेन सचित्तेन म्रक्षितं तत्सर्वं हस्तादि प्रक्षित-सचित्तपृथिवीकायम्रक्षितमवगन्तव्यं, अत ऊर्बुमकायविषये म्रक्षितं वक्ष्यामि
पुरपच्छकम्म ससिणिहुदउल्ले चउरो आउभेयाओ। ___ व्याख्या-अकाये-अप्कायम्रक्षिते चत्वारो भेदाः, तद्यथा-पुर:कर्म पश्चात्कर्म सस्निग्धमुदकाः च, तत्र भक्तादेर्दानात पूर्वी
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अनुक्रम [५७३]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५७५] » “नियुक्ति: [५३३] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
एपणायां
२ मुक्षितदोषः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५३३||
पिण्डनियु-1 यत्साध्वर्थ कर्म हस्तमात्रादेर्जलपक्षालनादि क्रियते तत्पुरःकर्म । यत्पुनर्भक्तादेर्दानात्पवास्क्रियते तत्पश्चात्कर्ष । सस्मिन्धम् ईपलक्ष्यतेर्मळयगि-18|माणजलखरष्टितं हस्तादि, उदका स्पष्टोपलभ्यमानसंसर्ग । सम्पति वनस्पतिकायम्रक्षितं प्रपञ्चयतिरीयादृचिः
उक्किट्ठरसालितं परित्तऽणतं महिरुहेसु ॥ ५३४ ॥ ॥१४॥
व्याख्या-'उत्कृष्टरसानि' प्रचुररसोपेतानि यानि 'परित्तानां ' प्रत्येकवनस्पतीनां चूतफलादीनाम् , अनन्तानाम्-अनन्तकायिकानां च पनसफलादीनां सद्याकृतानि श्लक्ष्णखण्डानि इति सामागम्यते, तर 'आलिप्त' खरण्टितं यद्धस्तादि, तन्महीरहेषु, अब च तृतीयाथै सप्तमी, महीरुहर्मेलितमवसेयं, 'परित्तणतं । इत्यत्र माकृतत्वाद्विभक्तिवचनव्यत्यय इति पष्ठीबहुवचनं व्याख्या।
सेसेहि काएहिं तीहिवि तेऊसमीरणतसेहिं । सच्चित्वं मीसं वा न मक्खितं अस्थि उल्लं वा ॥ ५३५॥ . व्याख्या-पैस्तेजासमीरणप्रसरुपैखिभिरपि सचित्तरूप मिश्ररूपमाद्रतारूपं वा प्रतितं न भवति, सचित्तादितेजस्कायादिसंस-14 गेऽपि लोके ग्रसितशब्दमत्यदर्शनात, अचित्तैस्तु तैभस्मादिरूपैः पृथिवीकायेनेव म्रक्षितत्वसम्भव इति न तस्य प्रतिषेधः, चातकायेन त्वचित्तेनापि न म्रक्षितत्वं घटते, तया लोके प्रतीत्यभावात् । सम्पति सचित्तपृथिवीकायादिम्रलिये इस्तमात्रे आश्रित्य मसान् कल्याकल्प्यविधि च प्रतिपादयति
सञ्चित्तमक्खियंमी हत्थे मत्ते य होइ चउभंगो। आइतिए पडिसेहो चरिमे भंगे अणुन्नाओ ॥ ५३६ ॥ व्याख्या-सचित्तैः' पृथिवीकायादिभिम्रक्षिते हस्ते मात्रे च 'चतुर्भङ्गी' चत्वारो भङ्गाः, सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आर्यत्वात्,
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॥१४॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१७८] » “नियुक्ति: [५३६] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५३६||
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ते च चत्वारो भङ्गा अमी, तद्यथा-हस्तो प्रक्षितो मात्र च, हस्तो म्रसितो न मात्र, मात्रं म्रक्षित न हस्तः, नापि मा नापि हस्तः
तत्राऽऽदिमे भङ्गत्रिक प्रतिषेधो, न कल्पते ग्रहीतृमिति भावः, चरमे भङ्गे पुनरनुज्ञातो यतिस्तीर्थकरगणधरैः, तत्र दोषाभावात् । अचिवातम्रक्षितमाश्रित्य कल्प्याकल्प्यविधिमाह
अञ्चित्तमक्खियंमि उ चउसुवि भंगेसु होइ भयणा उ।अगरहिएण उ गहणं पडिसेहो गरहिए होइ ॥५३७॥
व्याख्या-अचित्तप्रक्षितेऽपि हस्तमात्रे अधिकृत्य प्राग्वचत्वारो भङ्गाः, तत्र च चतुर्यपि भनेषु 'भजना' विकल्पना, तामेवाहall अहितेन ' लोकानिन्दितेन घृतादिना प्रक्षिते ग्रहणं, गर्हितेन तु वसादिना म्रक्षिते भवति प्रतिषेधः, तत्रापि चतुर्थों भङ्गः शुद्ध एवेति|
ग्रहणम् । अगर्हितम्रक्षितमप्यधिकृत्य विशेषमाहBI संसज्जिमेहिं वजं अगरहिएहिपि गोरसदवेहिं । मट्ठधयतेल्लगुलेहि य मा मच्छिपिपीलियाघाओ॥ ५३८॥
व्याख्या--संसक्तिमद्भयां तन्मध्यनिपतितजीवयुक्ताभ्यां 'गोरसदवाभ्यां ' दध्यादिपानकाभ्यामगर्दिताभ्यामपि म्रक्षितं म्रक्षिता भ्यां हस्तमात्राभ्यां वा दीयमानं 'घज्य परिहार्य, न ग्रहीतव्यमित्यर्थः, तथा मधुघृततैलद्वगुडैरगर्हितैरपि अक्षितं अक्षिताभ्यां वा हस्तमात्राभ्यां दीयमानं वडं, कुत इत्याह-'मा मच्छिपिपीलियाघाओ' मा मक्षिकापिपीलिकानाम् , उपलक्षणमेतत् , पतङ्गादीनां वातादिवशतो लमानां घातो-विनाशो भूदितिकृत्वा, एतचोत्कृष्टानुष्ठानं जिनकल्पिकायधिकृत्योक्तमक्सेयं, स्थविरकल्पिकास्तु यथाविधि यतनया घृतायपि गुडादिम्रक्षितमशोकवर्यायपि च गृहन्ति ।। सम्पति गर्दितागतिविशेषमाह
अनुक्रम [५७८]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५८१] » “नियुक्ति: [५३९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
एषणायां ३ निक्षिप्त
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प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५३९||
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पिण्डनियु- मंसवससोणियासव लोए वा गरहिएहिवि बज्जेज्जा । उभओऽवि गरहिएहिं मुत्तुच्चारेहि छित्तपि ॥ ५३९ ॥ ते.मलयाग- व्याख्या-मांसवसाशोणितासवैः अत्र सूत्रे विभक्तिलोप आपत्वात , लोके गर्हितैरपि, वाशब्दः पूर्वापेक्षया समुच्चये, म्रक्षित रीयाचिः वर्जयेत्, तथा 'उभयस्मिन्नपि लोके लोकोत्तरे च गहिताभ्यां मूत्रोच्चाराभ्यामास्ता प्रक्षित स्पृष्टमपि वर्जयेत् । उक्त प्रक्षितद्वारम् ,
अथ निक्षिप्तद्वारमाह
सच्चित्त मीसएसु दुविहं काएसु होइ निक्खित्तं । एकेकं तं दुविहं अणंतर परंपरं चेव ॥ ५४० ॥ - व्याख्या-इह कायेषु निक्षितं द्विधा, तद्यथा-'सचित्तेषु' पृथिव्यादिषु मिश्रेषु च । एकैकमपि द्विधा, तयथा-अनन्तरं परम्परं च, तत्र 'अनन्तरम्' अन्यवधानेन 'परम्परं व्यवधानेन, यथा सचित्तपृथिवीकायस्योपरि स्थापनिका तस्या उपरि देयं वस्त्विति, इह परिहार्यापरिहार्यविभाग विना सामान्यतो निक्षिप्तं सचित्ताचित्तमिश्ररूपमेदाविधा, तत्र च त्रय(तिस्र)चतुर्भग्यः, तद्यथा-सचित्ते सचिर्त मिथे सचिर्त २ सचिचे मिश्र ३ मि मिश्र ४ मित्येका चतुर्भङ्गी, तथा सचिचे सचित्तम् अचित्ते सचित्तं सचित्तेऽचित्तम् । अचित्ते अचित्तमपि द्वितीया चतुर्भङ्गी, तथा मिश्रे मिश्रम् अचित्ते मिश्र मिश्रेऽचित्तम् अचितेऽचित्तमिति तृतीया चतुर्भङ्गी । सम्मत्यत्रैवानन्तरपरम्परविभागमाह
पुढवी आउक्काए तेऊवाउवणस्सइतसाणं । एकेक दुहाणंतर परंपरगणमि सत्तविहा ॥५४१॥ व्याख्या-पृथिव्यासजीवायुवनस्पतित्रसकायानां सचित्तानां प्रत्येकं सचित्तपृथिव्यादिषु निक्षेपः सम्भवति, तत्र पृथिवीकायस्य
अनुक्रम [५८१]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५८३] » “नियुक्ति: [५४१] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५४१||
निक्षेपः पोढा, तद्यथा-पृथिवीकायस्य पृथिवीकाये निक्षेप इत्येको भेदः, पृथिवीकायस्थाकाये इति द्वितीयः, पृथिवीकायस्य तेजस्काये। इति तृतीया, वातकाये इति चतुर्थः, वनस्पतिकाये इति पञ्चमः, उसकाये इति पष्ठः । एवमकायादीनामपि निक्षेपः प्रत्येक पोदार भावनीयः, सर्वसङ्ख्यया षट्त्रिंशद्भङ्गाः, एकैकोऽपि च भेदो द्विधा, तद्यथा-अनन्तरः परम्परया च, अनन्तरपरम्परव्याख्यानं च। मागेव कृतं, केवलमग्निकाये पृथिव्यादीनां निक्षेपः सप्तधा, एतच्च स्वयमेव वक्ष्यति ॥ सम्मति पृथिवीकाये निक्षेपस्य यदुक्तं मा पोढात्वं तत्सूत्रकृत्साक्षाद्दर्शयतिall सच्चित्त पुढविकाए सच्चित्तो चेव पुढविनिखित्तो । आऊतेउवणस्सइसमीरणतसेसु एमेव ॥ ५४२ ॥
व्याख्या-सचित्ते पृथिवीकाये सचित्तः पृथिवीकायो निक्षिप्तः, एवमेव-पृथिवीकाये इवाप्तेजोवनस्पतिसमीरणत्रसेषु सचित्त एच पृथिवीकायो निक्षिप्त इति पृथिवीकायनिक्षेपः पोहा । एवं शेषकायेष्वप्यतिदेशमाह
एमेव सेसयाणवि निक्खेवो होइ जीवकाएसुं । एकेको सट्ठाणे परठाणे पंच पंचेव ॥ ५४३ ॥ व्याख्या-'एवमेव ' पृथिवीकायस्येव 'शेषाणाम् ' अप्कायादीनां निक्षेपो भवति 'जीवनिकायेषु' पृथिव्यादिषु, तत्रैकैको भङ्गः स्वस्थाने शेषाः पश्च पञ्च परस्थाने, तथाहि-पृथिवीकायस्य पृथिवीकाये निक्षेपः स्वस्थाने, अप्कायादिषु शेषेषु पञ्चमु परस्थाने, एवमप्कायादीनामपि भावनीयं, ततः स्वस्थाने एकैको भङ्गः, परस्थाने पश्च पश्च, तदेवं प्रथमचतुर्भनिकायाः सचिचे सचित्तमित्येवंरूपे प्रथमे भने षट्त्रिंशद्भेदाः । सम्मति प्रथमचतुर्भङ्गाचा एव शेषं भङ्गत्रयं द्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गायौ चातिदेशतः प्रतिपादयति--
दीप
अनुक्रम [५८३]
For P
OW
Hetaurasurare.org
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||५४४||
दीप
अनुक्रम [५८६ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [५८६ ] • → “निर्युक्ति: [ ५४४] + भाष्यं [ ३७...] + प्रक्षेपं [६...
८०
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्युतेर्मकपगि
यादृचिः
॥ १५१ ॥
एमेव मीसएसुचि मीसाण सचैयणेसु निक्खेवो । मीसाणं मीसेसु य दोहंपि य होइऽचिते ॥ ५४४ ॥
व्याख्या--' एवमेव ' सचित्तेषु सचित्तमिव 'मिश्रेष्वपि मिश्रपृथिव्यादिष्वपि सचित पृथिव्यादिनिक्षेपः पत्रिंशद्भेदोऽवगन्तव्यः, एतेन प्रथमचतुर्भङ्गचा द्वितीयो भट्टो व्याख्यातः, तथा एवमेव सचेतनेषु-सचितपृथिव्यादिषु मिश्राणां पृथिव्यादीनां निक्षेपः षटूत्रिंशद्भेदः, एतेन प्रथमचतुर्भद्वत्यास्तृतीयो भङ्गो व्याख्यातः, एवमेव मिश्राणां पृथिव्यादीनां मिश्रेषु पृथिव्यादिषु निक्षेपः पत्रिंशद्भेदः, अनेन प्रथमचतुर्भयाचतुर्थी भङ्गो व्याख्यातः सर्वसङ्ख्यया प्रथमचतुर्भङ्गत्यां चतुश्चत्वारिंशं भङ्गशतम्, एवमेव द्वयोरपि सचि तमिश्रयोरचित्तेषु निक्षिप्यमाणयोयें द्वे चतुर्भङ्गयौ प्रागुक्ते तत्रापि प्रत्येकं चतुश्चत्वारिंशं भङ्गतं भवति, सर्वसङ्ख्यया भङ्गानां शतानि चत्वारि द्वात्रिंशदधिकानि भवन्ति, उक्ता निक्षेपस्य भेदाः । सम्प्रत्यस्यैव निक्षेपस्य पूर्वोक्तं चतुर्भङ्गीश्रयमधिकृत्य कल्प्याकलप्यविधिमाहजत्थ उ सचित्तमी से चउभंगो तत्थ चउवि अगिज्झं । तं तु अनंतर इयरं परितऽणतं च वणकाए ॥ ५४५ ॥
व्याख्या ---यत्र निक्षेपे सचित्तमिश्र आश्रित्य चतुर्भङ्गी भवति प्रथमा चतुर्भङ्गी भवतीत्यर्थः, तत्र चतुर्ष्वपि भङ्गेषु अपिशब्दाद्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गयोरप्याद्येषु त्रिषु भन्नेषु वर्त्तमानमनन्तरं परम्परं च वनस्पतिविषये प्रत्येकमनन्तं वा तत्सर्वमग्राचं सामर्थ्याद् द्वितीयतृतीयचतुर्थभङ्गयोतुर्थे भने वर्तमानं ग्राह्यं तत्र दोषाभावात् । सम्पति सचितादिभिस्त्रिभिरपि मतान्तरेणैकामेव चतुर्भङ्गीं कल्प्याक ल्य्यविधिं च प्रदर्शयति
अहव ण सचित्तमीसो उ एगओ एगओ उ अचित्तो। एत्थं चउक्कभेओ तत्थाइतिए कहा नत्थि ॥ ५४६ ॥
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एषणायां निक्षिप्त
दोषः
॥१५२॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५८८] » “नियुक्ति: [५४६] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५४६||
व्याख्या- अथवे ति प्रकारान्तरतायोतकः, ति वाक्यालङ्कारे, इह चतुर्भङ्गी प्रतिपक्षपदोपन्यासे भवति, तौकस्मिन् पक्षे || सचित्तमिश्रे, एकत्र तु पक्षेचित्तः, ततः माक्तनक्रमेण चतुर्भङ्गी भवति, तपथा-सचिते सचिनमिश्रम्, अचिते सचित्तमिश्र, सचिचमिश्रेऽचित्तम् , अचित्तेऽचित्तमिति, अत्रापि मागिकै कस्मिन् भने पृथिव्य नोवायुवनस्पतित्रसभेदात् पत्रिंशत् पत्रिंशद्भेदाः, सर्वसङ्घचया चतुश्चत्वारिंशं भतशतं, तत्र 'आदित्रिके' आदिमे भङ्गत्रये 'कथा नास्ति' ग्रहणे वार्ता न विद्यते, सामर्थ्याचतुर्थे भने
कल्पते ।। तदेवं 'पृथिवी 'त्यादिमूलगाथायाः पूर्वार्दै व्याख्यात, सम्पति एकेकि दुहाणंतरम्' इत्यक्यवं व्याचिख्यामुर्द्वितीयत्तीयचतुलाशयोः सत्कस्य तृतीयस्य तृतीयस्य भङ्गस्य सामान्यतोऽशुद्धस्य विषये विशेष विभणिपुरनन्तरपरम्परमार्गणां करोति
जं पुण अचित्त दव्वं निक्खिप्पइ चेयणेसु मीसेसु । तहिं मग्गणा उ इणमो अणंतरपरंपरा होइ ॥ ५४७ ॥
व्याख्या-यत्किमपि अचित्तं द्रव्यमोदनादि 'चेतनेषु' सचित्तेषु मिश्रेषु वा निमिप्यते तत्रेयमनन्तरं परम्परया चा मार्गणा 4-II रिभावनं भवति । तदेवाह
ओगाहिमायणंतर परंपरं पिढरगाइ पुढवीए । नवणीयाइ अणंतर परंपरं नावमाईसु ॥ ५४८ ॥ ।
व्याख्या-'अवगाहिमादि' पकानमण्डकप्रभृति पृथिव्यामानन्तर्येण स्थापितमनन्तरनिलितं, पृथिव्या एवोपरि स्थिते पिठरकादौ । सायनिक्षिप्तमवगादिमादि तत्परम्परनिक्षिप्त, एष पृथिवीकायमाथित्यानन्तरपरम्परया निक्षेप उक्तः । सम्पत्यपकायमाबित्पाह-नवणी-|| त्यादि, नवनीतादि-प्रक्षणस्त्यानीभूतघृतादि सचित्तादिरूपे उदके निक्षिप्तमनन्तरनिक्षिप्तं, तदेव नवनीताधवगाहिमादि वा जलमध्यस्थि
दीप
अनुक्रम [५८८]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [५९०] » “नियुक्ति: [५४८] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५४८||
पिण्डनियु-तेषु नावादिषु स्थित परम्परनिक्षिप्तं । सम्मति तेजःकायमधिकृत्यानन्तरपरम्परे व्याख्यानयन् 'अगणिमि सत्तविहो' इत्यवयवं एषणाया कर्मष्यगि-व्याख्यानयति
निक्षिप्तरीयावृत्तिः
विज्झायमुम्मुरिंगालमेव अप्पत्तपत्तसमजाले । वोकते सत्तदुर्ग जंतोलित्ते य जयणाए ॥ ५४९ ॥ ॥१५॥ व्याख्या-इह सप्तधा बहिः, तद्यथा-विध्यातो मुर्मुरोऽङ्गारोऽमाप्तः प्राप्तः समज्वालो व्युत्क्रान्तश्च। तत्रयः स्पष्टतया प्रथम नोपल
काभ्यते पश्चाविन्धनमक्षेपे प्रवर्द्धमानः स्पष्टमुपलभ्यते स विध्यातः, आपिङ्गला अर्धविध्याता अमिकणा मुर्मुरः, ज्वालारहितो बहिरङ्गारः,
य: पुनश्चल्या उपरि स्थापितं पिठरं ज्वालाभिर्न पामोति सोऽभाप्तः, यः पुनज्वालाभिः पिठरं बुने स्पृशति स प्राप्तः, यः पुनः पिठरस्यका बुभ्रादूर्ध्वमपि यावत्कौँ ज्वालाभिः स्पृशति स समज्वालः, यस्य पुनर्चालाः पिठरकर्णाभ्यामूर्ध्वमपि गच्छन्ति स व्युत्क्रान्तः, एते सप्त || भेदास्तेजःकायस्थ, तत्रैककस्मिन् भेदे द्विक, तद्यथा-अनन्तरनिक्षिप्तं परम्परनिक्षिप्तं च, तत्र यद्विध्यातादिरूपे बढी मण्डकादि निक्षिप्तं तदनन्तरनिक्षित, वत्पुनरोरुपरि स्थापिते पिठरादौ निक्षिप्तं तत्परम्परनिक्षिप्तं तत्र सप्तानां भेदानां मध्ये यमेव तमेव वा भेदमधिकृत्य । का यन्वे' इक्षुरसपाकस्थाने कटाहादी ' अवलिले ' मृत्तिकावरण्टिते यतनया परिशाठिपरिहारेण प्रदणमिक्षुरसस्य कल्पते । सम्पत्पेनामेव | गायां व्याख्यानयन् प्रथमतो विध्यातादीनां स्वरूपं गाथाद्वयेनाहविज्झाउत्ति न दीसइ अग्गी दीसेइ इंधणे छुढे । आपिंगल अगणिकणा मुम्मुर निज्जाल इंगाले ॥ ५५ ॥ ॥१५२॥ अप्पत्ता उ चउत्थे जाला पिढरं तु पंचमे पत्ता । छठे पुण कण्णसमा जाला समइच्छिया चरिमे ॥ ५५१॥
दीप
अनुक्रम [५९०]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं .→ “नियुक्ति: [५५१] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
$$
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५५१||
व्याख्या-मुगमं । नवरम् ' अप्पचा उ चउत्ये माला' इति चतुर्थेप्राप्ताख्ये भेदे पिठरममाप्ता ज्याला द्रष्टव्या, एवमन्यत्राप्यक्षरगमनिका कार्या । सम्पति 'जंतोलित्ते य जयणाए' इत्यवयवं व्याचिरुपामुराहal पासोलित्त कडाहे परिसाडी नत्थि तंपि य विसालं । सोवि य अचिरच्छूढो उच्छुरसो नाइउसिणो य ॥५५२॥
___ व्याख्या-इह यदीति सर्वत्राध्याहियते, यदि कटाहः-पिठरविशेषः सर्वतः पार्वेषु मृत्तिकयाऽवलिप्तो भवति दीयमाने चेचरसे यदि परिशाटिनोपजायते तदपि च कटाहरूपं भाजनं यदि 'विशालं 'विशालमुखं भवति, सोऽपि चेक्षुरसोऽचिरक्षिप्त इतिकृत्वा यदि नात्युष्णो भवति तदा स दीयमान इक्षुरस: कल्पते, इह यदि दीयमानस्येक्षुरसस्य कथमपि बिन्दुबहिः पतति तहि स लेप एवावर्तते, न तु चुल्लीमध्यस्थिततेजस्कायमध्ये पतति ततः पार्थावलिप्त इति कटाहस्य विशेषणमुक्तं, तथा विशालमुखादाकृष्यमाण उदचनः पिठरस्य कर्णे न लगति ततो न पिठरस्य भङ्ग इति न तेजःकायविराधनेति विशालग्रहणम्, अनत्युष्णग्रहणे तु कारणं स्वयमेव वक्ष्यति । सम्म-17
युदकमधिकृत्य विशेषमाह|| उसिणोदगंपि घेप्पइ गुडरसपरिणामियं अणच्चुसिणं । जं च अघट्टियकन्नं घट्टियपडणमि मा अग्गी ॥ ५५३ ॥
व्याख्या-उष्णोदकमपि गुढरसपरिणामितमनत्युष्णं गृह्यते, किमुक्तं भवति ?-पत्र कटाहे गुडः पूर्वं कथितो भवति, तस्मिन्निलिप्त जलमीपत्तप्तमपि कटाइसंसक्तगुडरसमिश्रणात् सत्वरमचित्तीभवति, ततस्तदनत्युष्णमपि कल्पते, अत्रापि पावलिप्तकटाहस्थितमप-| रिशाटिमवेति विशेषणद्वयमनुपातमपि द्रष्टव्य, तथा 'यदघटितकर्णन यस्मिन् दीयमाने पिठरस्य कर्णावृदश्चनेन भविशता निर्गच्छता
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आगम
(४१/२)
प्रत गाथांक
नि/भा/प्र
||५५३||
दीप
अनुक्रम
[ ५९५ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [५९५ ] • → + भाष्यं [ ३७...] + प्रक्षेपं [६... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
"निर्युक्तिः [५५३]
८०
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पिण्डनिर्यु- वा घट्टयेते तदीयमानं कल्पते, तत इत्याह-' घट्टियपडणंमि मा अग्गी' उदचनेन प्रविशता निर्गच्छता वा पिठरस्य कर्णयोर्यद्वयमानयोतेर्मलयगिर्लेपस्योदकस्य वा पतनेन माऽभिविराध्यतेति कृत्वा, एतेन च वक्ष्यमाणपोडशभङ्गानामाद्यो भङ्गो दर्शितः । सम्प्रति तानेव षोडश भ ङ्गान् दर्शयति
याचि
॥१५३॥। ४
पासोलि कडाहेऽनसिणे अपरिसाडऽघट्टंते । सोलसभंगविगप्पा पढमेऽणुन्ना न सेसेसु ॥ ५५४ ॥
व्याख्या --- पालितः कटाहः, अनत्युष्णो दीयमान इक्षुरसादिः, अपरिशाटिः परिशाटयभाव:, ' अहंते' इति उदश्वनेन पिठरकर्णाघट्टने, इत्यमूनि चत्वारि पदान्यधिकृत्य पोटश भट्टा भवन्ति । भङ्गानां चानयनार्थमियं गाथा
पयसमदुगअब्भासे माणं भंगाण तेसिमा रयणा । एगंतरियं लहुगुरु दुगुणा दुगुणा य वामेसु ॥ ५५५ ॥
अस्या व्याख्या इह यावतां पदानां भङ्गा आनेतुमिष्यन्ते तावन्तो द्विका ऊर्ध्वाचः क्रमेण स्थाप्यन्ते, ततस्तेषामभ्यासे सति यदन्तिये द्विके समागच्छति तद्भङ्गानां 'मानं ' प्रमाणं, तथाहि इद्द चतुर्णी पदानां भट्टा आनेतुमिष्टास्ततथत्वारो दिवा ऊर्ध्वाधः क्रमेण स्थाप्यन्ते, ततः प्रथमो द्विको द्वितीयेन द्विकेन गुण्यते, जाताश्चत्वारः, तैस्तृतीयो द्विको गुण्यते जाता अष्टो, तैरपि चतुर्थी द्विको गुण्पते, जाता: पोडश, एतावन्तचतुर्णी पदानां भङ्गा भवन्ति तेषां च पुनर्भङ्गानामेषा रचना, प्रथमपङ्कावेकान्तरितं लघुगुरु, प्रथमं लघु ततो गुरु, पुनर्लघु पुनर्गुरु, एवं यावत् षोडशो भङ्गः ततः प्रज्ञापकापेक्षया 'वामेवु ' वामपार्श्वेषु द्विगुणद्विगुणा लघुगुरवः, तद्यथा-द्वितीयपङ्कौ प्रथमं द्वौ लघु ततो द्वौ गुरू ततो भूयोऽपि द्वौ लघु एवं यावत्पोडशो भङ्गः, तृतीयपङ्कौ प्रयमं चत्वारो पत्रः ततवत्वारो गुरवः,
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एषणायां
निक्षिप्तदोषः
॥१५३॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१९७] » “नियुक्ति: [५५५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५५५||
दीप
ततः पुनरधश्चत्वारो लघवस्ततश्चत्वारो गुरवः, चतुर्थपतयां प्रथममष्टौ लपवस्ततोऽष्टौ गुरवः । स्थापना चेय-1m 15 155 SIT ISIS ISSIISSS SI IS SIS) sss sst ssssssssss अत्र ऋजवः अंशाः शुदा वकाथाशुद्धा, इह पोडशानां दाभङ्गानामा भनेऽनुज्ञा, न शेपेषु पञ्चदशम भङ्गेषु । सम्मत्पत्थुष्णग्रहणे दोपानाह
दुविहविराहण उसिणे छड्डण हाणी य भाणभेओ य । । व्याख्या-उष्णे' अत्युष्णे इक्षरसादौ दीयमाने द्विधा विराधना, आत्मविराधना परविराधना च, तपाहि-यस्मिन् भाजने || तदत्युषणं गृह्णाति तेन तप्तं सद्भाजन हस्तेन साधुर्मुलन दह्यते इत्यात्मविराधना । येनापि स्थापितेन स्थानेन सा दात्री ददाति तेनाप्ययुष्णेन सा दह्यत इति । तथा 'छड्डणे हाणी य'त्ति अत्युष्णमिश्रसादि कष्टेन दात्री दातुं शक्नोति, कटेन च दाने कथमपि साधु
सत्कभाजनावहिरुज्झने हानिहींयमानस्येचरसादेः, तथा 'भाणभेओ' इति तस्य भाजनस्य साबुना बसतावानयनायोत्पाटितस्य पतद्धमहादेर्दाच्या वा दानायोत्पाटितस्योदश्चनस्य गण्डरहितस्यात्युष्णतया झगिति भूमो मोचने भगः स्पात, तथा च पडूनीवनिकायविराधनति संयमविराधना | सम्पति बातकायमधिकृत्यानन्तरपरम्परे दर्शयति
वाउक्खित्ताणंतरपरंपरा पप्पडिय वत्थी॥ ५५६ ॥ व्याख्या-वातोरिक्षताः " समीरणोत्पाटिताः 'पर्पटिकाः' शालिपपेटिका अनन्तरनिक्षित, परम्परनिलित 'पस्थिति विभशक्तिलोपावस्ती, उपलक्षणमेतत् , समीरणापूरितवस्तिदृतिप्रभृतिव्यवस्थितं मण्डकादि । सम्मति वनसतित्राविषयं द्विवियमपि निशिमाह
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अनुक्रम [५९७]
RELIGunintentiaTATE
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [१९९] » “नियुक्ति: [५५७] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५५७||
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पिण्डनियु- हरियाइअणंतरिया परंपरं पिढरगाइसु वर्णमि । पूपाइ पिट्ठणंतर भरए कुउबाइसू इयरा ।। ५५७ ॥
एषणाय कर्मळयगि- व्याख्या-'वने' बनस्पतिविषये अनन्तरनिक्षिप्तं' हरितादिषु सचित्तव्रीहिकामभृतिषु अनन्तरिता निक्षिप्ता अपूपादय इति ।
पिहितकापसाला शेषः, इरितादीनामेवोपरि स्थितेषु पिठरादिषु निक्षिप्ता अपूपादयः परम्परनिक्षिप्तं, तथा बलीवादीनां पृष्ठेऽनन्तरनिक्षिप्ता अपूपादयत्रसेश वनन्तरनिक्षिप्तं, बलीव दिपृष्ठ एव भरके कुतुपादिषु वा भाजनेषु निक्षिप्ता मोदकादयः परम्परनिक्षिप्तम् । इह सर्वत्रानन्तरनिक्षिप्तं न
ग्राय, सचित्तसङ्कहनादिदोषसम्भवात, परम्परनिक्षिप्तं तु सचित्तसङ्घहनादिपरिहारेण यतनया ग्राह्यमिति सम्पदायः । उक्त निक्षिप्तद्वा-|| भारम्, अथ पिहितद्वारमाह
सच्चित्ते अच्चिले मीसग पिहियमि होइ चउभंगो । आइतिगे पडिसेहो चरिमे भंगंमि भयणा उ॥ ५५८ ॥
व्याख्या-इह ' सचित्ते । इत्यादौ सप्तमी तृतीयार्थे, ततोऽयमर्थः-सचित्तेनाचित्तेन मिश्रेण वा पिहिते चतुर्भङ्गी भवति, अत्र जातावेकवचनं, तेन तिस्रचतुर्भङ्गयो भवन्तीति द्रष्टव्यं, तत्रैका सचित्तमिश्रपदाभ्यां, द्वितीया सचिचाचित्तपदाभ्यां, तृतीया मिश्राचित्तपदाभ्यां, तत्र सचित्तेन सचिचं पिडितं, मिश्रेण सचित्तं, सचित्तेन मिश्र, मिश्रेण मिश्रमिति प्रथमा चतुर्भङ्गी, तथा सचित्तेन सचित्तं पिहितम्, अचित्तेन सचितं, सचित्तेनाचित्तम्, अचित्तेनाचित्तामिति द्वितीया चतुर्भङ्गी, तथा मिश्रेण मिश्र पिहितं, मिश्रेणाचित्तम् अचित्तेन मिश्रम्, अचित्तेनाचित्तमिति तृतीया । तत्र गाथापर्यन्ततुशब्दवचनात प्रथमचतुर्भङ्गयां सर्वेष्वपि भङ्गेषु न कल्पते, द्वितीयत्तीयचतुर्भड्कियोस्तु प्रत्येकमादिमेषु २ त्रिषु भङ्गेषु न कल्पते इत्यर्थः, चरमे तु भङ्गे भजना, सा च 'गुरुगुरुणे त्यादिना स्वयमेव वक्ष्यति । सम्मति चतुभेङ्गीत्रयविषयावान्तरमङ्गकथनेऽतिदेशमाह
अनुक्रम [५९९]
॥१५४ा
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६०१] » “नियुक्ति: [५५९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५५९||
जह चेव उ निक्खित्ते संजोगा चेव होंति भंगा य । एमेव य पिहियांमवि नाणत्तमिणं तइयभंगे ॥ ५५९ ॥ ___ व्याख्या-यथैव 'निक्षिप्त' इति निक्षिप्तद्वारे सचित्ताचित्तमिश्राणां संयोगाः प्रागुक्ताः यथैव च सचित्तपृथिवीकायः सचित्तपृथिवीकायस्योपरि निक्षिप्त इत्पेवं स्वस्थानपरस्थानापेक्षया चतुर्भङ्गीत्रयभङ्गेष्वेककस्मिन् भने षट्त्रिंशत् पत्रिंशद्भेदा उक्ताः, सर्वसङ्ख्यया चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि, तयाऽत्रापि पिहितद्वारे द्रष्टव्याः, तथाहि-मागिवात्रापि चतुर्भङ्गीत्रयम् , एकैकस्मिश्च भङ्गे सचित्तः पृथिवीकायः || सचित्तपृथिवीकायेन पिहित इत्यादिरूपतया स्वस्थानपरस्थाने अधिकृत्य षट्त्रिंशत् षट्त्रिंशद्भेदाः, सर्वसङ्घचया (शतानि) चत्वारि द्वात्रिंशदधिकानि भङ्गानां । नवरं द्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गयोः प्रत्येकं तृतीये भङ्गेऽनन्तरपरम्परमार्गणविधी निक्षिप्तद्वारादिद-वक्ष्यमाणं नानात्वमवसेयं, निक्षिप्तेऽन्येन प्रकारणानन्तरपरम्परमार्गणा कृता अत्र त्वन्येन प्रकारेण करिष्यते इति भावः । तत्र सचित्तपृथिवीकाये
नावष्टब्धं मण्डकादि सचित्तपृथिवीकायानन्तरपिहितं, सचित्तपृथिवीकायगर्भपिठरादिपिहितं सचित्तपृथिवीकायपरम्परपिहितं, तथा हिमादिनाEsवष्टब्धं मोदकादि सचित्ताप्कायानन्तरपिहित हिमादिगर्भपिठरादिना पिहितं सचित्ताप्कायपरम्परपिहितं । सचित्ततेजस्कायादिपिहितमनन्तरं परम्परं च गाथाद्वयेनाह
अंगारधूवियाई अणंतरो संतरो सरावाई । तत्थेव अइर वाऊ परंपरं बत्थिणा पिहिए ॥ ५६० ॥ अइरं फलाइपिहितं वर्णमि इयरं तु छब्बपिठराई । कच्छवसंचाराई अणंतराणंतरे छठे ॥ ५६१ ॥ व्याख्या-इह यदा स्थाल्यादी संस्वेदिमादीनां मध्येऽङ्गार स्थापयित्वा हिङ्ग्यादिना वासो दीयते तदा तेनाकारण केपाश्चि
दीप अनुक्रम [६०१]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६०३] » “नियुक्ति: [५६१] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
एषणायां पिहितदोषः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५६१||
पिण्डनियु- संस्वेदिमादीनां संस्पर्शोऽस्तीति ता अनन्तरपिहिताः, आदिशब्दाचनकादिकं मुर्मुरादिक्षिप्तमनन्तरपिहितमवगन्तव्यम् , अङ्गारभृतेन शरातेर्मळयगि-हावादिना स्थगितं विठरादि परम्परपिहितं । तथा 'तत्रैव' अङ्गारधूपितादौ 'अइर 'चि अतिरोहितमनन्तरपिहितं वायोद्रष्टव्यं, 'यत्रा- रीयावृत्तिः निस्तत्र वायु रिति वचनात, समीरणभृतेन तु बस्तिना, उपलक्षणमेतत् , बस्तितिप्रभृतिना पिहितं परम्परपिहितमवसेयं । तथा 'पने
वनस्पतिकायविषये फलादिना 'अइर'ति अतिरोहितेन पिहितमनन्तरपिहित, 'छब्बपिठरादौ' छब्बकस्थाल्यादौ स्थितेन फलादिना । पिहितम् 'इयर'ति परम्परपिहितं । तथा 'असे' त्रसकायविषये कच्छपेन सञ्चारादिना च-कीटिकापलयादिना यपिहितं तदनन्तरपिहितं, कच्छपसञ्चारादिगर्भपिठरादिना पिडित परम्परपिहितम् , इहानन्तरपिहितमकल्प्यं, परम्परपिहितं तु यतनया ग्राह्यं । यदुक्तं-'चरमे । भगमि भयणा उ' इति, तद्वाख्यानयनाहगुरु गुरुणा गुरु लहुणा लहुयं गुरुएण दोऽवि लहुयाई । अञ्चित्तेणवि पिहिए चउभंगो दोसु अग्गेझं ॥ ५६२ ॥
व्याख्या---'अचित्तेनापि ' अचित्ते देये वस्तुनि पिहिते 'चतुर्भङ्गी' चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा-गुरु गुरुणा पिहितमित्येको भङ्ग, गुरु लघुनेति द्वितीयः, लघु गुरुणेति तृतीया, 'दोवि लहुयाई ति लघु लघुना पिहितमिति चतुर्थः । एतेषु च चतुर्यु भङ्गेषु मध्ये द्वयो:प्रथपत्तीययोभन्योरपावं, गुरुदन्यस्योत्पाटने कथमपि तस्य पाते पादादिभङ्गसम्भवात् , ततः पारिशेष्याद् द्वितीयचतुथेयोपादामुक्तदोपा- भावार, देययस्त्वाधारस्य पिठरादेगुरुत्वेऽपि ततः करोटिकादिना दानसम्भवात् । उक्त विहितद्वारम्, अथ संहृतद्वारमाह
सञ्चित्ते अञ्चित्ते मीसग साहारणे य चउभंगो । आइतिए पडिसेहो चरिमे भंगमि भयणा उ ॥ ५६३ ॥
दीप अनुक्रम [६०३]
१५॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६०५] .→ “नियुक्ति: [५६३] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५६३||
व्याख्या-इह येन मात्रकेण कृत्वा भक्तादिकं दातुमिच्छति दात्री तान्यददातव्यं किमपि सचित्तमचित्तं मित्रं वाऽस्ति ततस्तदन्यत्र भूम्यादौ क्षिप्त्वा तेनान्यद्ददाति, तञ्च कदाचित्सचित्तेषु पृथिव्यादिषु मध्ये क्षिपति कदाचिदचित्तेषु कदाचिन्मिश्रेष, क्षेपणं च संहरणमुच्यते, ततः संहरणे सचित्तायधिकृत्य चतुर्भही, अत्र जातावेकवचनं, तिस्रचतुर्भङ्गयो भवन्तीत्यर्थः, तथादि-एका-चतुर्भद्री। सचित्तमिश्रपदाभ्यां, द्वितीया सचित्ताचित्तपदाभ्यां, मिश्राचित्तपदाभ्यां तृतीयेति, तत्र सचित्ते सचित्त संहत भित्रै सचित्रं सचित्ते मिश्रं मिश्रे मिश्रमिति मथमा चतुर्भझी, तथा सचित्ते सचित्तं संहृतम्, अचित्ते सचि, सचित्तेऽचित्तम्, अचित्तेऽचित्तमिति द्वितीया, तथा मिश्रे मिश्र संहृतम्, अचिचे मिश्र, मिश्रेऽचित्तम् , अचित्तेऽचित्तमिति तृतीया । अत्र गाथापर्यन्ततुशब्दसामर्थ्यात्प्रथमचतुर्भङ्गीकाया: सर्वेष्वपि भङ्गेषु प्रतिषेधः, द्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गीकयोस्तु 'आदित्रिके' आदिमेषु त्रिषु त्रिषु भङ्गे प्रतिपेयः, चरमे भजना । अधुना
चतुर्भङ्गीत्रयसत्कावान्तरभङ्गाकथनेऽतिदेशमाहA जह चेव उ निक्खित्ते संजोगा चेव होंति भंगा य । तह चेव उ साहरणे नाणत्तमिणं तइयभंगे ॥ ५६४ ॥ 18 व्याख्या-यथैव 'निक्षिप्ते' निक्षिप्तद्वारे सचिचाचित्तमिश्रपदानां संयोगाः कृताः, यथैव च सचित्तपृथिवीकायः सचिचपृथिवीका
यस्योपरि निक्षिप्त इत्येवं स्वस्थानपरस्थानापेक्षया चतुर्भङ्गीत्रयभनेवेककस्मिन् भने षट्त्रिंशत् षट्त्रिंशद्भङ्गा उक्काः, सर्वस सचया चत्वारि तानि द्वात्रिंशदधिकानि भङ्गानां, तथाऽत्रापि संहृतद्वारे द्रष्टव्या, तथाहि-मागिवात्रापि चतुर्भङ्गीत्रयमेकैकस्मिंश्च भने सचित्तः पृथिवीकायः सचित्तपृथिवीकायमध्ये संहृत इत्यादिरूपतया स्वस्थानपरस्थाने अधिकृत्य पत्रिंशत् षट्त्रिंशद्भङ्गाः, सर्वसङ्ख्यया भङ्गानां चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि । नवरं द्वितीयतृतीयचतुर्भनिकयोः प्रत्येकं तृतीये तृतीये भनेऽनन्तरपरम्परमार्गणाविधी निलिमद्वारादिदं वक्ष्यमाणं
दीप अनुक्रम [६०५]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६०७] » “नियुक्ति: [५६५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
विष्टनियु- केर्मलयगि- रीयात्तिः ॥१५॥
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५६५||
दोषः
नानात्वमवसे, निसिप्तद्वारेऽन्येन प्रकारेणानन्तरपरम्परमार्गणा कृता अत्र तु संहतद्वारेऽन्यथा करिष्यते इति भावः । तदेवान्ययात्वं एषणाया दर्शयन् संहरणलक्षणमाह
संहृतमत्तेण जेण दाहिइ तत्थ अदिजं तु होज्ज असणाई। छोटु तयन्नहि तेणं देई अह होइ साहरणं ॥५६५॥
व्याख्या-येन मात्रकेण दास्यति दात्री तबादेयं किमप्यस्ति 'अशनादिक भक्तादि सचिनपृथिवीकायादिकं चा, ततस्तवन 'अदेयम् । अन्यत्र स्थानान्तरे खित्वा ददाति 'अह 'त्ति एतत्संहरणं, तत पतल्लक्षणानुसारेणानन्तरपरम्परमार्गणा अनुसरणीया, तद्यथा-17 सचित्तपृथिवीकायमध्ये यदा संहरति तदाऽनन्तरसचित्तपृथिवीकायसंहृतं, यदा तु सचित्तपृथिवीकायस्योपरि स्थिते पिठरादौ सहरति तदा परम्परया सचित्तपृथिवीकाये सहृतम् । एवमकायादिष्वपि भावनीयम् । अनन्तरसंहृते न ग्राह्य, परम्परासंहृते सचित्तपृथिवीकायाद्यघटने ग्राह्यमिति । सम्मति द्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गीसत्कं तृतीयं तृतीय भङ्गमाश्रित्य येषु वस्तुघु मात्रकस्थितमदेयं वस्तु संहरति तान्युपदर्शयति-|
भूमाइएस तं पुण साहरणं होइ छसुवि काएमु । जं तं दुहा अचित्तं साहरणं तत्थ चउभंगो ॥ ५६६ ॥
व्याख्या-तत्पुनर्मात्रकस्थितस्यादेयस्य वस्तुनः संहरणम् 'भूम्यादिकेषु' सचित्तपृथिवीकायादिषु पसु जीवनिकायेषु भवति । जायते, तत्र चानन्तरोक्तमनन्तरपरम्परामार्गणमवधार्यम्, अनन्तरोक्त एव च कल्प्याकल्प्यविधिरवधारणीयः, तथा यत्संहरणं विधाऽपि आधारापेक्षया संहियमाणापेक्षया च अचित्तमचिचे यत्संहियते इत्यर्थः, तत्र 'चतुर्भङ्गी' चत्वारो भङ्गाः । तानेवाह___ सुके सुकं पढमो सुक्के उल्लं तु बिइयओ भंगो । उल्ले सुकं तइओ उल्ले उल्लं चउत्थो उ ॥ ५६७ ॥
दीप
अनुक्रम [६०७]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६०९] » “नियुक्ति: [५६७] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||५६७||
व्याख्या-शुष्के शुष्कं संहतमिति प्रथमो भङ्गः, शुष्के आमिति द्वितीयः, आर्दै शुष्कमिति तृतीयः, आदें भाईमिति चतुर्थः
एक्केके चउभंगो सुक्काईएसु चउसु भंगेसु । थोवे थोवं थोवे बहुं च विवरीय दो अन्ने ॥ ५६८ ॥
व्याख्या-(शुष्कादिषु) शुष्के शुष्कं संहृतमित्यादिषु चतुर्ध्वपि भङ्गेषु मध्ये एकैकस्मिन् भने चतुर्भङ्गी, तद्यथा-स्तोके शुष्के । Me स्तोकं शुष्क, स्तोके शुष्के बहु शुष्क, "विवरीय दो अन्ने 'चि एतद्विपरीतौ द्वौ अन्यौ भनी द्रष्टव्यौ, तद्यथा-शुष्क बहुके स्तोकं शुष्क, बहुके शुष्क बहु शुष्कमिति, एवं शुष्के आतमित्यादिष्वपि त्रिषु भङ्गेषु स्तोके स्तोकमित्यादिरूपा चतुर्भङ्गी प्रत्येक भावनीया, सर्वसघया पोडश भङ्गाः । अत्र कल्प्याकल्प्यविधिमाहजत्थ उ थोवे थोवं सुके उल्लं च छुहइ तं भव्भ (गेझं)। जइ तं तु समुक्खेउं थोवाभारं दलइ अन्नं ॥५६९॥
व्याख्या-पत्र तु भने स्तोके तुशब्दाबहुके च संहृतं भवति तदपि शुष्के शुष्कं कल्पते एव, अथवा शुष्क आई वाशब्दादा शुष्कमा आई वा तदा तद्भाहां, न शेष, कुतः? इत्पाइ-'जई । इत्यादि, यदि तदादेयं वस्तु स्तोकामारं । बहुभाररहितमन्यत्र समुतक्षिप्यान्यददाति तहि तत्कल्पते नान्यथा । बहुकं च संहियमाणं बहुभारं भवति, ततः शुष्के शुष्कमित्यादिषु चतुर्वपि भङ्गेषु प्रत्येकं स्तोके स्तोकं बहके स्तोकमिति प्रथमतृतीयभङ्गौ कल्पते, न द्वितीयचतुर्यो । तत्र दोषानाह
उक्खेवे निक्खिवे महल्लभाणमि लुह वह डाहो । अचियत्तं वोच्छेओ छक्कायवहो य गुरुमत्ते ॥ ५७० ॥ व्याख्या-'महति भाजने' प्रभूतादेयवस्तुभारयुक्त गुरुमात्रकरूपे 'उत्क्षेपे' उत्पाव्यमाने 'निक्षेपे' निक्षिप्यमाणे दायाः ।
दीप
अनुक्रम [६०९]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६१३] » “नियुक्ति: [५७१] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५७१||
दीप अनुक्रम [६१३]
पिण्डनियुIAL पीडा भवति, तथा लुब्धोऽयं न परपीडां गणयतीति निन्दा, तथा तद्भाजनं कदाचिदुष्णभक्तादिभृतं स्यात्ततस्तस्योत्पाटने कथमपि तस्य
एषणायां तमलयगि- विधे' विनाशे दायाः साधो; दाहः स्यात् , तथा मुण्टस्य भिक्षादानायोत्पाटितमिदं भनमित्येवं खेदवशतः कदाचिदमीतिरुपजायते,
दायकरीयादृत्तिः ततस्तव्याम्पद्व्यव्यवच्छेदः, तथा महति भाजने भग्ने तन्मध्यस्थिते भक्तादौ सर्वतो विसति भूम्यादिस्थितपृथिवीकायादिजन्तुविनाश:| ॥१५७१
यत एवमेते दोषाः ततः स्तोके बहुकं बहुके बहुकमिति द्वौ भनी सर्वत्रापि न कल्पेते । एतदेवाह
थोवे थोवं छूढं सुके उल्लं तु तं तु आइन्नं । बहुयं तु अणाइन्नं कडदोसो सोत्ति काऊणं ॥ ५७१ ॥
व्याख्या-स्तोके स्तोकम् , उपलक्षणमेतत् , बहुके वा स्तोकं यन्निक्षिप्तं तदपि शुष्के शुष्कं कल्पत एव, ततः शुष्के आई, तु.. शब्दादाः शुष्कमार्दै आर्दै च तद्भवति आचीण कल्पते इति भावः, यत्तु बहुकं स्तोके बहुके बहुकं वा संहियते तदनाचीर्ण, कृतः ?/21 इत्याह-स बहुकसंहारः कृतदोप:--अनन्तरगाथायामुक्तदोष इतिकृत्वा । उक्तं संहतद्वारम्, अथ दायकद्वारं गाथाषट्केनाह
बाले वेड़े मैत्ते उम्मच थेविरे' य जरिएं य । अघिल्लए [य] पगरिएं आरूंढे पाउयाहिं च ॥५७२ ॥ हत्यिदुनियलैबढे विवजिए चेव हत्थपाएहिं । तेरोसि गुठिवणी बोलवच्छ भुंजंति" घुसुलिती ॥ ५७३ ॥
१५७॥ भजती य दैलती कंडती चेव तह य पीसंती" । पीजंती रुचंती तंति पमद्दमाणी य ॥ ५७४ ॥ छक्कायवग्ग,त्था सम? निक्खिवित्तु ते चेव । ते चेवोगाहती“ संघट्टतौरभंती य ॥ ५७५ ॥
अथ एषणा संबंधे दायकद्वारम् विस्तरेण वर्णयते
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६१८] » “नियुक्ति : [१७६] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५७६||
संसत्तेण य दवेण लित्तहत्था य लित्तमत्ती य । उव्वतंती साहारणं व दिती" य चोरिथयं ॥ ५७६ ॥ पाडियं च ठेवंती सपञ्चाया परं च उदिस्से । आभोगमणाभोगेण दलंती वज्जणिज्जा ए ॥ ५७७ ॥
व्याख्या-पालादयो वर्जनीया इति क्रियायोगः, तत्र 'बाल' जन्मतो वर्षाष्टकाभ्यन्तरवती, वृद्धः सप्तविवर्षाणां मतान्त-का रापेक्षया पष्टिवर्षाणां वोपरिवती २ 'मत्तः पीतमदिरादिः ३ 'उन्मत्तः ' दृशो ग्रहगृहीतो बा ४ 'वेपमानः' कम्पमानशरीरः ५ 'ज्वरितः' ज्वररोगपीडितः ६ 'अन्धः' चक्षुर्विकल: ७'प्रगलितः' गलत्कुष्ठः ८ 'आरूढः पादुकयोः काष्ठमयोपानहोः ९ तथा : "इस्तान्दुना' करविषयकाष्ठमयवन्धनेन १० 'निगडेन च' पादविषयलोहमयबन्धनेन बद्धः ११ इस्ताभ्यां पादाभ्यां वा विवर्जितश्किात्वात् १२' त्रैराशिका' नपुंसकः १३ 'गुर्षिणी' आपन्नसत्त्वा १४ 'बालवत्सा' स्तन्पोपजीविशिशुका १५ 'भुञ्जाना' भोजनं || कुर्वती १६ 'घुमुलिंती' दध्यादि मनती १७ 'भर्जमाना' चुल्यां कडिल्लकादौ चनकादीन् स्फोटयन्ती १८ 'दलयन्ती' घरटेन ।
गोधूमादि चूर्णयन्ती १९ 'कण्डयन्ती उदुखले तण्डुलादिकं छटयन्ती २० 'विषन्ती' शिलायां तिलामलकादि प्रमगन्ती २१ 'पिज-11: कायन्ती' पिञ्जनेन रूतादिकं विरकं कुर्वती २२ 'रुञ्चन्ती' कसं लोठिन्यां लोठयन्ती २३ 'कृतन्ती' कर्त्तनं कुर्वती २४ 'ममदती
रूतं कराभ्यां पौनःपुन्येन विरलं कुर्वती २५ 'पट्कायव्यग्रहस्ता' षटूकाययुक्तहस्ता २६ तथा श्रमणस्य भिक्षादानाय तानेव षट्काबयान भूमौ निक्षिप्य ददती २७ तानेव पदकायानवगाहमाना पादाभ्यां चालयन्ती २८ ' सङ्घयन्ती ' तानेव षटकायान् शेषशरीरावयन स्पृशन्ती २९ 'आरभमाणा' तानेव षट्कायान् विनाशयन्ती ३० 'संसक्तेन' दध्यादिना द्रव्येण 'लिप्तहस्ता' खरण्टितहस्ता १ तथा तेनैव द्रव्येण दध्यादिना संसक्तेन 'लिप्तमात्रा खरण्टिवमात्रा ३२ 'उदयन्ती' महत्पिठरादिकमुपेतन्मध्यादती ३३ साधारणं
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अनुक्रम [६१८]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६१९] » “नियुक्ति : [१७७] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५७७||
पिण्डनियु- का वहनां सरकं ददती ३४ तथा चोरितं ददति(ति) तथा चोरित दयन्ति(न्ति) ३५ माभूतिका स्थापयन्ती-अनकूरादिनिमित्तं मूल- एपणायां कर्मयनि-स्थाल्या आकृष्य स्थगनिकादौ मुश्चन्ती ३६ 'सपत्यपाया' सम्भाव्यमानापाया दात्री ३७ तथा विवक्षितसाधुव्यतिरकेण परमन्यं साध्वा- दायकरीयावृत्तिः दिकमुश्श्यि यत्स्थापितं तद्ददती, ३८ तथा 'आभोगेन' साधूनामित्वं न कल्पत इति परिज्ञानेऽप्युपेत्याशुद्धं ददती ३९ अथवाऽनाभो- दोपः ४०
:गनाशुदं ददती ४० सर्वसङ्ख्यया चत्वारिंशदोषाः । इह प्रक्षितादिद्वारेषु 'संसज्जिमेहिं वज्ज अगरहिएहिपि गोरसदवेहि ' इत्यादिना| ॥१५८॥
ग्रन्थेन संसक्तादिदोषाणामभिधानेऽपि यद्भूयोऽप्यत्र 'संसत्तेण य दन्वेण लित्तइत्था य लित्तमत्ता य' इत्यायभिधानं तदशेषदायकदोपाणामेकत्रोपदर्शनार्थमित्यदोपः । सम्पत्येतेषामेव दायकानामपवादमधिकृत्य वर्जनावर्जनविभागमाह
एएसि दायगाणं गहणं केसिंचि होइ भइयव्वं । केसिंची अग्गहणं तधिवरीए भवे गहणं ॥ ५७८ ॥
व्याख्या- एतेषां' वालादीनां दायकानां मध्ये केपाश्चिन्मूलत आरभ्य पञ्चविंशतिसङ्ख्यानां ग्रहणं भजनीयं, कदाचितथाविध महत्वयोजनमुद्दिश्य कल्पते, शेषकालं नति, तथा केषाश्चित षट्कायव्यग्रहस्तादीनां पश्चदशानां दस्तादग्रहणं भिनायाः, तद्विप-15 रीते तु ' बालादिविपरीते तु दातरि भवेद्भहणं । सम्पति बालादीनां इस्तादिक्षाग्रहणे ये दोषाः सम्भवन्ति ते दर्शनीयाः, तत्र प्रथमतो बालमधिकृत्य दोषानाह| कब्बढिग अप्पाहण दिन्ने अन्नन्न गहण पज्जत् । खंतिय मगाणदिन्ने उड्डाह पओस चारभडा ॥ ५७९ ॥
॥१५८|| व्याख्या-काचिदभिनवा श्राद्धिका श्रमणेभ्यो भिक्षां दद्या इति निजपुत्रिकाम् ' अप्पाहिऊणं' ति सन्दिश्य भक्त गृहीत्वा क्षेत्रं जगाम, गतायां तस्यां कोऽपि साधुसनटको भिक्षार्थमागतः, तया च पालिकया तस्मै तण्डुलौदनो वितीर्णः, सोऽपि च सङगटकमुख्यः |
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अनुक्रम [६१९]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६२१] » “नियुक्ति: [१७९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५७९||
साधुस्ता पालिका मुग्धतरामवगत्य लाम्पटवतो भूयो भूय उवाच-पुनर्देहि पुनर्देहीति, ततस्तया समस्तोऽप्योदनो दत्तः, तत एवमेवं मुद्घृततक्रदध्यादिकमपि, अपराद्धे च समागता जननी, उपविष्टा भोजनाय, भणिता च निजयुत्रिका-देहि पुत्रि! मामोदनमिति, साध्वोचत-दत्तः समस्तोऽप्योदनः साधये, साऽधवीव-शोभनं कृतवती, मुगान् मे देहि सा माह-मुद्रा अपि साधने सर्वे प्रदत्ताः एवं च यद्यत् किमपि सा याचते तत्सर्वं साधये दत्तमिति ब्रवीति, ततः पर्यन्ते काञ्जिकमात्रमयाचत, तदपि बालिका भणति-साधवे। दत्तमिति, ततः साभिनवश्राद्धिका रुष्टा सती पुत्रिकामेवमपबदति-किमिति त्वया सर्व साधवे प्रदत, सा ब्रते-स साधर्भयो भयोs-18 याचत ततो मया सर्वमदायि, ततः सा साधोपरि कोपावेशमाविशन्ती सूरीणामन्तिकमगमत, अचकच सकलमपि साधुवृत्तान्तं, यथा भवदीयः साधुरिस्थमित्थं मत्पुत्रिकायाः सकाशाद्याचित्वा याचित्वा सर्वमोदनादिकमानीतवानिति, एवं तस्यां महता शब्देन कथयन्त्यां शब्दश्रवणतः पातिवेश्मिकजनोऽन्योऽपि च परम्परया भूषाम्मिलितो ज्ञातश्च सर्वैरपि साधुवृत्तान्तः, ततो विदधति तेअपि कोपावेशतः साधूनामवर्णवाद नूनमपी साधुबेपपिडम्बिनश्चारभटा इव लुण्टाका न साधुसदत्ता इति, ततः प्रवचनावणेवादापनोदाय मूरिभिस्तस्याः सर्वजनस्य च समक्षं स साधुनिर्भत्स्योंपकरणं च सकलमागृह्य वसतेनिष्काशितः, तत एवं तस्मिनिष्काशिते आविकायाः कोपः शममगमत् , ततः मूरीणां क्षमाश्रमणमादायोक्तवती-भगवन् !मा मन्निमित्तमेष निष्काश्यता, क्षमस्वैकं ममापराधमिति, ततो भूयोऽपि यथावत्साधुः शिक्षित्वा प्रवेशितः । सूत्र सुगम । नवरम् 'उडाह पओस चारभडा' इति, लोके उडाइः ततो लोकस्य मद्वेषभावतधारभटा इव लुण्टाका अमी न साधव इत्यवर्णवादः। यत एवं बालाद्भिक्षाग्रहणे दोपास्ततो चालान ग्राह्यमिति । सम्पति स्थविशारदायकदोषानाह
दीप
अनुक्रम [६२१]
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||५८०||
दीप
अनुक्रम [६२२]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [६२२] • → “निर्युक्ति: [ ५८० ] + भाष्यं [ ३७...] + प्रक्षेपं [६... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
८०
पिण्डनिर्युकैर्मलयगियावृत्तिः
॥ १५९ ॥
थेरो गलंतलाल कंपणहत्थो पडिज्ज वा देतो। अपहुचि य अचियत्तं एगयरे वा उभयओ वा ॥ ५८० ॥
व्याख्या - अत्यन्तस्थविरो हि प्रायो गल्ल्लालो भवति, ततो देयमपि वस्तु लालपा खरष्टितं भवतीति तद्ग्रहणे लोके जुगुप्सा, तथा कम्पमानदस्तो भवति, ततो हस्तकम्पनवशादेयं वस्तु भूमौ निपतति, तथा च षड्जीवनिकायाविराधना, तथा स्वयं वा स्थविरो ददनिपतेत् तथा च सति तस्य पीडा भूम्याश्रितषड्जीवनिकायविराधना च, अपि च प्रायः स्थविरो गृहस्वामभुः - अस्वामी भवति, ततस्तेन दीयमानेन प्रभुरेप इति विचिन्त्य गृहे स्वामित्वेन नियुक्तस्याचियत्तं - प्रद्वेषः स्यात् स चैकतरस्मिन् साधौ हुद्धे वा, यद्वाउभयोरपीति । मत्तोन्मत्तावाश्रित्य दोषानाह---
अवयास भाग (घा) भेओ वमणं असुइति लोगगरिहा य। एए चैव उ मत्ते वमणविवज्जा य उम्मते ॥ ५८१ ॥
व्याख्या - ' मत्तः कदाचिन्मत्ततया साधोरालिङ्गनं विदधाति तथा कोऽपि मत्तः मदवलितया रे मुष्ट ! किमत्रायातः ? इति ब्रुवन् घातमपि विदधाति भाजनं वा भिनत्ति, यद्वा कदाचित्सीतमासवं ददानो वमति, वमँथ साधुं साधुपात्रं वा खरटयति, ततो लोके जुगुप्सा, घिगमी साधवोऽशुचयो ये मत्तादपीत्थं भिक्षां गृहन्तीति, तत एवं यतो मत्तेऽवयासादयो दोषास्तस्मान्न ततो ग्राह्यम् एत एवालिङ्गनादयो दोपा वमनवर्जा उन्मत्तेऽपि तस्मात्ततोऽपि न ग्राह्यम् । सम्पति वेपितज्वरितावाश्रित्य दोषानाह वेविय परिसाडणया पासे व भेज्ज भाणभेओ वा । एमेव य जरियंमिवि जरसंक्रमणं च उड्डाहो ॥ ५८२ ॥ व्याख्या– वैपितादातुः सकाशाद्भिक्षाग्रहणे देयवस्तुनः परिशाटनं भवति, यद्वा पार्श्वे साधुभाजनाद्वहिः सर्वतोऽपि देयं वस्तु
Education Intention
For Parts Only
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एषणायां दायक
दोषः ४०
।। १५९ ।।
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६२४] » “नियुक्ति: [५८२] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५८२||
क्षिपेत् , यद्वा येन स्थाल्यादिना भाजनेन कृत्वा भिक्षामानयति तस्य भूमौ निपाते भेदः-स्फोटनं स्यात् , एवमेव ज्वरितेऽपि दोषा भावनीयाः, किंच-ज्वरितादहणे ज्वरसङ्क्रमणमपि साधीभवेत् , तथा जने उड्डाहो-ययाऽहो ! अमी आहारलम्पटा यदित्यं ज्वरपीडितादपि भिक्षां गृह्णन्तीति । अन्धगलत्कुष्ठावाश्रित्य दोषानाह
उड्डाह कायपडणं अंधे भेओ य पास छुहणं च । तहोसी संकमणं गलंतभिसभिन्नदेहे य ॥ ५८३ ॥
व्याख्या-अन्धादिक्षाग्रहणे उड्डाहः, स चायम्-अहो! अमी औदरिका यदन्यादपि मिक्षां दातुमशक्नुवतो भिक्षां गृहन्तीति, तथा 'अन्धः' अपश्यन पादाभ्यां भूम्पाश्रितपडूजीवनिकायघातं विदधाति, तथा लोष्ट्रादौ स्खलितः सन् भूमौ निपतेत , तथा च सति भिक्षादामायोत्पाटितहस्तगृहीतस्थाल्पादिभाजनभङ्गः, तथा स देयं वस्तु पायें-भाजनबहिस्तात पक्षिपेददर्शनात्, तस्मादन्धादपिन ग्राह्यम् । तथा त्वग्दोषिणि, किंविशिष्टे ? इत्याह-गलशभिन्न देहे' आपत्ताद्वयत्यासेन पदयोजना, सा चैव- भृशम् ' अतिशयन
गलत् ' अर्द्धपक्वं रुधिरं च बहिर्वहन भिन्नश्च-स्फुटितो देहो यस्य स तथा तस्मिन् दातरि 'सक्रमगं' कुष्ठ व्याधिसङ्क्रान्तिः स्यात, तस्माचतोऽपि न ग्राह्यम् । सम्पति पादुकारूढादिचतुष्टयदोषानाहपाउयदुरूढपडणं बढे परियाव असुइखिसा य । करछिन्नासुइ खिसा ते चिय पायेऽवि पडणं च ॥ ५८४ ॥
व्याख्या-पादुकारूढस्य भिक्षादानाय प्रचलतः कदाचिदुःस्थितत्वेन पतनं स्यात् , तथा बद्धे दातरि भिक्षां प्रयच्छति 'परिताप:' दुःखं तस्य भवेत् , तथा 'असुइ 'चि मूत्राात्सर्गादौ जलेन तस्य शौचकरणासम्भवात्ततो भिक्षाग्रहणे लोके जुगुप्सा, यथा
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अनुक्रम [६२४]
RELIGunintentiaTREE
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६२६] » “नियुक्ति: [५८४] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियुकर्मळयगि
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५८४||
अमी अशुचयो यदेतस्मादप्पशुचिभूतादिक्षामाददतीति, एवं छिन्नकरेऽपि भिक्षा प्रयच्छति लोके जुगुप्सा, तथा हस्ताभावेन शाचकर- एषणायाँ
णासम्भवात् , एतचोपलक्षणं, तेन हस्ताभावे येन कृत्वा भाजनेन भिक्षां ददाति यदा देयं वस्तु तस्य पतनमपि भवति, तथा च सति | दायकरीयावृत्तिः
पदजीवनिकायव्याघातः, एत एव दोषाः पादेऽपि-छिन्त्रपादेऽपि दातरि द्रष्टव्याः, केवलं पादाभावेन तस्य भिक्षादानाय चलतः मायो दोषः ४० ॥१६॥ नियमतः 'पतनं ' पातो भवेत्, तथा च सति भूम्याश्रितकीटिकादिकसत्वव्याघातः । सम्पति नपुंसकमधिकृत्य दोषानाह
आयपरोभयदोसा अभिक्खगहणंमि खोभण नपुंसे । लोगद्गुंछा संका एरिसया नृणमेएऽवि ।। ५८५॥
व्याख्या-नपुंसके मिक्षां प्रयच्छति आत्मपरोभयदोषाः, तथाहि नपुंसकात् अभीक्ष्णं भिक्षाग्रहणेऽतिपरिचयो भवति, अतीच परिचयाच तस्य नपुंसकस्य साधोक्षोभो-वेदोदयरूपः समुपजायते, ततो नपुंसकस्य साधुलिझायासेवनेन द्वयस्यापि मैथुनसेक्या कर्मबन्धः, अभीक्ष्णग्रहणशब्दोपादानाथ कदाचिद्भिक्षाग्रहणे दोपाभावमाह परिचयाभावात्, तथा लोके जुगुप्सा यते नपुंसकापि निकृष्टादिक्षामाददत इति, साधूनामप्युपरि जनस्य शङ्का भवति-यथतेऽपि साधनो नूनमीदृशाः-नपुंसकाः, कथमन्यथा अनेन । सह भिक्षाग्रहणव्याजतोऽतिपरिचयं विदधत इति! | सम्पति गुम्विणीवालवत्से आश्रित्य दोषानुपदर्शयति
गुम्विणि गम्भे संघट्टणा उ उर्दुतुवेसमाणीए । बालाई मंसुडग मज्जाराई विराहेज्जा ॥ ५८६ ॥
च्याख्या-गुम्चिण्या भिक्षादानार्थमुत्तिष्ठन्त्या भिक्षा दच्या स्वस्थाने उपविशन्त्याश्च 'गर्भ' गर्भस्य ' सहन' सञ्चलनं ॥१०॥ कभवति, तस्मान ततो ग्राह्यं, 'बालाई ममुंडग'ति, अबाऽऽर्षत्वायत्यासेन पदयोजना, 'बाल'मिति शिशु भूमौ मञ्चिकादौ वा निक्षिप्य |
यदि भिक्षा ददाति तदितं बालं 'मानोरादिः' बिडालसारमेयादिः 'मांसोंदुकादि ' मांसखाई शशकशिशुरिति वा कृत्वा 'विराधयेत्'
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अनुक्रम [६२६]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [६२९] » “नियुक्ति: [५८७] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५८७||
विनाशयेत्, तथाऽऽहारखरण्टितौ शुष्की हस्ती कर्कशौ भवतः, ततो भिक्षा दचा पुनर्दाच्या हस्ताभ्यां गृह्यमाणस्य बालस्य पीडा भवेत, दसतो बालवरसातोऽपि न ग्राह्यम् । भुञ्जानां मथ्नतीं चाश्रित्य दोषानाह
भुजंती आयमणे उदगं छोट्टी य लोगगरिहा य । घुसुलंती संतते करमि लित्ते भवे रसगा॥ ५८७ ॥
व्याख्या-भुखाना दात्री भिक्षादानार्थमाचमनं करोति, आचमने च क्रियमाणे उदक विराध्यते, अथ न करोत्याचमनं ताहै। लोके छोटिरितिकृत्या गर्दा स्यात् । तथा 'घुमुलंती' दध्यादि मनती यदि तद्दध्यादि संसक्तं मनाति ताई तेन संसक्तदध्यादिना लिसे करे तस्या भिक्षा ददत्यास्तेषां रसजीवानां वधो भवति, ततस्तस्पा अपि हस्तान्त्र कल्पते । सम्मति पेषणादि कुर्वत्या दोषानुपदर्शयति--
दगबीए संघट्टण पीसणकंडदल भज्जणे डहणं । पिंजंत रुचणाई दिने लित्ते करे उदगं ॥ ५८८ ।।
व्याख्या-पेषणकण्डनदलनानि कुर्वतीनां इस्ताद्भिक्षाग्रहणे उदकवीजसट्टनं स्यात् , तथाहि-पिंपन्ती यदा भिक्षादानायोत्तिष्ठति सदा पिष्यमाणतिलादिसत्काः काश्चिनखिकाः सचित्ता अपि हस्तादो लगिताः सम्भवन्ति, ततो भिक्षादानाय इस्तादि
प्रस्फोटने भिक्षा वा ददत्या भिक्षासम्पर्कतस्तासां विराधना भवति, भिक्षां च दत्त्वा भिक्षावयववरण्टिती हस्तौ जलेन प्रक्षालयेत्, ततः जापपणे उदकवीजसहट्टनम् , एवं कण्डनदलनयोरपि यथायोग भावनीयं, तथा 'भर्जने भिक्षा ददस्यां वेलालगनेन कडिल्लक्षिप्तगोधू
मादीनां दहनं स्यात, तथा पिञ्जनं रुञ्चनमादिशब्दास्कर्त्तनममईने च कुर्वती भिक्षा दत्वा भिक्षावयवखरण्टितौ हस्तौ जलेन प्रक्षाल- | हायेत् , ततस्तत्राप्युदकं विनश्यतीति न ततोऽपि भिक्षा कल्पते । सम्पति षट्कायव्यग्रहस्तादिपञ्चकस्वरूपं गाधाद्वयेनाह
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अनुक्रम [६२९]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६३१] » “नियुक्ति: [५८९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियु
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५८९||
लोणं दग अगणि वत्थी फलाइ मच्छाइ सजिय हत्थंमि । पाएणोगाहणया संघट्टण सेसकाएणं ॥ ५८९ ॥
४ाएषणाया केर्मळयगि
खणमाणी आरभए मज्जइ धोयइ व सिंचए किंचि । छेयविसारणमाई छिदइ छट्टे फुरुफुरुते ॥ ५९॥ दायकरीयाचिः
व्याख्या-दह सा पटुकापव्यग्रहस्ता उच्यते यस्या हस्ते सजीवं लवणमुदकमनिर्वायुपूरितो वा बस्तिर्फलादिक वीजपूरादिक । दोषः ४० ॥१६॥ मत्स्यादयो वा विषन्ते, सतः सा ययेतेषां सजीवलवणादीनामन्यतमदपि श्रमणभिक्षादानार्थं भूम्पादौ निक्षिपति दिन कल्पते ।
तथाऽवगाइना नाम यदेतेषां पपणां जीवनिकायानां पादेन सडकम, शेषकायेन इस्तादिना सम्मन सङ्घनम्, आरममाणा कुश्या
दिना भूम्यादि खनन्ती, अनेन पृथिवीकायारम्भ उक्तः, यद्वा 'मजंती' शुद्धेन जलेन सान्ती, अथवा 'धावंती' शुद्धनोदकेन वस्त्राणि । मिक्षालयन्ती, यदिवा किश्चिद् वृक्षवल्यादि सिञ्चन्ती, एतेनाप्कायारम्भो दर्शितः, उपलक्षणमेतत, ज्वलयन्ती वा फूत्कारेण वैश्वानरं |
वस्त्यादिकं वा सचित्तवायुभृतमितस्ततः प्रक्षिपन्ती, एतेनाग्निवायुसमारम्भ उक्तः, तथा शाकादेश्छेदविशारणे कुर्वती, तत्र छेदः-पुष्पफलादेः खण्डनं विशारणं-तेषामेव खण्डानां शोषणायातपे मोचनम्, आदिशब्दात्तण्डुलमुद्रादीनां शोधनादिपरिग्रहः, तथा छिन्दती पष्टान् त्रसकायान् मत्स्यादीन् 'फुरुफुरुते' इति पोस्फूर्यमाणान् पीडयो।लत इत्यर्थः, अनेन त्रसकायारम्भ उक्तः । इत्थं पट्जीव|निकायानारभमाणाया हस्तान्न कल्पते । सम्मति षद्कायव्यग्रहस्तेति पदस्य व्याख्याने मतान्तरमुपदर्शयति
॥१६॥ छक्कायवग्महत्था केई कोलाइकन्नलइयाई । सिद्वत्थगपरफाणि य सिरमि दिन्नाई बजेति ॥ ५९१ ॥ व्याख्या केचिदाचार्याः पदकायव्यग्रहस्तेतिवचनतः 'कोलादीनि' बदरादीनि, आदिशब्दास्करीरादिपरिग्रहः, 'कमलइयाई ति
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अनुक्रम [६३१]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६३४] » “नियुक्ति: [५९२] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५९२||
कणे पिनद्धानि तथा सिद्धार्थकपुष्पाणि शिरसि दत्तानि वर्जयन्ति, हस्तग्रहणं हि किल सूत्रे उपलक्षणं, तेन कर्णे शिरसि वा जीवनिकायसम्भवे तद्भस्तान्न कल्पते, तन्मतेन षट्कायव्यग्रहस्तेतिपदात षट्कायं सङ्घयन्तीत्यस्य पदस्य विशेषो दुरुपपादः । al अन्ने भणंति दससुवि एसणदोसेसु नत्थि तगहणं । तेण न वज्जं भन्नइ नणु गहणं दायगरगहणा ॥ ५९२ ॥
व्याख्या-अन्ये त्वाचार्यदेशीया भणन्ति-यथा दशस्वपि शङ्कितादिषु एषणादोषेषु मध्ये न तदहणं-पट्कायव्यग्रहस्तेत्युपादानमस्ति, तेन कारणेन कोलादियुक्तदाच्या भिक्षाग्रहणं न वय, तदेतत् पापात्पापीयो, यत आइ-मण्यते' अत्रोचरं दीयते । जाननु दायकग्रहणादेषणादोषमध्ये पटूकायव्यग्रहस्तेल्यस्य ग्रहणं विद्यते, तत्कथमुच्यते- ग्रहणमिति ? । सम्पति संसक्तिमव्यदायादिदोषानाह
संसज्जिमम्मि देसे संसज्जिमव्वलित्तकरमत्ता । संचारो ओयत्तण उक्खिप्पतेऽवि ते चेव ॥ ५९३ ॥
व्याख्या-संसक्तिमहन्यवति देशे-मण्डले संसक्तिमता द्रव्येण लिप्तः करो मात्र वा यस्याः सा तथाविधा दात्री भिक्षां ददती करादिलमान सत्वान् इन्ति, तस्मात्सा षण्येते, तथा महतः पिठरादेपवर्तने 'सञ्चारः" सूचनात्सूत्र 'मिति सञ्चारिमकीटिकामकास्कोटादिसम्वव्याघातः, इदमुक्तं भवति-महस्पिठरं यदा तदा वा नोत्पाव्यते नापि यथा तथा वा सवार्यते, महत्त्वादेव, किन्नु प्रयोजन- A विशेषोत्पत्ती सकृत, ततस्तदाश्रिताः मायः कीटिकादयः सत्त्वाः सम्भवन्ति, ततो यदा तस्पिठरादिकमुर्त्य किश्चिद्ददाति तदा तदा-18 हात्तिजन्तुव्यापादः, एते च दोषा उत्पाठ्यमानेऽपि महति पिठरादौ, तत्रापि हि भूयो निक्षेपणे इस्तसंस्पर्शतो वा सञ्चारिमकीटिकादि
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अनुक्रम [६३४]
For
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||५९३||
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अनुक्रम
[६३५ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) • → “निर्युक्तिः [५९३] + भाष्यं [ ३७...] + प्रक्षेपं [६...
मूलं [६३५]
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
पिण्डनिर्युकैर्मलयगिरीयावृत्तिः
।। १६२ ।।
सच्चाव्याघातः अपि च तथाभूतस्य महत उत्पादने दाभ्या पीडाऽपि भवति, तस्मान्न तदुत्पाटनेऽपि भिक्षा कल्पते । सम्मति साधारणं चोरितकं वा ददत्या दोषानाह
साधारण बहूणं तत्थ उ दोसा जहेब अणिसिहे । चोरियए गहणाई भयए सुण्हाइ वा दंते ॥ ५९४ ॥
व्याख्या - बहूनां साधारणं यदि ददाति तर्हि तत्र यथा प्रागनिसृष्टे दोषा उक्तास्तथैव द्रष्टव्याः । तथा चौर्येण भृतके - कर्म करे स्नुपादौ वा ददति 'ग्रहणादयः ' ग्रहणबन्धनताडनादयो दोषा द्रष्टव्याः, तस्मात्ततोऽपि न कल्पते । सम्मति प्राभृतिका स्थापनादिद्वारत्रयदोषानाह
पाहुडि ठवियगदोसा तिरिउड्ढमहे तिहा अवायाओ । धम्मियमाई ठवियं परस्स परसंतियं वावि ॥ ५९५ ॥
व्याख्या– प्राभृतिकां बल्यादिनिमित्तं संस्थाप्य या ददाति भिक्षां तत्र दोषाः प्रवर्त्तनादयः । सम्प्रति 'अपाये 'ति द्वारेऽपायात्रिविधाः, तद्यथा— तिर्यगूर्द्धमघव, तत्र तिर्यगवादिभ्य ऊर्द्धमुरङ्गकाष्ठादेरथः सर्पकण्टकादेः इत्थं च त्रिविधानामप्यपायानामन्यतममपायं बुद्धधा सम्भावयन्न ततो भिक्षां गृह्णीयात्, 'परं चोदिश्ये 'ति यदुक्तं, तत्राद' धार्मिकाद्यर्थम् ' अपरसाधुकापटिकप्रभृतिनिमित्तं यत् स्थापितं तत्परस्य परमार्थतः सम्बन्धीति न गृहीयात्, तग्रहणेऽदत्तादानदोपसम्भवात्, यद्वा 'परसंतियं व 'त्ति परस्यग्लानादेः सत्कं यद्ददाति तदपि स्वयपादातुं न कल्पते, अदत्तादानदोषात, किन्तु यस्मै ग्लानाय दापितं तस्मै नीत्वा दातव्यं स चेन्न गृह्णाति तहि भूयोऽपि दात्र्याः समानीय समर्पणीयं यदि पुनरेवं दात्री बदति-यदि उळानादिको न गृह्णाति तर्हि स्वयं ग्राह्यमिति, तर्हि ग्लानाद्यग्रहणे तस्य कल्पत इति । सम्मत्याभोगानाभोगदायक स्वरूपमाह -
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दायक
दोषः ४०
॥ १६२ ॥
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गाथांक
नि/भा/प्र
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अनुक्रम [६३८]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [६३८] • → “निर्युक्ति: [ ५९६ ] + भाष्यं [ ३७...] + प्रक्षेपं [६... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
८०
अणुकंपा डिणीयया व ते कुणइ जाणमाणोऽचि । एसणदोसे बिइओ कुणइ उ असढो अयातो ॥ ५९६ ॥
व्याख्या -सदैवैते महानुभावा यतयोऽन्तप्रान्तमशनमश्नन्ति तस्मात्करोम्येतेषां शरीरोपष्टम्भाय घृतपूरादीनीत्येवमनुकम्पया यदिषा मयैतेषामनेपणीयाग्रहणनियमभङ्गो भङ्गव्य इति प्रत्यनीकार्यतया जानानोऽपि तानाधाकर्मादिरूपानेषणादोषान् करोति, द्वितीयस्तु करोति अजानानः अशठभावः । तदेवं व्याख्यातानि चत्वारिंशदपि बालादिद्वाराणि, सम्मति यदुक्तम्- 'एएस दायगाणं गहणं केसिंचि होइ भइयव्वं इत्यादि, तयाचिख्यासुः प्रथमतो बालमाश्रित्य भजनामाद
भिक्खामित्ते अवियालणा उ बालेण दिज्जमाणंमि । संदिट्ठे वा गहणं अइबहुय वियालणेऽणुन्ना ॥ ५९७ ॥
व्याख्या - मातुः परोक्षे भिक्षामात्रे बालेन दीयमाने यदिवा पार्श्ववर्त्तिना मात्रादिना सन्दिष्टे सति तेन बालेन दीयमानेऽविचारणा-कल्पते इदं न वेति विचारणाया अभावः किन्तु ग्रहणं मिक्षाया भवति, अविबहुके तु वालेन दीयमाने किमय त्वं प्रभूतं ददासीति विचारणे सति यद्यनुज्ञा - पार्श्ववत्तिमात्रादिसत्कमुत्कलना भवति तदा ग्राह्यं नान्यथा । सम्पति स्थविरमत्तविषयां भजनापाड़थेर पहु थरथरते घरि अनेण दढसरीरे वा । अब्बत्तमत्तसड्ढे अविभले वा असागरिए ॥ ५९८ ॥
व्याख्या -- स्थविरो यदि प्रभुर्भवति, 'थरथरंते ति कम्पमानो यद्यन्येन विधृतो वर्त्तते स्वरूपेण वा इदशरीरो भवति तहिं ततः कल्पते, तथाऽव्यक्तं मनाकू यो मतः सोऽपि यदि श्राद्धोऽविलन - अपरवशथ भवति ततस्तस्मादेवंविधान्मतात् तत्र सागारिको न विद्यते तर्हि कल्पते नान्यथा । उन्मचादिचतुष्कविषयां भजनामाह-
Eucation Intention
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नि/भा/प्र
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दीप
अनुक्रम
[६४१]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [६४१] • → “निर्युक्ति: [ ५९९] + भाष्यं [ ३७...] + प्रक्षेपं [६... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
८०
पिण्डनिर्यु
कर्मकपि रीयावृत्तिः
॥ १६३॥
सुइभद्दग दित्ताई ढग्गहे वेत्रिए जरंभि सिवे । अन्नधरियं तु सड्ढों देयंधोऽत्रेण वा घरिए ॥ ५९९ ॥
1
व्याख्या - उन्मत्तो- हप्तादिग्रहगृहीतादिः स चेतु शुचिर्भद्रकथ भवति तदा तद्धस्तात्कल्पते, नान्यथा, वेपितोऽपि यदि दृढइस्तो भवति-न हस्तेन गृहीतं किमपि तस्य पतति तदा तस्मादपि कल्पते, ज्वरितादपि ग्राह्यं उबरे शिवे सति अन्धोऽपि यदि देयं वस्त्वन्येन पुत्रादिना घृतं ददाति स्वरूपेण श्राद्धव, यदिवा स एवान्योऽन्येन विवृतः सन् देवं ददाति वा ततो ग्रायं नान्यथा, | पूर्वोक्तदोषपसङ्गात् । त्वग्दोषादिपञ्चकविषर्या भजनामाह
मंडलपति कुट्टी सागरिए पाउयागए अथले । कमबद्धे सवियारे इयरे विडे असागरिए ॥ ६०० ॥
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व्याख्या—' मण्डलानि ' वृत्ताकारदद्भुविशेषरूपाणि 'प्रसूतिः' नखादिविदारणेऽपि चेतनाया असंवित्तिस्तद्रूपो यः 'कुष्ठः रोगविशेषः सोऽस्यास्तीति मण्डलप्रसूतिकुष्ठी स चेद् 'असागारिके' सागारिकाभावे ददाति तद्दि ततः कल्पते, न शेषकुष्ठिनः सागारिके वा पश्यति, पादुकारूढोऽपि यदि भवत्यचलस्थानस्थितस्तदा कारणे सति कल्पते, तथा 'क्रमयोः पादयोर्बद्धो यदि सविचार| इतश्चेतश्च पीडामन्तरेण गन्तुं शक्तस्ततो बद्धादपि तस्मात्कल्पते, इतरस्तु य इतश्चेतश्च गन्तुमशक्तः स चेदुपविष्टः सन् ददाति न च ॥ १६३ ॥ कोऽपि तत्र सागारिको विद्यते तर्हि ततोऽपि कल्पते, हस्तबद्धस्तु भिक्षां दातुमपि न शक्नोति, तत्र प्रतिषेध एव न भजना, उपलक्षणमेतत्, तेन छिन्नकरोऽपि यदि सागारिकाभावे ददाति तर्हि कल्पते, छिन्नपादो यद्युपट्टिः सन् सागारिका सम्पाते प्रयच्छति ततस्ततोऽपि कल्पते । नपुंसकादिसप्तक विषयां भजनामाह
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एषणाय
६ दायकदोषाप
वादाः
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||६०१||
दीप
अनुक्रम
[६४३ ]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) • → “निर्युक्ति: [ ६०१ ] + भाष्यं [ ३७...] + प्रक्षेपं [६... ८०
मूलं [ ६४३ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
पंड अप्पडिसेबी वेला थणजीवि इयर सम्बंपि । उक्खित्तमणात्राएं न किंचि लग्गगं ठतीए ॥ ६०१ ॥
व्याख्या नपुंसकोऽपि यदि 'अप्रतिसेवी' लिङ्गायना सेवकस्वा ततः कल्पते, तथाऽन्नपवाऽपि यदि ' वेळ 'चि 'सूच नात्सूत्र' मितिन्यायाद्वेलामासप्राप्ता भवति, नवममासगर्भा यदि भवतीत्यर्थः तर्हि स्थविरकल्पिकैः परिहार्या, अर्थात्तद्विपरीताया इस्तात्स्थविरकल्पिकानामुपकल्पते इति द्रष्टव्यं तथा याऽपि बालवत्सा स्तन्यमात्रोपजीविशिशुका सा स्थविरकल्पिकानां परिहार्या, न ततः स्थविरकल्पिकानामपि कल्पते किमपीति भावः यस्यास्तु चाल आहारेऽपि लगति तस्था हस्तात्कश्यते स हि प्रायः शरीरेण महान् भवति, ततो न मार्जारादिविराधनादोषप्रसङ्गः ये तु भगवन्तो जिनकल्पिकास्ते मूलत एवापन्नसच्चा वालवत्सां च सर्वथा परिहरन्ति एवं भुञ्जानाभर्जमानादन्तीष्वपि भजना भावनीया, सा चैवं—भुञ्जाना अनुच्छिष्टा सती यावदद्यापि न कवलं मुखे प्रक्षिपति तावचद्धअस्तात्कल्पते, भर्जमानाऽपि यत्सचित्तं गोधूमादि कडिल के क्षिप्तं तद्वत्तातिमन्यव नायापि इस्तेन गृह्णावि, अत्रान्तरे यदि साधुरायाती भवति सा चेद्ददाति तर्हि कल्पते, तथा दलपन्ती सचित्तमुद्रादिना दल्यपानेन सह घर मुक्तवती अत्रान्तरे च साधुरायातो भवति सा ॐ चेतस्ततो यद्युत्तिष्ठति, अचेतनं वा भृष्टं मुद्रादिकं दलपति तर्हि तद्धस्तात्कल्पते, कण्डपत्त्या कण्डनायोपाटितं मुशलं, न च तस्मिन् मुशले किमपि काञ्च्यां वीजं लग्नमस्ति, अत्रान्तरे च समायातः साधुस्ततो यदि सानपाये प्रदेशे मुगळं स्थापयिला भिक्षां ददाति तहि कल्पते । पिंपत्यादिविषयां भजनामाह
पीसंती निष्पिट्टे फासुं वा घुसुलणे असंसतं । कचणि असंखचुन्नं चुन्नं वा जा अयोक्वहिणी ॥ ६०२ ॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६४५] » “नियुक्ति: [६०३] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६०३||
१
दीप
पिण्डनियु- उब्वट्टणिऽसंसत्तेण वावि अट्ठीलए न घट्टेइ । पिंजणपमद्दणेसु य पच्छाकर्म जहा नस्थि ॥ ६०३ ॥
एपणायाः तेर्मळयगि-1
६दायकव्याख्या-पिंपन्ती 'निम्पिटे 'पेषणपरिसमाप्ती, मासुकं वा पिंपन्ती यदि ददाति ताई तस्या हस्ताकल्पते, तथा 'घुमुलणे' रीयावृत्तिः
दोषः ७शंखचूर्णा यससक्तं दध्यादि मनस्याः कल्पते, तथा कर्तने या अशङ्खचूर्ण-अखण्टितहस्तं कुन्तति, इह काचित्सूत्रस्यातिशयेन त तापादनाय शङ्खचूर्णेन हस्तौ जडतं च खरण्टयित्वा कृन्तति, तत उच्यते 'अडचूर्ण' मिति । अथवा चूर्णपपि-शङ्खचूर्णमपि गृहीत्वा कृन्तन्ती या 'अचोक्खलिणी' अनुक्षाशीला न जलेन हस्तौ प्रक्षालयतीति भावः, तस्या हस्ताकल्पते । तथा 'उद्वर्त्तने ' कार्पासलोठने असंसत्तेण वावि 'त्ति असंसक्तेनागृहीतकार्यासेन इस्तेनोपलक्षिता सती याचिष्ठन्ती 'अहिल्लए' अस्थिकान कापासिकानित्यर्थः न
यति तदा तद्धस्ताकल्पते । पिञ्जनप्रमईनयोरपि पश्चात्कर्म न भवति तथा ग्राह्यमिति । II सेसेसु य पडिवक्खो न संभवइ कायगहणमाईसु । पडिबक्खस्स अभावे नियमा उ भवे तयगाहणं ॥६.४॥
व्याख्या-शेपेषु द्वारेषु 'कायगहणमाईसु' षट्कायव्यग्रहस्तादिषु प्रतिपक्षः उत्सापेक्षयाऽपवादरूपो न विद्यते-न सम्भवति ततः प्रतिपक्षस्याभावे नियमाद्भवति तेष्वग्रहणमिति । उक्त दायकद्वारम् , अयोन्मिश्रद्वारमाइ- सच्चित्ते अच्चिचे मीसग उम्मीसगंसि चउभंगो। आइतिए पडिसेहो चरिमे भगंमि भयणा उ ॥ ६०५ ॥ ___ व्याख्या-इइ यत्रोन्मियते ते द्वे अपि वस्तुनी त्रिधा, तद्यथा-सचित्तेऽचित्ते मिश्रेच, तत उन्मिश्रके-मिश्रणे चतुर्भङ्गी, अत्र || जातावेकवचनं, ततस्तिस्रश्चतुर्भङ्गयो भवन्तीति वेदितव्यं, तत्र प्रथमा सचित्तमिश्रपदाभ्यां, द्वितीया सचित्ताचित्तपदाभ्यां, तृतीया मिश्रा
अनुक्रम [६४५]
ता॥१६४||
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आगम (४१/२)
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६४७] » “नियुक्ति: [६०५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
भाग-) पिण्डनियुक्ति मूल सब-(नियुक्ति पतिः
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६०५||
दीप
चित्तपदाभ्यामिति । तत्र सचित्तमिश्रपदाभ्यापियं-सचित्ते सचित्तं मिश्रे सचित्तं सचित्ते मिश्र मिश्र मिश्रमिति, द्वितीया स्वियं-सचिने हासचित्तम् अचित्ते सचित्तं सचित्तेऽचित्तम् अचित्तेऽचित्तमिति, तृतीयेयं-मित्रे मिश्रम् अचित्ते मिश्र मिश्रेऽचित्तम् अचिचेऽचित्तमिति, तत्र गायापर्यन्ततशब्दस्यानुक्तसमुच्चयात्वादावापां चतु/निकायां सकलायामपि प्रतिषेधः, शेषे तु चतुर्भशीद्वये प्रस्पेकम् , 'आदित्रिके आदिमेषु त्रिषु त्रियु भङ्ग भतिषेधः, चरमे तु भने भजना वक्ष्यमाणा । अत्रैवातिदेशं कुर्वनाहजह चेत्र य संजोगा कायाणं हेढओ य साहरणे । तह चेव य उम्मीसे होइ विसेसो इमो तत्थ ॥ ६०६ ॥
व्याख्या-यथा चैवाधः प्राक् संहरणद्वारे 'कायानां ' पृथिवीकायादीनां सचित्ताचित्चमिश्रभेदभिन्नानां स्वस्थानपर स्थानाभ्यां । संयोगा-भङ्गाः प्रदर्शिता द्वात्रिंशदधिकचतुःशतसङ्ख्याप्रमाणाः, तथैव 'उन्मिश्रितेऽपि ' उन्मिश्रद्वारेऽपि दर्शनीयाः, तद्यथा-सचित्तामाथिवीकायः सचिनप्रथिवीकाये उन्मिश्रः, सचित्तपृथिवीकायः सचित्ताकाय उन्मिश्र इत्येवं स्वस्थानपरस्थानापेक्षया पत्रिंशत्संयोगा:
एकैकस्मिंश्व संयोगे सचित्तामिश्रपदाभ्यां सनित्ताचित्तपदाभ्यां च प्रत्येकं चतुर्भङ्गीति द्वादशभिर्गुणिता जातानि चत्वारि शतानि द्वा-12 त्रिंशदधिकानि, ननु संहते उन्मित्रे च सचित्तादिवस्तुनिक्षेपानास्ति परस्परं विशेषः, अत आह-'तर' तयोः संहतोन्मियोर्भवति || परस्परमयं विशेषो-वक्ष्यमाणः । तमेवाह
दायव्वमदायव्वं च दोऽवि दवाइं देइ मीसेउं । ओयणकुसुणाईणं साहरण तयन्नहिं छोड़े ॥ ६०७ ॥ व्याख्या-' दातव्यं ' साधुदानयोग्यमितरत् अदातव्यं, तच्च सचित्तं मिश्रं तुषादिर्वा, ते हे अपि द्रव्ये मिश्रयित्वा यद्ददाति,
अनुक्रम [६४७]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६४९] » “नियुक्ति: [६०७] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
रीयावृत्ति
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६०७||
दीप
पिण्ड नियु- यौदनं कुशनेन-ध्यादिना मिश्रयित्वा तदुन्मित्रम् , एवंविधनुन्मिश्रलक्षणमित्यर्थः, 'संहरणं ' तु यद्भाजनस्थमदेयं वस्तु तदन्पत्र | एषणायां कर्मळयगि-कापि स्थगनिकादौ संहृत्य ददाति, ततोऽयमनयोः परस्पर विशेषः । द्वितीयकृतीयचीसत्कचतुर्भमननामाइ
उन्मि तैपि य सुके सुकं भंगा चत्तारि जह उ साहरणे । अपबहुएऽवि चउरो तहेव आइन्नऽणाइन्ने ॥१०८॥ ___व्याख्या-पद्यचित्तेऽचित्तं मिश्रयति तदपि तत्रापि शुष्के शुष्क मिश्रितमित्येवं भावत्वारो यथा संहरणे, तथधा-शुष्के शुष्कमुन्मिश्र, शुष्के आर्द्रम्, आदें शुष्कम् आर्दै आईमिति । तत एकैकस्मिन् भने संहरणे इवात्साहुले अधिकृत्य चत्वारः' चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा-स्तोके शुष्के स्तोकं शुष्क, स्तोके शुष्के बहुकं शुष्क, बहुके शुष्के स्तोक शुष्क, बहुके शुफे बहुकं शुष्कमिति । एवं शुष्के आदमित्यादावपि भङ्गाषिके प्रत्येकं चतुभेङ्गी भावनीपा, सर्वसङ्घथया भङ्गाः पोडश, तथा तब संहरणे इवाऽऽचीर्णानाची-||
-कल्प्याकल्प्ये उन्मिश्रे ज्ञातव्ये, तद्यथा-शुष्के शुष्कमित्यादीनां चतुर्णी भङ्गानां प्रत्येकं यो द्वौ द्वौ भङ्गो स्तोके स्तोकमुन्मिश्र बहुके | स्तोकमित्येवंरूपों तो कल्प्पी दात्रीपीडादिदोषाभावात्, स्तोके बहुकं बहुके बहु कमित्येवंरूपौ तु या द्वादी भी तावकर पी, तत्र दात्री-|| पीडादिदोषसम्भवात्, शेषा तु भावना यथासम्भवं संहरण इव द्रष्टव्या । उक्तमुम्मिश्रद्वारम्, इदानीमपरिणतद्वारमाह| अपरिणयंपि य दुविहं दवे भावे य दुविहमेकेक। दुव्बंमि होइ छकं भावंमि य होइ सज्झिलगा ॥६.९॥ l १ दातृमहीतृयोगादिति शेषः, तत्र द्रव्ये द्रव्यविषयं भवति षटु सचेतनवृथ्वीमायादिक, व्यरूपत्वात्तस्य, भावे चाभ्यवसाये पुन- १६५॥ भवति 'सझिलगा । भ्रातरी पक्ष्यमाणाः, भावाधारत्वेनोपचारास्सहोदराः, अछा गया तथा सम्बन्धिमादीनां सासम्बन्वितवाट की-|| यसायोश्च ग्रहः ।
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
मूलं [६५१] » “नियुक्ति: [६०९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६०९||
व्याख्या-अपरिणतमपि द्विविध, तद्यथा-' द्रव्ये ' द्रव्यविषयं भावे' भावविषय, द्रव्यमारिणतं भावतोऽपरिगत चेत्यर्थः पुनरप्येकै दावग्रहीत्सम्बन्धाविया, तद्यथा-व्यापरिणतं दासक ग्रहीइसकं च, एवं भावापरिणतरपि । तत्र द्रव्यापरिणतस्वरूपमाह| जीवत्तमि अधिगए अपरिणयं परिणयं गए जीये। दिलुतो दुदही इय अपरिणय परिणयं तं च ॥ ६१०॥
___व्याख्या-'जीवत्वे ' सचेतनत्वे 'अविगते ' अभ्रष्टे पृथिवीकायादिक द्रव्यमपरिणतमुच्यते, गते तु जीवे परिणतम् । अत्र Aणतो दग्पदधिनी, यथा हि दुध दुग्यत्वात् परिन दविभावमापन्न परिणत मुख्यते, दुमभावे चावस्थितेऽारिणतम्, एवं प्रविधी-||
कायादिकमपि स्वरूपेण सजीव सजीवस्तापरिभ्रमपरिणतमुस्यते, जीवन विपमुक्तं परिणतमिति । तब यहा दातुः सत्तायां वचते || तदा दातृसत्कं, यदा तु ग्रहीतु सत्तायां तदा ग्रहीतसत्कमिति । सम्पति दाविषयं भावापरिणतमाह
दुगमाई सामन्ने जइ परिणमई उ तत्थ एगस्स । देमित्ति न सेसाणं अपरिणयं भावो एयं ॥ ६११ ॥
व्याख्या एवं द्विकादिसामान्ये' भ्रात्रादिद्विकादिसाधारणे देयवस्तुनि योकस्य कस्यचिददामीत्येवं भाव परिणमति, न शेषाणां, एतद् भावतोऽपरिणतं, न भावापेक्षया देयतया परिणतमित्यर्थः । अब साधारणानिसस्प दातभावापरिणतस्य च का परस्पर प्रतिविशेषः, उच्यते, साधारणानिसृष्टं दायकपरोक्षवे, दातृभावापरिणां तु दायकसमक्ष इति । सम्मति ग्रहीतविषय भाषापरिणतमाह
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६५४] » “नियुक्ति: [६१२] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६१२||
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पिण्डनियु
एगेण बाबि एसि मणमि परिणामियं न इयरेणं । तंपि हु होइ अगिझं सझिलगा सामि साहू वा ॥ ६१२॥ कर्मलयगि
एषणायां रीयावृत्तिः
व्याख्या-एकेनापि केनचिदग्रेतनेन पाश्चात्येन वैषणीयमिति मनसि परिणामित, नेतरेण-द्वितीयेन, वदपि भावतोपरिणतमिति" कृत्वा साधूनामग्राी, शान्तित्वात्कलहादिदोपसम्भवाच, सम्मति द्विविधस्यापि भावापरिणतस्य विषयमाह- सझिलगा' इत्यादि तदाषा १६६॥ तत्र दातृविषयं भाषापरिणत भ्रातृविषयं स्वामिविषयं च, ग्रहीतविषयं भावापरिणतं साधुविषयम् । उक्तमपरिणतद्वारं, सम्मति लिप्तदार
वक्तव्यं, तत्र लिप्तं यत्र दध्यादिद्रव्यलेपो लगति, तच न ग्राह्य, यत आह
घेत्तव्यमलेवकडं लेवकडे मा हु पच्छकम्माई । न य रसगेहिपसंगो इअ वुत्ते चोयगो भणइ ॥ ६१३ ॥ 4 व्याख्या-इह साधुना सदैव ग्रहीतव्यमलेपकद्-वल्लुचनकादि, माऽभूवन् लेपकृति गृह्यमाणे पश्चात्कर्मादयो दध्यादिलिप्तहस्ता-18 हादिप्रक्षालनादिरूपा दोषाः, आदिशब्दास्कीटिकादिसंसक्तवस्खादिना मोच्छनादिपरिग्रहः, अतो लेपन ग्रहीतव्यम् । अलेपकद्रहणे ।
गुणमाह-न च सदेवालेपकृतो ग्रहणे 'रसद्धिपसङ्गः । रसाभ्यवहारलाम्पठ्यवृद्धि, तस्मात्तदेव साधुभिः सदैवाभ्यवहार्यम् । एवमुक्ते सति चोदको भणति
जइ पच्छकम्मदोसा हवंति मा चेव भुंजऊ सययं । तवनियमसंजमाणं चोयग! हाणी खमंतरस ॥ ६१४ ॥ का व्याख्या-यदि लेपकुदहणे पश्चारकर्मप्रभृतयो दोषा भवन्ति ततस्तन्न गृह्यते तहि मा कदाचनापि साधु ताम् । एवं हि | दोषाणां सर्वेषां मूलत एवोत्थानं निषिद्धं भवति, सूरिराह-हे चोदक ! सर्वकालं क्षपयतः अनशनतपोरूपं क्षपर्ण कुर्वतः साधोश्चिर
अनुक्रम [६५४]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६५६] » “नियुक्ति: [६१४] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६१४||
दीप
II कालभावितपोनियमसंयमानां हानिर्भवति, तस्मान्न यावज्जीवं क्षपणं कार्य । पुनरपि परः पाह-यदि सर्वकालं क्षपणं कर्तुमशक्तस्तहि ||
पासक्षपणं कृत्वा पारणकमलेपकृता विधत्ता, गुरुराह-यद्येवं कुर्वैस्तपःसंयमयोगान् कर्तुं शक्रोति नहिं करोतु, न कोऽपि तस्य निषेद्धा, ततो भयोऽपि चौदको छूते-ययेवं तहि षण्मासानुपोष्याचाम्लेन भुङ्गा, न बेच्छनोति तत एकदिनादिहान्या तावत्परिभावयेत्। यावचतुर्थमुपोष्याचाम्लेन पारयेत्, एवमप्यसंस्तरणे सदैवालेपकृतं गृहीयात् । अमुमेव गाथया निर्दिशति__लितंति भाणिऊणं छम्मासा हायए चउत्थं तु । आयंबिलस्स गहणं असंथरे अप्पलेवं तु ॥ ६१५ ॥
| व्याख्या--लिप्तं सदोषमिति भणित्वाऽलेपकझोक्तव्यं तीर्थकरगणधरैरनुज्ञातमिति गुरुवचनम् । अत्र चोदक आह-पावजीवमेव मा Mभडा. नो चेत यावजीवमभोजनेन शक्रोति तहि षण्मासानुपोष्य आचाम्लेन मुङ्गा, न चेदेवमपि शक्रोति तत एकदिनादिहान्या तावदा-1
त्मानं वोलयेत् यावञ्चतुर्थमुपोष्याचाम्लस्य ग्रहण करोतु, एवमप्यसंस्तरणे-भशक्तावल्पलेपं गृह्णातु । एनामेव गाथां गाथाद्वयेन विद्वणोतिका आयंबिलपारणए छम्मास निरंतरं तु खविऊणं । जइ न तरइ छम्मासे एगदिणूणं तओ कुणउ ॥ ६१६॥
। एवं एकेकदिणं आयंबिलपारणं खदेऊणं । दिवसे दिवसे गिण्हउ आयंबिलमेव निल्लेवं ॥ ६१७ ॥ | व्याख्या--यदि सर्वकालं क्षपणं कर्तृमशक्तस्ताई पण्मासानिरन्तरं क्षपयित्वा पारणके आचाम्लं करोतु, यदि षण्मासानुपवस्तु न । शक्नोति तत एकदिनोनान् करोतु, एवं पण्मासावधिरेकै दिन परित्यज्याचाम्लेन पारणकं तावत्करोतु यावचतुर्थ, एवमप्यसामर्थे दिवसे दिवसे गृह्णात्वाचाम्लं निलेपमिति ।। गुरुराह
अनुक्रम [६५६]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६६०] » “नियुक्ति: [६१८] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियुतर्मकयनिरीयादृत्तिः ॥१६७॥
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६१८||
८ अपरितदापः
जइ से न जोगहाणी संपइ एसे व होइ तो खमओ । खमणंतरेण आयंबिलं तु निययं तवं कुणइ ॥ ६१८॥
व्याख्या--यदि से तस्य साधो 'सम्मति तदावे एष्यति वा काले न योगहानिा-प्रत्यपेक्षणादिरूपसंयमयोगधंधो न भवति तर्हि भवतु क्षपका--षण्मासाद्युपचासकर्ता । तत्र च क्षपणानामेककदिनहान्या पूर्वोक्तस्वरूपाणामन्तरान्तरा पारणकमाचाम्लं करोतु, एवमप्यशक्ती 'नियत' सदैवाचाम्लरूपं तपः करोतु, केवलं सम्मति सेवार्चसंहननानां नास्ति तादृशी शक्तिरिति न तथोपदेशो | विधीयते । पुनरपि पर आहहेट्ठावणि कोसलगा सोवीरगफूरभोईणो मणुया । जइ तेऽवि जति तहा कि नाम जई न जाविति ? ॥ ६१९॥ ____ व्याख्या-'अधोऽवनयः' महाराष्ट्रा: 'कोशलका:' कोशलदेशोद्भवाः सदैव सौवीरककूरमात्रभोजिनः तेऽपि च सेवात्तसंहननाः, ततो यदि तेऽपीत्वं यापयन्ति यावज्जीव ताहि तथा-सौवीरककूरमात्रभोजनेन किन यतयो मोक्षगमने कबद्धकक्षा यापयन्ति !, तेः मुतरामेवं यापनीय, प्रभूतगुणसम्भवात् । अत्र मूरिराहतिय सीयं समणाणं तिय उण्ह गिहीण तेणणुन्नायं । तत्काईणं गहणं कट्टरमाईसु भइयत्वं ॥ ६२०॥
व्याख्या-त्रिक-वक्ष्यमाणं शीतं श्रमणानां, तेन प्रतिदिवसमाचाम्लकरणे तक्रायभावत आहारपाकासम्भवेनाजीर्णादयो दोषाः मादुष्पन्ति, वदेव त्रिकमुष्णं गृहिणां तेन सौवीरकूरमात्रभोजनेऽपि तेषामाहारपाकमावतो नाजीर्णादिदोषा जायन्ते, ततस्तेषां तथा यापयतामपि न कश्चिदोषः । साधूनां तूतनीत्या दोषः, तेन कारणेन तक्रादिग्रहणं साधूनामनुज्ञातम् । इह पायो यतिना विकृतिपरि-1
दीप
अनुक्रम [६६०]
॥१६॥
SARERainintamarana
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६६३] .→ “नियुक्ति: [६२१] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६२१||
भोगपरित्यागेन सदैवात्मशरीरं यापनीयं, कदाचिदेव शरीरस्या गटवे संयमयोगद्धिनिमित्वं बलाधानाय विकृतिपरिभोगः, तथा चोक्तं सत्रे-अभिक्खणं निधिगई गया य' इति, विकृतिपरिभोगे च तक्रायेवोपयोगीति तक्रादिग्रहणं, 'कट्टरादिषु'घृतवटिकोमिश्रतीमनादिषु ग्रहणं भाज्य-विकल्पनीयं, ग्लानत्वादिप्रयोजनोत्पची कार्य, न शेषकालमिति भावः, तेषां बहुलेपत्तात् गृद्धयादि. जनकत्याच । अथ किं तत्त्रिकम् , इत्यत आह| आहार उवहि सेज्जा तिष्णिवि उण्हा निहींण सीएऽवि। तेण उ जीरइ तेसि दुहओ उसिणेण आहारो॥ ६२१॥
व्याख्या-आहार उपधिः शय्या एतानि त्रीण्यपि गृहिणां शीतेऽपि शीतकालेऽयुष्णानि भवन्ति, तेन तेषां तकादिग्रहणमन्तरेणापि 'दुइओ'चि उभयतो वागतोऽभ्यन्तरतश्च 'उष्णेन तापेनाहारो जीयते, तत्राभ्यन्तरो भोजनवशाद , बाह्यः शय्योपविशात् ।। एयाई चिय तिन्निवि जईण सीयाई होति गिम्हेवि । तेणुवहम्मइ अग्गी तओ य दोसा अजीराई ॥ ६२२ ॥
व्याख्या-एतान्येषाहारोपषिशय्यारूपाणि त्रीणि यतीनां 'ग्रीष्मेऽपि ' ग्रीष्मकालेऽपि शीतानि भवन्ति, तत्रादारस्य शीतता भिक्षाचर्यायां प्रविष्टस्य बहुषु गृहेषु स्तोकस्तोकलाभेन बृद्धेिलालगनात्, उपपिरकमेव वारं वर्षमध्ये वर्षाकालादर्वाक् प्रक्षालनेन मलिनत्यात् शय्यायास्तु प्रत्यासमानिकरणाभावेन, तेन कारणेन ग्रीष्मकालेऽप्पाहारादीनां शीतत्वसम्भवरूपेणोपहन्यते 'अग्निः' जाठरो चतिः, तस्माचाग्न्युपधातादोषाः 'अजीर्णादयः' अजीर्णबुभुक्षामान्यादयो जायन्ते, तवस्तकादिनदणं साधूनामनुज्ञातं, तक्रादिनापि हि जाठरोऽग्निरुद्दीप्यते, तेषामपि तथास्वभावत्वात् । सम्मत्पलेपानि द्रव्याणि प्रदर्शयति
दीप
अनुक्रम [६६३]
SARERaininainational
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६६५] » “नियुक्ति: [६२३] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियुकर्मलयगि
Prect
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६२३||
दीप
ओयण मंडग सत्तुग कुम्मासा रायमास कल वल्ला । तयार मसूर मुग्गा मासा य अलेवडा सुक्का ॥ ६२३ ॥ एषणायां
व्याख्या-ओदनः 'तण्डुलादिभक्तं मण्डकाः' कणिकमयाः प्रतीता एवं 'सक्तवः' यवक्षोदरूपाः 'कुल्मापा:' उडदाला अपारराजमाषा:' सामान्यतश्चवलाः श्वेतचवालिका बा, 'कला' वृत्तचनकाः, सामान्येन वा चनकाः 'बल्ला' निष्पावाः, 'तुबरी' आढकीणत अलमसूरा' द्विदलविशेषा मुद्रा माषाश्च प्रतीताः, चकारादन्येऽप्येवंविधाः धान्पविशेषाः शुष्का अनार्दी-अलेपकृतः । सम्पत्यल्पलेपानि पाल्प बहु
लेपानि द्रव्याणि प्रदर्शयति| उभिज पिज्ज कंगू तक्कोल्लणसूवर्कजिकढियाई । एए उ अप्पलेवा पच्छाकम्म तहिं भइयं ॥ ६२४ ॥
- व्याख्या 'उद्रेया' वस्तुलप्रभृतिशाकभर्जिका पेया: यूवागूः 'कंगू, कोद्रवौदनः 'तकं' तक्राख्यम् ' उल्लणं येनौदनमाद्रीकृत्योपयुज्यते 'सूपः' राद्धमुद्दाल्यादिः 'काञ्जिक' सौवीरं 'क्वथितं' तीमनादि, आदिशब्दादन्यस्यैवंविधस्य परिग्रहः, एतानि द्रव्याण्यल्पलेपानि । एतेषु पश्चात्कर्म भाज्य-कदाचिद्भवति कदाचिन्नेति भावः । सम्पति बहुलेपानि द्रव्याणि दर्शयतिखीर दहि जाउ कट्टर तेल्ल घयं फाणियं सपिंडरसं । इच्चाई बहुलेवं पच्छाकम्मं तहिं नियमा ॥ ६२५ ॥ व्याख्या-क्षीरं ' दुग्ध 'दधि' प्रतीत 'जाउ' भीरपेया 'कहर' प्रागुक्तस्वरूपं तैलं घृतं च प्रतीतं, 'फाणितं ' गुंडपानक
R॥१३८॥ 'सपिण्डरसम्' अतीव रसाधिकं खरादि इत्यादि द्रव्यमा बहुलेपं द्रष्टव्यं । तत्र च पश्चात्कर्म नियमतः, अत एवं यतयो दोपभीरव|स्तानि न गृहन्ति । यदुक्तं-पच्छाकर्म तहिं भइय'ति सम्पति तामेव भजनामष्टभङ्गिकपा दर्शयति
I
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अनुक्रम [६६५]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६६८] .→ “नियुक्ति: [६२६] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६२६||
संसद्धेयर हत्थो मत्तो विय दब्ब सावसेसियरं । एएसु अट्ठ भंगा नियमा गहणं तु ओएस ॥६२६॥
व्याख्या-दातः सम्बन्धी हस्तः संमृष्टोऽसमष्ठो वा भवति, मात्रकमपि च येन कृत्वा भिक्षा ददाति तदपि मात्र संसृष्टमसमृष्टं। बा. ट्रव्यमपि सावशेष निरवशेष वा, एतेषां च त्रयाणां पदान्न संसृष्टहस्तसंसृष्टमाप्रसावशेषद्रव्यरूपाणां सप्रतिपक्षाणां परस्परं संयोगतोऽष्टौ । बाभक्षा भवन्ति, ते चामी-संसो हस्त: संसृष्टं मात्र सावशेष द्रव्यं १, संसृष्टो हस्त: संमई मात्र निरवशेष द्रव्यं २, संझटो हस्तोऽसंसृष्टं ।
मात्रं सावशेष द्रव्यं ३, संमष्टो हस्तोऽसंसृष्टं मात्र निरवशेष द्रव्यं ४, असंमष्टो हस्तः संसृष्ट मात्र सावशेष द्रव्यं ६, असंसष्टो हस्त: संमदं । कामात्र निरवशेष द्रव्यं ६, असंमष्टो हस्तोऽसंसृष्ट मात्र सावशेष द्रव्यं ७, असंसृष्टो इस्तोऽसंमष्टं मात्र निरवशेष द्रव्यं ८, एतेषु चाष्टमी भङ्गेषु मध्ये 'नियमात् ' निश्चयेन 'ओजस्सु' विषमेषु भङ्गेषु प्रथमतृतीयपञ्चमसप्तमेषु 'ग्रहणम् ' आदानं कर्त्तव्यं, न समेषु-द्वितीय
चतुर्थषष्ठाष्टमरूपेषु, इयं चात्र भावना-इह इस्तो मात्र चा द्वे वा खयोगेन संसृष्टे वा भवतोऽसमष्टे वा न तदशेन पश्चारकर्म सम्भवति, किं हात ?-ट्रव्यवशेन, तथादि-पत्र द्रव्यं सावशेष तौते साध्वष खरष्टिते अपि न दात्री पक्षालपति, भूयोऽपि परिवेषणसम्भवान, यत्र ||
तु निरवशेष द्रव्यं तत्र साधुदानानन्तरं नियमतस्तद्रव्याधारस्थाली हस्तं मात्र या पक्षालयति, ततो द्वितीयादिषु भङ्गेषु द्रव्ये निरवशेषे । पश्चात्कर्मसम्भवान कल्पते, प्रथमादिषु तु पश्चारकर्मासम्भवात्कल्पते इति । उक्तं लिप्तद्वारम्, अथ छतिद्वारमाह___ सच्चित्ते अञ्चित्ते मीसग तह छजुणे य चउभंगो । चउभंगे पडिसेहो गहणे आणाइणो दोसा ॥ ६२७ ॥
व्याख्या-छर्दितमुज्झितं त्यक्तमिति पर्यायाः, तच्च त्रिधा, तद्यथा-सचित्तमचिचं मिश्र च, तदपि च कदाचिच्छर्यते 'सचित्त ||
दीप
अनुक्रम [६६८]
For P
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६६९] .→ “नियुक्ति: [६२७] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
कर्मकपगि
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६२७||
दीप
पिण्डनियु- सचित्तमध्ये कदाचिदचित्ते कदाचिन्मिश्रे, तत एवं छईने सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्याणामाधारभूतानामाधेयभूतानां च संयोगतचतुर्भङ्गी | एषणाया
भवति, अत्र जाताचेकवचनं, ततोऽयमर्थः-तिस्रचतुर्भङ्गयो भवन्ति, तद्यथा-सचित्तमिश्रपदाभ्यामेका, सचित्ताचितपदाभ्यां द्वितीया, ९लिमछरायाष्टातः मिश्राचिचपदाभ्यां तृतीया, तत्र सचिचे सचित्तं छदित मिश्रे सचित्तं सचित्ते मिश्र मिश्रे मिश्रमिति मथमा, सचिचे सचिचम् अचित्तेदिता
सचित्तं सचित्तेऽचित्तम् अचित्तेऽचित्तमिति द्वितीया, मित्रे मिश्रम् अचिते मिश्र मिश्रेऽचित्तम् अचित्तेऽचिचमिति तृतीया, सर्वसख्यया द्वादश भङ्गाः, सर्वेषु च भङ्गेषु सचित्तः पृथिवीकायः सचिचपृथिवीकायमध्ये छर्दित इत्यादिरूपतया स्वस्थानपरस्थानाभ्यां पत्रिंशत् पत्रिंशद्विकल्पाः, ततः पत्रिंशद्वादशभिर्गुणिता जातानि चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि । एतेषु च सर्वेषु भङ्ग
प्रतिषेधो-भक्तादिग्रहणनिवारणं, यदि पुनर्ग्रहणं कुर्यात्ततः 'आज्ञादयः' आज्ञाऽनवस्वामिथ्यात्वविराधनारूपा दोपाः । इह 'आयन्तिग्रहणे मध्यस्यापि ग्रहण 'मिति न्यायादौदेशिकादिदोषदुष्टानामपि भक्तादीनां ग्रहणे आज्ञादयो दोपा द्रष्टव्याः । सम्मति बर्दित-18 ग्रहणे दोषानाह--
उसिणस्स छड्डणे देतओ व डझेज्झ कायदाहो वा । सीयपडणंमि काया पडिए महुबिंदुआहरणं ॥ ६२८॥
व्याख्या-उष्णस्य द्रव्यस्य 'छर्दने' समझने ददमानो वा भिक्षा दह्यते, भूम्याश्रितानां वा 'कायानां' पृथिव्यादीनां दाहः || स्यात्, शीतद्वग्यस्य भूमी पतने भूम्याश्रिताः 'काया:' पृथिव्यादयो विराध्यन्ते, तत्र पतिते मधुपिन्दूदाहरण-वारत्तपुरं नाम नगरं, ॥१६९॥ तत्राभयसेनो नाम राजा, तस्यामात्यको वारत्तकः, अन्यदा चात्वरितमचपलमसम्भ्रान्तमेषणासमितिसमेतो धर्मघोषनामा संयतो भिक्षामहस्तस्य गृह माविक्षत् , तद्भार्या च तस्मै भिक्षादानाय घृतखण्डसम्मिश्रपायसभृतं स्थालमुस्पाटितवती, अत्रान्तरे च कथमपि ततः
अनुक्रम [६६९]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६७०] » “नियुक्ति: [६२८] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६२८||
दीप
खण्डसम्मिश्री घृतविन्दुर्भूमौ निपतितः, ततो भगवान् धर्मयोको मुक्तिदैकनिहितमानसो जलपिरिव गम्भीरो मेरुरिव निष्पकम्पो वसुधेव सर्वसहः शङ्ख इव रागादिभिररञ्जनो महासुभट इब कर्मरिपुविदारणनिबद्धकक्षो भगवदुपदिष्टभिक्षाग्रहणविधिविधानकृतोद्यमो भिक्षेयं छर्दितदोषदुष्टा तस्मान मे कल्पते इति परिभाष्य ततो निर्जगाम, वारत्तकेन चामात्येन मत्तवारणस्थितेन दृष्टो भगवान् निर्ग
छन, चिन्तयति च स्वचेतसि-किमनेन भगवता न गृह्यते स्म मे गृहे भिक्षेति ?, एवं च यावचिन्तयति तावतं भूमौ निपतितं खण्ड-181 युक्तं घृतबिन्दु मलिकाः समागत्याशिश्रियन् , तासां च भक्षणाय प्रधाविता गृहगोधिका, गृहगोधिकाया अपि वधाय प्रधावितः सरट: सरटस्यापि च भक्षणाय प्रधावति स्म माजोरी, तस्या अपि च वधाय प्रधावितः माघूर्णकः श्वा, तस्यापि च प्रतिद्वन्दी प्रभावितोऽन्यो। वास्तव्यः श्वा, ततो द्वयोरपि तयोः शुनोरभूत् परस्परं कलदः, ततः स्वस्वसारमेयपराभवदूनमनस्कतया मधावितयोयोरपि तत्स्वामिनोरभूत परस्परमस्थसि युद्धम्, एतच सर्वं वारत्तकामात्येन परिभावितं, ततश्चिन्तयति स्त्रचेतसि-घृतादेषिन्दुमात्रेऽपि भूमौ निपतिते यत
एवमधिकरणपत्तिः अत एवाधिकरणभीरुभेगवान् घृतविन्दुं भूमौ निपतितमवलोक्य भिक्षा न गृहीतवान् , अहो ! सुदृष्टो भगवता धर्मः, Malको हि नाम भगवन्तं सर्वज्ञमन्तरेणेत्थमनपायिनं धर्ममुपदेष्टुमीशः?, न खल्वंधो रूपविशेष जानाति, एवमसर्वोऽपि नेत्थं सकल
कालमनपायं धर्ममुपदेष्टुमलं, तस्माद्भगवानेव सर्वज्ञः, स एव च मे जिनो देवता, तदुक्तपेवानुष्ठानं मयाऽनुष्ठातव्यमित्यादि विचिन्त्य संसारविमुखमझो मुक्तिवनिता श्लेषमुखलम्पटः सिंह इव गिरिकन्दराया निजमासादाद्विनिर्गत्य धर्मघोषस्य साधोरुपकण्ठं प्रवज्यामग्रहीत , स च महात्मा शरीरेऽपि निःस्पृहो यथोक्तभिक्षाग्रहणादिविधिसेवी संयमानुष्ठानपरायणः स्वाध्यायभावितान्तःकरणो दीर्घकालं संयममनुपाल्य जातप्रतनुकर्मा समुच्छलितदुर्निवायवीर्यप्रसरः क्षपकश्रेणिमारुख घातिकर्मचतुष्टयं समूलघावं हत्वा, केवलक्षानलक्ष्मीमासा-18
अनुक्रम [६७०]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६७०] » “नियुक्ति: [६२८] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६२८||
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पिण्डनियु-दितवान् , ततः कालक्रमेण सिद्ध इति । उक्तमेप्रणाद्वारं, सम्मति संयोजनादीनि द्वाराणि वक्तव्यानि, तानि च प्रासैपणारूपाणीति बाषणातर्मयगि- प्रथमतो ग्रासैषणाया निक्षेपमाह
यामेषणारीयावृत्तिः | णाम ठवणा दविए भावे घासेसणा मुणेयव्वा । दब्वे मच्छाहरणं भावमि य होइ पंचविहा ॥ ६२९ ॥
निक्षेपाः ॥१७॥
व्याख्या-ग्रासैषणा चतुर्दा, तयथा-नामग्रासैपणा स्थापनायासैषणा ' द्रव्ये ' द्रव्यविषया ग्रासैषणा 'भावे' भावविषया | ग्रासैपणा । तत्र नामग्रासैषणा स्थापनापासैपणा द्रव्यग्रासैषणाऽपि यावद्भव्यशरीररूपा ग्रहणेषणेव भावनीया, शरीरभव्यशरीरव्यति-|| रिक्तायां तु ग्रासैषणायां मत्स्यः 'उदाहरणं' दृष्टान्तः । भावविषया पुनासैपणा द्विधा, तद्यथा-आगमतो नोआगमतच, तत्रागमतो
ज्ञाता तब चोपयुक्तः, नोआगमतो द्विधा, तद्यथा-प्रशस्ताऽप्रशस्ता च, सत्र प्रशस्ता संयोजनादिदोषरहिता, अप्रशस्ता संयोजनाकादिरूपा, तामेव निर्दिशति-'भावमि य' इत्यादि, भावे-भावविषया पुनः ग्रासैषणा 'पञ्चविधा ' संयोजनादिभेदात पञ्चप्रकारा । तत्र द्रव्यग्रासैपणोदाहरणस्य सम्बन्धमाह
चरियं व कप्पियं वा आहरणं दुविहमेव नायव्वं । अत्थस्स साहणहा इंधणमिव ओयणढाए ॥६३० ।। व्याख्या-इह विवक्षितस्यार्थस्य 'साधनार्थ' प्रतिपादनार्थ द्विविधमुदाहरणं ज्ञातव्यं, तद्यथा--चरितं कल्पितं च, कथमिव ।
॥१७॥ विवक्षितस्यार्यस्य प्रसाधनायोदाहरणं भवतीत्यत आह-'इन्धनमिव ओदनार्थम् ' इन्धनमिवौदनस्येति भावः, तत्र प्रस्तुतस्पार्थस्य । साधनार्थमिदं कल्पितमुदाहरणं-कोऽप्येको मत्स्यबन्धी मत्स्यग्रहणनिमित्तं सरो गतवान्, गत्वा च तेन तटस्थेनाप्रभागे मांसपेशी
अनुक्रम [९७०]
अथ ग्रासैषणा विषयक दोष-आदि वर्णनं विस्तरेण वर्णयते
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||६३१||
दीप
अनुक्रम
[६७३]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [६७३] • → “निर्युक्ति: [ ६३१] + भाष्यं [ ३७...] + प्रक्षेपं [६... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
८०
समेतो गलः सरोमध्ये प्रचिक्षिपे, तत्र च सरसि परिणतबुद्धिरेको महादक्षो जीर्णमत्स्यो वर्त्तते स गलगतमांसगन्धमाघ्राय तद्भक्षणार्थ गलस्य समीपमुपागत्य यत्नतः पर्यन्ते पर्यन्ते सकलमपि मांसं खादित्वा पुच्छेन च गलमाइत्य दूरतोऽपचक्राम, मत्स्यबन्धी च गृहीतो गलेन मत्स्य इति विचिन्त्य गलमाकृष्टवान् पश्यति मत्स्यमांसपेशीरहितं गलं, ततो भूयोऽपि मांसपेशीसहितं गलं प्रचिक्षेप, तथैव च स मत्स्यो मांसं खादित्वा पुच्छेन च गळमाहत्य पलायितवान् एवं त्रीन् वारान् मत्स्यो मांसं खादितवान्, न च गृहीतो मत्स्यबन्धेन अह मंसंमि पहीणे झायंतं मच्छियं भणइ मच्छो । किं झायसि तं एवं सुण ताव जहा अहिरिओऽसि ॥ ६३१॥ व्याख्या - अथ मांसे प्रक्षीणे ध्यायन्तं मात्स्यिकं मत्स्यो भणति, यथा किं त्वमेवं 'ध्यायसि ' चिन्तयसि ?, शृणु तावद्यथा त्वम् ' अहीकः ' निर्लज्जो भवसि ।
तिबला मुहुम्मुको, तिक्खुत्तो वलयामुहे । तिसत्तक्खुत्तो जालेणं, सइ छिन्नोदए दहे ॥ ६३२ ॥
व्याख्या— अहमेकदा त्रीन् वारान् बलाकाया मुखादुन्मुक्तः, तथाहि कदाचिदहं बलाकया गृहीतः, तथा (तः) तया सुखे प्रक्षेपार्थमूर्द्धमुत्क्षिप्तस्ततो मया चिन्तितं - यद्यहमृजुरेवास्या मुखे निपतिष्यामि तर्हि पतितोऽयं मुखे इति न मे प्राणकुशलं, तस्मात्तिर्यग्निपतामीत्येवं विचिन्त्य दक्षतया तथैव कृतं परिभ्रष्टस्तस्या मुखात्ततो भूयोऽपि तयोर्द्धमुत्क्षिप्तस्तथैव च द्वितीयमपि वारं मुखात्परिभ्रष्टः, तृतीयवेलायां तु | जले निपतितस्ततो दूरं पलायितः, तथा 'त्रिकृत्वः ' श्रीन् वारान् 'वलयामुखे' वेलामुखे भ्राष्ट्ररूपे निपतितोऽपि दक्षतया शीघ्रं वेलचैव सह विनिर्गतः, तथा 'त्रिसप्तकृत्वः ' एकविंशतिवारान् मात्स्यिकेन प्रक्षिप्ते जाले पतितोऽपि यावन्नाद्यापि स मत्स्यबन्धी संको
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६७४] » “नियुक्ति: [६३२] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६३२||
पिण्डनियु- चयति जालं तावयेनैव पथा प्रविष्टस्तेनैव ततो जालाद्विनिर्गतः, जालेनेति तृतीया पञ्चम्पर्वे द्रष्टव्या, तथा सकृद्-एकवार मात्स्यिकेनग्रासैषणायां तमेलयगि-18 इदजलमन्यत्र सञ्चार्य तस्मिन् दे छिन्बोदके बहुभिर्मत्स्यैः सहाई गृहीतः स च सर्वानपि तान् मत्स्पानेकत्र पिण्डीकृत्य तीक्ष्णायः- द्रव्यैदणायां रीयात्तिः
शलाकायां भोतयति, ततोऽई दक्षतया यथा स मात्स्यिको न पश्यति तथा स्वयमेव तामयाशलाकां वदनेन लगित्वा स्थितः स च मत्स्यह॥१७॥ मात्स्यिकस्तान् मत्स्यान कर्दमलितान् प्रक्षालयितुं सरसि जगाम, तेषु च प्रक्षाल्यमानेष्वन्तरमवज्ञाय अटित्येव जलमध्ये निमनवान् । धान्तः
एयारिसं ममं सत्तं, सदं घट्टियघट्टणं । इच्छसि गलेण घेत्तं, अहो ते अहिरीयया ॥ ६३३ ॥ व्याख्या--एतादृशं पूर्वोक्तस्वरूपं मम सत्त्वं 'शट' कुटिलं घट्टितस्य-धीवरादिकृतस्योपायस्य घट्टन-चालक, ततस्त्वमिच्छसि मां गलेन ग्रहीतृमित्यहो । ते तव 'अहीकता' निर्लज्जतेति । तदेवमुक्तो द्रव्यग्रासैषणाया दृष्टान्तः, सम्पति भावग्रासेषणायामुपनयः क्रियते-पत्स्यस्थानीयः साधुर्मासस्थानीय भक्तपानीय मात्स्यिकस्थानीयो रागादिदोपगणः, यथा न छलितो मत्स्य उपायशतेन तथा साधुरपि भक्तादिकमभ्यवहरन्नात्मानमनुशास्तिप्रदानेन रक्षयेत् । तामेवानुशास्ति प्रदर्शयति| बायालीसेसणसंकडंमि गहणमि जीव ! न हु छलिओ । इण्हि जह न छलिज्जसि भुंजतो रागदोसेहिं ॥६३४॥ व्याख्या-दषणाग्रहणेन एपणागता दोषा अभिधीयन्ते, ततोऽयमर्थः-द्विचत्वारिंशवसङ्घया ये एषणादोषा गवेषणाग्रहणैषणा
॥१७॥ दोपास्तैः 'सङ्कटे' विषमे 'ग्रहणे' भक्तपानादीनामादाने हे जीव! त्वं नैव छलितः तव इदानी सम्पति भुञ्जानो रागद्वेषाभ्यां यथा न छल्पसे तथा कर्त्तव्यं । सम्पति तामेव भावग्रासैपणां प्रतिपादयति
दीप
अनुक्रम [६७४]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६७७] » “नियुक्ति: [६३५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६३५||
दीप
घासेसणा उ भावे होइ पसत्था तहेव अपसत्था । अपप्तत्था पंचविहा तधिवरीया पसत्या उ॥ ६३५॥
व्याख्या-भावे' भावविषया ग्रासैषणा द्विविधा, तपधा-प्रशस्ताऽप्रशस्ता च, सत्रामशस्ता पञ्चविधा संपोजनातिबहकाकारधूमनिष्कारणरूपा, तद्विपरीता संयोजनादिदोपरहिता प्रशस्ता । सम्पति संयोजनायेव याचिख्यामुः प्रथमतस्तस्या निक्षेपमाह
दव्वे भावे संजोअणा उ दुब्वे दुहा उ बहिअंतो। भिक्खं चिय हिंडतो संजोयतमि बाहिरिया ॥ ६३६ ॥
व्याख्या-संयोजना द्विधा, तद्यथा-'द्रव्ये ' द्रव्यविषया 'भावे' भावविषया, तत्र 'द्रव्ये द्रव्यविषया संयोजना द्विविधा, तद्यथा-वहिरन्तश्च, तत्र यदा भिक्षार्थमेव हिण्डमानः सन् क्षीरादिकं खण्डादिभिः सह रसग्रद्धया रसविशेषोत्पादनाय संयोजयति एषा बाह्या' बहिर्भवा संयोजना । एनामेव स्पष्टं भावयति
खीरदहिसूवकट्टरलंभे गुडसप्पिवडगवालुंके । अंतो उ तिहा पाए लंबण वयणे विभासा उ ॥ ६३७ ॥ _व्याख्या-क्षीरदधिसूपानां' प्रतीतानां कट्टरस्य-तीमनोन्मिश्रवृतवटिकारूपस्य देशविशेषासिद्धस्य लाभे सति तथा गुडसपिटकवालुङ्कानां च प्राप्तौ सत्या रसगृद्धचा रसविशेषोत्पादनायानुकूलद्रव्यैः सह संयोजनां यत्करोति बहिरेव भिक्षामटन् एषा बाह्या द्रव्यसंयोजना | अभ्यन्तरा पुनर्यदसतावागत्य भोजनवेलायां संयोजयति, तथा चाह- अन्तस्तु' अभ्पन्तरा पुनः संयोजना 'त्रिया। त्रिप्रकारा, तद्यथा-पात्रे लम्बने बदने च, नवरं 'लम्बनं कवलः, ततोऽस्याखिविधाया अपि 'विभाषा' व्याख्या कर्तव्या, सा चैत्र-1
अनुक्रम [६७७]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६८०] » “नियुक्ति: [६३८] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियु- कर्मळयगि- रीयावृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६३८||
यद्रव्यं यस्य द्रव्यस्य रसविशेषाधायि तत्तेन सह पात्रे रसगृद्धया संयोजयति, यथा सुकुमारिकादिक खण्डादिना सह, एषा पात्रेऽभ्य- ग्रासैषणाया तरा संयोजना, यदा तु हस्तगतमेव कवलतयोत्पाटितचूर्णं सुकुमारिकादि खण्डादिना सह संयोजयति तदा कवलेऽभ्यन्तरा संयो- १ संयोजना, यदा पुनर्वदने कवलं प्रक्षिप्य ततः शालनक प्रक्षिपति यदा मण्डकादिकं पूर्व प्रक्षिप्य पश्चाद्गुडादिकं प्रक्षिपति एषा वदनेऽभ्य- जना तरा संयोजना । एषा च द्रव्यसंयोजना समस्ताऽप्यप्रशस्ता, यतोऽनयाऽऽत्मानं रागद्वेषाभ्यां संयोजयति ॥ तथा चामुमेव दोष ।
॥१७२॥
वक्तकाम आह
दीप
अनुक्रम [६८०]
संयोयणाए दोसो जो संजोएइ भत्तपाणं तु । दुव्वाई रसहेउं वाघाओ तस्सिमो होइ ॥ ६३८॥
व्याख्या--'संयोजनायां' प्रागुक्तस्वरूपायामयं दोषः-'दम्बाई रसहेउ 'न्ति, अत्रार्थत्वादादिशब्दस्य व्यत्यासेन योजना, ततोऽयमर्थः-द्रव्यस्य सुकुमारिकादेः रसहेतोः-रसविशेषोत्पादनाय, आदिशब्दाच्छुभगन्धादिनिमित्तं च, यो भक्तं पानं चानुकूलद्रव्येण खण्डादिना सह संयोजयति तस्य साधोरयं-वक्ष्यमाणः 'व्याघातः' दीर्घदुःखोपनिपातरूपो भवति ॥ तमेव भावयन भावसंयोजनामप्याहसंजोयणा उ भावे संजोएऊण ताणि दव्वाइं । संजोयइ कम्मेणं कम्मेण भवं तओ दुक्खं ॥ ६३९ ॥
॥२७२॥ व्याख्या-तानि हि सुकुमारिकाखण्डादीनि द्रव्याणि रसगृद्धया संयोजयन्नात्मानमप्रशस्तेन गृद्धयात्मकेन भावेन संयोजयति, || एषा भावे' भावविषया संयोजना, ततस्तानि द्रव्याणि तथा संयोज्यात्मनि 'कर्म' ज्ञानावरणीयादिकं 'संयोजयति' सम्बनाति,
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६८१] .” “नियुक्ति : [६३९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६३९||
कर्मणा च संयोजयति भवं ' दीर्घतरं संसार, तस्माच्च भवादीर्घतरसंसाररूपात् 'दुःखम् ' असा संयोजयति, ततो यो द्रव्यसंयोजना करोति तस्येत्थमनन्तकालसंवेद्यो दुःखनिपात इति । सम्पत्यस्या एव द्रव्यसंयोजनाया अपवादमाह। पत्ते य पउरलंभे भुत्तुव्वरिए य सेसगमणट्ठा । दिट्ठो संजोगो खलु अह कम्मो (कमो) तस्सिमो होइ ॥६४०॥
___ व्याख्या-'प्रत्येकम् ' एकैकं साधुसङ्घाटकं प्रति 'प्रचुरलाभे' विपुलघृतादिप्राप्तौ सत्यां यदि कथमपि भुक्ते सति 'चः' समुवाये शेष-उद्धरितं भवति, ततस्तस्य शेषस्य निर्गमनाथ दृष्टः-अनुज्ञातस्तीर्थकरादिभिः खलु संयोगः, उद्धरितं हि घृतादि न खण्डादिकमन्तरेण मण्डकादिभिरपि सह भोक्तं शक्यते, प्रायस्तृप्तत्वात, न च परिष्टापन युक्तं, घृतादिपरिष्ठापने स्निग्धत्वात् पश्चादपि कीटिकादिसत्त्वव्याघातसम्भवेन बृहत्तरप्रायश्चित्तसम्भवात् , तत उद्धरितघृतादिनिर्गमनार्थ खण्डादिभिरपि तस्य संयोजन न दोषायएष तावदयमपवादः संयोजनायाः । अथान्योऽपि तस्य संयोगस्यायं-वक्ष्यमाणः क्रमो भवन परिपाटीरूपो भवति ।। तमेवाह
रसहेउं पडिसिहो संयोगो कप्पए गिलाणट्ठा । जस्स व अभत्तछंदो सुहोचिओऽभाविओ जो य ॥ ६४१॥
व्याख्या-रसहेतोः गृद्धया रसविशेषोत्पादनाय संयोगः प्रतिषिद्धस्तीर्यकरादिभिः, यावता पुनः स एव संयोगो 'मलानाथ ग्लानसज्जीकरणार्थ कल्पते, यद्वा यस्य ' अभक्तच्छन्दः' भक्तारोचकः, यश्च मुखोचितो-राजपुत्रादिः यथाद्याध्यभावितः-असञ्जातसम्यक्परिणामः शैक्षकस्तस्य निमित्वं कल्पते । उक्तं संयोजनाद्वारम्, अथाहारममाणद्वारमाह- .
___ बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसरस महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला ॥६४२॥
दीप
अनुक्रम [६८१]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६८४] » “नियुक्ति: [६४२] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्टानियु
कर्मळयगि
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६४२||
व्याख्या-पुरुषस्य कुक्षिपूरक आहारो मध्यप्रमाणो द्वात्रिंशत्कवला: 'किले 'लाहारस्य मध्यप्रमाणतासंसूचकः, महेलायाः ग्रासैषणायां
कुक्षिपूरक आहारो मध्यमप्रमाणोऽष्टाविंशतिः कवलाः, नपुंसकस्य चतुर्विंशतिः, स चात्र न गृहीतो, नपुंसकस्य प्रायः प्रव्रज्यानह- प्रमाणदोषः रीयात्तिः वात् , कवलानां प्रमाणं कुक्कुट्यण्डं, कुक्कुटी च द्विधा-द्रव्यकुक्कुटी भावकुक्कुटी च, द्रव्यकुक्कुट्यपि विधा-उदरकुक्कुटी गळ
कुक्कुटी च, तत्र साधोरुदरं यावन्मात्रेणाद्वारेण न न्यून नाप्याध्मातं भवति स आहार उदरकुक्कुटी, उदरपूरक आहार: कुक्कुटीव वा ॥१७॥
उदरकुक्कुटीति मध्यपदलोपिसमासाश्रयणात, तस्य द्वात्रिंशत्तमो भागोऽण्डक, तत्प्रमाणं कबलस्प, तथा गला कुक्कुटीव गलकुक्कुटी,|| गल एवं कुक्कुटीत्यर्थः, तस्यान्तरालमण्डकं, किमुक्तं भवति ?-अविकृतास्यस्य पुंसो गलान्तराले या कवकोऽपिलमः प्रविशति ताव-|
समाणं [कवलस्य,] कवलमश्नीयात् अथवा शरीरमेव कुक्कुटी तन्मुखमण्डक, तत्राक्षिकपोलभ्रुवां विकृतिमनापाय य: कवलो मुखे 18 पविशति तनमाणम् । अथवा कुक्कुटी-पक्षिणी तस्या अण्डकं प्रमाण कवलस्य, भावकुक्कुटी येनाहारेण भुक्तन न म्पूर्न नाप्पत्याध्मात
मदरं भवति धृति च समुददति ज्ञानदर्शनचारित्राणां च वृदिरुपजायते तावत्पमाण आहारो भावकुक्कुटी, अब भावस्य प्राधान्यविवक्षणादेप माक् द्रव्पकुक्कुट्यप्पुक्त इह भावकुक्कुटयुक्तः, तस्य द्वात्रिंशत्तमो भागोऽण्ड, तपमाण कवलस्य ।।
एत्तो किणाइ हीणं अद्धं अवद्धगं च आहारं । साहुस्स बिति धीरा जायामायं च ओमं च ॥ ६४३ ॥
व्याख्या-'एतस्मात्' द्वात्रिंशत्कवलप्रमाणाहारात् 'किणाइ' इति किश्चिन्मात्रया एकेन द्वाभ्यां विभिश्चतुर्भिर्वा कवले ॥१७॥ साधोहीन हीनतरं यावदर्द्धम अर्द्धस्याप्यर्द्धमाहारं यात्रामात्राहारं धीरा:-नीर्थदादयो ब्रुवते, न्यून च । एष यात्रामाबाहार एप एष | चावमाहार इति भावः । तदेवमुक्तमाहारप्रमाणं, सम्पति प्रमाणदोषानाइ
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अनुक्रम [६८४]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६८५] » “नियुक्ति: [६४३] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||६४३||
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पगामं च निगामं च, पनीय भत्तपाणमाहरे । अइबहुयं अइबहुसो, पमाणदोसो मुणेयवो ॥ ६४४ ॥
व्याख्या-यः प्रकामं निकामं प्रणीतं वा भक्तपानमाहारयति तथाऽतिबहुकमतिबहुश्च तस्य प्रमाणदोषो ज्ञातव्यः । सम्पति प्रकामादिस्वरूपमाइ
बत्तीसाइ परेणं पगाम निच्चं तमेव उ निकामं । जं पुण गलंतनेहं पणीयमिति तं बुहा बेंति ॥ ६४५॥
व्याख्या-द्वात्रिंशदादिकवलेभ्यः परेण' परतो भुञ्जानस्य यदोजनं तत्यकामभोजनं, 'तमेव तु ' प्रमाणातीतमाहारं प्रतिदिवसमश्नतो निकामभोजनं, थत्पुनर्गलस्नेहं भोजनं तत्पणीतं 'बुधाः तीर्थकदादयो ब्रुक्ते । तथा
अइबहुयं अइबहुसो अइप्पमाणेण भोयणं भोत्तुं । हाएज व वामिज्ज व मारिज व तं अजीरंतं ॥ १४६॥
व्याख्या-अतिबहुक-वक्ष्यमाणस्वरूपमतिबहुश:-अनेकशोऽतृप्यता सता भोजन-भुक्तं सत् ' हादयेत् ' अतीसारं कुर्यात्, तथा वामयेत्, यद्वा तदजीर्यन्मारयेत् , तस्मान प्रमाणातिक्रमः कर्तव्य इति । सम्पत्यतिवहादिस्वरूपमाहबहुयातीयमइबहुं अइबहुसो तिन्नि तिन्नि व परेणं । तं चिय अइप्पमाणं भुंजइ जं वा अतिप्पंतो॥ ६४७ ॥
व्याख्या-बहुकातीतम्-अतिशयेन बहु, अतिशयेन निजप्रमाणाभ्यधिकमित्यर्थः, तथा दिवसमध्ये यस्त्रीन् वारान् मुझे, त्रिभ्यो चा वारेभ्यः परतस्तद्भोजनमतिबहुशः, तदेव वारत्रयातीतमतिप्रमाणमुच्यते, 'अइप्पमाणे 'त्यवयवो व्याख्यातः, अस्यैव प्रकारान्तरेण
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[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६८९] » “नियुक्ति: [६४७] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
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गाथांक नि/भा/प्र ||६४७||
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पिण्डनियु- थ्याख्यानमाह-मुंक्ते यद्वाऽतृप्यन् एप 'अइप्पमाण' इत्यस्य शब्दस्यार्थी, 'अइप्पमाणे' इत्यत्र च नमत्ययस्ताच्छील्यविवक्षायां ग्रासैपणायां तर्मयगि- यद्वा प्राकृतलक्षणवशादिति । सम्पति प्रमाणयुक्तहीनहीनतरादिभोजने गुणभाइ
| प्रमाणदोषः रीयावृत्तिः हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा । न ते विज्जा तिगिच्छति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा ॥ ६४८॥ ॥१७॥
व्याख्या-हितं द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतोऽविरुद्धानि द्रव्याणि, भावत एषणीयं, तदाहारयन्ति ये ते हिताहाराः, मितं ' प्रमाणोपेतमाहारयन्तीति मिताहाराः, द्वात्रिंशत्कवलप्रमाणादप्यल्पमल्पतरं वाऽऽहारयन्तीत्यल्पाहारा, सर्वत्र वा बहुव्रीहिः, हित आहारो येषां ते हिताहारा इत्यादि, एवंविधा ये नरास्तान वैया न चिकित्सन्ति, हितमितादिभोजनेन तेषां रोगस्येवासम्भवात् । किन्त्येवं मूलत एव रोगोत्थानप्रतिषेधकरणेनात्मनैवात्मनस्ते चिकित्सिकाः । साम्मतमहितहितस्वरूपमाहतेल्लदहिसमाओगा अहिओ खीरदहिकंजियाणं च । पत्थं पुण रोगहरं न य हेऊ होइ रोगस्स ॥ १४९ ॥
व्याख्या-दधितैलयोस्तथा क्षीरदधिकाञ्जिकानां च यः समायोगः सोऽहितः, विरुद्ध इत्पर्थः, तथा चोक्तम् ---" शाकाम्ल-11 फलपिण्याककपित्थलवणैः सह । करीरदधिमत्स्यैश्च, मायः क्षीरं विरुध्यते ।।१॥" इत्यादि, अविरुद्धद्रव्यमीलनं पुनः पथ्यं, तथा ॥'रोगहरं' मादर्भतरोगविनाशकरं न च भाविनो रोगस्य 'हेत:' कारणम् , उक्तं च-“अहिताशनसम्पाद, सवेरोगोद्भवो यतः। तस्मात्तदहितं स्याज्यं, न्याय्य पथ्यनिषेवणम् ॥१॥" साम्प्रतं मितं व्याचिख्यामुराह
अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा देवस्स दो भागे । वाऊपवियारणहा छब्भायं ऊणयं कुज्जा ॥६५॥
अनुक्रम [६८९]
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आगम
(४१/२)
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गाथांक
नि/भा/प्र
||६५०||
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अनुक्रम [६९२]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ ६९२ ] • → “निर्युक्तिः [६५० ] + भाष्यं [ ३७...] + प्रक्षेपं [६... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः
८०
कुर्यात्,
व्याख्या -- इह किल सर्वमुदरं षद्भिर्भागैर्विभज्यते, तत्र चार्ज भागत्रयरूपमशनस्य सव्यञ्जनस्य-तक्रशाका दिसहितस्याधारं तथा द्वौ भागौ द्रवस्य पानीयस्य, षष्ठं तु भागं वायुप्रविचारणार्थमूनं कुर्यात् । इह कालापेक्षया तथा तथाऽऽहारस्य प्रमाणं भवति, कालय त्रिधा, तथा चाह
सिओ उसिणो साहारणो य कालो तिहा मुणेयध्वो । साहारणंमि काले तत्थाहारे इमा मत्ता ॥ ६५१ ॥
व्याख्या — त्रिधा कालो ज्ञातव्यः, तद्यथा-शीत उष्णः साधारणश्च तत्र तेषु कालेषु मध्ये साधारणे काले 'आहारे' आहारविषया 'इयम् अनन्तरोक्ता 'मात्रा' प्रमाण
सीए दवस्त एगो भत्ते चत्तारि अहव दो पाणे । उसिणे दवरस दोन्नि उ तिन्नि व सेसा उ भत्तस्स ॥ ६५२ ॥
व्याख्या--' शीते ' अतिशयेन शीतकाले ' द्रवस्य ' पानीयस्यैको भागः कल्पनीयः, चत्वारः 'भक्ते भक्तस्य, मध्यमे तु शीतकाले द्वौ भागौ पानीयस्य कल्पनीयौ त्रयस्तु भागा भक्तस्य, वाशन्दो मध्यमशीतकालसंसूचनार्थः, तथा उष्णे मध्यमोष्णकाले द्वौ भागौ 'द्रवस्य' पानीयस्य कल्पनीयों, शेषास्तु त्रयो भागा भक्तस्य, अत्युष्णे च काले त्रयो भागा द्रवस्य शेषौ द्वौ भागौ भक्तस्य, वाशब्दोऽत्रात्युष्णकाल संसूचनार्थः, सर्वत्र च षष्टो भागो वायुमविचारणार्थं मुत्कलो मोक्तव्यः । सम्प्रति भागानां स्थिरचर विभागमदर्शनार्थमाह
एगो दवरस भागो अबट्ठितो भोयणरस दो भागा । बहुंति व हायंति व दो दो भागा उ एक्केके ॥ ६५३ ॥
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६९५] » “नियुक्ति: [६५३] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्डनियुकमलयांग- रीयावृत्तिः
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६५३||
॥१७॥
व्याख्या-एको द्रवस्य भागोऽवस्थितो द्वौ भागौ भोजनस्प, शेषौ तौ द्वौदी भागी एकैकस्मिन्, भक्त पाने चेत्यर्थः, ग्रासैपणावढेंते वा हीयते वा, वृद्धिं वा व्रजतो हानि वा व्रजत इत्यर्थः, तथाहि-अतिशीतकाले द्वौ भागी भोजनस्य बर्दैते अत्युषणकाले च |
यां प्रमापानीयस्य अत्युषणकाले च द्वौ भागौ भोजनस्य हीयेते अतिशीतकाले च पानीयस्य । एतदेव स्पष्टुं भाषयति--
णदोषः एत्थ उ तइयचउत्था दोण्णि य अणवट्ठिया भवे भागा । पंचमछट्टो पढमो बिइओऽवि अवठिया भागा ॥६५४॥
व्याख्या-आहारविषयौ तृतीयचतुयौँ भागावनवस्थितौ, तौ दतिशीतकाले भवतोऽप्युष्णकाले च न भवतः, तथा य: पानविषयः पञ्चमो भागो यथ वायुमविचारणार्थ षष्ठो भागः यौ च प्रथम द्वितीयावाहारविषयौ एते सर्वेऽपि भागा अवस्थिताः, न कदाचिदपि न भवन्तीति भावः । तदेवमुक्तं प्रमाणद्वारम् , अथ साङ्गारसधूमदारमार
तं होइ सइंगालं ज आहारेइ मुच्छिओ संतो। तं पुण होइ सधूमं जं आहारेइ निदंतो ॥ ६५५॥
ध्याख्या--तद्भवति भोजनं साझार यत्तद्गतविशिष्टगन्धरसास्वादवशतो जाततद्विषयमूर्छः सन्नहो ! मिष्टं अहो ! सुसम्भृतं । अहो ! स्निग्धं सुपकं सुरसमित्येवं प्रशंसन्नाहारयति, तत्पुनर्भवति भोजनं सधूमं यत्तद्गतविरूपरसगन्धास्वादतो जाततद्विषयष्यलीक- | चित्तः सन् अहो ! विरूपं कथितमपकमसंस्कृतमलवणं चेति निन्दनाहारयति, अयं चात्र भावार्थ:-इह द्विविधा अङ्गाराः, तद्यथा-14 द्रव्यतो भावतच, तत्र द्रव्यतः कृशानुदग्धाः खदिरादिवनस्पतिविशेषाः, भावतो रागाग्निना निर्दग्धं चरणेन्धनं । धूमोऽपि द्विधा, ॥१७॥ तद्यथा-द्रव्यतो भावतच, तत्र द्रव्यतो योद्धदग्धानां काष्ठानां सम्बन्धी, भावतो द्वेषाग्निना दह्यमानस्य चरणेन्धनस्य सम्बन्धी कलुषभावो निन्दात्मकः, ततः सदाकारेण यद्वत्तेते तत्साङ्गार, धूमेन सह वत्तते यत्तत्सधूमं । सम्पत्यङ्गारधूमयोलेक्षणमाह
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अनुक्रम [६९५]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [६९७] » “नियुक्ति: [६५५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६५५||
दीप
अंगारत्तमपत्तं जलमाणं इंधणं सधूमं तु । अंगारत्ति पवुच्चइ तं चिय दड्ढं गए धूमे ॥ ६५६ ॥
व्याख्या-अङ्गारत्वममाप्त ज्वलदिन्धनं सधूममुच्यते, तदेवेन्धनं दग्धं धूमे गते सत्पङ्गार इति, एवमिहापि चरणेन्धनं रागाग्निना निर्दग्धं सदङ्गार इत्युच्यते , द्वेषामिना तु दह्यमानं चरणेन्धनं सधूम, निन्दात्मककलुपभावरूपधूमसम्मिश्रस्वात् । एतदेव भावयति
रागग्गिसंपलित्तो भुजंतो फासुयंपि आहारं । निद्दड्डंगालनिभं करेइ चरणिधणं खिष्पं ॥ ६५७ ॥ व्याख्या-मासुकमप्याहारं भुजानो रागानिसम्पदीप्तचरणेन्धनं निर्दग्धाङ्गारनिभं क्षिप्रं करोति ।
दोसगीवि जलंतो अप्पत्तियधूमधूमियं चरणं | अंगारमित्तसरिसं जा न हवइ निदही ताव ॥ ६५८॥
व्याख्या-देषाग्निरपि ज्वलन् ' अप्रीतिरेव' कलुषभाव एव धूमः अपीतिधूमः तेन धूमितं 'चरणं' चरणेन्धनं यावदङ्गारमात्रसदृशं न भवति तावन्निर्दहति । तत इदमागतं
रागेण सइंगाल दोसेण सधूमगं मुणेयच्वं । छायालीसं दोसा बोद्धव्या भोयणविहीए ॥ ६५९ ॥ - व्याख्या-रागेणाऽऽध्मातस्य योजनं तत्साङ्गारं, चरणेन्धनस्याङ्गारभूतत्वात , द्वेषेणाऽऽध्मातस्य तु योजनं तत्सधूम, निन्दात्मककलुपभावरूपधूमसम्पिकत्वात् । तदेवं भोजनविधौ सर्वसङ्ख्यया पट्चत्वारिंशदोषा बोद्धव्याः, तयथा-पश्चदश उद्गमदोषाः, अध्यवपूरकस्य मिश्रजातेऽन्तर्भावविवक्षणात, पोटश उत्पादनादोषा दश एषणादोषाः संयोजनादीनां च पञ्चकमिति । कीदृशः पुनरा-1 हारः साधुना भोक्तव्य इत्याह
अनुक्रम [६९७]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [७०१] » “नियुक्ति: [६५९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६५९||
॥१७॥
अधुना कारणहारमाह
पिण्डनियु- आहारंति तबस्सी विगइंगालं च विगयधूमं च । झाणज्झयणनिमित्तं एमुवएसो पवयणस्स ॥ ६६०॥ MO प्रासैपणाकेर्मळयगि- व्याख्या-'तपस्विनः' यथोक्ततपोऽनुष्ठाननिरता आहारयन्ति भोजनं विगतामारं रागाकरणात्, विगतधूमं च द्वेषाकरणात् ,
यां अंगाररीयावृत्तिः ||तदपि न निष्कारणं किन्तु ध्यानाध्ययननिमित्तम्, एष उपदेशः 'प्रवचनस्य' भगवच्छासनस्य । तदेवमुक्तं साकारं सधूमद्वारम् ,
दोषाः छहिं कारणेहिं साधू आहारितोऽवि आयरइ धर्म । छहिं चेव कारणेहिं णिज्जूहितोऽवि आयरइ ॥ ६६१ ॥ | व्याख्या-पद्भिः कारणैर्वक्ष्यमाणस्वरूपैः साधुराहारयन्नप्याहारमाचरति धर्म, पद्दभिरेव च कारणैर्वक्ष्यमाणस्वरूपैोजनाकरणनिवन्धनः 'निज्जूहितोऽपि 'चि परित्यजन्नप्याचरति धर्म । तत्र यः षभिः कारणैराहारमाहारयति तानि निर्दिशति
यण बेयावच्चे इरियहाए य संजमढाएँ । तह पाणवत्तियाए छदं पुण धम्मचिंताए ॥ ६६२ ॥ व्याख्या-इह पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् 'वेयणति क्षुवेदनोपशमनाय, तथाऽऽचार्यादीनां वैयारत्त्यकरणाय, तथेर्यापथसंशोधनार्थ, तथा प्रेक्षादिसंयमनिमित्तं, तथा 'प्राणप्रत्ययार्थ' प्राणसन्धारणार्थ, पष्ठं पुन: कारणं ' धर्मचिन्तार्थ ' धर्मचिन्ता|ऽभिट्टद्धयर्थं भुञ्जीतेति क्रियासम्बन्धः । एनामेव गाथां गाथाद्वपेन विकृण्वन्नाह
॥१७६॥ नत्थि छुहाए सरिसा वियणा भुंजेज तप्पसमणट्ठा । छाओ बेयावच्चं ण तरइ काउं अओ भुंजे ॥ ६६३ ॥ इरिअं नऽवि सोहेई पेहाईअंच संजमं काउं । धामो वा परिहायइ गुणऽणुप्पेहासु अ असत्तो ॥६६४ ॥
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अनुक्रम [७०१]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [७०६] » “नियुक्ति: [६६४] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६६४||
दीप
व्याख्या-नास्ति क्षघा-युभुक्षया सदृशी वेदना, उक्तं च-" पंधसमा नत्धि जरा दारिदसमो य परिभवों नस्थि । मरणसम नत्थिा भयं छहासमा वेयणा नस्थि ॥१॥ नत्थिन बाहइ तिलतुसमिपि एत्थ कायस्स । समिझ सन्चदुहाइ देति आहाररहियस्स
॥२॥" वतः 'तत्मशमनार्थ ' क्षुदेदनोपशमनार्थ भुञ्जीत, तथा 'छातो' बुभुक्षितः सन् वैयाकृत्यं न शक्नोति कर्नु, तया चोक्त-"गलइ शावलं उच्छाहो अवेइ सिढिलेइ सयलवावारे । नासइ सत्तं अरई विवड्डए असणरहियस्स ॥१॥" अतो वैयावृत्यकरणाय भुञ्जीत । तथा बुभु-का सितः सबीर्यापथं न विशोधयति, अशक्तत्वात् , अतस्तच्छोधननिमित्तं वाऽश्नीयात्, तथा क्षुधाः सन् न प्रेक्षादिकं संयम विधातुमलमतः || संयमाभिवृद्धयर्थं भुञ्जीत, तथा स्थाम बलं प्राण इत्येकोऽर्थः, तनुसुक्षितस्य 'परिहीयते' परिहानि याति ततोऽश्नीयात् , तथा गुणनंअन्धपरावर्जनमनुपेक्षा-चिन्ता तयोः, उपलक्षणमेतत्, वाचनादिष्वपि बुभुक्षितः सन् अशक्ता-असमर्थों भवति ततोऽश्रीयात । इत्यभूतष पदभिः कारणैः समोरन्यतमेन या कारणेनाहारयन्नातिकामति धर्ममिति । सम्पत्यभोजनकारणप्रतिपादनार्थ सम्बन्धमाहअहव ण कुज्जाहारं, छहि ठाणेहिं संजए । पच्छा पच्छिमकालंमि, काउं अप्पक्खमं खमं ॥ ६६५ ॥
व्याख्या-अथवा पनि स्थानैः-वक्ष्यमाणस्वरूपैः संपत आहारं न कुर्यात् , तत्र विचित्रा सूत्रगतिरिति पष्ठ शरीरव्यवच्छेमादलक्षणकारणं व्याख्यानयति-पच्छा' इत्यादि, पश्चात-शिष्यनिष्पादनादिसकलकर्तव्यतानन्तरं 'पश्चिमे काले' पाश्चात्ये वयसि ।
(१) पान्यत्वसमा नास्ति जरा दारिद्यसमश्च पराभवो नास्ति । मरणसमं नास्ति भयं क्षुत्समा वेदना नास्ति ।। १ ।। तन्नास्ति यन्न बाधते । तिलतुषमात्रमप्यत्र कायम् । सान्निध्यं सर्वदुःखानि ददति आहाररहितस्य ॥ २॥ (२) गलति बलमुत्साहोऽपैति शिथिलयति सकलव्यापारान्। नश्यति सत्त्वमरतिर्विवर्धतेऽशनरहितस्य ॥ २॥
अनुक्रम [७०६]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [७०७] » “नियुक्ति: [६६५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६६५||
जानि
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पिण्डनियु-14 अप्पकलमति संलेखनाकरणेनात्मानं क्षपयित्वा यावजीवानशनपत्याख्यानकरणस्य 'क्षम' योग्यपात्मानं कृत्वा भोजनं परिहरेवाग्रासपणातोकयगि- नान्यथा । एतेन शिष्यनिष्पादनायभावे प्रथम द्वितीये वा वयसि संलेखनामन्तरेण वा शरीरपरित्यागार्थमनश्नन् (तः) तत्मत्याख्यानकरणे या अभीरापाटाचा जिनाज्ञाभङ्गमुपदर्शयति । सम्पत्यभोजनकारणानि निर्दिशति
जनकार॥१७७॥
आर्यके उबसमो, तितिक्खयाँ बंभचेरगुत्तीहुँ । पाणिदयाँ तवहेउं, सरीरवोच्छेयणद्वाएं ॥ ६६६ ॥
व्याख्या-'आतङ्के' उपरादावृत्पन्ने सति न भजीत १, तया' उपसर्गे' राजस्वजनादिकृते देवमनुष्पतिककते वा सजाते | सति 'तितिक्षार्थम् ' उपसर्गसहनार्थ २, तथा ब्रह्मचर्य गुप्तिविति, अत्र षष्ठवर्षे सप्तमी, ततोऽयमर्थ:-ब्रह्मचर्यगुप्तीनां परिपालनाय ३, तथा प्राणिदयार्थं ४, तथा 'तपोहेतोः ' तपःकारणनिमित्तं ५, तथा चरमकाले शरीरव्यवच्छेदार्थ ६, सर्वत्र न भुञ्जीतेति क्रियासम्बन्धः ।। एनामेव गाथा वितृण्वन्नाह
आयको जरमाई रायासन्नायगाइ उवसग्गो । बंभवयपालणट्ठा पाणिदया वासमहियाई ॥ ६६७ ।। व्याख्या-आतङ्को-स्वरादिस्तस्मिन्नुत्पन्ने सति न भुञ्जीत, यत उक्तम्-" बलावरोधि निर्दिष्टं, ज्वरादौ लहन हितम् । तेऽनिलश्रमक्रोधशोककामक्षतज्वरान् ॥ १॥" राजस्वजनादिकृते उपसर्गे यदा देवमनुष्यतिर्यकृते उपसर्गे जाते सति तदुपशमनार्थे
नाश्नीयात्, तथा मोहोदये सति ब्रह्मव्रतपालनार्थं न भुञ्जीत, भोजने निपिढे हिमायो मोहोदयो विनिवर्तते, तथा चोक्तम्-"वि- ॥१७॥ पिया विनिवर्तन्ते, निराहारस्प देहिनः । रसवज रसोऽप्येवं, परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ १॥" तथा वर्षे वर्षति महिकायां पा निपतन्स्या
माणिदयार्थ नाश्नीयात्, आदिशब्दात सूक्ष्ममण्डकादिसंसक्तायां भूमी माणिदयार्थमटनं परिहरन भुञ्जीत ।
अनुक्रम [७०७]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [७१०] » “नियुक्ति: [६६८] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
गाथांक नि/भा/प्र ||६६८||
तबहेउ चउत्थाई जाव उ छम्मासिओ तवो होइ । छ8 सरीरवोच्छेयणट्ठया होअणाहारो ॥ ६६८॥
व्याख्या-'तपोहेतोः' तपाकरणनिमिर्च न भुञ्जीत, तपश्चतुर्थादिक-चतुर्थादारभ्य सावद्भवति यावत् 'पाण्मासिकं' षण्मासप्रमाणं, परतो भगवर्द्धमानस्वामितीर्थे तपसः प्रतिषेधात , षष्ठं पुनः प्रागुक्तविधिना चरमकाले शरीरव्यवच्छेदार्थ भवत्पनाहारः ॥ तदेवमुक्तं कारणद्वारं, तदुक्तौ चोक्तां ग्रासैपणा, तदभिधानाच समाता गवैषणाग्रहणषणाग्रासैपणाभेदात्त्रिविधाऽप्येषणा | सम्पत्यस्या एवैषणायाः सकलदोषसङ्कलनमाह
सोलस उग्गमदोसा सोलस उप्पायणाए दोसा उ । दस एसणाएँ दोसा संजोयणमाइ पंचेव ।। ६६९ ॥
व्याख्या-मुगमा, सर्वसदरूपया सप्तचत्वारिंशदेपणादोपाः । एतान विशोधयन पिण्डं विशोधयति. पिण्डविशद्धौ च चारित्रशद्धिः चारित्रशुद्धौ मुक्तिसम्पाप्तिः, उक्तं च-" एऐ विसोहयतो पिंडं सोहेइ संसओ नत्थि । एए अविसोहिते चरित्तभेयं वियाणाहि ॥१॥
एतान विशोधयन पिण्डं शोधयति संशयो नास्ति । एतानविशोषयति चरित्रमे विजानीहि ॥१॥ श्रमणत्वस्य सारो भिक्षाचर्या जिनैः। प्रज्ञमा | अत्र परितप्यन्तं तं जानीहि मन्दसंवेगम् ॥ २॥ ज्ञानचरणस्य मूलं भिक्षाचर्या जिनैः प्रशता । अत्र तुद्यच्छन्स तं जानीहि तीनसंवेगम् ॥३॥ पिण्डमशोषयन् अचारित्री अत्र संशयो नास्ति । चारित्रऽसति निरथिका भवत्येव दीक्षा ॥ ४॥ चारित्रेऽसति निर्वाण नैव गच्छति । निर्वाणेऽसति सर्वा दीक्षा निरथिका ॥५॥
एतापटूक निगमयज्ञाह-एएहिं छहि ठाणेहि, अणाहारो उ जो भवे । धम्म नाइकमे भिक्खु, धम्मक्षाणरमो भवे ।। १॥ एपा गाथा श्रीवीराचार्यकृतश्रीपिण्डनियुक्तिवृत्ती सूत्रे च दृश्यते, श्रीमलयगिरिसूरिप्रणीतवृत्त्यादशेषु तु बहुषु न दृश्यते ।
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अनुक्रम [७१०]
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [७११] » “नियुक्ति: [६६९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६... . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६६९||
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पिण्डनिर्य- समणतणस्स सारो भिक्खायरिया जिणेहिं पन्नता । एत्थ परितप्पमाणं तं जाणसु मंदसंवेगं ॥२॥ नाणचरणस्स मूलं भिक्खाय- यतन कर्मकयनि- रिया जिणा पन्नता । एत्य उ उज्जममाणं तं जाणमु तिव्वसंवेगं ॥ ३ ॥ पिंडं असोहयंतो अचरित्ती एत्थ संसओ नस्थि । चारित्तमि निर्जरा रीयावृत्तिः असते निरस्थिया होइ दिक्खा उ ॥ ४॥ चारित्चमि असंतमि, निव्वाणं न उ गच्छद् । निव्वाणमि असंतमि, सव्वा दिक्खा निरत्यगा
॥५॥ तस्माद्रमादिदोषपरिशुद्धः पिण्ड एषयितव्य इति । ॥१७॥
| एसो आहारविही जह भणिओ सब्वभावदंसीहिं । धम्मावस्सगजोगा जेण न हायंति तं कुज्जा ॥ ६७०॥
व्याख्या-एप: 'आहारविधिः पिण्डविधिः 'यथा' येन प्रकारेण भणितस्तीर्थकरादिभिस्तथा कालानुरूपस्वमतिविभवेन मया । व्याख्यात इति वाक्यशेषः । पश्चानापवादमाह-'धम्म'त्यादि । धर्मावश्यकयोगा: ' श्रुतधर्मचारित्रधर्मप्रतिक्रमणादिव्यापारा येन जान हीयन्ते 'न हानि व्रजन्ति तत्कुर्यात् , तथा तथाऽपवादं सेवेतेति भावः । साधुना हि यथायथमत्सर्गापवादस्थितेन भवितव्य || या चापवादमासेवमानस्याशठस्य विराधना साऽपि निर्जराफला, तथा चाह
जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्त । सा होइ निज्जरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तरस ॥ ६७१॥
व्याख्या-यतमानस्य ' सूत्रोक्तविधिसमग्रस्य' सूत्रोक्तविधिपरिपालनपूर्णस्य अध्यात्मविशोधियुक्तस्य, रागद्वेषाभ्यां रहितस्पेति। भावः, या भवेत् 'विराधना' अपवादप्रत्यया सा भवति निजरा फला, इयमत्र भावना-कृतयोगिनो गीतार्थस्य कारणवशेन यतनयाऽप- १७८॥ चादमासेवमानस्य या विराधना सा सिद्धिफला भवतीति । तदेवं निक्षिप्तं पिण्डपदमेषणापदं च, तन्निक्षेपकरणाचाभिहितो नामनिक्षेपः, तदभिधानाचाभवत्परिपूर्णा पिण्डनियुक्तिरिति ।
अनुक्रम [७११]
अत्र उपसंहार गाथा कथयते
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आगम
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नि/भा/प्र
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अनुक्रम [ ७१३]
[भाग-३३] “पिण्डनिर्युक्ति” - मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [७१३] “निर्युक्ति: [६७१] + भाष्यं [ ३७...] + प्रक्षेपं [६...
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[ ४१/२], मूलसूत्र-[०२/२] पिण्डनिर्युक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
येनैषा पिण्डनिर्युक्तिर्युक्तिरभ्या विनिर्मिता । द्वादशाङ्गविदे तस्मै नमः श्रीभद्रबाहवे ॥ १ ॥ व्याख्याता थैरेपा विषमपदार्थाऽपि सुललितवचोभिः । अनुपकृतपरोपकृतो वितृविकृतस्तान्नमस्कुर्वे ॥ २ ॥ इमां च पिण्डनिर्युतिमतिगम्भीरां विणता कुशलम् यदवापि मलयगिरिणा सिद्धिं तेनाश्रुतां लोकः ॥ ३ ॥ अर्हन्तः शरणं सिद्धाः शरणं मम साधवः । शरणं जिननिर्दिष्टो, धम्र्मः | शरणमुत्तमः || ४ || एवं ग्रन्थाग्रसङ्ख्या ७००० पिण्डनिर्युक्तिः समाप्ता ।
इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यवर्यविहितविवृतिवृता श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिसङ्कलिता पिण्डनिर्युक्तिः समाप्ता ।
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आगम (४१/२)
[भाग-३३] “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
मूलं [-] ., “नियुक्ति: [-] + भाष्यं [-] + प्रक्षेपं [-] . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४१/२], मूलसूत्र-०२/२] पिण्डनियुक्ति मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति:
पिण्ड
नियुक्ति
॥१७९||
प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||--||
श्रीमालकुलालइन्कृतिरासीदणहिल्लपत्नने वासी | व्यवहारिवरः सादाभिधान इप्रधानगुणः ॥ १॥ जाया मायारहिता मटकूरिति विश्रुताऽस्य दयिताऽभूत् । पुत्राः मुत्रामसमाः श्रियाऽनयोः कुलमलचक्रुः ॥२॥ वरसिंहो जोगाको गोलाकश्चेति विदितनामानः । स्वमानयशोमण्डलधवलीकृतसकळदिग्वलयाः ॥३॥ प्रतिपन्नवाँस्तपस्यां वरसिंहः सिंहतितः शस्यां । श्रीसोमसुन्दरगुरोः पार्थेऽवसरे विशुद्धमनाः॥४॥ दयिताया वरसिंहव्यवहारिवरस्य तेषु काः । श्रुतभक्त्या वाऽऽम्नाती नाम्ना पर्वत इति तनूजः॥५॥ वरणूदयितापुत्रो मूलूाणिकिरमुष्प दयिता च । स्वमुते हेमतिदेमतिनाम्न्याविति परिकरेण हतः॥६॥ श्रीसवाम्बुधिचन्द्रश्रीमजपचन्द्रसूरिराजानाम् । सुकृतोपदेशमनिशं निशम्प सम्यक सुधादेश्यम् ॥७॥ श्रीपत्तनवास्तव्यो लक्षमितान्धलेखनमवणः । नेत्रान्तरिक्षतिथिमितवर्षे १५०२ हर्षेण लेखितवान् ॥ ८॥ पिण्डनियुक्तित्ति बृहतीमनक्यवचनसन्दर्भाम् । सुमनस्सन्ततिसेव्या गङ्गावदियं च जयतु चिरम् ॥९॥
दीप
अनक्रमा
इति श्रीषिण्डनियुक्तिवृत्तिः समाप्तेति भद्रं भवतु ।।
॥१७॥
इति श्रेष्ठि देवचन्द लालभाई-जैनपुस्तकोद्वारे ग्रन्थाङ्कः ४४
भाग
"पिण्डनियुक्ति'-मूलसूत्र [२/२] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D. श्रुतमहर्षि) ।
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भाग
कलपृष्ठ
३१४
५८६
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५९४
४९४
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५५२
सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१,२ 02 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 | आगम ०३ स्थान मुलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 | | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ 17 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 | | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मुलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
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कुलपृष्ठ ६१४
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सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. | आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ५ से ७. आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पृष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान,
___ भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१
आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-५ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूल एवं वृत्ति.
आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूल एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६
| आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति.
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नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
[भाग-३३] आगम 41/2
पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “पिण्डनियुक्ति: मूलसूत्र” [मूलं + भाष्यं + मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः]
(किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं वृत्ति: नामेण परिसमाप्ता
> "सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि” श्रेणि, भाग-33
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आजम
भाडाम
आगम
अशाराम
आगम
आगम: आजम आवास
evoer & BIOTH
ज्
आनमा
GOCH
राजम
राजाम
आजन
राजम 23 राज
SUCHE
श्री आजम आणम ॐ सा
आगम
आम अलग
आगाम
आगम: आजम आजम आगम
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आजम आग
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आम
आजम
आगम
वाचना शताब्दी वर्ष
KLICH
आजम आगम
आजम CAINTA आगम
MECHAN
आगम
नाम
आगम
माणस 20STIX
ST
आजम आज
SUSTE
आजम उगम आगम
आराम आजम आणत आश्रम की आलम
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नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
न
मूल संशोधक
अभिनव संकलनकर्ता
P
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
26
ॐ
पालिताणा
FOHTOTROHI
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________________ आगम आगम राम राम मूल संशोधक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आजम आजमआजम आजम आजम आजम आजम आगम 41/2 "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं वृत्ति: आजम आज अभिनव-संकलनकर्ता आजम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आजमआजमआर आजमआजमाआजमआजम ~376~