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पट्टमहादेवी शान्तला
भाग : दो
सी. के. नागराज राव
रूपान्तर
पण्डित पी, वेंकटाचल शर्मा
भारतीय ज्ञानपीठ
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पट्टमहादेवी शान्तला
भाग :
दो
सी. के. नागराज राव
रुपान्तर
पण्डित पी. वेंकटाचल शर्मा
भारतीय ज्ञानपीठ
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युवरानी जी के एकाएक प्रस्थान का कार्यक्रम बन जाने के कारण बलिपुर में कोई विदाई-समारोह आयोजित नहीं हो सका। लेकिन मन्दिर, वसति, विहारों में युवराज की कुशलता और युवरानी की सुखमय यात्रा की कामना करते हुए पूजा-अर्चा
आदि की व्यवस्था की गयी थी। चात्रा को सुविधाजनक बनाने के लिए रास्ते में जगह-जगह रुकने और घोड़ों के बदलने आदि की व्यवस्था के लिए एक टोली पहले ही निकल चुकी थी। वर्तमान स्थिति में जितनी जल्दी हो सके उन्हें दोरसमुद्र पहुँचना ही था, इसलिए टीक ठीक व्यवस्था के लिए स्वयं हेग्गड़े मारसिंगय्या साथ निकले। रक्षा-दल की निगरानी करने के लिए मायण उनके साथ था।
किसी तरह की औपचारिक वातों के लिए मौका ही नहीं मिल सका था, इसलिए एक-दूसरे के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ मौन भाव से ही की गयीं। युवरानी ने हेग्गड़ती को और हेग्गड़ती ने चुवसनी को विदा किया। दोनों की आत्मीयतापूर्ण प्रीति देखते ही बनती थी। शान्तला और बिट्टिदेव तथा रेविमय्या जऔर शान्तला को परस्पर विदाई भी एक अपूर्व आत्मीयता के साथ मान-ही मौन हुई। जो बात परस्पर सम्भाषण से भी असम्भव थी, इस मौन ने कह दिया था।
बलिपुर से रवाना होकर राजपरिवार निश्चित समय से बहुत पहले ही दोरसमद्र पहुँच गया। आदेशानुसार उनके आगमन की कोई पूर्व सूचना नहीं दी गची धी। इसलिए राजमहल पहुँचने पर वहाँ किसी तरह के स्वागत-समारोह की व्यवस्था नहीं हो पाची। सो, दण्डनायिका भी सजधज के साथ अपनी बेटियों को लेकर उनके स्वागत के लिए वहाँ उपस्थित नहीं हो सकी। अवसर ही कहाँ मिला? फिर दण्डनाधिका को जो परेशानी हो सकती थी, उससे भी वह बच गयी। मन-ही-मन उसने महावीर स्वामी को बार-बार प्रणाम किया। वास्तव में वह इस बात से परेशान थी कि अब युवरानी को वह मुँह दिखाए तो कसे। उसके भाई ने कहा भी था, "तुम ऐसा बर्ताव करो जैसे कुछ हुआ ही नहीं। यदि खुद बात छेड़े तो साफ़ बता देना, टुग़व-छिपाय की ज़रूरत नहीं है। तुम स्वयं बास मत ठेड़ना।" परन्तु उसके भीतर तो आग जल रही थी। बात यहाँ तक बढ़ेगी उसने सपने में भी नहीं सोचा था। उसने समझा था कि उसके सिवाय और इसे कोई नहीं जानता। अब उसे अहसास हो रहा था कि उसका ऐसा समझना ग़लत था।
पदमहादेवी शान्तला : भाग दी :: 7
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अपने भाई ने ही गुप्तचर लगा दिया यानी वह अपने भाई का विश्वास भी खो बंदी है। यह सब वह अच्छी तरह जान चुकी थी "मैंने कैसा काम किया? मेरी विवेक बुद्धि तव कहाँ खो गयी थी मैं किसी को अपने बराबर की नहीं मानती थी, इतराती थी। अब शमं से सिर झुकाकर चलना पड़ा न इस सबका कारण परिवार मेरे पूर्वज के शत्रु है। यह तो मेरा भाग्य ही कहो कि युवराज को देखने का बहाना बनाकर हेग्गड़ती और उसकी लड़की यहाँ नहीं आयी युबराती के मन को मेरे ख़िलाफ़ भरतवाला फिलहाल कोई नहीं । उस वामशक्ति पण्डित ने जो कालावधि बतायी थी, वह भी अब पूरी हो गयी। इस 'सर्वतोभद्र' यन्त्र के प्रभाव से शायद आगे योग्य फल मिले अपने भीतर के भय को दूर करके भाई के कहे अनुसार चलने का प्रयत्न करना चाहिए । यों तो मेरे ख्याल में उनकी भी सहानुभूति है। और फिर युद्धभूमि से लौटने के बाद पद्मला को देखने के लिए राजकुमार आएँगे ही तन्य स्थिति समझकर आगे का कार्यक्रम निश्चित करना होगा। इस बीच कुछ साहस करके एक बार युवरानी को देख आने की रस्म भी पूरी कर लूँगी। और तब चायला से कहकर छोटे अप्पाजी के द्वारा कुछ बातें जानने का प्रयत्न करूँगी... युवरानी से मिलने जाऊँगी तो तीनों बेटियों को साथ लेकर ही जाना टीक रहेगा। अकेली जाऊँगी तो पता नहीं, बात कहाँ से कहाँ पहुँच जाएगी। ऐसा मौका ही क्यों हूँ। दण्डनायक के राजमहल से लौटने के बाद इस बात का निर्णय करेंगे कि कब युवरानी से मिलने जाएँ...” उस तरह पता नहीं, दण्डनायिका चामच्चे ने क्या क्या सोच रखा था?
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परन्तु युवराज के दर्शन हुए बिना युबरानी जी किसी से नहीं मिलेंगी इस बात की सूचना मिलने के कारण चाम को राजमहल जाने का अवसर ही नहीं मिला। उसने सोचा कि क्यों न किसी तरह से कवि नागचन्द्र को बुलवाकर उनसे वहाँ की बातों का पता लगाया जाए। उसके भाई ने यद्यपि स्पष्ट कहा था कि ज़्यादा मीम मेख में नहीं पड़ना, शान्त रहना फिर भी भला वह कैसे शान्त रह सकती थी ! मालकिन की आज्ञा पाते ही सेवक दड़िगा कवि को बुलाने चला गया।
कवि नागचन्द्र बुलावा पाते ही चले आये। दण्डनायक परिवार का नमक खाया है, यह बात वह कभी नहीं भूल पाते थे। यूँ दण्डनायक से उनकी मुलाक़ात हो चुकी थी। लेकिन उन्होंने घर पर आने के बारे में कुछ नहीं कहा था, इसलिए usarयिका चामब्बे के इस बुलावे से कविराज जी कुछ परेशान हुए। जैसे दोरसमुद्र अचानक छोड़कर चले आने के कारण वह दण्डनायिका से नहीं मिल सके थे। अब कुछ भी हो जाकर दण्डनायिका से मिलना कर्तव्य समझकर बुलावा आते ही वह चले आये। जब वह आये तो दण्डनायक जी घर पर नहीं थे । राजमहल गये थे। बच्चों का शिक्षण कार्य चल रहा था।
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दांडगा ने कविराज को उचित आसन पर बैठाकर इण्डनायिका को ख़बर भिजवा दी। दण्डनायिका आयी।
कवि ने उठकर प्रणाम किया।
"बैठिए सब कुशल तो है?" दण्डनायिका चामध्ये ने पूछा ।
"सच कुशलपूर्वक हैं। आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है क्या? कुछ धकी थकी-सी दिखाई पड़ रही हैं। तबीयत कैसी है? कवि नागचन्द्र ने औपचारिकता पूरी की।
“कुछ नहीं, सब ठीक है। आप बैठिए खड़े क्यों हैं?" कवि नागचन्द्र बैठ गये । चामब्बे ने भी आसन ले लिया। फिर कुछ क्षणों का मौन । बातचीत कौन शुरू करे? जिन्होंने बुलवाया उन्हीं को आरम्भ करना चाहिए न? कविजी इसी में बैठे रहे। वाल को में नहीं आया तो कवि से कुछ न कहकर नौकरानी देवव्वे को आदेश दिया, "देखो, कविजी आये हैं, गरम-गरम दूध लाओ इनके लिए !"
'आपने बुलाया था' कहकर बात शुरू करने के लिए कवि ने एक बार सोचा भी लेकिन एकाएक फिर मन बदल गया । चुप रहना ही उचित समझा । कब्बे जल्दी से दूध रखकर चली गयी।
चामब्वे ने कहा, "लीजिए, दूध लीजिए! "
दूध का कटोरा हाथ में लेकर कवि ने कुछ संकोच के साथ इधर-उधर देखा । "क्यों, क्या चाहिए था दण्डनायिका ने पूछा । "कुछ नहीं, आपके लिए नहीं आया, इसलिए..." "अभी-अभी ही लिया है मैंने, आप लें ।"
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कवि झिझकते हुए दूध पीने लगे। "बलिपुर कैसा है, कविजी "
"क्यों दण्डनायिका जी ने बलिपुर नहीं देखा है?" "अगर देखा होता तो आपसे क्यों पूछती ?"
"बहुत ही अच्छी जगह है। शिल्पकला का तो जन्मस्थान है। और फिर वहाँ के लोग बहुत अच्छे लगे मुझे। छोटे से लेकर बड़े-से-बड़े हेगड़े तक सभी बहुत ही सुसंस्कृत, बहुत ही अच्छे लगे हैं। वहाँ की परम्परा हो शायद ऐसी है । विद्या के लिए वहाँ प्रथम स्थान हैं। विहारों में मठ-मन्दिरों में विद्यार्जन की पर्याप्त सुविधाएं हैं। मुझे बहुत ही पसन्द आया वह स्थान । वहीं का छिपाव दुराव रहित खुला सरल जीवन और वहाँ के लोगों में आपस का विश्वास! ऐसा निष्कल्मष जीवन अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। हेग्गड़ती जी का दण्डनायिका जी के लिए वैयक्तिक रूप से एक निवेदन भी है कि आप सब एक बार बलिपुर पधारने की कृपा करें। दण्डनायिका जी के पास निमन्त्रण भेजने की उन्होंने सोची भी थी,
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परन्तु प्रस्तुत सन्दर्भ में ऐसा करना उचित नहीं होगा-यह सोचकर मुझसे यह विनतीं आप तक पहुंचाने को कहा है। 'युवराज के लौटने पर सब तरह से यहाँ की व्यवस्था कर लेने के बाद, या अगली बार तारा भगवती के उत्सव क अवसर पर आप लोग यहाँ अवश्य पधारें'--यह उनकी आकांक्षा है। और हाँ, हेग्गड़ेली भी स्वयं दण्डनायक जी से निवेदन करेंगे।"
"देखेंगे, दण्डनायक जी का सहारा मिले तभी कुछ सम्भव होगा। उनके बिना मन-गरजी जहाँ कहीं जाना आना नहीं हो सकेगा। और फिर महाराज...वह भी तो दण्डनायक जी को अपनी आँखों के सामने ही रखे रहना चाहेंगे, कहीं दूर नहीं जाने देंगे।"
"महाराज की ऐसी चाह.-यह थी तो महाभाग्य ही है, दण्डनाविका जी।'' “सों तो ठीक हैं। ऐसा न होता तो दण्डनायक जी तो अब तक..."
"जनकी निष्ठा और विश्वास न ही उन्हें इस पद पर पहुंचाया है। बड़ी महारानी जी का इतना स्नेह अन्य किसी पर क्यों नहीं हुआ?''
“सो तो ठीक है, घोसल वंश के प्रति मेरे मायकेवाले और दण्डनायक जी के घरानेवाले सदा ही निष्ठावान रहे हैं।' ____ 'आप सबके ही कारण इस राजघराने की पत्किंचित् सेवा करने का मुझे भी अवसर प्राप्त हुआ-हालाँकि आपके सामने ही ऐसा कहना ठीक नहीं जंचता, आपके तथा दण्डनायक जी के प्रति में बहुत मणी हूँ।" कवि ने कृतज्ञता के स्वर में कहा।
"ठीक है। अब आपको चाहिए कि इस कण को राजकुमारों की प्रगति के लिए परिश्रप करके चका दें।"
''यथाशक्ति मैं यही प्रयत्न कर रहा हूँ।"
"ठीक है। बलिपुर आपको पसन्द आया फिर भी वहाँ बेचारी युवरानी जी की बहुत तकलीफ़ हुई होगी। हुई होगी न?" ____“जहाँ तक मैं जानता हूँ, ऐसा कुछ नहीं हुआ है। फिर भीतरी बातें कौन जाने!"
"बड़े स्थानों में रहनेवालों के लिए जैसी व्यवस्था होनी चाहिए वह छोटी जगहों पर नहीं हो सकती। सब तरह से व्यवस्था करने की प्रबल इच्छा होने पर भी वैसा नहीं हो पाता।"
"वहीं ऐसी स्थिति का अनुभव ही नहीं हुआ, दण्डनायिका जी। इतना ही नहीं, सुनते हैं कि पहले वहाँ चालुक्य पिरियरसी जी भी रहीं। सी ऐसे अवसर पर क्या और कैसी व्यवस्था होनी चाहिए इसकी उन्हें जानकारी भी हैं।''
'चालुक्य पिरियरसी वहाँ पिरिबरसी बनकर नहीं, वरन् एक साधारण
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अधिकारी की गृहिणी की तरह रही हैं। हेग्गड़े वगैरह को तो युवराज के वहाँ पहुँचने के बाद ही मालूम हुआ कि वे चालुक्य पिरियरसी हैं।"
"मुझे ये सब बातें मालूम नहीं।'
ऐसी बातों को कहेगा भी कौन? बड़े लोगों का नाम ही बार-बार लिया जाता है क्योंकि इससे उन्हें फ़ायदा होता है।"
''हो सकता है। जब तक हम रहे शायद एकाध बार कभी उनकी बात उठी हो, वस ।'
आश्चर्य है! तब तो यही सोचना होगा कि युवराज और बड़े राजकुमार के युद्ध में जाने की बात शायद ही होती हो"
"वह बात राज्ञ तो नहीं उठती थी, फिर भी कभी-कभी किसी प्रसंग को लेकर चचा आ जाती थी। खासकर बड़े राजकुमार के युद्ध में जाने से सवको किसी-न-किसी तरह की चिन्ता तो रहती ही थी।' __ "राजकुमार के युद्ध में जाने से युवगनी जी का चिन्तित होना स्वाभाविक ही
"सन्निधान से भी अधिक चिन्ता हेग्गड़े दम्पती को रही। युद्ध-शिविर से जैसे ही पत्र-वाहक आता, में सबसे पहले राजकुमार के ही बारे में दर्यात करते, द्वाद में युवराज के बारे में पूछते।"
'जन्म देनेवालों से अधिक इन्हें चिन्ता?" । "उनकी ऐसी आत्मीयता वास्तव में अन्यत्र दुर्लभ है।" । “मालूम पड़ता है, लोगों को अपना बनाने में यह हेग्गड़े परिवार सिद्धहस्त
"उनका व्यवहार ही ऐसा है. दण्डनायिका जी। हर किसी को उनसे अपनापन हो जाता है।"
''सच है। जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं स्वभाव से ही किसी से ज्यादा पेल-मिलाप नहीं रख पाती। फिर भी उन्हें अपने घर बुलाकर उनका आदर-सत्कार करने की इच्छा है।"
"हेग्गड़ती जी आपके प्रेमपूर्ण आतिथ्य को आज तक नहीं भूलीं। आपने जो उपहार दिया था, उस पर उन्हें बड़ा ही गौरव है।"
"यह सब आपको कैसे मालम?"
"उस दिन ओंकारेश्वर के मन्दिर में कार्तिक दीपोत्सव का आयोजन था। इस अवसर पर युवराज और राजकुमार और...और ढ़ाकरस-इन सबकी कुशल कामना के लिए विशेष पूजा-अची की व्यवस्था की गयी थी। हम सब वहीं गये धे। उस दिन वे और उनकी बेटी, दोनों ने उन्हीं वस्त्रों को धारण किया था जिन्हें आपने
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"राला आश्चर्य !''
" सा नहीं लगता। इस तरह का कतन्नता ज्ञापन तो उनका मन स्वभाव ।'
"आप उनक निकट । आपकः उनके विमान का अच्छा परिचय है : मंगे तो उनस IIREEी बार भंट हुई. लो मी तव अव ते बद राजकुमार के. पनवन मं यहां जाबो धीं। तब एक बार मन में देखा था। दूसरी बार जब आरी थीं तब हमारी चामला और उनकी वटी के बीच विशेष परिचय का था. और तभी काधिक निकट से उन्हें, दवन का मोका मिला था।''
मी, एक बार नारयम के बारे में वात उठी तो उस समय उनकी बेटी ने आपकी बेटियों के गुरु उत्कल में नानाचार्य कं मृदंग-वादन के बारे में बहुत प्रशंसा की थी और कहा था कि पं गति-विन्यास फो चखुगे प्राप्त करनी हो तो दंग का वादन उस स्तर काकाना शहिए। मृदंग-याइन की बात प्रशंसा कर रही थी न ।'
''दाइनायक जी साधारण व्यक्ति को बुलवाकर कहीं दया की शिक्षा दिलाएँगे। ऐसा हो सकता है और ह रियां : ini,
Ai, -4 और कार की शिक्षा देने के लिया हपने एक कवायत्री को भी नियुक्त किया
" कहाँ की...?"
वह इस बारे में कार नहीं बताती। शाइन इनकं अपना काह नहीं। पाश्च की खोज में यहाँ आयी थीं। नहाकयों को पढ़ाने लायक कोई वृद्ध पाहत तो मित्र नहीं। घल्ली उभर की गति को बनाने के लिए कोई महिला ही हो. यह साचकर इण्डनायक जी ने अच्छा समझकर उन्हीं का नियक्त किया है। उन्हें तो बस अपने काम में काम हैं। लोगों से विशेष मिलती-जुलती भी नहीं। व? ही गम्भीर भाव की है।"
"वहत . इच्छा। बेटियों को उन्य शिक्षा मिलनी ही चाहिए।' ना हम कं जान सकेंग: जाप ही कहें उनसे।'
मालिकाओं की पड़ने में बढ़ाती हैं. जो समझ लेना चा कि गुरु अछ। बोच्चयों क्या कहती ?"
"वे लो उन्हें छोड़नी है नीं, उनमें लगा ही रहती हैं।'
तत्र तो समझना चाहिए कि शिक्षण मन्नोपजनक ढंग ा रहा है।" ''गट्टनायक जी भी यहीं न, फिर भी आप कभी एक बार दयांफ़्त करें
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तो उत्तम होगा।"
अपरिचितों के कार्य के विषय में हस्तक्षेप करना अच्छा नहीं, दणदनायिका जी। वह भी ऐसी हालत में जबकि उनका स्वभाव ही किसी से मिलने-जुलने का नहीं।'' कविराज ने कहा।
"मैं परिचय करा दूंगी। बाद में सब सहज भाव से आप ज्ञात कर लेंगे।"
'यदि उनकी ऐसी इच्छा बनती हैं तो इससे दोनों का लाभ हो सकेगा। वास्तव में, इस बार बलिपुर हो आने से, वहाँ के कवि बोकिमय्या, स्थापत्यकार दासौज, शिल्पी-नाट्याचार्य गंगाचारी आदि के साथ विचार संगोष्ठी से अपनी ज्ञानसम्पदा को बढ़ाने में मुझे बहुत सहयोग मिना। इसलिए साहित्य-सेवियों से परिचित होने से मिलनेवाले लाभ को मैं समझता हूँ। कृपया पूछ लें, यदि वातां की उनकी इच्छा हो तो मैं तैयार हूँ।"
“मैं दर्यापत करूंगी। अच्छा, यह तो बताइए कि युवरानी जी के साथ हेगड़ेत्री के परिवार के लोग क्यों नहीं आये? उन्हें आना चाहिए था न?"
'मी नहीं मालम।" "शायद लड़की के विवाह का प्रसंग रहा होगा।"
“ऐसी कोई भी बात सुनने में तो नहीं आयी। ऐसा कोई समाचार दण्डनायिका जी को सुनने में आया है क्या?''
"नहीं, कुछ नहीं। लड़की व्याह के योग्य हो गयी है, इकलौती बेटी है. कहीं किसी अच्छे, योग्य वर को देख रखा होगा, ऐसा मुझे लगता है।
“ऐसा कुछ होता तो मालूम न पड़ता?"
"अच्छा वर मिल जाए तब तो। मैंने कई बार सोचा है, कोई योग्य वर इमारी नज़र में आए तो उन्हें सूचित करें। परन्तु पहले से ही यदि उन्होंने कहीं निश्चय कर लिया हो तो...।"
जहाँ तक मैं समझता हूँ, वे अभी विवाह की बात पर विचार ही नहीं कर रहे हैं। फिर भी, दण्डनाधिका जी अगर बताएँ तो वे स्वीकार करेंगे।"
"भई उसमें क्या' कोशिश करेंगे। बड़ी अननमन्ट लड़की है। हर कोई यही चाहेगा कि ऐसी लड़की को कोई अच्छा पर मिले।" ___ “वह लड़की केवल अलमन्द ही नहीं, विरन भी है, दण्डनायिका जी। बहुत प्रतिभाशाली हैं। बहुत तेज धुद्धि है उसकी। किसी भी विद्या को वह यों ही सीख लेती है। संगीत-साहित्य ही क्या, अब तो वह शस्त्र-विद्या में भी बड़ी निपुण हो गयी है।"
सुनकर दण्डनाविका घामब्बे जोर से हंस पड़ीं। कवि नागचन्द्र को बात का सत कुछ बदला-सा मानूप पड़ा। बातों की गति
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जोर पकड़ रही थी इसलिए उन्होंने बोलना बन्द करके दण्डनायिका की ओर देखा। ___ 'बड़े अच्छे कवि हैं आप! कहते हैं कि लड़की शस्त्र-विधा में बड़ी निपुण है। अरे भाई, उसके बाप ने इकलौती बेटी समझकर उसके हाथ में तलवार पकड़ा दी होगी। बस इतने से ही वह निपुण हो गयी? फिर वह तो कोपल स्वभाववाली लड़की है। आमतौर पर स्त्रियाँ कोमल स्वभाव की ही होती हैं। शस्त्र-विद्या की उन्हें क्या ज़रूरतः क्या उसे कही युद्ध करने जाना , बड़ी-बड़ी मूंछवाले इन पुरुषों के होते हुए?"
"आपकी बात सच है। नारी को युद्ध में जाने का मौका ही कम मिलता है। परन्तु हेग्गड़े जी की लड़की के बारे में मैंने जो कहा वह सोलह आने सच है, इसमें अतिशयोक्ति नहीं।"
"कविजी, मुझे तो आपकी बात पर विश्वास नहीं होता।" । "छोटे अप्पाजी के बारे में आपके क्या विचार हैं?" कवि ने पुछा।
"सुना हैं वे बहुत तेज बुद्धिवाले हैं। खुद दण्डनायक जी उनके हस्तकौशल की बड़ी प्रशंसा करते हैं।"
"उन्हीं को अगर इस लड़की ने हरा दिया हो तो?" गा, ऐसा! वे दोनों भला क्यों लड़ पड़े।"
“वह एक स्पर्धा थी।" और कवि नागचन्द्र को इस स्पर्धा के बारे में जो कुछ मालूम था, उसे बड़े ही दिलचस्प दंग से सुना दिया। सुनकर चामध्ये दंग रह गयीं।
कुछ क्षण के लिए ख़ामोशी-सी छा गयी। बात बन्द होने पर कवि को कहने के लिए कुछ सूझा नहीं । अपने चल देने की इच्छा को कैसे प्रकर करें, यही सोच रहे थे। इधर-उधर देखा। अपना उत्तरीय उठाया और धीरे-से बोले, "दण्डनायिका जी का बहुत समय मैंने ले लिया। अब आज्ञा हो..." ___"कुछ नहीं । वाक़ई यह आश्चर्य की बात है। मेरी अक्ल को कुछ सूझता नहीं। अच्छा यह बताइए कविजी, नारी के लिए सचमुच यह सब चाहिए क्या? क्या हेगड़ेजी की अक्ल मारी गयी है जो उस लड़की को शस्त्र-विद्या सिखा रहे
'दण्डनायिका जी, मैं इस बारे में क्या कह सकता हूँ।"
"जिस विद्या का उपयोग कर नहीं सकते उसे सीखकर भी क्या? हमारे देश में शस्त्र-विद्या सीखकर पहले कभी कोई नारी युद्धभूमि में नहीं उतरी । ऐसी कोई घटना आपको याद हैं?" ___ "पौराणिक कथा-गाथाओं में यत्र-तत्र ऐसा उल्लेख मिलता है। परन्तु जहाँ तक मैं जानता हूँ, अब तक के इतिहास में किसी नारी के युद्धभूमि में उतरने की बात नहीं है। आप शायद ठीक ही कहती हैं कि जिस विद्या का उपयोग नहीं,
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उसे सीखने का भला क्या प्रयोजन!'
"तब फिर इस विद्या के सिखाने में यह दिलचस्पी क्यों?'' 'मुद्दो भी नहीं मालूम, दण्डनायिका जी।"
'मेरी भी समझ में कुछ नहीं आ रहा। किसी लक्ष्य के बिना कोई इस तरह के काम में व्यर्ध ही अपना समय नष्ट नहीं करता। अच्छा कविजी, आपको कष्ट दिया। आप जाना चाह रहे हैं।"
"कष्ट क्रिस लात का? यहाँ आना मे" कहा था . नाम हूँ।"
कवि नागचन्द्र के चले आने पर चामञ्च वहाँ से उठी और अन्दर की ओर के बड़े प्रकोष्ठ में जाकर झूले पर बैंट, हल्के-हल्के पेंग भरती, कवि की बातों का मन-ही-मन दुहराती गम्भीर हो गयी। उसके दिमाग में उन हंग्गड़े दम्पती की ही बातें उमड़-घुमड़ रही थीं। उसे लगा ये शतरंज का खेल खेल रहे हैं। वे लोग जरूर किसी बड़े लक्ष्य को साधने के लिए ही यह सब चाल चल रहे हैं। कितनी रहस्यमय गति है इन लोगों की! शस्त्र-विद्या का यह शिक्षण...गजकुमार को हरा देना...निश्चित ही किसी भावी घटना के बीज छिपे हैं। जो भी हो, वह रहस्य खुलना ही चाहिए। इसका पता न लगा लूँ तो मैं भी दण्डनायिका चामब्बे नहीं।
विचारों में वह इतनी डूब गयी थी कि उसे कुल ध्यान ही नहीं रहा । वह तब सचेत हुई जब दण्टनायक के आने की किसी ने सूचना दी।
- झूले से उतरकर वह दण्डनायक के कक्ष की ओर चल पड़ी। दरवाजे तक पहुँची ही थी कि दण्डनायक राजमहल के परिधान उतारकर हाथ-मुंह धोने के लिए स्नानगृह की तरफ़ जाते दिखाई दिये।
पत्नी को देखते ही पूछा, "क्या कुछ कहना था?" "कुछ नहीं। स्वामी के आने की खबर मिली तो चली आयी।''
"मालूम हुआ कि कविं नागचन्द्र जी यहाँ आये थे। काछ ख़ास बात रही होंगी।" दण्डनायक ने पूछा।
दण्डनायिका को बड़ा आश्चर्य हुआ-इन्हें कवि के आने की बात मालूम हो गची। फिर भी सहज ढंग से बोली, "हाँ, आये तो थे। मैंने ही कहला भेजा था। अकारण ही मैंने उनके बारे में कुछ कटु आलोचना की थी न उस कटुता को दूर करने के उद्देश्य से बुलवाकर कुशल समाचार पूछ लिया।"
''मैंने कवि को देखा तो उन्हें बुलाना चाहा, परन्तु मेरा बलाना तुम्हें ठीक लगेगा या नहीं यह सोचकर चुप रह गया। दडिगा कहाँ है?"
"क्यों?"
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"बलिपुर के हेग्गड़े जी को बुलाया है। ये जव आएँ, आदर के साथ उन्हें अन्दर लिवा लाए। यही कहना है।''
दण्डनायिका ने कुछ नहीं कहा।
"क्यों, क्या त्यात है? हेग्गड़ेजी का आना तुम्हें पसन्द नहीं?" दण्डनायक ने पूछ। ___“आपके राजकार्य क्या होते हैं, मैं क्या जानूं? मेरा उसके साथ क्या सम्बन्ध..."
"राजकार्य होता तो घर पर नहीं बुलाते। इधर तुमने जो दरार पैदा की है, उसे पाटना ही होगा। तुम्हारे भाई की सलाह के अनुसार ही हम यह कर रहे हैं। तुम्हें भी..." ___'मैं उनके कहे अनुसार ही तो चलती रही हूँ। हेग्गड़ेजी के लिए विशेष आतिथ्य की तैयारी करनी होगी?"
"नहीं, यह आतिथ्य का समय नहीं। घर पर कोई अतिथि आए तो सदा की तरह सहज व्यवहार ही उसके साथ होना चाहिए। इसमें किसी दिखावट की शरूरत ही क्या है?"
“ठीक, मैं डेिगा से कह दूँगी। आप स्नान कीजिए।"
दण्डनायक चले गये। दडिगा पिछवाड़े के काम पर जुटा था। चामब्बे ने नौकरानी सावियचे को उसे बुला लाने के लिए कहकर खुद रसोई में चली गयी।
स्नानगृह से दण्टनायक जी बाहर निकले तो दडिगा सामने था। उसने अभिवादन करते हुए पूछा, “मालिक ने बुलाया है?" ।
"बलिपुर के हेगड़ेजी आएंगे। उन्हें आदरपूर्वक अन्दर लाकर बारहदरी में बैठाकर मुझे खबर कर देना। उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार होना चाहिए। ये दूसरे हेगड़े लोगों के जैसे नहीं। वे कुछ खास व्यक्ति हैं। हमारे युवराज के बहुत आत्मीय हैं वे। समझे।"
''समझ गया, मालिक।" कहकर वह चला गया।
रसोई से चामब्बे आयी और पूछने लगी, “मालिक का नाश्ता अभी होगा या हेगड़ेजी के साथ?" ___ मसा करमा ठीक होगा". .
"न न, मैं इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहूँगी। आप हैं, आपके हेग्गड़े हैं। जैसी आपकी आज्ञा होगी, वैसा ही करना मेरा काम है।" - ___ऐसी बात है तो जब हेग्गड़ेजी आएँ तब साथ बैठकर सहज भाव से कुशल-क्षेम पूछने और बातचीत करने में तुम्हें भी हाथ बँटाना होगा।"
"आप दोनों के बीच में मैं..."
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"तां यह नहीं होगा, वही कहना चाहती हो?" "ऐसा नहीं, यों ही मैं बीच में क्यों रहूँ! इसलिए कहा।"
"यही तो तुम पालत सोचती हो। छोटे अप्पाजी के उपनयन के निमन्त्रण-पत्र का जो प्रसंग उठ खड़ा हुआ हैं, उस बारे में विचार होते वक़्त तुम्हारा उपस्थित रहना अच्छा होगा क्योंकि इस प्रसंग का कितना ब्योरा हेग्गड़ेजी जानते हैं वह अब हमें भी मालूम होना चाहिए। वह मालूम हो जाए तो आगे के लिए कुछ रास्ता निकल आएगा। अनायास यह मौका मिला है। वह भी इसलिए कि हेग्गइंजी युक्रानी जी के सुरक्षा कार्य पर यहाँ आये हैं। समझीं !''
''हूँ, मैं भी उपस्थित होगी, आप दोनों के उपाहार के बाद ।" 'वैसा ही करी." कहकर दण्डनायक जी अपने कमरे की ओर चले गये।
चामब्बे भी अपनी कोटरी की ओर चली मची। वह खुद को इस अनाकांक्षित मुलाकात के लिए पहले में तैयार कर लेना चाहती थी।
निश्चित समय पर हेगड़े मारसिंगय्या आ पहुँचे। दांडगा ने मालिक की आज्ञा के अनुसार उन्हें बैठाकर आने की खवर भेज दी।
दण्डनायक आये। हेग्गडेली ने उठकर हाथ जोड़कर प्रणाम किया। बैटिए हेगड़ेजी' कहते हए दण्डनायक जी हेगड़े के पास बग़ल में बैठ गये। हेग्गड़े दो कदम पीछे हटकर घोड़ी दूर जाकर बैटे। दण्डनायक जी ने तकिये का सहारा ले लिया। हेगड़ेजी तकिये से कुछ आगे पाल्थी मारकर बैठ गये थे।
''यहां किसी तरह के संकोच की ज़रूरत नहीं, हेग्गड़जी। यह यर है। आप मेरे आमन्त्रित अतिथि हैं। मैं दण्डनायक हूँ और आप हेग्गड़े-इसे कम-से-कम वहाँ घर पर तो भूल जाइए।"
घर हो या बाहर, आप पोय्सल साम्राज्य के महादण्डनायक हैं। मैं कहीं भी रहूँ, आखिर हूँ तो एक साधारण हेगड़े हो। और आप कहीं भी रहें, आपको यथोचित गौरव तो मिलना ही चाहिए। इसे मेरा संकोच न समझें।" विनीत होकर हेग्गड़े ने कहा। उनके कहने में पूरी सहजता थी।
रसोइन देकच्चे एक थाली में पानी का लोटा और उपाहार सामग्री ले आयी थीं। वहाँ से वह लौट ही नहीं पायी थी कि दण्डनायिका आ पहुंची। आते ही पूछा, "आपकी बेटी और हेग्गड़ेजी कुशल तो हैं न?"
"सब भगवान की कृपा और आप जैसों का आशीर्वाद है। सब कुशल हैं।''
"लीजिए हेग्गड़ेजी," कहते हुए दण्डनायक ने थाली की ओर हाथ बढ़ाया। हेग्गड़े ने भी उनका अनुसरण किया। नाश्ता होने लगा। ___ दण्डनायिका ने कहा, "हमारे कवि नागचन्द्र जी आप सबकी बड़ी प्रशंसा कर रहे थे।"
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"वह उनकी उदारता हे। वे आपके कृपापात्र हैं, राजघराने के गुरु हैं । वास्तव में जो नहीं भी हैं उसकी कल्पना कर बड़े ही आकर्षक ढंग से चित्रित कर सकनेवाले प्रतिभावान कवि हैं ये । उनका ऐसा कहना उनके हृदय की विशालता का सूचक है। उनकी इस कृपा के लिए हम उनके कृतज्ञ हैं।" हंग्गड़े ने कहा। "वे यों ही किसी की प्रशंसा करनेवाले नहीं। वास्तव में उनकी ऐसी धारणा है, अन्यथा वे कहते हो नहीं आपकी बेटी की तो वे बहुत ही प्रशंसा कर रहे थे।" दण्डनायिका बोली ।
"यों प्रशंसित होना भी भाग्य की बात है, दण्डनायिका जी। यह सब उसे शिक्षा देनेवाले गुरुओं की कृपा है। उनकी शिक्षण कुशलता का ही परिचायक है।" "फिर भी बलिपुर जैसे छोटे गाँव में भी अच्छे गुरु मिल गये। भाग्य की ही बात हैं!"
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" दण्डनायिका जी, एक बार बलिपुर पधारें और देखें तब आपको मालूम होगा कि बलिपुर ऐसा छोटा गाँव नहीं। वह कदम्ब राजाओं की दूसरी राजधानी रहा हैं, इसलिए वहाँ की एक भव्य परम्परा हैं ।"
"कविजी ने भी यही बात कही थी। साथ ही आपके इस आमन्त्रण का भी जिक्र किया था।"
"वह हमारे लिए बड़े सौभाग्य का दिन होगा ।"
"हम भी यही समझते हैं। वास्तव में शस्त्र विद्या पारंगत आपकी इकलौती बेटी के हस्तकौशल को देखने की भी आकांक्षा है," कहते हुए चामब्बे ने अपने पति की ओर देखा ।
"क्या कहा, इनकी पुत्री शस्त्र - विद्या पारंगत ! दण्डनायिका जी ने एक नयी बात सुनावी न! यह सच है क्या हेग्गड़ेजी?" दण्डनायक ने पूछा। उन्हें सचमुच आश्चर्य हुआ था और कुतूहल भी ।
"कविजी झूठ क्यों बोलेंगे। कहा कि एक दिन छोटे अप्पाजी और इनकी बेटी में स्पधां चली तो छोटे अप्पाजी क़रीब क़रीब हार ही गये थे। युवरानी जी को समाचार मिला तो दोनों को ताकीद कर दी कि फिर कभी ऐसी स्पर्धा न हो।" दण्डनायिका के कहने के इस ढंग में कुछ खास संकेत था ।
"सो तो ठीक है हेगड़ेजी, आपने अपनी बेटी को शस्त्र विद्या सिखाने की बात क्यों सोची? मला नारियों के लिए यह शस्त्र-विद्या क्यों ?" दण्डनायक ने सहज ही पूछा ।
"वह छुटपन में ही सीख लेना चाहती थी। नारी के लिए इस विद्या की जरूरत नहीं समझकर ही मैं उसे स्थगित किये रहा। परन्तु एक दिन उसकी इच्छा को पूरा करना ही पड़ा।" हेगड़े बोले ।
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"तो क्या आपकी लड़की आपकी बात को मानतो नहीं." दण्डनायक ने पूछा।
"नहीं, ऐसा नहीं। बल्कि उसके इस विचार को अस्वीकार नहीं किया जा सकता था।''
"ऐसी कौन-सी बात धी? पहले किसी ना ने हाथ में तलवार लेकर युद्ध क्षेत्र में इटकर युद्ध किया हो और ऐसी बात उसे 'भा गयी हो तब तो शायद ऐसे विचार मन में आतं, परन्तु हमने तो सी बात सुनी नहीं:'
__ ण्टनायक जी ठीक ही सोचते हैं। ऐसी एक कथा जानकर ही उसने इस विद्या के सीखने के लिए जोर डाला था, इसलिए स्वीकार करना पड़ा।"
"स्त्री के युद्ध करने की बात!' टण्डनायिका ने विम्मित होकर कहा।
"ही. दागहनारिमा जी. गो पाम हीं था। सी ने बताया।" हेगड़ेजी वड़ आश्वस्त होकर बोले।
"वह कौन सी घटना है? किसने कही?" दण्डनायिका ने पूछा। "कही तो किसी ने नहीं। हां, एक शिलालेख की कथा पढ़ी थी उसने।"
"तो यह किस्सा शिलालेख का है। कहाँ का शिन्नालख है बह? किस गजा के समय का हैं?" दण्डनायक ने प्रश्न किया।
"बेलगोल में सनते हैं कि यह शिलालेख हैं। गंगवंशी राजा राचमल् के समय का। वह शिलालेख हमारे इस टोरसमुद्र के तालाब को बनानेवाले 'दो।' नामक व्यक्ति की बहू साधिवन्चे के बारे में है। दोरा के बैट लोकविद्याधर की पत्नी थी वह। उसका बाप गंगराजाओं का एक महान यान्द्रा ख्यातनामा 'यायिक' था। सानियब्वे अपने पति से अपार प्रेम करती थी, इसलिए युद्ध में शस्त्र धारण कर पति की सहधर्मिणी बन बुद्ध करती हुई 'बगियूर' नामक स्थान पर उसने अपने पति के साथ ही वीरगति पायी। इस वीरगति के पाने के उपलक्ष्य में विस्तृत विवरण के साथ प्रस्तर पर उत्कीणं एक आलेख है वहाँ । साथियब्वे का चित्र भी उत्कीर्ण है उस पर। सानियब्बे घोड़े पर सवार है और हाथ में तलवार है। हाथी पर बैठा कोई शत्रु उस पर शस्त्र-बार कर रहा है। यह केवल दो सौ वर्ष पुरानी बात है! कर्नाटक की वीर नारी की चीरगति पाने की रोमांचकारी क्या है यह । इसे ही पढ़कर उसने शस्त्र-विद्या सीखने की हठ की। मैंने भी अनुमति दे दी। हमारा धराना और उसकी माँ का घराना दोनों योद्धाओं के ही घराने हैं। काल अगर उसकी शादी होगी तो किसी योद्धा के साथ ही होगी, इसलिए उसमें भी साविधब्बे की तरह अपने पति के साथ-साथ रहकर युद्ध करने में समर्थ बनने की इच्छा होना अनुचित नहीं। इसलिए सिखाया। मेरे लिए तो बेटी और बेटा दोनों वहीं है। इसलिए जहाँ तक मुझसे बन सकता है, उसकी इच्छा मैं पूरी करता हूँ।"
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"सच है। इकलौती पुत्री होने के कारण आपको ऐसा ही करना चाहिए। मुझे बहुत खुशी हुई यह जानकर आपकी बेटी को इच्छा के अनुसार ही उसे वीर योद्धा पति मिले, भगवान ऐसा ही अनुग्रह करें। मेरे दोनों बेटों का विवाह हो चुका है, अन्यथा मैं ही आपकी बेटी को बहू बना लेता।" दण्डनायक ने कहा । दण्डनायिका ने होठ काट लिया।
" आपकी इस कृपा के लिए मैं कृतज्ञ हूँ। अब तक तो उसका पाणिग्रहण करनेवाला भी कहीं न कहीं पैदा हो ही गया होगा। और फिर आप ही कहिए, भगवान की मरजी के आगे हम अपनी चलानेवाले कौन होते हैं?"
सच है। फिर भी हमें प्रयत्न तो करना ही चाहिए न कहीं उसके योग्य घर की खोज की है?" दण्डनायक ने प्रश्न किया।
"नहीं, अभी कोई कोशिश नहीं की।"
"यदि आप स्वीकार करेंगे तो हम किसी योग्य सम्बन्ध का पता आपकी तरफ़ से लगाने की कोशिश करेंगे !"
"आपकी कृपा ही हमारे लिए बहुत बड़ी चीज़ है, दण्डनायक जी चालुक्य पिरियरसी जी ने यही बात कही। उसके सम्बन्ध में सबकी ऐसी सदिच्छा का होना हम अपना सौभाग्य मानते हैं।"
बात न जाने इसी तरह कब तक चलती रहती कि इतने में दडिगा मे आकर निवेदन किया, "प्रधानजी ने तुरन्त बुलवाया है।"
बाल वहीं रुक गयी। हेगड़े आज्ञा लेकर चले गये। दण्डनायक भी राजमहल का लिबास पहनकर प्रधानजी के निवास की ओर रवाना हो गये।
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नायिका चामब्बे अकेली बैठी सोचने लगी कितना घमण्ड ! कहता है। कि पिरियरसी जी इसकी लड़की के लिए योग्य वर की खोज करेंगे। कहावत ही है - 'चोर का गवाह गिरहकटा' । किसी वीर स्मारक का बहाना करके वह क़िस्सा सुनाने लग गया। इस सबके पीछे निश्चित ही कोई षड्यन्त्र है। सम्भवतः उस हेग्गड़ती ने पिरियरसी को भी कुछ करके अपने वश में कर लिया हो। उनको मध्यस्थ कर अपना उद्देश्य साध लेगी। बड़ी चण्ट औरत है, ऊपर से ही मासूम-र म-सी लगती है। उसके इस वशीकरण मन्त्र का प्रतिकार करना ही होगा। दूसरा कोई चारा नहीं । चामब्बे न जाने कब तक यही सब सोचती रही।
हेगड़े मारसिंगय्या अपने मुकाम पर पहुँचे ही थे कि उन्हें युवरानी जी का बुलावा मिल गया। वह सीधे राजमहल की ओर चले गये। रेविमय्या ने हेग्गड़ेजी के आने की खबर युवरानी को दी और आदेशानुसार अन्दर ले गया।
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अन्दर आते ही मारसिंगय्या ने कहा, "क्षमाप्रार्थी हूँ! सन्निधान का जब बुलावा आया था तब मैं अपने मुकाम पर नहीं था इसलिए देरी हुई। दण्डनायक जी के बुलाये पर उनके यहाँ चला गया था। कोई जरूरी काम रहा हो और मुझसे देरी हो गयी हो तो माफ़ करेंगी।" ।
'नहीं, नहीं-ऐसा कोई जरूरी काम नहीं था। आज शाम तक युवराज के राजधानी पहुंचने की खबर आयी है। उनके यहाँ आने तक आप यहीं रहें। इसलिए कहला भेजा था। इतना ही।"
"शायद इसीलिए प्रधानजी ने भी दण्डनायक जी को बुलावा भेजा था।"
"हो सकता है। फिर यह खबर भी है कि प्रभु की तबीयत ठीक नहीं, इसीलिए उनकी अगवानी के लिए विशेष समारम्भ न हो, यह आदेश दिया गया है। उनके आगमन के समय की भी सार्वजनिक सूचना न देने का निर्णय किया गया है। फिर भी राजमहल के अन्दर राजकुल की रीति के अनुसार जयमाला पहनाकर तो उनका स्वागत करना ही चाहिए। इस मौके पर अप राजधानी में रहकर भी अनुपस्थित रहें तो प्रभु को अच्छा नहीं लगेगा इसलिए प्रभु के पधारने तक आप यहाँ से कहीं न जाएँ ।'
"जैसी आपकी आज्ञा!" मारसिंगय्या ने युवरानी को विनम्र जवाब दिया।
"राजकुमारों का पठन-पाठ समाप्त होते ही कविजी को भी यहीं भिजवा दूंगी। नहीं तो अकेले-अकेले ऊब जाएँगे।" कहकर युवरानी चली गयीं। मासिंगय्या ने उन्हें जाते देखकर उठकर प्रणाम किया। उनके चले जाने के बाद ही वह बैठे। थोड़ी देर में तभी बोम्मला आयी और बोली, "आपको पाठशाला में ही आने के लिए बुलाया हैं, कविजी बहीं हैं।"
"अभी राजकुमारों का अध्यापन चल रहा है, बोम्मले ?" "नहीं, कविजी किसी ग्रन्थ का अक्लोकन कर रहे थे।" "ठीक," कहकर मारसिंगव्या पाठशाला जा पहुँचे।।
उन्हें आते देख कवि नागचन्द्र खड़े हो गये और प्रणाम करके बोले, "पचारिए, यूँ तो मुझको ही यहाँ आना चाहिए था। आपको ही यहाँ बुलवा लिया, क्षमा करें। वैठिए।"
"मुझे प्रतीक्षा करनी है। इसलिए चाहे यहाँ रहूँ या वहाँ, सब वरावर है। आप बैंटिए।' कहकर हेगड़े भी बैठ गये।
"कौन-सा ग्रन्थ है यह?" "शिवकोटि जी का 'वटाराधने' ।" "जैन-धर्म का ग्रन्थ है?" "काव्य-कृतियों में धर्म का संस्कार जुड़ा ही रहता है। जीवन के अनुभव के
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साध धर्म की शिक्षा अन पर ाक्त के मन पर कहीं अधिक और जल्दी प्रभाय पड़ता है। 'बढाराधने' सन्दर गद्य में लिखित कन्नड ग्रन्थ है। कानड़ महाफाच्यों में स्थान पाने चोग्य यह एक लेखनीय गद्य कति है। और यह दूसग है 'चामुण्डरायगण ।"
'इस गन्ध के बारे में. कभी सुना हो ऐसा स्मरण नहीं। हाँ, चापण्डगयपुराण के विषय में हमारी अम्माजी (बेटो शान्तला) को उसके गुरुजी ने वहतकल बताया था।" ___ "कवि शांकिमच्या जी ने शायद ही इस ग्रन्थ को देखा हो!"
"तो म! आप सोचते है निगाही को इस प्रश, विषय में कट भी। मालूम नहीं?'' ___हाँ। कवि बाकिमव्या जो जो भी विषय ज्ञानन ग अम्माला का असाये विना नहीं रहत
“चह हो उसका सौभाग्य है। यदि यह ग्रन्थ मिल सकं तो इस प्रति गकर इसे आपके पास सर्गक्षत वापस भिजवा दंगा..."
पाक में प्रति हे वह " कवि नागचन्द्र चान्न । ''अगर वापस न आयी ता क्या होगा, शायद कधिजी को सी आशंका है।
आपके बारे में ऐसी धारणा भला कैंस बना सकता हूँ?'' "ना ?" कर से इनका अध्ययन प्रारम्भ करने का विचार था।" गोसी बात है तो अभी न दें।" "पिर आपके लिए...?" "दलंग, अन्यत्र कहीं एक प्रति मिल जाए।" इतनी आसानी में नहीं मिलेगी। एक काम किया जा मकता है!
क्या ?" ''यं स्वयं जल्दी-स-जादा इसकी प्रति तयार कर दूंगा। पर आपके पास वः पहचगी कंस:"
"हाकारं ना आते जात ही रहते हैं।" "नव डॉ अगले माह ही इसको प्रति आपकाध में पहुँच जागगी ।'
"इतनी जल्दी भी क्या है। आपको जब जेसा अवकाश मिले और जितना हो मक, उनकी प्रतिलिपि करते जाएं। इसमें विशेष परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं।"
'परिश्रम निरर्धक नहीं जागा, हेग्गी । सर, यह वात में ऊपर ही मोड़ दीजिए।' कहकर कवि नागचन्द्र उस ताडपत्रीय ग्रन्ध को बांधकर बग़ल में
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सरकाते हुए बँट गये।
दोनों थोड़ी देर तक तो मौन बैठे रहे लेकिन दो आत्मीय जन कितनी देर तक ऐसे बैठे रह सकते थे' कवि नागचन्द्र ने ही बात शुरू की। कहा, "श्रीमान! सुनते हैं, युवराज और राजकुमार आज ही आनेवाले हैं। इसलिए युवरानी जी ने कहला भेजा है कि अध्यापन समाप्त होने पर भी आप यहीं रहें।...इस समय दूसरा कोई कार्य नहीं था इसलिए इस ग्रन्थ को खोलकर पढ़ने बैट गया।"
मुझे भः इस बात का पता नहीं था। राजमहल में पहुँचते ही मुझे इसकी सूचना मिली। वह सोचकर कि अकेले बैठे रहने से ऊब जाऊँगा, वरानी ने मुझे आपके पास भेज दिया। मेरे यहाँ आने से आपकं अध्ययन में बाधा पड़ी। मारसिंगय्या ने कहा।
"वाधा पड़ने का सवाल ही नहीं उठता। आपको आश्चर्य होगा, मैंने पता नहीं, किानी वार इस ग्रन्थ को पढ़ा है। महाकवियों की उत्तम कृतियों को आप चाहे जितनी बार पढ़ें, हर वार आपको उसमें कोई न कोई नयी बात अवश्य पिल आएगी। इसलिए पग्प, रन्न, पोन्म और दुर्गासिंह जैसे रचनाकारों की कृतियों को आप चाहे सैकड़ों बार पढ़ें, ऊबेंग नहीं।" नागचन्द्र ने कहा।
हमें तो इन बातों की कोई जानकारी रहती नहीं। हाँ, आप जैसे ज्ञानी अगर समझाएंगे तो थोड़ा-बहुत समझ सकते हैं। मुझे बचपन में सीखने का बड़ा चाव था। परन्त हमारे जीवन का विधान ही कुछ और हो गया जिसके कारण अध्ययन की ओर विशेष ध्यान नहीं दे पाया। इसलिए आप काव्य में रस, नि आदि के बारे में कुछ बताएँगे तो हमारी समझ में कुछ नहीं आएगा। 'मैंस के आगे बीन वणाने जैसा होगा।"
वहीं, जैसे शस्त्रास्त्र चालन में अपने कुशलता पायी, वैसे ही...!" ___ मुझमें और आपमें अन्तर है। आए बुद्ध न भी करें तो भी आप युद्ध का ऐसा सजीव चित्रण कर सकते हैं जैसे आँखों के सामने ही युद्ध चल रहा हो। ऐसे काव्य की रचना आप कर सकते हैं। परन्तु हम जसों को तो समझाने पर ही वह समझ में आ सकेगा।"
"य: आपका मात्र भ्रम है। आप समय की कमी के कारण पर्याप्त काव्य पउन नहीं कर पाये हैं। लेकिन आप जब पढ़ने बैठेंगे तो अपने अनुभव के आधार पर ही कविकल्पना की व्याख्या करने लगेंगे।"
"शायद । मगर हम इस तरह का प्रयोग कर नहीं सकते। इसीलिए इस तरह के सभी प्रयोगों की जिम्मेदारी आप जैसे मेधावी विद्वानों पर छोड़कर ही तो हम अपने इस लौकिक व्यवहार में पड़े हैं।"
आप कुछ भी कहिए, हेग्गड़जी। यदि आप काव्य-पठन में आज भी लग
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जाएँ तो बहुत जल्दी ही इसमे निष्णात हो सकते हैं।"
मारसिंगय्या भोर से हंस पड़े। ''क्या आपको विश्वास नहीं?"
"मुझे हैंसी इसलिए आयी कि आपने कालज्ञानी भविष्यवक्ता की तरह यह बात कह ही। क्या मैं नहीं जानता कि मेरी शक्ति की सीमा क्या है, कितनी है?
वाह!"
___ "मैंने बस यूँ ही कहा था। कालज्ञानी की तरह कोई भविष्यवाणी नहीं की। माता-पिता की समस्त सहज शक्तियाँ, युक्तियाँ, गुण, व्यवहार, इच्छाएँ, अनिच्छाएँ बच्चों में संक्रमित होकर रूपायित होते हैं। यदि आपमें काव्य रसास्वादन की शक्ति न होती तो अम्माजी में यह सब कहाँ से आया? हेग्गड़ती जी केवल पढ़ना मात्र जानती हैं न? यदि उन्होंने अम्माजी की भाँति संगीत सीखा होता तो वे अम्माजी से भी अधिक श्रेष्ठ कलाकार बनी होती। ऐसे ही, आप भी साहित्य में निष्णात होते। आप दोनों की सम्मिलित शक्ति अम्माजी हैं। आप दोनों में पृथक्-पृथक् प्रद्योतित होनेवाली सारी विद्याएँ अम्माजी में केन्द्रित होकर प्रकट होनेवाली हैं। फिर उनके अपने पूर्वार्जित संस्कार भी तो हैं। इसीलिए वह शस्त्र-विद्या में भी प्रवीण हैं।"
"ठीक है। फिर भी कुछ लोग मुझे खली कहते हैं। ऐसे लोगों को समझाना कठिन काम है।''
"तो क्या आप पहादण्डनायक जी के यहाँ से होकर आये हैं?"
मारसिंगय्या कुछ बोले बिना प्रश्नवाचक दृष्टि से कवि नामचन्द्र जी की ओर देखने लगे।
"क्यों हेगड़ेजी, इस तरह क्यों देख रहे हैं? मुझे मालूम है कि एक ब्रही जगह है जहाँ ऐसी बात हो सकती है। इसीलिए मैंने कहा । अन्यत्र कहीं ऐसी बात हो
"आपके इस तरह सोचने का क्या कारण है?" बीच में ही हेगड़ेजी ने पूछा ।
कवि नागचन्द्र ने वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया जो दण्डनायक जी के यहाँ दण्डनायिका से बातचीत के दौरान चला था। हेग्गड़ेजी ने भी वे सारी बातें बतायीं जो दण्डनायक और दण्डनायिका के साथ बातचीत के दौरान चली थीं। ___"तो मतलब यह कि अम्माजी का शस्त्र-विद्या में पारंगत होना दण्डनायिका को पसन्द नहीं। यही समझना चाहिए?"
"न, न, हम क्यों ऐसा सोचने लगे? जानने का सहज कुतूहल भर है। जिसे हमने नहीं किया उसे दूसरे लोग करें तो यह ग़लत है, ऐसा कुछ लोग सोच सकते हैं। इसका कारण वह वातावरण है जिसमें ये पले-बढ़े हैं। उनका आश्चर्यचकित
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होना स्वाभाविक है। हेगड़े की बेटी को शस्त्र-विधा से क्या मतलब? कौन नारी इस सबका अभ्यास करती है? नारी के लिए यह सब क्यों? गाना, चौक पूरना, पढ़ना आदि ये सब घर से बाहर की विद्याएँ नहीं। परन्तु शस्त्र-विद्या ऐसी नहीं। सो भी पदों के साथ उडल-कुद नारी के लिए अनुचित कार्य है, नारी के गम्भीरोचित स्वभाव को यह शोभा नहीं देता है। जब सबके दिमाग़ में ऐसे विचार जड़ जमाये हुए हैं तब उनके प्रति किसी तरह की प्रतिक्रिया न कर चुप रहना ही बेहतर हैं।"
“अपका कहना भी एक तरह से सही है। हम हर बात में और बात के कहने के तरीके में अनेक तरह की विचारधाराएँ बनाते हैं। इसलिए बात करनेवालों की ध्वनि के अनुसार उनके अन्तरंग को भी समझ लेते हैं। मुझे जो लगा, मैंने कहा।"
"इस सम्बन्ध में मैं कुछ नहीं कह सकता। जहाँ तक मैं समझता हूँ उसमें कोई खास बात मुझे नहीं दीखती।"
शायद बात और आगे बढ़ सकती थी कि इसी बीच नगाड़े बज उठे। तुरही की आवाज सुन पड़ी। इधर रेविमच्या भागा-भागा आया और कहने लगा, "प्रमुजी पधार रहे हैं। दोनों जल्दी-जल्दी राजपहल के महाद्वार की तरफ चल दिये।
राजमहल की स्थिति दोरसमुद्र के दक्षिण-पश्चिम की ओर थी। इसलिए नगर के गित 'पागों में मरने की सामनाने के लिा राजकुमार बल्लाल और डाकरस दण्डनाथ के संरक्षण में सोये हुए एरेयंग प्रभु का रथ नगर के दक्षिण हार से प्रविष्ट हुआ। शेष सेना ने पश्चिमोत्तर से होते हुए उत्तर द्वार से प्रवेश किया। सेनाओं के पहुंचने पर ही लोगों को मालूम हो सका कि विजयी युवराज और राजकमार लौट रहे हैं। यों तो विजयी युवराज के लौट आने की खबर शहर में पहले ही फैल चुकी थी लेकिन कब और कैसे आऐंगे, इसका पता नहीं था। सेनाओं के नगर-प्रवेश से पहले ही युवराज का रथ राजमहल के प्राचीर में पहुँच चुका था। राजमहल के पूर्वद्वार पर युवरानी और प्रधान मंघराज की पत्नी लक्कलदेवी ने उनकी आरती उतारी। राजकुमार और युवराज को जयमाला पहनाकर प्रासाद के अन्दर ले जाया गया। युवराज सहारा लेकर धीरे-धीरे क़दो से ही चल पा रहे थे। युद्ध-शिविर में चारुकीर्ति पण्डित साथ रहे इसलिए युवराज की चिकित्सा तभी आरम्भ हो गयी थी और इस कारण आराम से युवराज को सजधानी पहनने में सविधा हो गयी थी।
सहारा लेते, धीमी गति से युवराज महाराज के कक्ष की ओर बढ़ चले। उनके वहां पहुंचने से पहले ही बल्लालदेव अन्दर जाकर महाराज को युवराज के आने का समाचार सुनाकर, उन्हें प्रणाम कर, आशीर्वाद पा, उनके साथ बाहर की
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बारहदरी में आ चुके थे। विट्टिदेव, उदयादित्य, युवरानी जी युवराज के साथ-साथ आये। प्रधान गंगराज और उनकी पत्नी लक्कलदेवी, दण्डनायक मरिचाने और डाकरस आदि उनके पीछे चल रहे थे। मारसिंगच्या और कवि नागचन्द्र ने युवराज को देखते है। भुसवार प्रणाम किया और प्रभु स सन्तोषपूर्ण भॊगया पाकर दण्डमावक आदि के पीछे धीरे-धीरे चलने लगे।
महाराज ने युवराज को छाती से लगाया, आँखों से दो-चार बूंदें गिरी। धीरे-से बोले, “भगवान बड़े दवालु हैं।"
सब लोग जहाँ-के-तहाँ खड़े रहे। पिता-पुत्र परस्पर आलिंगन में, पुनर्मिलन की खुशी में एक हो गये। युवराज को सहारा देकर वहाँ तक लानेवाला बिमय्या भी वहाँ से कुछ दूर हटकर खड़ा हो गया था। यह दृश्य देख उसने अपनी आँखें बन्द की, हाथ जोड़े और ऊपर की ओर मुँह करकं प्रणाम किया।
कुछ देर गम्भीर मौन वहाँ छाया रहा कि तभी महाराज विनयादित्य ने कहा, "युवराज अब आराम करें। कोई उन्हें अब तकलीफ़ न दे। क्या सव बीता, इसे हम डाकरस और अप्पाजी से जान लेंगे। सभी मन्दिर और वसतियों में पूजापाठ की व्यवस्था हो। कल राजमहल की ओर से राजधानी की सारी जनता को भोजन के लिए आमन्त्रित किया जाए।' कहकर युवराज के पास से कुछ पीछे हटकर बोले, "रेविमय्या यहाँ आओ, युवराज को शयनागार में ले जाओ। हम खुद वहाँ आएँगे।
रेविमय्या युबराज को सहारा देने पास आया। युवरानी जी, बिट्टिदेव, उदयादित्य भी उनके साथ-साथ अन्तःपुर की ओर चले गये। __ यल्लाल ने चारों ओर दृष्टि दौड़ायी और फिर दूर पर खड़े मारसिंगय्या और कवि नागचन्द्र को देखा। पास आकर नम्रता से पूछा, "सब कुशल तो हैं?"
दोनों ने सिर झुकाकर इशारे से 'हाँ' जताया । “हेग्गड़ती जी और आपकी पुत्री आयी हैं न?" राजकुमार ने पूछा। ___ “नहीं, मैं युवरानी जी और राजकुमारों के साथ आया। दूसरों के भरोसे इस दायित्व को छोड़ देने की मेरे पन ने स्वीकृति नहीं दी।"
"आप लोग कब आये?" "दो दिन हुए।" "रहेंगे न?"
"ज्यादा दिन नहीं ठहर सकता। प्रभु की आज्ञा मिलते ही लौटने का विचार है। अचानक ही आना पड़ा। यद्यपि वहाँ सिंगिमय्या है, इसलिए विशेष चिन्ता नहीं। फिर भी..."
"प्रभु ने कई बार कहा है कि वे बहुत दक्ष व्यक्ति हैं। वे रहें तो आपके रहने
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के बराबर ही हैं। "
"फिर भी सीमाप्रान्त है, बहुत सावधान रहना पड़ता है ।"
"सो तो सच है। इस बार युद्ध में अनेक महत्त्वपूर्ण बातें मालूम हुई । प्रभु के साथ बुद्धभूमि में रहना भी एक बड़ा सुयोग है। युद्ध का विषय ही नहीं, सभी राजनीतिक बालों का तथा इससे सम्बन्धित बड़े-बड़े लोगों से लेकर छोटे लोगों तक सबके बारे में सारी बातें मेरे दिमाग़ में स्पष्ट हो गयीं। बहुत-सी वार्ता की जानकरी करने में हुई। यानी में रह जाता तो यह सब कैसे
समझ पाता।"
"चलो, अच्छा ही हुआ। राजकुमार शरीर से भले ही वलिष्ठ न दिखें, पर हैं बड़े धैर्यवान, इतना तो कहना ही पड़ेगा, क्योंकि जब हमने सुना कि प्रभुजी राजकुमार की युद्धक्षेत्र में ले गये तो हम सब बहुत चिन्तित हो उठे थे। युवरानी जी के बलिपुर में आने पर समाचार सुनने के बाद ही हमें कुछ धीरज धा। जब हमें यह खबर मिली कि राजकुमार ही प्रभु के प्राणरक्षक रहे तो हमारी खुशी का ठिकाना न रहा। हममें एक विश्वास पैदा हो गया कि अब पास राज्य बेरोक-टोक बढ़ेगा ।" हेगड़े मारसिंगय्या ने कहा ।
बात बल्लाल की प्रशंसा की चलने लगी तो उन्हें संकोच हुआ। सो उन्होंने कहा, "भगवान की जैसी मर्जी होगी वैसा ही चलेगा न! सब भगवदिच्छा है । वह राज्य इस सिंहासन की उन्नति- यह सब राज्य के प्रति निष्ठावान और समर्पित सचालक वर्ग केही पर आधारित है, यह बात भी प्रभु ने मेरे भीतर बहुत अच्छी तरह उतार दी है।"
वास्तव
बल्लाल की बात पूरी हुई कि तभी रेविमव्या ने आकर निवेदन किया, "अप्पाजी, युवरानी जी आपको बुला रही हैं। " "क्या वे प्रभुजी के पास हैं ?"
"नहीं, वे अपने विश्राम कक्ष में हैं ।"
"साथ कौन है?"
"कोई नहीं।"
"कोई नहीं? दण्डनायिका दिखाई नहीं पड़ीं, मुझे तो लगा कि वहाँ
हाँगी ।"
"नहीं, वे नहीं जायीं ।" रेविमय्या बोला |
"अच्छा चलता हूँ, गुरुजी, कल से पढ़ने आऊँगा । आज मुझे विश्राम कर लेने की अनुमति प्रदान करें।"
अब तक इस सारे सम्भाषण को कवि नागचन्द्र मौन ही सुन रहे थे। बोले, "वैसा ही कीजिए।"
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बल्लाल अन्तःपुर की ओर बढ़ चला।
बाद में, रेविमय्या ने आगे बढ़कर कहा, "हेगड़े जी! आपको और कविजी को प्रभु ने बुला लाने का आदेश दिया है ।"
और तब वे दोनों भी उसके पीछे चले गये। युवराज के विश्राम कक्ष में प्रवेश कर दोनों ने झुककर प्रणाम किया। पलंग पर पैर पसारे तकिये के सहारे बैठे प्रभु ने उन्हें बैठने का इशारा किया। दोनों बैठ गये।
"पोय्सल वंश आप दोनों का कृतज्ञ है।" एरेवंग प्रभु ने कहा ।
सुनकर दोनों उनको और देखते रह गये।
I
"हमारी अनुपस्थिति में राजपरिवार की उन्नति एवं सुरक्षा हेतु आप लोगों ने जो श्रद्धा, निष्ठा, आत्मीयता तथा रुचि दिखायी, युवरानी जी ने संक्षेप में ही उसे टीक और सही ढंग से मुझे बताया है। सामने अपने को अच्छा होने का दिखावा करके पीछे से छुरा भोंकनेवाले लोगों को भी हमने देखा है। हमारी अनुपस्थिति में आप लोगों ने जैसा सुसंगत व्यवहार किया, सुनकर हमें बड़ा गर्व हो रहा है ख़ासकर इस प्रसंग में कविजी के बारे में एक विशेष बात कहना चाहूँगा। बल्ताल के गुरु होकर उसे आपने इस पोय्सल वंश के योग्य बनाया है। इससे बढ़कर हम और क्या चाहेंगे? अगर वह आपके हाथ नहीं लगता तो उसका रास्ता ही शायद कुछ का कुछ हो जाता। आपके इस महत्त्वपूर्ण कार्य को मापने का कोई मापदण्ड हमारे पास नहीं है। हमने कभी राजकुमार के बारे में सीधे कोई बात नहीं पूछी। युवरानी जी ही मुझे इस सम्बन्ध में समय-समय पर बताती रही हैं। हमारे हेगड़ेजी जैसे इस पोय्सल वंश के निष्ठावान हैं, वैसे ही आपको सदा सर्वदा इस राजवंश के ही आश्रय में रहना चाहिए। इस बार के युद्ध में हमने विजय पायी। अप्पाजी ने हमारे प्राणों की रक्षा की। पण्डित चारुकीर्ति ने बुद्धभूमि में साथ रहकर आसन्न मृत्यु से बचाकर हमें यहाँ तक आने में समर्थ बनाया है। पता नहीं अभी और कितने दिन तक हमें इस अशक्त दशा में रहना होगा। भगवान की जैसी मर्जी! अब तो हमारे वंश के इन अंकुरों की रक्षा का दायित्व आप ही लोगों पर है। हम चाहे जीवित रहें या न रहे, आप लोगों से हमें यह आश्वासन मिलना चाहिए कि आप सब इस दायित्व को निभाएँगे ।" प्रभु ने कहा ।
"हम आश्वासन देते हैं। हम अपना दायित्व अब तक निभाते रहे हैं और जीवनपर्यन्त निभाते रहेंगे। परन्तु प्रभु आज जिस ढंग से कह रहे हैं, यह हमें अच्छा नहीं लग रहा हैं। हमें इस बात का पूरा विश्वास है कि दीर्घकाल तक हमें प्रभु का मार्गदर्शन मिलता रहेगा। इसलिए प्रभु ऐसा न कहें, वही हमारी प्रार्थना है।" मारसिंगय्या ने कहा ।
“चों ही मन में आया कह दिया। अब आगे नहीं कहूँगा ।"
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"प्रभुजी को अब विश्राम करना चाहिए। आज्ञा हो तो हम चलें। धीरे-से नागचन्द्र ने कहा।
"अच्छा कविजी, शिष्य से भेंट हुई धी?" "हाँ, हुई थी। राजकुमार अब साँचे में ढलकर निखर सान की तरह बन गये
"इतनी जल्दी आपने सब समझ लिया? वैसे हमें आपसे यह बात सुनकर बड़ा हर्ष हो रहा है।"
युवराज की अनुमति पाकर नागचन्द्र उठ खड़े हुए। हेग्गड़े ने भी उटकर युवराज की ओर देखा।
'अच्छा हेग्गड़ेजी, आपके लौटने के बारे में कल निश्चय करेंगे। युवरानी ने भी कहा है। अब आप भी आराम करें।" प्रभु एरेयंग न कहा। __ दोनों प्रणाम करके चले गये।
रेविमच्या ने अन्दर प्रवेश किया तो प्रभु का आदेश हुआ, "युवरानी को बुला ला।" रंबिमय्या के जाने के बाद प्रभु तकिय के सहारे लेट गये और छत की ओर ताकते रहे। थोड़ी ही देर में युवरानी एचलदेवी आयीं और पलंग पर अपने पतिदेव के पास बग़ल में बैठ गयीं।।
"अग की महाराज के पास गया है : "नहीं, अभी तक मेरे पास ही बैठा था।" “साथ में छोटे आग्याजी और उदय भी धे?" "नहीं, वह अकेला ही मिलना चाहता था।'' "मिला?" "मिला। देखा प्रभु, भगवान कितने दयालु हैं:'
"ओह, भूल गया, युवरानी बेटे को युद्ध में 'भेजते वक़्त डर गयी थीं न? सकुशल वहाँ से लौटने पर मातृहदय को शान्ति जो मिली होगी।"
"ये सब बातें मेरे दिमाग में धों ही नहीं। भेजने के पहले कुछ घबराहट तो हुई थी। परन्तु वह एक माँ के हृदय की दर्बलता पात्र धी। अब मुझे एक योग्य ज्येष्ठ पुत्र मिल गया हैं। इसलिए कहा कि भगवान दयालु हैं।"
'माने?"
'माने यह कि अब वंश के लिए एक योग्य बड़ा पत्र है और पोसल राजा बनने योग्य है। मुझमें जो डर था, वहीं कि वह योग्य राजा नहीं यन सकेगा, अब दूर हो गया। अब मैं निश्चिन्त हूँ।''
"इतने ही में तुमने अपने लड़के को परख लिया!" "रोशनी का पता बड़ी आसानी से लग जाता है। प्रभु के साथ इस युद्ध क्षेत्र
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* समय ने माता पिया, इसहसा बहुत बड़ा उपकार हुआ है। अगर वह हमारे साथ बलिपुर आ गया होता तो आज का अप्पाजी नहीं बन पाता।"
"तो छोटे अप्पाजी में अवांछित परिवर्तन हुआ है क्या?" "न, न, ऐसा कुछ नहीं है।" "तब तो बलिपुर हमारे लिए अनुकूल ही रहा!"
''बह तो ठीक है, लेकिन प्रभु ने जैसा कहा, परिवर्तित वातावरण की जरूरत थी। बलिपुर जाते तो जिस परिवर्तन की आवश्यकता थी वह कहाँ से हो पाता!''
"अच्छा, यह बात है! हाँ, दण्डनायिका और उनकी बेटियाँ नहीं दिखाई दीं।"
"प्रभु-दर्शन किये बिना किसी से न मिलने का अपना इग़दा मैंने बताया था, इसलिए शायद वे नहीं आयीं। आजकल ये बहुत कम मिलती-जुलती हैं।''
"अप्पाजी ने उनके बारे में पूछताठ नहीं की?" "नहीं।" तभी घण्टी की धीमी आवाज सुन पड़ी।
"कोन!" एरेयंग प्रभु ने परदे की ओर देखा। परदा सरकाकर रेबिमय्या भीतर आया और बोला, "अप्पाजी दर्शन करना चाहते हैं।"
"बुलाओ।"
रेविमव्या परदा उटाकर बाहर खड़ा हो गया। यरलाल अन्दर आया और माँ के पास बग़ल में पलंग पर बैठ गया।
"वं लोग कहाँ हैं?" एचलदेवी ने पूछा। "वे दोनों अभ्यास कर रहे हैं। आज मैंने छुट्टी पाँग ली है।" "टीक ही किया। आज तुम्हें पूरा आराम करना चाहिए। अच्छा कुछ पूछना
था
"
"हौं," लेकिन आगे कुछ कहने से वह हिचकिचाया। "क्यों? क्या बात है, कहो!" युबरानी ने पूछा ।
"जबसे दोरसमुद्र आये तभी से मेरे मन में एक प्रश्न उठ रहा है। परन्तु उस सम्बन्ध में किसी से दर्याप्त करने की इच्छा नहीं हो रही है। आपसे भी पूछू या नहीं...इस पर बहुत विचार किया। बिना पूछे मेरे मन को समाधान भी तो नहीं मिल रहा है, इसलिए...” और बल्लाल कुछ कहते-कहते रुक गया।
"हमसे कहने में संकोच किस बात का, अप्पाजी” युवरानी एचलदेवी ने कहा।
''कुछ सहज साधारण बातें कई बार अन्यथा भी समझ ली जा सकती हैं।" "हम विश्वास योग्य हैं तो अन्यथा समझने का अवसर ही कहाँ?'' "फिर भी बड़ों के विषय में पूछना..."
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"विषय ही प्रधान होता है, बड़ा-छोटा नहीं।"
माँ और बेटे के इस सम्भाषण को युवराज एरेयंग सुन रहे थे। उन्हें अचानक कुछ सूझ पड़ा । मुँह पर एक हँसी की रेखा खिंच गयी। "समझ गया अप्पाजी, तुम्हारे आने को कुछ से पहले हमने ही युवरानी से पूटा था उन्होंने कहा ।
"क्या?" बल्लाल को आश्चर्य हुआ ।
"यही जो तुम्हारे मन में है। राजमहल के सभी कार्यों में जिन्हें सदा उपस्थि: रहने की हम सोचते हैं, यदि वे दिखाई न दें तो जो प्रश्न उठ सकता है वही । ठीक है न एरेयंग ने कहा ।
वल्लाल उत्तर दिये बिना चुप बैठा रहा 1
"अप्पाजी, उनके न आने का कारण हमें मालूम नहीं। हम ही स्वयं इस सम्बन्ध में कुछ दर्याफ़्त करें, यह भी ठीक नहीं। इसलिए तुम्हें स्वयं जाकर सीधे दफ़्त कर लेना होगा।" एचलदेवी ने समझाया।
↓
"इन सब बातों को दर्याफ़्त करने जाना कुछ ठीक नहीं जँचता होगा कोई उचित कारण इसलिए शायद नहीं आये। धीरे-धीरे अपने आप मालूम हो जाएगा। अच्छा में चलूँ !" बल्लाल उठ खड़ा हुआ ।
"अच्छा, अय्याजी।" एरेयंग बोले ।
बल्लाल चला गया।
" देखा ! पहले का अप्पाजी होता तो कहता अभी जाता हूँ ।" वह संयम उसके लिए बहुत ही अच्छा है। इससे उसकी भलाई होगी। प्रभु अव विश्राम करें। पण्डितजी सूर्यास्त से कुछ पहले आएंगे कह गये हैं।" एचलदेवी ने कहा ।
"हाँ, ठीक है। एक खास विषय पर विचार-विमर्श करने के लिए बुलवाया था। सिंगिमय्या दक्ष कार्यकर्ता हैं। उन्हीं को बलिपुर क्षेत्र का हेगड़े बना दिया जाए और भारसिंगय्या को राजधानी में ही रखें आज की परिस्थितियों में यह आवश्यक लगता है। युवरानी की क्या राय है ?"
प्रभु को यदि आवश्यक लगता हैं तो ऐसा ही करें। मेरे लिए तो यह बहुत ही सन्तोष की बात है। लेकिन उन्हें बुलवा लिया गया तो किस-किस के मन में क्या-क्या बात उदेगी इस पर भी ध्यान देना होगा। कभी एकाध बार आये गये तो उसी पर व्याख्याएँ होने लगीं। हम वहाँ गये, सुनती हूँ इस पर बहुत टीका-टिप्पणी ही रही है ।"
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"हम पर?"
गोसा होता तो एक बार उसके प्रति उदासीन भी रह सकते थे। लेकिन इसके लिए बेचारी हेगड़ती को दोषी बनाकर पता नहीं क्या-क्या बातें राजधानी में चल पड़ी हैं।"
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"हमसे कहती हो तो कहें।"
"प्रभु से छिपा रखने की बात क्या है? पर आज ही क्यों धीरे-धीरे सब-कुछ बता दूँगी।"
"क्या आप सोचती हैं कि हेगड़े को यहाँ बुलवा लेने से भी बातें उठ सकती हैं, टीका-टिप्पणी हो सकती हैं:"
"अब तक जो हुआ है, इससे तो ऐसा हो लगता है।""
"तो क्या करना चाहिए ?"
"सिंगमय्या यहाँ हेगड़े के सहायक बनकर रहें। हेग्गड़े भी वहीं रहें। जब हेगङ्ग्रेजी यहाँ से लौटने लगें तब उन्हें बता दें कि वहाँ के कार्य निर्वहण के लिए सिंगमय्या को विधिवत् तैयार करें। तक उन्हें यह बात सूझेग ही कि शायद स्थान परिवर्तन होना सम्भव है। और तब तक यहाँ की परिस्थिति का भी अध्ययन कर लिया जाय। इसके बाद प्रभु स्वयं निर्णय कर सकते हैं। अब आइन्दा कुछ भी करना हो, उसके औचित्य के बारे में पहले अप्पाजी को भी समझा दिया करें, ऐसा मुझे लगता है।" युवरानी ने कहा ।
"ठीक है। युवरानी को सलाह मान्य है ।"
“अब प्रभु आराम करें। मुझे आज्ञा दें।" कहकर एचलदेवी उठ खड़ी हुई । एरेयंग ने स्वीकृति दे टी एचलदेवी यहाँ से बाहर निकल आयीं ।
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"हे भगवान, मुझे अपने भीतर के भय को किसी से स्पष्ट कहना भी दुस्साध्य हो रहा है ! तेरी मर्जी ।" यो एरेयंग प्रभु अपने-आप से कहते हुए छाती पर हाथ रख आँखें मूंडे लेटे रहे।
राजकुमार बिट्टिदेव में नया उत्साह, नयी स्फूर्ति आयी थी। अब उसे मालूम हो गया था कि उसका भाई पूरी तरह बदल गया है। इस कारण से उन दोनों में सुप्त भ्रातृप्रेम अब प्रकट रूप से व्यक्त हो उठा था। उसमें आत्मीयता, परस्पर विश्वास की भावना जड़ पकड़ने लगी थी। भैया से बड़े विस्तार से युद्ध के प्रसंगों को वह बड़ी तन्मयता से सुन रहा था। वहाँ की बातें जानकर और भैया के कार्यों का विवरण सुनकर उसके मन में भाई के प्रति आत्मगौरव बढ़ गया। बास्तव में उसके लिए भाई एक स्वाभिमान का प्रतीक बन गया था। उसे जो आनन्द हुआ उसे उसने छिपाया नहीं, खुलकर व्यक्त किया। छोटे भाई के इस अभिमान की बात बल्लाल को भी अच्छी लगी थी। उसने जान लिया था कि उसका छोटा भैया उससे भी ज्यादा होशियार है। पहले पहल एक तरह से घमण्ड था सो वह भी उसे स्मरण था, परन्तु अब दूसरों के बराबर अपने ही बल पर सिर उठाने की आत्मशक्ति उसमें आ गयी थी। इसलिए अपने छोटे भाई विट्टिदेव की ग्रहण शक्ति का मूल्य दे सकता था। अपना किस्सा सुना चुकने के बाद उसने छोटे भैया
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से बलिपुर की बात पूछी–बलिपुर के बारे में, हेग्गड़ेजी के बारे में, हेग्गड़ती जी
और उनकी बेटी के बारे में। इस बार बिट्टिदेव को बल्लाल का पूछना सहज ही लगा, उसमें पहले जैसा व्यंग्य नहीं था। वहाँ आज एक अपनापन दिखाई दे रहा था। उसने प्रकारान्तर से अपनी यह इच्छा भी प्रकट की कि खुद एक बार बलिपुर जाना चाहिए। बिट्टिदेव से वहाँ की बातें और विचार सुनकर उसकी यह इच्छा हुई थी।
विट्टिदेव ने बल्लाल से कहा, "भैया, सुना है कि हेग्गड़ेजी ने महादण्इनायक जी को और उनके परिवार को बलिपुर आने का आमन्त्रण दिया है। युवराज और माताजी से हेग्गड़जी ने इस बात का निवेदन किया हैं। यदि चे जाएँगे तो आप भी, चाहें तो उनके साथ हो आ सकते हैं?"
"उनके माथ क्यों जा क्या स्वयं नहीं जा सकूँगा?" "क्यों नहीं! लेकिन तब पद्यलदेवी का साथ नहीं रहेगा।"
यह सुन बल्लाल हँस पड़ा। कुष्ठ क्षण बाद बोला, "हों, अब मालूम हुआ कि बलिपुर तुम्हें क्यों सुन्दर लगा" कहते हुए एक नटखटपन की हँसी हंस दी दल्लाल ने।
"तो मतलब हुआ, पद्मलदेवी के साथ जाने की आपकी इच्छा है. यह बात मानते हैं न" कहकर उसने भैया की तरफ़ एक परीक्षक की दृष्टि से देखा और पूछा, ''मों से कहूँ?"
अरे, अब ऐसा काम मत करो। वह सब तो प्रमंग आने पर देखा जाएगा। इसके लिए कुछ अलग से करना उचित नहीं।"
"हाँ तो, बलिपर के हेग्गड़ेजी ने आपको बुलाया नहीं?"
"बुलाया जरूर। जब आप सब लोग वहाँ थे तब, सुना है, उन्हें और उनके सभी परिवारवालों को मेरी ही चिन्ता रही।"
"सो' तो सच है। मी से भी अधिक वे चिन्तित थे। एक बार उन्होंने कहा भी कि तुम्हें युद्धक्षेत्र में भेजने की सम्मति देकर माँ ने ठीक नहीं किया। कहते थे, 'शरीर से दुर्बल हैं तो इससे क्या, आखिर हैं तो राजकुमार, कल सिंहासन पर बैठनेवाले हैं। उन्हें पूर्णायु होकर हमारे बीच रहना चाहिए। अभी युद्ध विषयक वातों में कम जानकारी रखनेवाले, दुबल बालक को युद्धक्षेत्र में खड़ा करना उचित नहीं, आदि-आदि ।' माँ ही ने उनको समझाया। कहने लगी, 'प्रभु से यह आश्वासन मिला है कि सब तरह की सुरक्षा की व्यवस्था की जाएगी और अप्पाजी को किसी तरह का कष्ट नहीं होगा। इसके अलावा, कल के दिन सिंहासन पर वैठनेवाले को युद्ध आदि के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष ज्ञान होना आवश्यक है, यह समझकर ही युद्ध में जाने की अनुमति दे दी। माँ के इतना समझाने के बाद
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उन लोगों को कुछ तसल्ली हुई थी। राजघराने के सभी जनों के हित-चिन्तन में तल्लीन रहनेवाले ऐसे लोग बहुत कम ही मिलेंगे।"
"ऐसा होने पर भी दण्डनायक जी के परिवार के लोग उनके विषय में इतने आत्मीय क्यों नहीं हैं? जब भी मौका मिले वे कुछ विरोध करते हुए ही उनके बारे में बोलते रहते हैं। बिना कारण वे ऐसा क्यों कहते होंगे? कुछ-न-कुछ तो कारण होना ही चाहिए"
"हो सकता है। ऐसा कुछ हो तो उन्हें प्रभु से या महाराज से स्पष्ट कहना चाहिए। महादण्डनायक की बात का राजमहल में मूल्य होना चाहिए। ऐसा होने पर भी उनके कहने का क्या कारण है ?"
"कुछ भी हो। अब इस बाल को यहीं रहने दो। बड़ों की बातों से हमें क्या लेना-देना ।" बल्लाल के कहने पर बात वहीं रुक गयी। द्वारपाल बिज्जिया नं आकर कविजी के आगमन की सूचना दी। बल्लाल उठ खड़े हुए और बिज्जिगा को आज्ञा दी, "उदयादित्य को भेज दो ।” बिडिदेव भी उठ खड़े हुए। कवि नागचन्द्र आये, दोनों ने प्रणाम किया। इस बीच उदयादित्य भी आ गया, उसने भी प्रणाम किया। तीनों बैट गये। पठन-पाठन रोज़ की तरह फिर शुरू हो गया।
युद्धभूमि से विजय प्राप्त कर लौटनेवाला यह उनका पुराना शिष्य नहीं, बल्कि ज्ञानार्जन में आसक्त एक अन्य ही ज्ञानपिपासु शिष्य हैं- ऐसा कवि नागचन्द्र को आज बल्लाल के व्यवहार से लगा। विद्या के प्रति बल्लाल की इस अभिरुचि और ज्ञानार्जन की प्रवृत्ति आदि देख-सुनकर गुरु में जैसे एक नयी स्फूर्ति आ गयी थी। इसका फल भी शिष्यों को मिला।
घाव की पीड़ा से अभी प्रभु एरेयंग चल-फिर नहीं सकते थे। अच्छी चिकित्सा होने पर भी जाँघ पर का घाव भरा नहीं था। यह देख चारुकीर्ति पण्डित को प्रभु के रक्त में शर्करा के अंश अधिक मात्रा में होने की शंका हुई। रक्त में शर्करांश अधि एक होने पर रक्त के घनीभूत होने की शक्ति लुप्त हो जाती हैं। रक्त परीक्षण के बाद वह शीघ्र ही इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि युवराज को मधुमेह की शिकायत है और इसी कारण से बाव नहीं भर सका था। अनुपान पथ्य बदला गया। सीताफल की पत्ती, चमेली की जड़, कर्कटीमूल मिलाकर दवा तैयार कर देने पर रक्त का शर्करांश कम होता गया और शर्करायुक्त पदार्थों का उपयोग बन्द कर दिया गया।
युवराज के निरन्तर विश्राम करते रहने के कारण उनका अन्तःपुर ही मन्त्रणालय बन गया था युद्ध से लौटे सात-आठ महीने बीत गये। इस बीच महादण्डनायक और दण्डनायिका कई बार आये गये। कहने की जरूरत नहीं कि
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इनकी बेटियाँ भी साथ में आया-जाया करती रहीं। बल्लाल भी कभी पखवारे-दो पखवारे में उनके यहाँ हो आया करता। यह सब एक तरह से यन्त्रयन् चलता रहा। कुल मिलाकर यह कहना चाहिए कि दोरसमुद्र में किसी तरह का कोई उल्लास नहीं था।
युवराज का घाव कभी-कभी भी गया सा लगता, लेकिन वह फिर हरा हो जाता। वेचारे चारुकीर्ति जी चिकित्सा करते-करते हार गये। एक दिन अवसर पाकर युवराज के अकेले होने पर उन्होंने धीरे-से निवेदन किया, ''प्रभु. अन्यथा न समझें। भगवान को मेरी चिकित्सा शायद पसन्द नहीं हुई, ऐसा लगता है। किसी अन्य क्षेत्र के वैय को बुलवा लिया जाय तो अच्छा होगा। मेरे होते हा किसी अन्य वैद्य को बुलाने की बात-राजपरिवार अन्यथा नहीं लेंगे। चालुक्य चक्रवर्ती के पास दक्ष वैद्य होंगे ही। किसी को भेजकर बुलवा लाना ठक लगता है। हाल के इन दिनों में जब मैंने जाना कि मधुमेह के कारण याच भर नहीं रहा हैं और तब जो चिकित्सा की उसका सारा विवरण विस्तार के साथ मैंने लिख रखा है। दूसरे वैद्य आएँ तो उन्हें इससे सहायता मिल सकेगी। और फिर कोई दूसरी अनुकूल औषधि मा जन सूज्ञ सकता है। विलय करना अच्छा नहीं । प्रभु यदि आज्ञा दें तो मैं स्वयं महाराज से निवेदन कर लूं।''
''मुझे तो आपकी चिकित्सा पर्याप्त मालूम पड़ती हैं। आपकी सलाह, मान लेने पर गजपरिवार और बाहर के अन्य लोगों को भी सन्तोष हो सकेगा इसलिए हम ही इस सम्बन्ध में कुछ करेंगे। वे या अन्य कोई वैद्य जब तक आएँ नब तक आपकी चिकित्सा चले। केवल इस बात को छोड़कर कि मैं स्वतन्त्र रूप से चाहे जैसे घूम-फिर नहीं सकता, शेष सभी बातों में मैं काफ़ी चुस्त हूँ।"
"युवगन की मर्जी," कहकर वैद्यजी आज का अपना कार्य करके चले गये।
प्रभ की आज्ञा के अनुसार उसी दिन दोपहर दण्डनायक का आगमन हुआ। उनके आते ही प्रभु ने बैटने का संकेत किया और कहा, "हम आपसे एक ज़रूरी दात पर विचार-विमर्श करना चाहते हैं. इसलिए बुलवाया है। शायद यह आपके विश्राम करने का समय होगा, फिर भी बुलवा लिया इस विश्वास से कि आपका कोई परेशानी नहीं होगी। हमारे पण्डित चारुकीर्ति जी किसी दूसरे वैद्य को बुलवान की सलाह दे रहे हैं। वैसे हम तो उनकी चिकित्सा से सन्तुष्ट हैं। यदि उनकी चिकित्सा हमारे लिए अनुकूल न बैंटी होती तो अब तक हमारा शरीर कन्न का निश्चेष्ट हो चुका होता। ऐसा कुछ नहीं हुआ। फिर भी जब उन्हीं को अपनी चिकित्सा से सन्तुष्टि नहीं हो रही तो उनके सन्तोप के लिए किसी और को बुलवाना हमें उचित मालूम पड़ता है। आपकी क्या गय है।"
"हम सब लोगों की यही इच्छा है कि आप शीघ्र नीरोग होवें। आपके इस
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तरह चारदीवारी के बीच बने रहने से सारा दोरसमुद्र जैसे उत्साह शून्य हो गया हैं। सारी जनता अत्यन्त प्रेम और आदर से युवराज और राजकुमार का वीरोचित स्वागत करने के लिए उत्साहित हो प्रतीक्षा कर रही थी। पर यह सब तो दूर, आपके दर्शन तक प्राप्त नहीं हो सके। सबको जैसे पाला मार गया है। इसलिए चैधजी की सलाह के अनुसार करना अच्छा होगा। आपकी जैसी आज्ञा होगी, ध्यवस्था कर ली जाएगी।"
"हाँ, सन्तोष है कि आपकी स्वीकृति और सम्मति मिल गयी। एक बात और है। अब इस हालत में हमें दोरसमुद्र में ही रहना होगा। चिण्णम दण्डनाथ जी को सोसेफस में ही रहना चाहिए । वेलापुरी की रक्षा के काम पर आपके पुत्र डाकरस जी को रखना होगा। यादवपुर में आपके बड़े पुत्र माचण दण्डनाथ जी तो हैं ही। फिलहाल इसी भाग में हमें अधिक बाधाएँ हैं। वैसे डाकरस दण्डनाथ जी जहाँ रहें वहीं उनके साथ राजकुमार रहते तो अच्छा होता लेकिन इन परिस्थितियों में ऐसा होना सम्भव नहीं।"
"डाकरस को यहीं बुलवा लें और वेलापुरी में किसी और को भेज दिया जाए"-बीच में ही मरियान ने कहा।
''वर्तमान परिस्थिति में राजकुमारों के शिक्षण से भी अधिक राष्ट्ररक्षा का कार्य हमारे लिए प्रधान है। इसलिए इस विषय में दूरदृष्टि रखकर सोचना चाहिए।'
"जैसी आपकी मर्जी।"
"हमारे साथ अभी किसी का रहना विशेष आवश्यक नहीं लगता। कुमार बल्लाल अब काफी अनुभव प्राप्त कर चुके हैं। फिर भी अनेक बातों में बराबरी के साथ उनसे बातें करना हमारे लिए कठिन हो जाता है। इसलिए अन्य किसी विश्वासपात्र व्यक्ति को बुलवाना होगा। वे व्यक्ति ऐसे रहें जैसे चिण्णम दण्डनाथ जी हैं। किसे बुलवाएँ?"
'प्रभु के दामाद हैम्माडी अरस जी आएँ तो नहीं बनेगा?"
"सगे-सम्बन्धियों को नहीं रखना चाहिए, दण्डनायक जी। उसमें भी दामाद को तो ऐसे सेवाक्षेत्र में रखना ही नहीं।" __ "तब तो सोचना होगा कि ऐसे और कौन हैं? प्रभु ने तो सोचा होगा?"
''सोचा तो है परन्तु उच्चस्तरीय राजकीय परिसरों में उस पर कैसी प्रतिक्रिया होगी, इस बात की हमें शंका हैं। इसलिए एंसी शंका ही न हो, ऐसी रीति से कार्य का निर्वाह हो तो अच्छा है। इसीलिए आपसे पूछा।"
"तत्काल कुछ भी नहीं सोच पा रहा हूँ। प्रधानजी से भी पूछा होगा प्रभु ने?"
"उनसे भी पूछेये। आप भी सोचें, क्योंकि पोय्सल राज्य के आप महादण्डनायक हैं। पिछली बार आपकी सलाह के बिना जब कुछ परिवर्तन किये
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गये तब आपको भीतर-ही-भीतर थोड़ा दुःख-सा हुआ था। आपका मन दुःखी हो, ऐसा हप नहीं चाहेंगे। इसलिए आपकी सलाह लेकर ही निर्णय करेंगे यही हमाग विचार हैं।" ___ "प्रभु का निर्णय हमें शिरोधार्य होगा।"
"प्रम का निर्णय ठीक न जचे तो वह किस कारण से ठीक नहीं-इसे कहने का साहस भी आपको होना चाहिए न?"
"कभी-कभी उससे ग़लतफ़हमी होने की आशंका बन जाती है।" "चों समझकर सचाई को कहने से पीछे हटना चाहिए क्या?" "बुजुर्ग यही कहते हैं कि अप्रिय सत्य मत कहो।"
"सारे राष्ट्र का हित ही जब प्रमुख हो तो कितना ही कद क्यों न हो, सत्य का प्रकाशन होना ही चाहिए। सत्य को कटु मानकर छिपा रखें और उससे राष्ट्र की हानि हो तो वह अच्छा नहीं। आपने जो कहा वह व्यक्तिगत जीवन और एक परिवार के हिताहित से सम्बन्धित हो तब तो कुछ हद तक ठीक हो सकता हैं परन्तु जहाँ तक हमारी व्यक्तिगत राय है, सत्य को कभी भी नहीं छिपाना चाहिए।"
“प्रभु ने जैसा कहा, राष्ट्र का हित सर्वोपरि है।" "इसीलिए तो आपसे सलाह माँगी।'
मरियाने दण्डनायक ने तुरन्त कोई उत्तर नहीं दिया। प्रभु को अच्छा लग सकनेवाले किसी व्यक्ति का नाम सुझाया जाय तो उसका क्या परिणाम होगा, कहा नहीं जा सकता। कुछ लोगों के नाम तो उनके दिमाग़ में चक्कर काट ही रहे थे। एक का नाम तो जिदान तक पहुँचा भी। उन्हें लगा प्रभु उसे स्वीकार भी कर लेंगे परन्तु वह नाम कह दें और वे कुछ का कुछ समझ बैठे तो...? शायद वे कहें कि 'हमें खुश करने के लिए उस व्यक्ति का नाम बता रहे हैं, आपने अपने अनुभव से यह व्यक्त किया ही है कि आपको उनपर विश्वास नहीं, तब मैं क्या उत्तर दे सकता हूँ? इस आमन्त्रण-पत्र के प्रसंग में मेरी पत्नी ने जो कुतन्त्र रचा उसके कारण यदि मैंने कोई सलाह दी तो उसका मूल्य भी क्या हो सकता है। यों सोचता हुआ मरियाने दण्डनायक मौन बैठे रहे। __ "तत्काल नहीं सूझता हो तो सोचकर बताइए। आपकी सलाह लिये विना कोई निर्णय हम नहीं करेंगे। क्योंकि कोई भी यहाँ आए, हमारे लिए आप्त होने पर भी आखिर उन्हें आप ही के अधीन काम करना पड़ेगा। इसलिए आपको ठीक लगनेवाले और आपकी शक्ति पर आघात न करनेवाले व्यक्ति को ही यहाँ बुलवाना चाहिए। ठीक है न?"
अब कुछ कहे बिना यहाँ से जाना ठीक न समझकर मरियाने ने सलाह
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दा-"यादवपुरी से सुरिंग के नाांगदेवण्णा जी को बुलवा लिया जाय तो कैसा रहे?"
___ "आपके लड़के को उन बुजुर्ग के मार्गदर्शन की ज़रूरत है। वे तो वास्तव में ठीक व्यक्ति हैं परन्तु आपके लड़के की शक्ति इससे कमजोर हो जाएगी। यह ठीक नहीं। इससे सीमाप्रान्त की शक्ति ही कमजोर पड़ जाएगी।"
मरियाने ने फिर कहा, "बड़े चलिके नायक को बुलवा लें तो कैसा!" । ____ "अभी हाल के हमले के वक्त आखिरी दाँव में वह जख्मी हो गये। उम्र भी ज्यादा है और अब उन्हें विश्रान्ति की जरूरत है। उनका बेटा छोटे चलिके नायक अब वसुधारा प्रान्त में पिता के नाम से वहाँ की निगरानी कर रहा है। अब यह काम उनसे नहीं किया जा सकेगा। आप काफ़ी सोच-विचारकर ही बताइए। हम प्रधामजी से भी विचार-विमर्श करेंगे।" कहकर प्रभु एरेयंग में घण्टी बजायी।
नौकर ने परदा उठाया और बगल में खड़ा हो गया। मरियाने उठकर बाहर चले गये।
प्रधानजी से प्रभु एरेयंग ने आप्त मन्त्रणा की महाराज से भी निवेदन किया गया। अप्पाजी से भी विचार-विमर्श कर इस निर्णय के हानि-लाभ के विषय में विस्तार से विवरण देते हुए उसको समझा दिया गया। प्रधानजी से विचार-विमर्श करते समय मरियाने ने प्रधान को बताया...''इस नाम को मैं अपनी तरफ से सुझाता तो प्रभ समजतं कि मैं केवल उनको खुश करने के लिए सुझा रहा हूँ। चाहे जो हो, कुल मिलाकर सम्बन्धित लोगों के साथ सभी दृष्टियों से विचारविमर्श होने के बाद बलिपुर के हंग्गड़े मारसिंगय्या को दोरसमुद्र में बुलवाने का निर्णय हुआ। सिंगिमव्या को बलिपर हेग्गड़े के स्थान पर नियुक्त करने का निर्णय हुआ। इस परिवर्तन की खबर लेकर अगर रेविमच्या जाता तो पता नहीं कितना खुश हुआ होता। वह खुद प्रभु की सेवा में रहा। इसलिए किसी दूसरे के द्वारा राजाज्ञा बलिपुर में पहुँचा दी गयी।
हेग्गड़े मारसिंगय्या को इस विषय की सूचना मिल गयी परन्त हेग्गड़ती या शान्तला को यह सब मालूम नहीं था।
माचिकब्बे को यह मालूम था कि प्रभु का प्रियपात्र बनना बहुत बड़े सौभाग्य की बात है। परन्तु दोरसमुद्र में उनके निवास होने पर आगे क्या सब हो सकता हैं इस बात की शंका भी उनके भीतर घर कर गयी थी। दण्डनायिका चामब्बे के व्यवहार में उसके सन्तोष को कम कर दिया था फिर भी सब-कुछ को अपने में ही समोये घुलते रहना उसका जैसे स्वभाव ही बन गया था। अब भी वही बात थी। राजाज्ञा का पालन मालिक को करना ही होगा। हमें तो केवल उनके साथ चलना है। हम तो उनके अनुगामी मात्र हैं। इस तरह की बातें मन में बुनते
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उन्होंने यात्रा की तैयारी की। अपना भाई, उसकी पत्नी सिरियादेवी अब बलिपर के हेग्गड़े-हेगड़ती थे। इसलिए उन्हें लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार करना चाहिए, यह सब भलीभांति समझा दिया। बुतुगा बलिपुर में रहने को राजी नहीं हुआ। उसका कहना था, 'जब तक जीऊँ तब तक मुझे मालिक की सेवा में ही जीने दें। मुझे और कुछ नहीं चाहिए। वह अपनी ही बात पर जिद पकड़कर डटा रहा । इसलिए हेग्गड़े, हेग्गड़ती, शान्तला, बुतुगा, दासथे और कवि बोकिमय्या तथा शिल्पी गंगाचारी ये दोनों सपरिवार, दोरसमुद्र की यात्रा के लिए तैयार होकर निकले। इस तरह बलिपुर में हेग्गड़े मारसिंगय्या के रहते हुए महादण्डनायक का सपरिवार वहाँ जाना नहीं हो सका। फिर उस हालत में बल्लाल का वहाँ जाना भला कैसे सम्भव हो सकता था।
वालपुर के हेग्गड़े पारसिंगय्या को राजाज्ञा मिलने के पहले ही दण्डनायिका चामब्बे का इस बात को ख़बर मिल चुकी थी। उसे सबसे ज़्यादा परेशानी थी तो यह कि उसके पति ने इस बात की सहमति कैसे दी। कहीं कुछ और पहले यदि उसके कानों में इस बात की जरा-सी भी भनक पड़ी होती तो शायद वह कुछ सोचती-करती। लेकिन अब वह इस स्थिति में नहीं थी। और फिर उसके भाई भी इस परिवर्तन से सहमत थे। महाराज भी सहमत हैं। ऐसी हालत में वह अकेली क्या कर सकती थी?
परेशान होने पर भी उसने एक बात अच्छी तरह सोच रखी थी। वह यह कि हेगड़े को यदि रहना ही है तो एक अलग निवास की व्यवस्था होनी चाहिए। पहले की तरह हेग्गड़ती युवरानी जी से सटकर अन्तःपुर में तो रह नहीं सकेगी। इसलिए अभी से समझा-बुझाकर मालिक से कहना होगा कि राजधानी के उत्तर-पूर्व के कोने में उन्हें ठहराने की व्यवस्था करें। यों करने से हेग्गड़ती राजमहल से दूर रहेगी और जब चाहे आ-जा भी न सकेगी। इसी तरह न जाने क्या-क्या सोचती रहती और अपने मन को तसल्ली देती रहती। एकाएक उसके दिमाग में
आया.-अरे इतनी दूर बलिपुर में रहकर भी इन सब पर जब इस औरत का जादू चल सकता है, फिर यहाँ पास रहकर तो उसकी पाँचों उँगलियाँ घी में समझो। उसका मन उस वामशक्ति पण्डित की तरफ़ दौड़ पड़ा। क़रीब-करीब एक साल से उसने मूलकर भी किसी से वामशक्ति की बात नहीं की थी, उसके यहाँ कभी गयी भी नहीं। युवरानी और युवराज के लौटने के बाद ऐसा कोई प्रसंग भी नहीं आया था, जिससे उसे अपमानित होना पड़ा हो या कोई कड़वी बातें सुननी पड़ी हों। राजमहल में जाने और युवरानी जी के सामने हँसी-खुशी से बात कर आने
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की अपनी आकांक्षा की उसने अपने भाई को सलाह से रोक रखा था। बड़े संयम • से रहना सीख लिया था उसने । इसलिए वामशक्ति पण्डित की याद आते ही उसने सोचा-किसी का ध्यान इस ओर नहीं है, क्यों न उसके यहाँ हो आएँ! उसमें जैसे साहस आ गया। बच्चे पढ़ाई में लगे ही थे। नौकरानी से कहकर कि वसदि (मन्दिर) जा रही है, वह चल पड़ी। शाम का समय था, अँधेरा छाने लगा था। चली ही थी कि एकाएक लगा, कोई उसका पीछा कर रहा है, उसने चारों ओर नजर दौड़ायी। पर ऐसा कोई उसके पीछे आते नहीं दिखाई दिया। क्या करें? अपने ही भीतर शैतान जो बैठा था। घामशक्ति पण्डित के घर पहुंची तो वह पान खाता एक खम्भे से टिककर बैठा दिखाई दे गया। दण्डनायिका के यों अचानक आने से वह कुछ हड़बड़ा-सा गया। उसने सोच रखा था कि कभी दण्डनायिका आएँ तो बड़ी रकम हाथ लग जाएगी, परन्तु लम्बी अवधि तक उनके न आने से वह निराश हो गया था। शायद यह बात भूल ही गया था। अक्ल का तेज वामशक्ति पण्डित दण्डनायिका को आते देख बहत प्रसन्न हुआ। पीक को मुँह में ही भरे उसने दण्डनायिका जी को बैठने के लिए कहा और फिर पीक थूककर मुँह धोकर आ गया। चामव्ये तब तक वहीं बैठी रही। उसके सामने वह भी आकर बैठ गया और बोला, "दण्डनायिका जी, क्या मैं ऐसा समयूं कि मेरा वह सर्वतोभद्र यन्त्र' अभी भी अपना प्रभाव दिखा रहा है।"
दण्डनायिका का हाथ तुरन्त अपनी छाती पर लटक रहे तावीज पर जा लगा। वामशक्ति पण्डित की दृष्टि उस पर पड़ गयी। चामब्बे ने मन-ही-मन कहा, सुरक्षित है।"
वामशक्ति ने पूछा, “इस तरफ़ आये करीब-करीब एक साल बीत रहा है। आप इधर आर्थी नहीं, इसलिए मैंने समझा कि सब कुशल है। ठीक है न"
"हाँ, ठीक है।" 'कहिए, मैं और क्या सेवा कर सकता हूँ?' बामशक्ति ने पूछा।
''बस और कुछ नहीं। यह बताएँ कि मेरा वह पहले का भय सदा के लिए दूर हो जाएगा या बह और पास आकर तकलीफ़ देता रहेगा" दण्डनायिका ने
पूछा।
"यदि दण्डनायिका जी को ऐसी कोई शंका हो गयी है तो बताइए कौन हैं वे लोग? मैं आवश्यक क्रिया द्वारा रोक लगा दूँगा।" वामशक्ति बोला।
'मुझे कुछ मालूम नहीं । मुझे ऐसा लगा सो आपको बता देना उचित समझा और जैसे बैठी थी वैसे ही उठकर वहाँ से चली आयी। मेरी तरफ़ से अंजन लगाकर आप ही देख लें और कहें कि कोई ऐसी बाधा दिखाई देती है या नहीं? और अगर है तो उसके निवारण का उपाय भी बताएं।" दण्डनायिका ने कहा।
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"हाँ, यही करूँगा! आनेवाली अमावस्या के दिन अंजन डालकर देखूगा, बाद में आपके यहाँ आऊंगा।" ___ "न, न, आप न आएँ । मैं ही आऊँगी। अभी मैं यहाँ जो आयी-इसकी भी खबर किसी को नहीं।" कहकर वह उठ खड़ी हुई और जाते हए बोली, "आपकी दान-दक्षिणा होनी चाहिए। जब मैं फिर आऊँगी तब दूंगी। ठीक है न?"
"जैसी आपकी इच्छा। मैं तो आपका सेवक ही हूँ!''
दण्डनायिका चूपचाप घर तो आ गयी। लेकिन उसका मन अभी वामशक्ति को छोड़कर आना नहीं चाहता था। अमावस्या तक उसका मन पण्डित के यहाँ हो डोलता रहा। उसके ये दिन करीब-करीब मौन ही रहकर वीत। यह देखकर दण्डनायक को भी आश्चर्य हो रहा था। हंग्गड़े परिवार के बलिपुर से आकर यहाँ रहने की बात मालूम हो जाने पर भी अपनी पत्नी द्वारा इस सम्बन्ध में कोई बात तक लाने प र क्या पदरी हो सकता था? मगर वह भी मौन ही रहे। अमावस्या के पहले तेरस के दिन, मध्याह भोजन के बाद जब पान खाने बैठे तो दण्डनायक ने अपनी पत्नी से हेगड़े परिवार के आने की बात कही।
“यहाँ कब पहुँचेंगे?"-दण्डनाधिका ने. पूष्ठा। ''आठ-दस दिन तो लग ही जाएँगे।" ।
"उनका निवास कहाँ रहेगा?" चामब्बे ने पूछा। मगर मन को यात मन में ही छुपाये रही। बताना ठीक होगा या नहीं-इसी दुविधा में रही। वह पहले दण्डनायक जी से इस बारे में कुछ सुनने के इरादे से प्रतीक्षा करती रही।
“अभी तय नहीं किया। दो-तीन निवास खाली हैं, राजमहल के ही हैं। आने के बाद जो उन्हें अच्छा लगेगा, दे देंगे। यही सोचा है।" ___"राजमहल वाले कोई स्थान उनके रहने को यदि तय करें तो स्वीकार नहीं करेंगे?
"युवराज की इच्छा के अनुसार उनके खास कार्यकर्ता बनकर आनेवाले हैं इसलिए उनका निवास राजमहल के पास ही रहे, यही हपारी और प्रधानजी की राय है। परन्तु राजमहल के पास वह निवास कुछ छोटा है, इसलिए यदि वह उनके लिए असुविधाजनक हुआ तो फिर कोई अन्यत्र देखना होगा। उनके आने पर ही अन्तिम निर्णय लिया जा सकेगा।"
"यूँ तो आपने और भाईजी ने ठीक ही सोचा होगा, फिर भी यदि आप अन्यथा न समझें तो मैं एक सलाह दूं?"
“सुझाने में बाधा ही क्या है? बताओ!"
"चालुक्य पिरिबरसी जी को अपने यहाँ जव रखा और युवराज भी जब वहाँ रहे तो हेग्गड़े का निवास बलिपुर में बड़ा ही रहा होगा। इसलिए यहाँ भी बड़ा
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ही रहे तो अच्छा। फिर पति-पत्नी-बेटी इतने ही भर तो नहीं आएंगे, उस लड़की के गुरुजन और उनके परिवारों को भी ता आना पड़ेगा।" ___ “अपना घरबार छोड़कर वे सब भला क्यों आएँगे?"
'क्यों, आएँगे क्यों नहीं: गजमहल का आकर्षण किसे नहीं होगा। आनेवाले तो आएँगे ही, उस-बीस जन और भी आ गये तो दोरसमुद्र के लिए कोई बोझ नहीं बढ़ जाएगा। इसलिए दोरसमुद्र के ईशान के कोने में जो वह बड़ा निवास-गृह है, जिसके बड़े अहाते में तीन-चार छोटे मकान भी हैं वह पूरे हेग्गई परिवार के लिए सब तरह से सुविधाजनक रहेगा।"
"परन्तु वह राजमहल से तो बहुत दूर है !" "तो क्या। हेगड़े तो चलकर नहीं आगंगे न। घोड़ा तो रहेगा ही।" "पता नहीं युवराज क्या कहेंगे? मोचना होगा।''
"ऐसा है तो एक काम कर सकते हैं। मेरे विचार से उस मकान को तैयार रखें और उनकं आते ही उन्हें वहीं उतारें। "यहाँ सब तरह की सुविधाएँ हैं, इसलिए इस स्थान को हमने चुना है। यूँ राजमहल के पास भी दो छोटे निवास हैं, जो खाली रखे गये हैं। हमारा विचार है कि वे आपके लिए अपर्याप्त है। अगर आप चाहें तो वहाँ 'मी रह सकते हैं।' यों कहकर उन्हीं पर निवास को चुन लेन की जिम्मेदारी डाल दें।"
. "देखेंगे, तुम्हारे भाई से भी विचार-विमर्श करूंगा। तुम्हारे कहने के दंग से ऐसा लगता है कि हेग्गड़े का परिवार गजमहमल से दूर रहे तो अच्छा, यही तुम्हारी राय है। ठीक है न?"
"मालिक कितने होशियार हैं।''
"अब इस बात में तुम्हारे मालिक की होशियारी नहीं चलेंगी। सब-काछ युवराज की इच्छा के अनुसार ही होगा।"
''हमारी बेटियों के विवाह होने तक ही झुककर ही चलना होगा।'
"हमें ऐसे भी चलना होगा जिससे किसी को दुःख न हो। इस बात को जोर देकर बार-बार तुमसे मुझे कहना पड़ रहा है। हेग्गड़े के परिवार से तुम्हें अधिक मेल-जोल नहीं रखना है। तुम्हारी व्यंग्यवृत्ति तुम्हारे न चाहते हुए भी तुम पर हावी हो जाती है। इसलिए तुम्हें बहुत सावधान रहना होगा। फिर कभी उस वामशक्ति पण्डित के यहाँ नहीं जाना होगा। उससे भी सावधान रहें। तुम्हारे भाई ने यह व्यवस्था कर रखी है कि उसके चाल-चलन पर और उसके यहाँ आने-जाने वालों पर नजर रखी जाए। उसके बारे में उनकी अच्छी राय नहीं है।'' ___ सुनते ही दण्डनायिका की छाती धक-धक करने लगी। वह सोचने लगी, "शायद उसके यहां मेरे जाने की खबर भाई को लग गयी। अब क्या होगा!"
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उसने एक लम्बी साँस ली। नाक और होठों पर पसीने की बूंदें चहचहा आयीं। आँचल से पसीना पोंछा। "उफ्, कितनी गर्मी लग रही हैं!" मानो अपने-आप से कहा। अन्दर छाती अब भी धड़क रही थी।
"अब तो रामनवमी बीत चली, बस समझो कि गरमी आ गयी।" कहकर पास खड़े खस के पंखे को उठाकर दण्डनायक जी अपने दोनों के बीच हवा करने
लगे।
दण्डनायिका कुछ बोली नहीं। पंखा झलना रोककर दण्डनायक ने पूछा, "वह इस तरफ़ आया तो नहीं?" ''कौन।" ''वही वामशक्ति ।
''नहीं...वह इधर क्यों आने लगा? कई महीने बीत गये, उसका तो कोई अता-पता भी नहीं।" कहते हुए चामब्बे जैसे भीतर-ही-भीतर घबरा गयी।
“बहुत अचठा हुआ। तुमने बुलवाया तो नहीं?" । "नहीं"-उसने गला ठीक करते हुए कहा। "अगर कहीं खुद आ जाए तो पास भी फटकने न देना।" 'बात क्या है? आज मालिक ने उस पण्डित की बात क्यों उठायी?"
''उसके बारे में इत्तला मिली है कि किसी यड़ें प्रभावशाली परिवार की भलाई के लिए वह आनेवाली अमानमा दिन प्रांगर कोई जन मारा।। ऊप दिन वह उस अंजन में जो दृश्य देखेगा उस पर उसका भविष्य निहित होगा। यह सूचना उसने अपने किसी विश्वस्त व्यक्ति को दी है।" ___"इस तरह उसके गुप्त व गौण समाचार प्रकट करनेवाला भला विश्वस्त कैसे हांगा."
"वास्तव में वह विश्वस्त नहीं, फिर भी विश्वस्त की तरह रहकर समाचार संग्रह करनेवाला हमारा गुप्तचर है।"
"वह प्रभावशाली परिवार कौन है? कुछ पता चला?" ___ "अभी पता नहीं चला, पर आज नहीं तो आठ-दस दिनों के भीतर पता चल · ही जाएगा। उसके बाद उस परिवार की क्या हालत होगी, भगवान ही जाने!"
ऐसा क्यों होना चाहिए? अपने भावी कष्ट का परिहार कराने के लिए मार्गदर्शन की इच्छा से यदि कोई उसके पास जाए तो इसमें ग़लत क्या है?"
__ "सारी बात मालूम होने पर ही तो निणय हो सकेगा कि सही क्या है और गलत क्या है । एक वामाचारी का सारा भविष्य इस अंजन को नगाकर देखने मात्र से यदि उज्ज्वल हो सकता हो तो वह साधारण घात नहीं होगी। इसलिए अब और भी अधिक जानकारी पाने की प्रतीक्षा की जा रही है।"
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"यदि उससे किसी अनिाट की आशंका हो तो उस बात को यहीं रोक देना चाहिए। इस तरह से उस पर विशेष दृष्टि रखने की आवश्यकता ही क्या है?" __ “इसका उत्तर तुम्हीं दे सकती हो। तुमसे ही उस बामशक्ति के बारे में ऐसे ऊँट-पटॉग विचार आये।"
"वह तो यही पुरानी बात हुई न। मैं ही भूल गयी थी। अब यह बात क्यों उखाड़ते हो?" ___ “परन्तु उस ताबीत में वह यन्त्र तो सुरक्षित है न? अव लुका-छिपी से कोई लाभ नहीं होगा। तुमने अभी भी इस पण्डित का पीछा नहीं छोड़ा। बिल्ली आँख मूंदकर दूध पीती जाय और समझे कि कोई नहीं देख रहा है.. यही अब तुम्हारी हालत हो गयी है। आइन्दा वह सब नहीं होना चाहिए। इन बातों को अभी से छोड़ देना होगा। वह जो अंजन लगाएगा, उसे यहीं हमारे घर में, हमारे ही सामने लगाए-इसकी व्यवस्था की गयी है। उसी दिन लससे सम्बन्धित सारी बातें बन्द हो जानी चाहिए। समझी ?"
वापब्धे का सिर अपने आप झुक गया।
"अभी तक तुम्हारे भाई को यह बात मालूम नहीं है। अमावस्या के दिन, हमारे यहाँ क्या गुल खिलेगा सो देखकर, उसके बाद मैं स्वयं तुम्हारे भाई को सारा विवरण दूंगा। इस बात से आइन्दा दण्टनाधिका जी को दूर रहना होगा। लाचार होकर इस तरह की रोक लगानी पड़ रही है।" दण्टनायक ने बड़े कड़े स्वर में कहा।
धोड़ी देर के लिए वहां खामोशी छा गयी। धीरे-धीरे चामन्चे ज्ट खड़ी हुई"मैं..." चामव्ये के मुंह से आगे कुछ नहीं फूटा। "चलों । ठीक है। मैंने जो कहा, याद रहे।" मरियाने ने अपनी बात दुहरायी।
चापब्बे वहाँ से सीधे अपने प्रसाधन-कक्ष में चली गयी। आराम करने के इरादे संपलंग पर पैर पसारकर दीवार से सटकर बैठ गयी। वह सारी बात पति को मालूम हो जाने और ऐसी डाँट पड़ने से वह जैसे निश्चेष्ट हो गयी थी, बस छाती की धड़कन ही वन्द नहीं हुई थीं। एकदम गुस्सा न दिखाकर बड़े संयम से उन्होंने बात कही थी। फिर भी वह भीतर-ही-भीतर काँप रही थी। उनका गुस्सा उसने देखा न हो-ऐसी बात न थी, उसे उनके गुस्से को शान्त करने का तरीक़ा भी मालूप था, परन्तु आज की हालत कुछ और थी। आज को उनकी इस कड़ाई के लिए उसके पास कोई दया नहीं थी : 'कितने ही गोपनीय ढंग से व्यवहार करूं तो भी बात खुल ही जाती है। ऐसी हालत में तो जीना ही मुश्किल है। इस सबका कारण वह शैतान शान्तला और उसकी पानको माँ पाचि (कब्बे) हैं। पहले शादी हो जाए मेरी बेटी महारानी हो जाए, दसके बाट इन लोगों को ठिकाने लगाऊँगी। अब
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पहले तो यह देखना है कि यह वामशक्ति पण्डित क्या करने जा रहा है और उसका परिणाम क्या निकलेगा। भगवान जाने ! मालिक को उचित न लगने पर भी उन्होंने अभी तक यह बात भाई को नहीं बतायी हे। इसका मतलब तो यही हुआ कि उनमें भी इस अंजन के बारे में जानने का कुतुहल है। यहां तक तो ख़ैरियत है। मान लां, यदि मालिक खुद उस हेग्गई दम्पती के षड्यन्त्र को बातों को जंजन लगाकर देख लें तब तो मेरी दस भुजाएँ हो जाएँगी। वामशक्ति भी बच जाएगा। मुझे मालूम है ऐसा ही होगा। बुवराज और युवरानी आदि जिन-जिन को उस हेगड़े के परिवार पर विश्वास है उन सभी की आंखें खुल जाएँगी। फिर तो इससे मेरा गौरव बढ़ जाएगा प्रतिष्ठा बढ़ जाएगी। अमावस्या का दिन अब दूर नहीं हैं। चामध्ये का मन पता नहीं कहाँ कहाँ भटकने लगा। इस तरह सोच-विचार करने से उसका भय भी कुछ जाता रहा। वह अमावस्या के दिन की बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा करने लगी ।
!
युवराज से प्रधानजी को बुलावा आया। वह युवराज से जब मिलते तब अन्य किसी को वहाँ रहने की मनाही रहती। परन्तु अबकी बार जब वह युवराज से मिलने जाये तो युवराज के साथ कुमार बल्लाल मौजूद था। क्यों बुलवाया गया है, यह बात बल्लाल को मालूम नहीं थी। इसके पहले किसी भी सन्दर्भ में युवराज और प्रधानजी के बीच विचार-विमर्श होता था तो कुमार की उपस्थिति जरूरी नहीं होती थी। इस बार बुलाने पर उसकी कुछ कुतूहल पैदा हो गया था। वुद्धक्षेत्र में हो आने के बाद अब राजकाज के बारे में युवराज उससे भी बातचीत किया करते, इसीलिए उसने सोचा था कि राजकार्य की किसी बात पर विशेष विचार-विमर्श करेंगे। वास्तव में उसमें एक नया उत्साह भी संचरित हो रहा था। उसने निश्चय कर लिया था कि अपने वंश की कीर्ति बढ़ाने के लिए वह पूरी तत्परता से, तन-मन से लग जाएगा। गुरु नागचन्द्र का प्रभाव भी उस पर काफ़ी पड़ा था। खासकर मलेयों के साथ युद्ध करते समय युवराज उसे अपने कर्तव्यपालन व आचार-व्यवहार के बारे में विस्तार के साथ समझाया भी करते थे इन प्रेरणाओं की पृष्ठभूमि में वह नाराचन्द्र की बातों का विशेष मूल्यांकन करता था। इसके फलस्वरूप उसका व्यक्तित्व ठीक दिशा में रूपायित हो रहा था। ऐसी हालत में कुतूहल का पैदा होना आश्चर्य की बात न थी ।
“सुना कि आपकी आज्ञा हुई?" गहरा और पूरा विश्वास है। इसलिए किसी भी जटिल प्रश्न के उठने पर आपसे विचार-विमर्श करके मार्गदर्शन पाना
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कुशल प्रश्न के बाद गंगराज ने पूछा "प्रधानजी : पोय्सल वंश का आप पर
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उचित हैं।" युवराज ने कहा।
"अभी तो कोई ऐसी समस्या उत्पन्न हुई मुझे नहीं दिखती!"
"जो समस्या हमारे लिए जटिल मालूम पड़ती है, आपकी सूक्ष्म दृष्टि को वह कुछ भी नहीं लगेगी। शायद इसी कारण आपका ध्यान ही उस ओर नहीं गया होगा।"
"बात क्या है सो बताने की कृपा करें...''
"हमारे राज्य के सभी अधिकारी सन्तुष्ट रहें, वह उचित है, आवश्यक भी। असन्तुष्ट एवं अतृप्त होने से ये राज्य के लिए कभी खतरा बन सकते हैं। इसलिए हमारे उच्च अधिकारियों का कर्तव्य है कि वे इस बात का सदैव ध्यान रखें।"
__"मैं विश्वास दिना सकता है कि राजघराने के आश्रय में सभी अधिकारीगण तृप्त रहकर सेवा कर रहे हैं।"
"आपके इस आश्वासन के लिए हम कृतज्ञ हैं। जैसा आप समझते हैं यदि वैसा ही है तो हमें भी सन्तोष है। परन्तु एक बात हमें सुनने को मिली जिसमें हमें लगा कि कहीं अप्ति भी है। उस अतृप्ति के निवारण के लिए उसके स्वरूप
और उसके कारण का मालूम होना आवश्यक है।" कहकर परेवंग प्रभु चुप हो रहे।
प्रधान गंगराज ने एक बार राजकुमार की तरफ़ देखा। फिर प्रभु से कहा, "यात क्या है, बताने की कृपा करें तो क्या करना चाहिए-इस पर विचार किया जा सकता है। बात सान्नधान तक पहुँच गयी, प्रधान को मालूम ही नहीं हुई, इसका मुझे आश्चर्य है!”
बल्लाल के कान खड़े हो गये । प्रधान की तरफ़ उन्होंने देखा। आखिर ऐसी कौन-सी रहस्यमय बात होगी: जिज्ञासा कुछ अधिक बढ़ चली। चूँकि यह सारी बात उसके सामने शुरू की गयी थी, इसलिए राजकुमार बल्लाल को लगा कि जरूर ही इसका सम्बन्ध उससे हैं। वह अभी इसी उधेड़ब्न में था कि प्रभु पलंग से उठकर दीवार के साध रखे आसन पर ठीक से बैठ गये और बोले, ''क्या प्रधानजी को बह शंका हो गयी कि उनको बताये बिना सीधे हम तक बात पहुँचान जैसी कोई अन्य व्यवस्था भी है।"
'न, न। मेरे मन में कभी वह विचार नहीं आया। मुझे यह बहुत ही स्पष्ट रूप से और अच्छी तरह से मालूम है कि प्रभु मुझ पर कितना विश्वास रखते हैं। कभी इसमें व्यक्त या अव्यक्त किसी रूप में भी मुझमें गलत विचार नहीं आया, न आएगा। द्रोही चाहे कोई हो. वह चाहे माँ, बहिन, बेटा कोई हो वै दण्डनीय होंगे। दण्ट से ये बच नहीं सकते।"
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"एक छोटी बात को लेकर इतनी दूर तक सोचने की जरूरत नहीं, प्रधानजीं। देश में होनेवाली सभी यातें जैसे राजमहलवालों को मालूम होती हैं वैसे आपको भी मालूम होनी चाहिए। यह तो सामान्य विवेक की बात है।"
"असली बात...?"
"वहाँ के समाज के वामाचारियों को तो जानते हैं न? उनका आश्रय लेनेवाले लोग कैसे होत है?" ___गंगराज के शरीर में एक क्षण के लिए जैसे विद्युत संचार हो गया था। उन्होंने युवराज की ओर एक तरह से देखकर कहा, "जिनका दिल कमजोर होता है, जो लालची और स्वार्थी होते हैं-वे ही वामाचारियों के आश्रय में शरण पाने जाते हैं, यह अनुभव की बात है।"
"इस वामाचार पर आपको सचमुच विश्वास है, प्रधामजी।
"मुझे तो बिलकुल भी विश्वास नहीं, परन्तु विश्वास करनेवालों की संख्या भी कम नहीं।'
"आम लोगों में ऐसी बात हो सकती हैं, क्योंकि उनका लक्ष्य और उनकी इच्छाएँ बहुत सीमित होती हैं इसलिए परिणाम व्यापक नहीं होता। इसके अलावा, जीवन में सभी को सभी बातों में पूर्ण तप्ति कभी नहीं हो पाती। ऐसे लोग भी वामाचारियों का आश्रय ले सकते हैं। परन्तु जीवन में पद, प्रतिष्ठा, धन, बल, हस्ती-हँसियत-जिनके पास यह सब है, ऐसे लोग वामाचारियों की मदद क्यों चाहेंगे? इससे यही तो समझना चाहिए न, कि वे अतृप्त हैं, असन्तुष्ट हैं।"
प्रमु ने जो कहा, वह सही है। परन्तु हमारे राज्य में इस तरह के भी अधिकारी हैं-यह मुझे मालूम नहीं था।''
''यही बात है तो फिर आपके विचार से हमारे दण्डनायक जी असन्तुष्ट नहीं
"उनहें किस बात की कमी है-असन्तुष्ट होने के लिए।''
''अगर कमी न होती तो उन्होंने गत अमावस्या के दिन वामाचारी को रात के वक्त अपने यहाँ बुलवाकर सारी रात अंजन लगवाकर क्या देखा?"
“ोसी बात है! मुझे यह प्रसंग मालूम ही नहीं। दर्याप्त करके जानकारी प्राप्त करूँगा। सन्निधान तक जब खबर पहुँची है तो श्रात सत्य ही होनी चाहिए।"
"उनके इस बर्ताव का कारण जानकर, उन्हें किस बात का असन्तोष या भय है-इसका पता लगाना होगा। हम तक बात अगर पहुँची है तो उसके पीछे क्या परिस्थिति रही होगी, कहा नहीं जा सकता। इसलिए अभी उनको यह बात नहीं मालूम होनी चाहिए कि बात हम तक पहुँच गयी है।" कहकर प्रभु ने अपने बेटे की ओर देखा।
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बल्लाल किंकर्तव्यविमूढ़ बैंठा था। प्रभु ने का. "अप्पाजी. तुमको भी ऐसा बरतना होगा कि मानो तुम्हें, कुछ मालूम नहीं, वोकि तुम कभी-कभी वहां जाया आवा करत हो । ननुहल के कारण सम्व है तुम उन बच्चों में पृछ भी बैटो। इसलिए अभी से सचेत कर दिया है। सावधान रहना। साझे:''
बल्लाल ने सहमति में सिर हिला दिया। परन्तु उसके भीतर हल अपेक्षाकृत अधिक बढ़ता जा रहा था। तरह-तरह के विचारों का तांता सा लग गश था । वह सोचने लगा-- दण्डनायक के घर में वामाचारी आर कोई ठमके बारे में काल बताये भी नहीं! कम-से-कम पद्मला को तो कहना चाटिरा था । सव राप्त रूप से चल रहा है। इसका कारण क्या है? आदि आदि।
बल्लाल के मन में इस तरह के विचार आतं-जान रहे आर प्र] परिवंग अपनी बात कहने गये। बेटे को इस तरह सचेन कर प्रधान की और दुवारा देखता वाले, "प्रधानजी, यह वात वृद्ध महान क्रं. कानों में न पड़े। इसमें उन्हें बड़ा आपात लगेगा। कही किसी कान में पड़े रहनवाले यांना को बालमान और निष्ठावान रामडाकर. पास बुलाकर, सा प्रकार से उसकी देखभान्न का इतन ऊन आसन पर ला विटावा, वही व्यक्ति वामाचार में आसका हो गया - यह खबर महाराज सुने जा नशिबानागा। इसलिए मिनहाल यह बात उनके कानों तक न पहुंचे। सच्चाई क्या है इस जानकर, आर फिर सोच-विचारकर, राष्ट्रनिष्ठा को ध्यान में रखत हा आवश्यक प्रतीत होने पर हैं। बताग। तब तक नहीं। ठीक है न"
गराज न सिर हिलाकर सूचित किया “टीक है। कष्टचोल नहीं .
"सापकी व्याकुलता को हम समझते हैं। दण्डनायिका आपकी बहिन है. इससे आपके हृदय : कितनी पोड़ा हई होगी, या हम पूरी तरह समझते हैं। इस विषय की पूरी-पूरी जानकारी प्राप्त करने के अनक साधन हैं। फिर भी हम चात हैं कि यह काम आप खुद करें। इसका एक मुख्य कारण है। यह विपत्र मापका दुविधा में डाल देगा, अनेक प्रकार की उलझनें पटा करगा . यह भी में पान्नूम हं. फिर भी राजमहल का साप पर गुढ़ विश्वास है. इस बात का जानकारी आपको हानी ही चाहिए। इसलिए हमने दूसरे माधनां पर ध्यान नहीं दिया है। हम जानते हैं कि आप किसी भी हालत में सत्य को छिपाग नहीं। आपकं इस गुण से हम पूरी तरह आश्वस्त हैं।"
गंगराज बेटे-बेटे युवगज की इन बातों को भुनते रहे। उनके चेहरे पर भाव परिवर्तन का कोई चिन लक्षित नहीं आ । वामाचारी की बात अचानक उठने पर एक बार उनके शरीर में कम्पन तो हुआ था, लकिन उसके बाद उनका संयम बधावत् बना रहा।
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"सन्निधान ने मुझ पर जो विश्वास रखा है उसका द्रोह कभी नहीं होगा। यह बात मुझसे छिपाकर किसी अन्य तरीके से जाँच करायी होती तो मैं शायद खुद को कभी भी आपका विश्वासपात्र नहीं मानता। इसके लिए मैं सन्निधान का बहुत कृतज्ञ हूँ। बहुत दिन पहले, करीब एक वर्ष पूर्व मेरी बहिन वामशक्ति पण्डित के वहां जाकर भय निवारक यन्त्र बनवाकर लायी थीं तो खुद दण्डनायक जी का उनका था। यह बात उन्होंने की थी। इसके पश्चात मैंने उन्हें बता दिया था कि अब कभी भी उस वामशक्ति के साथ किसी तरह का सम्बन्ध न रखें और उस वामशक्ति पण्डित की गतिविधियों पर दृष्टि रखने के लिए गुप्तचर की व्यवस्था भी कर रखी थी। तब से उस वामाचारी का सम्बन्ध दण्डनायक के घर से कट ही गया था। ऐसी स्थिति में प्रभु को जो ख़बर मिली है उसे सुनकर मुझे बहुत आश्चर्य हुजा है। मैं तो किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया हूँ । मैं शीघ्र ही वस्तुस्थिति का पता लगाकर प्रभु से निवेदन करूंगा।" - गंगराज ने
कहा।
"पहले जिस भय के वशीभूत हो दण्डनायिका उस वामाचारी पण्डित के पास गयी थीं, उस समय का कारण क्या था उनमें किसके कारण डर पैदा हो गया था? यह कुछ मालूम पड़ा प्रभु ने पूछा। "पता नहीं, किस तरह का डर था बच्चियाँ सोते-सोते कभी-कभी चीख पड़ती थीं डरकर ! यह बात मेरी बहिन ने कही थी।" कहकर गंगराज ने बात समाप्त कर दी।
"अच्छा, तो ठीक है प्रधानजी ।" एरेयंग ने कहा ।
गंगराज ने समझा कि जिसके लिए बुलावा भेजा था वह काम समाप्त हो गया । उठकर प्रभु को प्रणाम करके वह जाने लगे कि तभी प्रभु एस्यंग ने पूछा, " हेगड़े मारसिंगय्या के आने के सम्बन्ध में कोई ख़बर मिली ?"
"मुझे तो कोई समाचार नहीं मिला है। महादण्डनायक के पास कोई ख़बर पहुँची हो तो इयक्त कर निवेदन करूँगा।" गंगराज ने कहा ।
"उनके ठहराने की व्यवस्था कहाँ की है ?"
"दो-तीन निवासों की बात सोच रखी है। राजमहल के पास ही एक है। परन्तु वह हंगाजी के लिए पर्याप्त होगा या नहीं इसकी शंका है इसलिए उनके आने पर उनके लिए जो उपयुक्त मालूम पड़े नहीं दिया जा सकेगा वही सोचा है।"
"वे कहीं भी रहें, हमारे लिए सब बराबर है। परन्तु वे राजमहल के पास रहें तो वह कुछ लोगों के लिए ईष्यों का कारण हो सकता है इसलिए उनका निवास दूर ही रहना ठीक होगा ।"
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"जैसी आज्ञा ।"
"उनके जाने की ख़बर मिलते ही हमें सूचित करें।"
"जो आज्ञा ।"
"अच्छा" कहकर प्रभु ने घण्टी बजायी । डारपाल ने परदा उठाया। गंगराज दुबारा प्रणाम कर चले गये ।
ने बल्लाल बैठा ही रहा । प्रभु एरेयंग भी मौन बैठे रहे। कुछ क्षण वाद प्रभु ही कहा, "अप्पाजी, ये सब बातें तुमको मालूम होनी चाहिए। कल तुम सिंहासन पर बैठनेवाले हो । कौन कैसे हैं, किस पर विश्वास रखना चाहिए, किस पर नहीं - इन बातों पर तुम्हें एक निश्चित निर्णय कर लेना चाहिए।"
"गुरुजी ने आचार-व्यवहार, देवी शक्ति आदि विषयों पर चर्चा करते समय बताया था कि वे वामाचारी समाज को हानि पहुँचाने वाले हैं। मुझे मालूम ही नहीं था कि ऐसे लोग हमारी इस राजधानी में भी हैं। सबसे बढ़कर आश्चर्य इस बात का है कि हमारे महादण्डनायक के परिवार का सम्बन्ध ऐसे लोगों के साथ है।"
"तुम्हारे लिए आश्चर्य होना सहज है । परन्तु तुम अभी से इस विषय में अपना दिमाग खराब न करो। उनके यहाँ जब कभी जाओ तो इस विषय पर बाल तक न करना प्रधानजी स्वयं इस सम्बन्ध में आवश्यक तहकीकात करेंगे। उसके बाद ही सारी वस्तुस्थिति स्पष्ट होगी। प्रधानजी की बातों से इतना तो स्पष्ट है ही कि टण्डनायक जी को इस दिशा में कोई रुचि नहीं। उनके घर में उनकी पत्नी की ही इसमें रुचि है - परन्तु यह मालूम होने पर भी उनके मानसिक कष्ट की जानकारी हुए बिना कुछ निर्णय नहीं लिया जा सकता। चूँकि तुम्हें इस घराने से लगाव है, हमें बहुत सहनशीलता से काम लेना पड़ रहा है। इसलिए तुम्हारा सहयोग बहुत अपेक्षित है। जब तक हम फिर से न कहें तब तक तुम्हारा उस घराने में किसी से न मिलना हो अच्छा है। अचानक यदि भेंट हो भी जाय तो औपचारिक ढंग से दो-चार बातें कर लेना इससे अधिक कुछ नहीं समझे!" प्रभु ने कहा ।
"ऐसा ही होगा, माँ को यह बात मालूम है?"
"नहीं, न मालूम होना ही फ़िलहाल अच्छा है। अभी तो यह बात तुम्हें, हमें और प्रधानजी को ही मालूम है ।"
"खबर लानेवाले गुप्तचर..."
"उनके बारे में शंका करने की जरूरत नहीं। उनके जरिए बात दूसरे किसी के पास नहीं जाएगी । यो खबर उनके मुँह से निकल जाएगी तो वे उस काम के लिए अयोग्य हो जाएँगे। इसलिए उस सम्बन्ध में तुम्हें सोचने की जरूरत नहीं । हमारे गुप्तचर विश्वासपात्र हैं। अब जाओ तुम अपना काम करो। तुम्हारी माँ
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किसी काम में न लगी हों तो यहाँ भेज दो।' प्रधु ने कहा।
बल्लाल खड़ा हो, पिता को प्रणाम कर हाथों से परदा हटाकर वहाँ से निकल गया तथा प्रभु का आदेश माँ को सुनाकर अपने काम में लग गया।
युवरानी एचलदेवी प्रभु के पास आयीं। इस बीच प्रभु पलंग पर लेट गये थे। एचलदेवी उनके पैताने जा बैठी। प्रभु ने छाती पर से हाथ उठाकर पत्नी की ओर बढ़ाया। वह उसे अपने हाथ में लेकर सहलाने लगीं। प्रभु ने करवट बदली और दूसरे हाथ से युवरानी के हाथ का स्पर्श कर बोले, “देवि, हम फिर इस आकाश, सूर्य और तारों से घिरे चन्द्र को देख सकेंगे या नहीं, मालूम नहीं। कभी जीवन में हम अधीर नहीं हुए थे। अभी हाल में पता नहीं कोई अगोचर शक्ति हमें निचोड़ने लगी हैं। हमें ऐसा ही प्रतीत हो रहा है इसलिए हममें जो धैर्य है उसे तुम्हें समर्पित कर रहे हैं। पता नहीं कब अकेली रहकर कष्टों का सामना करने का भार तुम पर आ पड़े..." तुरन्त एचलदेवी ने प्रभु के मुंह पर हाथ रख दिया। बोली, ''प्रभु को ऐसा नहीं करना चाहिए। चारुकीर्ति पण्डित ने कहा है, कोई तकलीफ़ नहीं है। सिलहार राज्य के वैद्यजी के आ जाने से उनमें अब दो-एक दिन से नया ही धैर्य आ गया है।''
"भगवान की इच्छा के सामने मनुष्य का धैर्य टिक नहीं पाता।"
"ऐसी हालत में उस शक्ति पर भरोसा रखकर जीवन में दृढ़ता के साथ आगे बढ़ना ही उचित है। आपके मुँह से कभी अधीरता की बात नहीं निकली। लगता है, आज कोई विचित्र बात आपके कानों में पड़ी है। वह क्या है बताएं तो हो सकता है, उसके निवारण की बात सोचकर कह सकती हूँ," युवरानी ने कहा।
"ऐसी कोई बात नहीं।" कहते हुए प्रभु रुक गये।
''प्रभु! मुझसे छिपाने जैसी कोई बात आपके मन में है। प्रधानजी को बुलवा लेना एक बात है, परन्तु अप्पाजी को भी उनके साथ बातचीत करते वक़्त पास बैठाने का कुछ माने जरूर है। इसीलिए मैंने उसी से पूछा लेकिन वह कुछ न कहकर खिसक गया। प्रभु ऐसा न करेंगे-वह मेरा विश्वास हैं। वह क्या हैं, बताइए प्रभु!'' युवरानी ने आग्रह किया।
युवराज एकटक देखते रहे, कुछ बोले नहीं।
"प्रभु, यात मन में ही दबी रहे तो बह दीपक की तरह अन्दर-ही-अन्दर कुरेदती रहेगी। उसे प्रकट करने पर मन कुछ हल्का हो जाएगा। यात कैसी भी हो मुझसे कह सकते हैं। यदि प्रभु का विश्वास खो बैठी हूँ तो फिर जोर नहीं दे सकती
"हम नहीं चाहते कि तुम्हारा शान्त मन उद्विग्न हो, इसलिए इस तरह की राजकाज की बात तुम तक न ही पहुँचें-यह सोचकर हमने चुप रहना ही ठीक
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समझा।"
"प्रभु की मर्जी। देवेच्छा के सामने हमारे प्रयत्न से कुछ नहीं होगा-मुझे इसका ज्ञान है। सामान्य लोगों की तरह केवल ऊहापोह करके उसे व्यक्त करने में फ़ायदा भी नहीं। इसलिए मेरी एक प्रार्थना है। निराधार यों ही ऊहापोह करके भविष्य की बात मुझसे न किया करें प्रभु ।"
"ऐसा ही सही। देवि, तुम्हारी बातों से मुझमें नयी चेतना आ गयी है। आइन्दा ऐसी बात नहीं करूँगा।"
"अच्छा, अब आराम करें। आप कुछ थके-थके लग रहे हैं।" चादर ओढ़ाते हाए युवरानी ने कहा, "घोड़ी देर में औषध और पेय लेकर मैं स्वयं आ जाऊँगी। तब तक और कोई अन्दर न आए।" कहकर चली गयीं।
प्रधानजी के वहीं वामशक्ति को बुलवा लिया गया। उसे किसी तरह का भय न दिखाकर बड़ी सावधानी से तुला लाने की व्यवस्था की गयी थी। वास्तव में उसे गत अमावस्या की रात की घटना से बहुत तृप्ति मिली थी। खुद मरियाने दाइनायक जब सन्तुष्ट हुए थे तो उसके आशा-सौध की ऊँचाई आसमान तक बढ़ गयी थी। उसने समझ लिया था कि दण्डनायक ही ने प्रधानजी से मेरे बारे में कहा है और इसीलिए बुलवाया है। प्रधानजी के यहाँ का नौकर सिंगणा बुलाने गया था। उसी के मुँह से वह ज्ञान लेना चाहता था कि प्रधानजी ने क्यों बुलाया है। लेकिन कुछ बात नहीं बनी।
प्रधानजी ने आदेश दिया था-"आवश्यक काम है तुरन्त आने को कहा है।" बस इतना ही ज्ञात हो सका। प्रधानजी की इस आज्ञा ने उसमें एक नयी स्फूर्ति पैदा कर दी थी। नौकर ने उसे अन्दर ले जाकर मन्त्रणा-कक्ष में बिठाया तो उसने समझा कि उसे बहुत गौरव दिया जा रहा है। वहीं बैठे-बैठे वह प्रधानजी की प्रतीक्षा करता रहा।
प्रधानजी के आने की सूचना मिलते ही वामशक्ति पण्डित उठ खड़ा हुआ। प्रधानजी ने अन्दर आकर दरवाजे पर कुण्डी चढ़ा दी और पण्डित को बैठने को कहा। वह बैठ गया।
"पण्डित, मालूम है तुमको क्यों बुलाया है?'' प्रधानजी ने कहा। "आदेश हो। सेवा के लिए तैयार हूँ।" उसने झुककर प्रणाम किया। "तमको देश-निकाले का दण्ड देने की युवराज की आज्ञा है।"
पण्डित घबरा गया। पसीने से तर हो गया। आँखों के डोल अजीब ढंग से डोलने लगे।
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"मालूम है क्यों?"
"नहीं"-कहने का उसे मन हुआ परन्तु मुंह से नहीं निकला। उसने सिर हिलाकर बताया कि नहीं मालूम है।
"तुमने अपने इस वामाचार से कितने घरों का सर्वनाश किया है अब तक?" "औं! मैं...नहीं...नहीं..."
“झूठ बोलकर तुम यहाँ से जीवित नहीं लौट सकोगे। पहली बार तुमने जन्न मेरी बहिन को अपने यहाँ बुलवाया था तभी से तुम्हारी चाल-ढाल का पता हमें लगता रहा है।"
''मेरी भला क्या हिम्मत कि ऐसे बड़ों को अपने यहाँ बुलवाऊँ। वे खुद ही आयी थीं प्रधानजी।" ___ "ती मतलब यह हुआ कि तुमने अपनी प्रतिष्ठा, शक्ति, सामर्थ्य के प्रवार का माध्यम उन्हें चुना । दण्डनायक के घर का कौन-सा नौकर तुम्हारा भक्त है?"
''पालकी ढोनेवाला चोकी।" .
"जब भी कोई बहाना मिले तब तुम्हारा नाम लेकर तम्हारी प्रशंसा करता रहे-वही तुमने उससे कहा था न।'
"जो कोई मेरे पास आते हैं उन सबसे मैं ऐसा ही कहा काता हैं। नहीं तो मैं जीऊँ कैसे? फिर जिन्हें मेरी शक्ति पर विश्वास हो जाता है वे ऐसा ही कहते हैं। कुछ लोग अपनी तरफ़ से भी कह उठते हैं।" ___"वह तुम पर विश्वास करने लगे इसके लिए तुमने चोकी का कुछ काम भी कर दिया। है न?"
"हाँ" "क्या किया?" पण्डित तुरन्त कुछ बोला नहीं।
"कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद आखिर गंगराज गरम होकर बरस पड़े, "चुप क्यों हो गये पण्डित, बताओ।" ___"वह किसी स्त्री को चाहता था, मालिक । उसे उसकी वशवर्तिनी बना देने
की प्रार्थना की थी उसने ।" ___"वह स्त्री भी उसे चाहती थी या नहीं, इस बात को जाने बिना तुमने वह काम कर दिया। है न?"
"हमारा व्यवहार एकतरफ़ा होता है। यह सब पूछताछ हम नहीं करते। हमें • अपने गुरु की आज्ञा का पालन भर करना होता है। वे कहते थे कि वे ही लोग हमारे पास आते हैं जिन्हें अपनी समस्या का अन्यत्र परिहार नहीं दिखाई देता। उनकी समस्या का परिहार करना मात्र हमारा काम है। अन्य विषयों से हमारा कोई
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ताल्लुक नहीं।' पण्डित ने कहा।
'तुम्हारे प्रयत्न से वह स्त्री उसकी हो गयी।"
इसलिए तो उसे मुझ पर विश्वास है। बिना शक्ति के हमारा काम नहीं बलता, यह कोई ढकोसला नहीं, मालिक।"
''कौन है वह स्त्री?" ''यह...वह...एक गुड़सवार की पत्नी है।"
''क्या कहा? एक की पत्नी को दूसरे के वश में कर दिया!" गंगराज के होठ गुस्से से फड़क रहे थे।
"जो हमसे पाँगते हैं, उन्हें हम भस्म अभिमन्त्रित करके दे देते हैं। ये जिसको चाहते हैं, उन पर उस भस्म को फेंकते हैं। बस, वशीकरण हो जाता है। और फिर जो वशीभूत हो जाते हैं उनके बारे में जानने की इच्छा नहीं रह जाती। इसलिए हम दोषी नहीं होते।" पण्डित ने साहस बटोरकर कहा। मन-ही-मन वह यह निर्णय कर चुका था कि अव तो वह शिकारी के हाथ पड़ गया है। शिकार बनना ही होगा इसलिए बस्तुस्थिति जैसी है वैसी कहकर क्यों न परिस्थिति का सामना किया जाय।
"तो क्या तुम्हारा कहना है कि अन्याय को प्रोत्साहित करके भी तुम आछूते रह जाओगे? यही है न तुम्हारा मतलब?"
“यदि हमें पहले से मालूम हो जाय तो उसका दंग ही अलग होता है। आमतौर पर हमें मालूम नहीं रहता। इसलिए हम तो यही सोचकर चलते हैं कि हम जो कुछ करते हैं वह उपकार का ही काम है?"
"उस मवार का नाम क्या है।" "मायण।'' "और उस स्त्री का?" "चट्टला।" ''तुभने अपने लिए कितनी स्त्रियों को वश में कर रखा है।" "हम अपनी शक्ति का उपयोग स्वयं अपने लिए नहीं कर सकते।" "तो, दुनिया को बरबाद करना ही वामाचारियों का काम है?"
“मतभेद है। हमारी शक्ति से बहुत-से लोगों को तृप्ति मिलती है। जो निराश रहते हैं उनकी आशाएँ सफल होती हैं। इसलिए हमारा विश्वास है कि हम जो करते हैं वह उद्धार का ही काम है।"
"यह उद्धार नहीं, घर तोड़ना है। हमारी राजधानी में भविष्य में ऐसे सब कार्यों के लिए अवकाश नहीं। तुमने अब तक किस-किस का इस तरह का उद्धार किया-उस सबका ब्यौरा हमें देना होगा। इससे भी मुख्य बात यह कि गत
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अमावस्या के दिन महादण्डनायक के घर में जो कुछ घटित हआ जमे अक्षर-अक्षर बता देना होगा। बोलो, क्या-क्या हुआ वहाँ?" ___ "वे मालिक के आप्तजन हैं। उन्हीं से जान लें, यही अच्छा है। मैंने वचन दिया है कि मैं किसी से नहीं कहूँगा।"
“तुमसे कहलवाचे बिना अब छोड़ेंगे नहीं। दण्डनायक ने सब-कुछ बता दिया है परन्तु अब हमें तुम्हारी सच्चाई की परीक्षा लेनी हैं। इसलिए जो कुछ गुजरा है उसका विवरण हू-ब-हू देना होगा। झूठ बोले तो यहीं जीभ काटकर रख दूंगा, समझे?"
"दण्डनायक जी ने ही यदि झूठ कहा हो तो?" "उन पर झूठे होने का आरोप लगाते हो?" गंगराज आगबबूला हो उठे।
"ऐसा नहीं है। जब दूसरों को बुरी लग सकने की बात आती है तो कुछेक बातों को छिपाना मानव के लिए सहज है।"
"इस पर बाद में विचार किया जाएगा। अभी तो तुम्हें सच-सच बताना होगा।"
''पहले से आरम्भ करें या अमावस्या के दिन की ही बात कहूँ?"
''मुझे तुम्हारा उद्देश्य मालूम हो गया है। जो कुछ तुम कहना चाहते हो, कहो। ज़्यादा बातें बनाने की ज़रूरत नहीं।"
"जैसी आज्ञा। चोकी ने मेरे विषय में जो कहा उससे दण्डनायिका बहुत प्रभावित हुई होंगी। इसीलिए उन्हें जब डर लगा तो आकर उन्होंने मेरी मदद माँगी। कहने लगी, 'पता नहीं कौन हमारी और हमारी सन्तान की बुराई चाह रहे हैं। उनसे हमारी रक्षा होनी चाहिए।' मैंने उन्हें और उनकी सन्तान के लिए “सर्वतोभद्र यन्त्र' तैयार करके दिया। यह एक संवत्सर पीछे की बात है। उसके बाद उन्होंने मुझे बुलवाया नहीं और न ये मेरे पास ही आयीं। अभी हाल में गत कृष्णपक्ष के आरम्भ में एक दिन दण्डनायिका जी आयीं और बोलीं, 'अंजन लगाना है।' उन्होंने मुझे कभी यह नहीं बताया कि आखिर उनका बुरा चाहनेवाले कौन हैं तब मैंने उनसे कहा-'अंजन लगाने पर अनचाहा विषय भी दृष्टिगोचर हो सकता है। लेकिन जब उन्होंने हठ किया तो मैंने उनकी बात स्वीकार कर ली। मगर लगता है, यह बात पहले दण्डनायक जी को मालूम नहीं थी। उन्हें कैसे मालूम हुआ, पता नहीं। वे खुद आये, और बोले, 'यह अंजन लगाने का काम हमारे ही यहाँ हो, और इसकी किसी को खबर न हो। अगर यह पात्र इन्द्रजाल हुआ तो देश निकाले का दण्ड दिया जाएगा।' "
एक क्षण चुप रहकर उसने पुनः कहना आरम्भ किया, "सबके सो जाने पर वहाँ जाने का निश्चय किया गया। यथानुसार गत अमावस्या को मैं उनके निवास
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पर गया और अंजन लगाया, दण्डनायक जी के ही कमरे में। दण्डनायक जी, दण्डनायिका जी और चोकी, सिर्फ ये ही जाग रहे थे। दण्डनायक और दण्डनायिका ने तैल भरी थाली और मेरे बीच में स्थापित दीपक को स्थिर दृष्टि से निश्चित समय तक देखा। फिर तैल में देखा मेंने उससे पूछा, "उसमें कोई दिखाई दे रहा है?'
1
''
दण्डनायिका जी ने कहा- 'हाँ, कुछ लोग.... मैंने पूछा, 'वे कैसे हैं?"
दण्डनायिका जी ने कहा, 'पूँछवाले आदमी लगते हैं 'पहले कभी आपने उन्हें देखा था?" मैंने पूछा। 'नहीं।' - दण्डनायिका जी ने बताया |
'अब क्या दिखता है ?"
'वे हाथ से इशारा कर बुला रहे हैं।' 'कोई आ रहा है?'
'कोई स्त्री आ रही है।'
'कौन है वह ? मालूम पड़ा ?'
'ऐसा लगता है कि मेरी साड़ी की तरह उसने भी साड़ी पहन रखी हैं।' 'यह मालूम हुआ कि वे कौन हैं?'
'हाय, वह तो मेरे ही जैसी लगती है। दोनों जगह में कैंसे रह सकती हूँ?" 'इसका उत्तर बाद में मिलेगा। क्या होता है, देखकर कहिए।'
'उस पूँछवाले आदमी के पास मैं गयी हूँ। हाय, उन्होंने मेरे कन्धे पर हाथ रखा '
'इरिए नहीं। वे कोई और नहीं। वे महाब्रह्मचारी चिरंजीवी मारुति हैं। वे आपके मन की इच्छा को अभी पूरी करेंगे। आप जो देखना चाहेंगी उसे दिखाएँगे। वे जो कहेंगे वह कीजिए। मुझे दिखाई नहीं देता। इसलिए आप ही को स्पष्ट कहना होगा। अब क्या हो रहा है बताइए ।'
'मुझे हाथ पकड़कर ले जा रहे हैं। यह क्या है, हम कहाँ आ गये हैं? मुझे नहीं लगता कि मैं कभी यहाँ आयी हूँ। यह कौन-सी जगह है?"
'स्वयं ही मालूम हो जाएगा। जल्दी न करें। अब कोई और दिखाई दे रहा
'दूर पर कोई दिख तो रहा हैं।'
'उन्हीं से आपको कष्ट होगा। पता लगा, कौन है?'
'आह! उनसे ही हमें कष्ट होगा। यह सच है?"
"सच है इसलिए तो मारुति महाराज ने आपको दिखाया है। ये कौन
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उतने स्पष्ट नहीं दिखते।'
हैं - इसका पता लग गया ?" बहुत दूरी पर हैं * आपका मन अभी अनिश्चित स्थिति में है इसलिए स्पष्ट नहीं दिख पड़ते । कुछ और एकाग्र होकर देखिए तो मालूम पड़ सकेगा ।'
'आह' यह क्या? न, न, ऐसा हो ही नहीं सकता। जो हमें रोटी दे रहे हैं वे ही हमारी बुराई करेंगे? नहीं, यह सम्भव नहीं ।'
'जिन्होंने रोटी खायी है वे ही अगर बुराई करें तो रोटी देनेवाले बुराई क्यों न
करें ।'
'मुझे विश्वास नहीं होता।'
'विश्वास न हो तो मैं क्या करूँ? वस्तुस्थिति वहाँ दीख रही है। वह करीब-करीब आपके मन का ही प्रतिबिम्ब है। अपने-आप को पहचानने के लिए यह अंजन उत्तम साधन है। किसे देखा, बताइए। बाद में कुछ समझाकर कहूँगा तब आपको विश्वास हो जाएगा।'
"न, न, मैं नहीं बता सकूँगी।'
"छोड़िए उससे होनेवाली भलाई - बुराई सब आपकी ही है। मेरा वह रक्षा - चन्त्र, अभी आपने जिन्हें देखा, उन्हीं के विरुद्ध आपकी रक्षा करेगा। आपने निश्चित रूप से नहीं कहा इसलिए हमने अपनी शक्ति से आपके अन्तरंग को समझकर काम करने का आदेश दे दिया उस काल कर दिया आ में आपको उससे प्रसन्न होना चाहिए। आप स्वयं नहीं कहेंगी तो उसे समझने के लिए हम खुद नहीं जाएँगे। हमारे प्रयोग का फल आपको दिख पड़ा है। आप विजयी हों तो और अधिक मदद देने के लिए हम अपनी शक्ति का प्रयोग करेंगे।'
E
'नहीं, नहीं, ऐसा न करें। सम्भव हो तो अब तक जो किया है उसे भी लौटा
लें ।'
'तब तो बात यह है कि आप गलत समझ रही थीं । परन्तु अब जो ग़लती हुई हैं, अन्याय हुआ है उसका निवारण कहाँ तक सम्भव है, कहा नहीं जा सकता । फिर भी कोशिश करूँगा। उस दिन जब मैंने विरोधियों के नाम बताने को कहा तो आपने नहीं बलाया। बता देतीं तो मैं सीधे उन्हीं पर अपनी शक्ति का प्रयोग करला । आपने नहीं बताया, इसलिए अब वह शक्ति आपको बाधा दे सकने वाले किसी अन्य व्यक्ति की ओर क्रियाशील हो रही है। उस शक्ति को जो आदेश दिया गया है उसके अनुसार काम करेगी ही बिना आदेश पालन किये लौटेगी नहीं ।'
"इसके माने"
'माने यह कि मैं अब निस्सहाय हूँ। इतना तो सच है कि आपने जिस
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व्यक्ति को देखा वही आपकी आशाओं को निराशा में परिणत करनेवाले हैं, वे ही आपके रास्ते का काँटा बने हैं। अच्छा, इस बात का रहने दीजिए। अब बताइए, और क्या दिखाई दे रहा है?'
'मुझे कुछ और देखने की इच्छा नहीं है।' 'इच्छा न हो तो छोड़ दीजिए। क्या दण्डनायक जी का यह सब दिखाई पड़ा?'
'नहीं, वह पूँछबाला व्यक्ति दिखाई पड़ा, यह सच है। वह एक स्त्री को साथ लेकर दूर चला गया। इतना मात्र दीख पड़ा। और कुछ भी नहीं दिखा। दण्डनायक ने बताया। __ 'वैसे ही देखते रहिए, अगर कुछ देखने की इच्छा हो तो दिखाई पड़ेगा।'
'मुझे सच-सच देखना है। वह दिखेगा? देखने को मिलेगा'
'अगर आपको कुछ भी नहीं दिखाई दिया तो यह सत्य है कि आपके कोई विरोधी नहीं हैं। विश्वास दिलाकर द्रोह करनेवाले हों तो ये धुंधले-से दिखाई पड़ सकेंगे। ज्ञरा और गौर से देखिए। क्या दिखाई दे रहा है?
'कुछ भी तो नहीं।' 'कुछ देर तक वैसे ही देखते रहिए। अगर कुछ दिखे तो बताइए। टण्डनायक जी कुछ देर बैठे देखते रहे। 'कुछ प्रकाश चा रोशनी जैसी दिखती है?' 'नहीं, कुछ भी नहीं। थाली और तैल-यही दिखाई देते हैं।' 'आसमान और तारे?' 'नहीं, कुछ भी नहीं। 'दण्डनायिका जी, आप फिर देखेंगी?' 'नहीं।' 'तो इस अंजन का विसर्जन कर दूं:' 'हौं।'
इसके बाद मैंने उस दीये को बझा दिया। बाद में दण्डनायक जी ने कहा, 'बहुत खुशी हुई, अब तुम जा सकते हो।'
मैंने पूछा-'आपको तृप्ति मिली?' 'बहुत ।' 'प्रधानजी को और राजपरिवार को हमारे बारे में कहिए।' मैंने कहा।
'ठीक है, समय आने पर बताएँगे। अन्च लुम जा सकते हो।' दण्डनायक बोले।
तब मैं अपना बकुचा बाँध उठकर खड़ा हो गया। मैंने जिस पारिश्रमिक की आशा की थी वह भी नहीं मिला, मैं हाथ मलता खड़ा रहा। तभी दण्डनायक जी
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ने पूछा-'अब क्यों खड़े हो?'
मैंने कुछ संकोच से कहा- 'पारिश्रमिक...'
'तुम्हारे घर पहुंच जाएगा, कल सुबह । तुम जा सकते हो। कहकर नौकर चोकी को साथ करके घर भेज दिया। इतना सब जो हुआ सो हू-ब-हू बता दिया
"तब लो, तुम जब घर लौट रहे थे उस समय तक गाँव के लोग जगे नहीं थे?'' प्रधान गंगराज ने प्रश्न किया।
'अभी मर्ग ने पहली बार भी बौंग नहीं दिया था।" "सुबह तुम्हें पारिश्रमिक मिल गया?"
"नहीं, अभी तक नहीं मिला। आज नहीं तो कल मिल जाएगा, उसकी मुझे इतनी चिन्ता नहीं।"
"तो अंजन का काम समाप्त होते ही तमने पारिश्रमिक क्यों माँगा?"
"जो काम किया उसका पारिश्रमिक तभी माँग लेना मेरी आदत है। आदत के अनुसार पूछ लिया।"
"दण्डनायिका ने जो देखा उसे जानते हुए भी तुम कह नहीं रहे हो। क्यों?"
“मैंने नहीं देता। अलाना हसन्हें वहाँ मनतो सय-कुछ नहीं दिखाई पड़ता। टण्डनायक जी को भी सब-कुछ नहीं दिखाई पड़ा।"
"तुम झूट बोल रहे हो। दिखने पर भी कुछ न दिखा कहकर स्वाँग रच रहे हो। अब यह स्पष्ट हो गया कि तुम देखनेवाले के ही सिर पर, सही-गलत जो देखा उसे मदकर खिसक जाते हो, यही तुम्हारी रीति है।" । __ "ऐसा नहीं, प्रधानजी। इसमें हमें वैयक्तिक कोई रुचि नहीं हैं। जिनकी जो समस्या होगी, उन्हें उसका परिहार दिखना चाहिए।" ___ "तो पहली बार जब दण्डनायिका आयी थीं तब तुमने यह क्यों कहा था कि शुम स्वयं अंजन लगाकर पता लगाओगे। उसका पता लगाना तो तुम्हारी समस्या थी नहीं?''
"मेरी समस्या नहीं थी, यह ठीक है। परन्तु कुछ लोग अंजन के तैल में देखने से डरते हैं। तब उनकी तरफ़ से उनकी स्वीकृति होने पर, हम देखकर कह सकते हैं। परन्तु वे ही देखने को स्वीकार कर लेते हैं तो हम नहीं देखते। हमारी बृत्ति तो कमल के पत्ते पर के पानी की तरह है। वह हमें नहीं लगता।"
"चोकी से गुप्त रूप से तुमने क्या-क्या बातें जाम रखी हैं?" "मैंने? ऐसी बात ही क्या थी जो मैं जानना चाहता" "चोकी ने हमें सब-कुछ बता दिया है।" "वह तो नौकर है। वह अपने बचाव के लिए भी उल्टा-सीधा बक गया
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होगा ।"
"चलो मान लिया। यदि उसने झूट कहा हो तो उसे दण्ड मिलना ही चाहिए न? दण्ड देने के लिए हमें पहले सच्चाई तो मालूम होनी ही चाहिए" पण्डित कुछ झुका । उसने सोचा था कि सुरक्षित रूप से प्रधान के हाथ से छूट जाएगा। अब उसे सूझ नहीं रहा था कि क्या करना चाहिए।
"चुप रहने से काम नहीं चलेगा। सवाल का जवाब तुरन्त मिलना चाहिए | बताओ, चोकी से तुमने क्या-क्या जानकारी एकत्र की? और यह सब किसलिए किया?"
"हमारा धन्धा चले, यहीं हमेशा हमारा लक्ष्य रहा है। उसके लिए अपेक्षित बातों का पता लगाना जरूरी होता है।"
"पहले यह बात तुमने क्यों नहीं बतायी ?"
" माफ़ कीजिए, कुछ घबरा गया था।"
गंगराज हँस पड़े, "अच्छा तो घबरा गये थे तुम ।" मेड़ी ऐ परीक्ष पहले कभी नहीं हुई"
"सच बोलनेवाले को किसी भी परीक्षा में घबराने की जरूरत ही क्या है! अगर तुम घबरा गये तो वह तो सचाई को छिपाने का ही प्रयत्न समझा जाएगा न” "छिपा रखने के लिए है ही क्या, प्रधानजी : मैंने चांकी से उन्हीं बातों का संग्रह किया जिन्हें आप जानते हैं। सो भी उतना ही जितना वह जानता है ।" "उससे तुमने जो जो बातें जानी हैं वह सब बतानी होंगी और सुनो, वह मत बको कि जो सब मैं जानता हूँ वह तुम भी जानते हो ।"
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"ऐसा कुछ नहीं प्रधानजी कोई नयी बात नहीं यही मेरे कहने का मतलब
है ।"
"विषय एक ही होता है, पर उसकी जानकारी एकत्र करने का उद्देश्य अलग-अलग होता है। इसलिए तुम्हें इससे कोई मतलब नहीं। बताओ ।"
"दण्डनायिका जी की यह अभिलाषा है कि बड़े राजकुमार से उनकी बेटी का विवाह हो । परन्तु युवरानी जी किसी दूसरी लड़की के साथ विवाह की बात सोच रही हैं। उस दूसरी कन्या के माता-पिता दण्डनायिका जी के प्रयास में बाधा डाल रहे हैं और उन लोगों ने युवरानी जी को वश में कर रखा है। इस वशीकरण से युवरानी को मुक्त करने पर दण्डनाधिका जी की आशा पूरी होने के लिए मार्ग सुगम हो जाएगा इतना ही मालूम हुआ ।" और पण्डित चुप हो गया ।
"यह बात तुम्हें चोकी ने बतायी या दण्डनायिका जी ने?"
"मैंने ही चोकी से यह सब पता लगाया था । दण्डनायिका जी ने कभी इस सम्बन्ध में नहीं कहा।"
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"दण्डनायिका जी की इच्छा के विरुद्ध अड़चन पैदा करनेवाले कौन हैं?". "मुझे मालूम नहीं।" 'चोकी ने नहीं बताया?" "उसे भी मालूम नहीं है।" ''तुमने जानने का प्रयत्न किया होगा?"
"प्रयत्न तो किया। अगर मालूम हो गया होता तो मुझे दण्डनायिका जी से अधिक लाभ मिल सकता था। न उन्होंने बताया, न कहीं और से मालूम हो सका। मतलब यह कि उनके निकटवर्ती किसी परिवार को भी इस बात की जानकारी नहीं है।"
"तो बात यह है कि तुमने उनके यहाँ के अन्य नौकर-चाकरों से भी इस सम्बन्ध में जानकारी एकत्र करने की कोशिश की " ___“कोशिश तो की, मगर सीधे उनसे नहीं। चोकी ही के जरिए। परन्तु उससे किसी विशेष बात का पता नहीं लग सका।'
"दण्टनायक के घर के नौकरों में से चोकी के अलावा और कोई तुमसे उपकृत नहीं हुआ?"
"ये जब तक स्वयं हमारे पास न आ, तय तक हम कैसे उनका उपकार कर सकते हैं?"
तुमने अभी बताया कि दण्डनायक जी ने कहा कि कुछ नहीं दिखा। क्या सचमुच उन्हें कुछ नहीं दिखा"
यह मैं कैसे बताऊँ? उन्होंने कहा कि कुछ नहीं दिख रहा है। उनकी बात पर विश्वास करना चाहिए। परन्तु दण्डनायिका जी ने जो देखा वह उन्हें अच्छा नहीं जंचा। दण्इनायक जी को भी शायट वैसा लगा हो, इसलिए ऐसा कहा हो लो आश्चर्य नहीं।" पण्डित ने कहा।
"तो तुम्हारा मतलब यह कि सभी को अंजन में एक जैसा ही दिखता हैं, है न?"
"वहाँ तो एक जैसा ही दिखता है। परन्तु कुछ लोगों को शायद उतना भी नहीं दिखता।"
"क्यों नहीं दिखता?"
"उसके सम्बन्ध में पहले से कोई भावना नहीं बनी होती, कुछ लोगों में। इसलिए ऐसे लोगों को नहीं दिखता।"
"तो जिसे पूर्वाग्रह हो उसे ही दिखता है। वही न?"
"ऐसी पूर्वाग्रह पीड़ा न हो तो हमारे पास व आएंगे हो क्यों, प्रधानजी: उन्हें जो सपाधान चाहिए, वह हमारे इस अंजन से मिल जाता है। उनकी भावना को
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सत्य जैसा रूप देना और दिखाना बही उस अंजन का काम है। उनको जो दिखता हैं। उसे ही तो वे कहते हैं।"
"तुम लोग दृष्टि केन्द्रित करने का जो तन्त्र करते हो, उससे व्यक्ति की अपनी ही कल्पना यथारूप धारण करके वहाँ दिखने लगती है। यही एक भ्रम पैदा हो जाता है। है न?" ___"वह देखनेवालों के निर्णय पर छोड़ दिया जाता है। हम उसका विमर्श नहीं करते।"
__ “तो चाहे झूठ हो या सच, भ्रम हो या कल्पना, कुछ भी हो, जो तुम्हारे पास आते हैं उन्हें तृप्ति मिलनी चाहिए-इतनी ही तुम्हारी दृष्टि है। यही न?" ।
"मदद मांगते हुए जो आएँ उन्हें तृप्त करना हमारा काम है।" । "उसमें झूठ-मूठ या काल्पनिक बताकर तृप्त करना भी होता है?"
"जो मांगने आते हैं, उनको जो दिखता है वह सब सत्य है-हमारा तो यही विश्वास है।"
"यदि वह मिथ्या हो तो उससे कितने अनर्थ हो सकते हैं-यह जानते हो?" "वह मिथ्या है, ऐसा हम नहीं मानते।"
"तुम क्या मानते हो यह अलग बात है किन्तु यदि वह मिथ्या है तो उसके फलस्वरूप अनर्थ तो होगा ही?"
"हो सकता है।"
"हो सकता है! दूसरे की पत्नी को वशीकरण करके उसे किसी दूसरे को दे देना, किसी ने कुछ कहा उसे सुनकर सज्जनों को तकलीफ़ देना, सौहार्द में द्वेष पैदा करना-यह सब करके भी तुम लोग निर्लिप्त हो। पण्डित सुनो, कल सुबह होने से पहले तुम्हें दोरसमुद्र छोड़ देना होगा। इस पासल राज्य में कहीं तुम्हारी छाया भी दिखी, वहीं तुम्हें मौत के घाट उतार दिया जाएगा। कल यह आदेश जारी कर दिया जाएगा। तुम्हें इस राज्य की सीमा से बाहर जाने के लिए दो पखवारों की अघधि दी जाती है। यह तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम अकेले हो, तुम्हारा परिवार नहीं है। होता तो उन बेचारों को तुमसे कितनी तकलीफों का सामना करना पड़ता। उठो, बाहर निकलो, यहाँ क्या सब हुआ इसका किसी को पता तक न लगे। यहाँ से इस तरह निकलोगे मानो कुछ हुआ ही नहीं, जैसे आये वैसे जाओ। तुम्हारे राजधानी से निकल जाने, राज्य की सीमा छोड़ने आदि कोई भी बात कानों-कान किसी को मालूम नहीं होनी चाहिए। समझे? चलो, जाओ यहाँ से!"
"मैंने एक भी झूठी बात नहीं कही, प्रधानजी। जैसे का तैसा सब-कुछ सुना दिवा है।" _ "इसी से तुम्हारी जान बच गयी हैं। परन्तु तुम जैसे आदमी की इस पोसल
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राज्य को जरूरत नहीं । अब ज़्यादा बातें मत बना, चल निकल यहां से।" वामशक्ति पण्डित यहाँ से अपने घर चला गया। उसके बाद वह कहीं गया, पता नहीं। कहीं किसी को दिखाई नहीं दिया।
प्रधान गंगराज ने वामशक्ति पण्डित को दुतकर जो ही की थी, उसका सारा वृत्तान्त प्रभु एरेयंग के समक्ष यथावत् निवेदन किया और बताया, “मेरी बाहन ने उस जंजन क्रिया में जो देखा वह मालूम नहीं पड़ा। उसने आगे देखने से इनकार कर दिया था, इसलिए यही समझना चाहिए कि उसने जो कुछ देखा वह दुखदाबी था । उसे भी बताने का आदेश हो तो जानकर बनाऊंगा।"
"अच्छा हुआ कि वामाचारी को देश से निकाल दिया। आपकी बहन को आदत के विपरीत कुछ और ही दिखा, इससे वह बहुत विह्वल हो गयीं, यह भी स्पष्ट हो गया। सारा वृत्तान्त हम तक पहुँच गया है, यह बात जान लेने पर वह अब तक जिस मिलनसारी से राजमहन में आती जाती रही हैं शायद उन्हें अब वैसा करने में संकोच हो ! सुनने में आया है कि अब वे ऐसे ही संकोच की स्थिति में रहा करती हैं। उन्होंने जो किया वह अविवेक था- इतना भर उन्हें मालूम हो जाय तो पर्याप्त है। बड़े लोगों को बड़ों की तरह बरतना चाहिए। छोटे लोगों के साथ मिलकर छोटे नहीं बनना चाहिए। यह उन्हें समझा दीजिए। यह उन्हें ख़बर न होने दें कि हमें यह सारा वृत्तान्त मालूम हो गया है।"
" जैसी आपकी आज्ञा । वास्तव में मैं टण्डनायक जी से या अपनी बहिन अथवा उनके यहाँ के नोकर-चाकरों से मिला ही नहीं उस पण्डित से असली बात निकलवाने के लिए मैंने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया मानों मैं सब कुछ जानता हूँ। पति को देश निकाले का दण्ड जो दिया गया है उसका आज्ञा-पत्र कल दण्डनायक जी के पास भेज दिया जाएगा। बाद में अन्यान्य दण्डनायकों के पास उन-उन सीमा क्षेत्रों के हंग्गड़ों के पास सूचना भेजने की व्यवस्था करने का आदेश कर दिया जाएगा। अगर कोई पूछेगा तो उनसे कहेंगे कि हमने ही उसकी गति विधियों का पता लगाकर, उसके वामाचारी व्यवहारों से सामाजिक जीवन कलुपित न हो, उसे निकाल दिया है।"
"ठीक है। हेगड़े मारसिंगय्या के लिए निवास के सम्बन्ध में क्या निर्णय किया है?"
" जैसी आज्ञा हुई थी, राजधानी के ईशान में निवास की व्यवस्था कर दी गयी
है ।
"वह ख़ुशी की बात है । कल सूर्यास्त के पहले वे शायद यहाँ आ पहुँचेंगे,
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अभी-अभी यह समाचार मिला है। उन पर हमें बहुत विश्वास है यह बात किसी से छिपी नहीं। इसका यह मतलब नहीं कि वहीं विश्वास आप भी उन पर रखें। वे राजपसने की आन्तरिक व्यवस्था के लिए ही नियोजित हैं। फिर भी उनके यहाँ आने पर किसी-न-किसी तरह आपके साथ सीधा सम्बन्ध हो ही जाएगा, व्यावहारिक मामलों के कारण। जिस तरह हमें उनके प्रति विश्वास है, वैसा ही जब तक आपको भी नहीं हो जाए तब तक आप उनके प्रति सतक रहकर व्यवहार करेंगे। इससे हमें सुविधा होगी। हमारे साथ उनके मेल-जोल की बात ध्यान में रखकर आपको भी चैसा व्यवहार रखने की जरूरत नहीं। आप प्रधान हैं, वह मात्र एक हंग्गड़े। उन्हें भी अपने पद, अपनी मर्यादाओं का ज्ञान है. उनका व्यवहार उसी हात का होगा : हार के र स मोक, व्यवहार क्यों न करे, उन्हें औचित्य की सीमा से बाहर कभी नहीं जाना होगा।'
"जैसी आपकी आज्ञा।"
'युवरानी जी कह रही थी कि दण्डनायिका जी इधर कुछ समय से नहीं आयीं। दण्डनायक जी से सपत्नीक आने को कह दें।"
"आज हो?" "जब उन्हें फुरसत हो, आ जाएं।" "जो आज्ञा ।" "अच्छा प्रधाननी।" गंगराज उठे नहीं, बैट ही रहे। "क्या कुछ और बताना चाहते हैं?'' "कल महासन्निधान से भेंट की थी। वे बहुत परेशान हैं।"
"हमारी अस्वस्थता उन्हें चिन्तित बनाये होगी। आपको उन्हें धीरज बँधाना चाहिए। आपको मालूम है न, अब सिलहार के वैद्य भी आ गये हैं। अब चिकित्सा और अच्छी तरह से होगी।"
यह पहासन्निधान को मालूम है। जब सिलहार के वैद्यजी ने आपकी जाँच कर ली तो उन्हें उन्होंने बुलाकर उनसे विचार-विमर्श किया था। इसलिए प्रभु की इस अस्वस्थता के बारे में हमें उनसे कुछ भी कहने की जरूरत नहीं। स्वयं वैद्यजी पूरी तरह आश्वस्त कर चुके हैं।"
"तो फिर महासन्निधान की परेशानी का क्या कारण हो सकता है?" "उनके रहते आपका सिंहासनारोहण नहीं हुआ इसलिए।" "छि: दि. ऐसा कहीं हो सकता है, प्रधानजी?"
"यह सही है या ग़लत, इसकी चर्चा मैं नहीं करूंगा। पता नहीं उनका | अन्तमन क्या है कि जब कभी हम उनसे मिलने जाते हैं तो इतना जरूर कहते
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हैं, 'जल्दी ही युवराज को समझा-बुझाकर पट्टाभिषेक करवाएं।' ::
"उन्हें भय है कि कहीं मैं उनसे रहले न चल बसू। ऐसा हो भी सकता है। हमें भी कभी-कभी यही लगने लगता है। पता नहीं हम इस सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, आकाश आदि को फिर कभी देख पाएंगे या नहीं। युवरानी भी के धीरज वधाने पर हमें अपनी बातों पर ही हंसी आ गयी। परन्तु इतना तो सच है कि गत अमावस्या की रात को हमें जो तकलीफ़ हुई उसका वर्णन हम कर ही नहीं सकते। अब कुछ मानकिति पितः स है, कुछ साल गिरी हैं।''
__वास्तव में राज्य की सम्पूर्ण प्रजा प्रभु के स्वास्थ्य के लिए बहुत अधीर हो रही है। ऐसे सन्दर्भ में आप महाराज के अभीष्ट को पूरा कर देंगे तो वे भी नुप्त
होंगे।"
"इस महान पोसल वंश के गौरव को हम कलाकत नहीं करना चाहेंगे।"
“किसी भी समय इस तरह का नियम नहीं रहा है, प्रभो। पगणकाल में भी पत्र का पट्टाभिषेक करके दश होनेवाले अनेक महापुरुषों के नाम चाहेंगे तो निवेदन कर सकता हूँ। प्रभु स्वीकार करके महाराज के मन को सन्तुष्ट करें-द्वार-बार विनती करता हूँ।''
"यह निश्चय चर्चा या किसी दवाव से बदलनवाला नहीं, प्रधानजी। हमाग निर्णय अटल हैं।"
"तो मतलब यह हुआ कि प्रभु ने हमको क्षमा नहीं किया। जाने-अनजाने अपनी एक दिन की ग़लती से हमें महासन्निधान की चिन्ताग्रस्त देखना पड़ रहा हैं। आप हमें क्षमा करेंगे और उदारता दिखाएँगे-यही हमारा विश्वास था। प्रभु का चित्त प्रसन्न नहीं हुआ, हमारा दुर्भाग्य है।''
"आपने गलती की हो तो क्षमा करने का प्रश्न उठ सकता है। पर, उस दिन आपने और दण्डनायक जी ने हमारी आँखें खोल दी। हम आपके ऋणी हैं। चिण्णम दण्डनाथ जी ने कुछ फूहड़पन अवश्य दिखाया। उन्हें अधिक व्यामोह जो है इसलिए उनके इस व्यामोह के कारण कभी-कभी राजनीतिक जिज्ञासा उनके दिमाग़ तक नहीं पहुंच पाती। खैर इस बात को यहीं छोड़ दीजिए। आपके चित्त को इस प्रसंग को लेकर अब और कष्ट न हो, इसलिए हम स्वयं महासन्निधान से प्रार्थना करेंगे। ठीक है न?"
"अगर आप पट्टाभिषेक के लिए स्वीकृति देते हैं तो सभी को खुशी होगी।" ''अभी जैसे हैं वैसे ही रहने पर आप नाखुश हैं?"
"जिस सन्तोष की हम आशा करते हैं, वह यदि न मिले ता निराशा हो सकती है मगर वह असन्तोष नहीं कहलाएगा। प्रभु के मन में एक विचार आ सकता है। उस दिन 'सिंहासनारूढ़ नहीं होऊँगा' कहकर आज स्वीकार करते हैं
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तो प्रभ के व्यक्तित्व पर बट्टा लग सकता है। लेकिन ऐसा विचार करना प्रभु . के लिए उचित नहीं है, क्योंकि प्रभु की वचन-निष्ठा को साम्राज्य की सारी प्रजा अच्छी तरह जानती है। महाराजा और प्रजाजन की इच्छा है तो ऐसे दबाव को भी शिरोधार्य कर स्वीकृति दें, वह प्रभु की उदारता ही होगी। इसीलिए प्रभु इस पर पनविचार करें-यही हमारी प्रार्थना है।"
"पहले इतना तो हो कि हम स्वस्थ होकर चलने-फिरने योग्य हो लें, फिर बाद में यह सब सोचेंगे।" कहकर प्रभु बात टालकर घण्टी बजाकर बोले, "अच्छा
प्रधानजीं।"
सेवक ने आकर परदा एक ओर सरका दिया। प्रधान गंगगन बाहर चले आए।
उनके मन में कुह विचार उठे। सोचने लगे-पहली बार जब अंजन के बारे में प्रभु की चर्चा करनी थी तो गजकभार चल्लालदेव को प्रभु ने अपने साथ रखा था। और जब उसका परिणाम जानने ६ उ.वार : गो कार को नहीं बुलवाया गया इसका क्या कारण हो सकता है? पद्मला को वढू बना लेने की प्रभु की इच्छा नहीं है क्या? वह तो सब जानते हैं कि राजकगार पाला का चाहते हैं। तो क्या प्रभु राजकुमार को इस ओर से हटा लेना चाहते हैं? यदि ऐसा कर
गया तो उस लड़की के पविाय का क्या होगा? मेरी बहिन की मलबाजी और विपरीत मति के कारण सामानी से बन सकनेवाला काम बांटाल में पढ़ गया है। अव दण्डनायक जी और हिन को बुलाने का उद्देश्य शायद इस विश्य में स्पष्ट सूचना देने के लिए हो है। अब इसमें भेरा हस्तक्षेप करना ठीक नहीं। आगे यह वात कौन-सा रूप ले लेती है, इस जानकर ही कुछ सोचा-समझा जा सकता है। इतना तो ग्याप्ट है कि प्रभु प्रसन्न नहीं हैं। बेचारे दण्डनायक जी बड़ी सन्दिग्ध स्थिति में पड़ गये हैं। स्त्रियों का स्वार्थ, उनकी असूया, जल्दबाजी आदि के कारण क्या सब हो जाता है-यह जान पाना दुस्साध्य हैं। इन्हीं सब बातों पर साचते-विचारते प्रधानजी अपने घर पहंचे। और फिर युवराज के बुलावे की सूचना दण्डनायक जी के घर भिजवा दी।
दण्डनायक सम्पती ने. फारसत से आने की सूचना मिलने पर था. खबर पाते ही तुरन्त राजमहल जाने का निश्चय कर लिया। उन्हें वह आशंका भी नहीं हुई कि अमावस्या की रात का वह सारा वृत्तान्त प्रधानजी को और चवगल को मालूम सा गया । वामशक्ति पण्डित को जो देश निकाल का दण्ड मिन्ना था, उमकी भी
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र अभी तब नहीं पहुंची थी इसलिए नायिका ने सलाह दी कि जाते वक़्त अपनी बेटियों को भी साथ ले जाना चाहिए। युवराज ने दण्डनायक को और सुबरानी ने दण्डनानिका को देखने के इरादे से सूचना भिजवाई थी। दण्डनायक की दृष्टि में वह एक सामान्य बात ही थी। उन्होंने इतना ही कहा कि बच्चियाँ चलने के लिए तैयार हों तो लेती चलो। राजमहल जाने की तैयारी होने लगी। चामब्बे को चलते वक़्त अचानक याद आयी कि आज राजकुमार बल्लाल का जन्मदिन भी है। जन्मदिन के इस अवसर पर बुलावे के न आने पर दण्डनायिका को कुछ असन्तोष भी हुआ। धीरे से इस बात को पति के कानों में फुसफुसाया भी। बेटियाँ अभी तैयार होकर नहीं आयी थीं कि तभी दण्डनायक ने कहा- "युवराज की अस्वस्थता के कारण सब-कुछ अन्तःपुर तक ही सीमित है। अच्छा हुआ, तुम्हें याद आ गयी। यह भी एक अवसर हैं, अब जब राजमहल जा ही रहे हैं तो राजकुमार को जन्मदिन के उपलक्ष्य में भेंट देने के लिए कुछ लेकर चलना चाहिए।"
चामन्ये भीतर गयी ।
कुछ ही देर में सब तैयार होकर राजमहल की तरफ़ निकले। इनके आने की पूर्व सूचना न होने के कारण वहाँ का सेवक बिज्जिगा उन्हें प्रतीक्षा प्रकोष्ठ में बैठाकर अन्तःपुर से अनुमति लेकर आया तो उसके साथ दो परिचारिकाएँ भी आयीं । दण्डनायक को सेवक युवराज के विश्राम कक्ष तक ले आया। परिचारिकाओं में से एक दण्डनायिका को युक्रानी के अन्तःपुर- प्रकोष्ठ में ते गयी। दूसरी उन लड़कियों को अध्ययन कक्ष में ले गयी ।
कवि नागचन्द्र जी का अध्यापन चल रहा था । पद्मला, चामला और बोप्पदेवी - तीनों वहाँ एक भद्रासन पर जाकर बैठ गयीं ।
बिनिदेव चामला को देख मुस्करा उठा । बलाल ने उनके आने का एहसास होने पर भी अपनी ग्रीवा ऊपर नहीं उठायी। उदयादित्य ने ऐसी आश्चर्यभरी दृष्टि से देखा मानो बहुत दिनों बाद आयी थीं। वह सब-कुछ ऐसे ढंग से हुआ कि अध्यापन कार्य में कहीं व्यवधान नहीं आया। चामला और वोपि को यह सब सहज ही लग्श, मगर पद्मला का मन कुछ म्लान हो आया। बल्लाल ने उसकी ओर देखा भी नहीं । मुँह भी जैसे फुलाए बैठा हो । यह कुछ कर भी तो नहीं सकती थी। अपने घर पर ऐसा हुआ होता तो शायद उठकर चली जाती । यह राजमहल हैं। बैठने को कहने पर बैठना होगा। जहाँ बुलाएँ वहाँ जाना होगा। ऐसी स्थिति में वह लाचार थी, बैठे रहना पड़ा ।
पाठ चल रहा था । कवि चक्रवर्ती रन्न का 'साहस भीमविजय पढ़ा रहे थे- दुर्योधन कहीं दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। धर्मपुत्र युधिष्ठिर की छावनी में चर्चा
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हो रही है । द्रौपदी और भीम की जोड़ी अनल-अनिल की जोड़ी जैसी है। रन्न कवि का नायक भीम है। काव्य का विषय है भीम द्वारा द्रौपदी की जिज्ञासाएँ शान्त कर उसे सन्तुष्ट करना, विपम श्रृंगार आदि और इनकी क्रियान्विति के लिए सन्नद्ध भीम के साहसपूर्ण व्यक्तित्व को निरूपित करना। इस अवसर पर कवि गन्न भीम की आन्तरिक वेदना भीग के ही शब्दों में इस तरह व्यक्त करते हैं -
''सभा में मैंने जो प्रतिज्ञा की थी वह पूर्ण होने से चूक गयी। पांचाली के मुख की वा म्लानता नहीं गयी।'' इस पद्यांश को कवि नागचन्द्र बहुत ही रसपूर्ण गति से पढ़कर अर्थ समझा रहे थे। "सम्पूर्ण काव्य रचना इसी केन्द्रबिन्दु को लेकर हुई है। ऐसा क्या कारण था कि पांचाल की राजपत्री का मुख प्लान हुआ
और केवल इसी बात पर रुक्षेत्र की रणभूमि पर्वत जैसे विशाल गज़ग़जों के रक्त से प्लावित हो गयी। इतने पर भी द्रौपदी का म्लानबदन म्लान ही बना हुआ है। उसके मुख पर मन्दहास उपजाना है। यह तभी सम्भव है जर भीम उस दिन राजसभा में की गयी प्रतिज्ञा पूरी करें। और वह तभी पूरी होगी जब भीम दुयोधन की बंधा तोड़ देंगे। इसीलिए वह दुर्योधन को खोज रहा है, परन्तु वह कहीं दिख नहीं रहा है। ऐसी स्थिति में द्रौपदी की बदन-प्लानता दूर हो तो कैसे?" घोड़े शब्दों में सम्पूर्ण महाभारत की कथा कवि ने बहुत ही प्रभावशाली एवं मनोहर ढंग से कह दी है। साध-साध एक तत्त्व की बात भी कह दी है। "जो व्यक्ति स्त्रियों को ट्ख देते हैं, उन्हें पीड़ा पहुंचाते हैं, उनकी अप्रसन्न करते हैं-ऐसे ही व्यक्ति दुनिया में होनेवाले सारे विप्लवों का कारण बनते हैं। जो स्त्रियों के दुःख का निधारण कर उन्हें सुख-चैन देते हैं, उनकी कठिनाइयों का समाधान करते हैं. वे संसार में शान्ति स्थापित करने का कारण बनते हैं। अर्थात मानव का सुख मानिनियों को सुखी और तृप्त बनाये रखने में है। उन्हें अतृप्त रखकर, कष्ट पहुँचाकर, उनके सुख-सन्तोष को नष्ट करने से तो वह स्वयं अपने जीवन के लिए शूल बन जाता है। यह कवि का भाव है। काव्य के पढ़ने से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हम जिसे प्रेम करते हैं उसे सदा सुखी रखना चाहिए। यह हमारी पाठ संस्कृति का लक्षण है। नारी को मात्र भोग्य वस्तु मानकर चलना हमारी संस्कृति को रीति नहीं। उससे प्राप्त होनेवाले सुख के लिए हमें उसके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए । इतना ही नहीं, निष्टावान रहकर सदा उनके सुख का कारण बनकर रहना चाहिए।" इतना कष्ट निरूपण करने के बाद कवि नागचन्द्र रुक गये। ___ "कत्रि के विचार प्रशंसनीय हैं, परन्तु नारी को इस तरह रखने के इच्छुक पुरुष के प्रति नागं का भी कुङ कर्तव्य होना चाहिए न, गुरुजी? वहाँ बलिपुर में आपने मायण के संकट की रामकहानी सुनी है न?" विट्टिदेव ने पूछा।
"अपवाद तो राहने ही हैं। अपवाद तत्त्वनिरूपण के जाधार नहीं बनते। वैसी
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समस्या व्यक्तिगत बन जाती है।" कवि नागचन्द्र ने समझाया।
"मायण की वह रामकहानी क्या है? कौन है वह?"-बल्लाल ने जिज्ञासावश
"दण्डनायक जी की पुत्रियाँ आयी हैं। आपने देखा नहीं।" कहकर कवि नागचन्द्र ने उस ओर इंगित किया।
बल्लाल बों ही उस ओर एक बार देखने के बाद गुरुजी की और मुखातिब हो गया। वह समझ गया कि उस विषय पर अब आगे की यात नहीं होनी चाहिए।
कवि नागचन्द्र का ख्याल था कि बल्लात्त अब तक पद्मला को नहीं देख पाया है। लेकिन उसकी तरफ़ देखकर भी जब उसने कोई उत्साह नहीं दिखाया तो उन्हें आश्चर्य हुआ। मायण का किस्सा अब प्रासंगिक नहीं था। फिर भी कनि नागचन्द्र ने सोचा कि उसे न कहकर कुछ और कहे तो वे लड़कियाँ समझेंगी कि हमारी बजह से बात करना बन्द कर दिया है। इसलिए उन्होंने आज इतना ही कहकर अध्यापन समाप्त कर दिया। फिर बात बदलने के विचार से पद्मला की ओर देखकर पूछा, "दण्डनायक जी भी आये हैं?"
"हाँ, माँ भी आयी हैं।" पद्मला ने कहा। बात तो वह नागचन्द्र से कर रही थी, मगर दृष्टि अनजाने ही बल्लाल की ओर चली गयी थी।
'दण्डनायक जो सं मुझे मिलना था। अब यहां आये हुए हैं तो सोचता हूँ मिल न ।' करते हुए कवि नागचन्द्र उठ खड़े हुए। ___ शिष्य भी उठ खड़े हुए। उन्होंने गुरु को सविनय प्रणाम किया। कविजी चले गये। तब तक वल्लाल प्रतीक्षा कर रहा था। उसने बिट्टिदेव से कहा, "छोटे बप्पाजी, मुझे महासन्निधान के पास जाना है, तुम और उदय इनके साथ रहो।'
और इतना कहकर वह भी चला गया। पद्मला को पूरा विश्वास था कि बल्लाल जाते-जाते कम-से-कम एक बार उसकी ओर देखेगा तो जरूर। मगर उसने ऐसा भी नहीं किया। वह बेचारी बहुत निराश हुई। जिसे न करने का पाठ अभी-अभी गुरुजी से उसने पढ़ा था, वहीं करके चला गया।
चामला को बहुत आश्चर्य हुआ, बिट्टिदेव को भी। बल्लाल में एकाएक इतना परिवर्तन! यह ती जानी हुई बात थी कि इससे पद्मला को दुःख हुआ है इसलिए उसे खुश करने के लिए उन लोगों ने बातों-ही-बातों में एक निर्णय कर लिया।
"उदय, चलो हम सब मिलकर शतरंज खेलेंगे। भैया को महासन्निधान के पास राजकार्य रहा होगा, इसलिए वे वहाँ गये हैं। फिर आज जाने का मतलब है कोई बहुत जरूरी काम होगा।" बिट्टिदेव ने कहा।
"आज पर बड़ा जोर दिया आपने? क्या 'आज' के कोई सींग निकले है?"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 69
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चामला ने व्यंग्य किया।
"सींग हैं या नहीं, अपनी दीदी से पूछ लो ।" उसे यह सब कहाँ मालूम है न दीदी कन्धे को हिलाते हुए उस पर अपना हाथ रख दिया।
बहिन का हाथ परे सरकाकर पद्मला बाली, "सुपको तो बस तमाशा सूझा है। राजकुमार शतरंज खेलना चाहते हैं तो तुमने गप लड़ाना क्यों शुरू कर दिया ? चुप भी रहो।"
" आप सब लोग आएँगे तभी तो शतरंज का खेल हो सकेगा ।" बिट्टिदेव बोला ।
"हमें जाना होगा?" चामला ने पूछा ।
" आपको आना होगा, आपकी दीदी को भी और आपकी बहिन को भी।" "बीपि को खेलना नहीं आता ?" चामला ने कहा ।
बिट्टिदेव बोला ।
कहकर उसने बहिन के
"जीते हुए गोटे लेनेवाला भी तो कोई होना चाहिए। चलिए, आइए ।” – कहकर सभी को साथ ले अपने प्रकोष्ठ की ओर चल पड़ा।
"यदि हमें किसी ने बुला भेजा तो?" पद्मला ने पूछा 1
"मां के पास ख़बर भेज दी जाएगी कि आप लोग यहाँ हैं ।"
"हम ही वहाँ चली जाएँ तो?"
"नहीं, ऐसा होता तो आपको यहाँ नहीं बुला लाता। वे किसी राजकार्य की जब बात कर रहे होते हैं तो बच्चों को वहाँ नहीं रहने देते। आइए, आइए।" दण्डनायक जी की बेटियाँ और उदयादित्य उनके साथ उसी प्रकोष्ठ की ओर चल दिये ।
इधर युवराज के साथ दण्डनायक की और वहाँ युवरानी के साथ दण्डनायिका चाब्बे की बातें होती रहीं ।
घर लौटने पर पद्मला की जैसे किसी विषय में कोई दिलचस्पी ही नहीं रह गयी । उसका वह उत्साह भरा मन राजमहल से लौटने के बाद निराशा और उदासीनता में डूबकर पंख टूटे पंछी जैसा छटपटा रहा था। वह एकान्त चाहती थी । राजमहल में उपाहार अधिक हो गया बहाना कर वह शाम के भोजन के वक़्त भी सबके साथ नहीं मिली । युद्धभूमि से लौटे बल्लाल में उसने कुछ परिवर्तन देखा था। एक नयापन रूपित होने के लिए शायद वह सब आवश्यक रहा हो। परन्तु इस परिवर्तन के बावजूद उसके प्रति प्रेम में कमी होने की सम्भावना अब तक उसे नहीं लगती रही। बल्लाल का मिलना-जुलना अधिक न होने पर भी पद्यला को
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ऐसा नहीं लग रहा था कि उसका मन उदास है। परन्तु उस दिन, अपने जन्मदिन पर बुलवाकर यों उदासीनता का व्यवहार उसके लिए मानसिक पीड़ा दे गया। ठीक है, कुष्ठ विशेष राजकार्य के कारण महासन्निधान से मिलने जाने की बात बिट्टिदेय ने कही थी। हो भी सकता है। परन्तु राजमहल से लौटने पर माता-पिता ने भी राजमहल के किसी प्रसंग पर चर्चा तक नहीं की। ऐसा क्यों? कुछ खास बातें शायद हुई होंगी। राजमहल जाते समय जो उत्साह था वहाँ से लौटते वक्त उनमें वैसा कुछ नहीं दिखाई दिया। आखिर क्यों? यहाँ ऐसी क्या बातचीत हुई ? शायद मेरे ही बारे में कुछ बातों का निराकरण हुआ है। न, भगमन ऐसा न हो। जब राजकुमार का ही व्यवहार इस तरह उदसीन-सा रहा, तो हो सकता है, कुछ अनहोनी हुई हो। तब फिर मेरा क्या होगा? उसकी आँखें भर आयीं। दुःख दूना हो गया। वह बिस्तर पर औंधी पड़कर सिसकने लगी।
दण्डनायिका चामब्ये ने चामला से जान लिया कि राजमहल में बच्चे क्या करते रहे। उसे यह भी मालूम हो गया कि बेटी की इस हालत का कारण राजकुमार बल्लाल का उसके प्रति अनपेक्षित व्यवहार है। उसे समझा-बुझाकर साम्वना देने के इरादे से चामब्बे पद्मला के कमरे में गयी। उसे लेटी देख वह उसके बगल में जा बैठी। उसे उठाकर बैठापा । बोली- "पगली, तुझे क्या हुआ? राजकुमार ने बात नहीं की तो तुझे भूखा रहना चाहिए? कितने दिन ऐसे रहोगी? भूखी रहकर अगर कृश हो गयी तो क्या राजकुमार तुमसे ब्याह करेंगे? पगली कहीं की! कष्ट राजकार्य रहा होगा, जल्दी में गये थे। छोटे राजकुमार के कहने पर भी तुम कुछ उल्टा-सीधा सोचोगी तो कैसे बनेगा पद्मला ! उठ, चल, भोजन कर ले।"
“राजमहल से लौटने पर आप लोग भी तो प्रसन्न नहीं दिखे। मेरा भी अपमान हुआ ऐसी हालत में और क्या होगा?"
“युवराज को बीमार हालत देखकर हममें भी कौन-सा उत्साह हो सकता है। तुप ही कहो बेटी? हमने राजकुमार के लिए जो भेंट दी उसे युवरानी ने स्वीकार ही नहीं किया बल्कि कहा भी, 'दण्डनायिका जी, आपकी आत्मीयता राजपरिवार के साथ खुले दिल की होनी चाहिए।' इसलिए तुम एक छोटी बात को बड़ी बनाकर किसी भय की आशंका करके क्यों दुःखी होती हो? उठो।" कहकर बेटी को हाथ पकड़कर उठाया।
''माँ, युवरानी जी ने मेरे बारे में कुछ पूछा?" __ "सभी बच्चों के बारे में पूछा । तुम लोगों की पढ़ाई, संगीत, नाट्य आदि सब
कुछ...।'
"क्या हमारे राजमहल में होने की बात युवरानी जी को मालूम नहीं थी, माँ:" "मालूम तो थी, मगर तुमसे बात करने के लिए ऐसी कौन-सी जरूरत थी?
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शायद वे चाहती होंगी कि तुम लोग राजकुमारों के साथ रहो। इसीलिए तुम लोगों. को इस तरफ़ भेजकर हमें भीतर बुलवा लिया ।'
"तो आपका जलपान युवरानी जी के ही प्रकोष्ठ में हुआ?" "हाँ," चामब्बे का उत्तर था। "माँ, तुम कुछ भी कहो, युवरानी जी कुछ बदली-बदली लगती हैं।"
"इस वर्तमान परिस्थिति में उन्हें कुछ सूझता नहीं, बेटी। युवराज युद्ध में जख्मी होकर लौटे हैं। अभी तक घाब नहीं भग़। विस्तर से नहीं उठ पाते। यह देखकर वे भीतर-ही-भीतर बहुत दु:खी हैं, बेटी। उनके प्रत्येक व्यवहार के पीछे हमें इन सारी बातों का ध्यान रखना चाहिए। उनके प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए। वे माता हैं, शान्तमूर्ति माता, धरती जैसी क्षमाशील । तुम लोगों को अपने प्रकोष्ठ में नहीं बुलाया, इसलिए तुमको ऐसा-वैसा नहीं सोचना चाहिए। मान लो कल तुम ही महारानी बन गयी तो सबसे सभी मौकों पर मिल सकोगी? सभी को अपने पास बुला सकोगी? तुम्हें उनकी हालत का पता नहीं, बेटी। वे वही पहले जैसी हमारी युवरानी हैं। उठी, आओ," कहकर चामध्ये आगे बढ़ गयी। ___ग की इन बातों ने उपमें पिर आधा की जीत जगा दी। कल के दिन तुम्हीं पाहारानी...' हाँ, इसीलिए तो माँ ने इस तरह मुझसे कहा है-पद्मला को यही लगने लगा। उस बेचारी को क्या मालूम कि माँ मन में कुछ रखती है, कहती कुछ और है। मन को ढाढस बँधाकर वह माँ के पीछे-पीछे भोजन के लिए चल पड़ी। बेटी ने भोजन कर लिया तो दण्टनायिका उसे शयनागार तक छोड़ स्वयं दण्डनायक जी के कमरे की ओर बढ़ गयी।
दण्डनायक पलंग पर तकिये का सहारा लेकर पैर पसारे चिन्तामग्न बैठे थे। दण्डनायका ने अन्दर प्रवेश करके किवाइ बन्द कर लिये। कुण्डी चढ़ाने की आवाज सुनकर टण्डनायक प्रकृतिस्थ हुए। पलंग पर ही कुछ सरककर उन्होंने दण्डनायिका को बैठने के लिए जगह दी। दण्टुनायिका बैठ गयी।
"क्या बातचीत की युवरानी ने?" सीधा सवाल किया दण्डनायक ने। युवराज और दण्डनायक जी के बीच जो बातचीत हुई थी उसी पृष्ठभूमि में शायद युवरानी से दण्डनायिका की बातचीत हुई होगी-यही सोच दण्डनायक कुछ-कुछ ऊहापोह में पड़ गये। युवराज से बातचीत करते हुए उन्हें कुछ पता नहीं चला था। इसलिए जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी दण्डनायिका से विषय जानने का कुतूहल हो रहा था। दण्डनायिका का भी कुछ-कुछ यही हाल था। इसलिए चापब्बे ने ही पूछा, 'युवराज ने आपसे क्या बातचीत की?"
"सवाल के लिए सवाल उत्तर नहीं होता । युवरानी जी से क्या बात हुई?" "न, पहले आप बताइए।"
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“मैं सब-कुछ नहीं बता सकता। कुछ बाते राजनीति की होती हैं, उन सबके . विषय में स्त्रियों को बताने का विधान नहीं है। इसलिए तुम्हारे और युवरानी जी के बीच क्या बातें हुईं, सो बताओ। उसी विषय पर यदि युवराज से मेरी बातें हुई हांगी तो वह सब मैं बता दूंगा।" ___"आप पहले मेरे ही मुँह से कहलवाना चाहते हैं न? अच्छी बात है। मेरी बेटियों का भविष्य मेरे लिए प्रधान है। पहले मैं ही कहूंगी। जो भी बातें यहाँ हुई हू-ब-हू बताऊँगी। ओर फिर आप ही बताएँ, क्या करना है। मेरे पहुँचने पर युवरानी ने बड़े हर्ष के साथ मेरा स्वागत किया और कहा, 'आइए दण्डनायिका जी, बहुत दिनों से दिखी नहीं, सो कहलवा भेजा। आज ही आ गयौं, बहुत खुशी हुई। बैंठिए।
'मैं बैठ गयी और बोली, 'मालिक ने पूछा कि राजपहल से बुलावा आया है, कब चलेंगे? मैंने कहा, जब राजमहल से बुलावा आया, तो सोचना क्या? आज हीं चलें। घर से निकलते समय याद आया कि राजकुमार जी का जन्मदिन है। हमारी तरफ़ से उनके लिए यह छोटी-सी भेंट स्वीकार करें। मैंने वह भेंट उनके सामने रख दी। ___'युवराज की अस्वस्थता के कारण हमने किसी को खबर नहीं दी। आप लोग आज ही आएंगे इस बात की हमें कोई उम्मीद भी नहीं थी। फिर भी आप आये, अच्छा हुआ। आप लोगों की राजपरिवार के साथ आत्मीयता सदा खुले दिल से हो, यही हमारी इच्छा रहती है'-इतना कहकर उन्होंने वह भेंट लेकर पास की एक चौकी पर थाली में रख दी। ___'राजकुमार...' मैं कह रही थी कि युवरानी जी बीच में बोल उठी, वे अभी अपनी पढ़ाई में लगे हैं और आपकी बेटियाँ भी वहीं हैं। बाद में यह उसे दे दूंगी। ठीक है न? या फिर आप ही उसके हाथ में देना चाहेंगी?'
'ऐसा कुछ नहीं। यों ही देखने की इच्छा हुई' मैंने कहा । तब तक मेरे मन में यह खटक रहा था कि आखिर बच्चियों को मेरे साथ भला क्यों नहीं आने दिया। लेकिन तब मुझे लगा कि यह अच्छा ही हुआ।
'अगर आप चाहती हों तो कहिए, बुलवा लेती हूँ!' युवरानी ने कहा। 'नहीं'-मैंने कहा।
बाद में मैंने युवराज के स्वास्थ्य के सम्बन्ध में पूछताछ की, 'सुना कि सिलहार के एक वैद्यजी आये हैं। आजकल उन्हीं की चिकित्सा चल रही है। मुझे यह बात मालूम ही नहीं थी। क्या सिलहार के वैद्यजी चालुक्य चक्रवर्तिनी पिरियरसी जी के मायके की तरफ़ के हैं?'
'हाँ ।' उन्होंने कहा।
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'तो शायद बलिपुर के हेग्गड़ेजी ने भेजा होगा?' मैंने फिर पूछा।
युबगनीजी हँस पड़ीं। बोली, "एक साधारण हेगड़े का क्या इतना प्रभाव हो सकता है दण्डनायिका जी? प्रभु की अस्वस्थता का समाचार चालुक्य चक्रवर्ती को मालूम हुआ तो पिरिवरसी जी ने हरकारे को करहाट भेजकर वैद्य को यहाँ भिजवाया है। कुछ भी हो बड़े बड़े होते हैं। देखिए न, इतनी दूर रहनेवाले, और हपसे भी ऊंचे स्तर पर रहनेवाले उन लोगों ने हमारे लिए रुचि लेकर वैद्यजी को भेजा, ये कितने ऊँचे और गुणवान हैं। परन्तु यहाँ अपने ही लोगों को खबर देकर बुलवाना पड़ रहा है। भगवदिच्छा! प्रभु का तो यह नया ही जन्म हुआ समझो।'
मुझे कुछ टीस-सी लगी। सिर झुकाकर बैठ गयी। ___'यह क्या दण्डनायिका जी, आप ऐसे क्यों बैठ गयीं? मैंने आपके बारे में तो ऐसा नहीं कहा। मेरे कहने का मात्र इतना अभिप्राय था कि आमतौर पर लोगों की मनोवृत्ति ऐसी होती है। आपकी आत्मीयता की साक्षी तो यह है कि आपको राजकुमार के जन्मदिन तक का स्मरण है। हमें क्या चाहिए दण्डनायिका जी, आपका कुशल, राजघराने का कुशल, गुरुजनों का कुशल, अधिकारी वर्ग, नौकर-चाकर, प्रजाजन इन सबका कुशल । यही न हनं चाहिए?
'यह तो सभी लोग जानते हैं, युवरानी जी।' 'मुझे इस बात पर विश्वास नहीं।' 'क्यों खुवसनी जी, किसी के विषय में...'
'निश्चित रूप से कैसे कहूँ, दण्डनायिका जी? राष्ट्र और प्रजा के हित को ध्यान में रखते हुए, पता नहीं किसे, प्रधानजी ने देश-निकाले का दण्ड दिया है। सुबह प्रभु ने युवराज को यह बात बतायी है। उन्होंने यह भी बताया-देखो, हम इतने प्रेम और वात्सल्य से व्यवहार करते हैं फिर भी कुछ स्वार्थी लोग हमारा अहित चाहते हैं। यह तो हमारा और हमारे इस राज्य का परम सौभाग्य है कि हमारे प्रधानजी जैसे निःस्वार्थ, निस्पृह व्यक्ति के नेतृत्व में राज्य का कारोबार चल रहा है। आपके भाईजी की इस निस्पृह सेवा से आपको खुशी नहीं हैं?' युवरानी ने कहा।
'देश-निकाले का दण्ड टेना हो तो...अपराध भी गुरुतर ही होना चाहिए। किसने ऐसा अपराध किया? कुछ पता...' ___ 'हमें मालूम नहीं। हम कैसे करें? प्रभु ने जब आपके भाईजी की निष्ठा की प्रशंसा करते हुए प्रसंगवश यह बात कही तो मैंने इसका ब्यौरा जानने की कोशिश नहीं की। प्रयोजन भी क्या है? आपके भाई के प्रति मेरे मन में जो गौरव रहा है वह यह बात सुनकर दुगुना-चौगुना हो गया।'
'ऐसे भाई की बहिन मैं भी भाग्यशालिनी हूँ।'
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'आपको ऐसे भाई की वैसी बहिन बनकर उन्हें और अधिक गौरवान्वित करना चाहिए, टण्टनायिका जी।' ___मैं मायर्क और ससुग़ल दोनों घरानों की प्रतिष्ठा को बनाये रखने का सदा प्रयास करती आयी हूँ। राजघराने के उदार आश्रय में रहकर ही हम उस गौरव और प्रतिष्ठा की रक्षा करने में समर्थ हुए हैं।
गौरव और प्रतिष्ठा का आप प्रदर्शन करें तो उसका कोई मूल्य नहीं होता। जब दूसरे लोग खुद प्रेरित होकर इस गौरव की भावना को अपने-आप व्यक्त करें तभी उसके महत्त्व का मूल्य है।'
'दूसरों द्वारा व्यक्त न होने पर उस गौरव-प्रतिष्ठा की क्रम-से-कम कोई हानि तो नहीं होगी।
"ऐसा समझना केवल भ्रम होगा। गौरव कोई प्रदर्शन की वस्तु नहीं, दण्डनायिका जी। वह बाजार में विकनेवाली चीज़ भी नहीं। कौन आँक सकता हैं उसका मूल्य! अधिकार या ऐश्वयं के प्रदर्शन से नहीं मिलता गौरव । यदि मिलता भी है तो वह अन्तर की प्रेरणा से प्राप्त गौरव नहीं। जो अन्तस की प्रेरणा से प्राप्त गौरव होगा वही शाश्वत होगा। स्थान-मान के कारण मिलनेवाला गौरव कभी शाश्वत हो सकता है।"
'इतनी दूर तक सोचने की मुझमें सामथ्र्य कहाँ?'
'आप जिस स्थान पर हैं. जसा सपान पर रनेवालों को याताल परनी चाहिए।'
'बचपन में हमें ऐसा शिक्षण ही नहीं मिला।
'यह सब शिक्षण मात्र से नहीं आता, दण्डनाविका जी। मन की संकीर्णता को, स्वार्थ को छोड़कर यदि विशान्न मनोभाव से सभी बातों को हृदयंगम किया जाए, उन्हें आचरण में उतारा जाए तो वह स्वयं मालूम हो जाएगा। अलग से शिक्षण की आवश्यकता ही कहाँ : उदाहरण के लिए कहती हूँ। मैं, आप और माचिकब्बे साधारण पहनावे पहनकर अपरिचिल लोगों के बीच में पहुँच जाएँ ती लोग हमारी हस्ती-हैसियत को पहचान सकेंगे?'
'नहीं।'
‘ऐसे स्थान पर भी लोग यदि आपके बारे में सदभाव रखें तो वह आपके व्यक्तित्व की शक्ति है। वही गौरव का प्रथम चरण है। इसलिए पद वा अधिकार के गर्व से हम अपने को भुला दें और अपने व्यक्तित्व को विकसित न करें तो हम ऊँचे स्थान पर रहने योग्य नहीं बन सकेंगे। इस वजह से ऊंचे स्थानों पर रहनेवाले हम लोगों का क्या यह कर्तव्य नहीं हो जाता कि कार्य-कारण संयोग से हम अपने से निम्न स्तर पर रहनेवालों का मार्गदर्शन करें?'
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'हाँ, एक तरह से युवरानी जी का कहना ठीक है। परन्तु निम्न स्तर पर . रहनेवाले अगर किसी दुराभाव से बेवकूफ़ी करें तो उसे भी सहना होगा?
'वह बेवकूफ़ी यदि दुराभाव के कारण की गयी है, तो तब तक संयम बनाये रखना चाहिए कि जब तक वह दुराभाव साबित न हो जाय। इसी में बड़प्पन है। अपने दृष्टिकोण से दूसरों के आचरण को नमक-मिर्च लगाकर देखना तो निरी मूर्खता होगी। फिर सम्भ्रान्त व्यक्तियों में तो इस तरह की मूर्खता की गन्ध तक नहीं होनी चाहिए। ठीक कहती हूँ न?' ___ किसी ने युवरानी जी के मन को अपने आचरण से दुःख पहुंचाया है क्या? कौन हैं व-यदि बता सकें तो...।' _ छिः छिः, ऐसा कुछ नहीं। मनुष्य के जीवन में ऐसी बहुत-सी घटनाएं हो जागा काती हैं। यों ही बैठे. लाले, पता नहीं किन्नी ही बातें पन में आती रहती हैं। और इस बीच कोई बातचीत करनेवाला मिल जाय तो वे बातें खुद-ब-खुद बाहर निकल आती हैं। इसलिए इन सब बातों को एक लौकिक व्यवहार की रीति ही समझना चाहिए, दण्डनायिका जी।'
बात वहीं रुक गयी। मैं मौन हो रही। युवरानी जी भी मौन हो गयीं। कुछेक क्षण चों ही बैठी रहकर, मैंने कहा- 'अब तक इधर-उधर की बातें हुई। आने का आदेश था, आयी। बुलावा किसलिए था, यह अब तक मालूम नहीं पड़ा। __ 'कोई ख़ास बात नहीं। बहुत दिन से देखा नहीं था। बलिपुर से हमारे लौटने के बाद राजमहल में किसी से इधर-उधर की बातें करते-करते आपकी बड़ी लड़की की शादी युवराज के लौटते ही कराने की बात सुनाई दी थी। आये इतने दिन बीत गये तो भी उस बारे में कोई खबर नहीं मिली। यही समाचार सुनने-जानने की इच्छा थी।' युवरानी ने कहा। ___'प्रभु जब तक पूर्णरूप से नीरोग नहीं हो जाते, हमारी कोई विशेष बात उनसे निवेदन करना उचित नहीं होगा। मैंन और दण्डनायक जी ने यही निर्णय लिया है। मैंने बड़े उत्साह से कहा। ___ 'युवराज के नीरोग होने तक लोग अपने-अपने कार्य चों क्यों रोक रखें: ऐसा सोचना टीक नहीं है। आप विवाह उत्सव सम्पन्न करें। युवरानी जी बोली।
'हम इसो स्वीकृति की प्रतीक्षा कर रहे थे। मैं खुशी से फूल उटी।
'इसमें हमारी स्वीकृति की भला क्या जरूरत, दण्डनायिका जी: वधू-वर को आशीर्वाद देना हमारा कर्तव्य है, सो इसका निर्वाह हम अवश्य करेंगे।' युवरानी जी ने कहा।
मुझे उनसे इस तरह के उत्तर की अपेक्षा नहीं थी। यह सुनकर मैं तो सन्न रह गयी। फिर भी मैंने इतना ही कहा, 'पालिक से कहूँगी।' और इस तरह बात
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कहीं से शुरू हुई थी और कहीं आकर रुकी। मैं उमंग से वहाँ गयी थी और जब लौटी तो निराश होकर। अब तो आप खुश हैं। हमारी पद्मला का भविष्य अब समाप्त हुआ समझी। ऐसा क्यों हुआ, यहीं मालूम नहीं पड़ा। राजकुमार का भी मन बदला हुआ-सा लगता है।" इस तरह विस्तारपूर्वक दण्डनायिका को जो कहना था सो सब कह दिया-राजमहल में हुई सारी बात भी और अपनी बात भी।
"राजकुमार का मन भी बदल गया? किसने कहा?'' दण्डनायक ने पूछा ।
"प्रस्तुत प्रसंग से ही यह स्पष्ट हो जाता है। वहाँ-जहाँ ये सब बच्चे थे, क्या हुआ, मालूम है" दण्इनायिका ने वह सारा वृत्तान्त भी कह सुनाया और पद्यला को समझाने-बुझाने की राय भी दी और फिर पूछा, “अब आप भी बताइए, प्रभु मे आपसे क्या कहा?"
दण्डनायक तुरत कुछ नहीं बोले। दण्डनायिका ने अभी तक जो कुछ बताया यह उनके भीतर घुमड़ रहा था। युवरानी की बातें उन्हें जैसे भीतर-ही-भीतर चांद रही थीं। ये सोचने लगे : फिर भी उन्होंने वामशक्ति पण्डित के बारे में कुछ नहीं कहा : तो क्या उस सम्बन्ध में उन्हें जानकारी नहीं थी? या जानकर भी कुछ नहीं बोली? राजकुमार का व्यवहार तो सचमुच अप्रत्याशित था। ऐसी हालत में उन्हें पदाला के विषय में यदि सन्देह होता है तो कोई आश्चर्य नहीं। पर, पद्मला किस तरह से उनके सन्देह का कारण बन सकती हैं? हाल में हुई भेंट के समय भी वे सदा की तरह सहज भाव से पिले। अब ऐसा अचानक क्यों हुआ : इन विचारों में वह तालमेल नहीं बैठा पा रहे थे। उन्हें लगा कि बेटियों को साथ न ले गये होते तो अच्छा होता। उन्होंने यह अपनी पत्नी से भी कहा। ___ मालिक मना कर देते तो मैं ही क्यों अनुरोध करती?" टण्डनायिका ने उत्तर दिया।
“मैंने समझा था कि सब ठीक है। परन्तु सोचा कुछ और हुआ कुछ और। मैं अब सिर उठाकर चल भी नहीं सकता। इस सबका कारण तुम हो। किसी का कहा न मानकर तुमने ऐसी हालत पैदा कर दी है।"
''हाँ, सारी बुराई की जड़ मैं ही हूँ। सारी ग़लती मुझ ही पर थोप दीजिए।"
'साल-भर से ज़्यादा नुप रहकर फिर तुम उस बामशक्ति पण्डित के पास क्यों गयीं? अंजन लगाने की स्वीकृति क्यों दी? मुझसे पूछा था...?"
आपसे पूछा नहीं, ग़लती हुई। पर आपने उसे घर पर क्यों बुलवाया? मैं तो इससे वही समझी थी कि आपकी भी स्वीकृति है।"
"मैंने उस बात को गुप्त ही रखने के इरादे से ऐसा किया था।" "अभी प्रकट ही क्या हुआ? उस अंजन की बात किसे मालूम है? यदि यह
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बात राजमहल तक पहुँची होती तो युवरानी जी कहे बिना न रहतीं, यही क्यों, खरी-खोटी भी सुनातीं।"
“मुझे भी यही आश्चर्य है कि युवरानी जी ने तुमसे यह यात क्यों नहीं छेड़ी!"
"तो क्या प्रभु की आपसे इस सम्बन्ध में कोई बात हुई ?'' "प्रभु ने यहीं-केवल यही बात की। तुम्हारे भाई ने सारी बातें कह दी हैं।" "उन्हें कहाँ से मालूम हुआ:" ।
“यह मैं नहीं जानता। प्रभु से भी कैसे पूछ सकता हूँ? प्रभु जय वह सारा हाल, जो हमारे घर में हुआ था, विस्तार से सुना रहे थे तब सिर्फ़ हाँ कहते हुए सिर झुकाकर बैठने के सिवा मेरे लिए और चारा ही क्या था? कुछ उत्तर देने का मौका ही नहीं मिला 1 मुझे तो जैसे काठ मार गया था। बात जो घटी उसे प्रभु हू-ब-हृ कह रहे थे। उन्हें किसने बताया होगा। इस तरह से? केवल हम ही चार लोग-मैं, तुम, वामशक्ति और चोंकी-ही तो जानते हैं इस बात को।" ।
"मैंने किसी से कहा नहीं, आपने भी नहीं कहा। बच्चों को भी इसकी गन्ध तक नहीं पहुँचने दी। तब तां जाहिर है, बाकी दोनों में से किसी एक ने कहा होगा। चोकी को बुलवाकर पूछा जाय।"
"अब उससे क्या होगा? उससं कुछ और कहलवाना तो सम्भव है नहीं।" "इस तरह पीठ पीछे छुरा घोंपनेवालों को सजा दी जानी चाहिए।"
"यदि खुट जाकर कहा हो तो वह द्रोह होगा। चोकी जाकर कहे, यह सम्भव नहीं। यह साधारण नौकर मात्र है। उसके लिए प्रभु तक वह नहीं पहुँच सकता।"
"तो क्या आप समझते हैं कि वामशक्ति ने ही जाकर कहा है।"
"हो सकता है। उसके बार-बार जोर देकर पूछने पर भी तुमने यह नहीं बताया कि अंजन में क्या देखा। इससे वह असमंजस में पड़ गया होगा।" । ____ “आपने कहा था-'कुछ नहीं दिख रहा है', यह भी तो उसके असमंजस का कारण हो सकता है?'
"जिसे देखा नहीं उसे मैं 'देखा कहूँ भी कैसे? उसे भी मालूम है कि कुछ लोगों को दिखता हैं, कुछ को नहीं। परन्तु जिसे दिखा वह भी अगर न कहे तो असमंजस नहीं होगा? वास्तव में तुमने उस बात को मुझे भी नहीं बताया।"
'मैंने कहा नहीं, इसके लिए असमंजस हो सकता है। परन्तु न जानने पर नुकसान ही क्या था?"
"नुकसान नहीं: सुन-समझकर मैं अपनी स्थिति स्पष्ट कर लेता हूँ। परन्तु तुमने तो उसके मनोभाव को समझा ही नहीं। वह तुम्हारी मदद करने आया था। तुम भी सहायता पाने की आशा से उसके पास गयी थी तो तुम्हें उस पर पूरा
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विश्वास दिखाना चाहिए था।"
तो क्या जिस बात को नहीं कहना चाहिए उसे भी कह देती ?" भला ऐसा तुमने क्या देखा - कम-से-कम मुझे तो बताओ।" " अब जाने भी दो उस बात को "
"अभी यह प्रसंग समाप्त नहीं हुआ है। प्रभु को तब तक समाधान नहीं होगा जब तक यह मालूम न हो जाय कि तुमने क्या देखा था । "
"मतलब ?"
1
"लगता है, प्रभु ने मन-ही-मन निश्चय कर रखा है कि यह बात जानकर ही रहेंगे। उन्होंने इसी आशय से मुझसे यह पूछा कि मैं यह सब जानता हूँ। जब मैंने कहा कि नहीं जानता तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। मेरे पूछने पर भी तुमने बताया नहीं - जब मैंने यह बात कही तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ। वे शायद यही सोचते होंगे कि मैंने झूठ कहा। अन्त में वह क्या बोले जानती हो? 'दण्डनायक जी, हमने आप पर पूरा भरोसा रखा है। हमारी मान्यता है कि आप हमसे कोई बात नहीं छिपाएँगे। परन्तु इस सम्बन्ध में आप कुछ आगा-पीछा कर रहे हैं। हमारे बारे में आपका यह व्यवहार कहाँ तक उचित है यह खुद ही सोच लें।' मैंने कहा, 'भगवान की सौगन्ध हैं, मैं कुछ नहीं जानता।' 'दर्याफ़्त कर सच-सच जानकारी दीजिए।' प्रभु ने कहा यह भी कहा, 'जब तक सारी बात स्पष्ट नहीं हो जाती है तब तक मेरा मन शान्त नहीं होगा। कल प्रातः तक आपकी तरफ़ से हमें सही सूचना मिल ही जानी चाहिए।' इतना कहकर बात ख़त्म कर दी। तुम्हारी सलाह के मुताबिक विवाह की बात छेड़ने के लिए मौका ही नहीं मिल सका। अपराधी की तरह उनके सामने बैठे रहने की हालत थी । कम-से-कम अब तो सब कुछ बता दो। अगर अब भी नहीं बताना चाहती हो तो हमें आज ही रात सारे परिवार के साथ राजधानी छोड़ देनी होगी। आगे तुम्हारी मरजी। मुझे अब तक सत्यनिष्ठ माना जाता रहा, किन्तु इस ढलती उम्र में अब तुम्हारी वजह से सर झुकाना पड़ रहा है । "
"मैं स्वयं जब उसमें विश्वास नहीं करती तो उसे कहने से क्या लाभ? मैं जिसे देखना चाहती थी वह तो दिखा ही नहीं ।"
"किसे देखने की चाह घी?"
"मैंने सोचा था कि मेरी बैरी बलिपुर की हेग्गड़ती दिखेगी, जो अब दोरसमुद्र में ही बैठकर हमारे उस आशा-सौध को ढहाने में लगी है ।"
"तो तुम्हें कौन दिखाई पड़े?"
"बतलाना ही होगा : "
" बतलाने की इच्छा न हो तो बिस्तरा बकुना बाँध लो, रात ही को कूच कर
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"वह नहीं होगा, मालिक। ऐसा हो ही नहीं सकता। इसीलिए तो मैंने कहा नहीं। आप भी सुनकर उस पर विश्वास नहीं कर सकेंगे। पुझे उसमें प्रभु दिखे। तुरन्त मेरे मन में आया कि वे हमारी आशा-आकांक्षाओं के काँटे बनेंगे तभी वह वामशक्ति कछ दूर पर दिखाई पड़ा। उसने मुंठ धाँधकर तीन बार फंक मारी और फिर हथेली पसार दी। तलवार हाथ में लिये प्रभु जहाँ खड़े थे वहीं गिर पड़े। हाय! हाय! मुझे इस दृश्य को देखना ही नहीं चाहिए था। मैं अन्धी हो जाती तो कितना अच्छा होता। मेरे दिमाग में इस अंजन की बात ही क्यों सूझी, भालूम नहीं। उस वन्त उसने जो कहा..." चामन्चे का गला रुध आया। हिचकी बंध गयी, वह सिसकने लग गयी, आंसू बह निकल।
अंजन में तुम्हें कोई कुछ कहता भी सुनाई पड़ा?" दण्डनायक ने पूछा । स्वयं पर संयम रातकर चामब्बे बोली, "वहाँ सुनाई देने जैसा कुछ होना नहीं, केवन दिखाई हीं देता है। उसी पर से बह सवाल पूछकर उसका अर्थ बतलाता है। वही अथ...आपको याद नहीं दण्डनायिका ने कहा।
''याद नहीं, क्या कहा था...?"
"वामशक्ति ने कहा था-'इससे होनेवाला भला-बुरा सब आपसे सन्धित है। जो उनमें दिखाई दिया, मेरा वह, रक्षागायन्त्र उसके विरुद्ध आपका संरक्षण करेगा। आपने स्पष्ट रूप से नहीं कहा, इसीलिए आपके मनोगत को भांपकर काम करने की आज्ञा हमने अपनी शक्ति को दे दी। उसने अपना काम कर दिया। यदि आप चाहेंगी नो और ज्यादा आपकी मदद करेंगे।' मैंने तभी कहा था- नहीं, हो सकता हो तो अपनी शक्ति को वापस ले लें।' हाय! हाय!... मालिक...क्या हुआ, करना चाहा कुछ, हुआ कुछ और, क्या से क्या हो गया ! अब क्या करना चाहिए: मेरे मन में भी कभी प्रभु, के अहित की बात नहीं आयी। जब आपने बेलापुरी जाकर अपनी पत्नी को स्वीकार करने की प्रार्थना प्रभु से की थी और तब प्रभु ने जो कहा था, 'अभी उसके बारे में कोई विचार ही नहीं तो कुछ खिन्नता मझे ज़रूर हुई थी। परन्त...कभी...मैंने प्रभु की बुगई नहीं बाही, मालिक। इस मात को आप प्रभु से निवेदन कैसे करेंगे' फिर ऐसा कहना ठीक भी होगा या नहीं, यह सोचकर ही मैंने आपसे इस बारे में कुछ नहीं कहा। अपने भीतर की इस पीड़ा को भगतने का निर्णय तव मैंने स्वयं कर लिया था। लेकिन अब कहने के अलावा कोई चारा ही नहीं रहा इसलिए कह दिया। आप जो चाहं, करें। मैंने तो उसी गत को उसके जाते ही न चारों यन्त्रों को निकालकर कूड़े में फेंक दिया धा।"
"फेंक दिया, अच्छा किया। कूड़े के बदले काँ में फेंक देती।"
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"की में रहने पर किसी की नजर उस पर नहीं पड़ेगी, कूड़े के साथ चला जाएगा। कार में रहने से यह भावना बनी रहती कि वह यहाँ है। इन घामाचारियों से तो भगवान बचाए।"
''पहले से इतनी अक्ल आ गयी होती तो कितना अच्छा होता! पर हाँ, चोट लगने पर ही तो अक्ल आती है।"
"अब क्या करना होगा?" 'तुम्हारे भाई से विचार-विमर्श कर निर्णय करूँगा कि क्या करना चाहिए।" ''हाय! भैया से न कहें?"
"तुम्हारी सलाह की जरूरत नहीं। मुझे जैसा लगेगा करूँगा। इसमें तुमने एक ही अच्छा काम किया है, वह यह कि तुमने बच्चों को इन बातों से दूर रखा है।"
"अब पद्मला का क्या होगा:" मैं अभी कुछ नहीं कह सकता।" 'मतलब"
“अभी मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा है। शान्त चित्त होने पर ही सोच सकूँगा। उसे कुछ तसल्ली दी है न। अच्छा, अब तुम जा सकती हो।”
चामव्ये धीरे-से कियाई खोलकर बाहर निकल गयी।
दण्डनायक सोचते-सोचते लेट गये। कब आँख लगी सो उन्हें भी पता न चला।
इन सभी प्रसंगों के बीच एक ही ऐसा प्रसंग था जो टण्डनायिका के मन को कुछ सन्तोष दे सका और वह था हेगड़े परिवार के टहराने की व्यवस्था। पूर्व सूचना के अनुसार हेगड़ेजी का परिवार दोरसमुद्र जा पहुँचा और ईशान में स्थित उस निगस में ठहराया गया। काफी समय से खाली पड़ा रहने के कारण इस निवासस्थान का पिछवाड़ा एक जंगल-सा बन गया था। कहाँ बलिपुर के निवास का पिछवाड़ा और कहाँ यह झाड़-झंखाष्ट्र से भरा जंगल। उन्होंने तत्काल उसे साफ़ कराने का निश्चय किया। बलिपुर के निवास से यह निवास बड़ा ही था। इसलिए हेगडेजी के सारे परिवार को वहाँ ठहरने में कोई दिक्कत नहीं पडी। सारे परिवार को निवास में टहराकर हेग्गड़ेजी उसी यात्रा के लिबास में अकेले राजमहल प्रभु के दर्शन करने जा पहुँचे। सबके राजधानी सुरक्षित पहुँचने का समाचार सुनकर युवराज सन्तुष्ट हुए। परस्पर कुशल-क्षेम के बाद प्रभु एरेयंग ने कहा, ''अच्छा हेगड़ेजी, आप इस लम्बी यात्रा से थक गये होंगे। निवास-स्थान को व्यवस्थित कराकर पहले जाकर विश्राम करें। बाद में यहाँ के कार्य के सम्बन्ध में यथावश्यक
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निर्देश आपको मिल जाएंगे।"
"निवास को व्यवस्थित करने के लिए तो स्त्रिचौं हैं, नौकर-चाकर हैं। फिर सदा घुड़सवारी करनेवाले हम जैसों के लिए यात्रा की थकावट की बात ही कहाँ उठती है? जैसे बलिपुर में रात को विश्राम करते थे उसी तरह विश्राम लेकर ही हमने वह यात्रा की है। इसलिए कल से ही..." ___"आपका कहना ठीक है फिर भी आप फ़िलहाल अपने निवास की व्यवस्था आदि की तरफ़ ही ध्यान दें। बाद में हम कहला भेजेंगे।" __ "जैसी आपकी आज्ञा".-कहकर हेगड़े मारसिंगय्या ने खड़े होकर सिर नवाया। युवराज ने घण्टी बजायी।
हेगड़े के इतनी जल्दी राजमहल से लौट आने पर हेग्गड़ती को बड़ा आश्चर्य हुआ। घर में कदम रखते ही हेग्गड़ती ने पूछा-'युवराज का स्वास्थ्य कैसा है?"
__"सुना हैं कि अमावस्या को उनकी हालत बहुत बिगड़ गयी थी। लेकिन अब स्वास्थ्य में तेजी से सुधार हो रहा है।"
'युवरानी और राजकुमारों से भी मिल आय?"
"मिले तो नहीं लेकिन सना हैं कि सब कुशल हैं। हाँ, एक बात जरूर देखी। अब राजमहल में आने-जाने में पहले जैसी छूट नहीं। अब ग़जमहल में जाने के लिए अन्दर से आज्ञा लेनी पड़ती है और आने का कारण बताना पड़ता है।"-हंग्गड़े ने कहा। ___ "मैं अम्माजी के साथ युवरानी से मिलने जाऊँ तो कोई हतं तो नहीं"
"तुम्हारी इच्छा तो ठीक ही है लेकिन प्रभु ने पूछा नहीं कि तुप लोग राजमहल क्यों नहीं आयीं। मैं स्वयं तब तक नहीं जा सकता जब तक मुझे बुलाया नहीं जाता। वह दोरसमुद्र है, बलिपुर नहीं। यहाँ महाराज रहते हैं, प्रधानजी रहते हैं। महादण्डनायक जैसे अनेक बड़े अधिकारी रहते हैं। ऐसी हालत में राजमहल में जाना-आना इतना आसान नहीं। बलिपुर में इसी हैसियत के होने पर भी जैसे वहाँ रहे वैसे यहाँ नहीं रह सकते। हमारी हैसियत राजधानी में बहुत छोटी है। यहाँ सब-कुछ नया ही लगेगा लेकिन कुछ समय बाद इस नवीन वातावरण में मिल जाएँगे। प्रभु ने हमें बुलवाया है राजमहल के आन्तरिक कार्य के लिए। देखो, फिर भी हम, निवास ग़जमहल से कितनी दूर है!" ___ "दूर रहने से क्या होता है? आप चाहे जब घोड़े पर चढ़कर राजमहल पहुँच जाएँगे। आपको दूर लगने का कोई अर्थ ही नहीं। फिर पास रहने पर भी क्या हम सुबह-शाम राजमहल में जा-आ सकेंगे? ऐसा करना उचित होगा? एक तरह से हमारा दूर रहना ही अच्छा हैं। दूर रहने पर किसी को कुछ खटकेगा नहीं।" हेग्गड़ती ने कहा।
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हेग्गड़े और हेग्गड़ती आपस में बातें कर रहे थे कि तभी रेविमय्या वहाँ आ । पहुँचा। उसने दोनों को प्रणाम किया। कहने लगा- "मैं प्रभु से आज्ञा लेकर अम्माजी और हेग्गड़ती जी से मिलने के लिए आया हूँ।" ।
"आओ, आओ, बैठो। मैं राजमहल में तो कुछ बातचीत ही नहीं कर सका। देखा-देखी ही हो सकी। अच्छे तो हो!" मारसिंगय्या ने पूछा।
'जब प्रभु स्वस्थ नहीं, तो हमारे स्वस्थ होने से क्या, हेग्गड़ेजी? बेहद सक्रिय रहनेवाले प्रभु सदा मंजिल के एक प्रकोष्ठ में ही पड़े रहें तो बताओ किसे राहत मिल सकती है? अभी दो दिन से ही कुछ बेहतर हैं, वो भी आप सभी लोगों के
आने का समाचार मिलने पर। वास्तव में प्रभु किसी को पास नहीं आने देते। युद्धभूमि से लौटने के बाद करीब एक साल बीतने को आया, इस बीच हमें निरुत्साह के दिन विताने पड़े हैं। प्रभुजी की अस्वस्थता के कारण राजमहल में किसी को कोई उत्साह नहीं। किसी का किसी काम में मन नहीं लगता।"
'वैद्यजी क्या कहते हैं, रेविमय्या?"
"आवश्यकतानुसार औषधियाँ दे रहे हैं। चालुक्य पिरियरसी जी ने सिलहार के वैद्यजी को भी भेजा है। प्रभु की शारीरिक अस्वस्थता से भी ज़्यादा मानसिक अस्वस्थता है। इसे समझकर दूर कर सकनेवाले आत्मीयजन राजधानी में कोई नहीं हैं। हमारा विश्वास है कि अब आपके आने पर वह कमी न खटकेगी और प्रभुजी टीक हो जाएँगे। और, हेग्गड़ती जी के आने पर तो युवरानी जी को भी कुछ सहाग हो गया।" कहकर रेविमय्या ने इधर-उधर दृष्टि डालते हुए पूछा-"अम्माजी कहाँ हैं? दिखाई नहीं पड़ीं?''
"तुम्हारी आवाज उसे अभी सुनाई नहीं पड़ी होगी।" माचिकब्बे 'अम्माजी, अम्माजी, रेविमय्या आया हैं' आवाज लगाते हुए खुद अन्दर चली गयीं।
थोड़ी ही देर में शान्तला आ गयी।
"अरे! एक ही साल में कितनी बड़ी हो गयी हो अम्माजी!" आश्चर्य से आँखें फाड़-फाड़कर देखते हुए रेविमय्या ने कहा।
"अच्छा! तुमने कहीं छोटे से बड़ा चश्मा तो नहीं लगा रखा है? जैसी पहले थी, वैसी ही हूँ। है न अप्पाजी?' कहते हुए शान्तला ने पिता की ओर देखा।
"अम्माजी, मगर यह पूरा हाथ मिट्टी में क्यों सान रखा है?" रेविमय्या ने पूछा।
"बहाँ आते ही इसने बागवानी शुरू कर दी है। बुतुगा, दासब्बे और अम्माजी तीनों ही पिछवाड़े की बगीची को साफ़ करने में लगे रहते हैं।" मारसिंगय्या ने कहा।
"क्यों रेविमय्या, यहाँ घर की बरीची की देखभाल तो कोई करता नहीं?
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झाड़-झंखाड़ से सारी बगीची भरी पड़ी है। कहीं पैर रखने तक की जगह नहीं है।'' . शान्तला ने कहा। ___ "आप इस काम में हाथ क्यों लगा रही हैं अम्माजी ? नौकर हैं न, उनसे कह दें, ठीक-ठीक करेंगे। अभी-अभी तो आप आयी हैं।"
''जरा तुम अशीची की हालत तो देखो। मकान की बनलक्ष्मी कहलाती हैं यह। मगर वह कंश बिखेरे राक्षसी जैसी भयंकर लगे तो उसे देखकर किसे वेदना नहीं होगी? मेरे हाधों में मिट्टी लगी होने से तुम्हें जैसा लगा, झाड़-झंखाड़ की गन्दगी से भरी बगीची को देखकर मुझे भी ऐसा ही लगा। मैं हाथ धोकर भी आ सकती थी लेकिन तुम्हारे पास आने में तब देर हो जाती। मैं जैसी थी वैसी ही चली आयी। वैठी, हाथ धोकर अभी आती हूँ।" कहकर शान्तला आन्दर चानी गयी।
रेविमय्या की आँखें गीली हो आथीं। ऑस् प्रकट न हों इसलिए धोरे-से पोंछ लिये। इतने में साल भ ा -.
"राजमहल का क्या समाचार है, रेबिमव्या? जो नौकरानी मुझे बुलाने आधी थी उसने बताया था कि प्रभुजी का स्वास्थ्य, सुनती हूँ, अब कुछ सुधर रहा है। भगवान की कृपा से प्रभ शीघ्र ही नीरोग हो जाएँगे। भगवान जान, युबरानी पर कैसी गुजर रही होगी! राजकुमारों का शिक्षण तो अच्छी तरह चल रहा होगा न? दण्दनायिका की बेटियों ने अब तक संगीत और नृत्य में प्रवीणता प्राप्त कर ली होगी। उनकी साहित्य-गुरु वह देवीली यहीं हैं? उत्कल के नाट्याचार्य भी वहीं
शान्तला प्रश्न करती जा रही थी कि रेविमच्या बीच में ही बोल उठा, "अम्माजी, एक साथ इतने प्रश्नों का उत्तर मैं कैसे दे सकूँगा? वैसे सारे काप अपने ढंग से चल रहे हैं। दोनों गुरु यहीं हैं, इतना मुझे मालूम है। प्रभु को छोड़कर दूर रहने का अवकाश मुझे अब तक नहीं मिला, इसलिए मुझे यह मालूम नहीं कि कहाँ क्या हो रहा है। आज प्रभु ने स्वयं मुझे पास बुलाया और पूछा, 'क्यों रेविमप्या, तुम अम्माजी को देखने नहीं जाओगे?' मैंने इतना ही कहा, 'यहाँ सन्निधान की सेवा में...' तो कहने लगे, 'कोई हल नहीं। पहले जाकर देख आओ। हमें मालूम है कि तुम्हारा दिल क्या चाहता रहता है। हमारी हालत के कारण तुम स्वयं अपनी इच्छा को प्रकट नहीं करोगे। या भी जानते हैं। इस प्रकार प्रभु ने मुझे भेज दिया। अम्माजी, ऐसे कब तक रहेंगे मालिका उनकी इस अस्वस्थता के कारण सारा पाउसले राज्य राहु-ग्रस्त-सा लगता है। मेरा मन कहता है कि किसी ने कुछ कर-करा दिया है।'' बड़े उद्वेग से कहा रेविमय्या ने।
"क्या कह रहे हो! क्या कर-करा दिया ?" मारसिंगय्या ने पूछा।
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''यही मन्त्र-तन्त्र, वामाचार वगैरह।"
ऐसा कैसे हो सकता है, रेविमय्या : कभी किसी की चुराई तक न सोचनेवाले प्रभु के प्रति इस तरह का साहस कौन कर सकता है?''-मारसिंगय्या ने उत्तर दिया।
जिसने किया, वहीं जाने। मगर प्रभु बड़े दृढ़ मनोवल के हैं। उन पर इन बातों का असर नहीं होता।" शान्तला ने कहा।
"मैं भला यह सब क्या जानें। हो, गत अमावस्या के बाद प्रधानजो और दण्डनायक जी को बुलवाकर प्रभु बहुत देर तक बातें करते रहे। प्रधानजी तो इन दो दिनों में कोई तीन-चार बार आये होंगे। पता नहीं, क्या कुछ हो रहा है?"
"राज्य पर किसी दुश्मन के हमले के बारे में खबर मिली होगी। खुद प्रभु के युद्ध में न जा सकने के कारण, उस सम्बन्ध में मन्त्रणा की होगी।' मारसिंगय्या ने कहा। ___"इस तरह पहले भी कई बार हो चुका है, हेग्गड़ेजी। दुश्मनों के हमलों के बारे में विचार-विमर्श करते वक्त मुझे प्रभु ने कभी बाहर रहने के लिए नहीं कहा। परन्तु अबकी बार वे दोनों जब मिले तब मुझे भी वहाँ नहीं रहने दिया। मुझे लगा, होगी कोई दूसरी ही बात। पर वह आज दोपहर स्पष्ट हो गयी।" रेविमय्या ने कहा।
"क्या स्पष्ट हो गयी?" शान्तला की जानने की उत्सुकता बढ़ गयी ।
"राजधानी में रहनेवाले एक वामाचारी को देश-निकाले का दण्ड मिला है। इससे मेरे विचार की पुष्टि हुई है।" रेबिमय्या ने कहा।
"इस तरह की शंका अगर प्रभुजी को हुई होती तो उसका तत्काल उपचार भी तो वे करा सकते थे ऐसा कुछ न करने के कारण तुम्हारी शंका केवल शंका मात्र ही है। बात कुछ और ही हो सकती है।" मारसिंगव्या ने कहा।
"जो भी हो हेगड़ेजी, उस अमावस्या की रात यहाँ रहकर प्रभु की उस दर्द-भरी भी हालत को देखते तो मेरी बात को तुरन्त मान लेते। एक प्रहर रात जाते ही सारा शरीर पसीने से तर-बतर होकर एकदम ठण्डा पड़ गया था। इस सब पर विचार नहीं करना चाहिए :-अब जैसी भगवान की मर्जी ! प्रभु ने तो सबमें ६ गिरज उड़ेल दिया है," रेविमय्या बोला।
"हम सबको बही तो चाहिए कि प्रभु कुशल रहें। अच्छा, यह तो बताओ, तुम कब तक छुट्टी पर हो?' हेग्गड़े ने पूछा।
"कुछ निश्चित नहीं। फिर भी उनकी उदारता का हमें अनुचित लाभ नहीं उठाना चाहिए। इसलिए अब चलता हूँ।" रेविमय्या ने कहा।
"युतुगा से नहीं मिलोगे?" शान्तला ने पूछा।
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'यहाँ आकर उससे मिले बिना कैसे जाऊँगाः कहाँ है वह?"
"तुम यहीं अप्पाजी से तब तक बातें करो, मैं उसे बुला लाती हूँ।" शान्तला बोली।
"अम्माजी, आप रहने दीजिए। मैं ही जाकर मिल आऊँगा। पिछवाड़े बग़ीची में ही होगा नः" और इतना कहकर बिमय्या बगीची की ओर चला गया।
थोड़ी ही देर में वह लौट आया। तब तक नाश्ता लग चुका था। नाश्ता करने के बाद रेविमय्या ने कहा-"आप लोगों के आने पर हमें नया धैर्य मिला है। मुझे आशा है, जल्दी-जल्दी न आ पाऊँ तो आप लोग चिन्तित नहीं होंगे। अच्छा, अब चलता हूँ हेग्गड़ती जी।" कहकर रेविमय्या चला गया।
शान्तला खुद अलग से राजकुमारों के बारे में पूछताछ करना चाहती थी। परन्तु सबके सामने चुप रहना पड़ा।
दौरसमुद्र में हेगड़े परिवार के पहुँच जाने की खबर दण्डनाविका को भी लग चकी थो। उनके ठहरने के लिए जो निवास दिया गया था यह वही था जिसे दण्डनायिका ने सुझाया था। इसलिए उन लोगों का जब-जब राजमहल जाना होता, उसे पता चलता रहता। दण्डनायिका ने निगरानी रखने के लिए इडिगा से कर रखा था। जिस दिन वे आये थे उसी दिन अकेले हेग्गड़े राजमहल हो आये, इसकी सूचना भी उसे उसी दिन मिल गयीं थी। इसके बाद एक सप्ताह के करीब बीतने पर भी किसी के राजमहल में आने-जाने का समाचार चामध्ये को नहीं मिला।
उस दिन राजमहल हो आने के बाद धामब्बे ने दण्डनायक से जो बातचीत की थी, उस बारे में उसके बाद कोई चचा नहीं हुई। दूसरे दिन दण्डनायक से उसे यह समाचार मिला कि वामशक्ति पण्डित को देश-निकाले का दण्ड दिया गया है। सोचा, चलो यह शनि भी टल गया। वह उसी रात भाग गया था-यह
वर भी दण्डनायक ने सुनायी थी। फिर महाराज से मिलने से पहले सारा समाचार प्रधान गंगराज को बताकर उनकी सलाह के अनुसार ही, वह व्यवहार करने लगा था। उसने जो कहा उस पर विश्वास करके युवराज ने ठीक ही कहा था। परन्तु गंगराज ने क्या सलाह दी? उन्होंने युवराज से क्या कहा: इस सम्बन्ध में दण्डनायक ने अपनी पत्नी को कुछ भी नहीं बताया। दण्डनायिका ने पूछा भी तो दण्डनायक ने डाँट दिया, “यदि इस मामले में तुमने बाधा डाली तो तुम्हें तुम्हारे मायके भेज दूंगा।" इसलिए उसे चुप रह जाना पड़ा। "मैंने तो मन से भी युवराज का कभी बुरा नहीं चाहा, और फिर यह भी उन्हें मालूम है कि वामशक्ति द्वारा दिया गया यन्त्र मैंने कूड़े में फेंक दिया है। फिर भी पतिदेव मुझे
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गलत समझते हैं।" दण्डनायिका इसी सोच में डूब गयी। फिलहाल तो उसे सामने के संकट से मुक्त होना था। एक सीमा तक वह उबर भी गयी। फिर भी कुछ यातें उसके मन को साल रही थीं। युवरानी ने बुरे लोगों को देश-निकाले का दण्ड देने के बारे में ही कहा, यह नहीं कि वामशक्ति पण्डित को देश से निकाल दिया गया है। तो इसके यह माने हुआ कि उन्हें सारी बातें मालूम नहीं। या जानते हुए भी, हमें जाने सम्बन्धित नदिन समसर, हप्पो पा इसका असर कैसा पड़ेगा और हमारी प्रतिक्रिया क्या हो सकती है, आदि को समझने के लिए शायद ऐसा किया होगा। जानते हुए भी अनजान बनकर कोई बुलवाकर बातचीत करेगा: युवराज को मालूम हो तो वे युवरानी जी से नहीं कहेंगे? जरूर जानते होंगे। इस बात को भाई से भी न कहने की बात मालिक ने कही थी न?...फिर प्रभु तक यह बात कैसे गयी?
और यदि यह वात बड़े राजकुमार के कान में पड़ गयी तो न जाने क्या होगा? उन्होंने उस दिन पझला की तरफ़ मुड़कर भी नहीं देखा। इसका तो यही अर्थ हुआ कि उनको भी ये बातें मालूम हो गयी हैं। बच्चों को मालूम हो जाने पर उस हेग्गड़ती को भी खबर ही हो जाएगी। हँसनेवालों के सामने मेरी हालत फिसलकर गिरनेवाले की-सी हो गयी। हे भगवन! ऐसा सब क्यों करवाया? इन सबका परिणाम क्या होगा? मेरी आशा-आकांक्षाएँ धरी-की-धरी रह जाएँगी? कृपा करो भगवन्, कृपा करो कि मेरी बड़ी लड़की का विवाह बड़े राजकुमार से हो जाए। इसके लिए मैं मनौती मनाऊँगी। अपराध क्षमा करो। आदि-आदि बातों को सोचती हुई दण्डनायिका न जाने कब तक बैठी रही। __इतने में दडिगा ने आकर खबर दी कि हेग्गड़ती और उनकी पुत्री दर्शन करने आयी हैं।
दण्डनायिका को विश्वास नहीं हुआ। बोली, "तुमने कभी उनको देखा भी है? कोई और होंगे।"
"ऐसा कैसे हो सकता है: मुझे मालूम नहीं? ये ही हैं।" दडिगा बोला। "अभी वे कहाँ हैं।" "बाहर के बड़े कमरे में बैठाया है।" “आये कैसे "पालकी में।" "यहाँ लिवा लाओ और जाकर देकव्ये से कहो कि नाश्ता तैयार करे।" दडिगा वहाँ से चला गया।
"चलकर आती तो क्या पैर घिस जाते? अपना बड़प्पन दिखाने पालकी में आयी है।" दण्डनायिका ने मन-ही-मन कहा। फिर भी पन की बात प्रकर न हो
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इसलिए वह बड़े संयम से अन्दर के प्रकोष्ठ में आयी और झूले पर अँठ गयी। हेगड़ती और शान्तला ने अन्दर आकर विनीत भाव से झुककर प्रणाप किया।
लिया गहती नी। ओह आपकी लड़की तो खुब बड़ी हो गयी! बटा वेटी। क्या समाचार हैं! आप सब कुशल हैं न भगवान कृपालु हैं। आपकी अभिलाषा पूरी हुई। दण्डनायिका चामब्बे ने कहा।
आप जैसे बड़ों का आशीर्वाद है। भगवान की कृपा से हम सब कुशल हैं, दण्डनायिका जी। आपने कहा कि हमारी अभिलाषा पूरी हुई, मैं कुछ समझी नहीं। हेगड़ती ने कहा। ___ "हेग्गड़ती जी, हर एक को राजधानी में आकर रहने की इच्छा रहती है। अस्वाभाविक भी नहीं हैं। मैं सोचती हैं ऐसी ही इच्छा आपकी भी रही होगी। इसलिए मैंने ऐसा कहा।"
"यहाँ हम आये । खुशी इस बात की है कि यहाँ उच्च पदाधिकारी रहते हैं। उनसे हमारा सम्पर्क होगा, सहयांग और मार्गदर्शन मिलेगा जिससे हम जीवन में कहीं अधिक सुसंस्कृत हो सकेंगे और प्रगति कर सकेंगे। इसलिए हमें यह एक अच्छा अवसर मिला है। महादण्डनायक जी, प्रधानजी, युवराज. युवगनी आदि सभी ने मिलकर विचार-विमर्श के बाद ही हमें यहां बुलवाया है। इस सौभाग्य के लिए हम सदा कृतज्ञ रहेंगे और निष्ठा के साथ कार्यरत रहना है सो रहेंगे ही। यहां आये एक सप्ताह हो गया, फिर भी आपका आशीवाद लेने न आ सके। रोज सोचते ही रहे, घर से बाहर निकलना ही नहीं हो पाया। अब कुछ व्यवस्थित हुए हैं। हेग्गड़ेजी राजपहल की ओर गये हैं इसलिए समय मिलते ही इस ओर चली
आयी।'' हेग्गड़ती ने नम्रभाव से कहा। ___ "यह क्या, राजमहल आज गये? आज तक आप लोग युवराज और युवरानी के दर्शन के लिए नहीं गये"
"जिस दिन आये थे उसी दिन अकेले ये ही युवराज के दर्शन के लिए गये थे। आज फिर बुलावा आया था।"
“और आप लोग?"
"नहीं, अभी तक नहीं जा पाये। यों भी हम जैसे छोटी सामथ्यवाले जब चाहे तब इच्छानुसार राजमहल में आ-जा भी नहीं सकते दण्टनाबिका जी! उनका समय और उनकी सुविधा सब-कुछ देखनी पड़ती है न?"
सो ता है। यह राजधानी है, बलिपुर नहीं-यह बात आपके अनुभव में आयी होगी। सुना है अम्माजी के गुरु भी आये हैं! अच्छा हुआ, उन्हें भी बुला लिया 1 राजधानी होने पर भी यहाँ अच्छे अध्यापक नहीं हैं। हमने भी तो उत्कल से बुलवाया है न।"
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"जहाँ तक मुझे स्मरण है, वे ही इधर आए थे सो शिक्षण देने के लिए आपने उन्हें ठहरा लिया ।"
"फिर भी वे हैं तो उत्कल के ही यह सच है कि वे ठहर गये सो बुलवा लेने जैसा ही हुआ न ।”
"अम्माजी उनका दर्शन करना चाहती थी । वास्तव में हम आप सबकी बलिपुर में प्रतीक्षा करते रहे। आप लोगों का सत्कार करने का सौभाग्य ही नहीं जुट सका और अब तो हम ही यहाँ चले आये ।"
"अब तो उनके पढ़ाने के लिए आने का समय भी हो गया है । हमारे नाश्ता-पानी होने तक यदि वे नहीं आते हैं तो किसी को भेजकर उन्हें बुलवा लूँगी।"
"तो वे क्या कहीं अन्यत्र निवास करते हैं?"
" और नहीं तो क्या। यह कोई धर्मशाला थोड़े ही है, हेग्गड़ती जी ।" "आपकी बेटियाँ कहाँ हैं? कोई भी दिखाई नहीं पड़ती ?"
“अभी वो अभ्यास में लगी होंगी। नाश्ते के समय बुलाऊँगी। अरे टडिगा, जाओ और नाट्याचार्य जैसे ही आएँ, उन्हें यहाँ बुला लाओ।"
शान्तला की इच्छा हुई कि पूछे मैं वहाँ आकर बैठ सकती हूँ? लेकिन पूछा नहीं 1
कुछेक क्षणों के लिए मौन छा गया।
"गड़ती जी, आपको निवास पसन्द आया? अच्छा है न?" दण्डनायिका ने यों ही पूछ लिया ।
"अच्छा है। दusनायिका जी, वास्तव में इतना बड़ा निवास यहाँ हमें मिलेगा- इसकी उम्मीद नहीं थीं। वहीं अहाते में तीन-चार छोटे और भी निवास हैं। इससे और अधिक सहूलियत हो गयी ।"
"वैसे राजमहल के पास ही एक निवास था। मालिक चाहते थे कि वहीं ठहराएँ। मैंने उनसे कहा कि वह उनके लिए पर्याप्त नहीं होगा। वे सिर्फ़ पति-पत्नी और बेटी ही नहीं आएँगे। उस समय जब बड़े राजकुमार के उपनयन के सन्दर्भ में आये थे तो अपने साथ सभी गुरुजनों को भी लेते आये थे। अब भी वे सब साथ आएंगे ही, इसलिए उनको सब तरह की सुविधाएँ नहीं रहेंगी। इसी कारण इस मकान को देने के लिए कहा था। सब ठीक है फिर भी लगता है एक बात की सुविधा वहाँ नहीं है ।"
“ऐसी कोई असुविधा तो नहीं है !"
"राजमहल से दूर बहुत है।"
"इसमें क्या असुविधा है? राजमहल में काम तो मालिक को करना है । वे
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घोड़े पर आया-जाया करेंगे। हम चाहे कहीं रह हमारे लिए वहाँ राजमहल में भला । काम ही क्या है?' हेग्गड़ती ने कहा।
“सो तो ठीक है। फिर भी युवरानी का आपसे ज्यादा लगाव है। बार-बार बुलावा आया तो आना-जाना जरा मुश्किल होगा।" दण्डनायिका ने चुटको ली। ___ "वे अगर बुलवाएँ तो प्रदेश का पालन तो करना ही होगा। इसमें किसी तरह की कठिनाई की बात सोचना भी हमारे लिए उचित नहीं।"
"सो तो ठीक है। आपको चलकर थोड़े ही जाना है। पालकी तो होगी ही।" चामने कह ही रही थी कि तभी उत्कल के नाट्याचार्य महापात्र वहीं आ गये और वोले, "आने का आदेश हुआ...ओह, हेग्गड़ती जी आप! आप सब सम्शल हैं?" फिर शान्तला की ओर देखा। पहले तो उन्होंने पहचाना नहीं लेकिन जब शान्तला ने ही मुस्कराकर प्रणाम किया तो बोल उठे, "ओह! ओह! शान्तलादेवी हैं न? कितनी बड़ी हो गयी हो बेटी! मैं पहचान न सका।" महापात्र के मुख पर प्रसन्नता छा गयी।
"वैठिए आचार्यजी, आपसे मिलने के ही लिए हेग्गड़ती जी और उनकी बेटी आयी हैं।" दण्डनायिका ने कहा। उसके कहने के दंग में कुछ व्यंग्य था।
"कहला भेजतीं तो मैं स्वयं वहाँ चला आता ।" महापात्र ने कहा।
सब से पहा आये हैं नाही गे शाटनगराद जी के दर्शन करने का गौरव ही सँजोती रही। आज समय निकालकर दर्शन करने आ पायी। आते समय रास्ते में अम्माजी ने मिलने की इच्छा व्यक्त की थी। इसलिए दण्डनायिका जी से निवेदन किया था।" हेगड़ती बोली।
“आपके गुरुजी भी आये हैं।" महापात्र ने शान्तला से पूछा।
शान्तला के जवाब देने से पहले ही चामब्बे बोल उठी, "वे सब तो परिवार के व्यक्ति जैसे पाने जाते हैं। आये बिना कैसे रहेंगे?"
"बहुत अच्छा हुआ।" महापात्र ने कहा।
तभी नाश्ता तैयार होने की सूचना मिली। सब उठकर नाश्ता करने चले गये। महापात्र भी उस दिन नाश्ते पर निमन्त्रित हुए थे। पद्मला, चामला, बोपदेवी सभी साथ थे। परन्तु उनके साहित्य के अध्यापक नाश्ते का बुलावा आने से पहले ही चले गये थे।
दण्डनायिका के बच्चों में जैसे एक नया उत्साह आ गया था। पद्मला को तो बड़ा ही रास आया। उस दिन राजमहल से लौटने के बाद से उसे कोई आहार रुचता ही नहीं था। आज उसे वह रुचिकर लग रहा था। वह शान्तला की बग़ल में बैठी थी। चामला शान्तला के दूसरी बग़ल में बैठी थी। सामने की पंक्ति में हेग्गड़ती और दण्डनायिका बैठी थीं और योप्पदेवी चामच की बग़ल में।
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नाट्याचार्य अलग पंक्ति में जा बैठे थे। नाश्ता करने के बीच कोई विशेष यातचीत नहीं हुई। केवल हेम्गड़ती और दण्डनायिका जी के बीच उपचारोक्ति 'घोड़ा और लीजिए' 'बस, और नहीं चाहिए' आदि चल रही थीं। नाट्याचार्य पूरे समय पौन रहे। हाँ, बच्चों की खुसर-फुसर बराबर चलती रही।
नाश्ता करने के बाद दोनों बेटियों नाट्याभ्यास के लिए निकलीं। चामला के अनुरोध पर पा से आज्ञा लेकर शान्तला भी वहाँ चली गयी। "ज्यादा देर मत लगाना, तुम्हारे पिताजी से पहले हमें घर पहुंचना है।'' माचिकब्बे ने शान्तला को सचेत किया। ___मेंट के इस अवसर पर नाश्ता कुछ अधिक ही हो गया। इसलिए बेटियों ने सोचा कि अब अभ्यास कुछ देर बाद ही आरम्भ किया जाए। फिर भी उन लोगों ने वह समय व्यर्थ नहीं गंवाया । आपस में अपने ज्ञान, कला, अध्ययन आदि की प्रगति के बारे में बातें करती रहीं।
"एक दिन तुम्हारा नृत्य देखना चाहिए, अम्माजी!" महापान ने कहा। "हम भी देखना चाहती हैं," लड़कियों ने भी जोर देकर कहा।
"उसके लिए इतना संकोच ? आप सब लोग एक दिन हमारे यहाँ पधारिए।' शान्तला ने कहा। ___ऐसा ही करेंगे। सुना है कि मुझसे मिलना चाहती थीं, अम्माजी?" शान्तला से महापात्र ने पूछा।
“विशेष कुछ नहीं। यहाँ मेरी आपसे भेंट हुई थी न! उसके बारे में मैंने अपने गुरुजी से कहा था। तो उन्होंने पूछा, 'क्या औत्तरेय पद्धति के अनुसार नृत्य सिखा रहे हैं?' मैं यह कुछ जानती नहीं थी। फिर भी मैंने कह दिया था कि भरतनाट्य सिखा रहे हैं। तो वे बोने– 'उन्हें औत्तरेय पद्धति का ज्ञान तो होगा ही?' इस
सम्बन्ध में मैं कुछ जानती ही नहीं थी। मैंने कहा, 'मैं नहीं जानती। तभी से यह जिज्ञासा बनी रही।" शान्तला ने कहा। ___"आपके गुरुजी का प्रश्न बिलकुल सहज है, बेटी। उत्कल के होने से मैंने उसी औत्तरेय पद्धति के नृत्य को सीखा था। फिर जीवन से कुछ ऊब जाने के कारण मैं दक्षिण की तरफ़ चला आया । यहाँ आने के बाद यहाँ की इस नाट्य पद्धति के अनुसार थोड़ा-बहुत ज्ञान अर्जित किया। वहीं आज मेरे गुजर-बसर का सहारा बन गया है। मेरे सिखाने में निश्चित ही शुद्ध दाक्षिणात्य पद्धति की कमी दिखती होगी। इसका कारण मूलतः औत्तरेय पद्धति का अभ्यास है। उस औत्तरेय पद्धति का नृत्य यहाँ कोई सीखना नहीं चाहेगा। यही समझकर मैंने दाक्षिणात्य पद्धति को अपनाया।"
"उसमें और हमारे भरतनाट्य में क्या अन्तर है?" शान्तला ने पूछा।
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" दाक्षिणात्य पद्धति में समाधान, तृप्ति, सन्तोषपूर्ण नैसर्गिकता और धार्मिकता छलकती है । उसका लक्ष्य दैहिक आकर्षण नहीं। भरतमुनि प्रणीत नाट्य सूत्रों के आधार पर घोड़ा बहुत शास्त्रीय अंश समन्त्रित किया गया है । अस्तु हमारा औत्तरेय विधान भी पहले धार्मिक पृष्ठभूमि को लेकर निरूपित हुआ है। हमारे लिए भी भरतमुनि का वही शास्त्र आधार हैं । उसका उपयोग करके पुराण और इतिहास को नृत्य का रूप देकर दोनों का समन्वय किया गया है। इसका लक्ष्य मुख्यतः पुराणों - इतिहासों की कथाएँ जनता को समझाना है। इसलिए उस तरह की कवाओं को सुनानेवाले कक्षकों का मार्ग ही हमारे लिए मूलभूत आधार बन गया है । अलेक्जेण्डर (सिकन्दर ) के समय से हमारे इस पवित्र देश पर यूरोपीय, मोहम्मदीय, चीनी, ब्रह्मदेशीय आदि विदेशियों के हमले होते रहने के कारण उनकी नाट्य पद्धतियों के भी कुछ अंश उसमें आकर मिल गये हैं। ऐसा होने से वह कुछ खिचड़ी-सी बन गयी है."
"इस औत्तरेय पद्धति ने इन सभी से कुछ-न-कुछ नवीनता लेकर स्वयं को अलंकृत किया है। इसे खिचड़ी या मिलावट न कहकर यों कहना उपयुक्त न होगा?" शान्तला ने पूछा ।
"जो भी कहो, एक ही बात है ।" महापात्र बोले ।
"क्या आपकी दृष्टि में वह ठीक नहीं है?" शान्तला ने फिर पूछा।
"मैंने कब कहा कि यह ठीक नहीं हैं?" सदा सर्वदा हम अच्छे ही को ग्रहण करते हैं, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। दक्षिण में नृत्य का उपयोग मन्दिरों में होता है । सामान्यतः वह प्रजारंजन के लिए नहीं होता। उत्तर में यह आदर्श कुछ भिन्न तरह का बन गया है। अब वह एक लौकिक कला बनकर लोगों के आकर्षण की चीज बन गयी है। इसलिए दैहिक आकर्षण भी औत्तरेय नृत्य का एक अंग-सा बन गया है।"
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"वह कथकों की रीति कैसी होती है-इसे प्रत्यक्ष देखे विना अन्तर कहीं है, यह बात नहीं समझ पाऊँगी।"
"चाहो तो तुम्हें सिखा दूँगा।" महापात्र ने तुरन्त जवाब दिया ।
"अभी जो सीख रही हूँ वह भी पूरा नहीं हो सका है। ऐसी हालत में.. फिर भी आपकी उस पद्धति को मैं आँखों देखना चाहती हूँ। तीनों को एक ही पद्धति का नृत्य सिखाने के बदले किसी एक को उस औत्तरेय नाट्य पद्धति के अनुसार सिखाते तो अच्छा होता और देखने को आसानी से मिल भी जाता ।"
"अगर मैं यह कहता कि उसे सिखाऊँगा तो मुझे यहाँ स्थान ही नहीं मिलता। दण्डनायिका जी भरतनाट्य को ही अधिक पसन्द करती हैं। महापात्र ने कहा ।
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"अच्छा!" कहकर शान्तला उठ खड़ी हुई और नाट्याचार्य महापात्र को प्रणाम . कर बोली, "अब मुझे आज्ञा दें, माँ प्रतीक्षा करती होंगी। फिर आपको अध्यापन में भी तो देरी हो रही है।" फिर उन बहिनों से बोली, "अच्छा, अब चलती हूँ. आप लोग समय निकालकर जरूर आएँ। मेरा यहाँ और किसी से परिचय नहीं है । सहेलियाँ न होने के कारण मन ऊबने लगता है । "
बालिकाओं ने अपनी स्वीकृति दे दी। शान्सला वहाँ से चली गयी। पढ़ाई शुरू हो गयी।
बेटी के आते हीं हेग्गड़ती माचिकब्बे उठ खड़ी हुई और बोली- अच्छा दण्डनायिका जी, चलती हूँ। और हाँ, यहाँ हमारे कोई परिचित नहीं हैं। अतः आप सबकी हम पर दृष्टि बनी रहनी चाहिए।"
tusafeका ने गड़ती को हल्दी -रोड़ी (रोली) तथा पान का बीड़ा देकर विदा करते हुए कहा- "अच्छा हेग्गड़ती जी, यहाँ भी उसी तरह मिल-जुलकर रहें जैसे राजमहल में रहा करती हैं। किसी तरह के संकोच की जरूरत नहीं। कभी-कभी आगी रहे। वो भी रहें। वे ऊब जाती होगी।" मां-बेटी दोनों पालकी में बैठकर जाने ही वाली थीं कि देखा, दण्डनायक जी प्रांगण तक आ चुके हैं। हेग्गड़ती पालकी से उतरीं तो बेटी ने भी माँ का अनुसरण किया । दण्डनायक घोड़े से उतरे और सीधे उन लोगों के पास आये। बोले, " हेग्गड़ेजी ने राजमहल में बताया था कि आप लोग हमारे यहाँ गयी हैं। सब कुशल हैं न? बिटिया काफी बड़ी हो गयी है !"
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"सब कुशल हैं। आज्ञा हो तो फिर कभी आएंगे।" माचिकब्वं ने कहा । "अच्छा, " कहकर मरियाने अन्दर चले गये। इधर मॉ बेटी भी अपने घर आ पहुँचीं। चर्चा के समय अगर टण्डनायिका यह सवाल कर बैठती कि लड़की के लिए वर निश्चित हो गया या नहीं? तो पता नहीं माचिकच्चे क्या उत्तर देती । भला हो उस दण्डनायिका का कि उसने पूछा नहीं। शायद जवाब में हेग्गड़ती भी सवाल कर बैठती, 'और आपकी बेटी की शादी कब हो रही है ?" तो दण्डनायिका भला क्या उत्तर देती? इसलिए उसने नहीं पूछा होगा। यह रहस्य बेचारी पाचिकये क्या समझे 1
हेगड़े परिवार के दोरसमुद्र में आकर बसने के बाद से युवराज के स्वास्थ्य में काफी सुधार आ गया था। उनके पाँच के घाव भर चुके थे। अब वे स्वयं चलफिर सकते थे। उनके मन से अब यह भय भी निकल गया था कि वह दुबारा खुला आकाश, चाँद व सूरज नहीं देख पाएँगे। स्वयं मन्त्रालय जाकर वह राजकाज सम्बन्धी मन्त्रणाएँ भी करने लगे थे ।
उधर युवरानी एचलदेवी, दुःख के कारण जिनका मुँह म्लान पड़ गया था,
फिर
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से हंसमुख दिखने लगी थीं। उनके कार्यों में अब पहले की तरह रुचि और स्फूर्ति दिखाई देने लगी थी। राजमहल में जो एक तरह का गम्भीर वातावरण बना हुआ था, वह समाप्त हो गया था। वहाँ एक बार फिर चहल-पहल शुरू हो गयी थी। सम्पूर्ण राजमहल फिर से एक नयी उमंग से भर उठा था। ___ महाराजा अब तक तो एक तरह से राजकाज से विरक्त हो गये थे। राजकाज में जैसे उनका कोई दखल ही नहीं था। लेकिन अब उन्होंने दृढ़ संकल्प कर लिया था और घोषणा कर दी थी--''इस साल युबराज की वर्धन्ती के दिन उनका महाभिषेक करने का हमने निश्चय कर लिया है। हम अब किसी की सलाह को नहीं मानेगे। खुद वुवराज ही क्यों न मना करें, उनको हम सिंहासन पर बिठाकर ही चैन लेंगे। जो भी इसका विरोध करेगा उसे राज्य का विरोधी मानकर दण्डित किया जाएगा। वास्तव में अव ये ही महाराज हैं। पहले ही हमने दोरसमुद्र को राजधानी बनाकर, वहाँ के महामण्डलेश्वर की हैसियत से, एरेयंग प्रभु ही राज्यभार सँभाल रहे हैं, इस वात का शिलालेख स्थापित करने की सूचना सर्वत्र भेजी थी और इस प्रकार के शिलालेख जहाँ-तहाँ स्थापित भी हा हैं। यह सब देखने के वाद, उन्होंने यह आदेश प्रसारित किया था कि फ़िलहाल उनका नाम सूचित नहीं होना वाहिए । यह युवराज के रूप में ही हमारे नाम से सारे राजकाज का विधिवत् संचालन करते रहेंगे, यह भी हमें मालूम है। किन्तु तब हम किसी का मन न दुख इसलिए चुप रहे। मगर किसी ने हमारे आभप्राय को समझने की शश नहीं की इस बात का हमें अत्यन्त खेद है। ठीक है इसे हपारे मन की दुर्बलता ही कहा जाय। अब इस वर्ष हमारे युवराज की वर्धन्ती के अवसर पर उनको महाराजा घोषित कर पमयभिपेक करेंगे और राजकुमार बल्नाल को युवराज पद पर अभिषिक्त करेंगे।" इस तरह के निश्चय से राजमहल में जैसे एक नया उत्साह फूट पड़ा था।
प्रधान गंगराज और मरियाने दण्डनायक को यह अच्छी तरह मालूम था कि इस सारी गड़बड़ी का कारण उन्हीं की एक साधारण-सी ग़लती है। अब उन्होंने महाराज के इस आदेश को सभ्यूर्ण रूप से मानकर पट्टाभिषेक महोत्सव को बड़ी सजधज के साथ अपूर्व ढंग से सम्पन्न करने की योजना तैयार की थी। इस सुखद समारम्भ की प्रतीक्षा में सब अपने-अपने वैयक्तिक विचारों को भूलकर ध्यान लगाये बैठे थे। पूरे दोरसमुद्र में मानो कहीं कोई मनोमालिन्य ही नहीं था। पूरी राजधानी एक परिवार-सी बन गयी थी। ऊंच-नीच, मालिक-नौकर, अधिकारी-कर्मचारी आदि इस तरह के विचारों पर किसी का ध्यान ही नहीं रहा।
दण्डनायिका की आशाएँ मन-ही-मन फिर से अंगड़ाई लेने लगी। पहले इस पट्टाभिषेक को रोकने का कारण वह स्वयं बनी थी, उसे इसका पूरा आभास हो
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गया था। पट्टाभिषेक के महान उत्सव ने उसे भी अपनी इच्छा को प्रस्तुत करने.. अपनी बेटी पाला को युवरानी बनाने के लिए प्रयास का अवसर दे दिया था। और यह तो निश्चय है ही कि युवरानी बनने के बाद वह महारानी बनेगी ही। इस तरह से उसने सोचकर देख लिया था कि इस बार उसकी इस चिर अभिलाषा के पूरा होने में किसी तरह की बाधा नहीं आएगी। सो, उसने पतिदेव से भी चर्चा कर दी। मगर उन्होंने फटकार दिया, "इस विचार को अब छोड़ेगी तो तुम्हें देश-निकाले का दण्ड दिया जाएगा ! अब केवल प्रभ का पट्टाभिषेक और राजकुमार बल्लालदेव का यौवराज्याभिषेक इन दोनों विषयों को छोड़कर अन्य किसी भी विषय पर बातचीत नहीं करनी है।"
___ "ठीक है, यह दोनों काम हो जाएँ तो मैं भी अपनी इच्छा पूरी करके ही रहूँगी। मैं कोई ऐरी-गैरी नहीं-- गंगराज की बहिन और महादण्डनायक की पत्नी चामब्बा हूँ।" मन-ही-मन उसने ठान लिया।
उधर पट्टाभिषेक के प्रसंग ने बच्चों में मैत्री की भावना अधिक प्रगाढ़ कर दी धी। गुरुजन भी अपने को एक ही गुरुकुल के प्राध्यापक मानने लगे थे। प्रमाधि संवत आश्वयुज सुदी दशमी का दिन पट्टाभिषेक के लिए निश्चित करके सबको आमन्त्रण पत्र भी भेज दिये गये।
दोरसमुद्र इन्द्र की अमरावती बनने लगा। सबकी जुबान पर एक ही चर्चा धी - पट्टाभिषेक। एरेयंग प्रभु का पट्टाभिषेक और बालालदेव का यौवराज्याभिषेक। लोगों में वही चर्चा होती-चालुक्य चक्रवती विक्रमादित्य आएंगे तथा पिरियरसी जी जाएंगी। प्रभु द्वारा पराजित किये गये बड़े-छोटे नरेश आदि अपनी-अपनी तरफ़ से भेंट आदि लेकर आएंगे। सारे देश के सभी बसदी, मन्दिरों तथा विहारों में महाराज, बुवराज और सारे राजपरिवार की कुशलता के लिए पूजा-अर्चा-अभिषेक आदि के साथ प्रार्थनाएँ होंगी। उस दिन समस्त सेना से अलंकृत नये महाराज और युवराज हाथी के हौदे में बैठेगे, राजपथों पर जुलूस निकलेगा। सूर्यास्त के बहुत पहले निकलेगा, फिर भी सभी राजपथों से होता हुआ राजमहल लौटने तक अँधेरा हो जाएगा। अतः हजारों मशालों के साथ जुलूस होगा। नये महाराज के सिंहासनारोहण समारम्भ की खुशी में राजधानी के सभी मन्दिरों में लाख-लाख दीप जगमगा उठेंगे। राजमहल के प्राचीर के चारों ओर कतारों में दीपमालाएं सजायी जाएँगी। इस तरह की ब्यवस्थाओं के बारे में जिसे जो सूझता वैसी ही चर्चा आपस में छेड़ देता।
ये सब बातें राज्य के कोने-कोने में फैल गयीं। इससे यह अन्दाज हो गया था कि राजधानी के इर्द-गिर्द के प्रदेशों और गाँवों से इस आनन्दोत्सव में भाग लेने के लिए लाखों लोग राजधानी पहुंचेंगे। जगह-जगह पर उनके ठहरने,
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खाने-पीने आदि की व्यवस्था करने का उत्तरदायित्व महासन्धि-निग्राहक नामिदेव को सौंपा गया था। इसके लिए राजधानी के चारों ओर तम्बू गड़वाये जा रहे थे। पाकशालाएँ तैयार की जाने लगी थीं। डाकरस दण्डनाय के नेतृत्व में वृद्धजनों, बच्चों आदि की देखरेख के लिए एक रक्षक दल बनाया गया था। चिकित्सा सम्बन्धी जरूरतों के लिए पण्डित चारुकीर्ति के नेतृत्व में सौ वैद्यों का जत्था संटित किया गया था। प्रमुख अतिथियों की अगवानी के लिए एक स्वागत समिति माचण दण्डनाथ के नेतृत्व में बनायी गयी थी। स्वयं महाप्रधान गंगराज पट्टाभिषेक समारम्भ की व्यवस्था करेंगे और महादण्डनायक मरियाने जुलूस की व्यवस्था और देखभाल करेंगे। मनोरंजन एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी कवि नागचन्द्र के नेतृत्व में संगठित एक समिति को सौंपी गयी थी। इस समिति में राजमहल के, महादण्डनायक निवास के और हेगड़े परिवार के गुरु, बैजरस, रावत, मायण आदि शामिल थे। चिण्णम दण्डनाथ एवं मारसिंगच्या को राजमहल की आन्तरिक कार्य-व्यवस्था का जिम्मा दिया गया था। चालुक्य सम्राट तथा पिरियरसी आदि को बलिपुर में ही स्वागत करके द्वारसमुद्र तक सुव्यवस्थित रूप से लिवा लाने का दायित्व सिंगिमय्या को सौंपा गया था। इस सारी व्यवस्था के साथ सबसे पहले बच्चों के दूध की व्यवस्था भी की गयी थी।
वों इस महान समारम्भ के अभूतपूर्व आयोजन के कारण राजधानी में उत्साहपूर्ण चहल-पहल थी। राजधानी में आनेवाली गाड़ियों, बैलों और घोड़ों को नये ढंग से सजाया जा रहा था।
इन चाहनों, बैलों और घोड़ों को उनके मालिकों ने खूब सजाया था। इस समारम्भ के अवसर पर लाखों की तादाद में लोगों के एकत्रित होने की सम्भावना तो थी ही, इसलिए बड़े-बड़े व्यापारियों ने राज्य के नाना भागों से आकर एक अस्थायी बाजार ही लगा दिया था। कपड़े, जेवरात, वस्त्र-वासन, खिलौने आदि की दुकानें ज़्यादा लगी थीं। रसद और खाने-पीने की चीजों की दुकानों को लगाने की मनाही थी। इस उत्सव में सम्मिलित होने के लिए आनेवाले सभी लोगों के लिए मुफ़्त में रहने और खाने-पीने आदि की व्यवस्था की गयी थी। इस वजह से ऐसी दुकानों को लगाने की अनुमति नहीं दी गयी थी। इस अवसर पर राजधानी आनेवाले सभी लोगों को राजमहल का ही अतिथि मानने का निर्णय किया गया धा।
इस अवसर पर दोरसमुद्र पहुँचनेवाले घोड़े-बैलों के ठहराने, घास-कुल्थी आदि की व्यवस्था के लिए राजधानी के दक्षिण-पूर्व के कोने में स्थित उद्यान में व्यवस्था की गयी थी। गाड़ीवालों के ठहरने के लिए उस उद्यान के चारों और छोटे-छोटे तम्बू
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घ झोंपड़े लगाये गये थे।
इस तरह पट्टाभिषेक महोत्सव के लिए सभी और से आनेवाले लोगों के लिए किसी तरह की तकलीफ न हो-ऐसी व्यवस्था सुचारु रूप से की गयी थी, सभी के लिए सब तरह की सहूलियत मिले-ऐसा सारा इन्तज़ाम किया गया था। यह सारी व्यवस्था प्रधान गंगराज एवं मरिमाने दण्डनायक-इन्हीं दो के संगठन के बल पर हुई थी। व्यवस्था सम्बन्धी प्रगति का विवरण उसी समय महाराज तथा युवराज को पहुँचाया जाता था। इस व्यवस्था की रीति से महाराज विनयादित्य बहुत सन्तुष्ट थे। खासकर प्रधानजी और महादण्डनायक की लगन और श्रद्धा को देखकर उनके बारे में पहले जो एक तरह की अमन्तोष भावना थी, वह सब जाती रही। इस तैयारी के दौरान ही महाराज विनयादित्य ने कुमार बल्लालदेव को अपने पास बुलाकर यह समझाते हए कहा कि जिस तरह बुबगज एरेयंग नकी सहायता करते रहे उसी तरह बल्लाल को भी अपने पिता की करनी चाहिए। तुम्हारे पिता की कार्य-क्षमता से मैं बहुत प्रसन्न और सन्तुष्ट हूँ। अप्पाजी, तुझे उनके सद्गुणों की अपेक्षा अधिक सद्गुणी, अधिक दक्ष और कर्तव्यपरायण होना चाहिए। तुम्हारे पिता ने मात्र यश लाभ से कभी कोई कार्य नहीं किया। वह निष्काम भाव से कार्य करते हैं। सभी ऐसा नहीं कर पाते। हमारे इस साम्राज्य को तिगना से भी अधिक विस्तार तुम्हारे पिता के ही परिश्रम का फल है। उन्हीं की तरह तुम गण-ग्राहक बनकर रहना चाहिए। कभी मन में यह विचार धारण मत करना कि गुण से अधिकार बढ़ा है। गुण सर्वोपरि है। सद्गुणों को पहचानना और गुणवानों का आदर करना, यही हमारे इस वंश की रीति रही है। हमारी प्रवृत्ति गुण और निष्ठा पर आधारित कार्य करने की होनी चाहिए। यदि ऐसा न होता तो हमारे दण्डनायक कहीं एक साधारण लिपिकार बनकर ही पड़े रहते। गुण के कारण ही तुम्हारी दादी ने उन पर भाई का-सा वात्सल्य रखा था। परन्तु उनका कह वात्सल्य अपात्र पर नहीं था, यही हमारे लिए तृप्ति और सन्तोष का कारण है। उनका जीवनादर्श, कुछ छोटे-मोटे स्वार्थ छोड़ दें, तो अच्छा ही है।
वधन्ती और पट्टाभिषेक का समय निकट आता गया।
मनोरंजन का कार्यक्रम भी बना। कुश्ती, तलवार तथा धनुविधा, अश्वारोहण का प्रदर्शन, लोकनृत्य-गीत, पहाड़ी जनजातियों का सामूहिक नृत्य आदि की व्यवस्था बाहर-खुले मैंदान में राजमहल के सामने ही की गयी थी। महल के अन्दर केवल आमन्त्रित अतिथियों के लिए ही मनोरंजन आयोजित था। इसमें शान्तला का नृत्य-गान और दण्डनायक की बच्चियों के सम्मिलित नृत्य की भी व्यवस्था थी। पद्मला ने नाचने से स्पष्ट इनकार कर दिया और कहा कि बहिनें जब नृत्य करेंगी तो वह गीत गा देगी। राजकुमार के समक्ष वह नृत्य करेगी तो
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उसका असर राजकुमार के मन पर अच्छा पड़ेगा --यह चामब्वे का इरादा था। - इसलिए उसने महापात्र से कहलवाया भी। किन्तु पद्मला ने जब इनकार कर दिया तो दण्डनायिका को कुछ गुस्सा भी आया। असल में उसके संकोच का कारण था कि अब बल्लाल के साथ उसका पहले जैसा मेलजोल नहीं रह गया है। इसलिए बल्तान के सामने नृत्य करने का मन उसका नहीं हो रहा था। चारों लड़कियों में वह बड़ी भी थी। उसने कभी ऐसे साबजनिक समारोहों में नृत्य किया भी नहीं था। अतः बड़ी आयु की बजह से उत्पन्न सहज लज्जा और अन्य ने बता सकनेवाली अनेक भावनाओं के कारण उसने नृत्य करना स्वीकार नहीं किया था। दुःखी चामञ्चे चाहती थी कि किसी भी तरह पबला राजकुमार का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने में सफल रहे। जब पद्यला गीत गाने को राजी हो गयी तो उस घोड्ना सन्तोष हुआ। वह चाहती थी कि उसकी लड़कियाँ हेगड़ती की लड़की से ज़्यादा श्रेष्ठ लगें। यूँ अब उसका मन काफ़ी परिवर्तित हो गया था। हेग्गड़ती तथा उसकी लड़की के बारे में पहले जैसा द्वेष अब उसमें नहीं था। यह भावना भी आयी थी कि वे अच्छे लोग हैं, फरेबी नहीं। मगर कर तो क्या, कोई आशंका उसके मन में दानवी की तरह हड़कम्प मचाने लगती। सोचती, युवकों का मन ज़्यादा विश्वसनीय नहीं होता। नज़र इस ओर से उस और फिर जाने में देर ही क्या लगती हैं? फिर भी डोरप्समुद्र की हाल की अनेक घटनाओं ने उसके मन में भय को भावना भर दी थी। इसलिए वह कोई भी कदम हिचकिचाकर उटाती। इसी कारण खुराई की बात वह सोच भी नहीं पायी थी। वह इतना ही चाहती थी कि बल्लाल ने उसकी लड़की को जो बचन दिया था, वह पूरा हो जाए। बानी और जो भी हो जाए तो ठीक, न हो सो भी ठीक। ___ चामला को इस बात की खुशी थी कि शान्तला के साथ इसी मंच पर चढ़ने का मौका उसे मिला हैं। अपनी इस खुशी को उसने शान्तला के सामने व्यक्त भी किया। उसने कहा, “जिस पंच को तुम्हारे चरणों ने स्पर्श किया उसी मंच पर चढ़ने का सौभाग्य मुझे मिला है, शान्तला । तुम्हारी शुभकामना रहेगी तो मैं भी यशस्वी हो सकेंगी। पढ़ाते समय गुरुजी ने कहा था कि यह कला दूसरों के मन को सन्तुष्ट करने के लिए ही है। अतः कलाभ्यासियों को सार्वजनिक रूप में कला का प्रदर्शन करते हुए लजाना नहीं चाहिए।'
"गुरुजी ने ठीक ही कहा। तुम्हारी दीदी भी नृत्य करती तो अच्छा था। परन्तु अरुचि होने पर कला का विकास रुक जाता है। अगर वह नृत्य करती तो बड़े राजकुमार सचमुच बहुत खुश होते।" शान्तला ने कहा। __"यह तो वह भी महसूस करती है। पहले तो उनके सामने जाने पर वह स्वर्गसुख का अनुभव करती थी। परन्तु पता नहीं आजकल क्यों वह उनका नाम
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नने पर कछुए की तरह अपने अंग समेट लेती है और अन्तर्मुखी हो जाती है।" . चामला ने कहा।
"ऐसा हैं तो कोई दूसरा ही कारण होना चाहिए, चामला। इस उत्सव के समाप्त हो जाने के बाद उन्हीं से इसका पता लगाना चाहिए। किसी भी विषय को दिल में रखकर घुटना नहीं चाहिए। इससे मन अस्वस्थ हो सकता है।"
''मेरे पूछने पर तो वह कुछ बोली नहीं। तुहीं कोशिश कर देखो।" "अच्छा, कोशिश करूंगी।" शान्तला ने कहा।
पहले से चली आ रही उनकी मित्रता इस बातचीत से और भी प्रगाढ़ हो गयी। चूँकि शान्तला दोरसमुद्र में ही अब रहती थी, इसलिए निकटता स्वाभाविक ही थी। हेग्गड़ती की लड़की के साथ अपनी लड़की की इस मैत्री से दण्डनायिका चिढ़ती जरूर थी, मगर बोलती कुछ नहीं थी। 'उत्सव के सन्दर्भ में किसी के दिल को दुखाना नहीं चाहिए। यह सब समाप्त होने पर एक बार विवाह का निर्णय तो हो जाय, वाद में कहाँ किस युग को कैसे कसना होगा, उस फैसकर ही छोडूंगी। मैं छोड़नेवाली नहीं' -यही सोचकर वह इनकी आत्मीयता को सहती रही।
अभी हाल में ही शान्तला ने औत्तरेय पद्धति का नृत्याभ्यास भी शुरू कर दिया था। इसके लिए दण्डनायिका बहुत लड़-झगड़े लेने के बाद राजी हुई थी। वात यह थी कि एक बार महापात्र हेग्गड़ेजी के घर शान्तला के नृत्याभ्यास के वक्त उपस्थित थे। तब उन्होंने स्वयं प्रेरित होकर कहा था-"अम्माजी! अपनी औतरेय विद्या का दान तुम्हें देने का निर्णय मैंने अभी-अभी किया है। तुम्हें मेरी शिष्या बनने की स्वीकृति देनी होगी। स्वीकृति देने के लिए मैं तुम्हारे गुरुजी से प्रार्थना करूँगा।"
शान्तला के गुरु को कोई आपत्ति नहीं थी। लेकिन महापात्र दण्डनायक जी के घर के अध्यापक थे, अतः उनकी अनुमति लेना महापात्र को जरूरी था।
शान्तला सीखना चाहती थी। उसके गुरु ने महापान के इस इरादे का स्वागत किया था। महापात्र ने दण्डनायक से स्वयं अनुमति प्राप्त की थी। कुछ महीनों तक अभ्यास भी हुआ था। शान्तला की ग्रहण-शक्ति तथा सीखने में उसकी श्रद्धा
और आसक्ति से महापात्र अपरिचित नहीं थे। विषय को समझकर उसके अनुसार अनुष्ठान में शान्तला की तीव्रगति देखकर वह चकित हो गये थे। उनकी इच्छा थी कि पट्टाभिषेक के अवसर पर शान्तला भरतनाट्यप् के प्रदर्शन के साथ-साथ औत्तरेय नृत्य दिखाये। इससे औत्तरेय पद्धति में नृत्य सीखने का उत्साह पोय्सल राज्य के नागरिकों में पैदा हो जाएगा और विद्यादान करने के लिए अधिक अवसर मिलेगा-यह महापात्र का विचार था। यह सोचकर कवि नागचन्द्र और शान्तला के गुरु गंगाचारी को समझा-बुझाकर इस औत्तरेय नृत्य को भी कार्यक्रम में
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सम्मिलित कराया। जव शान्तला को यह बात मालूम हुई तो उसने इस आतप . पद्धति के नृत्य से स्पष्ट इनकार कर दिया। उसने कहा-"मुझे इस पद्धति की रीति-नीति का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है। ऐसी हालत में प्रतिष्ठित सभासदों के सामने उसे प्रदर्शित कर मैं उस कला का अपमान नहीं कर सकती।' इस वजह से यह बात जहाँ की सहीं रह गयी। फिर भी महापात्र यह सोच रहे थे कि किसी तरह से अधिकारी स्तर के लोगों से कहलवाने पर कार्य हो जाएगा। परन्तु उन लोगों से करें कसे: गन्होंने सोचा कि दण्डनायिका से इस काम में मदद लें। दण्टनायिका ऊपर से आत्मीयता दिखानेवाली हैं। यह अनुभवी महापात्र अच्छी तरह समझते थे। यह भी वह जानते थे कि वह हेगड़े परिवार से अन्दर-ही-अन्दर जलती है। इंगट नायिका की इसी इंा की आड़ में उन्होंने अन्तिम क्षणों में शान्तला पर दबाव डालने की कोशिश करनी चाही। बार-बार उनके मन में एक ही बात उठती, इससे अपने देश की इस कला के लिए यहाँ प्रोत्साहन मिल जाएगा
और सान्तला की प्रतिभा का परिचय भी हो जाएगा, वह विख्यात हो जाएगी। तक्ष्य उत्तम है। और ललम लक्ष्य की सिद्धि के लिए कुछ इधर-उधर भी किया जाए तो अनुचित नहीं।
जैसे-जैसे पट्टाभिषेक समारम्भ निकट आता गया, दोरसमुद्र में सर्वत्र आनन्द-हा-दानन्द हिलोरें लेने लगा। सुदी पंचमी के दिन भावी महाराज और युवराज के मंगल स्नान की पूर्व वेला में तूर्यनाद चारों जोर प्रतिध्वनित होने लगे। महाभारत के समय से ही चला आ रहा यह विजयोत्सव इस बार विशेष महत्त्वपूर्ण था। महाभारत का विजयोत्सव कन्नद राज्य में ही तो आरम्भ हुआ था।
गौ-संरक्षण हेतु युद्ध में अर्जुन ने इसी कन्नड़ राज्य में विजय पायी थी। उसी के स्मृति स्वरूप यह विजयोत्सव सम्पन्न होता रहा है। गौ-रक्षा धर्म-रक्षा का प्रतीक है। इस धर्म-रक्षा के कार्य में पोसलों की अपार आस्था के कारण इस उत्सव में उनकी श्रद्धा स्वाभाविक ही थी।
पमाभिषेक के पाँचों दिन पाँच पावन नदियों के जल से भरे कुम्भों द्वारा पूजा का विधान था। प्रतिदिन एक-एक कम्भ की पूजा शास्त्र विधि के अनुसार करने का निर्णय पुरोहित वर्ग ने किया था। प्रथम दिन पाँच-सुमंगलियाँ पाँच जलपूर्ण कलशों को पवित्र थाली में रखकर, सिंहासन की तीन बार परिक्रमा कर उसे प्रोहितों को सौंपेंगी। यह काम गंगराज की दोनों पत्नियों लक्कलदेवी और नागलदेवी, दण्डनायिका चामब्बे, चन्दलदेवी और हेग्गड़ती माचिकब्जे-इन 'सुमंगलियों को सौंपा गया था। 'उन पाँच सुमंगलियों में डाकरस की पत्नी या दण्डनायक की बहूँ एचिथक्का की हेग्गड़ती के बदले चुना होता तो इनका क्या बिगड़ जाता ?-चों मुझ जैसी बहू को छोड़कर उस हेग्गड़ती को चुना है, जिसने
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अपने वंशोद्धार के लिए एक पुत्र तक को नहीं जना। क्या मैं दो पुत्रों की माँ उससे घटिया हूँ?' एचियक्का के मन में इस तरह के विचार उट रहे थे। परन्तु उसे क्षण-भर के लिए भी यह नहीं सूझा कि सधःप्रसूता होने के कारण इन शास्त्रीय विधि-विधानों का पालन उससे नहीं हो सकता। इस तरह की बात एरेवंग प्रभु की बेटी केळेचलदेवी भी सोच सकती थी। सुमंगली पुत्री से श्रेष्ठ सुमंगली दूसरी कौन हो सकती है? वास्तव में दुस्खी उसे होना चाहिए था। पाँचों में उसे शामिल नहीं किया गया था। फिर भी उसे ऐसा कुछ भी नहीं लगा। आखिर वह युवरानी एचलदेयी की पुत्री जो है। ___पाँचों गुरुओं को बुलाकर प्रतिदिन गुरुसेवा करने की व्यवस्था की गयी थी। प्रभु एरेयंग के गुरु अजितसेनाचार्य और एचलदेवी के गुरु गुणसेन पण्डित, मेघचन्द्र विध, माघनन्दि मुनिवर और शुभचन्द्र देव इन लो तुमया गया था। सारी तैयारियाँ होने लगी थीं। ____ पंचमी के दिन इन पाँच सुमंगलियों में से दो वृद्ध सुमंगलियाँ-नागलदेवी और चामब्बे दण्डनायिका-इन दोनों ने युवराज, युवरानी और राजकुमार को मंगल-स्नान के पहले भद्रासन पर बिठाकर तैल-स्पर्श का मंगलोपचार किया। उनकी आरती उतारी गयी। इसके बाद वह आरती राजमहल की ड्योढ़ी पर उतारी गयी। तदनन्तर उस थाल के जल को राजमहल की ड्योढ़ी पर छिड़कने के लिए गयी दण्डनायिका। जल छिड़कते समय वह पौड़ी से टकराकर गिरने ही वाली थी कि ड्योढ़ी का सहारा पाकर बच गयी। फिर भी आरती की थाल का वासन्ती जल उसकी क़ीमती जरीदार रेशमी साड़ी पर गिर ही गया। बचा-खुचा जल वह पौड़ी पर वहीं से छिड़ककर लौट आयी। वहां से भद्रासन से लये बारहदरी की ओर न जाकर सीधे पूजा-घर में चली गयी। वहीं थाल रख दिया। फिर साड़ी बदलने के लिए उस कमरे में चली गयी जहाँ उन लोगों ने अपना सामान व बक्से रखे थे। स्त्रियों के सारे पहनाये रखने की व्यवस्था उसी कोठरी में की गयी थी और गोंका उसकी रखवाली पर नियुक्त धा। दण्डनायिका की भीगी साड़ी देखकर वह पूछ बैठा, "क्या हो गया दण्डनायिका जी, स्नानघर में फिसल गयीं क्या कहीं चोट तो नहीं आयी?" ___ "कुछ नहीं" कहकर वह अन्दर चली गयी और किवाड़ बन्द कर लिये। वह जहाँ खड़ी हुई थी, वहाँ दो-चार खून की बूंदों के धब्बे गोंका को दिखाई दे गये। दण्डनायिका साड़ी बदलकर जब आयी तो उसने कहा, "पैर में चोट लगी होगी, खून बह रहा होगा। शायद आपने ध्यान नहीं दिया होगा!"
"कुछ नहीं कुछ नहीं," कहती हुई वह बारहदरी की ओर बढ़ गयी। इस बीच युवराज बगैरह स्नान करने चले गये थे।
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गोंका ने यह बात रेविमय्या को बतायी। रेविमय्या ने बात सुन ली, मगर कुछ बोला नहीं। दोनों ने ही जैसे यह घटना भुला दी।
पहले दिन उत्सब की सारी विधियों शास्त्रोक्त रीति से सम्पन्न हुई। दूसरे दिन दोपहर के समय बलिपुर से सिंपिमव्या आये। चालुक्य चक्रवर्ती के यहाँ से जो पत्र आया था, उन्होंने उसे अपने बहिनोई के हाथ में भोजन के बाद दिया। भोजन के उपरान्त एरेयंग प्रभु ने कहा, "कल्याण से चक्रवती जी नहीं आये और न उनकी तरफ से कोई सूचना झी मिली?" यह सुनकर हेग्गड़े मारसिंगय्या बोले, "अभी बलिपुर से हेग्गड़े आये हैं। यह लपेटा हुआ पत्र चक्रवर्ती की ओर से आया है।" कहकर उसे प्रभु के हाथ में देने के लिए आगे बढ़े। उस समय वहाँ इन दोनों के अलावा अकेला रेबिमय्या ही उपस्थित था। प्रभु एरेयंग ने कहा, "आप ही पदिर हेगड़ेजी, सारी विरुदावली आदि को छोड़कर पत्र का मुख्यांश भाव ही पढ़िए।'' पत्र का मुख्यांश यों था
"आपको हमने भाई की तरह माना था। उसी आत्मीयता के कारण हमने अपना विरुद आपको प्रदान किया था। आपका सिंहासनारोहण होना उचित है। फिर भी पहले हमें सूचित करने के बाद यह व्यवस्था होती तो अच्छा लगता। आपने क्यों ऐसा किया यह मालूम नहीं हुआ। आपके सिंहासनारोहण का उत्सव सुखपूर्वक सम्पन्न होवे। एक बात हमें लाचार होकर बतानी पड़ रही है कि हमने आत्मीयतावश बलिपुर प्रान्त आपके मातहत किया था। अब उसे हम अपने वनवासी प्रान्त के अन्तर्गत कर रहे हैं। आप अपने हेगड़े को वापस बुलवा सकते हैं। हम आपके सिंहासनारोहण के इस शुभ अवसर पर उपस्थित नहीं हो सके, इसका हमें खेद है।
इति,
श्री विक्रमादित्य" __प्रभु एरेयंग ने कहा, "पत्र इधर दीजिए, हेगड़ेजी। पत्र में हस्ताक्षर और राजमुद्रा असली है या नहीं, क्योंकि चक्रवर्ती को ऐसा लिखने का कोई कारण नहीं।' उन्होंने पत्र लेकर देखा। बहुत देर तक वैसे ही बैठे देखते रहे। हेग्गड़े को कुछ सूझा नहीं कि क्या बोलें। वे मूर्तिवत् खड़े रहे।
कुछ देर बाद पत्र को लौटाते हुए प्रभु ने कहा, "इस बात की अभी किसी से चर्चा मत कीजिएगा। हम चुपचाप इस पर विचार करेंगे। लगता है, इसमें किसी का हस्तक्षेप है। इसे गप्त ही रखें।"
मारसिंगच्या पत्र हाथ में लिये वैसे ही खड़े रहे।
"अब आप जाइए। बहुत देर तक मेरे साथ एकान्त में रहने पर हो सकता है, लोग कुछ और ही अर्थ लगाएँ ।"-प्रभु एरेयंग ने कहा। हेग्गड़े मारसिंगय्या
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बाहर निकल आये। जहाँ उनका साला हेगड़े सिंगिमय्या प्रतीक्षा कर रहा था। उन्हें भी साथ लेकर मन्त्रणालय की ओर चल दिये।
रेबिमय्या कमरे में ही रहा। प्रभु ने उससे कहा, "देखो रेबिमय्या, अपना मुँह बन्द रखना। कोई अगर पूछे कि चक्रवर्ती क्यों नहीं आये तो कहना- "वहाँ से समाचार मिला है। उनका स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण वे आ नहीं सके। उन्होंने आशीर्वाद भेजा है। हेग्गड़े मासिंगय्या से भी कह दो, वक्त मिलने पर वे प्रधानजी
और महादण्डनायक से यहीं समाचार कहें।" उसने स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिता तो दिया, मगर अन्दर-ही-अन्दर बहुत व्यथित हुआ। मन-ही-मन कहने लगा, "बड़ों के छोटेपन का इससे बढ़कर कौन-सा उदाहरण मिलेगा: बहुत छोटी-सी बात को बड़ा बनाकर उनके लिए प्राण देनेवाले हमारे प्रभु का यों अपमान करें: हमारे प्रभु की निःस्वार्थ सहायता का यही प्रतिदान दिया है? ईश्वर कभी क्षमा नहीं करेंगे। बलिपूर प्रान्त को आज छीन लेंगे तो उससे दस गुना खोने के लिए यह अंकुरारोपण होगा। उन्होंने जिस नीयत का बीज बोया यह उनके लिए ही काँटा बनेगा, इसमें कोई शक नहीं।" यो सोचते-सोचते रेविपय्या का मन चालुक्य चक्रवर्ती के प्रति गुस्से से भर आया था। समय पाकर रेविमय्या ने मारसिंमय्या को प्रभु की आज्ञा सुना दी। उन्होंने प्रधानजी और दण्डनायक जी को यह खबर पहुंचा दी। महाराज को स्वयं प्रभु एरेयंग ने यही ख़बर दी।
उसी रात को महादण्डनायक के घर में बात उठी। सभी आगन्तुकों के आने पर जब चालुक्य चक्रवर्ती और पिरियरसी नहीं आएँगे तो बात उठे बिना कैसे रहेगी? चामब्बे दण्डनायिका ने अबकी बार पिरियरसी जी का मन सेवा-सत्कार द्वारा जीत लेने की सोच रखी थी। स्वाभाविक था कि उनके नहीं आने से अब सबसे ज़्यादा बही परेशान थी। सो उसी ने बात शुरू की। महादण्डनायक ने बात बता दी। तुरन्त चामब्बे बोली, "उन्हें दोरसमुद्र की आबोहवा ठीक नहीं लगी होगी। उस समय भी स्वास्थ्य अच्छा न होने के कारण पिरियरसी जी को बुलया लिया था। अब की बार भी यही हुआ। इस भगवान की भी आँखें बन्द हैं।"
"तुम्हारी इच्छा पूरी नहीं हुई तो भगवान को बुरा-भला क्यों कहती हो? जो होना है वह तो होगा ही। उनके न आने से यहाँ का कोई काम नहीं रुकेगा। समझीं।" कहकर दण्डनायक ने बात यहीं खत्म कर दी।
इस खबर से सबसे अधिक निराशा किसी को हुई तो शान्तला और दासब्बे को। रेबिमय्या से उनके आने के बारे में बराबर पूछते रहने के कारण शान्तला का मन निराश होना स्वाभाविक ही था। इस शुभ अवसर पर पिरियरसी के दर्शन होने की महान आशा जव निराशा में बदल गयी तो वह बहुत अनमनी-सी हो गयी। पिरियरसी जी के साथ गालव्ये आएगी ही। दासब्बे अपनी बहिन गालव्ये
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से मिलने की आशा लगाये बैठी थी। इस खयर से वह भी निराश हो गयी थी। . हेग्गड़ती भाचिकब्बे भी यह समाचार सुनकर बहुत परेशान हुई। उसने सोचा कि पिरिवरसी जी जरूर आना चाहती होंगी परन्तु चक्रवती के अस्वास्थ्य के कारण नहीं आ पाएंगी। बेचारी बहुत चिन्तित होंगी। 'मगवान से प्रार्थना है कि चक्रवती शीघ्र ही स्वस्थ हो जाएँ।। __ पट्टाभिषेक महोत्सव में आये अतिथियों का सिवा इस उत्सव के किसी दूसरी बात पर ध्यान ही नहीं था। इन्द्र की अमरावती की तरह सजी-सजाई राजधानी को देखकर मुग्ध ग्रामीण इस पट्टाभिषेक महोत्सन को और अपने नये महाराज और युवराज को हौदे पर बैठे देखने के लिए बहुत उत्साह से प्रतीक्षा कर रहे थे । घर-घर की मंजिल-मंजिल पर पोयसलों की व्याघ्र पताका को फहरत देखकर वे उमंग भरे उत्साह से पुलकित हो रहे थे। मुनि के आदेश के अनुसार भयंकर व्याघ्र को मार गिरानेवाले महानभाव वीरसल का बंश था यह। यह पताका उसी का प्रतीक थी। इस झण्डे के नीचे केसे भी डरपोक निडर हो जाते थे। इन पताकाजी को आसमान में फहरते देखकर सब लोगों में वीरावेश आ गया था। राजधानी में उत्साह छलक रहा था।
क्रमानुसार भन्नपूत पवित्र जलकुम्भ स्थापित किये गये, पंच गुस्ओं का सम्मान समारम्भ यथाविधि सम्पन्न हुआ। इन सब कार्यो की समाप्ति पर महानवमी के दिन महाराज ने अपने प्रिय अश्व की पूजा की और उस पर सवार होकर राजमहल के अहाते में स्थित जिन-मन्दिर तथा शिव मन्दिरों की तीन बार परिक्रमा की। दूसरे दिन आरोहित सिंहासन किरीट, करवाल आदि सबकी पूजा करके पंच कलश लानेवाली पांचों सुमंगलियों को मंगल द्रव्य समेत धस्न आदि देने के साथ भोजन कराया गया। ___अश्व की पूजा राजमहल के सामने के अहाते में व्यवस्थित की गयी थी। उसी अहाते में निर्मित शामियाने के एक भाग पर कुछ ऊँचा स्थान बना था जहाँ महाराज विनयादित्य के बैठने के लिए भद्रासन स्थापित था। महाराज अपनी विरूदालियों के साथ वहाँ उपस्थित हुए। बन्दी-मागधों ने विरुदावलियों की घोषणा की। राजकुमार बिट्टिदेव और उदयादित्य महाराज के दोनों तरफ़ आकर बैठे। प्रभु एरेबंग एचलदेवी के साथ राजमहल के अन्दर से आये। उनकी बग़ल में राजकुमार बल्लाल भी था। सालंकार भूषित उन दम्पतियों को देखकर उपस्थित जन-समुदाय ने हर्षोल्लास किया। दम्पतियों ने झुककर सबको अभिवादन किया । लोगों ने साक्षातू लक्ष्मी-नारायण ही समझकर उन्हें प्रणाम किया।
जन-समूह एक साध कह उठा, “पोसल साम्राज्य चिराय हो! विनयादित्य महाराज की जय! एरेयंग प्रभु की जय! राजकुमार बल्लाल देव की जय!'' यह
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जय-जयकार दिग्टिगन ना व्याप गयी ! दम दिला जय-नाका मे गत उठीं।
महाराज बिनयादित्य, प्रभु एरेयंग और राजकुमार बल्लाल और युवरानी एचलदेवी ने हाथ जोड़कर सबको प्रणाम किया। प्रजाजन के आनन्दोत्साह ने इनके हृदयान्तराल को भर दिया था।
प्रभु एरेयंग ने चारों ओर नज़र दौड़ायी। महाराज से थोड़ी ही दूर पर पांचों गुरुवर्य और उनसे कुछ ही दूरी पर पाँचों सुमंगलियाँ बैठी थीं। प्रभु ने दोनों तरफ़ झुककर प्रणाम किया। सामने खड़े अश्वराज को देखा। वह भी बहुत सुन्दर ढंग से सजा हुआ था। इसके अतिरिक्त राजमहल के महाद्वार से लेकर अहाते के सदर फाटक तक एक जैसे सजे-सजाये थोड़ों की कतारें आमने-सामने खड़ी थीं। और उन पर सम वस्त्रधारी सवार गौरव रक्षा (सलामी देने) के लिए तैयार थे। फ़ौजी समुदाय के प्रतीक के रूप में यह व्यवस्था की गयी थी। इस प्रसंग में यह व्यवस्था उत्सव के महत्त्व को बढ़ा रही थी। प्रभु ने फिर से जन-समुदाय की ओर नज़र दौड़ायी। एक तरफ़ स्त्री और दूसरी ओर पुरुष समुदाय का समुद्र-सा फैला हुआ था। अहाते के उत्तर और दक्षिण के द्वारों तक सशस्त्र सैनिक करीने से आमने-सामने कतारों में खड़े थे। अश्वपूजा के बाद परिक्रमा के लिए निर्धारित मार्ग की रक्षा के लिए सैनिक पोक्तबद्ध खड़े हुए थे। श्रीमान् महाराज, गुरु पंचक, सुमंगली पंचक, राजमहल से लगे एक तरफ़ बैठे तो दूसरी तरफ़ प्रधानजी, मन्त्रीगण, दण्डनायक. सामन्त राजे, सम्भ्रान्त महापुरुष एवं गण्यमान्य नागरिक बैठे थे।
पुरोहितों द्वारा अश्वपूजा आरम्भ करने से पहले मंगलवाध गूंज उठे। यथाविधि अश्वराज की पूजा सम्पन्न हुई। खुद एरेबंग प्रभु ने चमेली के फूलों की माला अश्वराज को पहनायी। इसकी परिक्रमा करके माथा छूकर उसे प्रणाम किया। पीठ सहलाकर उस पर सवार हुए। बहुत दिनों से उस पर सवार नहीं हुए थे, इस कारण से उस अश्व की तन्द्रा भंग हुई, उसमें उत्साह आया। उसने हिनहिनाकर अपनी खुशी व्यक्त की। एरेयंग प्रभु जिन-मन्दिर, शिव-मन्दिर आदि के दर्शन करके महाद्वार के पास आये। उन्हें महाराज पद प्रदान करनेवाले महाराजा विनयादित्य स्वयं हाथों से थामकर गौरव के साथ राजमहल के अन्दर से लाये । उस दिन के कार्यक्रम यथाविधि सम्पन्न हुए। इन सबके पश्चात् एक कार्य शेष रह गया था। वह था, अन्तःपुर के देवमन्दिर में जाकर युवराज, बुवरानी और दल्लाल को प्रणाम करके आना । पाँचों सुमंगलियाँ पहले ही जाकर मन्दिर के द्वार के दोनों ओर खड़ी हो गयीं थीं। एरेयंग प्रभु ने अन्दर प्रवेश करने के लिए पैर उठाया ही था कि पौर से टकरा गये। वे गिरने ही वाले थे कि तुरन्त एचलदेवी ने जो उनके बग़ल में थी और दो सुमंगलियों ने उन्हें थाम लिया। गिरने से बच गये। फिर ये पत्नी-पुत्र
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के साथ अन्दर जाकर प्रणाम कर बाहर आये। समंगलियों ने उनकी आरती उतारी। पश्चात् प्रभु अपने विश्राम कक्ष की ओर चले गये। उनके पैर से खून टपकने लगा था। मन्दिर से विश्राम-कक्ष तक रक्त की लकीर बन गयो थी। किसी का ध्यान उस तरफ नहीं गया था। परन्तु रेविभय्या की नजर में यह घटना छिपी न रहो।
शेष सभी लोग उस दिन के भोज में शामिल होने चले गये। एचलदेवी ने सभी के साथ राजकुमार को भोजन करने भेज दिया। अकेला रत्रिमय्या आंसू भरी ऑटो को सिटिमाला हिंट विमुद्ध- स्टड़ा रहा गोना नाहकीर्ति पण्डित को बुलाने चला गया। पण्डितजी आये और आवश्यक चिकित्सा करने के बाद बोले, "प्रभु आराम करें। उन्हें कुछ लघु आहार दें। यदि वे न चाहें तो खाने को जोर न डालें।" फिर बताया, 'एक प्रहर बाद मैं आऊँगा।" इतना कहकर बाहर चले गये। एचलदेवी भी उनके साथ बाहर निकल आयीं।
चारुकीति पण्डित ने सोचा कि शायद का पृष्ठने आयी हैं। उन्होंने कहा, ''घबराने का कोई कारण नहीं है, युवरानी जी, आप धीरज रखिा ।''
अच्छा पण्डितजी, यह बात बाहर किसी को मालूम न पड़े।"-चलदेवी ने बहुत ही संभलकर कहा। परन्तु उनके हदय की पीड़ा फुटकर बाहर निकल आयी और आँसू भर आये।
पण्डितजी ने उन्हें देखा। कहा, "इतना अधीर होंगी तो कैसे काम चलेगा ! आप धीरज धरिण। इस तरह आप प्रभु के सामने आँसू बहाएँगी लो उनकी छाती फट जाएगी। उनके लिए अब आप ही धीरज का सहारा हैं।" __“चहीं हो पण्डितजी, जिससे मेरा सुहाग बचे। इतना ही चाहती हूं," इतना कहकर तथा आँसू पोंछकर उन्हें विदा किया। और स्वयं अन्दर चली गयीं । रंबिमय्या पत्थर की तरह खड़ा रहा।
युवरानी ने उसे डाँटते हुए कहा, ''अरे रेविमय्या! पथराया हुआ-सा क्यों खड़ा है:" उसकी आँखें टिमटिमा रही थीं। कोरों में आँसू रुके हुए थे।
एचलदेवी ने कहा, “जाओ, और प्रभु के लिए भोजन ले आओ।" ''हाँ' कहकर वह चला गया ।
एचलदेवी पलंग पर पतिदेव के निकट बैठ गयीं। उनका सिर सहलाती हुई बोलीं, 'प्रभु! बहुत खून बहा है। दई बहुत हो रहा होगा न?"
"अब उतना दर्द नहीं है। पता नहीं क्यों आँखों में अँधेरा-सा छा गया। सिर्फ दो ही क्षण ऐसा रहा।..,मुझे आहार नहीं चाहिए। रविमव्या को यहाँ रहने के लिए कह दो और तुम जाकर भोजन कर आओ।" __“वह आपके लिए भोजन लाने गया है। मंगलस्नान करके उपवास नहीं रखना चाहिए। जितना भी खाया जा सके, खाइए। मैं बाद में ही खाऊंगी।"
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"जैसा तुम चाहो। कल तक चलने लायक हो जाऊँ तो ठीक है।" . ''सब ठीक हो जाएगा प्रभु, पण्डितजी ने भी यही कहा है।"
"यं कभी कोई दूसरी राय नहीं देते । ज्योतिषी, वैद्य कभी बुरी बात पहले नहीं कहते ।।
किसी को नहीं कहना चाहिए। ऐसी हालत में ये ही क्यों बुरी बात कहेंगे? अब आप भी बातें न करें, थकान होगी। किसी तरह की चिन्ता-जिज्ञासा किये बिना आराम कीजिए।"
"ऐसा ही होगा।
वहाँ मौन छा गया। थोड़ी देर में रेबिमय्या ने भोजन लाकर आसन पर रख दिया। ___"बाहर ही रहो रेविमय्या, किसी को अन्दर मत आने दो।" एचलदेवी ने कहा। वह यन्त्रचालित-सा बाहर चला गया और दरवाजे को बन्द कर दिया।
. प्रभु ने थाली में परोसी भोजन सामग्री को देखा और कहा, "मझे निमित्त मात्र के लिए दो कौर पर्याप्त हैं। टेवि! तुम भी साथ भोजन करो तो कैसा रहे!" _ ''प्रभु के आनन्द में मैंने बाधा ही कब डाली है।"
भोजन समाप्त हुआ। घण्टी बजायी। रेविमय्या आया। उसस कहा, ''इस ले जाओ और तुम भी खाकर आ जाओ। तब तक गांका को वहाँ रहने के लिए कर दी। वह दरवाजे पर रहे।''
रेविमव्या हामी भरते हुए थाली उठाकर, "आपके भोजन के बिना...'' कह ही रहा था कि इतने में, “मेरा भोजन हो गया, जो कहा जाय उसे करो, जाओ!" एचलदेवी ने उसे आदेश दिया।
वह चला गया। प्रभु लेटे रहे और चलदेवी पंखा करती रहीं। प्रभु की जरा आँख लग गयी। एचलदेवी ने पंखा नीचे रख दिया। मन-ही-मन भगवान से अत्यन्त आर्त होकर प्रार्थना करने लगीं, “हे अहन ! प्रभु का सिंहासनारोहण आपको अच्छा नहीं लगा? एक समय अवश्य था जबकि वे सचमुच ही सिंहासन चाहते थे लेकिन वे अब बिलकुल नहीं चाहते। उन्होंने तो बड़ों की आज्ञा का पालन करने के उद्देश्य से ही स्वीकृति दी थी। हे भगवन्! आज तुम्हारे दरवाजे पर अपशकुन हुए तो इसका यही अर्थ लगाऊँ कि तुम्हें सिंहासनारोहण प्रिय नहीं लगा। हमें ऐसा ही तो समझना चाहिए न? न उन्हें महाराज बनने की इच्छा है
और न मुझे महारानी बनने की। मेरी मात्र यही इच्छा है कि मेरा सुहाग बना रहे। इसे बचाओ भगवन्!"
खा-पी चुकने के तुरन्त बाद रेविमथ्या आया और बोला, “पाँचों सुमंगलियों ने भोजन कर लिया है। अब उन्हें मंगल द्रव्य, पान-पट्टी आदि दी जानी है। इसके
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लिए पुरोहित युवरानी जी के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं।''
मगर एचलदेवी में अब पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया था। उन्होंने यन्त्रवत् पुरोहितों के आदेशों का पालन किया। ताम्बूल देकर उन सुमंगलियों के पैर छुए। उस समय उन्होंने पन-ही-मन प्रार्थना की, "मेरा सुहाग बना रहे, यही आशीर्वाद दें।" उन्होंने आशीर्वाद दिया। युवरानी एक-एक के पैर अलग-अलग स्पर्श कर आशीर्वाद ले रही थीं। जब उन्होंने दण्डनायिका के पैर छुए तो देखा कि उसके पैर का अंगूठा जख्मी था। पूछा-"यह क्या दण्डनाविका जी, आपके पैर के अंगूठे को क्या हो गया?"
कुछ नहीं! घर में इयोढ़ी से टकरा जाने से चोट आ गयी है।" दण्टनायिका का जवाब था।
यवरानी एचलदेवी का दिल क्षण-भर के लिए धड़क गया। उसकी समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों हुआ। उन्होंने जल्दी-जल्दी काम समाप्त कर सबको विदा किया और अन्दर चली गयीं।
माचिकब्बे को लगा कि युवरानी में कुछ परिवर्तन हुआ है परन्तु वह कुछ पूछने का साहस न कर सकी।
महानवमी के दिन दोपहर बाद मनोरंजन का कार्यक्रम था। पूर्व सूचना के अनुसार ढिंढोरा पिटवाया गया कि इस मनोरंजन के कार्यक्रम के समय भावी महाराज उपस्थित नहीं रह सकेंगे। वे अन्य कार्य में व्यस्त रहेंगे। अतः राजकुमारों के समक्ष यह कार्यक्रम चलेगा। उसी के अनुसार कार्यक्रम चला। सारा दोरसमुद्र महानवमी की रात्रि को दीपमालाओं से सजकर, धरती पर किसी नक्षत्र-लोक-सा लग रहा था। मनोरंजन से तृप्त जन-समुदाय ने इस उत्सव के हर्षोल्लास में भरकर सारी रात बितायी।
सुबह उठते ही फिर ढिंढोरा पिटवाया गया : "शास्त्रज्ञ पण्डितों की सलाह से युवराज का सिंहासनारोहण एवं राजकुमार का यौवराज्याभिषेक महोत्सव-दोनों तेरस के दिन शतभिषा नक्षत्र को वेला में सम्पन्न करने का निर्णय हुआ हैं। सबसे निवेदन है कि वे शान्तिपूर्वक उसमें सहयोग दें। आज सिंहासनारोहण का पात्र समारम्भ था और कोई कार्यक्रम नहीं रहा इसलिए राजमहल के प्रांगण में फिलहाल सार्वजनिकों का प्रवेश नहीं हो सकेगा। तेरस को ही प्रवेश के लिए द्वार खुलेंगे।" राजधानी के कोने-कोने में खबर पहुंचते देर नहीं लगी। उत्साह का सारा वातावरण एकाएक ठण्डा पड़ गया।
सारे अधिकारी राजमहल में इकट्ठे हुए। उन्हें युवराज की अस्वस्थता से अवगत कराया गया। पिछली रात आराम करने के बाद जब युवराज जागे तो उनका वह जख्मी पैर सूजकर हाथी के पाव-सा हो गया था। उसे हिला-डुला भी
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नहीं सकते थे। रात को ही वैद्य पण्डित गोपनन्दी और चारुकीर्ति दोनों ने मिलकर विचार-विमर्श किया। उनसे आश्वस्त होने के बाद ही महोत्सव को तेरस तक स्थगित करने का निर्णय लिया गया था।
E
राजमहल में रोशनी की जगह जैसे अँधेरा छा गया। बात को गुप्त रखकर भीतर ही भीतर चिकित्सा कार्य चलता रहा। परन्तु दुर्भाग्य कि सारे प्रयत्न बेकार गये। एकादशी के दिन धनिष्ठा नक्षत्र के उदय होने के कुछ ही देर बाद प्रभु एरेयंग की आत्मा परलोक सिधार गयी। आनन्द और उल्लास से भरा दोरसमुद्र दुःख का सागर बन गया। पट्टाभिषेक महोत्सव के आनन्द में भागी बनने के लिए जो जनसमूह एकत्र हुआ था उसे इस दुःखपूर्ण अन्तिम यात्रा में शामिल होना
पड़ा।
किसी को कभी दुःख न देनेवाली, सदा सबका हित चाहनेवाली एचलदेवी जैसी महासाध्वी की पुकार भी विधाता को सुनाई नहीं दी, उसका सुहाग ही छीन लिया।
महाराज विनयादित्य पुत्र-शोक के इस आघात को न सह सके, वे विस्तार पर आ पड़े।
पुरोहित वर्ग ने आकर बताया, "नक्षत्र अशुभ है, और ऐसे अशुभ नक्षत्र में मृत्यु होने के कारण छः माह के भीतर स्थान छोड़ देने की रीति है। वैसे राजगृह और गुरुगृह की लिए सभी नियम वागू नहीं हो अतः जैसा कि समझें, करें ।" महाराज, एचलदेवी और राजकुमार सभी का वहाँ रहने को जी नहीं कर रहा था इसलिए राजहित को स्वीकार कर वे बेलापुरी चले गये।
राजधानी के चारों ओर जो तम्बू लगाये गये थे उन्हें निकाल रखने की भी किसी को याद नहीं रही। जो लोग आये थे वे भी बिना अनुमति लिये चुपचाप लौट गये। हवा, पानी और धूप से वे तम्बू टूट-फटकर मानो विछोह के दुःख से अधोमुखी हो गये थे।
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राज्य की सारी जनता अपार दुःख- सागर में डूब गयी। "हाय, यह क्या हो गया। ऐसा नहीं होना चाहिए था।" कहती रह गयी। I
राजपरिवार के साथ चिण्णम दण्डनाथ, उनका परिवार और अमात्य मानवेग कुन्दमराय भी बेलापुरी को चल दिये। प्रधान गंगराज भी जाना चाहते थे । उन्होंने स्वयं महाराज से निवेदन भी किया था, पर महाराज ने स्पष्ट कह दिया- " आपको और दण्डनायक मरियाने को राजधानी में ही रहकर यहाँ के समस्त कार्यों का निर्वहण करना होगा । छः महीने हम यहाँ नहीं रहेंगे। सम्भव है वेलापुरी में हम
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साल भर रह जाएँ। इस साल हमें अनेक धार्मिक कार्य करने होंगे। यगची नदी - के पवित्र प्रदेश की हम इन कार्यों के लिए उपयुक्त स्थान मानते हैं। फिर इस आघात से सँभलने के लिए भी हमें काफी समय लग जाएगा। यहाँ तो वह सब सम्भव नहीं लगता ।" कहते हुए वे चुप हो गये ।
" सन्निधान का स्वास्थ्य भी दिनोंदिन गिरता जा रहा है। इसलिए..." बीच में ही विनयादित्य बोले, "प्रधानजी, मुझे आप तो... तो मेरी आयु समय से पहले ही कहीं पूरी न हो जाय ही इच्छा है तो कहिए, हम वही करेंगे।"
"नहीं प्रभो, आप जैसा सोचें!" कहकर प्रधान गंगराज ने फिर बात आगे नहीं बढ़ायी । इस तरह के अकल्पित आघात को कैसे सह सकेंगे? सच तो यह है कि खुद गंगराज ही इस आघात को नहीं सह सके थे। फिर पुत्र-शोक के इस भारी आघात की भला महाराज कैसे सह सकेंगे। इसलिए इस अवसर पर कोई सलाह न देना ही उन्होंने उचित समझा। वास्तव में उनके अन्तरंग में कुछ और ही बात चुभती रही, पर महाराज से कहने का उन्हें साहस नहीं हुआ। अपनी यह बात वह मरियाने से भी नहीं कह सके।
यहीं रोक रखेंगे आपकी यदि ऐसी
एरेवंग प्रभु का निधन हुए तीन दिन गुजर गये, तो हेगड़े मारसिंगथ्था ने चालुक्य चक्रवर्ती के उस पत्र की बात दण्डनायक को बतायी। इसे हेग्गड़े सिंगमच्या से भी गुप्त रखने के लिए कह रखा था। सिगिमय्या से इतना भर कहा, "अब जाकर चालुक्य प्रतिनिधि को वहाँ का अधिकार सौंपकर अपने परिवार और निर्वाहक वर्ग से कुछ न कह सबको साथ लेकर यहाँ आ जाओ।" यह प्रधानजी की आज्ञा थी जिसे हेगड़े ने सुनाया। उसे बात तो मालूम ही थी अतः इसे गुप्त ही रखने के खयाल से किसी से कहे बिना ही वह चल पड़ा। तात्कालिक रूप से किसी तरह की ग़लतफ़हमी न हो, इसलिए तभी का तभी यह निर्णय कर लिया
गया था।
सम्पूर्ण राजधानी शोकमग्न थी ऐसी हालत में यहाँ रहकर इसमें भागी न बनकर अचानक ही अपने मामा के चले जाने से शान्तला बहुत चकित हुई। वह - अपने मन में यह बात छिपाकर नहीं रख सकी। उसने मामा के चले जाने के औचित्य पर पिताजी से सवाल किया।
"राजनीतिक परिस्थिति कुछ ऐसी ही है, अम्माजी उसे अब जाना ही चाहिए था। मुझे यह मालूम है, परन्तु इस सम्बन्ध में अभी किसी को कुछ नहीं पूछना चाहिए। फ़िलहाल मैं नहीं बताऊँगा। बता भी नहीं सकता ।" पिता के कहने पर वह चुप तो हो रही लेकिन उसके दिमाग में भीतर ही भीतर यह राजनीतिक समस्या कहीं और अधिक प्रबल बनकर घुमड़ती रही।
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राजपरिवार के सभी लोगों को दोरसमुद्र छोड़कर जाने के पश्चात् समय के बीतने के साथ-साथ राजधानी प्रकृतिस्थ होने लगी। प्रभु एरेयंग ने जहाँ पार्थिव शरीर छोड़ा था उस प्रकोष्ट को बन्द कर दिया गया। राजमहल के शेष भागों में निरन्तर ज्योति जलती रहे ऐसी व्यवस्था की गयी थी। बस ज्योति की ज्वाला ही तो थी वहीं, वह प्रखर ज्वाला अब वहाँ कहाँ थी? हाँ; वहाँ के आसन आदि फ़र्श
और दीवार रोज की भाँति नौकर-चाकर साफ़ करते, रोज की भाँति वे सब साफ-सुधरे रखे जाते । खुद प्रधानजी दिन में कम-से-कम एक बार आकर मुआइना भी कर जाते।
एक दिन दण्डनायिका ने अपने भाई प्रधान गंगराज के यहाँ जाकर कहा, "भैया, आपको ही क्यों राजमहल में जाना पड़ता है? किसी दूसरे को क्यों नहीं भेज दिया करते? बुरे नक्षत्र के कारण जब वह स्थान खाली कर दिया गया तो फिर आपका भी वहाँ जाना ठीक नहीं जचता। कुछ का कुछ हो जाय तो..."
"चामू, यह शरीर पोय्सल राजवंश की निधि है। उसके लिए कार्य निर्वहण करते हुए प्राण विसर्जन करना पुण्य की बात है, ऐसा मैं मानता हूँ। कितना पवित्र घा प्रभु का हृदय! उनके जब प्राण पखेरू उड़े तो आकाश में भले ही कोई बुरा नक्षत्र रहा हो लेकिन उनकी आत्मा...वह कभी किसी का अहित नहीं चाहेगी। जब वे जीवित रहे तब किसी ने यदि उनकी बुराई की हो तो ऐसे लोग ही वहाँ प्रवेश करने से डरेंगे। मुझ जैसे को भला किस बात का भय? अब आगे कभी बुरे नक्षत्र की बात तुम्हारे मुँह से निकले तो मेरे और तुम्हारे बीच का सम्बन्ध ही टूट जाएगा, समझी! जब जो मुँह आया सो बक देती हो।" प्रधान गंगराज ने साफ़-साफ़ जता दिया। ___ भैया, क्या मैं नहीं समझती कि तुम्हें असहनीय दुःख है! ऐसे समय कोई तुमसे कुछ कहे तो तुम्हें गुस्सा आना सहज है। पर मैंने ऐसी कौन-सी ग़लत बात कहीं? दुनिया जिसे स्वीकार कर चलती हैं वहीं बात तो भैया, मैंने तुमसे कही, वह भी तुमसे ममत्व...तुमसे स्नेह-प्रेम के कारण।" दण्डनायिका ने मरहम लगानी चाही।
"छेड़ो मत! मुझे मालूम है तुम्हारा प्रेम-स्नेह । तम्हें वास्तव में राजपरिवार के प्रति ममत्व होता और यदि तुम युवराज का हित और कुशल चाहनेवाली होती तो तुम अपने अमंगलकारी पैर के रक्त से राजमहल के पवित्र देवालय को अपवित्र नहीं करती। वही सब प्रभु की मृत्यु का कारण बना कहूँ तो तुम्हें कैसा लगेगा? हट जाओ, मुझसे बात मत करो! इस समय मैं अपने वश में नहीं हूँ। मेरा मन बहुत उद्वेलित है।'' कहकर उसके जाने की प्रतीक्षा किये बिना ही प्रधानजी वहाँ से चले गये।
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भाई के मुँह से ये बातें सुनकर दण्डनायिका बामन्ये काँप उठी। वह मन-ही-मन कह रही थी : ...युवराज की मृत्यु का कारण, मैं? नहीं, नहीं। मैं अपनी बेटी को उनकी बहू बनाकर उन्हें सौंपना चाहती थी। क्या मुझे ऐसा करना चाहिए था? हे भगवान, यह सब कैसे सहन होगा! हे भगवान...” सिर झुकाये ही वहाँ से निकलकर वह जल्दी जल्दी अपने घर चन्नी आयो।
अपने और अपने भाई के बीच की सारी वार्ता उसने अपने पतिदेव को सुनायी । शायद उनसे कुछ सहानुभूति मिले। पर, वह भी गुरसे से लाल होकर उस पर पिल पड़े। बोले, ''इतना होने के बाद भी तुम्हें अङ्गत नहीं आयी। अपनी हस्ती हैसियत के योग्य बरतने के लिए गार तार कहने के बावज़द तमने का नहीं सीखा। ऐसी बातों में, जिनसे लड़ें कोई मतलब नहीं, हस्तक्षेप क्यों करने गयी जो चोट तुम्हें लगी वह काफ़ी नहीं है। चाहे जो भी हो तुमको अक्ल नहीं आने की। तुम्हारे कारण कई बार हमें शर्मिन्दा होकर सिर झुकाना पड़ा है। तुम्हारे भाई ने जो कहा कि तुमने मन्दिर को अपवित्र किया, क्या वह सही नहीं है। दण्डनायक कुछ कड़ककर बोले।
"परिस्थिति को न समडाकर सब लोग अगर मुझ पर इस तरह टूट पड़ें तो मैं क्या करूं: सच हैं. आरती के जल को फेंकने गयी और टकरा गयी। युवराज भी तो टकरायें। पेशा टक्कर खाना अपवित्र और अमंगल हुआ और उनका टकराना...अमंगल नहीं?'' यात तो कुछ कड़वी थी, मगर आँखें भर आयौं।
"कहीं-से-कहाँ टलाँग मारी! पहले तुम टकरायीं। वह शुम कार्य के आरम्भ में अपशकुन नहीं तो और क्या है? मैं पहले से ही कहता रहा कि किसी तरह के पचड़े में मत पड़ो। परन्तु तुमने मेरी बात नहीं मानी। पाँच सुमंगलियों में एक तुम्हारा बनना क्या जरूरी था' पाँच में एक बन गयी तो कौन-सा महान कार्य कर लिया? न बनती तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ता? युवराज कुमारी को छोड़कर अपना नाम सझाने ज्यां गयीं? इसके लिए मौका ही क्यों दिया?''
__ “उस हेग्गड़ती को ती पाँच सुमंगलियों में बना लिया, फिर मैं यदि वंचित रह जाती तो मेरा कितना अपमान होता?"
"अब तुम्हें बहत सम्मान मिल गया नः पवित्र-अपवित्र के ज्ञान से शुन्च तुम निरी एक मूर्ख स्त्री हो, महास्वाथीं। तम्हारा यह स्वार्थ ही तुम्हारी बेटियों की प्रगति में सबसे बड़ा काँटा हैं। अब कौन-सा मुंह लेकर अपनी कन्या की बात कहने युवरानी जी के पास जाओगो: सारा सत्यानाश हो गया। खून बहते जख्मी पैर को होती तुम मन्दिर में गयी धीं, इसे युवरानी जी के अन्तःपुर का नौकर गोंका ने और रेविमच्या ने भी देखा है। क्या तुम समझती हो कि ह समाचार युवरानी जी को मालूम नहीं: उस हालत में देवालय में गयी ही क्यों"
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"मुझे अपनी सौगन्ध, मुझे यह पता नहीं लगा कि मेरे पैर से रक्त बह रहा है। बल्कि मैं तो इस बात से चिन्तित थी कि आरती का जल छलक गया। आरती की थाली रखने के लिए दूसरी जगह नहीं दिखी, इसलिए उस मन्दिर में रखकर साड़ी बदलने दूसरे कमरे में चली गयी थी। वहाँ पता चला कि मेरे पैर से खून वह रहा है। पहले से यदि मालूम हुआ होता तो शायद मैं ऐसा नहीं करती। अनजाने में जो कुछ ग़लती हो गयी उसके लिए क्षमा नहीं किया जाता ? "
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"क्षमा...तुम्हें वह कई बार मिल चुकी है। तुम अब उसके लायक़ नहीं हो तुम्हारे इस दुरभिमान को नष्ट करना ही होगा, और कोई चारा नहीं। यह बात कहाँ से कहाँ पहुँचेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। ध्यान रखो, आइन्दा अब तुम्हारी बाल सुनकर कोई काम नहीं करूँगा।"
"ठीक है, मुझसे बात न कीजिए, मेरी बाल न मानिए मेरी बेटियों के लिए भी कुछ न करेंगे?"
"वह सब भगवान की इच्छा। मैं ख़ुद इसमें आगे नहीं आऊंगा, इसे अच्छी तरह समझ लो । तुमसे चचां करना ही समय का दुरुपयोग है। एकदम फिड़त । मुझे और भी काम हैं।" कहते हुए कपड़ा पहनकर दण्डनायक बाहर निकल गये । "मालिक के ही हाथ का सहारा नहीं तो आगे क्या? हे भगवान...!” वह विकल हो उठी। एकाएक उसे लगा जैसे सब-के-सब उसके विरोधी बन बैठे हैं। "आखिर इसके पीछे कोई कारण भी होगा ! मेरे विरुद्ध जरूर कोई भड़का रहा है इस सबका मूल दोरसमुद्र के उत्तर-पूर्व के कोने में है। युवरानी और अन्य लोगों को वेलापुरी जाने की इन्हीं लोगों ने अपना स्वार्थ साधने के लिए तजबीज कर रखी हैं। बुरा नक्षत्र तो एक बहाना भर है। कितने लोग बुरे नक्षत्र में नहीं मरते ! सव गाँव छोड़कर जाते हैं? अरे, जिस स्थान पर मरे, उस स्थान को बन्द कर दें, उससे बाक़ी घर का सम्पर्क न हो, ऐसी व्यवस्था करते हैं। या फिर तात्कालिक रूप से पास ही किसी दूसरे घर में रहेंगे, गाँव-शहर ही को छोड़कर नहीं जाएँगे । जब महाराज का ही स्वास्थ्य ठीक नहीं हैं तब वह परदेश गमन क्यों भैया ने कहा भी था, माने ही नहीं। न मानें तो जाने दें, खुद साथ चलने के लिए तैयार होने को कहा तो महाराज ने मना कर दिया। मेरे स्वामी को तो वहाँ जाना ही मना है। भाई और मेरे स्वामी दोरसमुद्र के लिए बँधे हैं। बाकी लोग उनके पास रहकर जब चाहें तब अपना स्वार्थ साधने के लिए तजबीज कर ले सकते हैं। इसके लिए भी सोचकर अब तक युक्ति निकाल ली होगी। अभी साथ जाएँगे तो लोग ग़लत समझेंगे, इसलिए यहीं रहने की व्यवस्था कर ली है। महीने दो महीने में वेलापुरी जाएँगे ही, स्थान- परिवर्तन के बहाने से तब मेरी बेटियों की भावी स्थिति की इतिश्री हो ही जाएगी। तब मेरी आशा आकाश कुसुम बनकर रह जाएगी। जब
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तक मैं जीती हूँ तब तक ऐसा नहीं होने दूंगी। चाहे कोई भी मेरा विरोध करे, मैं अपने अरमान पूरे करके ही रहूँगी।" ___ इस तरह सोचते-सोचते उसने तय कर लिया कि वह उनसे ज़रूर बदला लेगी जो उसके खिलाफ़ राजपरिवार को भड़का रहे हैं।
वेलापुरी में एक तरह से शान्ति से दिन गुजरे। कोई कार्य स्का नहीं, परन्तु कहीं कोई विशेष उत्साह नहीं दिख रहा था। चारुकीर्ति पण्डित की चिकित्सा से महाराज का स्वास्थ्य सुधर रहा था। राजकुमारों का पाट-प्रवचन यथावत् चलने लगा धा। महाराज के अनुभव का भी उन्हें लाभ मिलने लगा। अपने पुत्र के गुणों की चर्चा के प्रसंग में कभी-कभी वे बिहल हो ज्टते थे। अपने पौत्रों से कहने लगे, "तुम्हें अपने पिता से भी अधिक शूरवीर और गुणवान बनना है। तुम लोगों को दशरथ के पुत्रों की तरह जीना चाहिए। अप्पाजी, तुम पर बहुत शीघ्र ही सारी जिम्मेदारी आनेवाली हैं। हम इस बात को अपनी आयु और स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर बता रहे हैं। तुम्हारे पिता एक समय तुम्हारे विषय में बहुत चिन्तित थे। परन्तु इधर कुछ समय से तुममें हमारे इस वंश के अनुकूल गणों के विकास को देख वे गर्व करने लगे थे। जो अधिकारी होते हैं उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार आदेश में रखने की कुशलता शासक में स्वयं आ जाती है। अभी चढ़ता यौवन है तुम्हारा और खून गरम है। तुम्हें उकसाकर, लालच दिखाकर लोग अपना स्वार्थ सिद्ध कर सकते हैं। तुम्हारे पिता एक नियम का पालन किया करते थे। कोई मुँह पर प्रशंसा करता तो वे उसका कभी विश्वास नहीं करते थे। उसे यह यात महसूस नहीं होने देते थे जिससे किसी तरह की अनबन न पैदा हो। अगर उन्हें किसी पर विश्वास रखकर चलना भी होता तो उसकी पहले अच्छी तरह से परीक्षा कर लेते थे। वह तुम्हें मालूम ही है कि उनका किन-किन पर पूर्ण विश्वास था। चदि नहीं जानते हो तो मैं बता दूंगा। वे हर बात हमें बता दिया करते थे। किसी भी बात को वे हमसे नहीं छिपाते थे। आमतौर पर पहले बताते और स्वीकृति लेते थे । कभी-कभी हमसे विचार करने का यदि समय न मिलता और तत्काल कोई निर्णय लेना होता या कार्य करना ही होता था तो अवकाश मिलते ही आकर हमें बता दिया करते थे। हमने उन्हें सब तरह से आज्ञादी दे रखी थी। फिर भी उन्होंने उस आजादी का दुरुपयोग नहीं किया। जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने कभी कोई ऐसा काम नहीं किया जो हमें अप्रिय लगा हो। हमने तुम्हारे उपनयन के अवसर पर उनके पट्टाभिषेक की बात सोची थी, लेकिन वह राजा नहीं बने। वे संकोच प्रकट करते तो भी मना लिया जा सकता था, परन्तु उस समय कुछ ऐसी घटनाएँ
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घटीं कि उन्होंने यह स्वीकार नहीं किया। इस बार हमें सन्तुष्ट करने के विचार से स्वीकार किया था लेकिन भगवान को ही इच्छा नहीं थी। जीना-मरना हमारे हाथ की बात नहीं। हमें अपनी आँखों के सामने उनका निधन देखकर शोक सन्तप्त होना लिखा था, सो हुआ। यह हमारे पूर्व संचित किन्हीं पापों का फल है। हम विनाश या मृत्यु से डरनेवाले नहीं, किसी तरह सह लेते हैं यह सब। परन्तु तुम्हारी माँ महासाध्वी प्रचलदेवी को इस दुःख का सहना कितना कष्टकर है, इसे हम सपझते हैं। सीता-सावित्री जैसी साध्वी, परमपवित्र सौम्यमूर्ति है वह। हमारे लिए बहु-बंटी दोनों वही है। अपनी उस माँ को कभी दुःख न पहुँचाना। वह दूसरों को सुखी बनाने के लिए खुद मौन रहकर दुःख सहन करती रहनेवाली देवी है। उसकी इच्छा के अनुसार चलना तुम लोगों का कर्तव्य है। छोटे अप्पाजी, उदय, यह बात मैं तुमसे भी कह रहा हूँ। ऐसी महिमागयी माता को सुखी बनाकर रखना तुम सबका धर्म है। दोनों भाइयों को परस्पर पूरक बनकर एक-दूसरे को सहयोग देते हुए, किसी तरह की अनबन के बिना आपस में मिल-जुलकर रहना चाहिए। छोटे अप्पाजी, मैं नाममात्र के लिए महाराज था, सारे कार्य तुम्हारे पिता ही निभाते रहे। सुनो, तुम्हारे पिताजी का जो सद्व्यवहार रहा वैसा ही अपेक्षा तुमसे की जाती है। अय तुम्हें अप्पाजी के इस गुस्तर राज्य-निर्वहण के कार्य में दायां हाथ बनकर कार्यरत होना होगा। उदय अभी छोटा है। वह जब तक बड़ा न हो जाय तब तक एक तरह का यह अतिरिक्त उत्तरदायित्व भी तुम पर है। जब उदय लायक बन जाय तो दोनों जिम्मेदारी को आपस में बाँटकर बड़े अप्पाजी के काम में हाथ बँटाना। तुम दोनों को पाण्डवों की तरह एक बनकर रहना होगा। इसका आश्वासन हमें देंगे? तुम्हारे पिता अपने अन्तिम समय में तो कुछ कह नहीं पाये। उन्हीं को कहाँ मालूम था कि वह उनका अन्तिम समय है। इसलिए हम भी अन्तिम समय तक प्रतीक्षा न करके जो कुछ कहना चाहते हैं उसे जल्दी कह देना चाहेंगे। हाँ, सब-कुछ एक ही बार नहीं कहा जा सकेगा। जब-जब सूझेगा, तब तुम्हें बताता चलूँगा। ठीक है न!"
बालक मौन रहे। उनके मनःपटल पर पट्टाभिषेक महोत्सव की सारी घटनाएँ एक साथ घूम गयीं। औंखें भर आयीं। उमड़ते हुए दुःख को रोकने के उनके सारे प्रयत्न बेकार हो गये। महाराज विनयादित्य की दृष्टि उन पर ही थी। बोले, "रोको मत, उन्हें बहिने दो। अन्दर के दुःख-भार के हल्का होने का यही तो एक मार्ग हैं। अच्छा हो, सारे आँसू वेलापुरी में ही बह जाएँ और इस यगची की धारा में मिल जाएँ, इन्हें दोरसमुद्र ढोकर न ले जाना पड़े। वहाँ जाने का समय भी तो अब निकट आता जा रहा है। यहाँ आये छः महीने बीतने को हुए । प्रधानजी से बुलावा भी आया है। राजधानी के लोग अब और प्रतीक्षा नहीं करना चाहते। हमें अब
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वापस जाने के बारे में सोचना होगा।" "पता नहीं, माँ की क्या राय हैं?" राजकुमार बल्लाल ने कहा।
ा नहाँ रहने में में असहनीय दुःख होता है, तो उन्हें कितना दुःख हो सकता है, इसकी कल्पना कर सकते हैं। फिर भी उन्हें व्यावहारिक दृष्टि से सीधा ले जाना ही उचित है, इसलिए उन्हें ढाढस देकर समझा-बुझाकर ले जाना ही होगा।" ___माँ से यह बात को भी कैसे? मेरे लिए तो बहुत मुश्किल है।' बल्लाल विहल हो उठा।
"हम स्वयं कहेंगे। हम उसके पास चलते हैं, अभी ही बात करनी होगी। आज शाम तक में अपने निर्णय की सूचना राजधानी भेज देनी है।"
'उदय! तुम जाकर माँ को बता दो कि महासन्निधान आ रहे हैं। हम अभी घोड़ी देर में पहुंच जाएंगे।' बल्लाल ने छोटे भैया से कहा । वह आज्ञा शिरोधार्य कर तत्काल चला गया। ___ महासन्निधान के आगमन की सूचना पाते ही युवरानी एचलदेवी सम्मानपूर्वक प्रतीक्षा करने लगी। कुछ ही देर में गोंका ने आकर निवेदन किया कि महासन्निधान पधार रहे हैं। युवरानी उठकर अन्तःपुर के द्वार तक चली आयीं। महाराज बिनयादित्य राजकुमार बल्लाल और बिट्टिदेव के साथ वहाँ आ पहुँचे तो एचलदेवी ने महाराज के पैर छुए और आँखों से लगाया। और फिर किसी
औपचारिकता के बिना महाराज के बैंठते ही सब बैठ गये। ___महाराज ने बात आरम्भ की, ''इस समय हम पेचीदा राजनीतिक प्रस्ताव लेकर आये हैं। पेचीदा तो है, पर कहे विना काम नहीं चलेगा। युवराज जब कभी पानसिक तनाव का अनुभव करते थे तो स्वस्थ होने के लिए वेलापुरी आया करते थे। तब युवरानी भी साथ होती थीं। यह सब मालूम ही है। इस बार भी एक बड़ी व्यथा हलकी करने के लिए यहाँ आये थे। नक्षत्र-दोष की बात पुरोहितों में कही बह कोई ज़बरदस्त कारण नहीं था। हम अगर चाहते तो लोकरूढ़ि के अनुसार कुछ व्यवस्था करके दोरसमुद्र में ही रहा जा सकता था। परन्तु वहाँ रहने से हर क्षण युवराज का स्मरण आता रहता । होना कुछ था, हुआ कुछ और ही, इस दुर्घटना की याद क्षण-क्षण मानसिक व्यथा उत्पन्न करती रहती। इसलिए हमने घटना स्थल से दूर रहने की सोची थी। हमारा विचार था कि इससे भीतर का दर्द कुछ कम होगा, इस दुरन्त को कुछ हद तक 'मूलने में मदद मिलेगी। वास्तव में प्रघानजी
और दण्डनायक जी इस स्थानान्तर को पसन्द नहीं करते थे। मेरे स्वास्थ्य के अच्छा न होने का बहाना करके भी हमें रोकना चाहते थे। मगर हमें मन-ही-मन वहाँ की राजनीतिक स्थिति, उस समय कुछ कलुषित हुई-सी लग रही थी। इसे
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निर्मल होने देना आवश्यक था। शायद हमारी गैरहाजिरी इसमें सहायक हो सकेगी-यह सोचकर ही हम यहाँ चले आये। अब स्थिति कुछ सुधरती प्रतीत होती है। यह तो सर्वविदित है कि एक-न-एक दिन मृत्यु आतो है। परन्तु उस मृत्यु का यों अचानक आ जाना हमें आघात पहुँचाता है, हम शोकाकुल हो उठते हैं। यह शोक भी अनिवार्य है। अब वह कुछ-कुछ शान्त होने को है; ऐसी हालत में उसे फिर से दोरसमुद्र तक साथ ले जाएँ तो यह डर है कि उसका पुनरावर्तन हो जाय। ऐसा होना सहज ही है। लेकिन अब प्रधानजी ने निवेदन भेजा है कि उचित समय आ गया है, सब लौटें और राजमहल को फिर से शोभा प्रदान करें।" फिर एक क्षण मौन रहकर बोले, "हमारे सामने अब अनेक कठिन समस्याएं हैं। घुवराज जिन कार्यों का निर्वहण करते थे, उनसे भी कहीं अधिक उत्तरदायित्वों का निरीक्षण अब इन्हें करना होगा। राज्य को कहीं अधिक सुदृढ़ और विस्तृत करना होगा और इसके लिए राजकुमारों का राजधानी में रहना अत्यन्त आवश्यक है। व्यावहारिक दृष्टि से वही उचित है। इनके भावी श्रेय का विकास भी इसी बात पर निर्भर हैं। ऐसी स्थिति में युवरानी को अपना दुःख सहकर भी कुमारों के हित को ध्यान में रखकर राजधानी में जाकर रहना ही अच्छा है। हम जानते हैं यह आसान नहीं, फिर भी .. म रहा है। हमारी युवरानी में औचित्यज्ञान किस स्तर का है, इसे युवराज ने हमसे अनेक बार कहा और प्रशंसा भी की है। इसीलिए हमने स्वयं आकर सारी वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी हैं, वैसे हम किसी भी बात पर जोर नहीं डालेंगे।" विनयादित्य ने बड़े स्नेह भरे शब्दों में अपनी मनःस्थिति चुवरानी के सामने रख दी।
मृत्युशैया पर पड़े हुए उन्होंने मुझसे एक बात कही थी। मैंने वचन दिया हैं कि उसका पालन करूँगी। अतः राजकुमारों का हित मुझे ही सबसे मुख्य है। उसके लिए सबकुछ त्याग करने के लिए तैयार हूँ। उनके विछोह के इस वन-आघात को भी सह लूंगी। सब तरह के कष्ट झेलकर जीना ही नारी की शक्ति की सच्ची परीक्षा है। सन्निधान की आज्ञा शिरोधार्य है। अपने स्वामी से मैंने अनुसरण करना ही सीखा है। मुझे उन्होंने एक बात और बतायी थी--सन्निधान को बताने के लिए अब तक मौका नहीं मिला। अब यता देना मेरा कर्तव्य हैं। वह भी मृत्यु-समय ही उन्होंने कहा था, "देखो युवरानी, सन्निधान तुम्हारे विषय में सदा एक बात कहते रहते हैं। हमारे लिए युवरानी बहू ही नहीं, बेटी भी हैं। अब इसके साथ तुम्हें उनका पुत्र भी बनना होगा। पूर्ण रूप से सजग रहकर तुम्हें उनको संभालते रहना होगा, वृद्ध जो ठहरे।'-उनकी इस आज्ञा का पालन करके उनकी आत्मा को शान्ति पहुँचाना मेरा परम कर्तव्य है। प्राणपण से उनकी इस आज्ञा का पालन करूंगी।"
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"ठीक है, मैं प्रधानजी के पास पत्र भेज दूंगा। किस मुहूर्त में यहाँ से रवाना होना है और किस मुहूर्त में वहाँ पहुँचना है यह बात कर बहाँ खबर भेजने का आदेश दूंगा।" कहकर विनयादित्य उठ खड़े हुए। युवरानी और राजकुमार उनके पीछे द्वार तक आये। महाराज ने अपने विश्राम-कक्ष में जाकर दोरसमुद्र के लिए पत्र भेज दिया।
राजघराने के ज्योतिषियों की सूचना लेकर स्वयं प्रधान गंगराज ही बेलापुरी जा पहुँचे। मुहूर्त के अनुसार राजपरिवार ने दोरसमुद्र के लिए प्रस्थान किया । चिगम दण्डनाथ को बेलापुरी में ही रहना पड़ा। अपनी राजपरम्परा के अनुसार सबने विना किसी सम्भ्रम के राजमहल में प्रवेश किया।
प्रभु ने जहाँ देहत्याग किया था वहाँ यथाविधि पूजन-हवन सम्पन्न किया गया। और वह कोष्ठ खोल दिया गया।
दोरसमुद्र पहुँचे क़रीब-करीब एक पखवारा बीत गया। मगर हेग्गड़े मारसिंगय्या का कहीं कोई पता नहीं था! यह युवरानी को कुछ बुरा लगा। सीधे बड़े बेटे से पूछने में हिचकिचाहट थी। किसी को मिलने-जुलने के लिए मौका ही उन्होंने नहीं दिया, वह उन्हें स्वीकार्य नहीं था। दण्डनायिका ने भी दर्शन करने की कोशिश की, पर सफल नहीं हुई। प्रभु ने हेग्गड़े को स्वयं इसलिए बुलवाया था कि केवल राजमहल की आन्तरिक व्यवस्था के कामों में पदद करेंगे, राजमहल के कार्यकर्ता की हैसियत से। अब आश्चर्य तो वह हैं कि उनका कहीं पता ही नहीं! वास्तव में युवरानी की यह भावना थी कि अब वह आाँगी तब वे उपस्थित रहेंगे। बीच में एक बार प्रधान गंगराज जब आये थे तो उनसे पूछना भी चाहा या। पता ही नहीं क्यों धुप रह गयी। शायद हेगड़े के प्रति विशेष आत्मीयता का प्रकाशन संचित न समझकर ऐसा किया होगा। महादण्डनायक ने उन्हें दोगसमुद्र में नहीं रहने दिया होगा, यह भी उनके मन में आया। सच्चाई का पता लगाने के लिए उन्होंने रेविमय्या को आदेश दिया।
रेरिमय्या ने आकर बताया, ''महाराज और गजपरिवार के लोगों के वेलापुरी जाने के बाद, हेग्गड़ेजी को दौरसमुद्र में विशेष कार्य नहीं रह गया था। उन्हें बलिपुर वापस भेजने की भी सुविधा नहीं दिखी, इसलिा बेलूगोल के गस्ते पर वहाँ से डेढ़-दो कोस इधर ही के एक गाँव के हेग्गड़े बनाकर भेज दिये गये हैं। उन्हें वहाँ गये तीन महीने से ज़्यादा हो गये हैं।"
"और सिंगिमय्या?" एचलदेवी ने पूछा। "बलिपुर से आते ही उन्हें. सुना है, यादवपुरी भेज दिया गया था।"
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"ठीक है, जाओ अपना काम देखो।" एचलदेवी ने कहा। वह चला गया।
“राजनीतिक श्रृंखला में लगी कड़ियों को एक जगह से निकालकर दूसरी जगह बिटाया जा सकता है। यह महादण्डनायक से सम्बद्ध विषय है। अन्तःपुर के लोगों को इन बातों में हस्तक्षेप करना ठीक नहीं, ऐसा एचलदेवी समझती थीं। फिर प्रभु ने स्वतः अपने काय के लिए जि हैं यहां बुलवाया उन्हें राजगृह की सलाह लिये बिना कहीं अन्चत्र भेजने के लिए कोई कारण होना चाहिए। पता लगाना होगा कि कारण क्या है।'' एचलदेवी ने विचार किया। वे सोचने लगी कि बेटे से विचार-विमर्श करें या महाराज से? आखिर निर्णय किया कि इस विषय पर महाराज से ही चर्चा करना ठीक है। महाराज से मिलने के लिए सूचना भिजवा दी गयी।
जिस दासी के द्वारा समाचार भेजा था उसी के साथ महाराज स्वयं ही आ पहुँचे और, "क्या कोई ज़रूरी काम था:" पूछते हुए बैठ गये। इसी बीच एचलदेवी उठकर खड़ी हो गयी थीं। उन्होंने आगे बढ़कर उनके पैर छाप, प्रणाम किया और कुछ दूर जा बैठीं। बोलीं, ''प्रभु ने हेग्गड़े मारसिंगय्या जी को यहाँ राजमहल के कार्य पर नियुक्त कर बलिपुर से बुलवाया था।' इतना निवेदन कर मौन हो गयीं। ___"हां, यह हमें मालूम है। युवराज ने हमसे विचार-विमर्श करने के याद हो यह निर्णय लिया था। युवराज को हमने सब अधिकार सौंप दिये थे। फिर भी में कभी कोई काम हमसे कहे बिना या हमारी सब लिये बिना नहीं करत थे। कभी उन्होंने उस अधिकार स्वातन्त्र्य का दुरुपयोग नहीं किया। अच्छा, इस बात को अब यहीं रहने दें। यह बताएँ कि अब हेग्गड़े का क्या हुआ?" महाराज ने पूछा।
"उन्हें एक ग्राम भेजा गया है, तीन मास पहले ही, वह सुनने में आया।"
"ऐसा क्यों? हमें कुछ मालूम ही नहीं! हमसे मिलने के लिए जब भी प्रधानजी आये, उन्होंने इस बात का जिक्र तक नहीं किया! अच्छा. हम इस सम्बन्ध में दयाफ्त करेंगे। उन्हें यहाँ बुलवाने का आदेश हम आज ही दे रहे हैं।
"न, न, महाराज को भी नहीं बताया है, तो इसमें किसी का कोई उद्देश्य ज़रूर होगा। पहले वह उद्देश्य क्या है-इसे ठीक-ठीक जानने का प्रयास करें। उसके बाद ही इस सम्बन्ध में आगे कोई विचार किया जाए-ऐसा मुझे लगता है। हमारे यहाँ के किसी अधिकारी को उनका यहाँ रहना गस न आया हो फिर भी हम बुला लें, तो उन्हें अप्रिय और अनावश्यक संघर्ष का शिकार यनना पड़ेगा। ऐसी स्थिति आखिर क्यों पैदा की जाय?"
"हमारी युवरानी जी को किसी भी अधिकारी से डरने की जरूरत नहीं, चाहे वह बड़े-से-बड़े पद पर क्यों न हों। आज युवरानी हैं कल वह राजमाता होंगी। युवरानी की बात को न माननेवाले अधिकारी को हमारे राज्य में कोई स्थान नहीं।"
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"मन्निधान का स्वास्थ्य इस योग्य नहीं कि जब जहाँ चाहें वहाँ चल-फिर सकें। पहले जैसा स्वास्थ्य रहा होता तो किसी भी तरह का निर्णय कर सकते थे। अप्पाजी की उम्र इस लायक होने पर भी अभी अनुभव की कमी है। उसे राज्य संचालन सन्त्र जब नक परी तरह हस्तगत न हो जाए तब तक किसी को भी छेड़ना शायद ठीक नहीं होगा, मेरी अल्पमति में कुछ ऐसा ही आता है। प्रभु के जीवित रहते हरा भी, उनकी शारीरिक शक्ति का ह्रास हुआ जानकर, उन्हीं से उपकृत होकर उनसे ही प्राणरक्षा प्राप्त करनेवाले खुद चालुक्य चक्रवर्ती ही जब क्रूर बन सकते हैं तो सावधानी से काम लेना होगा। इसी भावना से यह निवेदन कर रही हूँ। फ़िलहाल हमें ऐसा आचरण करना होगा कि इस स्थान परिवर्तन से हमें कुर फायदा नहीं हुआ हैं। अगर किसी दुरुद्देश्य से किसी ने वह सब किया होगा तो हमारे इस तरह के आचरण से उसे बल मिलेगा और बह और भी किसी कुतन्त्र में प्रवृत्त होगा। सावधान रहकर तय हम उसे पकड़ सकते हैं-यही ठीक होगा। सारी दात तव बड़े-छोटे दोनों अप्पाजी को भी मालूम पड़ जाएगी। तब अधिकार सूत्र अपने हाथ में लेने के लिए वे प्रयत्नशील होंगे, और तब तक उन्हें पर्याप्त समय भी मिल जाएगा। एक बार राज्य-संचालन की पूरी योग्यता उनमें आ जाए तभी स्वतन्त्र रूप से कुछ करने योग्य वे बन सकेंगे। यदि सन्निधान मेरी इस सलाह को उचित समझें तो ऐसा करें।" एचलदेवी ने निवेदन किया।
___ "अभी हम कुछ नहीं कहेंगे । अप्पाजी और छोटे अप्पाजी दोनों को बुलवाकर विचार-विमर्श करने के बाद ही कोई निर्णय लेना उचित होगा। वैसे बुवरानी ने बड़ी अच्छी बात कही है, सूझबूझ-भरी।" महाराज ने कहा।
"राजकुमारों से विचार-विमर्श न ही करें तो शायद अच्छा होगा।" "क्यों"
"अप्पाजी के मन में हेग्गड़े मारसिंगय्या जी के बारे में कैसी धारणा है, यह मालूम नहीं। एक समय उनके लिए अप्पाजी के मन में तिरस्कार का भाव रहा है। उसके विचार करने का ढंग कुछ दूसरी ही दिशा में चला गया था। इसलिए इस विषय में उससे नहीं कहें तो ही ठीक होगा।"
"हाँ, हाँ, हमारा ध्यान उस तरफ़ नहीं गया था। बढ़ती हुई उम्र के साथ विचार करने की शक्ति भी घटती जाती है। हमें सारा वृत्तान्त मालूम है। एक बार क्यों, अनेक बार दण्डनायक मरिचाने को उसकी पूर्व-स्थिति हस्ती-हैसियत की याद भी दिलायी है। अप्पाजी का मन पद्मला पर है, यह भी मालूम है।"
"पहले प्रवल आसक्ति थी, परन्तु आजकल क्या स्थिति है इसका मुझे पता नहीं, इस सम्बन्ध में मैं कह भी नहीं सकती। हाँ. एक दिन, जब प्रभु जीवित थे, उन्होंने अप्पाजी को भी साथ रखकर प्रधानजी से विचार-विमर्श किया था। इसके
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पश्चात् शायद उसका उधर ध्यान नहीं जाता है।"
"उस समय क्या हुआ था, मालूम है?''
'नहीं। प्रभु और वह दोनी इस सम्बन्ध में मौन रहे। मैंने भी जानने पर जोर नहीं दिया। मुझसे छिपाकर रखने जैसी कोई बात उनमें नहीं रही। यदि मैं न भी जानती तो उससे कोई हानि नहीं धी; यही सोचकर मैं चुप रही।"
"अच्छा उसे जान दें। पद्मला का विवाह अप्पाजी से होने के बारे में अवरानी को कोई एतराज है?"
"प्रभु की इस विषय में एक निश्चित सच थीं। उस लड़की के लिए उन्हें किसी भी तरह से व्यक्तिगत असमंजस नहीं था। फिर भी वह जिस वातावरण र पत्नी है उसे रखते हुए पानी के लोग नहीं मानते थे। वह वातावरण हानिकारक है-यह उनकी निश्चित धारणा थी। अप्पाजी अगर बड़ा बेटा न होते तो शायद वे बीच में न पड़ते।"
"युवरानी की भी यही राय है क्या?"
'अप्पाजी को अच्छा न लगे, ऐसा कोई भी बन्धन मेरी ओर से नहीं। इस विषय में में उसकी इच्छा के अनुसार ही चलूँगी। चाहे मुझे उचित लगे, न लगे। यदि यही उसका निश्चय है तो मैं उसके सुख को अपना सुख सपनेंगी।" __ मतलब यह कि अप्पाजी की शादी उसी की इच्छा के अनुसार होगी- यही नः"
"मेरो यह राय सिर्फ अप्पाजी के ही बारे में नहीं, सभी बच्चों के प्रति है।'' "अगर वे किसी गलत रास्ते पर जाएँ तो उन्हें समझाकर कुछ कहेंगी नहीं?"
"मनुष्य को मनुष्य बनकर जीना हो तो उसे किस तरह रहना चाहिए, किस तरह का परिवार मनुष्य को पुरुष बनकर जीने के लिए चाहिए? दाम्पत्य जीवन में समरस क्या है? इन सब विषयों को मैंने अच्छी तरह से समझाया है। उन्हें अच्छे गुरु भी मिले हैं। वास्तव में वह हमारे हाथ से निकला जा रहा था। यही गुरु थे जिन्होंने उसमें इतना परिवर्तन ला दिया। अब उसमें यौवन का अन्धा जोश नहीं, बल्कि एक विवेकपूर्ण संयम आया है। इसलिए इस सम्बन्ध में मैं अधिक सोचती नहीं हूँ। इसका यह मतलब नहीं कि मुझे ठीक न जंचने पर भी मैं चुप रहूँगी। उसे समझाऊँगी। परन्तु मेरी ही बात मानी जाए-ऐसा पेरा आग्रह नहीं।''
"तो अब आगे का कार्य?"
"मौन रहकर नजर रखने का। मारसिंगव्या के स्थानान्तरण के बारे में जिज्ञासावश सन्निधान के दर्शन की अभिलाषा की थी, मगर सन्निधान को ही इससे अपरिचित रखा गया है। सन्निधान को यहाँ तक आने का कष्ट नहीं करना चाहिए था। मैंने दर्शन के लिए उपयुक्त समय जानने हेतु खबर भिजवायी थी,
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मैं स्वयं सेवा में पहुँचती।"
"अपनी उस आशा को पूर्ण करने के लिए तुरन्त चले आना चाहिए। बेटी को पिता के पास आने के लिए समय-असमय के बारे में नहीं सोचना चाहिए।"
''जो आज्ञा।" "इस स्थान-परिवर्तन से हेग्गड़े मारसिंगच्या दुःखित हा होंगे."
"उन्हें सब बातें मालूम हैं। वे परेशान नहीं होंगे। उनको यह विश्वास है कि राजपरिवार को यदि हमारी आवश्यकता होगी तो वे बुला लेंगे। अषान्त के समय बाहुवली स्वामी के दर्शन के लिए तो जाना ही है। तब उन्हें भी नहीं आने के लिए सूचित कर देंगे।" ___"ठीक हैं।" कहकर पहाराज उठ खड़े हुए। एचलदेवी ने दरवाजे तक आकर स्वयं परदा हटावा। वे वहाँ से चले गये।
प्रभु रेयंग के स्वर्गवास के एक वर्ष बीतते ही बल्लाल के बौवराज्याभिषेक का निर्णय महाराज
किसे लियबाट बड़ी स्तन वा सभा होग करके लौटने के पश्चात् युवरानी एचलदेवी की इच्छा के अनुसार इस समारम्भ को सम्पन्न करने का निर्णय किया गया। यदि पहले जैसी स्थिति होती तो इस यात्रा के सन्दर्भ में दण्द्धनाविका शायद बहुत उत्साह दिखाती। परन्तु अबकी बार राजपरिवार के वेलापुरी से लौटने पर युवरानी जी के सन्दर्शन के लिए दण्डमाथिका ने प्रयत्न किये थे। लेकिन वह अपने प्रयत्नों में असफल रही 1 इसका गुस्सा उसने हेगड़े परिवार पर उतारा-चाहे पास रहे या दूर कोई न कोई गड़बड़ी तो पैदा करता ही रहता है। शायद ग्राम से उस हेग्गड़े ने खबर भेजी होगी। शिकायत भी की होगी कि दूर भेज दिया है। हमारी हज़ार शिकायतें की होंगी इसलिए तो युवरानी ने दर्शन नहीं दिये। ऐसी हालत में उसके स्थान परिवर्तन को लेकर राजमहल में विक्षोभ का वातावरण पैदा हो गया होगा। फिर इसको प्रतिक्रिया क्या हुई होगी-यही चामब्बा सोचती रहो।
परन्तु राजमहल में या अन्यत्र कहीं भी कुछ नहीं हुआ था। इस बात को समझने के लिए दण्डनायिका को बहुत समय न लगा। खुद दण्डनायिका चामध्ये को धरानी के दर्शन का सौभाग्य नहीं मिला था लेकिन उसकी बेटियों को कभी-कभी राजकुमारों से मिलते रहने का मौका मिल जाता था। उस कभी-कभी के मिलन में पहले की-सी मिलनसारी और उत्साह न दिखने पर भी कोई विपरीत भावना नहीं थी। इस बात को दण्डनायिका अपनी बेटियों से बातचीत करक समझ चुकी थी। उसके पति या भाई ने कोई ऐसी बात भी नहीं की थी कि जिससे
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वह आतंकित हो जाए। इसलिए दण्डमायिका को थोड़ा सन्तोष हुआ था कि हेगड़े के स्थान परिवर्तन सं राजमहल में कोई खिम्मता नहीं है। फिर भी अन्दर-ही-अन्दर उसे यह दुःख तो रहा कि दर्शन करने का मौका नहीं मिला। उसे ऐसा लग रहा था कि उसके इस दुःख का कारण हेग्गड़े का ही परिवार है। वह इस आशा से प्रतीक्षा कर रही थी कि इसका प्रतिकार करने का मौका मिले बिना न रहेगा।
बाहुबली स्वामी के दर्शन के लिए जाने से एक दिन पूर्व चामले और उसकी बेटियों को राजमहल से बुलावा आया। जब चामब्वे ने यह सुना तो विश्वास ही नहीं हुआ। इस बुलावे का कारण न मालूम होने से वह सोच रही थी पता नहीं क्यों बुलाया गया है। अच्छा विचार भी आया, बुरे भी आये। जब मानसिक द्वन्द्र हो तब निर्मल और स्पष्ट विचार आ भी कैसे सकते हैं? एक तरफ़ उत्साह था। खुलाचे को लाभदायक समझकर यह उत्साहित हुई थी, तो साथ ही उसमें या भावना भी आयी कि इस समय युवरानी के मन में दबा पड़ा क्रोध ज्वालामुखी की तरह उबल पड़े तो क्या होगा? उस उत्साह में भी यह भय। वह कौंप उठी। इन्हीं भावनाओं को लेकर वह अपनी बेटियों के साथ राजमहल में गयी।
वहाँ उसे और उसकी बेटियों को अपेक्षा से भी अधिक स्वागत मिला। देखते ही युवरानी ने कहा, "इण्डनायिका को दुःख हुआ होगा दर्शन चाहने पर भी न मिलने के कारण । स्वामी के आकस्मिक निधन के कारण मैंने किसी सुमंगली या कन्या का दर्शन न करने का निर्णय किया था। इसाला आपकी दर्शनाभिलाषा को पूर्ण नहीं कर सकी थी। पता नहीं किसी पुराकृत पाप के कारण मेरा मांगल्या छिन गया और मेरी यह स्थिति हो गयी..." युवरानी का गला भर आया, सांस रुक गयी, आँसू निकल आये। गले की बात गले में ही रह गयीं। पल्ले से मुंह हैंक लिया।
चामब्वे को ऐसे मौके की बात कहना भी नहीं सुझा। चुप रही। बच्चियों की आँखें भर आयीं। उन्होंने आँसू पोंछ लिये। थोड़ा रुककर युवरानी ने कहा, "दण्डनायिका जी, यह दुःख ही ऐसा है कि कितना ही रोकने का प्रयत्न करें तद भी वह सकता नहीं। हम सदा भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि शत्रुओं को भी ऐसा दुःख न दे। वास्तव में मेरा वर्तमान जीवन मेरे लिए अवांछित है। प्रभु की अन्तिम आशा को सम्पूर्ण करना मेरा कर्तव्य है-इसी भावना को लेकर जी रही हूँ। नहीं तो अब तक सल्लेखना व्रत लेकर मैं सुरलोक पहुँच गयी होती... हालाँकि यह सब नहीं बोलना चाहिए फिर भी दुःख ही ऐसा है, क्या करूं। मैंने कभी किसी की बुराई मनसा-वाचा-कर्मणा किसी तरह नहीं चाही। बुराई चाहनेवालों की भी मैंने बुराई नहीं चाही। तो भी मेरी ऐसी दशा क्यों हुई: जब मैं यह सोचती हूँ तब सदा दूसरों की बुराई चाहते ही रहनेवालों के लिए कौन-सा
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भारी दुःख मिल सकता है - इसकी कल्पना नहीं कर पाती। बुराई करें तो दुःख का मिलना तो अनिवार्य है ही । लोग इसे समझकर भी बुराई क्यों करते जाते हैं- - यह ऐसी समस्या है जिसका हल ढूँढने पर भी नहीं मिलता।"
दण्डनायिका को कुछ कहना चाहिए था। उसे लगा कि युवरानी ने जो कुछ कहा वह सब उसी के बारे में है । परन्तु वह इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थी कि उसने बुराई की है। उसने कहा, “चुवरानी जी की अगर किसी ने कोई बुराई की ही तो उसे देना आसान काम है। रानी की दुराई का साहस भी किसी को न होगा।" कहते समय गला कुछ रुँधने लगा या फिर भी साहस करके कह ही दिया।
-
युवरानी जी सुनकर कुछ मुस्कुरायीं। बोलीं, मैंने ख़ास अपने बारे में सोचकर यह बात नहीं कहीं। बुराई युवरानी की करे या एक साधारण सिपाही की पत्नी की - दोनों बराबर हैं। बुराई किसकी की गयी, वह बुरा है या नहीं इस तरह सोचना ठीक नहीं। परन्तु हमसे उपकृत होकर भी हमारी ही बुराई करेंगे तो वे भगवान के सामने क्या उत्तर दे सकेंगे? अपनी बुराई की लोगों की आँखों से छिपा लेंगे लेकिन भगवान से तो छिपा नहीं सकेंगे! हैं न दण्डनायिका जी? यह सम्भव है कि बुराई करते वक़्त वह बुराई न लगे। परन्तु वह एक न एक दिन स्पष्ट मालूम हो आएगी कि वह बुराई है। तब बुराई करनेवाले खुद अपनी आत्मा को सान्त्वना नहीं दे सकेंगे। ऐसा ही है न? आप जरूर सोच रही होंगी, मैं यह सब क्यों बोल रही हूँ, हैं न दण्डनायिका जी?"
यह
"बिना किसी विशेष कारण के युवरानी जी कोई बात नहीं कहेंगी य सबको मालूम है।" - चों सीधा जवाब न दे सकने के कारण कुछ घुमा-फिराकर
कहा।
"मतलब ?"
24
- "मतलब यह कि युवरानी जी अवश्य ही कहेंगी यह मुझे मालूम है ।" "युवरानी जी को यदि मालूम हो तो अवश्य कहेंगी। न मालूम हो तो क्या कह सकती हैं?"
दण्डनायिका अनजान बनकर पलकें मटकाती रही ।
“मुझे भी ऐसा ही हुआ करता है, दण्डनायिका जी। हमने जिसकी कल्पना नहीं की वह हो जाता है । परन्तु ऐसा क्यों हुआ इसका पता नहीं लगता। कारण न भालुम होने पर ऐसे ही किंकर्तव्यविमूढ़ रह जाना पड़ता है। पिछले एक वर्ष से तो मैं अकेली अलग-थलग घुटती रही हूँ। अपनी बात तक सुनाने को कोई नहीं है इसी वजह से मुझे बहुत परेशानी होती रही हैं। प्रभु जब तक जीवित रहे, मुझे कभी ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा। महासन्निघान मुझे अपनी
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बेटी ते भी अधिक मानते और समझते हैं। फिर भी स्वतन्त्रतापूर्वक उनसे बातचीत नहीं कर सकती। राजकुमार छोटे हैं। इसलिए मेरी भावना हुई कि आपसे वार्ता करने पर मन का बोझ कुछ कम हो सकंगा।" बुवरानी बोली।
दण्डनायिका के अन्तरंग में अचानक कुछ उफान आया। चेहरे पर उत्साह के भाव आये। बोली, "मैं सदा राजपरिवार की सेवा के लिए तैयार हूँ।"
युवरानी ने घण्टी बजायी। दासी ने परदा हटाया। उन्होंने दासी से कहा, । 'राजकुमारों का अध्ययन चल रहा है ? जाकर शीघ्र देखकर आओ।''
दासी गयी और शीघ्र ही लौटकर बोली कि पाठ चल रहा है।
'ऐसा हैं तो इन बच्चों को भी वहाँ ले जाओ। पाट समाप्त होने तक बच्चे वहीं रहे। बाद में एक साथ सबके उपाहार की व्यवस्था हो।' युवरानी ने कहा ।
कोई दूसरा उपाय न देख दण्डनायिका की बेटियां दासी के साथ चली गयीं।
युवरानी जो बैंटी थीं। उन्होंने उठकर दरवाजा बन्द किया और साँकल लगा दी। फिर आकर बैठ गयीं। कहने लगीं, "दण्डनायिका जी, मुझे आगकल किसी पर विश्वास नहीं हो रहा हैं। किसी से सम्पर्क रखने की भी इच्छा नहीं होती। पस्तु दिन: जी भी दुश है। भुगो र सर ऐसा असाध्य बोझ डालकर मुझसे वचन लेकर छोड़कर चले गये। ऐसे मौके पर मुझे सबकी मदद की आवश्यकता है। आप शायद विश्वास न करें परन्तु उस सत्य को बता दें तो आपका हृदय भी काँप उठेगा, फट जाएगा।'
घुवरानी जी की बातें उद्वेगपूर्ण थीं। इस उद्वेग को रोकने के लिए कुछ देर तक मौन होकर बैठी रहीं। दण्डनायिका सन्दिग्ध दृष्टि से उनकी ओर देखती रहीं।
एक दीर्घ निःश्वास छोड़कर युवरानी ने कहा, "हमारे प्रभु ने वालुक्य चक्रवती की गौरव प्रतिष्ठा की और उनके प्राणों की रक्षा के कार्य में प्राणपण से सहयोग दिया। चालुक्य पिरियरसी जी का मान रखा और खतरे के समय में उनकी प्राण रक्षा की। और भलमनसाहत के साथ वापस ले जाकर उस धरोहर को सौंप दिया। इसका पोयसल राज्य को क्या प्रतिफल मिला, जानती हैं? हमने जो निष्ठा और विश्वास उन पर रखा था। उसका क्या पुरस्कार हमें मिला, आपको मालूम है।"
''क्या हुआ? मेरे मालिक ने भी मुझे कुछ बताया नहीं!''
''अगर आप कहें कि उन्होंने नहीं बताया, तब यही समझना पड़ता है कि आपने उनके विश्वास की पात्रता खो दी हैं।" __ "ऐसा तो कछ नहीं। राजकाज के बारे में वे मुझसे बातें नहीं करते। इस सबका स्त्रियों से क्या सम्बन्ध है? इसलिए नहीं बताया।' दण्डनायिका ने कहा। फिर भी युवरानी की बात ने दण्डनायिका के मन पर आघात किया था।
"अगर हम बता दें कि चालुक्य चक्रवती हमारे विरोधी बन गये हैं तो आप
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विश्वास करेंगी, दाइनाचिका जी?"
"क्या यह सच है!"
"सच, एकदम: वैसे जब आएवं मालिक ने ही नहीं बताया तो मुझे भी नहीं बताना चाहिए था। परन्तु समय आने पर सम्पूर्ण पोसल साम्राज्य को एक परिवार की तरह बनकर रहना होगा-इस बात को ध्यान में रखकर यह बात मैंने जापको बतायी हैं।" युवरानी ने कहा। __ "जैसा मालिक कहते हैं, हम तो अबला है, न राज्य को चला सकती हैं, न युद्ध ही कर सकती हैं। हमारे...''
“यहीं तो आप ग़लत कह रही हैं। हम राज्य-संचालन या संरक्षण के कार्य में अशक्त है, तो भी घर को बिगाड़ने तोड़ने, भेदभाव पैदा करने के लिए आवश्यक बुद्धिमत्ता तथा तज्ञ जीभ रखते हैं, यह बात आप न भूलें। स्त्री घर को बना भी सकती है और बिगाड़ भी सकती हैं। पोयसल राज्य को एक परिवार-सा बनाकर रखने के लिए हमें उसी के अनुरूप चरित्र-निर्माण करना होगा। जो स्त्री अपनी प्रतिष्ठा एवं स्वार्थ से प्रेरित होकर नौकर-चाकरों को हीन दृष्टि से देखेंगी और ऐसे कार्य में प्रवृत्त होगी, वह घरफोड़ ही तो कही जाएगी' जो स्वार्थी होती है, वह दूसरों के हित और गौरव की परवाह नहीं करतीं। प्रभु जब बीमार थे तब मैंने आपको एक बात बतायी थी। वह यह थी कि पोय्सल राज्य से एक व्यक्ति को देशनिकासे देना 15 या: 48 व्यक्ति भी स्वाय का शिकार था। उसी देश-निष्कासित व्यक्ति ने ही आज चालुक्य और पोसलों में विष का बीज बो दिया है- यह खबर मिली है। उस व्यक्ति का सम्पर्क हमारी राजधानी के एक उच्च पदाधिकारी के घराने से बताते हैं। अतः स्त्री होने पर भी वह अविवेक से किसी भी अनचाहे आघात का कारण बन सकती है। इसलिए हमारे राज्य के हित की और राजकुमारों के हित की दृष्टि से उच्च अधिकारी वर्ग के आप जैसों को सम्पर्क रखते समय बीसियों बार सोच-समझकर निर्णय लेना चाहिए। आपका उद्देश्य बुरा न होने पर भी आपके ऐसे सम्पर्क से स्वार्थी लोग नाजायज फायदा उठा जाते हैं। उस व्यक्ति के देश-निष्कासन के बारे में आपके मालिक ने आपको बताया है या नहीं, मालूम नहीं।"
"बतलाया है।"
तो मुझे इस विषय में ज्यादा कहने की जरूरत नहीं। सभी प्रसंग आप जानती ही हैं। आप ही कहिए दण्दनाचिका जी, हमने उस वामाचारी का क्या नुकसान किया था। प्रभु ने ही कौन-सा अन्याय किया था? उसने उनको प्राणाघात पहुँचाने के लिए मन्त्र-तन्त्र किया, सुनते हैं। देश-निकाले के दण्ड का बदला लेने के ख़याल से उसने अपने इस मन्त्र-तन्त्र के प्रभाव को बढ़ाया। जिसके फलस्वरूप
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हमें उन्हें खोना पड़ा। इस आघात के कारण जिस सहारे को खोया उसे हम फिर . से तो पा नहीं सकते। उस सहारे को कोई हमें पुनः दे नहीं सकता। अब तो मुझे अपने बच्चों की फ़िक्र है। मुझे अब यह देखना है कि बच्चे कुशल रहें, इसके लिए आप सभी की सहायता चाहिए। जिन लोगों को हम चाहते हैं. वे आपको भी पसन्द आने चाहिए। तभी हम एक परिवार के होंगे और उस लक्ष्य को साथ-साथ निबाह सकेंगे। जिन्हें हम चाहते हैं उन्हें अगर आप न चाहें तो सब व्यर्थ है। राजघराने और अधिकारी वर्ग व उनके परिवार के लोगों के बीच स्नेह बढ़ाने और द्वेष दूर करने के कायों में आप लोगों की मदद बहुत जरूरी है। क्या हमें आपकी यह मदद मिल सकती है?"
"यह पूछना चाहिए : सरकार को आज्ञा हमें शिरोधार्य है, मान्य हैं।''
"आज्ञा! अधिकार मुझे नहीं चाहिए, दण्डनायिका जी। प्रेमपूर्ण हृदय से इसे अपना कर्तव्य मानकर सन्तोप करना चाहिए। ऐसा करने से परिशुद्ध मन का विकास होता है।"
"बन्नों की कसम, मैं अमानी जी श्री इना के अनुम्मा बनेंगी।"
''बच्चों की कसम मत खाइए, दण्डनायिका जी। बच्चों का हित चाहनेवाली कोई भी माँ बच्चों की सम नहीं खाती। हमारा अविवेक उनके आहत होने का कारण बन सकता है। आपके बच्चों के भाग्य में क्या लिखा है, उनके योगायोग क्या होंगे यह तो कोई नहीं बता सकता है लेकिन उनकी राह में स्वयं कण्टक न बनें। यही हमारे ध्यान में रखने की बात है। कई बार, होनवाली किसी बाई के हम जिम्मेदार बन जाते हैं। हम आत्मा रो न चाहेंगे फिर भी काम ऐसा हो जाता है कि मानो हम ही उसका कारण हैं। जब आप आरती का जल छिड़कने गयीं, तब क्या प्रभु की बुराई चाहकर ही ड्योढ़ी से टकरायीं? उनकी बुराई चाहकर आपने मन्दिर में रक्त की बूंद गिगयी? पहली घटना ती आकस्मिक हुई और दूसरी शायद अनजान में हो गयी है। फिर भी आगे जो भयंकर घटना घटी तब उसकी जिम्मेदार आप हैं, यह कह तो गलत न होगा? वह उचित होगा? दूसरों पर शिकायत लादने से पहले उस पर विचार करना होता है। आपके रक्तसिक्त पैर को हमारे नौकर ने देखा और बड़ी घबराहट से आकर हमसे कहा था। अगर हमने उसी वक्त उस क्रिया पर ध्यान दिया होता तो आज आपसे बातचीत करने तक का मौका भी न रहता। हम और आप अलग-अलग ही रहे होते। आपको मेरी एक ही सलाह है। स्नेह, प्रेम तथा सहृदयता के विचार बढ़ाने की ओर आपका मन प्रवृत्त हो। पश्चात्ताप से बढ़कर कोई और प्रायश्चित्त नहीं। जब तक हममें अपनी ग़लती की ग़लती मानने का साहस नहीं होता तब तक मन निर्मल नहीं होता। यह जी बात मैं आपसे कह रही हूँ, इसे प्रभु ने अपनी अन्तिम घड़ी में
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भझमें कहा था। और यही उनका अन्तिम आग्रह था। कितनी बड़ी बात है ग्रह! यदि सब लोग उसे अपना ना यह भूमि स्वर्ग ही बन जाए क्योंकि तब यहां केवल महान आत्माएँ ही रहेंगी।" ___ इतने में दरवाज़े के बाहर से उपाहार की व्यवस्था की सूचना मिली।
एचलदेवी ने उटकर कहा, "आडा" और दरवाजे की ओर चल दी। चामध्ये ने स्वयं आगे बढ़कर दरवाज़ा खोला। दोनों ने बच्चों के साथ मिलकर उपाहार किया।
पश्चाला के मन को सन्तोष हो, ऐसा कोई प्रसंग नहीं उठा। पाठ समाप्त होते ही बल्लाल महासन्निधान से मिलने अथवा किली राजकार्य के बहाने चला गया। वास्तव में पाला उससे कान्त में बात करने की इच्छा रखती थी। वन, इचा एकतरफ़ा हो तो फलेगी कैसे
विदा होत समय युबरानी ने कहा, "दण्डनायिका जी, आपको एक बात बतानी है। कल मैं वेनगोल की यात्रा पर राजकुमारों के साथ बाहुबली स्वामी का अनुग्रह प्राप्त करने जाऊँग।। वहाँ से लौटने के बाद अप्पाजी के यौवराज्याभिषेक का दिन निश्चय करेंगे। पहले जब हम बेलगोल की यात्रा पर गये थे तब आप साथ में घीं। अबकी बार हमने किसी को भी साथ नहीं ले जाने का निर्णय किया
दण्डनाविका कहना चाहती थी कि हम भी साथ चलेंगी। इतने में युवगनी जी का निर्णय ही व्यक्त हो गया। यवरानी जी ने बहुत ही सौजन्यता से कहा धा तो भी वे दातें प्रकारान्तर सं इण्टनाचिका चापब्बे को चुभ-सी रही थीं। उसमें भी जब वामाचारी के देश निकाले के विषय में कह रही थीं तब उसका हृदय निचुड़ ही गया था। 'अपनी ग़लती को मानने का साहस जिनमें हो उनका मन निमल होता हैं'–यह बात जब युवरानी ने कही तब अपने मन के उस भाव को प्रदर्शित करने की इच्छा भी हुई। परन्तु उस समय उसे वह साहस नहीं हुआ। फिर भी उसके संयम को महान ही कहना चाहिए। किसी भी प्रसंग में उसने अपने मन के तुमुल-संघर्ष को व्यक्त होने नहीं दिया।
'युवरानो जी के ये विचार बहुत ही अछे हैं। राजकुमारों के हित में भी आपकी यह माना बहुत ही जरूरी है। मेरे मालिक ने मुझे इसके बारे में भी कुछ नहीं बताया :..."
शायद उन्हें भी मालूम नहीं है। हमारी इस यात्रा के बारे में प्रचार न हो, यही महासन्निधान की इच्छा है। इसलिए यह विषय कंचल प्रधानजी को मालूम हैं, ऐसा मैं समझती हूँ। आज शायद दण्ट नायक जी को मालूम हो जाएगी। क्योंकि रक्षक दल को तो साथ चलना होगा न जिन्हें वे भेजेंगे में ही तो साथ
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जाएंगे। अचछा, दण्डनायिका जी। कभी-कभी राजपहल में आती रहिए। गत वर्ष की बात अलग रही। समझी?" __"जो आज्ञा,' कहकर बेटियों के साथ दण्डनायिका चली गयी।
युवरानी प्रचलदेवी और राजकुमार जब येनगोल मार्ग पर स्थित ग्राम पहुँचे तो मारसिंगय्या, माचिकब्बे और शान्तला ने उनका स्वागत किया। यह स्वागत निराइम्बर एवं हार्दिक था। युवरानी ने एक रात ग्राम में ही बिताने का निश्चय किया था। परन्तु दण्डिगन हाली नामक स्थान पर रात बितानी पड़ी। वहाँ सिंगिमय्या और सिरियादेवी ने उनका स्वागत किया।
राजकुमारों को इस दण्डिगन हल्ली में सिंगिमय्या को देखकर वास्तव में आश्चर्य हुआ। जहाँ तक उनकी जानकारी थी, वे समझते थे कि सिंगिमव्या बलिपुर के हेग्गड़े के पद पर नियुक्त थे। यहाँ क्यों और कैसे आये? इस तरह के विचार उनके दिमाग में आने स्वाभाविक ही थे। बल्लाल और बिट्टिदेव ने इसके बारे में परस्पर विचार-विमर्श किया। दोनों ही इसके कारण से अनभिज्ञ थे। कारण जानने का कुतूहल हो रहा था। हेग्गड़े मारसिंगय्या के स्थान परिवर्तन का कारण तो उन्हें मालुम हो गया था मगर सिंगिमच्या के बारे में कुछ मालूम नहीं हुआ था। सिंगिमय्या से ही दांफ़्त करने का निश्चय करके बल्लानदेव ने इसकी तहकीकात करने का काम बिट्टिदेव को ही सौंप दिया। बल्लाल को यह मालूम था कि सिगिमय्या और विट्टिदेव के बलिपुर में रहते वक्त निकट का सम्पर्क था। परन्तु विहिदेव ने कहा, "इस सन्दर्भ में तहक़ीक़ात कर उन्हें सन्दिग्धावस्था में डालने के बदले सोधे माँ से पूछकर जान लेना अच्छा होगा। इसलिए आराम करने से पहले उन्होंने माँ से पूछा।
एचलदेवी ने समझाते हुए बताया, "यह बात कभी न कभी तुम लोगों को जरूर ही मालूम होनी चाहिए थी। प्रभु के सिंहासनारोहण के सन्दर्भ में चालुक्य चक्रवती असन्तुष्ट धे। इस असन्तुष्टि का कारण यह था कि इस सम्बन्ध में हमने पहले उनसे अनुमति नहीं ली। इसी बहाने उन्होंने बलिपुर प्रदेश को पोसल राज्य के अधिकार से वापस लेकर उसे पहले जैसे वनवासी प्रान्त में विलीन करने की सूचना पट्टाभिषेक के समय में दी थी। उस समय प्रभु मृत्युशैया पर थे इसलिए यह बात गुप्त ही रखी गयी, किसी को बतायी नहीं गयी। यहाँ तक कि यह बात महासन्निधान को भी नहीं बतायी गयी थी। इसके कुछ समय बाद ही हेग्गड़े मारसिंगय्या जी ने प्रधानजी के मार्फत महासन्निधान को सूचित किया था। फिर प्रधानजी के आदेश से ही हेग्गड़ेजी ने महादण्डनायक को बताया था। अब भी यह
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बात महासन्निधान, प्रधान, महादण्डनायक, हेगड़े मारसिंगय्या, सिगिमय्या और रेविभव्या को ही मालूम है ।"
"उन्होंने ऐसी आज्ञा दी थी, इसीलिए उस क्षेत्र को हाथ से जाने दिया?" बिट्टिदेव ने पूछा।
"हाँ, अप्पाजी ।"
"क्या हमारे पोयसल वंश के लिए यह अपमान की बात नहीं माँ ? हमें इस धोखेबाजी के सामने झुकना पड़ेगा:" जरा उत्तेजित होकर ब्रिट्टिदेव ने पूछा ।
"उस समय उत्तेजित होकर इस प्रश्न को हल करने की स्थिति नहीं थी, छोटे अप्पाजी। उस समय शासन की हालत बहुत नाजुक थी। प्रभु ने सभी बातों पर विचार करके तुरन्त प्रति प्रकरण राजनीतिक दृष्टि से बुद्धि का काम नहीं समझा।” युवरानी ने बताया ।
"हम स्नेहवश उनके सामन्त बने थे। उन्हें यह बतलाते तो अच्छा होता कि हम स्वतन्त्र होकर भी रह सकने की शक्ति रखते हैं।" बिट्टिदेव ने कहा ।
" इसके लिए आप लोग तैयार हो जाओ। कौन मना करता है धोखा और अन्याय के सामने पोसलों को सिर झुकाने की आदत नहीं। परन्तु तब तुम्हारा कोई चारा भी नहीं था। इसके अलावा वह हमारे द्वारा विजित प्रदेश नहीं था । उन्होंने उस प्रदेश को हमें अपने स्नेह के प्रतीक के रूप में सौंपा था। सो भी भाई-भाई के आपसी मनमुटाव के कारण।"
"प्रभुजी ने न जाने क्या देखकर विक्रमादित्य का पक्ष लिया था " बिट्टिदेव ने कहा ।
अब हमें उस बात की आलोचना नहीं करनी चाहिए। जहाँ तक मैं जानती हूँ प्रभु कभी ग़लत विषयों में मदद नहीं करते थे। अगर उन्होंने विक्रमादित्य जी की मदद की तो वह निश्चित ही न्यायसंगत रही होगी।” एरेयंग प्रभु के व्यवहार का समर्थन करती हुई युवरानी ने कहा ।
"फिर भी भाई-भाई के बीच...." बिट्टिदेव कुछ कहना चाहता था कि इसी बीच युवरानी ने कहा, "भाई-भाई में इसका ज्ञान होना चाहिए था न ? इसीलिए तो मैं तुम लोगों से सदा कहती रहती हूँ कि पद, अधिकार, कीर्ति आदि सभी चीजें वात्सल्य के सामने गौण हैं। इसी को हम रामायण में भी पाते हैं। भाइयों के बीच विद्वेष भावना पैदा नहीं होनी चाहिए। तुम लोगों को स्वार्थवश भ्रातृवात्सल्य को नष्ट नहीं करना है।"
I
“इस बारे में आप चिन्तित न हों माँ हम तीनों आप और प्रभुजी के अन्तःकरण के ही तो फल हैं। हममें कभी यह भावना नहीं आएगी। आप चिन्ता न करें। परन्तु चालुक्यों ने हमारे प्रभु को जो स्नेह-द्रोह किया है, उसका प्रतिकार
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तो होना ही चाहिए। स्वयं सशक्त होने पर उसका फायदा उठाने तथा दूसरे के निबंल होने पर उसे दबाकर रखने की प्रवृत्ति के लिए उचित पाठ पढ़ाना ही होगा।" बिट्टिदेव का स्वर अब भी उत्तेजित था।
“महासन्निधान के रहते हुए हम छोटों को उनकी सलाह के अनुसार चलना चाहिए। छोटे अप्पाजी, उद्विग्न या उत्तेजित होकर काम करने से हम कुछ भी संभाल नहीं सकेंगे। यदि चालुक्यों ने अन्याय किया है तो भगवान ही उन्हें दण्ड देगा। हमें दण्ड देने के लिए आगे नहीं बढ़ना चाहिए।'
"यह खींच-तानकर छोड़ने की रीति है, माँ। चालुक्चों ने कमोनापन दिखाया
___'इसमें एक बात और है। प्रभु युद्धभूमि से लौटने के बाद जब रांगशैया पर पड़े थे तब एक व्यक्ति को देश-निकाले का दण्ड दिया था उन्होंने। उसकी चालाकी चालुक्यों के इस तरह के व्यवहार का कारण बनी-वह बात सुनने में आयी है। इसलिए शायद ग़लतफ़हमी के कारण ऐसा व्यवहार किया हो। समय आने पर वास्तविकता का उन्हें पता लग ही जाएगा। इसलिए अभी हमें शान्त ही रहना होगा।
"तव क्या वह वामाचारी ही इसका कारण हैं, माँ?'' बल्लाल जो अब तक मौन रहा, सवाल कर बैठा।
"वह क्या था सो मुझे मालूम नहीं, अप्पाजी। मुझे सिर्फ इतना ही मालूम है कि राज्य के लिए खतरा पैदा करनेवाले एक व्यक्ति को देश-निकाले का दण्ड दिया गया था। तुम शायद मुझसे ज़्यादा जानते हो-ऐसा लगता है। कौन था वह ? उसने क्या किया?"
"माँ, प्रभु को मालूम था। उन्होंने जब आपको नहीं बताया तो क्या मेरा कहना ठीक होगा? इसके अलावा उन्होंने आज्ञा दी थी कि इस सम्बन्ध में कभी किसी से कुछ नहीं कहना।" ___"मुझे भी ऐसा ही लगा था कि कुछ बात रही होगी। एक दिन प्रभु ने प्रधानजी से जब गुप्त मन्त्रणा की थी तब तुमको भी अपने साथ रखा था। जब मैंने तुमसे पूछा तो तुम कुछ न कहकर खिसक गये थे। प्रभु से पूछा तो उन्होंने कहा कि इन सब राजनीतिक बार्ता को जानकर अपना दिमाग़ क्यों खराब करती हो, वह यदि तुमको मालूम न होती हैं तो भी तुम्हारा कोई नुकसान नहीं। इस ढंग से उन्होंने कह दिया था। मैं चुप रह गयी। अब वे ही न रहे। उन्होंने तुम लोगों को मुझे सौंपकर होशियारी से देखभाल करते रहने का आदेश दिया था। आज तुम लोगों के लिए ही मैं जी रही हूँ। इसलिए प्रभुजी जिन बातों को जानते थे उन सभी बातों से मैं भी परिचित रहूंगी। तो जो वे करना चाहते थे, उसे करने
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की कोशिश कर दूंगी। काले हो तो कहो नहीं तो तुम्हारी इच्छा। मैं विवश नहीं करूंगी।"
म, अभी नहीं। मुझे इस सम्बन्ध में कुछ बातों को जानकारी और चाहिए। अब जानकारी पूरी हो जाएगी तब तुम्हें बताऊँगा, टीक है?"
"वैसा ही करो। हेगड़े भारसिंगय्या को प्रभु ने सब बातें बता ही दी होंगी। उनसे पूछने पर ऐसी बात भी मालूम हो सकेंगी जिन्हें तुम नहीं जानते होगे। कल उन्हीं से पूछो।"
"हो सकता हैं वे मुझे न भी बताएँ ।"
''तब तो तुमने उन्हें ठीक पहचाना नहीं । कल तुम युवगज वननेवाले हो और बाद में महाराज भी। अधिकारियों के साथ तुम्हारा सम्बन्ध अर्थहीन नहीं होना चाहिए। इसलिए तुम्हें सभी को अच्छी तरह परखकर समझ लेना होगा। और सब तुम्हें भी समझ सकें-इसके लिए मौक़ा भी देना होगा। प्रभु ने काफ़ी यत्न के बाद यह गुण पाया था। इसलिए वे सबके प्रेम और आदर के पात्र बन सके थे।"
"इस सबके लिए अनुभव भी तो होना चाहिए न?"
"बिना किसी पूर्वाग्रह के खुले दिल से अनुभव प्राप्त करोगे, तभी तुम आदर्श बन सकोगे।"
"एक समय था जब मैं पूर्वाग्रहग्रस्त था। अब नहीं। प्रभु के साथ युद्धक्षेत्र में न जाकर आपके साथ गया होता अथया राजधानी में रह गया होता तो वहीं का बहीं रहता, अबका अप्पाजी नहीं बनता। कुछ दूसरा ही अप्पाजी होता। प्रभु ने मुझमें जिस आदर्श भावना को भरा उस भावना ने मुझमें आवश्यक संयम और विशालभाव भर दिया है। इसलिए मैं आपके लिए भार-स्वरूप नहीं बनूंगा, माँ । प्रभ को आपने जो वचन दिया है, उसे पालन करने में मैं आपका सहायक ही बना रहूँगा, बाधक नहीं। मेरे लिए आपका आशीर्वाद ही पर्याप्त है।" भावोद्वेग से बल्लाल ने माँ के चरण छुए और उन्हें आँखों से लगाया।
भगवान की कृपा से तुम प्रजानुरागी राजा बनो और मुझे तुम्हें लोकप्रिय देखने का सौभाग्य मिले। बहुत देर हो गयी। आराम कर लो। सुबह तड़के ही यात्रा करनी होगी। पूर्वाह तक हमें बेलगोल पहुँचना है।" एचलदेवी ने कहा। सब अपने-अपने शयन-कक्ष में चले गये।
निश्चित कार्यक्रम के अनुसार नियमित समय पर वे बेलगोल पहुँचे। स्थागत के बाद मुकाम पर गये। फिर बेलगोल की पुष्पकरिणी देवबेलगोल में स्नान कर भगवान बाहुबली के दर्शन के लिए इन्द्रगिरि पहाड़ पर चढ़ गये।।
रेविमव्या और बच्चे जल्दी-जल्दी चढ़ गये। युवरामी, हेगड़े दम्पत्ती धीरेधोरे। रक्षक दल के दो अंगरक्षक उनके पीछे-पीछे चढ़ रहे थे। यह सब प्रक्रिया
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मौन ही चली। स्वामी का दर्शन, पूजा-अर्चा यथाविधि सम्पन्न हुई। बाहुबली स्वामी के चरणाराधक ने शान्तला की तरफ़ मुड़कर कहा--"अम्माजी, बाहुबली स्वामी आपके स्तोत्र पाठ को सुनना चाहते हैं। सुने हुए कई साल बीत गये हैं। आपकी वह मधुर ध्वनि आज भी ताज़ा है मानो अभी सुनी हो। इसलिए स्वामी के प्रति श्रद्धा के प्रतीक स्वरूप एक बार फिर तुम्हाग गायन हो जाए।"
शान्ला ने अपनी माँ की ओर से
"भगवान को सेवा समर्पित करने के लिए किसी की अनुमति की प्रतीक्षा नहीं करनी होती। आज का यह भगवदर्शन जीवन में बहुत महत्त्व रखता है। प्रभु ने मुझे जो आज्ञा दी हैं, उसे दुहराकर भगवान के सामने फिर वचन लूंगी कि उस आज्ञा का पालन करूँ। हमारे बड़े राजकुमार की सारी प्रगति आज की पूजा-अर्चा में निहित है। पोयसल राजघराने की प्रगति के लिए तुम्हारे माता-पिता अत्यन्त निष्ठा के साथ सेवा करते रहे हैं, तुम भी उन्हीं की तरह निष्टा रखोगी-यह मेरा विश्वास है। आज की तुम्हारी सेवा, हमारे बड़े अप्पाजी की प्रगति के लिए बाहुबलि स्वामी को समर्पित होगी।" एचलदेवी ने कहा।
शान्तला सर्वांग-सौष्टय युक्त गोम्मटेश्चर के सम्मुख ध्यानमग्न थी। उसने आंख मूंदकर हाथ जोड़े और स्तुतिगान शुरू कर दिशा । उसी भूपाली राग में जैसा कि पहले सूर्योदय के समय प्रथम वार गाया था। आज ठीक दोपहर का समय था। प्रातःकाल में गाये जानेवाले उस राग को मध्याह्न समय में गाने पर उतना मनोहारी न होगा-यह शास्त्रज्ञ पण्डितों की राय है। लेकिन शान्तला ने सूरज की उस तपती दोपहरी में तथा उसी राग में ही गाया और शान्तिमय वातावरण उत्पन्न कर दिया। उस शान्तिमय मधुर नाद के साथ टण्डी-ठण्डी हवा के झोंके सबको आहादकर लग रहे थे।
इस वातावरण में रेबिमय्या अपने-आप को भूलकर भावसमाधि में सबसे अधिक खोया था। बल्लाल कुमार की भी यही दशा थी, वह भी उसी भावसमाधि में था। इसका यह मतलब नहीं कि बाकी लोगों को उतना आनन्द नहीं मिला। उन्हें भी मिला। एचलदेवी को बल्लाल की यह स्थिति देखकर बहुत सन्तोष हुआ था। मन-ही-मन उन्होंने शान्तला को हजारों बार असीसा। वास्तव में उस दिन शान्तला ने तादात्म्य भाव से गान किया था। मन्द स्वरों में उसने जो स्वर-बिन्यास किया था, वह ऐसा लग रहा था कि सम्पूर्ण हृदय से प्रार्थना भगवान के सामने समर्पित की गयी है। ऐसा लग रहा था कि उसके मधुर कण्ठ से निकले नाद की झंकृति ने बाहुबलि के हृदयकमल को विकसित कर दिया हो
और उसने किसी भ्रमर की तरह उस कमल के अमृत समान रस का पान कर लिया हो वहाँ का सारा वातावरण नादमय हो गया था।
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स्तोत्र के बाद शान्तला ने भगवान के चरणों में प्रणाम किया।
"अम्माजी, अद्भुत! आज का स्वर-विन्यास उस दिन की तुलना में बहुत ही अच्छा रहा। उस पुरानी याद को भुला दिया। वास्तव में आज के गायन ने स्वामी के हृदयकमल को खिला दिया। तुम्हारे कारण ही पोयसल राजघराने और राज्य के लिए बाहुबली स्वामी का आशीर्वाद आज प्राप्त हुआ है। यड़े राजकुमार धन्य हैं।" कहकर पुजारीजी ने युवरानी जी से आरती उतारने की अनुमति माँगी। युवरानी जी ने अपनी सम्पति व्यक्त की।
आरती के बाद चरणामृत और प्रसाद लेकर थोड़ी देर वहीं बैठे और फिर सब इन्द्रगिरि से उतर आये। भोजनोपरान्त सब आराम करने अपने-अपने स्थान पर चले गये। युबरानी की इच्छा के अनुसार हेग्गड़ती माचिकब्चे और शान्तला उनके साथ रहीं।
उधर बल्लाल आदि दूसरी जगह लेटे धे। उदयादित्य को नींद आ गयी थी। परन्तु विट्टिदेव और बल्लाल यों ही लेटे रहे। उन दोनों के दिमाग़ में शान्तला के बारे में विचार घमड़ रहे थे।
बिट्टिदेव भो कुछ चकित हुआ था। वह अपनी ही आंखों का विश्वास नहीं कर सका घा कि शान्तला में एक वर्ष की अवधि में ही इतना बड़ा परिवर्तन हुआ है। ऊँचाई, काठी. मुटाई और यह अंगसौष्ठव, प्रभावपूर्ण मुखमण्डल, गम्भीर दृष्टि आदि इन सभी को देखकर इसको लग रहा था कि देवशिल्पी द्वारा निर्मित मूर्ति शायद इसी की तरह की होती होगी। मैं सचमुच भाग्यवान हूँ। उसके इस मौन स्वागत में भी कैसी आत्मीयता थी! उसकी आँखों में और होठों पर कैसा सन्तोष और प्रेम का स्पन्दन होता रहा ! अनिर्वचनीय सौन्दर्य! सिरजनहार के सिरजन में गुण और रूप दोनों की परिपूर्णता अगर कहीं है तो इस शान्तला के रूपसौष्ठव व व्यक्तित्व में है। शायद संसार-भर में ऐसी गुण-निधि और सौन्दर्य की खान अन्यत्र मिलना सम्भव नहीं । कभी एक दिन मेरे भाई ने इसमें आकार का अनुभव किया था पर वह भ्रान्ति थी। आज पता नहीं उसने क्या देखा? खुद ही प्रकट हो जाएगा। अगर मैं यह बात छेदूंगा तो उसको मेरी हँसी उड़ाने का मौका मिल जाएगा। मैं तो तब और अब एक-सा हो हूँ परन्तु ऐसा लगता है कि अप्पाजी में कुछ परिवर्तन अवश्य हुआ है। मैं भी यह देख रहा हूं कि उनका पहरने जैसा स्वभाव नहीं रहा। बह जल्दबाज भी नहीं हैं। पद्यता से अचानक भेंट हो भी जाए तो उसमें घोड़ी-सी आत्मीयता भी नहीं लक्षित होती। बेचारी दण्डनायिका की बेटी उसकी नजर से इस तरह क्यों उतर गयी उससे ऐसी कौन-सी अनहोनी हो गयी? भैया से ही पूछना चाहिए। राजधानी में पहुंचने पर तन्हाई कुछ कम रहेगी अतः यही कुछ कोशिश करके इसके बारे में उनका विचार जान लेना चाहिए।
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बल्लाल कुछ और ही सोच रहा था : निर्मल अन्तःकरण कितना अनमोल हैं! वास्तव में मैंने हेगड़े परिवार के प्रति उचित व्यवहार नहीं किया। कितने पावन मन से हेगड़े की बेटी ने दत्तचित्त हो भगवान की स्तुति की और राजवंश और मेरे हित के लिए प्रार्थना की। उस प्रार्थना ने पत्थर को भी पिघलाया होगा । उसकी गानमाधुरी चमत्कारपूर्ण है। प्राणशक्ति से युक्त एवं भावभीनी होकर इत्तन्त्रियाँ शंकृत कर जाती हैं। वास्तव में छोटे अप्पाजी बड़े ही भाग्यवान हैं। यह उनके अनुरूप ही है। काश! वह मुझसे पहले जन्म लेता तो कितना अच्छा होता! मैंने जिस लड़की को चुना जिससे वादा किया वह लड़की तो वामाचारी के हाथ की कठपुतली है। हे अरिहन्त, मैंने कैसी गलती की वचपन में मीठी-चुपड़ी बातों और पद-प्रतिष्ठा के वशीभूत होकर असन्तुष्ट और अपरिपूर्ण जीवन की ओर मैंने क़दम रखा। मेरे माता-पिता यदि ठीक समय पर सही रास्ते पर न लगाते, अच्छे गुरूओं की व्यवस्था न करले, तो शायद पोय्सल वंश ही मेरे साथ समाप्त हो जाता महारानी केलेयब्बरसी जी की त्याग तपस्या तथा महासन्निधान की कुशाग्र बुद्धि ने मिल-जुलकर राजवंश को सुदृढ़ता दी। मेरी माँ ने पिता के जीवन की संयमी, औदार्ययुक्त एवं निर्मल प्रेम से परिपूर्ण बनाया। छोटे अप्पाजी का जीवन उनसे भी भव्य बनेगा। परन्तु मेरा जीवन ? इस सम्बन्ध में सोचना ही भयंकर है। भगवान की इच्छा को कौन जानता है सब कुछ पूर्व नियोजित है। मैं पुरुष हैं, देरी से भी विवाह कर सकता हूँ तो कोई हर्ज नहीं । परन्तु लड़कियों को कितने समय तक घर में अविवाहित रख सकते हैं? बिलम्ब करने से इस प्रसंग का निवारण हो सकेगा !... वही ठीक होगा ।
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यीं उन दोनों भाइयों की विचारधारा पृथक्-पृथक् ढंग से चलती रही। शायद बहुत देर बाद ही उन्हें नींद आ पायी। सुबह देर से जगे । निश्चय हुआ था कि वह दिन वहीं बिताया जाए। हेगड़े मारसिंगव्या ने युवरानी जी से निवेदन किया था कि सीधा राजधानी जाने के बदले ग्राम में दो दिन ठहरें तथा धर्मेश्वर मन्दिर में, जिसका निर्माण उन्होंने ही कराया था, शिवलिंग की स्थापना करें। हेमजी की प्रार्थना मान ली गयी थी ।
ग्राम में शिवलिंग की स्थापना के उद्देश्य से राजपरिवार के ठहरने की व्यवस्था करने का दायित्व सिगिमय्या को सौंपा गया था। इसलिए वह बेलगोल न जाकर पत्नी समेत ग्राम लौट आया था। हेग्गड़े मारसिंगय्या की सूचना के अनुसार सब व्यवस्था हो चुकी थी। बिना किसी आडम्बर के सहज भक्तिभाव से यह कार्य सम्पन्न हुआ। ग्राम के इर्दगिर्द पास-पड़ोस के लोग काफ़ी संख्या में इकट्ठे हुए थे | अगर पहले से यह मालूम हुआ होता कि युवरानी और राजकुमार पधारेंगे तो सम्भव है कि और अधिक संख्या में लोग इकट्ठे होते । हंगजी ने समझ-बूझकर
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ही ऐसी व्यवस्था की थी। शक संवत् 1022 के विक्रम संवत्सर कार्तिक सुदी तेरस के दिन वेद-वेदांग - प्रवीण शिवशक्ति पण्डित द्वारा शिवलिंग स्थापना का समारम्भ सांगोपांग रूप से सम्पन्न हुआ ।
नाद, नृत्य के जनक और प्रेरक शक्ति स्वरूप नटराज महादेव के सान्निध्य में शान्तला की गानसुधा की धारा बही। शान्तला का नृत्य भी हुआ। लास्य के समय शिवकामिनी और ताण्डव करते वक़्त रुद्राणी जैसी लगती थी शान्तला । इस भंगिमा को देखकर मन्त्रमुग्ध-सा बैठा था बल्लाल । बग़ल में बिहिदेव बैठा था । बल्लाल ने भाई के कान में धीरे से कहा, "छोटे अप्याजी, महान है यह बहुत ही रम्य...सुन्दर!" भाई के मुँह से यह प्रशंसा सुनकर विट्टिदेव खिल
उठा ।
मारसिंगय्या जी के हेगड़े बनकर ग्राम में आने से ग्रामवासियों के लिए एक विशाल समारम्भ देखने का सौभाग्य मिला था। ग्राम के प्रमुख पौरों ने इस महान सन्निवेश के स्मारक के रूप में एक शिलालेख की स्थापना कराने की सलाह दी। इसके बारे में युवरानी जी से निवेदन किया गया।
"अभी हम एक पारिवारिक कार्य के निमित्त यहाँ आये हैं । अतः इस प्रवास में हमारा अन्य किसी भी तरह के कार्यक्रम में सम्मिलित होना उचित नहीं। इसके अलावा राजपरिवार के लोगों की उपस्थिति का जिक महासम्विधान की अनुमति के दिना करना उचित नहीं। इसलिए शासन का लेख अपने तक ही सीमित रखें। वही होना भी चाहिए क्योंकि मन्दिर निर्माण तो एक चिरस्थायी कार्य है ।" युवरानी एचलदेवी ने कहा ।
मारसिंगय्या ने "जी आज्ञा " कहकर सिर झुका लिया। वह अपने नाम का उल्लेख उस प्रस्तरोल्कोण में कराना नहीं चाहते थे। इसलिए वहाँ मूर्ति स्थापना के वर्ष - तिथि, वार एवं संवत् का ज़िक्र कराकर एक छोटा प्रस्तर लेख मन्दिर की जगत पर लगवाने की व्यवस्था करने का निर्णय किया।
उस दिन शाम को रेविमय्या को साथ लेकर बल्लाल और बिट्टिदेव घोड़ों पर सवार होकर सैर करने ग्राम से बाहर निकल आये। बिट्टिदेव के अपने मन में जो समस्या उठ खड़ी हुई थी उसे हल करने के उपाय ढूँढने के इरादे से ही इस तरह की युक्ति निकाली थी। ग्राम के पूरब की ओर एक कोस की दूरी पर हेमावती से मिलनेवाली एक छोटी नदी हैं। उस नदी से थोड़ी दूर पर दक्षिण की ओर एक पगडण्डी है, उससे हटकर एक शान्त स्थान पर दोनों भाई जा बैठे। शाम का सुहावना समय था। धीरे-धीरे सूर्य पश्चिमांगना की गोद में विश्राम लेने के लिए
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उतर रहा था |
घोड़ों को पेड़ से बाँधकर रेविमय्या पास ही थोड़ी दूर पर जा बैठा था । वर्षाकाल
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समाप्तप्राय था। छोटी नदी भरपूर होकर हेमावती की ओर धीरे-धीरे बह रही थी
विट्टिदेव सोच रहा था कि बात को किस तरह से छेड़े कुछ विचार-विमर्श करने के ही इरादे से भाई को बुला लाया था - यह वल्लाल को मालूम नहीं था । रेविभय्या जानता था, इसलिए यह बड़े कुतूहल से सुनने की प्रतीक्षा कर रहा था। बल्लाल ने अचानक कहा, "छोटे अप्पाजी, तुम बड़े भाग्यवान हो ।" बिट्टिदेव तो सोच ही रहा था कि बात कैसे छेड़े भाई की यह बात सुनकर वह मानो स्वप्न से जागा और पूछा, “क्या कहा ?"
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वह मुस्कुराता हुआ बोला, “कहा कि तुम बड़े भाग्यवान हो ।" बल्लाल की बात सुनकर बिट्टिदेव बोला, "भैया, हम सब भाग्यवान हैं। प्रभु जैसे विशाल हृदय के पिता और प्रेममयी माता की सन्तान होकर हम तीनों ने जन्म लिया है। ऐसी दशा में हम तोनों धन्य हैं और भाग्यशाली हैं। तब मेरे ही लिए कौन-सा खास सींग निकला हैं?"
"अप्पाजी, तुम ऐसा मत समझो कि मैंने ईर्ष्यावश यह बात कही है। मैंने हार्दिकता में यह बात कही है।" बल्लाल ने कहा ।
"आपकी इस विशेष भावना के लिए कोई कारण भी तो होना चाहिए न?" विष्टिदेव ने पूछा ।
"माँ सदा कहती रहती है कि पश्चात्ताप ही बड़ा प्रायश्चित्त है। एक समय था जब मेरे मन में इस हेग्गड़े परिवार और उनकी बेटी के विषय में अच्छे भाव न थे। उस भाव को मैंने कभी छिपाकर नहीं रखा, कई प्रसंगों में व्यक्त-अव्यक्त रूप से और मेरे अपने व्यवहार से प्रकट होता रहा। लेकिन अब मैं भी यह सोचता हूँ कि मैंने जो कुछ समझा था वह ग़लत था। मेरे मन में उनका जो चित्र या वह कुछ दूसरा ही था। परन्तु अब उनका जो चित्र मेरे मन में हैं वह कुछ और ही हैं। प्रभुजी, माताजी, तुम और रेविमय्या जी उत्साह उनके प्रति दिखाया करते थे उसे मैं अर्थहीन मानता था। यह उत्कट प्रेम के कारण बना उत्साह समझता था। इस वजह से आप लोग उनके बारे में जो कुछ कभी-कभी कहा करते थे उन वार्ता का मेरे मन पर कोई असर नहीं होता था । परन्तु उससे एक अच्छा परिणाम हुआ। खुले मन से तथा खुली आँखों से देखकर सब बातों पर विचार करने की एक नयी दृष्टि का उद्भव मुझमें हुआ। जब से बेलगोल आये, तबसे अब तक के उनके व्यवहार, बातचीत, सविनयपूर्ण सहृदयता आदि को परखने के बाद मैंने यह समझा कि इनमें कृत्रिमता और दिखाया नहीं। जैसा इनका हृदय है वैसा ही इनका व्यवहार है। मेरी यह निश्चित धारणा बनी है। इसलिए..." इतना कहकर बल्लाल बोलते-बोलते रुक गया।
"भैया, क्यों रुक गये? इससे मैं कैसे विशेष भाग्यशाली हो जाऊँगा । वास्तव
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में विशेष भाग्यवान तो तुम हो। हेग्गड़े जैसे निष्ठावान लोगों का सहयोग कल सिंहासन पर बैठनेवाले को मिलेगा और वह तुम हो।"
___ "वह भी तो एक भाग्य ही है। परन्तु हेग्गड़े की बेटी का मन तुमने जीत लिया है। यह तम्हारा महाभाग्य है।'' बल्लाल ने बग़ल में बैठे लिट्टिदेव को बग़ल से छकर तथा रेविमव्या की तरफ़ देखकर आँखें मटकायीं।
विट्टिदेव वास्तव में पुलकित हो रहा था। अपने मन की भावना को व्यक्त न करके अपने लक्ष्य को साधने के लिए उसे खुद-ब-खुद मौक़ा मिल गया, ऐसा सोचकर कहने लगा-''यह कौन-सा महाभाग्य है? राजकुमार होकर एक साधारण हंग्गड़े की लड़की का मन जीतना कौन-सा बड़ा काम है? इम दृष्टि से विचार करेंगे तो तुम मुझसे अधिक भाग्यवान हो क्योंकि तुमने तो महादण्डनायक की पुत्री नगा प्रधान की मां के दो बीत लेगा है।"
बल्लाल के इस उत्साह पर भाई की इस बात ने पानी फेर दिया। वह पहले कन्धे उचकाकर, फिर जड़वत् बैठ गया।
"क्यों भैया, मेरी बात से क्रोधित हो गये?"
'छोटे अप्पाजी, कृपा करके इस बात को न उठाओ। शान्त सागर में जब मन तैर रहा है तब वह कड़वी बात क्यों?''
"भैवा, मैं इसी कड़वी बात पर तुमसे विचार-विमर्श करने के लिए ही आज इधर इस एकान्त में बुला लाया हूँ। युद्धक्षेत्र से लौटने के बाद से तुममें एक बड़ा परिवर्तन आया है। खासकर दण्डनायक के परिवार के प्रति जो उत्साह दिखाते रहे थे, अब नहीं दिखता है। उनकी लड़की के प्रति जो भागना थी वह लुप्त हो गयी है। एकदम ऐसा क्यों हुआ? तुम खुद कहते हो कि यह कड़वी बात है, इस कड़वी बात को अकेले अपने में रखे रहोगे तो घुलते जाओगे। क्या हुआ, बताओ? यहाँ मैं, तुम और रेविमध्या-हम लीनों के अलावा अन्य कोई नहीं है। तुम कुछ भी कहो वह गुप्त ही रहेगा, कहीं प्रकट नहीं होगा।"
"नहीं छोटे अप्पाजी, मैं कह नहीं सकता। उसे मुझ अकेले को भुगतना हैं।"
“यदि बात इतनी अधिक कड़वी है, तो वह दीमक की तरह अन्दर-ही-अन्दर तुमको खोखला बना डालेगी। तुम कल पोप्सल महाराज होओगे। मैं तुमको ऐसा नहीं होने दूंगा। इस दुनिया में कोई ऐसी समस्या नहीं, जिसका हल न हो। इसलिए कुछ-न-कुछ हल निकल ही आएगा। कृपा करके बता दी, भैया।"
"नहीं छोटे अप्पाजी, मैंने प्रभु को वचन दिया है कि इस विषय को किसी से नहीं कहूँगा।''
"जब तक वे रहे तब तक तुमने उसका पालन किया। अब उसे कहकर अपने दिल के बोझ को उतार डालो।"
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''नहीं छोटे अप्पाजी, वह मेरा दर्द है। मैं भुगत लूँगा। उसे दूसरों में बाँटना ठीक नहीं।"
यह दर्द अकेले तुम्हारा नहीं। ऐसा होता तो चुप रहा भी जा सकता था। भैया! तुम्हें मन को खुश रखना चाहिए। तुम्हारा खुश रहना राज्य के हित की दृष्टि से बहुत ही आवश्यक है। इसके साथ जिसने अपने हृदयान्तराल से तुमसे प्रेम किया है, उस लड़की के लिए तुम्हारे इस तरह के व्यवहार से कितना दुःख हुआ होगा-इस बात पर भी तुमने कभी विचार किया है। ___“वह उसका भाग्य है। उसे ठीक करने की आवश्यकता नहीं।"
"हमारी वजह से, हमारे व्यवहार से दूसरों का भाग्य जब बदलता हो तब हमें इस विषय में स्पष्ट रहना होगा न? भैया! वह लड़की जिसने तुमसे प्रेम किया उसने कभी सीधा ऐसा कोई व्यवहार किया है जिससे तुम्हारा दिल दुखे
“उसने सीधा तो कुछ नहीं किया। परन्तु उसके परिवार का व्यवहार ठीक नहीं है। इसलिए उस घराने से सम्बन्ध रखना उचित नहीं।"
__"यदि यही तुम्हारा निर्णय है तो तुम उस लड़की को कारण समेत स्पष्ट समझा दो और अपना रास्ता टोंक कर लो। उधर वह लड़की और इधर तुम इस तरह दोनों को दुःखी होना और घुलते रहना तो उचित नहीं। याँ घुलते रहने से तो दोनों में से किसी का भी कोई प्रयोजन सिद्ध न होगा। अगर मुझसे तुम न कहना चाहो तो मत कहो। मैं जोर नहीं डालूंगा। असली यात मालूम हो तो कुछ हल निकाला जाए इसी आशा से मैंने यह विषय छेड़ा है। इतना ही। तुम स्वयं ही उस लड़की से सीधा मिल लो और एक स्पष्ट मत अपने में बना लो। तुमने कभी उस लड़की से या उसके माँ-बाप से बात की है क्या?" ।
"नहीं, यदि बात करने जाएँ तो वे कोई-न-कोई कारण बताकर बात को टीक बैठाये बिना नहीं रहेंगे। इसलिए बात करने से कोई प्रयोजन नहीं निकलेगा।'
"कम-से-कम माँ से इस विषय में बात की है क्या?" "प्रभु का असली मतलब ही यह था कि यह बात मां को मालूम न हो।"
"तो मामला बहुत पेचीदा है। कुछ भी हो, मेरी अन्पबुद्धि में तो यही समझ में आता है कि उनके घरेलू व्यवहार कुछ अच्छे नहीं। तुमने भी यही बताया। तुममें जब यह भावना रही कि उनका व्यवहार अच्छा है तब तुपमें उस और अधिक प्रीति पैदा हुई। तुम्हारी उस भावना के बदलने में कोई-न-कोई ऐसी घटना अवश्य हुई होगी। बस उसी का ही फल है न जो तुममें यह परिवर्तन हुआ है?"
"हाँ!" ''इस घटना में उस लड़की की क्या भूमिका रही है?" "मैं कुछ नहीं जानता। हो भी सकती है और नहीं भी।"
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" इसलिए तुम दिल खोलकर उस घटना के बारे में स्पष्ट बातचीत कर लोगे तो अच्छा रहेगा "
" देखेंगे। हो सकता है, तुम्हारी बातों से कोई मार्ग प्रशस्त हो । राजधानी लौटने के बाद सोचकर निश्चय करूँगा कि आगे क्या करना है ।"
“ठीक है, ऐसा ही करो। परन्तु इसमें महासाध्वी माता भी न जाने ऐसी कोई बात है तो उसे बहुत ही भयंकर होनी चाहिए। सोचना तक कठिन है। रेविमय्या जाओ, घोड़ों को ले आओ, चलें। कहीं हेग्गड़जी स्वयं ही खोजते हुए यहाँ न आ जाएँ।" बिहिदेव ने कहा ।
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वे सब मुकाम पर पहुँचे। वहाँ एक दिन और ठहरकर राजधानी की तरफ़ प्रस्थान किया।
विट्टिदेव और शान्तला एकान्त में मिल न सके तो भी जब उन दोनों ने परस्पर देखा था तभी मन-ही-मन आँखों में बांत कर डाली थी। इस मौन क्रिया में कितनी ताकत है यह दोनों को अच्छी तरह विदित हो गया था। ऐसा महसूस होने लगा था कि उनका अनुराग एकदम हजार गुना बढ़ गया है।
पारिवारिक या राजनीतिक किसी भी विषय पर किसी ने कोई बातचीत नहीं
की ।
सबसे आश्चर्य का विषय यह था कि रेविमय्या ने कभी किसी हालत में मुँह नहीं खोला। एक बार शान्तला ने उसे छेड़ा भी, "क्या रेविमय्या, तुम अम्माजी को भूल गये :
तुरन्त उसकी आँखें भर आयीं। बोलने का प्रयत्न किया परन्तु अधिक बोल न] सका। "मौन में बात करने से भी अधिक शक्ति है, अम्माजी... " इतना ही वह कह सका था। उसका कण्ठ रुँध रहा था ।
"अबकी बार इस पाठ का अभ्यास सबने अच्छी तरह किया है-ऐसा प्रतीत होता है। बड़े राजकुमार कल महाराज बननेवाले हैं इसलिए यह गाम्भीर्य उनके लिए तो शोभायमान है। लेकिन बाकी लोगों को इस तरह गुमसुम रहना चाहिए ?"
"अम्माजी, प्रभु से बिछुड़ने के बाद एक तरह का गम्भीर वातावरण ही फैला है। किसी में कोई उत्साह नहीं । यान्त्रिक ढंग से दिन गुजरते जा रहे हैं। वास्तव में सबको यह सारा असहज ही लग रहा हैं। इस असहज व्यवहार से कोई दूर रह नहीं सकता। राजधानी का जीवन ही ऐसा है। अब कुछ परिवर्तन सबमें लक्षित हो रहा है। अब जब तुम जल्दी ही राजधानी आओगी तो सब कुछ ही पालूम हो जाएगा। परन्तु एक बात याद रहे। हमारे बड़े राजकुमार सहित सब लोगों में आप लोगों के प्रति एक-सी ही सद्भावना है। वर्तमान मानसिक दुःखद स्थिति समय की गति के साथ-साथ बदल जाएगी।" यों अपना आशावादी मनोभाव व्यक्त कर
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रेविमय्या ने यात समाप्त कर दी।
यौवराज्याभिषेक के आमन्त्रण की प्रतीक्षा करते हुए हैग्गड़े परिवार ग्राम में ही रहा। सिंगिमय्या और उनका परिवार, जी यादवपुरी से आया था, वापस चला गया।
युवरानी और राजकुमारों के राजधानी में लौट आते ही दो कार्यों के सम्बन्ध में निर्णय हुआ। एक, कुमार बल्लालदेव का यौवराज्याभिषेक महोत्सव और दूसरा, सिंगिमच्या को ग्राम में हेग्गड़े के पद पर नियुक्त करना और हेग्गड़े मारसिंगय्या को राजधानी में बुलाना। इसके लिए आज्ञा-पत्र निकाल दिया गया।
हेग्गड़े मारसिंगव्या अगहन के समाप्त होने के पर्व ही सपरिवार गजधानी में आ गये और फिर से अपना पहने का कार्यभार संभालना शुरू कर दिया। माघ के पहीने में ही यौवराज्याभिषेक करने का निश्चय हुआ था। इसलिए सभी लोगों को काम इतना अधिक करना था कि किसी को काम से फसत ही नहीं मिल रही थी। चामध्ये को भी कुछ कार्यों की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी थी। यों तो दण्डनायिका फिर से हेग्गड़ती के राजधानी में आने से कुढ़ रही थी, फिर भी उस
ओर उसका विशेष ध्यान नहीं गया। अबकी उसके सोचने-विचारने का ढंग ही कुछ और त्यना था। अब वा सोच रही थी कि अपने इष्टार्थ को साधने का यह अच्छा मौका है। और अपने को बहुत अच्छी और निष्ठावान साबित करें। इसके लिए परिश्रम करने से मैं पीछे हटनेवाली नहीं... इस तरह की भावना प्रभुत्व में हो जाग! - ऐसा विचार कर उसने कायारम्भ करने की ओर पहला कदम उठाया। उसका यह निर्णय था कि पहासन्निधान, युबरानी जी और राजकुमार बल्लाल को अपनी कार्यदक्षता द्वारा वह सन्तुष्ट कर लेगी। दोनों पुरुषों को सन्तुष्ट करना उसके लिए कोई समस्या नहीं थी। परन्तु युवरानी जी को समझना उनके अन्तरंग तक पहुँचना एक कठिन कार्य समझ रही थी। इसीलिए युवरानी जी के निकट आने के लिए उसने हेगड़ती और उसकी बेटी के ही जरिये मार्ग सुगम कर लेना सोचा। इसके लिए उसने उन लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने तथा अपनी भलपनसाहत दिखाकर उनके मन में अपने प्रति उत्तम भाव उत्पन्न करने के लिए अपने व्यवहार को रूपित कर लिया और उसी तरह बरतने लगी। ___इन लोगों में से किसी के मन में दण्डनायिका चामब्बे के लिए कोई सद्भावना नहीं थी। फिर भी उसके प्रति उदारता ही बरतते थे, यही कहना चाहिए। यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि इन लोगों ने बड़ी सहिष्णुता से उसके साथ बर्ताव किया। चामब्बे का सिर झुक तो गया फिर भी दाँच नहीं लगा। दिन गुजरते गये। यौवराज्याभिषेक के लिए मुहूर्त निश्चित हो गया। बड़े पैमाने पर सारे
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इन्तजाम हो रहे थे। परन्तु इस मुहूर्त के एक पखवारे के पहले महाराज विनयादित्य पार्श्व-बायु के शिकार हो गये। बिस्तर की शरण ले ली। इस वजह से मन्त्रणा सभा बैठी और वर्तमान परिस्थिति पर विचार हुआ। और निर्णय लिया गया कि महाराज की स्वीकृति के अनुसार कुमार बल्लाल को महाराजाभिषिक्त कर सिंहासन पर आसीन कराया जाए। इसके अनुसार ही घोषणा कर दी गयी।
घोषणा सुनते ही चामब्वे के दिमाग़ में शैतान घुस बैठा। वह सोचने लगी कि इसमें कुछ कुतन्त्र है। सम्भव है कि कल-परसों यह ख़बर भी फैल जाए कि कुमार बल्लाल का विवाह शान्तला से होगा तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। इसका पता कैसे लगाएँ? यह तो वह जानती ही थी, बल्लाल पहले शान्तला को उदासीन भाव से देख रहा था। लेकिन अब एक सम्मान का भाव उसमें आ गया है, उसके प्रति! इसका रहस्य जानना चाहिए। शान्तला की ऐसी ही स्थिति हैं। चल्लाल से हँसते-हँसते बातचीत करने की रीति को देखने पर ऐसा लगता है कि अभी हाल में जो बेलगोल हो आये तब कुछ खास बातें हुई हों। इसलिए वह पाला की परवाह उतनी नहीं कर रहा है। भगवान भी कैसा मूर्ख है कि उसने उसे पद्मला से भी अधिक सुन्दर बनाया है। इस प्रकार दण्डनाचिका का कलुषित मन कुछ अण्ट-सण्ट विचार कर रहा था। उसका पता लगाने का सने निश्चय किया। पद्मला को भी शान्तला के साथ करने का विचार किया। और इस दिशा में कार्य-प्रवृत्त हुई। ____माँ ने जो कुछ कहा पयला वह सब ध्यान से सुनती गयी। उसे भी लगा कि यदि उस तरह हुआ तो उसमें आश्चर्य ही क्या है। महारानी बनने की किसे चाह नहीं होगी? शान्तला की भी इच्छा हो गयी हो। इसमें ग़लती ही क्या है? अब भी मेरा मन कह रहा है कि राजकुमार की इच्छा नहीं होगी। फिर भी इधर कुछ समय से राजकुमार को मेरे बारे में कुतूहल न रह जाने के कारण मों के कथनानुसार हो भी सकता है। कौन जाने? इस तरह पद्मला का मन डाँबाडोल हो रहा था। सत्य क्या हैं इसे जानने में कोई गलती नहीं। जैसे-जैसे मुझे इसके सत्यासत्य को जानने के लिए उपाय सूझेगा, उसके अनुसार जानने की कोशिश करूँगी-यह बात उसने अपनी माँ से कह भी दी।
एक दिन समय देखकर राजमहल के ओसारे में शान्तला को अकेली पाकर पद्मला ने कहा, "आपसे तन्हाई में मिलने का इरादा है। आप मान लें तो हमारे यहाँ चलेंगी।"
"आज नहीं। हो सकता है कि कल आऊँ।' शान्तला बोली। “आज कोई अन्य कार्य है?" "हाँ।"
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"क्या है, मैं जान सकेंगी?"
"राजघराने के बारे में जो कुछ जानते हैं उन्हें अपने ही मन में रखना चाहिए, दूसरों से नहीं कहना चाहिए।"
"तो वह कोई रहस्य होगा।"
"आप भी जानती होंगी। मैं क्या जानूं? आपको जो यात मालूम है उसके बारे में मैं कभी नहीं पूलूंगी।'
__"अच्छा, जाने दीजिए, राजघराने की बातों से हमें क्या मतलब?" पद्मला ने एक अप्सहज रीति से कहा।
"पोसा कहेंगी तो कैसे चलेगा? आप कल की होनेवाली महारानी हैं।" पद्मला ने एक निराशापूर्ण हँसी हँस दी। कहा, ''आपसे यह किसने कहा?" "छोटे राजकुमार ने बहुत समय पूर्व कहा था।" "समय वदलने के साथ मन भी बदल सकता है न?" "न, न। मैं विश्वास नहीं करती। पोय्सल वंशी वचन भंग नहीं करेंगे।"
"महारानी बनने की आशा का शिकार बनकर, जादू चलाकर अपने वश में कर लेने की चाह करनेवाली लड़कियों की कमी तो नहीं है।" __ "तो आपका अनुमान है कि ऐसी भी कोई लड़की है। किसी पर शंका है?"
"हाँ है, इसलिए तन्हाई में बातचीत करनी चाही थी।"
"वह लड़की कौन है, बताइए। उसको मैं समझा दूंगी। स्त्री यदि एक बार किसी को अपना हदय देती है तो सदा के लिए ही। उसका वह हृदय अन्यत्र विचलित नहीं होता। अगर वह लड़की विचलित होती है तो उसमें कुछ और तरह की इच्छा रहती है। ऐसी लड़की समाज के लिए हानिकारक बनती है। हम सब मिलकर उसका निवारण करेंगे।" शाम्तला ने कहा। ___ "इतना आश्वासन आपसे प्राप्त हो तो मैं निश्चिन्त हूँ। आपको जब फुरसत हों तब यह सब विस्तार से बताऊँगी।" पद्मला बोली।
इतने में बिट्टिदेव वहाँ आया। "ओह! छोटी दण्डनायिका और छोटी हेग्गड़ती में मन्त्रालोचना चल रही है क्या?" उसने पूछा। ___ "यह जानते हुए भी कि अभी निकट भविष्य में महारानी बननेवाली हैं, तो यह छोटी दण्डनायिका सम्बोधन क्यों?" शान्तला ने पूछा।
भैया महाराज बनेंगे। फिर भी पट्टाभिषेक के होने तक तो वे भैया ही हैं न।" बिट्टिदेव ने कहा। बात तो विचारणात्मक रही। फिर भी उसके कहने के ढंग में शान्तला को कुछ असहजता लक्षित हो रही थी। क्या पद्मला की शंका और इस असहज रीति-इन दोनों में कुछ सम्बन्ध हो सकता है? हो तो भी इस समय उसकी खोज करना या छेड़ना ठीक नहीं यह मानकर, "इतना ही कारण हो तो
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वह ठीक ही है" कहकर शान्तला ने पद्मला की ओर देखा। पद्मला के चेहरे पर . कुछ आशा की झलक उभर आयी धी।
"अच्छा, आप लोगों की मन्त्रालोचना चालू रहे'' कहकर बिट्टिदेव चला गया। दाद में शान्तला ने कहा, "देखा, आपका भय निराधार है। आइए, महाराज के पट्टाभिषेक के समय हाथ में जो फल दिया जाएगा उसे पणियों से सजाना है।" कहकर बात न बढ़ाकर पद्मला को ले गयी।
पद्मला ने जाकर अपनी माँ को सव बताया। पट्टाभिषेक समारम्भ सन्निहित होने से सबका ध्यान उस ओर रहने के कारण अन्य किसी बात के लिए मौका ही नहीं रहा।
राजकुमार बल्लाल का पट्टाभिषेक समारम्भ शक संवत् 1022 के विक्रम मंवत्सर माघ बदी सप्तमी के दिन शास्त्रोक्त विधि के अनुसार बड़ी धूमधाम के साथ सम्पन्न हुआ।
एरवंग प्रभु के सिंहासनारोहण समारम्भ की वेला में प्रजा को दुःख सागर में डूबना पड़ा था। आज यह आनन्दोत्साह के चरम तक पहुंच गयी थी। यदि कोई दु:ख था तो वह यह कि महाराज विनयादित्य शैयाशायी थे। इसके सिवाय अन्य कोई दुःख न धा।
एचलदेवी की आँखों में आनन्द और दुःख के संगम के अश्रु भर आये घे। आनन्द और दुःख इन दोनों के बीच का बाँध शायद टूट गया था। पतिदेव की आज्ञापालन करने की तृप्ति से उनका अन्तःकरण भर आया था। ___ पट्टाभिषेक महोत्सव के ही साथ पहाराज के जुलूस का भी प्रबन्ध किया गया था। जिससे सारी प्रजा को अपने नये महाराज के दर्शन करने का सुअवसर मिल
सके।
राजधानी के घर की छतों और महलों के कगूरों पर पोसल झण्डे फहर रहे थे। ___ "पोसल सन्तानश्री की जय हो, चिरायु हो, महाराज वल्लाल प्रभु चिरजीवी हो।' ध्वनि से दसों दिशाएँ गूंज उठीं।
"अभी महाराज का पाणिग्रहण मेरी लड़की से हो गया होता तो कितना अच्छा था! खैर वह समय भी दूर नहीं" -यही समझकर एक तरह से दण्डनायिका सन्तुष्ट हो रही थी।
उस दिन रात को राजमहल में प्रवेश करने के बाद युवराज बल्लाल ने महाराज विनयादित्य से आशीर्वाद प्राप्त किया। इस अवसर पर बिट्टिदेव, उदयादित्व और प्रधान आदि सबने स्वामिनिष्टा की शपथ ली।
धीमी आवाज में महाराज विनयादित्य ने कहा, "महाराज अभी छोटी आयु के
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हैं। आप लोगों की निष्ठा पर उनका और राज्य का भविष्य निहित है। आप लोगों की निष्ठा सदा एक-सी बनी रहे।" इतना कहकर सभा का विसर्जन किया। सब लोगों के चले जाने के बाद महाराज विनयादित्य ने युवरानी को बुलवाया और विठलाकर उनसे कहा, "बेटी, आज से तुम महामातृश्री राजमाता हो। इस समारम्भ के सफरन रीति से सम्पन्न होने तक जीवित रखने की प्रार्थना अर्हन से की थी। वह करुणामय है। अब निश्चिन्त हुए। अब हमारा जीवन थोड़े दिनों का है। निमित्त मात्र के लिए बड़े बने रहता प्रभुपात का है कि हम व्यतीत किये। अब आगे से राजमहल का सारा बड़प्पन महासाध्वी, सहनशीला, करुणामयी तुम्हारे जिम्मे है।"
एचलदेवी ने मौन भाव से उनकी वन्दना की, चरण छुए। महाराज बिनयादित्य ने हृदय से आशीर्वाद दिया।
इसके पश्चात् महाराज विनयादित्य बहुत दिन शैयाशायी न रहे। उस संवत्सर के समाप्त होने से पहले ही वे सुरलोक सिधार गये।
महाराज विनयादित्य की मृत्यु हो जाने से महामातश्री एचलदेवी पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी आ पड़ी, यह कोई कहने की आवश्यकता नहीं। सिंहासनारूढ़ महाराज बल्लाल यौवनोचित उल्लाह से निष्ठा के साथ अपने उत्तरदायित्र को निभाते रहे। महामालनी एचलदेवी के अत्यन्त विश्वासपात्र व्यक्ति चिण्णम दण्डनाथ और हेग्गड़े मारसिंगय्या थे। प्रधान गंगराज के प्रति गौरव की भावना रही। फिर भी दण्डनाचिका चामञ्चे प्रधान की बहिन होने से, प्रधाननी पर आत्मभाव रखने की उनकी इच्छा नहीं हो रही थी। परन्त किसी को दूर नहीं रख सकती थी। उन्होंने सोचा कि सम्पूर्ण राज्याधिकार सूत्र अपने बच्चों के हस्तगत होने से पूर्व सबके साथ विचार-विमर्श करते रहना ही योग्य है। बिना किसी असमाधान या असन्तुष्टि के राज्य परिपालन व्यवस्थित रूप से चलने लगा था। वास्तव में इस मौके पर प्रधान गंगराज ने अपनी सम्पूर्ण निष्ठा दिखायी थी। महादण्डनायक मरियाने ने भी उसी तरह निष्ठा से काम लिया था; फिर भी उनके प्रति महामातृश्री एचलदेवी या महाराज बल्लालदेव आत्मीयता दर्शाने का मन नहीं बना सके थे। तो भी उनसे व्यवहार इस तरह करते रहे कि मानो वे उनके अत्यन्त निकट के हैं। राजमहल के मांगलिक कार्यक्रमों में दण्डनाविका चामध्ये और उसकी बच्चियों रहा करती थी। फिर भी विशिष्ट कार्यकलापों में उन लोगों का कोई विशेष सम्बन्ध नहीं होता था। प्रधानजी की पत्नी लक्कलदेवी को अग्रस्थान सहज ही प्राप्त हुआ था, वे स्वभाव से ही ऐसी महासाध्वी मणि थीं। दण्डनायिका
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चन्दलदेवी और ग्गड़ती मात्रिकब्बे ही विशेष उत्तरदायित्व से महामातृश्री एचलदेवी के आदेशानुसार कार्यनिर्वहण करती रहीं ।
महादण्डनायिका चामब्बे के मन में इन लोगों के प्रति इतना अधिक गुस्सा आता था कि इन सभी को एकदम पीसकर रख दे। परन्तु किसी तरह की प्रतिक्रिया कर सकने का उसे साहस नहीं होता था । वह समझती थी कि बल्लाल अपना है, उससे सब ठीक करा लूँगी। मगर वह बल भी नहीं रहा । वह सोचती, “इतने अच्छे बल्लाल को क्या से क्या बना दिया इन स्वार्थियों ने? भगवान अन्धा नहीं। वह सब देख रहा है। कभी-न-कभी वह इन लोगों को अच्छा पाठ पढ़ाएगा। तब उन लोगों की जो हालत बनेगी उसे में देखूँगी। मेरे प्रति जो लापरवाही की है, तब इसके कारण उन लोगों को पछताते हुए हाय-तौबा करना हैं पड़ेगा। इस सबका कारण उस मनहूस वामशक्ति पण्डित के सर्वतोभद्र यन्त्र उन यन्त्रों ने उल्टा हमको ही डाँवाडोल बना दिया है। उन्हें कूड़े में फेंक दिया, फिर भी उनका प्रभाव हम ही को सता रहा है। उस हेगड़े के घर के अहाते में एक सुन्दर बगीचा बनाना चाहते हैं। उसके लिए खाद की खीज कर रहे थे। हमारे यहां के कूड़े का सारा गोबर वहाँ भिजवाकर उसके साथ इन मनहूस यन्त्रों को जहाँ पहुँचाना था, वहाँ पहुँचा देने की मिट्टी के लगते ही वे यन्त्र अपना प्रभाव दिखाएँगे ही। तब मैं अपना हथकण्डा दिखाऊँगी। आज खुशी से गड़ती जो फूल कर कुप्पा बन रही हैं उसे तब मिट्टी चाटनी पड़ेगी। इस प्रकार महादण्डनायिका तरह-तरह की अण्ट-सण्ट बातें सोचती रहती थी ।
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इसी समय एक विचित्र बात हुई। महादण्डनायक के घर में पढ़ानेवाली अध्यापिका का कवि वोकिमय्या और नागचन्द्र के साथ परिचय हो जाने एवं इस अध्यापक वृन्द के बीच मात्सर्य रहित एक परिशुद्ध मैत्रीभाव पैदा हो जाने से जब कभी इन सबकी आपस में भेंट हो जाती थी। दोनों विद्वान कवि और महासाध्वी, मितभाषिणी, महाज्ञानी कवयित्री, सरस्वती के ये तीनों निष्ठावान आराधक जब एक बार मिले तो उन्होंने आपस में विचार-विमर्श करके प्रस्ताव रखा कि राजकुमार, दण्डनायक की बेटियों और शान्तला - इन सबका पठन-पाठन राजमहल ही में क्यों न हो । महामातृश्री और अन्य सभी ने यह स्वीकार कर लिया पर महाराज बल्लालदेव ने अनुमति नहीं दी। महाराज की अनुमति न हो तो कोई क्या कर सकता है? वह सलाह जैसे उत्पन्न हुई वैसे ही रह गयी ।
एचलदेवी को इसके लिए दुःख नहीं हुआ, किसी को दुःखी होने की आवश्यकता भी नहीं थी। परन्तु महाराज बल्लालदेव की इस प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप कुमार बिट्टिदेव अवश्य चिन्तित हुए। उन्होंने शान्तला से इस सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया। शान्तला से आग्रह किया कि वह पद्यला के मन
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को समझाने की कोशिश करे। बल्लाल को ठीक न ऊँचने के कारण वह अभी कुछ दिनों से चापला से भी सीमित व्यवहार रखता था। परन्तु ऐसा नहीं हुआ था कि उनमें आपस में जो वन्धुत्व रहा वह कम हुआ हो। उसका लक्ष्य एक था, वह यह कि पद्यला और बललाल के बीच जो अनवन हो गयी है वह फिर से जुड़ सकती हो तो अच्छा है। इसमें आनेवाली कठिनाइयों को दूर करें ताकि दोनों में पहले का-सा सरस भाव उत्पन्न होने का रास्ता खुल जाए। किसी भी मार्ग को बन्द नहीं रखना चाहिए। हमारा व्यवहार बल्लाल को परेशानी पैदा करने के लिए नहीं है, यह सोचकर वह बहुत सतर्कता से हर बात पर विचार किया करता था।
बरं के सिंहासनारोहण के पात एचदेवी उत्तक विवाह की बात उठाने की सोच रही धी। पक्षाघात पीड़ित महाराज विनयादित्य ने भी एचलदेवी से बातचीत कर बालाल का विवाह जल्दी करा देने के लिए ही कहा था। ये इसके बारे में सोच रही थी कि उसके सामने इस विषय को किस ढंग से छेड़ें। उनके मन में पद्मला के विषय में कोई विरोधी भाव न थे। क्योंकि वह जानती थीं कि बेटा हृदय से उसे प्रेम करता रहा...लेकिन पद्मला का व्यवहार भी उसकी माँ जैसा हो जाए तो उससे अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए वह खुद उस पर जोर नहीं डाल सकती थी। उनकी यह भावना थी कि पदि भगवान की प्रेरणा से यह छूट जाय तो अच्छा ही है। वह अपने मन में विचारती थीं कि बल्लाल खुद ही उसके विषय में जब अनादर की भावना रखता है तब इससे इस विषय की चर्चा करते समय बड़ी सतर्कता बरतनी होगी। एचलदेवी यह जानती थीं कि बिट्टिदेव और शान्तला में परस्पर बहुत गहरा प्रेम है। इस तरह का प्रेम अगर न हुआ होता तो वह क्या सोचती, वह कहना आसान ही था। यह तो वह अच्छी तरह समझ गयी थी रानी बननेवाली के लिए जिन गुणों का होना आवश्यक है ने सब गुण शान्तला में हैं। परन्तु अब ये विचार कार्य रूप में परिणत होनेवाले नहीं हैं। ऐसी हालत में विवाह के विषय में बात करनी हो तो माँ को कम-से-कम इस बात का निश्चित ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है कि कन्या कौन हो। कहाँ-कहाँ ऐसी लड़कियाँ होंगी इसके बारे में जानकारी संग्रह करना चाहती थीं। पद्यला की बहिन चामला के बारे में एक तरह से अच्छी भावना एचलदेवी की थी। भला क्यों न होनी चाहिए?-सोचते हुए यह विचार आया कि यह हो सकता है। फिर भी वह दण्डनायिका चामब्बे की बेटी होने के कारण बल्लाल के मनोगत को जाने बिना इस सम्बन्ध में बात्त उठाना अनुचित ही लगा। वह इस विषय में किसी निर्णय पर पहुँच न पायी थीं कि इतने में वृद्ध महाराज विनयादित्य का स्वर्गवास हो गया। विवाह का प्रश्न भी स्थगित हो गया। - पट्टाभिषेक महोत्सव के बाद स्वयं वृद्ध महाराज विनयादित्य ने ही एक बार
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बाल से विवाह का प्रश्न उठाया था । बल्लाल ने “महासन्निधान पहले नीरोग हो जाएं, फिर इस बारे में सोचेंगे" कहकर प्रश्न को टाल दिया था । यद्यपि वह समझता था कि यह सवाल अब उठता ही रहेगा। ग्राम में रहते समय बल्लाल से बिट्टिदेव ने इस सम्बन्ध में प्रश्न उठाया भी था। अब माँ भी सुझाये बिना न रहेगी। इस समस्या का हल आसानी से निकल आता, यदि महादण्डनायक ने पद्मला का विवाह कर दिया होता। उन्होंने उसका विवाह नहीं किया । महादण्डनायक परियाने ने या दण्डनायिका चामब्बे ने कहीं किसी से इस सम्बन्ध में बात तक नहीं उठायी। पद्मला ने क्या गलती की है - इस सम्बन्ध में एक निश्चित और सकारण पत नहीं होने के कारण, भाई ब्रिट्टिदेव के कहे अनुसार उस लड़की से सीधे बातचीत कर लेनी चाहिए। असमंजस में पड़े रहकर अब अन्दर-ही-अन्दर घुलते रहने का समय नहीं रहा, इससे छुटकारा पाने के उपाय में बल्ताल सोचता ही रहा कि इतने में महाराज विनयादित्य का स्वर्गवास हो गया। इससे यह समस्या तात्कालिक रूप से टल गयी, साल भर के लिए। काश! पद्यला का हो जाना स्वा-यह सब बल्लाल सोचता रहता । फिर भी रोज सुबह-शाम किसी-न-किसी कारण से दण्डनायक मरियाने से मिलना होता ही रहता था । कभी-कभी पद्मला, उसकी बहिनों और उसकी माँ के आमने-सामने होने के मौके भी आ जाते थे। अगर दोरसमुद्र को छोड़ दें तो इससे भी बच लेंगे-यों भी वह सोचता था। ये सब विचार मन में रखकर वह अपनी माँ के पास गया और बोला, "माँ, हमने प्रभु के सभी औध्वदैहिक संस्कार यगची नदी के तट पर किये। महासन्निधान के भी संस्कार कर्म वहीं करने की इच्छा है। साल भर के लिए बेलापुरी क्यों न जाया जाए ?"
"विचार अच्छे हैं। प्रधानजी से विचार-विमर्श करेंगे।" एचलदेवी ने कहा । विचार-विमर्श के बाद निर्णयानुसार महामातृश्री, महाराज बल्लाल, बिट्टिदेव, उदयादित्य चिष्णम दण्डनाथ और डाकरस दण्डनाथ- ये साथ मिलकर बेलापुरी चले गये। हेग्गड़े भारसिंगय्या दोरसमुद्र ही में रहे।
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यह कहने की जरूरत नहीं कि कवि नामचन्द्र भी वेलापुरी गये बल्लाल के हित की दृष्टि से यह व्यवस्था आवश्यक होने पर भी, हेगड़े परिवार के दोरसमुद्र ही में ठहर जाने के कारण बिट्टिदेव और एचलदेवी को अपने चाहनेवालों का साथ न रह सकना कुछ खटकता जरूर था। परन्तु बल्लाल का हित - चिन्तन सबसे प्रधान था, यह बात सब लोग जानते थे। इसलिए सभी को अपना मन परिस्थिति के अनुसार बना लेना पड़ा ।
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यानाल का मनःस्थिति से प्रधान गंगराज अच्छी तरह परिचित थे। उन्हें अपनी हिन की गलती का पूरा नह अहमाय धा। कभी-कभी पन्नी की बातों में आ जाने पर भी मग्चिाने दण्डनायक के मन में बरे विचार नहीं छ; यह भी प्रधान जी जानन थे। उनकी मानजियां निरोप थीं और बड़ी 'भानजी का उन्होंने कभी एक वचन भी दिया था। वह सब अच्छी तरह समदान के बावजूद यह जानत ध कि इम विषय का म्वयं उंटेंग ना यह ग़न्नतफ़हमी का कारण बन जाएगा। इसी बजट में दण्डनायक को शान्त एव सहनशील होकर रहने की सन्तान उन्होंने टी थी। "दूमरे बर की खोज क्यों न करें। कभी बचपन में वचन दिया हा मा यदि
सी बात पर अड़े रहे तो उस लड़की का का क्या हाल होगा: मका जीवन ही नष्ट हो जाएगा" --यों उन्होंन ।क-दो बार कहा भी। नर गाम्यान दण्डनायक ने कहा था, 'पद्यला से इस बारे में पूरे बिना आग कैसे व ह बिट गाड़ के बैटो है। कहती हैं कि अगर विवाह करूंगी ताई के साथ मंगो जिम मैंन पहल ग अपना दिल दिया है। दूसरे से विवाह करने पर जोर ग ना में किसी कग या नानाच में कूदकर मर जाऊंगी।" गो भावी निर्यात नटिन था। पना नहीं. उसके भाग्य में क्या लिखा है। देखना है। अब एक ही पागं बच रहा है। जिसन गनती की वह बले दिल से अपनी ग़लती स्वीकार कर महामालश्री एवं महागज कं पाँव पड़े और क्षमा-याचना करें। यदि बे क्षमा कर दें तो पचना के लिए भाग्य की बात हो मकेगी। प्रधान गंगगज ने अपनी गय बता दी।
___दगदनानिका की भावना थी कि यों अपमानित होकर जीने से मना बस्तर है । उसके सामने यह मबाल घा कि लड़की के हित से भी मान प्रतिष्ठा का प्रश्न बड़ा है। अब उस इस समस्या का सामना करना पड़ा। फिलहाग क्र. साल तक ना इस बात पर विचार करने के लिए समय मिन गया न? यह नो जानी-मानी बात है कि हग्गड़ की पन्नी और उसकी लड़की पर विद्वेष और असूया के भाव तो थे ही। इसके माध यह भी दृढ़ विश्वास था कि हेगड़े के अहाते के बगीचे के निा! जा खाद भिजवायी थी उसके साथ जिन यन्त्री को भी भिजवा दिया उनका +---मछदा असर हो ही जाएगा। इतना भर होते हा मो इसनं सोचा कि हेग्गइनी के साथ मैत्री वटाना चाहिए । यही मब उसे उचित लग रहा था। इन दोनों में मंत्री अगर विशेष रूप से न भी बढ़ सकी लो कम-से-कम लड़कियों को हागने की वटी के साथ अधिकाधिक आत्मीयता बढ़ाने के विचार उसके मन में दृढ़ होत गये। अपने विचारों को कार्य रूप में परिणत करने के लिए उसे मौका भी मिन गया था। हेगड़े परिवार के दोरममुद्र ही में रहने के कारण अपने और जनकं घगने कं अध्यापकवर्ग कभी-कभी मिन्नतं और कभी-कभी दोनों के बच्चों का एक जगह पठन-पाठन और विचार-विमर्श आदि कराते रहने से बच्चों की भलाई
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हो सकेगी-इसी बहाने अपने इन विचारों को कार्यगत करने का उसने अपना प्रचास आरम्भ दिया। फलस्वरुप हान्नसः का नायिका के घर, और। दण्डनायिका की बेटियों का हेगड़े के घर आना-जाना शुरू हो गया और वह एक | आदत-सी हो गयी।
बामला और शान्तला में पहले से जो स्नेह था वह अब बढ़ने लगा। प्रकारान्तर से पद्मला के मानसिक द्वन्द्व में परिचित हो जाने के कारण उसके विषय में अधिक अनुकम्पा शान्तला की रही। इस वजह से वह उसकी और
अधिक ध्यान देती थी। धीरे-धीरे परस्पर आत्मीयता के भाव बढ़ते गये। इसके । फलस्वरूप हेग्गड़े के घर के अहाते के बगीचे के काम में दण्डनाधिका की बच्चियों भी शान्तला के साथ सहज भाव से मिलकर काम करने लगीं।
उस बगीचे में एक फुलवाड़ी भी बनी थी। इसके लिए एक बांस से बन. छप्पर भी बनाया गया था। पुष्य-लताओं को सहारा देकर फैलाने के लिए एक लताओं का गंपने के वास्ते क्यारियां बनायी जा रही थीं। जमीन खांदकर वाच । मिट्टी और खाद उन क्यारियों में भरका तैयार करने का काम चल रहा था। नौकर बुतुगा ने टोकरी में खाद परकर ला रखा। कलछा लेकर खाद उठाकर शान्तला ज्याही क्यारी में डालने लगी कि खाद के साथ कुछ चमकती चीज दिखाई पड़ी। शान्तला नं कुतूहल से उसे हाथ में उठाकर देखा। सोने के तावीज़ थे। उस टोकरी के पूरे खाद को उन्होंने फैलाकर खोज की तो सोने के चार तावीज़ निकले। उसने उन्हें साफ धुलवाकर अपनी माता को बताए। तब दाइनायिका की बेटियां भी साय थीं।
हेग्गड़ती ने उन्हें देखा और कहा, "अम्माजी, वह खाद टण्डनाधिका के घर से आयी है। इसलिए ये ताचीज उन्हीं के घर के होने चाहिए। इन बेटियों के हाथ उनकं घर भिजवा देंगे। मालिक के आने पर उन्हें भी बता देना।"
"अप्पाजी के द्वारा महादण्डनायक जी के पास सीधे पहुँचा देना अच्छा होगा | न?" शान्तला ने कहा।
"यह भी ठीक है। यही करेंगे।' माचिकब्बे ने कहा।
"ठीक है, इन्हें आप अपने ही पास रखे रहिए।" कहकर शान्तला अपनः | सहेलियों के साथ पौधों को रोपने के लिए चली गयी। चमेली की बेल को पद्मला ने और मल्लिका की बेल को चामला ने रोपा और शान्ताना ने नित्य मल्लिका की | बेल को रोपा। ये तीन ही क्रिस्मों की बेल उनके पास थीं। बोपी मी साथ रही। उसने कोई बेल नहीं रोपी। शान्तला ने बुतुगा से पूछा, "हरसिंगार को कहाँ रोपा |
गया है।"
__नौकर बुतुगा जगह बताते हुए बोला, ''यहाँ उसके लिए क्यारी बनायी है।
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यहां से हवा हंगी तो उस फुलबाड़ी को नाफ़ बहेंगी। इसलिए इसे इस जगह सपना ठीक गंगा।"
शान्तन्ना ने उस स्थान को देखा। वह बाड़ी के सत्तर-पूर्व के कोने में थी। उन्होंने उस स्थान को हरसिंगार के लिए टाक माना। क्योंकि वन-या को पौधा भा था। हमिंगार के साथ उसकी जोड़ी बैट 'नाएगी। नुग्न्न चोप्पी का हाथ स हरसिंगार के पौधे को वहाँ रोपवा दिया। जिस दिन ययन वन्द रहता शान्तला फलवाड़ी का काम देखती थी। आजकल दण्डनायक की बच्चियों के साथ एक तरह से पैत्री बढ़ जाने के कारण वे भी कभी-कभी घर आती रहती थीं। सं ही पाक दिन ये सान के तावीज्ञ मिले थे।
गहनायक की लड़कियों को इसलिए कतूहल हो रहा था कि वे ताबीज उन्हीं के पर की गोचर-खाद के अन्दर से निकन्न घे। उन्हें साथ ले जाने को उत्सक थीं। बड़ों के ही चीन में यह बात तय टा, टरा कारण ये चप रह गनीं । । इम ऋताल के साथ घर पहुंची।
मां का रखते ही पद्मला ने मोने के इन ताबीजों की बात कह दी। बात सुनते ही दानायिका चामध्ये काँप उठी । एक तो उसने इस बात की अपनी बयियों से गुप्त रखा था. दृसर यह कि रहस्य खुल गया था । तावीजों के घर वापस भेजे जाने की बात से भी उसमें भय व्याप्त हो गया था। मगर उसने बेटियों के सामने सपना भव प्रदर्शित नहीं होने दिया। ___ हमारे घर के खाद में इन तावीजों का मिलना सम्भव ही नहीं। वह किसी दुसरे के घर की वाट होंगी। उन्हें शायद आम हो गया होगा। यह दगडनायक के घर की खाद है- मा पहचानने के लिए उसका काई अलग रंग है?'' दादनायिका नं कमा।
नहीं, मां! यहीं तो कह रहे थे कि वह खाद हमारे ही घर से गयी ।" वामना चाला।
"किसने कहा यह?" "उनके यहाँ सभी यही कह रहे हैं।''
''तव नो उनका कोई दूसरा ही लक्ष्य है। तुम लोग इस बात को लेकर दिमाग खगन भन करो। मैं और तुम्हारे पिता इस टेग्य जंग। चना, अव लाँधेरा होने को है । 'मोजन करना । दण्डनायक जो बनापुरी गचं हा हैं, उनके लौटने में देरी हो जाएगी।'' वह कहती ई किसी दुसगै बात को करने के लिए कोई मौका न देकर यह अन्दर चली गयी। ___ बतियां ने गुस्सन यान में जाकर हाथ-पर धाय, भगवान को प्रणाम किया और भोजन करने के बाद अपन अध्ययन में द गयीं।
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दण्डनायिका अपने कमरे में आयी; पान चबाती हुई पलंग पर बैठ गयी। अचानक वह कांप उटी, पसीना छूट गया। "हे भगवान! मैं कुछ करने गयी तो हुआ कुछ और ही। वे तावीज फिर मेरे घर पहुंचेंगे तो जो भी युरा होगा सब हमारा ही होगा न? हमारी बच्चियों का ही होगा न? नहीं, मैं ऐसा होने नहीं दूंगी। मलिक से पाने ही कः +ी स्वीकार करें। मैं तो कह दूँगी, मगर ये मान जाएँ तब न? अब पहले जैसी स्थिति नहीं। अगर मैं एक बार खाँस भी दूं तो जाकर वे भैया से कह देंगे। यह बात भैया को मालूम हो जाए तो आगे क्या होगा, कौन जाने। हे भगवन्! मालिक की ऐसी बुद्धि दो कि वे मेरी बात को मान लें। खाद को हेग्गड़े के घर जो भेज दिया, वह गलती हो गयी। शैतान फाटक से निकल गया समझा तो वह झरोखे से फिर अन्दर आ गया। मालिक को उन्हें छूना तक नहीं चाहिए। इसके लिए कोई-न-कोई उपाय ढूँढना ही होगा।" चे ही बातें सोचती हुई दण्डनायिका पलंग पर पैर पसारकर तकिये से पीठ लगा बैट गयी । “पता नहीं इण्डनायक जी किस वक्त तक लौटेंगे। आते ही उनके मन को अपनी तरफ़ बना लेना चाहिए।" यही सोचती वह बैटी रही। घर के अन्दर से बरतन-बासन की और चलने-फिरने की जो आवाज आ रही थी सो बन्द हो गयी और ख़ामोशी छा गयी। दण्डनायिका उट खड़ी हुई और कमरे से बाहर आकर इधर-उधर देखने लगी। सब जगह अंधेरा फैला था । पूजाघर में दीया टिमटिमा रहा था। उसकी धुंधली रोशनी छापी थी। देकब्बा गहरी नींद में खटि ले रही थी। दण्डनायिका फाटक तक गयी, देखा कि अन्दर से कुण्डी लगी है या नहीं। फिर अपनी बच्चियों के कमरे की ओर चली। झाँककर देखा, बच्चियाँ सोयी हुई थीं और एक ढिबरी टिमटिमा रही थी। उसे देखकर धीरे-से किवाड़ लटकाकर अपने कमरे की ओर चल दी। देकब्बे के खर्राटे और तेज होते जा रहे थे। दण्डनायिका का दिल धड़क उठा। छाती दबाये वहीं खड़ी रही। उसे डर का अनुभव होने लगा। कहने लगी- हे भगवन! कृपा करो, दण्डनायक जी कशलपूर्वक लौट आएँ। मुझे कभी डर नहीं लगा था, पता नहीं आज क्यों लग रहा है! दण्डनायक जी ने कहा था कि आ ही जाऊंगर।"
दण्डनायक बहुत रात बीतने पर भी नहीं आये, इस कारण भय का होना सहज ही था। अँधेरी रात टेख रात को वहीं ठहरकर उनके तड़के ही चले आने की बात उसे यदि सूझ जाती तो शायद डर दूर हो जाता। इसके अलावा उन सोने के ताबीजों को दण्डनायक के हाथ सीधे पहुंचा दिये जाने की याद ने उसके डर को दुगुना कर दिया था। दूसरों को इन ताबीजों की बात ही मालूम नहीं हुई थी। इसलिए उनको उनकी चिन्ता ही नहीं रही। चे निश्चिन्त होकर सो रहे थे। देकब्बे वह न समझकर कि उसके खर्राटों से मालकिन डर जाएंगी, जोर-शोर से खरदि
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लेती बेखबर सो रही थी। दण्डनायिका को लगने लगा कि वह अपने घर में न रहकर किसी अपरिचित स्थान में रह रही है और इस तरह का भय ऐसी भ्रान्ति के कारण उसे होने लगा था। यह न आगे बढ़ सकी, न पीछे; निस्सहाय होकर वहीं खड़ी रही। ऐसे वक़्त गुस्सा बढ़ना सहज ही हैं। अपनी इस हालत का कारण सोये पड़े बेचार दांडेगा को समझा। दण्डनायिका का खयाल था कि दहिगा को जागते रहना चाहिए था। अपना गुस्सा वह दहिगा पर उतार देना चाहती थी। बेचारा कर ही क्या सकता था? रोज की तरह अपना सारा कामकाज समाप्त कर इकब्बे के भी सो जाने के बाद, सभी दरवाजों को अच्छी तरह बन्द करके सो गया था । महल के पहरेदार खुली तलवार हाथ में लिए पहरे पर अहाते के सदर दरवाजे पर तैनात थे। इन बातों की ओर दण्डनायिका का ध्यान ही नहीं गया। दडिगा पर गुस्से के कारण दण्डनायिका का बुरा हाल था। उसी वक्त गश्ती सिपाहियों ने सीटी बजायी, दूसरी ओर से दूसरे सिपाही ने सीटी के उत्तर में सीटी बजायी। इन गश्ती सीटियों की आवाज से दण्डनायिका का डर ऋण कम हआ। अब वह समझ सकी कि वह दोरसमुद्र में अपने ही महल में है। धीरे-से मुख्य दरवाजे तक गयी और खिड़की से बाहर झाँका । दूर घोड़े की टापों की आबात आती हुई सुनाई पड़ी। ऐसा लगा कि खुर के टापों की आवाज्ञ पास आती जा रही हैं। शायट पालिक ही आ रहे हैं। सदर फाटक के पास किसी के आने-जाने की धुंधली-सी छाया दिखी। पहरे के सिपाही भी टापों की आवाज़ सुनकर टहलते हुए इधर-उE. र चहलकदमी कर रहे थे, यह भी उसने देखा। वहाँ टापों की आवाज सुनती हुई प्रतीक्षा में खड़ी रही। आवाज पास आती हुई होकर, फिर कुछ दूर पर गयी हुई-मी लगने लगी और फिर बन्द हो गयी।
घोड़े के जाने के मार्ग और उसकी टापों की आवाज-इनसे दण्डनायिका चामब्बे ने अन्दाज लगाया कि वह उसके भाई के महल की ओर गया होगा। तो इसके माने यह कि मालिक भैया के साथ ही गये थे, मगर भैया अकेले लौटे! तो क्या मालिक नहीं लौटे? क्यों? मालिक नहीं लौटे और भैया अकेले आये ती भैया को उसका कारण तो बताना चाहिए न? शायद जाकर जल्दी सो जाना चाहते होंगे। प्रतीक्षा में रहनेवालों की हालत कैसी रहेगी इसकी चिन्ता उन्हें भला क्यों होगी? बेचारी बहिन प्रतीक्षा में बैठी होगी यह यदि स्वप्न में भी देख लेते तो शायद कहला भेजते।...फिर भी वही लौटे इस बात का प्रमाण क्या है? खाली टापों की आवाज सुनकर दुनिया भर की बातें सोचना मनमाने अन्दाज़ लगाना क्या ठीक है। उस समय की हालत में दण्डनायिका यह सोच न सकी कि सही क्या है और ग़लत क्या हैं। इसीलिए वह इस ढंग से सोचती रही। उसने समझा कि प्रधानजी को घर पहुंचाकर मालिक शायद घर आएँगे। वास्तव में ऐसा होना भी चाहिए।
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उसने प्रतीक्षा की। कान लगाये बैठी रही। यही सोच रही थी कि कहीं किसी और से टापों की आवाज सुनाई देगी। अहाते की ओर नजर दौड़ायी भी। पहरे के सिपाही फिर बैठे हुए-से दिखाई पड़े।
बेचारी दण्डनायिका आँखें खोलकर कान लगाये काफ़ी देर तक प्रतीक्षा करती बैठी रही। एक-दो बार उल्लू के बोलने की आवाज सुन- पड़ी। चमगादड़ों ने पंख फड़फड़ाये । अब बैठे रहने का कोई प्रयोजन न समझकर वह अपने कमरे की ओर मुली। दरखाना बन्न का निता पवार: निट लेट गयी। उसके दिमाग में कई तरह के विचार चक्कर काट रहे थे। इर और आशा-प्रतीक्षा के होते हुए भी थकावट के कारण सब-कुछ थोड़ी देर के लिए भुलाकर शरीर आराम चाहता है। दण्डनायिका को भी ऐसे ही नींद लग गयी। कर लगी, कैसे लगी-यह कुछ नहीं मालूम हुआ। भाग्य की बात है कि कोई बुरा स्वप्न नहीं दिखाई दिया। प्रातः अमावस्या के दिन सूयोदय के बहुत समय बाद उसकी आँखें खुली। चारों ओर फैली रोशनी उसकी आँखों को चौधियों रही थी। वह घबराकर उठी और स्नानाघर मैं जाकर हाथ-मुँह धोया, भगवान को प्रणाम कर माथे पर रोरी लगायी और फिर देकब्वे को पुकारने लगी।
आवाज सुनकर "आयी" कहती हुए देकचं रसोई से बाहर निकली। "मालिक?" ''आ गये।" "जग रहे हैं? कब आये?''
''पहले मुर्गे की बाँग पर वेलापुरी से निकलकर सूर्योदय के कुछ पहले ही आ गये थे। आते ही स्नान आदि करके नाश्ता समाप्त कर राजमहल की ओर चले गये।" __ "ठीक है, तुम जाओ।" दण्डनायिका ने कह तो दिया पर अपने-आप पर काफ़ी दु:खी हुई। वह अपने मन में ही गनने लगी, ''हाँ, उस कंगाल से मनहस ताबीजों को लेकर ही वे घर आएँगे। जिसे न होने देना चाहती थी, वहीं होकर रहा, बही लगता है। ये हमारे नहीं' कहकर टाल देने की बुद्धिमत्ता दिखाएँ तो भाग्य की बात होगी।'' इस तरह सोच-सोचकर बेचैन होने लगी। वह चुप तो बैठी नहीं रह सकती थी। दैनिक कार्य तो होने ही चाहिए। काम और चिन्ता, दोनों साथ-साथ चलते रहे। बच्चों से तो कह दिया है कि तावीज हमारे नहीं, मगर जब बच्चों के सामने ही 'हमारे हैं' कहकर मुझे सौंप देंगे तो बड़ी भद होगी। क्या करना चाहिए? यह सब उसी वामाचारी से मदद लेने के कारण हुआ है। दुष्ट चोकी की बात नहीं सुनती तो उस वामाचारी के पास कभी फटकती भी नहीं। उस चोकी ने उस वामाचारी को इस वशीकरण के बारे में मनगढन्त किस्से सुनाकर
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मुझमें उस पर विश्वास पैदा किया। इन नौकर-चाकरों को ज़्यादा मुँह नहीं लगाना चाहिए। उसे दूर रखती तो वह सय न हुआ होता। अब खुद लापता हो गया है। शायद वह उस वामाचारी के साथ ही गया होगा। पता नहीं उससे किस-किस की क्या बुराई होगी। अब जो भी हो, अब मैं इस परिस्थिति से पार हो जाऊँ तो काफ़ी हैं। हे भगवान, कृपा करी! मालिक को इतनी बुद्धि दो कि वे कह सकें कि ये तावीज़ हमारे नहीं हैं।" घुमा-फिराकर बात वहीं आकर अटक जाती। साथ ही कुछ और विचार दिमाग़ पर हावी हो गये। जब तक मालिक घर न लौटें तब तक चुप रहने की बात दिमाग़ में आयी मगर अपने मन पर उसका काबू ही नहीं था- एक विचार दूसरे में फंसता गया। ___ भोजन के वक्त दण्डनायक : ने। वह रेल ग्रीनही सिडाई दिये कोई परिवर्तन नहीं। सबने साथ मिलकर भोजन किया। बाद में दण्डनायक अपने कमरे में चले गये। थोड़ी ही देर में दण्डनायिका भी पनबट्टा लेकर वहाँ पहुंच गयी। दोनों ने पान खाये।
बात दण्डनायिका ने ही छिड़ी, “वेलापुरी की क्या खबर हैं?" "क्या सब कहीं से लौटने के बाद तुम्हें समाचार देना जरूरी हैं?"
"ठीक है। मैं इसलिए पूछ रही थी क्योंकि आपके साथ भाई भी गये थे। इसके अलावा आपको कल ही लौट आना चाहिए था मगर आये नहीं। इसलिए पूछा कि कोई खास काम पर शायद वहां ठहरना पड़ा हो।' ___“हाँ, कुछ ख़ास राजनीतिक कार्य था। दोनों को जाना पड़ा था। ठहरना पड़ा. ठहरे।" ___ "एक साल बीतने को आया न महाराज के दोरसमुद्र लौटने के बारे में कोई बातचीत चली?"
"उस सबसे तुम्हारा क्या मतलब:" "अगर ने यहाँ आ जाएँ तो आपको बार-बार आना-जाना न पड़ेगा। इसलिए
पूछा।"
__"तुमको तो आना-जाना नहीं न? बिना किसी तकलीफ़ के आराम से यहाँ रड़ने की सुविधा जब है, तब तुम्हें इसकी चिन्ता क्यों?'' ____ "हाँ, आप इस ढलती उम्र में दिन-रात की परवाह न करके घूमत-फिरते रहें और मैं आराम से यहाँ पड़ी रहँ। आजकल आप मेरे प्रति उदसीन हैं। महेशा आपकी ही सेवा-शुश्रूषा में लगी रहती हूँ, फिर भी आप मेरे प्रति उदासीन क्यों?
"नहीं, तुम्हें सिर पर बैंटाकर ढिंढोरा पीटकर जुलूस में कहता चलूँगा कि देखो यह वही दण्डनायिका है जिसने दसों बार चोट पर चोट खाने पर भी ठीक तरह से बतांब करना न सीखा और यों कह खुश होऊँगा।"
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"मुझ पर गुस्सा क्यों होते हैं? मैंने क्या किया?" 'मुखों जैसी बात न करो। अव भी क्यों झूठ का आश्रय लेती रहती हो?" "झूठ! मैंने आपसे झूट कब कहा?" "मुझसे नहीं। अपनी मामा यच्चियों से।'' "उनसे क्या झूठ कहा?" ''हेग्गड़े के घर में मिले तावीज 'हमारे नहीं' ऐसा क्यों कहा?"
"उन्हें इनके बारे में कुछ भी मालूम नहीं। इसलिए उन्हें मालूम कैसे होगा कि मैंने झूठ कहा?"
"मुझे क्या मालूम कि जो तुम्हारे मन में आता है, वह कह डालती हो। सुबह उठते ही उन्होंने मुझसे कहा। खाद जब हमारे घर की है तो हेग्गड़े का कहना ठीक है, मैंने कहा। तब उन्होंने वही कहा जो तुमने उनसे कहा था। 'हमारे नहीं' कहकर क्यों तुमने जिम्मेदारी अपने ऊपर ली? चुप रहना तो तुम जानती ही नहीं।'
"आपको इतनी समझ तो होनी चाहिए न? अगर हम यह मान लें कि वह हमारे घर के हैं तो हेग्गड़े चाहे जैसे उसका उपयोग अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए कर सकेगा-यह आपने सोचा भी नहीं न"
"स्वीकार कर लें तो उससे उनकी स्वार्थसिद्धि में उपयोग भी क्या होगा?"
"जाकर वह समाचार सुनाएगा या हेग्गड़ती के जरिये महामातृश्री के पास समाचार पहुँचवा देगा। कहेगा-हमारी बुराई कराने के लिए इन ताकीजों को खाट के साथ मिलाकर दण्डनायक ने हमारे घर भिजवा दिया है। हम उनके हाथ से बच नहीं सकते। उनकी सारी चर्चाएँ इस तरह बुराई ही की होती हैं। यों नमक-मिर्च लगाकर कुछ कहकर हम पर क्रोध कराएगा।' ___ "अगर हम अस्वीकार कर देते तो जैसा तुम कहती हो वैसा होता। उन्हें सीधा महाराज को सौंपकर, सारा वृत्तान्त बता देना काफ़ी था। हमें विश्रान्ति की प्रार्थना करके सिन्दगेरे को जाना पड़ता। तुम्हारे भाई को यह सय मालूम ही था न? उन्हीं के सामने हेग्गड़ेजी ने तावीज़ों को मेरे हाथ में दिया। मैंने स्वीकार किया कि हमारे हैं और उन्हें ले आया। अब तुम अपनी बच्चियों से सच्ची बात कह दो। मेरे और तुम्हारे कहने में फर्क होगा तो हम दोनों पर बच्चे विश्वास खो बैठेंगे।" ___ "आप ही बच्चों को बता दीजिए कि मेरा कहना ही सही है। बात ख़त्म हो जाएगी।" ___ 'बात ख़त्म नहीं होगी, आगे बढ़ेगी। जब यह बात उठेगी, बच्चियाँ हेग्गड़े की बेटी से कहेंगी कि ये हमारे नहीं 1 या फिर हेग्गड़े की बेटी ही वह कहेगी कि
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आपका है, कहकर उन्हें टण्टनायक जी को सौंपा है। तब क्या होगा, जानती हो? जब बच्चों में सन्देह पैदा हो जाएगा और इस बात की तहकीकात चलेगी कि इनकी जड़ कहाँ है तो वह बहुत बड़ी बुराई की जड़ बनेगा। आजकल तुम्हारी अक्ल मारी गयी है। कोई बात मत करो। बच्चियों अगर पूष्ठं तो कहना कि मैं ऐसा समझती धी, अगर तुम्हारे पिता ऐसा कहते हैं तो वही ठीक है। समझी? तुम खुद बात मत उठाना।"
ऐसा ही करूंगी, पर तावीज़ों का क्या करेंगे?" ''एक कण्ठाहार बनवाकर तुम्हारे गले में पहनाऊँगा।" "टीक, आपको क्या? बचपना करते हैं।" "काल भी करूँगा ! इस बारे में दो बार नहीं बोलना होगा।"
"हाय, जब से वे हमारे पास आये हैं, हमसे राजमहल का सम्बन्ध दूर ही होता गया है। अगर ये मनहूस तावीज़ गले में बँध गये तो हमारे प्राण ही जोखिम में पड़ जाएंगे।' ___"हमने जो किया, उस हमें भुगतना ही होगा। उसे निरपराधियों पर मढ़ दें तो वह हमें ही निगलेगा।"
"तो जो ग़लती हमने की उसके लिए हमें कभी क्षमा ही नहीं मिलेगी ? उसका कोई परिहार हो नहीं ?" __ हैं। खुले मन से साहस करके सम्बन्धित लोगों के सामने साफ़-साफ़ अपनी ग़लती को स्वीकार कर लेना। इससे बढ़कर उत्तम मार्ग दूसरा नहीं है।"
"पान-प्रतिष्ठा को खो देने के बाद बचंगा ही क्या?" "निर्मल मन बच रहेगा। इस निरर्थक मान-प्रतिष्ठा से वह अच्छा है।" "नया वेदान्त शुरू कर दिया है आपने।"
"अब आगे कोई दूसरा रास्ता ही नहीं है। महाराज अब दोरसमुद्र लौटने की बात ही नहीं कर रहे हैं। अभी जैसा चल रहा है वैसा ही ठीक से चलता रहे राज्य का सब कारोवार। प्रधानजी राज्य के प्रधान सूत्रधार हैं। आप लोगों की निगरानी में सब सुरक्षित है। हम यहाँ रहें चाहे वहाँ, दोनों बराबर हैं। हमें दोरसमुद्र से चेनापुरी अच्छी लगती है। यहाँ के लोग और यहाँ का वातावरण सब हमें अच्छा लगता है। जब महाराज स्वयं यह बात तुम्हारे भाई से और मुझसे कह रहे हैं तो माने यही हा 'आप लोगों के साथ रहे अब तक, सो काफ़ी है: आप लोग वहीं रहे और हम यहीं रहेंगे।' यही न उनके कहने का तात्पर्य हुआ! ऐसी स्थिति में रहने से बेहतर हैं बानप्रस्थ होकर कहीं चले जाना। यह सब तुम्हारी ही कृपा है।'' ___"ठीक है। सारी खुराई की जड़ में ही हूँ। मैं ही अपने प्राण त्याग दूंगी। बाद में आप सब सुखी होकर रहेंगे। मैंने कौन-सा ऐसा अन्याय किया है जो आप सब
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मुझ पर थोप रहे हैं?" ___मैं जवाब नहीं दे सकता। हमारे घर में जो अंजन लगवाया था, उस बात को लेकर तुम्हारे भाई ने जब प्रभु के साथ बातचीत की थी तब महाराज के सामने ही बातें हुई थीं। उस दिन से वे दूर-दूर रहने लगे हैं। इसके बाद की घटनाओं ने उन्हें और दूर कर दिया है। एक बेवकुफ़ी ने हमारे सारे परिवार को, इन बच्चियों को कितना नुकसान पहुँचाया है-तुम ही सोचो, समझो। इतना पर्याप्त न समझकर, उस हेग्गड़े परिवार को हानि पहुँचाने का इरादा तुमने किया और वच्चियों से यह कहकर खुश हुई कि ये हमारे नहीं। जब खाद उनके घर पहुँच गवी तर तुम इतना खुश क्यों हुई? इतना उत्साह क्यों दिखाया? तब यह सब तुझे नहीं सूझा। में विश्वास करता था कि तुम बदल गयी और हेग्गड़ती के साथ मैंत्री बढ़ाकर टीपा रहोगी। प्रेरे एक से इन शादी की नान ही लुप्त हो गयी थी। जब तुपने यह कहा कि वे हमारे हैं ही नहीं, तो यही सिद्ध हुआ कि तुम्हारा मन कितना नीच है। जब तक तुम अपने अन्तरंग का शोध करके उसे परिशुद्ध न बना लोगी तब तक तुम्हारा बचाव नहीं होगा। तुमने क्या किया है, जानती हो? आँचल में आग रख ली हैं। तुमने समझा उसे किसी पर फेंककर जलाकर भस्म कर लोगी। आज वह आग तुम्हीं को जलाकर राख किये दे रही है। बहुत दिनों से मैं यह सब कह देना चाहता था पर कहने से पीछे हटता रहा । आज सब स्पष्ट रूप से कह दिया है। अपने को सुधार लो तो तुम्हें भी शान्ति मिलेगी। बच्चे सुखी होंगे। मेरा भी अपना गौरव बना रहेगा। नहीं तो मैंने पहले ही कह दिया है कि हमें राजधानी छोड़ देनी पड़ेगी। अब चाहे तुम प्राण त्यागो या कुछ भी करो। तुम्हारे इस बर्ताव के कारण मैं अपने को दण्ड दे लूँगा। तुम्हारी तरफ़ से किसी से कुछ नहीं कहूँगा। समझी?"
दण्डनायिका कुछ नहीं बोली। उसका पौन सम्मति का ही सूचक मानना चाहिए। परन्तु उसका अन्तरंग खूब विलो दिया गया था। उसने पन-ही-मन कहा, "अब मैं इस दुनिया में अकेली रह गयी हूँ। सब मेरे विरोधी हैं। जो भी हो प्रतिक्रिया किये बिना चुपचाप मुँह बन्द कर मुझे पड़ी रहना होगा-आगे से। मैं मिर उठाकर सबके सामने इतराती हुई गर्व के साथ चलती रहीं। अब सिर झुकाकर सबके आगे रहना होगा; इससे बढ़कर दण्ड और क्या हो सकता है? हे भगवान, कैसी दशा कर दी मेरी । बच्चों की भलाई चाहते-चाहते एक माँ की यह दशा! ठीक है, दूसरा कोई चारा नहीं। फ़िलहाल मौन रहकर समय बिताना होगा। हो सकता हैं आगे चलकर कोई रास्ता दिख जाए।'' यों सोचकर अपने को सान्वना देती चामञ्चे पनबट्टा का थाल उठाकर वाहों से चुपचाप बाहर निकल आधी।
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सर्वतोभद्र यन्त्र के उन तावीजों की वाल वहीं ख़त्म हो गयी थी। इनके बारे में फिर किसी ने आपस में कोई बात नहीं उठायी थी। सिर्फ पद्यला के मन में इनके प्रति कुतूहल अवश्य था। मगर इस कुतूहल का कोई कारण उसकी समझ में नहीं आ रहा था। उसने बहिन चामला से इस बारे में विचार-विमर्श करने की भी बात सोची। जब पिताजी ने यह कहा कि ये तावीज़ हमारे ही घर के हैं तो माँ ने क्यों कहा कि ये हमारे घर के नहीं। बिना कारण तो माँ ऐसा कहेगी नहीं। उसके मन में आया कि इसके बारे में माँ से ही पूछ ले मगर इस डर से नहीं पूछा कि पता नहीं क्या उल्टा सीधा बोल जाए। बहुत सोच-विचार के बाद उस विषय में पद्मला ने आकर चामला से बातचीत की। चामला को इस सम्बन्ध में कोई रुचि नहीं थी। अपनी आशा के सफल न होने के कारण वह मन-ही-मन बहुत दुःख का अनुभव कर ही रही है। उसके साथ यह धुन भी लगी है। इस अनावश्यक सनक को उसके मन से हटाना बहुत जरूरी है इसलिए इसके भूल को खोजने के बदले उस विषय को वहीं खत्म कर देना अच्छा है- यह सोचकर चामला ने अपनी दीदी को सलाह दी, “दीदी, तुम्हें माँ के सब ढंग मालूम हैं। वह सदा हर बात में सन्देह करती रहती हैं, कह बैठती है। उसकी खोज करने की कोशिश करने लगेंगे तो कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। हवा में तलवार घुमाने से वह कटती नहीं, घुमाने का भ्रम ही हाथ रह जाता है। मेरा कहना मानो तो वर्तमान स्थिति में चुप रहना ही अच्छा है।" पद्मला को चामला की यह सलाह ठीक लगी । इसलिए यह बात यहीं ख़त्म हो गयी। दीरसमुद्र में इस सम्बन्ध में किसी ने कोई बात नहीं उठायी।
दोरसमुद्र में इसकी चर्चा नहीं हुई, यह सच है । मगर यह तो नहीं कह सकते कि बेलापुरी में इस सम्बन्ध में बात न उठी हो। क्योंकि महादण्डनायक के घर की खाद के साथ इन तावीज़ों का हेग्गड़े के घर के अहाते में पहुँचाया जाना, फिर उन्हें प्रधानजी के समक्ष हेगड़े द्वारा दण्डनायक को दिया जाना आदि सारी बातों का वृत्तान्त महाराज बल्लाल को मालूम हो गया था। अपने पिता प्रभु के जीवित रहते हुए दण्डनायक के घर में घटी अंजन-क्रिया एवं इस क्रिया में दण्डनायिका की भूमिका आदि बातों के बारे में प्रधानजी के साथ प्रभु ने जब विचार-विमर्श किया तो उस समय वह स्वयं उपस्थित थे। इसकी याद भी महाराज के मन में हरी थी | अपना प्रेम अन्धा है और इससे भला नहीं होगा, कल महाराज बननेवाले की ग़लती के कारण राष्ट्र का अहित होना ठीक नहीं इसी के ख्याल से खुद इस विषय को न बताकर, विचार-विमर्श करते समय समक्ष बिठाकर सारी बात करके जो दूरदर्शिता प्रभु ने दिखायी थी, उससे बल्लाल की आँखें खुल गयी थीं । फलस्वरूप इस अन्ध-प्रेम का बहिष्कार करने का निश्चय उसने कर लिया था । सीधे प्रधानजी को या महादण्डनायक को अपना निर्णय सुनाकर उन्हें दुःख नहीं
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पहुँचाना चाहता था। कुछ-न-कुछ बहाना बनाकर बात टालता रहा। महाराज विनयादित्य की मृत्यु से भी आवश्यक समय मिल गया। अगर इस असें में पद्यला का विवाह हो जाए तो अच्छा है, यह मामला खुद ही निपट जाएगा - यही वह सोचा करता । विवाह के बारे में भाई बिहिदेव ने सांकेतिक रूप से जिन बातों की ओर इशारा किया था और कहा भी था कि उन पर अमल कर अपनी प्रतिष्ठा को बचाये रखने में गौरव भी हैं। अब उसी से पूछना चाहिए कि इससे कौन-सा गौरव मिल सकेगा? प्रभु के विरुद्ध चिन्तन करनेवाली और वामाचारी से गण्डा- ताबीज बनवानेवाली दण्डनायिका और उसकी बेटियों के बारे में उसी से पूछ लेना चाहिए कि अब क्या करना है-बल्लाल ने सोचा।
महाराज को यों लगने पर विलम्ब कैसे हो सकता हैं? बिट्टिदेव और बल्लाल दोनों राजभवन के प्रकोष्ठ में मिले। किसी दूसरे विचार को न छेड़कर महाराज बल्लाल ने सीधा वही, दण्डनायक के घर की खाद में ताबीजों के निकलने और हेगड़े के घर दण्डनाविका के द्वारा खाद के साथ इनके भिजवाने आदि के साथ, ताबीजों का सारा इतिहास बताया और पूछा, “अब कहो अप्पाजी! इतना होने पर भी मुझे अपने वचन को रखना होगा? प्रभु की बुराई करने की इच्छा से वामाचारी मण्डननेपाली उपनायिका की कोख से उत्पन्न लड़की पोटसल वंश की महारानी के पद पर प्रतिष्ठित होने योग्य है?"
"वचन देते वक्त जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए थी । तव सन्निधान की भावनाओं की शांते ही कुछ और थी। सन्निधान अगर मुझे क्षमा करें तो मैं निवेदन करूंगा कि इस विषय में खुले मन से बातचीत कर लेना ही अच्छा है, विचार-विमर्श की दृष्टि से निर्णय करने के लिए पहले की उन अनेक बातों और तब के सन्निवेशों और घटनाओं के बारे में पुनर्विचार करना होगा और समझना होगा कि तब जो कुछ हुआ वह सही है या गलत। सही है तो क्यों और ग़लत है तो क्यों? उस गलती के लिए जिम्मेवार कौन है? शान्त भाव से इन सब बातों पर विचार करना होगा। अब राज्य के प्रतिष्ठित सभी व्यक्तियों के मनोभावों से सन्निधान परिचित हो चुके हैं। इसलिए किसी तरह की कड़वाहट के बिना बात की जा सकती है।" बिड़िदेव ने कहा।
“दिल ही दिल में वातों को सड़ाते रहने से तुम्हारी सलाह के अनुसार चलना अच्छा होगा।"
I
"यह बात सन्निघान के ही मन में नहीं, कई दूसरे लोगों के मन में भी हैं इसलिए सम्बन्धित सभी व्यक्तियों को एकत्रित कर खुले मन से इन विषयों पर विचार-विमर्श करना ही उचित होगा।”
"सबको इकट्ठा कर विचार-विमर्श करना कैसे साध्य हो सकता है, छोटे
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अप्पाजी जो द्रोही हैं क्या वे भी इसमें भाग लेंगे?"
'वह हमारी धारणा है। बह ठीक है या नहीं-कसे कहा जा सकता? उनमें जो शंका उत्पन्न हो गयी है, उसका निवारण तभी हो सकता है जब वे अपनी गरनती स्वीकार कर लेंगे। नहीं तो इस धारणा को ग़लत साबित कर दिखाना होगा। उन्हें शामिल न करेंगे तो वह कैसे हो सकेगा? सन्निधान ही सोच-विचार करें।" __ "अगर कोई ऐसा पौका मिले तभी तो सबको इकट्ठा करके इस पर चर्चा कर सकेंगे?" __ "अब तो साल बीतने को आया है। हम सबको तो दोरसमुद्र जाना ही है न? तब कोई-न-कोई प्रसंग आएगा ही।"
"दोगसमुद्र जाने की बात हमने सोची नहीं। हाल में प्रधानजी और महादण्डनायक जव आये थे तब यह बात उठी थी। उस दिन तुम, उदय और माताजी सोसऊस गये थे वासन्तिका देवी की पूजा के लिए। तब प्रधानजी ने ही स्थानान्तर सम्बन्धी प्रस्ताव पेश किया था। हमने कहा कि वर्तमान व्यवस्था ही ठीक है, इसी तरह राज्यकार्य आगे बढ़े।"
"प्रधानजी ने क्या कहा?"
"उन्होंने ऐसी मुख-मुद्रा बनायी मानो हमसे उन्हें इस उत्तर की अपेक्षा नहीं रही हो। क्षण-भर के लिए उसी भाव में रहे 1 फिर, "जैसी आज्ञा' कहकर इस प्रस्ताव को वहीं खत्म कर दिया।"
"तो क्या सन्निधान के विचार अपरिवर्तनीय है?" "परिवर्तन करने के लिए कोई कारण सूझता नहीं।"
"अभी मूल सिंहासन दोरसमुद्र में हैं। साल-भर यहाँ रहने के लिए कारण भी था। आगे भी यहीं रहने का निर्णय करना हो तो सिंहासन, प्रधानजी, महादण्टनायक सबको यहीं आना होगा। उन सबके बिना सम्निधान मात्र वहाँ रहें तो दुनिया इसके कई तरह के माने लगाएगी। कहेगी राज्य-सूत्र में ताल-मेल नहीं, मन सबके एक-से नहीं, कहीं कुछ छेद या दरार है। तात्पर्य यह है कि पोसलों में भेदभाव पैदा हो गया है। यही वह समय है जब हम ऊँचे उठ सकते हैं। यह समझकर हम पर द्वष रचनेवाले चेंगाच्च आनन्दनी, सान्तरों का जग्गदेव आदि हम पर हमला कर सकते हैं। इसलिए दोरसमुद्र जाने में ही कुशल है। यही मेरी 'भावना है। माँ से चाहे विचार-विमर्श कर सकते हैं। सन्निधान उचित समझे तो चिण्णम दण्डनाथ और डाकरस दण्डनाथ से भी विचार-विमर्श कर सकते हैं।"
"छोटे. अप्पाजी, हमने स्थानान्तरण की इस बात पर इस दृष्टि से विचार नहीं किया था। वर्तमान व्यवस्था में कोई पेचीदगी नहीं, काम ठीक तरह से चल रहा
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है - इसी से हमने वह बात कही थी।"
"ठीक हैं। परन्तु दूसरों के मन में यह विचार उठेगा कि सन्निधान को दोरसमुद्र का वास ठीक नहीं जँच रहा है। यदि यह धारणा बन जाए तो इसके अनपेक्षित परिणाम भी हो सकते हैं। प्रधानजी को और दण्डनायक को यदि ऐसा लगे कि हमारी उपस्थिति सन्निधान नहीं चाहते तो इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा। ऐसा मैं सोचता हूँ ।"
"तो मतलब यहीं न कि हमारा दोरसमुद्र जाना ही उचित है। यही तुम्हारा निश्चित है। हैनः
"इस निश्चय पर पहुँचने के लिए, मुझे अपनी अल्पमति को जो कारण सूझ पड़े, उनकी ही निवेदन किया है। इसके बाद सम्विधान की इच्छा 1”
"हम भाताजी से बातचीत करेंगे, बाद में निर्णय लेंगे। मगर एक बात निश्चित है कि हम अपने अधिकारियों से डरनेवाले नहीं, जिसे हम नहीं चाहेंगे उसे डरकर स्वीकार भी नहीं करेंगे।"
"राष्ट्रहित, राजनीतिक स्थिति को शुद्ध बनाये रखना प्रभु का कर्तव्य है। ऐसे मौकों पर खुद की इच्छाएँ और अनिच्छाएँ गौण हैं। वह राजनीतिक प्रज्ञा का एक लक्षण हैं। गुरुजी ने थे स्पष्ट समझाया था, शायद सन्निधान को स्मरण होगा ।"
"यदि कभी स्मरण न हो तो याद दिलाने के लिए जब हमारे छोटे अप्पाजी साथ हैं तब हमें भूल जाने का डर ही नहीं है। उठो, माँ से अभी विचार-विमर्श कर लें।" कहकर बल्लाल ने घण्टी बजायी ।
रेविमव्या ने प्रकोष्ठ का किवाड़ खोल दिया और परदा हटाकर उपस्थित हो
गया ।
बल्लाल ने कहा, "रेविमय्या, माताजी आराम कर रही हैं या बैठी हैं-जाकर देख आओ। हमें उनसे मिलना है।"
वह जाने को ही था कि इतने में गोंका वहां आया, और झुककर प्रणाम किया ।
बिट्टिदेव ने पूछा, "क्या है?" रेविमय्या वहीं खड़ा रहा ।
गींका ने कहा, "जरूरी काम पर सन्निवान के दर्शन करने के लिए डाकरस दण्डनाथ जी आये हैं: बरामदे में बैठे हैं
" उन्हें यहीं बुला लाओ।" बल्लाल ने गौका से कहा, और रेविमय्या से बोले, “तुम यहीं बाहर रहो, दण्डनाथ जी के चले जाने के बाद माताजी को देख आना ।" रेविमय्या बाहर चला गया।
कुछ ही क्षणों में डाकरस दण्डनाथ ने जाकर प्रणाम किया और महाराज के संकेत से आसन पर बैठ गये। डाकरस के साथ परदा हटाकर रेविमय्या अन्दर
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आया था। वह आज्ञा की प्रतीक्षा में खड़ा रहा।
बल्लाल ने कहा, "रेविमय्या, किवाड़ बन्द करके तुम बाहर रहो, किसी को अन्दर न आने दो।"
रेघिमण्या किवाड़ बन्द करके बाहर खड़ा रहा।
"कहिए दण्डनाथ जी, सुना कि किसी जरूरी काम पर आये हैं। क्या हैं, बताइए।"
"महादण्डनायक जी से गुप्त खबर आयी है। मालव जग्गदेव के नाम से अपने को प्रकट करनेवाला पट्टियोंबच्चुपुर के जग्गदेव भारी सेना के साथ दोरसमद्र पर हमला करने के लिए चला आ रहा है। इसलिए सन्निधान भी नहीं रहेंगे तो सन्निधान की रक्षा और सन्निधान के साथ विचार-विमर्श करने में भी सुविधा होगी। इसलिए सन्निधान से राजपरिवार के साथ दोरसमुद्र के लिए तुरन्त रवाना होने की प्रार्थना करते हुए निवेदन करने का आदेश मिला हैं। बताया है कि प्रधानजी की सलाह के अनुसार यह सन्देश भेजा गया है। आज्ञा चाहिए।"
'इस हमले का कारण?' बल्लाल नं पूछा।
'इस सम्बन्ध में कोई विवरण मालूम नहीं। राजधानी से जो खबर मिली हैं, उससे ज़्यादा कुछ भी मुझे मालूम नहीं।" ___"वर्तमान राजनीतिक पृष्ठभूमि के आधार पर आपको कुछ तो सूझना चाहिए न?'
डाकरस ने कहा, "शायद वे सोचते हों कि पोय्सल राज्य अब अप्रबुद्ध युवकों के हाथ में है, और उनकी शक्ति को कुण्ठित कर तोड़ डालने के लिए वही अच्छा पौका है।"
'तो आपकी भी यही धारणा है?"
"बाहर की जनता की धारणा वस्तुस्थिति के ज्ञान से अपरिचित धारणा है। राज्य के अन्दर की राज्य-निष्ठा रखनेवाली, किसी प्रजा की यह भावना नहीं हो सकती। गुप्त सन्देश जिस ढंग से भेजा गया है, यही लगता है कि देर उचित नहीं। इसलिए यात्रा की तैयारी करूँ"।
"तो क्या यह निर्णय हो चूका है?"
“सन्निधान को परिस्थिति का बोध है और राजधानी से आग्रह भी जब हुआ है, तभी इस विश्वास से पूछा कि सन्निधान की स्वीकृति होगी ही।"
'आफ्को मालूम हैं कि दौरसमुद्र में जाकर रहने की हमारी इच्छा नहीं है, तब भी यह बात कह रहे हैं?"
"हाँ, सन्निधान की इच्छा मुझे मालूम है। सन्निधान की व्यक्तिगत दृष्टि से यह जरूरी है-यह भी मैं जानता हूँ। परन्तु वर्तमान परिस्थिति में राष्ट्रहित की
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दृष्टि से राजधानी से प्राप्त सलाह मानने योग्य है।"
"क्या छोटे अप्पाजी, तुम भी दण्डनाथ की राय से सहमत हो?" ___ "प्रजा का हित गजा का प्रथम कर्तव्य है। दूसरे जब हमला करें तब महाराज वहाँ उपस्थित रहेंगे तो प्रजाह औं बाइस कोना प्राधानिक है। अनुपस्थिति का परिणाम अनेक प्रसंगों में राजनीतिक दृष्टि से घातक भी हो सकता है। इसलिए राजधानी से जो सलाह अव पेश है वह मुझे भी टीक अँचती हैं।" बिट्टिदेव ने कहा। ___ "जैसे दण्डनाथ को कारण सूझा से तुमको भी इस हमले का कारण कुछ सूझा होगा न"
"जब प्रभु के सिंहासनारोहण के लिए मुहूतं निश्चित हुआ था तब चालुक्य चक्रवर्ती विक्रपादित्य ने यह कहकर कि उन्हें यह बात पहले क्यों नहीं सूचित की गयी, प्रभुजी के अधिकार-सीमा में शामिल बलिपुर प्रदेश वापस ले लिया था, वह घटना सन्निधान की समृति में होगी-ऐसा मेरा विश्वास है।"
'हाँ, स्मरण हैं। परन्तु उस घटना का प्रस्तुत जग्गदेव के इस हमले से क्या सम्बन्ध हैं?"
"प्रभुजी चालुक्यों के दायें हाथ बने रहे। अपने प्राणों की परवाह न करके अनेक प्रसंगों में उनका साथ दिया, प्रभु ने। खासकर धारानगर के हमले के सन्दर्भ में चक्रवर्ती और सम्राज्ञी की रक्षा करने में और उनके लिए विजय प्राप्त कराने में प्रम में जो बुद्धिमत्ता एवं सामर्थ्य दिखाया था, वह प्रसिद्ध ही है। पोसलों की मंसी चालुक्यों की शक्ति का दूसरा मुख है। इसे दुनिया जानती है। बलिपुर के इरा अधिकार-परिवर्तन से लोगों को कुछ ऊहापोह करने के लिए एक मौका मिल गया। वे अन्दाज लगाने लगे कि पोय्सल और वालुक्यों में कुछ अनबन है, इस कारण चालुक्यों का बल कण्ठित हो गया है। अब चालुक्यों की पकड़ से छूटने की इच्छा सामन्तों में होना तो सहज ही है। शायद जग्गदेव का भी यही उद्देश्य रहा हो। जग्गदेव की इस अभिलाषा को जानकर चालुक्यों ने उसे प्रेरणा देकर इस तरफ़ हमला करने के लिए भेज दिया होगा। जग्गदेव को राज्य-विस्तार और स्वातन्त्र्य, यही चाहिए न?"
"वह स्वतन्त्र बनें और राज्य का विस्तार करें तो इससे चालुक्यों का क्या फ़ायदा होगा कल वही चालुक्यों पर भी हमला कर सकता है?" बल्लाल ने सवाल किया।
"तात्कालिक रूप से बला तो टल जाएगी न। इससे सामयिक शान्ति तो होगी। बाद की बात के बारे में अभी चिन्ता क्यों? विक्रमादित्य शक्रपुरुष बनने की चाह करनेवाले थे परन्तु उनकी कभी दूरदृष्टि नहीं रही। समय-समय पर अपने
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फ़ायदे के लिए गति बदलकर चलते रहनेवाले हैं। पहले भाइयों के साथ मिले-जुले रहे। फिर भाई-भाई में रगड़ पैदा हो गयी। प्रभुजी को सन्तुष्ट करके सिंहासन पाया। प्रभुजी जब तक शक्तिशाली रहे और स्वस्थ रहे तब तक उनसे इस चालुक्य चक्रवर्ती ने दोस्ती बनाये रखी। मलेषों के साथ युद्ध में जख्मी होकर जब प्रभु दुर्बल हुए तब पोसलों की शक्ति कुण्ठित हुई समझकर उन्होंने अपना बल प्रदर्शित करना शुरू कर दिया। अब शायद इस जग्गदेव को नचा रहे हैं। उनकी यह नीति चालुक्यों की अवनति की बुनियाद होगी। अब हम पोय्सलों को सम्पूर्ण स्वतन्त्र बनने के लिए अपना संगठित बल और अपनी एकता को दिखाने के लिए कमर कसकर तैयार होना पड़ेगा। जब इस जग्गदेव को निर्मूल करेंगे तभी चालुक्य चक्रवर्ती की आँखें खुलेंगी। प्रभुजी अपने से भी दसगुना अधिक बल अपने बच्चों को दे गये हैं और इनकी एकता अभेद्य है - इस बात की जानकारी इन चालुक्यों को मिलेगी । इसलिए दण्डनाथ के कहे अनुसार शीघ्र ही यात्रा की तैयारी करना उचित है।" बिट्टिदेव की बातें आयेश से भरी थीं।
"माँ को यह सब बताकर निर्णय लेंगे।" बल्लाल ने कहा और घण्टी बजायी । रेविमस्या ने किवाड़ खोलकर परदा हटाया। डाकरस चले गये ।
महामातृश्री एचलदेवी के साथ बल्लाल और बिट्टिदेव ने विचार-विमर्श किया इस नयी परिस्थिति के बारे में। प्रधानजी की सलाह से महादण्डनायक द्वारा प्रेषित सन्देश के अनुसार सलाह को मानकर महाराज के साथ सारे राजपरिवार को वेलापुरी से दोरसमुद्र जाने का विचार हुआ। यात्रा की तैयारी करने के लिए डाकरस को सूचित किया गया। सीमित रक्षादल के साथ महाराज, महामातृश्री और भाइयों के साथ पहले सोसेऊरु पहुँचकर अपनी इष्टदेवी वासन्तिका देवी की पूजा आदि समाप्त करके दोरसमुद्र की यात्रा करने का निर्णय हुआ। वेलापुरी के रक्षण कार्य के लिए तात्कालिक रूप से चिण्णम दण्डनाथ रहें और दोरसमुद्र पहुँचने के कुछ समय बाद विचार-विमर्श करके सिंगिमय्या को वेलापुरी में नियुक्त कर चिण्णम दण्डनाथ को दोरसमुद्र बुला लेने का भी निर्णय लिया गया। इसी तरह सारी व्यवस्था हुई और डाकरस की निगरानी में महाराज, महामातृश्री आदि सब सोसेऊरु हो आये। बाद में दोरसमुद्र पहुँचे।
युद्ध सन्निहित था, इससे किसी तरह की धूमधाम के बिना राजमहल की परम्पराओं के अनुसार स्वागत के सारे कार्यक्रमों को राजमहल के अहाते में ही आयोजित कर राजपरिवार की आवभगत की गयी ।
दोरसमुद्र पहुँचने के एक सप्ताह के अन्दर सिगिमय्या ने वेलापुरी जाकर चिण्णम दण्डनाथ से अधिकार अपने हाथ में ले लिया और चिण्णम दण्डनाथ को विदा किया। चिष्णम दण्डनाथ अपनी गर्भवती पत्नी चन्द्रलादेवी के साथ वहाँ से
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रवाना होकर दोरसमुद्र पहुँच गये ।
चारों ओर से राजधानी में समाचार पहुँचने लगे। जोरों से युद्ध की तैयारियाँ होने लगी। जगदेव की सेना कितनी हैं, वह किस रास्ते से आ रही है, उसकी शक्ति कितनी है आदि-आदि बातों का पता लगाने के लिए बहुत सूक्ष्म बुद्धिवाले गुप्तचरों को नियोजित किया गया। युद्ध के बारे में केवल उच्चस्तरीय अधिकारियों तक ही जानकारी रही, दोरसमुद्र की प्रजा को इसकी जानकारी नहीं रही और पर जीवन यथाविधि सुव्यवस्थित रूप से चलता रहा।
चेंगाल्वों की तरफ़ से युद्ध की कोई चहल-पहल होती नहीं दिखती थी। इस बात का तरी सेलने के बाद एक सीमित रक्षा दल को वहाँ रखकर शेष सेना के साथ माचण दण्डनाथ को दोरसमुद्र में बुलवा लिया गया और वहाँ की निगरानी के लिए सिंगिमय्या को यादवपुरी भेज दिया गया।
हिरि चलिकेनायक के स्वर्गवास हो जाने के कारण उनके बेटे छोटे चलिके नायक को उस समय वसुधारा के साथ सखरायपट्टण की देखरेख के लिए तैनात किया गया था। जग्गदेव की सेना यदि सखरायपट्टण से होकर आये तो वहीं उसका मुकाबला किया जा सके, इसलिए आवश्यक संख्या में सेना को तैयार रखे रहने का आदेश छोटे चलिके नायक को दिया गया। वास्तव में उस मार्ग से आना जग्गदेन के लिए उतना आसान न था। क्योंकि उन्हें पहाड़, जंगल, नदी-नाले पार कर आना पड़ता । परन्तु उस मार्ग से आने में एक सुविधा भी थीं। उस मार्ग में वस्तियाँ कम थीं। वहाँ किसी से सामना करने की उन्हें आवश्यकता नहीं पड़ती और उनके आगे के मार्ग का पता लगना भी कठिन था। सखरायपट्टण का ध्वंस कर देवनूर पर हमला करके कलसापुर या याबगल पहुँच जाए तो उसे दोरसमुद्र पर हमला करना आसान है अतः वहाँ भी शत्रु का सामना करने के लिए तैयार रहना जरूरी था । इस बात का निर्णय दोरसमुद्र में आयोजित युद्ध-मन्त्रणा सभा में किया गया था। इस सभा में प्रधान गंगराज, मानवेग्गड़े अमान्य, कुन्टमराय अमान्य, पीतिमव्या, सन्धिविग्रही नागदेव, महादण्डनायक भरिवाने, चिण्णम दण्डनाथ, मार्चण दण्डनाथ और हेगड़े मारसिंगव्या थे । मन्त्रणा सभा में शत्रुओं के हमले का सामना करना, उन्हें जड़-समेत नाश करना आदि के लिए क्या-क्या कार्य करने होंगे और किन-किन को कौन-कौन-सी जिम्मेदारी सौंपनी होगी आदि विषयों पर विचार-विमर्श हुआ। महाराज बल्लाल और बिहिदेव दोनों चर्चा के समय मान बैठे सबको राय सुनते रहे। किस-किसकी कौन-कौन-सी जिम्मेदारी होगी इसका निर्णय किया गया। युद्ध सम्बन्धी सभी तैयारियों और उनके अमल
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का उत्तरदायित्व दण्डनायक मरियाने को सौंप देने का भी निर्णय हुआ!
छोटे चलिक नायक की सेना में चिण्णम दण्डनाथ की सेना को शामिल करने का निर्णय लिया गया था। इन दोनों सम्मिलित सेनाओं की व्यूह-रचना और उनका नेतृत्व चिण्णम दण्डनाथ को सौंपा गया धा।
यह भी निर्णय हुआ कि माचण दण्डनाथ को अपने नेतृत्व की सेना के साथ कलसापुर में मुक्काम करना होगा और डाकरस दण्डनाथ को यावगल और वाणकरू के बीच मुक़ाम करना चाहिए।
उम्र के लिहाज से अत्यन्त वृद्ध पोचिमय्या और नागदेव को राजधानी में ही रहकर समय-समय पर सूचना के अनुसार जनबल और रसद सैन्य-शिविर में भेजते रहने की व्यवस्था करने की सम्मिलित जिम्मेदारी सौंपी गयी।
प्रधान गंगराज को खुद राजधानी में रहकर महाराज और राजपरिवार की रक्षा और राजधानी की सुरक्षा-व्यवस्था के कार्य में रहने तधा हंगाई पारसिंगय्या को उनके सहायक बनकर कार्य करने का भी निर्णय लिया गया। राजधानी की सुरक्षा का कार्य बहुत ही मुख्य कार्य होने के कारण राष्ट्र की आधी सेना राजधानी में ही रखी गयी। शेष सेना को तीन टुड़ियों में विभक्त कर सखरायपट्टण, कलसापुर और यावगल-इन तीनों स्थानों में भेज दिया गया।
यल्लाल महाराज का पट्टाभिषेक हुए एक साल बीत चुका था, इसलिए वार्षिकोत्सव के समारम्भ का आयोजन किया गया था। इसी बहाने शस्त्र-सज्जित सेना के जुलूस की भी व्यवस्था की गयी। इस व्यवस्था का उद्देश्य यह था कि राजधानी के साधारण में साधारण पौर भी भावी युद्ध के कारण भयभीत न होने पाएँ। इस विशाल सेना को देखकर दोरसमुद्र की प्रजा कल्पनातीत आश्चर्य में दूध गयी। वह सोचने लगी कि इतनी बड़ी सेना कहाँ से आ गयी? और वह अब तक कहाँ रही? इतनी बड़ी सेना क्यों? उनके रख-रखाव के लिए कितना धन चाहिए:-आदि-आदि बालें पौरजन करने लगे। जो भी कुछ बोले वह समाचार राजमहल में फौरन पहुँच जाता था। ऐसे चतुर गुप्तचरों की टोली प्रभु एरेयंग के समय में ही तैयार कर ली गयी थी।
वार्षिकोत्सव समारम्भ के दिन शाम को राजमहल के अहाते में एक बड़ी सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया था। इस सभा में स्वयं पोय्मत्त महाराज ने सार्वजनिकों को एक सन्देश दिया
'पोयसल राजधानी के पौरो, महायशस्वियो,
हमारी राजधानी में जब तक इस तरह का और इस संख्या में सशस्त्र सैन्य का जुलूम किसी ने नहीं देखा होगा 1 आप लोगों को चकित करनेवाले यह सशस्त्र अश्व दल, पदाति सैन्य समूह, ये सारे पोय्सल राष्ट्र की सुख-शान्ति को चाहनेवाले
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साधारण परिजन ही हैं। महामुनि के आशीर्वाद और वान्तिका दंवी के अनुग्रह से पल्लवित इस कन्नड़ साम्राज्य ने पिछले एक साल के दौरान काफ़ी प्रगति की है। राष्ट्र धीरे-धीरे विस्तृत होता, उन्नति कर रहा है।
पोय्सल वंशी सहज ही उदार प्रवृत्ति के हैं। उनमें असूया नहीं, वे सत्यवादी हैं-ये सब बातें राजपरिवार के ही लिए नहीं कही गयी हैं, बल्कि यह प्रत्येक नागरिक, जो भी इस राष्ट्र में है, के लिए लागू हैं। हम इस बात को गर्व के साथ कह रहे हैं। हम अभी छोटी आयु के हैं, हममें श्रद्धा, धैर्य और उत्साह भरने के लिए और राष्ट्र पर संकट आने पर राष्ट्र-रक्षा के लिए आप सब तैयार हैं-इस बात की घोषणा करने हेतु इस वार्षिकोत्सव समारम्भ के सन्दर्भ में आप एकत्रित होकर राजधानी में पधारे हैं। आप सबने जिस प्रकार हममें धैर्य-स्थैर्य भरकर उत्साहित क्रिया वैसा ही आप लोगों में उत्साह है, ऐसा हमारा विश्वास है। जनता की सामूहिक शक्ति ही राष्ट्र की शक्ति है। कल आपमें बहुत-से अपने-अपने स्थान पर लौटेंगे। कुछ लोग यहाँ राजधानी में ठहरेंगे। इसका कारण यह है कि राष्ट्र के अनेक युवकों ने सैनिक शिक्षण पाने की इच्छा प्रकट की है। ऐसे लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए यहाँ ठहराकर उन्हें शिक्षित करने की व्यवस्था की गयी है। राजधानी में ऐसे भी अनेक लोग होंगे जिन्हें इस बात की जानकारी न हो इसलिए खुद हम इस बारे में बता रहे हैं। राज्य के अधिकारियों को इस बात का निर्देश है कि प्रत्येक नागरिक को शिक्षित होने का मौका दिया जाए। अब भी जो शिक्षण पाना चाहेंगे, वे हेग्गड़े मारसिंगय्या जी को बता दें, वे इसकी व्यवस्था कर देंगे। हम केवल राष्ट्र और प्रजा के हितों की रक्षा करने के लिए ही प्रतिनिधित्व करते हैं। जनता ही राष्ट्र का बल है। पोय्सल सिंहासन के प्रति निष्ठावान होने की प्रतिज्ञा हम सब आज करें। पोय्सल राज्य किसी के लिए काँटा बनकर न रहे और किसी के सामने झुकं भी नहीं। इसीलिए हमारा शार्दूल-ध्वज सिर उठाकर आसमान में फहरा रहा है। उस ध्वज को सदा राष्ट्र पर विराजमान रखने के लिए निष्ठा के साथ सब एक होकर रहेंगे, जिएँगे। यह हमें तृप्ति, शान्ति, समाधान और सन्तोष देता रहेगा, इसी का आश्वासन देता हुआ फहरा रहा है यह हमारा शार्दूल लांछनयुक्त ध्वज ।' कहकर बल्लाल महाराज ने अपने दायें हाथ का अंगूठा ऊपर उठाया। उस हाथ का कंकण, राजमुद्रा, अंगूठियाँ सब चमक उठीं। सम्पूर्ण जन-समूह एक कण्ट से बोल उठा, ध्वज की जय हो! पोयसल राज्य चिरायु हो!" दसों दिशाएँ गूंज उठीं। भीड़ में से किसी ने ऊँची आवाज़ में घोषित किया, "महाराज बल्लालदेव...''
जनता ने उद्घोष किया, "चिराय हों।" फिर नारा लगा, 'पोयसल साम्राज्य की" और जनता ने 'जय हो'' का घोष किया। "पोय्सल साम्राज्य विजयी हो,
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चिरायु हो'' की घोषणा से आसमान गूंज उठा। पहाराज बल्लाल ने हाथ जोड़कर वन्दन किया। जनता ने आनन्दित होकर तालियां बजायीं। फिर महाराज बेदिका पर स्थापित उच्च आसन पर विराजमान हुए।
प्रधान गंगराज ने समारम्भ को सुचारू रूप से सम्पन्न करने में सहयोग देनेवाली जनता का अभिनन्दन किया और सभा विसर्जित हुई। लोग उठे। सभा बिखर मची। महाराज और उनके भाई वैदिका से उतरे और राजमहल में प्रविष्ट हुए।
अधिकारी वर्ग के परिबारियों के लिए बैठने का स्थान अलग था। वहाँ प्रधानजी और अमात्यों का परिवार-दण्दनायिका, हेग्गड़ती माचिकच्चे, शान्तला
और दण्डनायक की पुत्रियाँ, सभी बैंटी थीं । वह स्थान इतना दूर न था कि महाराज की दृष्टि वहाँ तक न पड़ सके। एक बार उस तरफ़ महाराज बल्लाल ने देखा। शान्तला का खयाल था कि महाराज दुबारा इधर दृष्टि डालेंगे, मगर निराश हुई। बचारी पाला! शान्तला पद्मला के साथ ही बैठी थी। महाराज के दायें विट्टिदेव
और उदयादित्य बैंठे थे। उन्होंने कितनी ही बार इनकी ओर देखा, मुस्कराये। महाराज ने जब एक बार उधर देख पद्मला को बैठा जानकर फिर नहीं देखा तो शान्तला के हृदय में पद्मला के प्रति करुणा भर आयी। उसने मन-ही-मन कहा, ''इस तरह से इस प्रवृत्ति को बढ़ने नहीं देना चाहिए। बल्नाल और पद्मला की प्रेम की कुम्हलाची बेल में ताजगी लानी हो ये पुनः सा बड़े कड़े दिल के होते हैं। इनकार भी स्त्री सह लेगी। परन्तु लापरवाही और उदासीनता सा नहीं होगी। इस सम्बन्ध में कुछ स्पष्टता के साथ बिट्टिदेव से विचार-विमर्श कर लेना होगा। समय पाकर यह कहने का निर्णय कर लिया शान्तला ने। मगर पद्यला के प्रति शान्तला के मन में जो भावनाएं उत्पन्न हुई थीं, उन्हें उसने जाहिर नहीं होने दिया। पद्मला की मानसिक वेदना की गहराई से बह परिचित हो गयी थी। ऐसी हालत में उसके मन को और अधिक दुखाना वह नहीं चाहती थी। इसलिए पद्मला के मन को अब एकान्त चिन्तन करने देना उचित नहीं समझकर उसकी पीठ पर हाथ रखकर उसे देखते हुए पूछा, "आज के सैन्य जुलूस को जब देखा तब मुझे कैसा लगा, जानती हो?" ___ वह किसी धुन में अपने को भूली बैठी थी। शान्तला के सवाल को उसने समझा नहीं। इसलिए पूछा, "क्या कहा?"
"महाराज बड़ी स्फूर्ति और उत्साह से बोलते हैं। मैंने नहीं समझा था कि ये इतनी अच्छी तरह बोल सकते हैं।" शान्तला चोली।
“क्या बोले " पद्मला ने धीमी आवाज़ में पूछा। "तो आप स्वप्नलोक में रहीं अब तक? रहिए। आज स्वप्न, कल सत्य ।''
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कहकर अपनी तर्जनो से पद्मला का गाल दवाया ।
पद्मला ने शान्तला के हाथ को अपने हाथों में लेकर दाया मानो कह रही हो, "तुम्हारी बात सच हो और इसे सफल बनाने के लिए तुम मदद दो।" इधर उनमें आत्मीयता बढ़ती जा रही थी। पद्यला में वह भावना दृढ़ बन गयी थी कि हंगड़ती में कोई ऐसा अवगुण लश-मात्र भो नहीं जिनका आरोप उसकी माता ने उन पर लगाया था। उसके दिल में यह भावना घर कर गयी कि वे बहुत अच्छी हैं। अपनी इस भावना को पद्मला ने किसी के सामने व्यक्त नहीं किया था, तो भी उसका अन्तरंग कह रहा था कि शान्तला की सहायता सं वह अपना खोया प्रेम दुबारा अवश्य पा लेगी। उसने शान्तला की और ऐसी दीन-दृष्टि से देखा मानो कह रही हो- "शान्तला, तुम ही मेरे लिए एक सहारा हो।" शान्तला पचला की पीर पर हाथ फेरने लगी मानो वह उसे आश्वासन और सान्त्वना दे रही ही 1 फिर शान्तला ने पद्मला के पास सरककर उसके कान में कहा, "कल आप हमारे यहाँ आ सकेंगी" पाला ने मौन सम्मति दी।
वार्षिकोत्सव की समारित राजमहल में शाम को भोजनोपगन्त हुई। प्रमुख-प्रमुख व्यक्ति इस भोजन के लिए आमन्त्रित थे। _ विमच्या के द्वारा अकेले बिट्टिदेव से तन्हाई में मिलने की व्यवस्था शान्तला ने कर ली थी। इस एक साल की अवधि में इस तरह की तन्हाई में मुलाकात पहली बार थी। सबका ध्यान भोजन की ओर रहा, इसलिए इस ओर किसी की दृष्टि नहीं गयी। मुलाकात अल्प समय के लिए ही सम्भव थी इमलिए संक्षेप में विचार-विमर्श कर लेना था। बिना किसी भूमिका के शान्तला ने बात शुरू की, "यह मुलाक़ात मैंने अपने लिए नहीं की है।"
फिर और किसके लिए? क्या बात है?"
"महाराज ने सैनिक शिक्षण के लिए युवकों का ही आह्वान किया है, युवतियों का क्यों नहीं?" __ "स्त्री-रक्षा जब गजा का कर्तव्य हैं तब कौन सा राजा होगा जो युद्ध क्षेत्र में जाकर स्वगारोहण के लिए स्त्रियों को आह्वान देगा।"
"तो क्या अब युद्ध का समय आ गया है?'' तुरन्त शान्तला ने पूछा ।
विट्टिदेव को खेद हुआ कि युद्ध की बात अनजाने ही उनके मुंह से निकल गयी। "तो छोटी हेग्गड़ती को हेग्गड़जी ने इस विषय की जानकारी नहीं दी?"
महाराज ने जब यह आदेश जारी किया है कि वात गुप्त रखी जाए तो बताएँगे भी कैसे"
"तुमको बताते तो क्या ग़लती हो जाती।" 'अगर राजकमार जी की यह भावना हो तो स्वयं बता सकते हैं न"
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“मैं प्रकट न करूंगी। वचन देती है, यदि चाहेंगे तो...''
“जरूरी नहीं, तुम्हारे घराने की रीति सं महाराज अच्छी तरह परिचित हैं।' कहकर बिट्टिदेव ने जग्गदेव के हमले की यात संक्षेप में बता दी।
ऐसी हालत में राष्ट्र-रक्षा के लिए हमें भी मौका क्यों नहीं देना चाहिए।" ''इस कार्य के लिए अब तक स्त्रियों की सेवाएं नहीं ली गयी हैं।" "अब स्वीकार करें।''
"मैं महाराज नहीं हैं, और फिर इसके बारे में सोचने-विचारने को बुजुर्ग लोग भी तो हैं:
"आप उन्हें सूचित करें।"
बिट्टिदेव हँस पड़ा। "यह भी कहीं हो सकता है? मेरे सुझाने पर वे कहेंगे 'अभी बच्चे हो, तुम्हें क्या मालूम?' स्त्रियों की रक्षा न कर सकनेवाले इरपीक पुरुष हैं पोय्सल राज्य के-इस तरह अपमानित होने के लिए वे तैयार होंगे क्या?"
'हूँ... ऐसी बात है।" शान्तला ने कुछ व्यंग्य भरी ध्वनि में कहा।।
"व्यंग्य क्यों? 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवत्ताः' -यह आर्योक्ति इस लिए ही तो हैं।" ___आर्योक्ति की बात! स्त्रियों की अन्तरंग वेदना की न पहचान सकनेवाले कटोर हदय पुरुष इसी आर्योक्ति की आड़ में स्त्रियों को कितना दुःख दे रहे हैं-इस बात को नहीं समझते।"
"तो क्या छोटी हेगड़ती को इस तरह का कोई क्लेश हुआ है?" "मैंने पहले ही निवेदन किया है कि यह मुलाकात अपने लिए नहीं।" "क्या साफ़-साफ़ नहीं बताएँगी?'
"राष्ट्र में अनेक स्त्रियाँ पुरूषों की कटोरता की शिकार हैं। दःख भोग रही हैं। घुट-घुटकर जीणं होती जा रही हैं। उन यो मारने से इस युद्ध के बहाने सैनिक शिक्षा देकर उन्हें पहली कतार में खड़ी करके वीरगति पाने का मौका दें। घुटकर मरने से इस तरह की मृत्यु कहीं अधिक स्वागत योग्य है।" ___ 'इस तरह की स्थिति किसकी और किसके कारण हुई है।" ___ इसके लिए पागला से भी ज़्यादा क्या प्रमाण चाहिए : सी और भी अनेक हो सकती हैं। उन सबको एकत्रित कर उन्हें सैनिक शिक्षण दें। और राष्ट्र की लिवेदी पर चढ़ा दें। वह महाराज से आपको कहना चाहिए।'
'शान्तला, तुम बहुत उत्तेजित हो गयी हो। यह नहीं कि मैं इस बात को नहीं जानता। महाराज को दण्डनायिका और उनकी बेटियों के बारे में पता नहीं. ऐसी बात नहीं। ऐसा मत समझो कि मैंने यह बात उनसे छेड़ी न हो। यह
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विषय प्रत्यक्ष विचार-विमर्श करके ही निर्णय करने का है। व्यर्थ की खोजबीन करते रहने से यह निपटेगा नहीं। इस प्रत्यक्ष विचार-विमर्श के लिए व्यवस्था करने का निर्णय किया था कि इतने में बुद्ध की बात उठ खड़ी हुई।" । ___ "उनकी उलझन का क्या कारण है?" __ "मैं मी पूर्णतया नहीं जानता। शायद टण्डनायिका के वामाचारी के साथ सलाह कर मन्त्र-तन्त्र, जादू-टोना कराने के कारण ही ऐसा हुआ है। परन्तु मैं अधिक ब्यौरा नहीं जानता। महाराज इस बारे में कुछ कहते नहीं। लगता है कि माँ को भी यह बात मालूम नहीं ।" इतना कहकर थोड़े में बात टरका दी बिट्टिदेव ने। ____ ''इसो पृष्ठभूमि में उधर से अधांत पद्मला से कुछ जानकारी लूँ? उसका दुःख देखा नहीं जाता। वास्तव में प्रथला अच्छी है।"
"एक समय उसी ने कहा था कि तुम बहुत घमण्डी हो।"
"वह उसकी बात नहीं थी, किसी ने यह बात उसके मुँह में डूंसकर कहलका दी थी। उसकी गुरु देवी हैं, बहुत विचारशील हैं और ज्ञानी भी। उनके शिक्षण में शिष्य खरा सोना बनेंगे। वे अपने खुद का, किसी तरह का परिचय नहीं देती। स्वयं को एक अनाथ कहकर उस दात को टाल जाती हैं। वह महा-साध्वी और पवित्र हैं। कभी किसी ने उन्हें विचलित होते नहीं देखा, न हमने ही देखा है। उनकी शिष्या पद्मला अब पुरानी पद्मला नहीं। कुछ करना ही चाहिए।"
"ठीक है, परन्तु अभी नहीं, युद्ध के बाद ही सम्भव हो सकेगा।" "मुझे तो सैनिक-शिक्षण मिला है। कम-से-कम मुझे युद्ध में ले चलिए।"
"वह सब महादण्दनायक के निर्णय का विषय हैं। अगर वे माने तो हो सकता है।"
"राजकुमार अगर ऐसा प्रस्ताव रखें..."
“अभी इस युद्ध में महाराज की क्या भूमिका होगी-कुछ मालूम नहीं हुआ है? ऐसा लगता है कि महादण्डनायक हमें भी तुम्हीं लोगों के साथ मिला दें, यही दिखता हैं।
इतने में रेविमव्या आया। दोनों अलग-अलग दरवाज्ञों से होकर भोजन करने बैठे। शान्त रीति से भोजन हुआ। बाद में सब अपने-अपने निवास की तरफ चले गये।
महाराज बल्लाल के आह्वान की प्रतिक्रिया बहुत ही प्रभावोत्पादक ढंग से हुई। दोरसमुद्र के हजारों तरुण सैनिक शिक्षण के लिए आ-आकर भरती होने लगे। इधर
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एक ओर शिक्षण चल रहा था और दूसरी और व्यवस्थित सैन्य की तीन टुकड़ियां सखरायपट्टण, कलसापुर और यावगल जा पहुँची थीं।
ख़ुद महाराज बल्लाल ने विट्टिदेव से विचार-विमर्श कर युद्ध के नेतृत्व को अपने ही ऊपर लेने का निर्णय किया था। परन्तु बुजुर्गों की ओर से एकमत सम्मति इसके लिए प्राप्त नहीं हो सकी थी। वीर पति की वीर पत्नी महामातृश्री ने भी युद्ध में अपने बच्चों को अगुवा बनने के बारे में प्रोत्साहन नहीं दिया ।
मैं
"यह क्या माँ, उस दिन जब युद्ध के विषय में कुछ भी नहीं जानता था तब युद्ध में जाने को तैयार हुआ तो सन्तोष से आशीर्वाद देकर भेजा: जब आपकी इस सम्मति का अर्थ मेरी समझ में ही नहीं आता?" बल्लाल ने पूछा ।
“पोसल राज्य में अब जबकि स्त्रियाँ युद्धक्षेत्र में आने को तैयार हो रही हैं तब क्षत्रिय रक्त से इन धमनियों में बहते हुए, समस्त सैनिक शिक्षण पाये हुए एवं प्रजा संरक्षण की जिम्मेदारी को अपने ऊपर लेनेवाला राजघराना ही पीछे रह जाए तो प्रजा क्या कहेंगी, माँ?" बिहिदेव ने भी सवाल किया।
"क्या कहा- स्त्रियाँ युद्ध में आएँगी?"
"हाँ, दण्डनायक और आप लोग स्वीकार करें तो हेगड़ेजी की पुत्री सैनिक शिक्षण पाने के लिए युवतियों के जत्थे को तैयार करेंगी। दण्डनायक की पुत्रियों भी इस जत्थे में रहेंगी।" माँ को बताने के बहाने वह अपने भाई की प्रतिक्रिया भी देखना चाहता था। इसी मतलब से उसने भाई की ओर देखा ।
बल्लाल को इसकी जानकारी नहीं थी, इसलिए उसने आश्चर्य से विहिदेव की ओर देखा ।
"पोटसल वंशी पुरुष जब चूड़ियाँ पहन लेंगे तब स्त्रियाँ यह काम करेंगी।" एचलदेवी ने कहा ।
"तो क्या वह ग़लत है माँ?"
"मैं यह नहीं कहती कि यह गलत है। स्त्रियों की रक्षा करना पुरुषों का कर्तव्य है । जब पुरुष अपने कर्तव्य का पालन न कर सकें तो स्त्री इस कार्य को कर सकती हैं। महिषासुर को मार सकनेवाले पुरुषों के न रह जाने ही के कारण देवी चण्डी ने चामुण्डी बनकर उसका संहार किया था। पोव्सल पुरुष ऐसे बने रहें जिससे स्त्रियां क्रोधित न होने पाएँ । बलिपुर में तुम्हारे जन्मदिन के अवसर पर जो वचन लिया था सो याद है?"
"वह तो पाय्सल स्त्री-पुरुषों के आपस में लड़ने के विरुद्ध था। अब तो बात पोप्सल के विरोधियों का सामना करने की है न?"
"तब देखेंगे जब यह साबित हो जाए कि आप लोग असमर्थ हैं।" "तो आपका यही मतलब है न कि महाराज को जो असम्मति जतलायी वह
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अब नहीं रही। युद्ध में अपनी शक्ति दिखाकर जब तक हम जीवित हैं तब तक किसी पोव्सल नारी को चण्डी चामुण्डी बनने की जरूरत नहीं इस बात को दुनिया के सामने साबित करने के लिए आपकी सम्पति है: है न?"
-
"तुम्हारी बात में समझ गयी, छोटे अप्पाजी। इस बात पर तुम लोग विचार करो कि अब मैं एक निस्सहाव माँ हूँ ।"
"सिर्फ़ हम तीन ही तुम्हारे बच्चे नहीं हैं, माँ राजमाता और महामातृश्री हैं आप सारे पोप्सल साम्राज्य की प्रजा आपकी सन्तान है। हर एक का प्राण आपके लिए उतना ही मूल्यवान है। इसलिए स्वीकार कर आशीर्वाद दीजिए, माँ। हम सब साबित कर दिखाएँगे कि प्रभु की सन्तान उनकी साधना से भी ज़्यादा साध्य करने में समर्थ है।"
"इस बारे में मैं अब और कुछ नहीं कहूँगी। प्रधानजी, महादण्डनायक जी जैसा निर्णय करेंगे वैसा करो।" एचलदेवी ने कहा ।
इस विषय पर चर्चा हुई और यों निर्णय हुआ "महाराज पीछे रहकर आज्ञा देते रहें। उनकी उपस्थिति ही योद्धाओं के लिए उत्साहवर्धक है। हमारी सेना काफ़ी प्रबल और शक्तिशाली है। इसलिए शत्रुओं के पीछे हटने की भी सम्भावना है I यदि उनके राजधानी तक आगे बढ़कर आने का प्रसंग हो तब महाराज खुद नेतृत्व को अपने हाथ में ले सकते हैं। तब तक महादण्डनायक ही नेतृत्व करते रहें। "
इस निर्णय से न महाराज ही सन्तुष्ट हुए, न बिट्टिदेव ही उत्साह के मारे उनका खून खौल रहा था। अब उनके उत्साह पर पानी फिर गया । बल्लाल को तो एक तरह से गुस्सा भी आ गया। इस क्रोध के परिणामस्वरूप दोनों भाई जब तन्हाई में रहे तब बल्लाल ने बिट्टिटेय से कहा, "छोटे अप्पाजी, दण्डनायक की बेटी से मैंने विवाह नहीं किया इससे क्रोधित होकर उन्होंने हमारे उत्साह को भंग किया हैं ।"
"यदि उन्हें सचमुच क्रोध होता तो तुरन्त मान जाते और कह देते महाराज की ही सेना के आगे पहली कतार में विराजमान होना चाहिए। महाराज रहें या न रहें इससे उनका क्या मतलब होता । परन्तु उनकी दृष्टि में महाराज की रक्षा राष्ट्र की रक्षा हैं- ऐसा मेरा विचार है । "
“महादण्डनायक ने सिर्फ़ छोटे अप्पाजी से मन खोलकर कहा है। तुम्हें मालूम नहीं अप्पाजी, पहले एक बार महासन्निधान जब जीवित थे तब प्रभु का पट्टाभिषेक करना चाहते थे, उस समय उन्होंने अड़ंगा लगाया था। इसके व्यवहार से वे ऊब उठे थे और दोरसमुद्र से दूर ही रहे।"
"ओह, उसी समय न जब हम वेलापुरी गये और सन्निधान यहीं रहे महादण्डनायक की लड़की और सन्निधान में प्रेम का अंकुरार्पण भी तभी हुआ
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न?'
"अप्पाजी, जो बात मुझे पसन्द नहीं उसे मत छेड़ो।"
"जब तक निश्चित रूप से यह नापसन्दगी साबित न हो तब तक निर्णय नहीं करना चाहिए। अब इस तरह युट-घुटकर मरने से राष्ट्र के लिए लड़कर मरे तो जीवन सार्थक होगा -यह समझकर महविनायक की बेटी ने निर्णय किया है ऐसा..."
"हेग्गड़े की बेटी ने कहा होगा शायद । वही हमारे छोटे अप्पाजी के लिए वेद वाक्य है न?" बल्लाल ने व्यंग्य किया।
"सच है। मुझे हेग्गड़े की बेटी की बात पर विश्वास है। परन्तु आज सन्निधान से बातचीत करने के लिए बड़ी एक कारण नहीं है। सन्निधान महाराज हैं, वह दण्डनायक की बेटी हैं। इस बात को भूल जाइए। एक पुरुष और एक नारी परस्पर प्रेम करके एक होकर जीने का निर्णय करें और उसके सफल होने से पहले, किसी अज्ञात और काल्पनिक कारणों से प्रभावित होकर यदि दूर हो जाएँ तो कितनी दुःखदायक स्थिति हो जाएगी-यह विचारणीय हैं।"
''कारण अज्ञात और काल्पनिक हैं-ऐसा कहने के लिए क्या आधार है?" "मैं नहीं जानता।"
"सकारण निर्णय हो चुका है। कहने पर छोटे अप्पाजी को विश्वास करना वाहिए न
''सन्निधान यह न समझें कि मुझ उनकी बात पर विश्वास नहीं। इस सन्दर्भ से किसी दूसरे को दुःख का अनुभव करना पड़े तो वह दुःख सकारण है या नहीं, इस बात का निश्चय होना आवश्यक है न?" । ___ "किसे निश्चय होना चाहिए: छोटे अप्पाजी को"
"इस निर्णय से जिसको दुःख हुआ है उस दुःखी हदय को ‘यह निर्णय सही है। इस बात का निश्चय होना चाहिए।"
"जिन्होंने ग़लती की है उन्हें इस बात का ज्ञान रहता है।"
"किसी ने ग़लती की है तो मान भी लें, पर जिसने ग़लती न की हो तो भी यह मान लें?"
'इस वर्तमान सन्दर्भ में ऐसी सम्भावना ही नहीं, अप्पाजी। यह महाभयंकर अपराध है।"
'वह क्या है, सो सन्निधान बता दें तो अच्छा । माँ को भी इस विषय में कुछ भी जानकारी नहीं है।"
"प्रभु की आज्ञा रही हैं। इसलिए इस विषय को किसी से नहीं कहेंगे।" ''इसके माने"
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"इस प्रश्न के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं है। उसका जो भी नतीजा होगा, केवल हम अकेले भुगतेंगे।"
"तो क्या इसमें महादण्डनाय की बंटी का त। " "घर में जो चलता है, वह बच्चों को मालूम नहीं होता?"
"तो मतलब यह हुआ कि यह ऊहा मात्र है। प्रभु को और सन्निधान को जो बात मालूम हुई, वह उसी राजमहल में रहनेवाले मुझे या माँ को मालूम क्यों नहीं हुई?" ___ "राजमहल का सारा व्यवहार सदा सबको मानूप नहीं हुआ करता है। पहले से होशियार रहते हैं न?"
"उसी तरह महादण्डनायक की पुत्री को उनके घर में जो हुआ सो अगर मालूम नहीं पड़ा हो तो..."
"महादण्डनायक का घर राजमहल नहीं।"
"फिर भी मालूम हुआ या नहीं, इस बात की तहकीकात करके ही निर्णय करना उचित होगा न?'
"छोटे अप्पाजी, सन्तान माँ-बाप के ही खून को बाँटकर जन्म लेती है: "हाँ।' "तो उनके गुण-स्वभाव बच्चों में आते ही हैं न?' "आ भी सकते हैं।" "तो तुम्हारा मतलब हुआ कि नहीं भी आ सकते हैं, यही न छोटे अप्पाजी"
“जन्म से कुछ गुण आ सकते हैं। सभी नहीं। वास्तव में मानव बढ़ते-बढ़ते अपने-अपने गुण और व्यवहार को पित्त कर लेता है।"
"वही, जिस तरह वरदान पानेवाले भस्मासुर ने वर देनेवाले शिव के ही सिर पर हाथ रखना चाहा था।"
"सन्निधान ही बताएं कि हिरण्यकशिपु का चेटा प्रहाद कैसे बनता?'' "उसकी माँ कयाद महासाध्यी धीं।"
"परन्तु दुष्ट राक्षस की पत्नी होने पर भी उसकी सात्त्विकता नष्ट नहीं हुई न? गुण, व्यवहार, स्वभाव हमेशा मौं-बाप के ही जैसे होते हैं या जिस वातावरण में पाले-पोसे गये, उसी वातावरण के अनुसार प्रभावित होते हैं-ऐसा माना नहीं जा सकता। प्रत्येक मानव को उसके स्वभाव और व्यवहार को देखकर उसी के अनुसार उसका मूल्यांकन होना चाहिए । गक्षस रावण की पत्नी मन्दोदरी पतिव्रता शिरोमणियों की पंक्ति में विराजमान हैं। वह भी तो राक्षस-कुमारी है।"
'वह पौराणिक समय की बात है।" "समय क्या करेगा: मानव स्वभाव वही है। सन्निवेश, परिसर, परिस्थिति,
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वातावरण आदि कारणों से वह रूपित होता है। उसी पुराण काल का अनुशीलन करेंगे तो हम देखेंग राक्षस-कुमारी होकर मन्दोदरी ने महापतिव्रता के रूप में ख्यात्ति पायी है तो गौतम-मुनि के वंश में जन्म लेकर जटिला ने सात-सात शादियाँ कीं। यों अनेक उदाहरण मिलेंगे। इसलिए सन्निधान वचन-भंग के दोषी न बनें, एक वार सन्निधान खले दिल से महादण्इनायक की पुत्री से मिलें और बातचीत करें तो दोनों के लिए बह हितकर होगा। यह मेरी अल्पमति की सूझ है। आज्ञा हो तो ऐसी व्यवस्था में कर दूंगा।"
“उसका नतीजा क्या होगा सो हमारा अन्तरंग जानता है। तुम्हारे पन में यह भाव होना कि हमने गलती की हैं-हम दोनों के हित की दृष्टि से अच्छा नहीं है। इसलिए अब जो बुद्ध का प्रसंग आ गया है, इसके समाप्त होने के बाद जैसा सूझे, कगे। परन्तु इस सम्बन्ध में माँ से विचार-विमर्श कर उनकी राय तुम्हें ही जाननी पड़ेगी।" ___ "माँ की इच्छा के विरुद्ध भला हम कोई काम करेंगे? कुछ भी नहीं करेंगे और कभी नहीं करेंगे। सन्निधान की इच्छा के अनुसार माताजी की राय मैं स्वयं जान लूंगा।"
"युद्ध के प्रसंग के समाप्त होने तक इस बात को लेकर हमारे मन को बिलोडना नहीं । अब केवल जग्गदेव को खत्म करना एकमात्र हमाग प्रथम कर्तव्य
___"उसमें पोसल स्त्रियों को भाग लेने की आशा है न?'' बिट्टिदेव ने फिर छड़ा।
"मों की राय तो तुम जान ही चुके हो?" 'ठीक हैं।"
बात बहीं ख़त्म हो गयी। दोनों मौन बैठे रहे। थोड़ी देर बाद महाराज बल्लाल . ने कहा, "छोटे अप्याजी! गुप्तचरनायक मादेव ने पता लगाकर बताया है कि जग्गदेव की सेना की अग्रिम पंक्ति गलसेना है। हमारी सेना में गजबल नहीं है इसलिए महादण्डनायक और प्रधान कुछ आतंकित हैं।"
"तो मतलब हुअर कि इस बात का भी फ्ला लग गया है कि उसकी सेना कहाँ तक आ पहुँची है।"
"सुनते हैं कि वह बाणऊस के मार्ग में वेदावती नदी के उस पार पड़ाव डाले
"यानी सखरायपट्टण की ओर नहीं आए।" "हाँ।' "तो वहाँ की सेना को देवनूर बुला लें तो टीक होगा?"
पट्टमहादेची शान्तला : भाग दो :: 127
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"महादण्डनायक सोच रहे हैं कि सेना को बाबगल बुलाया जाए ।" "अत्यधिक वर्षा के कारण वेदावती भरपूर बह रही है। इस वजह से पार करने की जगदेव ने नहीं की और वहीं पड़ाव डाल लिया। प्रवाह के कम होने तक प्रतीक्षा करने के बदले के किनारे-किनारे पश्चिम की ओर सेना को रवाना करें और जहाँ धार पतली हो वहाँ से इस तरफ़ आने की सोचें तो हमें उस परिस्थिति में तैयार रहना होगा नः हमने पहले सोचा था कि सखराबपण पहुँचें तो देवनूर का रास्ता नजदीक पड़ेगा - यह अन्दाज ग़लत होगा ओर इससे देवनूर के लोग शत्रुसेना की आहुति बन जाएँ तो वह अच्छी बात नहीं होगी। इसलिए चिण्णम दण्डनाथ को आदेश दें कि वहाँ की सेना को तुरन्त देवनूर भेज दें। इस काम को अभी कर देना अच्छा है। मान लें, गुप्तचरों द्वारा यह बात जग्गदेव को मालूम हो जाए और फिर वह सखरायपट्टण की तरफ़ मुड़ गया तो वहाँ के लोगों पर मुसीबत टूट पड़ेगी। इसलिए उन सब लोगों को तब तक सुरक्षित स्थान में रखने, उनके साज-सामान आदि को साथ ही ले जाने का आदेश देना उचित होगा ।" बिट्टिदेव ने बताया ।
तुरन्त बल्लात उठ खड़े हुए, ब्रिट्टिदेव भी उठ खड़ा हुआ ।
"छोटे अप्पाजी, यह सम्भव है कि वैसा हो जैसा तुमने बताया । परन्तु किसी को यह सूझा नहीं होगा- ऐसा ही लगता है। इसलिए आओ, अभी मन्त्रणा कर आगे के कार्य का निर्णय कर लें।" कहकर घण्टी बजायी । दरवाजा खुला । मन्त्रालय की ओर महाराज चल दिये। बिट्टिदेव ने उनका अनुसरण किया।
ब्रिट्टिदेव की सलाह को मन्त्रणा सभा में अभूतपूर्व समर्थन मिला। इस आशय का आदेश पत्र अश्वारोही पत्रवाहक के जरिये तुरन्त सखरायपट्टण भेज दिया गया । जगदेव की सेना के आने के मार्ग पर पड़नेवाले छोटे-छोटे गाँवों के लोगों को बिट्टिदेव की सलाह के अनुसार सुरक्षित स्थानों में रखने की व्यवस्था भी की गयी ।
पट्टियां बच्चुपुर के जगदेव के साथ होनेवाले युद्ध के बारे में मालूम होने पर भी शान्तला ने इस सम्बन्ध में अपने पिता से अनजाने में भी कुछ नहीं कहा। यों भी हेगड़े मारसिंगय्या आजकल घर पर बहुत कम मिलते थे। एक दिन हेग्गड़ती माचिकच्चे ने भोजन के समय पूछ ही लिया, "मालिक को शायद आजकल इतना अधिक काम हो गया है कि कुछ आराम करने के लिए भी समय नहीं मिल रहा है । अथवा परिश्रम कराने में हमारे दण्डनायक बहुत आगे हैं, यही लगता है ।" - इस तरह पिता माँ और बेटी बहुत दिनों के बाद एक साथ भोजन करने बैठे थे।
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हाथ के कौर को आधे ही में रोककर मारसिंगच्या ने हेग्गहनी की ओर एक तरह से देखा; उस दृष्टि में एक ताक्ष्णता दिखी जिसे उसने कभी अनुभव नहीं किया था।
"माँ, बहुत दिन के बाद आज हम यों एक साथ भोजन करने बैठे हैं। इस वक्त बाहरी कामों के बारे में बातें क्यों छेड़ें। अब समय बदल गया है। वह एरेयंग प्रभु का समय नहीं । यह बल्लाल महाराज का समय हैं। वे तुनकमिजाज हैं। जल्दी गुस्से में आ जाते हैं। राजमहल के कार्यकर्ता को कौन बात कहनी चाहिए, कौन-सी बात नहीं कहनी चाहिए इस पर, सुनते हैं कड़ी आज्ञा और आदेश हैं। राष्ट्र को बहुत जल्दी प्रगति करनी हैं, इसलिए सभी से चौगुना काम करवा रहे हैं। है न पिताजी?" शान्तला ने अयाचित व्याख्या की।
"किसने ऐसा कहा?"
"आपके मौन ने। पहले तो आप राजमहल के विषयों को कह दिया करते थे। परन्तु आजकल, खासकर महाराज के वेलापुरी से दोरसमुद्र में पधारने के बाद, राजमहल की कोई बात आप नहीं कह रहे हैं। इसीलिए हमें लगता है कि महाराज ने आपके मुँह पर ताला लगा दिया है। है न माँ?" माँ की प्रतिक्रिया को भाँपने की दृष्टि से शान्तला ने उनकी ओर देखा।
"ये शीघ्र-कोपी, तुनकमिजाज हैं-यह समसे किसने कहा? छोटे अप्पाजी....''
"अब तो यह बहुत अच्छा हुआ, आपके कार्याधिक्य के कारण यदि फुरसत न मिल्ले तो माँ महादण्डनायक को उसके लिए जिम्मेदार ठहराएँ, ऐसे ही आप उन्हें जिम्मेदार बनाने चले तो क्या वह ठीक होगा, पिताजी"
"तो तुम्हारी यही राय है कि तुम्हारी माँ की बात असंगत है।" मारसिंगच्या बोले।
__ "अब इस वक्त यह सब क्यों अप्पाजी: अब पहले सारी दुनिया को भूल जाएं, सिर्फ़ भोजन पर ध्यान दें। खुशी से भोजन हो जाए। बाद में वह बातचीत करेंगे।' शान्तला ने कहा।
“हाँ, वही करें। परन्तु यह कहना होगा कि महादण्डनायक की राज-निष्ठा अद्भुत है।" कहते हुए मारसिंगय्या ने कौर उठाया। __ "जब आप ऐसा कह रहे हैं तो उन्होंने ज़रूर ही कोई महान कार्य किया होगा"
''वह सब समय आने पर अपने-आप ही मालूम हो जाएगा। अब इस बारे में बात करना ठीक नहीं है।"
"मैंने कहा न, मौं। राजमहल का-नहीं, नहीं-महाराज का कड़ा आदेश है।" ''दूसरी बात न करने को कहकर फिर तुम ही ने उसे छेड़ना शुरू कर दिया
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हैं, अभ्माजी ?"
"यों ही कुछ कहा तो आपको ऐसा लगा कि मैंने महाराज की टीका की है; है न पिताजी ?"
"मुझे क्या लगता है, सो सच कह दूँ, बेटी ?"
"हाँ, कहिए, पिताजी "
"तुमसे कुछ मैंने छिपा रखा है, यह तुम्हें लग रहा है। यह बात सीधी न बताकर राजमहल, आज्ञा, महाराज का आदेश वगैरह-वगैरह कर रही हो। तुमने कहा कि महाराज शीघ्रकोपी हैं। बताओ तो ऐसा कहने का क्या कारण है?"
"उतना प्रेम करने के बाद उदासीन होना यही सिद्ध करता हूँ कि वह असंयमी हैं। ऐसे असंभव ही शीघ्र क्रोधित हो सकते हैं। "
"यह बात इतनी आसान नहीं कि चर्चा की जा सके। यह तुम्हारी समझ से कहीं अधिक गहरी बात है ।"
"कितनी गहरी है, जान सकती हूँ?"
"मुझे भी ज्यादा ब्यौरा मालूम नहीं । उस दिन हमारे घर में खाद की ढेरी में सेज ताबीज़ निकले, शायद इसमें उनकी भी कोई भूमिका रही हो। प्रधानजी भी महादण्डनायक जी की लड़की के सम्बन्ध में बहुत चिन्तित हो गये हैं। "
"खाली चिन्तित होने से क्या होता है, पिलाजी? एक पवित्र निर्दोष लड़की का जोवन जलकर खाक बन जाना चाहिए क्या?"
"कोई यह नहीं चाहता कि ऐसा हो । परन्तु वर्तमान स्थिति ही कुछ ऐसी बन गयी है कि इस समस्या का कोई हल ही नहीं मिल रहा है। उसे हल करना असाध्य कार्य है। अब समय भी ऐसा आया है कि इस सम्बन्ध में सोचने के लिए फ़ुरसत भी नहीं है। सुना कि इस बात का तुमने छोटे अप्पाजी से पता भी लगा लिया है। इसलिए अब इस बात पर चर्चा को जरूरत ही क्या है।"
पिता-पुत्री की बातचीत सुनती माचिकब्बे खाना भूल बैठी और थाली में ही उसका हाथ ज्यों-का-त्यों रह गया। उसने एकदम कहा, "तो अब पिता और पुत्री गुप्तचरी के काम में लगे हैं। आप राजनीति-निपुण हैं, वह बुद्धिमती लड़की है। आप दोनों के बीच में मुझ जैसी बेवकूफ़ के लिए जगह कहाँ? कैसे-कैसे मौकों पर कितने ही रहस्यपूर्ण विषयों को मैंने गुप्त रखा है। उस समय मुझ पर विश्वास था तो जब मैंने ऐसा क्या किया जो मुझ पर अविश्वास हो गया?" इस बात से उनके दिल को कुछ चोट भी लगी थी।
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"तुम अपनी तुलना किसी से न करो अभी जो क्रोध तुम्हें आया हैं वह अकारण ही प्रतीत होता है। अब तुम्हारी समझ से ऐसा क्या हुआ है कि तुमने विश्वास खो दिया
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"मुझे क्या मालूम? आप और आपकी बेटी जो कुछ जानते हैं, सो मुझे मालूम . नहीं। इतना तो आप पानेंगे न?"
"हाँ, तुम्हें मालूम नहीं। मगर इससे तुम्हें असन्तोष क्यों महसूस हुआ?" "इसका मतलब यही न कि मैंने आपका विश्वास खोया है।'
"वह उल्टा ही अर्थ हुआ। अम्माजी, मैंने कभी तुम्हें कुछ बताकर कहा कि अपनी अम्मा से मत कहना?"
"न, न, ऐसा कहनेवाले..."
"बात को इतनी दूर तक ले जाने की जरूरत नहीं। तुमने छोटे अप्पाजी से जान लिया और उन्होंने जैसा कहा वैसा ही व्यवहार किया। मैंने भी प्रभु की आज्ञा के अनुसार काम किया। इसमें तुम्हारी माता को उलझन पैदा करनेवाली या उनके प्रति मेरे विश्वास को भावना कंस दिखाई दो? यह मेरी समझ में नहीं आ रहा हैं। तुमने अपनी अम्मा पर विश्वास नहीं कर, बिट्टिदेव ने तुम्हें जो बताया, उसे अपनी अम्मा से नहीं कहा क्या?"
"अम्मा पर अविश्वास का माने हुआ मुझे अपने पर ही विश्वास नहीं। इस वात को अब रहने दें माँ, मैं तुमसे एक प्रश्न करूंगी। तुम्हें खुले मन से उत्तर देना होगा।"
“पूछो।"
'चालुक्य पिरियरसी जी जब हमारे यहाँ आयीं तब वे कौन थीं, इसका पता आपको और पिताजी को मालूम नहीं था?"
"मालूम था।" “मुझसे कहा?" ''नहीं।"
"तब मैं यह कह दूँ लो कैसा होगा कि आपको अपनी बेटी पर विश्वास नहीं घा?"
उस समय का प्रसंग ही ऐसा था, अम्माजी। वास्तव में पिरिबरसी जी को भी इस बात का पता नहीं लगने दिया कि हम जानते हैं कि वे कौन है।"
"अब भी वैसा ही समझिए, माँ। राजनीति ही एंसी होती हैं। अप्पाजी का, गजाज्ञा का उल्लंघन करना आपके लिए क्या स्वीकार्य होगा, पाँ?"
''राजसत्ता ने मुझसे किसी से न कहने की आज्ञा दी है।"
"किसी से न कहने का जब आदेश दिया तो उस 'किसी' पें आप भी शामिल हैं। आप न भी चाहें तो वह अभी थोड़े ही समय में आपको मालूम हो ही जाएगा। मालूम होने पर आप स्वयं ही हमारे बरताव को स्वीकार कर लेंगी।"
इतने में बाहर से बुतुगा भागा-भागा आचा और एक पत्र उसने दिया। उसे
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देखकर माचिकब्बे के हाथ दे, मारसिंगव्या उठकर चले गये। भोजन भी समाप्त नहीं किया। माचिकब्वे ने पढ़कर बेटी को थमा दिया। और खुद भी पतिदेव के पोछे-पीछे चली गयीं। मारसिंगय्या यह कहकर "शाम को मेरी प्रतीक्षा न करें, और जो बात तुमसे छिपा रखी थी वह उस चिट्ठी में है" राजमहल की तरफ चले गये ।
युद्ध सन्निहित है - यह खबर केवल कुछ ही लोग जानते थे । परन्तु वह अब राजधानी के घर-घर की बात बन गयी थी। राजधानी में एक नागरिक संरक्षक दल का संगठन किया गया। इस दल का कार्य था कि आपत्कालीन परिस्थिति के उत्पन्न होने पर राजधानी के उत्तर-पूर्व में एक कोस दूरवाले जंगल में विशेष रूप से तैयार सुरक्षा-स्थलों पर स्त्रियों और बच्चों को तथा उनकी मूल्यवान वस्तुओं को सुरक्षित पहुँचाना।
मरियाने दण्डनायक के घर की अध्यापिका ने इस सन्दर्भ में एक सलाह दी थी, उस सलाह के अनुसार इस नागरिक संरक्षक दल में दोरसमुद्र की महिलाओं को कुछ योग्य दायित्व देना था। इसके लिए महाराज से स्वीकृति भी मिल गयी थी। इतना ही नहीं, उस स्त्री दल के नेतृत्व का उत्तरदायित्व भी उन्हीं को सौंप दिया गया था। एवं अमहियाएँ गणी विजों, आदि उस दल में नहीं थीं। सिर्फ सैनिकों की जवान व स्वस्थ पलियों व इसी तरह की अन्य महिलाओं को ही दल में शामिल किया गया था। हाँ, कुछ स्त्रियाँ जो संकोच और लज्जावश शामिल नहीं हुईं, उन्हें छोड़ दिया गया। इन स्त्रियों की सहायता के लिए सिपाहियों का एक दल भी तैनात था और तीव्रगतिवाले वाहनों की भी व्यवस्था की गयी थी। यह कहने की जरूरत नहीं कि इस व्यवस्था में शान्तला भी थी । वास्तव में वह उस अध्यापिका का दायाँ हाथ वन गयी थी। हालाँकि दण्डनायिका चाम ने समझाया कि हम जैसे स्तर के लोगों को गम्भीर भाव से अपने घर में रहना ही शोभा देता है, फिर भी पद्मला हट करके शान्तला से जा मिली। इससे उसका एकान्तिक चिन्ताजन्य दुःख कुछ कम हुआ । चामला ने भी पद्मला का अनुकरण किया। चॉप्पिदेवी उत्साह न होने के कारण पीछे रह गयी, और फिर वह छोटी भी तां धी ।
पद्मला राजधानी के संरक्षक दल की सदस्या बनी। उस दल की सदस्याओं को उनका कर्तव्य विस्तारपूर्वक समझा दिया गया कि संकट के समय लोगों को शत्रुओं से बचाकर सुरक्षित स्थान पर तुरन्त भेज देना ही उनका मुख्य कार्य है पद्मला समझ नहीं पा रही थी कि यह शरणस्थान होते क्या हैं। सबके सामने किसी से पूछना भी उसे अच्छा नहीं लग रहा था। इसलिए मौका पाकर जब
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शान्तला अकेती मिली तो उससे पूछा । शान्तला ने समझाते हुए कहा कि आमतौर पर हर गाँव की आबादी को दृष्टि में रखकर गाँव से बाहर कुछ दूर पर ये स्थान धनाये जाते हैं। वे पत्थरों के बने गोलाकार निवास स्थान होते हैं और उनके चारों जोर झाड़-झंखाई और जगली बल बारह पैदा कर उन पर फैला दिया जाता है ताकि किसी को इस बात का शवहा न हो कि यहाँ निवास स्थान भी है। उसने समझाया और बताया कि दोरसमुद्र की रक्षा के लिए मज़बूत क़िला-रवन्दक के होते हुए भी यहाँ की असंख्य जनता की रक्षा के लिए ऐसे स्थान बनवाये जा रहे हैं। महाराज के पट्टाभिषेक महोत्सव के वार्षिकोत्सव के बाद सैनिक शिक्षण के साथ इन शरणस्थानों के निर्माण कार्य को भी तेजी से शुरू किया गया। युद्ध में हार-जीत तो भगवान की इच्छा पर निर्भर है। इसलिए आम जनता की रक्षा बहुत ही मुख्य काम है। इसी बात को ध्यान में रखकर पोसल राज्च के गाँव-गाँव में ऐसे स्थान निर्माण करने की व्यवस्था की गयी है। ऐसे प्रत्येक स्थान में कितने सोग सुरक्षित रह सकते हैं, इसका भी निश्चय रहता है। इन स्थानों में निवास करने के लिए जानेवालों को साल-भर के लिए जरूरत पर ग्मद भी जमा करके रखना पड़ता हैं। आसपास कुएँ खुदवाये रहते हैं जिससे रात के समय में पानी का संग्रह होता है। अँधेरे के वक्त जंगल में जा-आ सकते हैं। इस तरह शान्तला ने पद्मला को विस्तृत जानकारी दी। ___ "साल-भर के लिए रसद जमाकर रखने का यह माने हुआ कि युद्ध साल-भर चाला रहेगा। यही न?" पद्मला ने पूछा।
__ "इतनी तम्बी अवधि तक चलने की सम्भावना कम है, फिर भी अगर युद्ध घिसटता जाए तो लोगों को खाने-पीने के अभाव के कारण मरना न पड़े।"
"तो मतलब यह कि राज्य-संचालन बहुत पेचीदा है। मुझे तो युद्ध की नाम मात्र जानकारी है, इसका परिणाम आम लोगों पर होगा-यह मैं नहीं जानती थी। अब तो वह घर के दरवाजे तक भी पहुंच गया है।"
"तो डर किसका?" "शायद पहले डरती थी। अब मुझे किसका इर." "इस 'अ' का क्या माने?"
"स्पष्ट हैं निराश जीवन बितात हाए जाने से मरना बेहतर है 1 इसलिए मरण्य से हर नहीं।'
"ठिः, खि, बात को कहाँ पहुँचा दिया। मैं आपसे एक बात कहूं।" "कहो।" "मेरी बात पर आप विश्वास करेंगी तो कहूँगी।" "अविश्वास करने का एक समय था। अब पूर्ण विश्वास करती हूँ।"
पमहादेवी शान्नला : भाग दो :: I8
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"सो क्यों?" "तब मैं अन्धी थी। अब आँखें खुल गयी हैं।" "आँखें खोल रही हैं ऐसा तो मैं विनास है ।" 'क्यों :" "क्योंकि आप महाराज को आँखें खोलकर नहीं देख रही हैं।" "मैं देख रही है। वहीं नहीं देखते।" 'एक ही बात हुई। अपने उन्हें खोलकर देखें, ऐसा नहीं बनाया ।" "मैं क्या करूँ:"
"उनसे मिलिए और जानने की कोशिश कीजिए कि उनके इस परिवर्तन का क्या कारण है?''
'ये न कहें तो" ''ऐसी शंका से आपकी समस्या कभी सुलझ नहीं पाएगी। आपका मन तो अटल है न?"
''हाँ, अटल है।"
'आपसे व्यक्त रूप में तो कोई ऐसी बात नहीं हुई कि जिससे प्रत्यक्षतः महाराज के मन पर बुरा असर पड़ा हो? ऐसा नहीं हुआ है न"
'नहीं।" "इस बात को जब चाहें, जहाँ चाहें, धीरज के साथ कह सकती हैं न?" ''झूठ बोलनेवाले को डरना चाहिए। मैं अधीर क्यों होऊं, क्यों डरूँ?" "तो फिर मुझे कुछ बातें बताइए। क्या आप सच-सच बताएँगी?"
अपने दोनों हाधों से शान्तला के हाथ पकड़कर वह "शान्तला, माँ की . सौगन्ध...' कहने ही वाली थी कि शान्तला ने उसके मुँह पर अपना हाथ रख दिया और कहा, “यों माँ की सौगन्ध नहीं खानी चाहिए। यह अच्छी बात नहीं। मुझे कोई सौगन्ध या प्रमाण की जरूरत नहीं। एक बात साफ़-साफ़ समक्ष लीजिए। किती भी बात में मैं आपकी प्रतिस्पर्धिनी नहीं। आपकी भलाई में मुझे अन्तरंग से रुचि है। इसके लिए मैं जो कोशिश कर रही हूँ उसे बताना नहीं चाहती। वह किसी दिन मालूम हो ही जाएगी। उस बात को रहने दें। मैं वास्तव में एक बहुत पेचीदा सवाल करती हूँ। माँ पर सौगन्ध खाने से रोकनेवाली में ही इस तरह का सवाल कर रही हूँ, वों आप उसका कोई अन्यथा अर्थ नहीं निकालेंगी। अताडा, आपके घर क्या कोई वामाचारी आया करते थे धीर-से पूछा शान्तला ने।
'घामाचारी को हमारे वर क्यों आना चाहिए, शान्तला?" "क्यों आना चाहिए, क्यों बुलवाना चाहिए. यह सवाल मुख्य नहीं। आने थे
[H+ :: पट्टमहारंबी शान्तुल्ला : भाग दो
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क्या ? सो बताइए।" "नहीं।"
"सत्य कह रही हैं?"
"क्यों मेरी बात विश्वसनीय नहीं चाहो तो मेरी बहिन से पूछ लो ।”
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"मैं कुरेदकर पूछ रही हूँ, इससे आपको ऊबना नहीं है। आपके लिए, आपकी तरफ से मुझे बात करनी हो तो कुछ बालों के बारे में निश्चित ज्ञान मुझे होना चाहिए। इसलिए सवाल असम्बद्ध लगें, तब भी उत्तर दें।"
"टीक है।"
"आपने कहा वामाचारी नहीं आते थे, ठीक है? वामाचारी आपके घर नहीं आते होंगे। पर आपके यहाँ से कोई उसके यहाँ गये थे?"
“शान्तला, मेरे पिताजी महादण्डनायक हैं। जिसे चाहें अपने घर बुला ले सकते हैं। इसलिए हमारे यहाँ से उसके यहाँ किसी के जाने का सवाल ही नहीं
उठता।"
"आप ठीक कहती हैं मगर एक बात की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगी। आपको याद है कि उस दिन हमारे घर में खाद की ढेरो में से चार सोने के तावीज़ निकले थे।"
"ओह, वह... वह तो याद है । "
" आपको मालूम है कि वे क्या हैं?" "नहीं।"
"आपने घर पर किसी से पूछा कि वे क्या हैं ? "
"नहीं"
"इस सम्बन्ध में आपको जानकर कुतूहल पैदा नहीं हुआ, यह आश्चर्य की बात है । वे उस वामाचारी द्वारा निर्मित यन्त्र हैं। वे आपके घर के गोबर में कैंसे आये, किसके जरिये आये, यह राजमहल के वातावरण के परिवर्तन का कारण बना हुआ हैं। आपसे पूछने पर लगता है कि आप यह सब कुछ नहीं जानतीं। इसकी जड़ कहाँ हैं इसका पता लगाया जाए, तब यह सोचा जा सकता है कि आगे क्या करना चाहिए।"
पद्मला मौन हो गयी। शान्तला ने भी आगे कुछ कहा नहीं। उसे परिस्थिति की सन्दिग्धता मालूम हो गयी थी । पद्मला कुछ नहीं जानती, फिर भी वह इसके मूल का पता लगाने की कोशिश करेगी। जानकर बताए यही सोचकर वह चुप रही 1
हमारे घर के गोवर की देरी में वामाचारी के यन्त्रों के मिलने पर राजमहल के वातावरण को क्यों बदलना चाहिए? इन यन्त्रों का मूल कहाँ है? हमसे उनका
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो: 185
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क्या सम्बन्ध है? यह बुमा-फिराकर नाक पकड़ने का चक्कर क्यों? महाराज खुट हो मुझसे पूछ सकते थे। यह तो ऐसा हुआ कि गाय बीमार हो और बछड़े को चिकित्सा करें। ऐसा क्यों?–यों पद्मला का पन कई सवालों में उलझता ही चला गया। तभी उसे याद आया कि उस दिन हेगड़े के घर मिले ताबीजों के बारे में माता से कहने पर उनका यह कहकर साफ़ इनकार करना कि ये हमारे नहीं, और पिता का यह कहना कि ये हमारे ही हैं, इन सबके बाद इन तावीज्ञों के बारे में सबका मौन हो जाना-ये सब घटनाएँ एक-एक करके मानस-पटल पर अंकित होती गयौं । वह फिर सोचने लगी-क्या इनमें मेरी मां का हाथ है। वही मेरे भविष्य के लिए रोड़ा बन गयीं क्या. वैसा हुआ हो तो आगे मेरा क्या होगा
शान्तला ने सोचा, इसको यो चिन्ता करते बैठे रहने देना ठीक नहीं। इसलिए उसने कहा, "राजमहल का वातावरण केवल ऊहापोह के कारण बदल गया हो, तो उसे ठीक किया जा सकता है। लक्ष्य साधन करनेवालों को समस्या का साहस के साथ सामना करना चाहिए, उरकर पीछे नहीं हटना चाहिए। इस विषय में आपकी बहिन भी मदद दे सकेंगी. मेरी यह धारणा है।" ___ "हो सकता है।" पद्मला के मुँह से इतना ही निकला। उसने शान्तला की ओर देखा तक नहीं। इतने में इन्हें हूँढती चामला भी आ गयी। चोली, "ओह, आप दोनों को कितनी देर में देह रही है। आप लोग यहाँ बैठी हैं!"
''क्यों, कोई काम था?" शान्तला ने पूटा।।
"हमारी गुरुजी बुला रही हैं।...यह क्या दीदी मुँह फुलाकर गुमसुम बैठी हैं?" कहती हई चामला ने पदाला की ओर देखा। __ “इसके बारे में घर पहुँचकर तुम्हें बताएँगी। आप दोनों को उसके हल के ग़स्ते ढूँढने होंगे। अब चले। गुरुजी के पास चलेंगी?" कहती हुई शान्तला पाला के कन्धे पर हाथ रखकर ज्छ खड़ी हुई। तीनों गुरूजी के पास चली गयीं।
सोच-विचारकर बिट्टिदेव ने जैसी सलाह दी, वैसा ही किया गया। घटनाएँ भी उसी तरह हुईं। जग्गदेव ने अपनी बड़ी सेना के साथ वेदावती नदी के उत्तर में किनारे-किनारे चलकर डेढ़-दो कोस आगे नदी पार करके देवनूर पर हमला कर दिया था। शत्रु-सेना का सामना करने के लिए चिण्णम दण्डनाथ के नेतृत्व में वहाँ सेना तैयार थी। उनकी मदद के लिए छोटे चलिकेनायक और रावत मावण नैयार थे। चिण्णम दण्डनाध की सेना इतनी बड़ी नहीं थी कि वह शत्रु का सीधा सामना कर सके। इसलिए उसने पद्य युद्ध शुरू कर दिया जिससे शत्रु सेना आगे भी न बढ़े. और आतंक भी फैला रहे। इस बीच उसने जग्गदेव की सेना की गतिविधि
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का पता भी गुप्तचरों द्वारा लगा लिया। इतना सब करने के बाद उसने कलसापुर के मुकाम पर अपनी सेना के साथ तैयार बैंटे मात्रण दण्डनाथ को स्थिति की जानकारी देकर उससे मदद मांगी थी। माचण दण्डनाथ की सेना के पहुँचने तक प्रतीक्षा भी करनी थी। इस दौरान देवनूर की प्रजा को वहाँ की पहाड़ी उपत्यका में निर्मित शरण-स्थलों में भी सुरक्षित पहुँचा दिया गया था।
शत्रु-संना को ग्राम की और न आने देने की पूर्व योजना के अनुसार देवनर के पूर्व की ओर एक कोस की दूरी पर पायसल सेना की कतारें तैयार रखी गयी थीं।
माचण दण्डनाथ आगे की युद्ध-योजना की गतिविधियों के सम्बन्ध में विचार-विमर्श करने और मौजूदा परिस्थिति को समझाकर आगे के कार्यक्रम का निश्चय करने के उद्देश्य से रातोंरात दोरसमुद्र चल पड़े। तब तक गुप्तचरों द्वारा शत्रु-सेना का परिमाण और उसकी शक्ति-सामर्थ्य का अन्दाज राजधानी को लग गया था। राजधानी के अधिकारी वर्ग व युद्ध-विशेषज्ञ इस उलझन में पड़े थे कि जग्गदेव इतनी बड़ी सेना जमा कैसे कर सका। वे इस समस्या को हल न कर सके थे। सेना के विवरण के साथ, रसद, भोजन आदि की व्यवस्था, सैनिकों में उत्साह भरने के लिए आवश्यक मनोरंजन के कार्यक्रम और अन्य दिल-वहलाय की व्यवस्थाएँ आदि सभी बातों की जानकारी दोरसमुद्र में पहुँच गयी थी। प्रमुख दल नायकों के मनोरंजनार्थ भारी स्त्री-समूह भी तैयार था। चालुक्य विक्रमादित्य की प्रेरणा से काकतीय प्रील को हराकर इस जग्गदेव ने गौरव प्राप्त कर लिया, यह खबर भी गुप्तचरों से मालूम हो गयी थी। सैन्य के दल-नायकों के मनोरंजन के लिए नियोजित स्त्री-समूह में अधिकतर काकतोय राज्य से अपहृत स्त्रियाँ हैं, वह इन गुप्तचरों की राय धी। सान्तरों की सेना की सहायक बनकर चालुक्य सेना की टुकड़ियाँ भी आयी हैं या नहीं, इस सम्बन्ध में निश्चित खबर अभी नहीं मिल सकी थी। फिर भी इस बड़ी सेना को नेस्तनाबूद करने के लिए क्या-क्या करना होगा, इस विषय को लेकर तुरन्त अमात्यों की बैठक बुलायी गयी।
चूँकि बिट्टिदेव के पूर्व अनुमान के अनुसार ही शत्रु-सेना अग्रसर हुई थी। इस मन्त्रिपरिषद् में उसकी राय जानने के अनेक प्रसंग आये। मन्त्रणा के बाद यों निर्णय हुआ : "अभी जिस तरह सेना चार हिस्सों में विभाजित है उससे हमारे लिए शत्रु-सेना को जीतना सम्भव नहीं होगा। हमें सम्पूर्ण पोसल-सेना को मिलाकर जग्गदेव की सेना पर हमला करना होगा। इस पर विष्टिदेव ने एक सुझाव दिया, ''यह तो ठीक है कि हमारी सेना एक साथ होकर शत्रुओं का सामना करेगी। डाकरस दण्डनाथ अपनी सेना के साथ राजधानी आ जाएँ। यहाँ जो सेना है वह और उनके साथ आनेवाली सेना दोनों सम्मिलित हों। यह सम्मिलित सेना
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मुख्य सेना होगी और यह राजधानी को रक्षक-सेना बनकर रहे। चिण्णम दण्डनाध की सेना अचानक शत्रु-सेना पर धावा बोल दे और उसे पीछे हटने का मौका दिये बिना देवनूर की ओर से हटाकर दारसमुद्र की ओर आने दे। पीछा किये जाने से बचने की जल्दी में शत्रु-सेना इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाएगी कि पीछे क्या हो रहा है। बची हुई शत्रु-सेना रसद, मण्टार आदि के साथ धीरे-धीरे पीछे पीछे आने लगेगी। पाचण दण्टनाथ अपनी सेना को दो भागों में विभक्त करें। एक टुकड़ी को शत्रु-सेना के बीच हमला करने भेजें और युद्ध करनेवाली शत्र-सेना को रसद की आपूर्ति न हो सके, ऐसा इन्तज्ञाम करें। दूसरी टुकड़ी शत्रु-सना पर पीछे सं आकर धावा बोले और उसकी रसद पर कब्जा कर ले। अपने क्षेत्र का परिचय हमें जितना हैं, उतना शत्रुओं को नहीं, इसलिए उनकी वह रसद, भण्डार और उन स्त्रियों का जत्था-यह सब राजधानी के उत्तर-पूर्व के शरण-स्थानों में इस तरह भेज दिया जाय कि शत्रुओं को इसका पता भी न चले। बाद में राजधानी की सेना के साथ आकर मिल जाएँ।"
जब रसद, भण्डार उन शत्रुओं को नहीं मिलेगा तो समझ लीजिए कि उनकी आधी शक्ति तो यों ही समाप्त हो जाएगी। लेकिन ध्यान रहे कि इससे वे क्रोधित होंगे और अनेक निरपराधियों को उनका शिकार बनना पड़ेगा।'' नागिदेव ने कहा।
"ये निरपराधी कौन?" बिट्टिदेव ने पूछा।
"माचण दण्डनाथ की सेना को दो भागों में विभक्त कर एक भाग को शत्रु-सेना के बीच में भेज दें तो वह शत्रु-सेना के बीच अटक जाएगा या नहीं? आहार सामग्री के न मिलने पर तो शत्रु-सेना की दृष्टि पीछे की ओर पड़ेगी। रसद की रक्षक-सेना और उसके लिए पी लौट आनेवाली शत्रु-सेना, इन दोनों के बीच पें हमारी सेना की टुकड़ी अटक जाएगी। उस समय हमारी उस सेना का वह भाग यदि नष्ट हो गया तो दूसरा भाग युद्ध में ख़त्म हो जाएगा या नहीं? इसके बाद बह शत्रु-सेना रास्ते में पड़नेवाले छोटे-छोटे गांवों को बेरहमी से मिटा देगी। ऐसी सम्भावना हैं न:' नागिदेव ने अपनी सूझ के अनुसार राय दी। ___यों डरने से युद्ध जीतना सम्भव होगा क्या? युद्ध का मतलब है कि उसमें
छ योद्धाओं को और कल निरपराधियों को मरना ही पड़ता है। शत्रुओं की शक्ति को खत्म करने के लिए राजकुमार की सलाह बहुत ही उचित और ठीक लगती है। चिपणम दण्डनाथ जी से विचार-विमर्श कर हम उनकी सेना को अपनी सेना में सम्मिलित कर लेंगे और इस सम्मिलित सेना को राजकुमार के आदेश और आवश्यकता अनुसार तीन-चार भागों में विभक्त करेंगे। मैं, चिण्णम दण्डनाथ, छोटे चलिकनायक और रावत पायण, सब मिलकर विजब पाएँगे। उनकी गज-सेना को
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ऐसी जगह लाएँगे जहाँ से वह आगे बढ़ने न पाए। उसे यों लाधार कर राजधानी के पास ले आएँगे और तब हमारी सेना उसका सामना करेगी।" माचण दण्डनाथ ने कहा।
इस तरह की व्यवस्था करने के बाद माचण दण्डनाथ जैसे आया था वैसे ही लौट पड़ा। अपनी पत्नी और बच्चों तक को देखने नहीं गा ! लसरे गड-शिविर में पहुँचते ही चिण्णम दण्डनाथ, छोटे चलिकेनायक और राक्त मायण, इन तीनों को बुलवा भेजा और विचार-विमर्श किया । यो व्यवस्था की गची-खुद पहले हमला शुरू करेंगे और शत्र-सेना को राजधानी की ओर ले चलने की कार्रवाई करेंगे। इधर चिपाम दण्डनाथ अपनी सेना के साथ रसद-रक्षक सेना और शत्रु-सेना के बीच धावा बोल देंगे, शेष दोनों पीछे से शत्रु-सेना शिविरों पर आक्रमण करेंगे। मायण की सेना अधिकांशतः घुड़सवारों की ही धी। चिण्णम की सेना में घुड़सवार भी धे और पैटल सिपाही भी। दोरसमुद्र में जैसे बिट्टिदेव ने सलाह दी थी, वैसी ही सारी व्यवस्था हुई। एक परिवर्तन हुआ या यह कि चिण्णम के बदले माचण पहले हमला करें।
पोयसलों को एक बात की जानकारी नहीं रही। जग्गटेय साधारण व्यक्ति नहीं धा! काकतीय प्रोल को हराते समय उसने जिस युद्ध-तन्त्र का उपयोग किया था, उसी तन्न से काम लेने की योजना उसने बना रखी थी। जिरह-बखार से लैस होने पर भी सिपाही साधारण नागरिक जैसे रहें, खासकर व्यापारियों की तरह अनंक दलों में गाँव-गाँव के बाजारों में दुकानें फैलाकर व्यापारियों का-सा स्वाँग रचकर सबकी आँखों में धूल झोंकते हुए ये दल बढ़ते जाएँ और दोरसमुद्र और कलसापुर के बीच के जंगल में पहुँचकर अपने साथ लाये हुए शस्त्रास्त्रों को तैयार रखकर नायक को आज्ञा की प्रतीक्षा करें, ऐसा निर्देश उन्हें दिया गया था। वे उसी तरह प्रतीक्षा में रहे। ___ माचण के हमला करते ही शत्रु-सेना ने भारी प्रमाण में उन पर धावा बोल दिया। माचण भयंकर युद्ध का प्रदर्शन करते हुए अचानक पीछे हटने लगा। इसे देखकर जग्गदेव अपनी सेना के गज विभाग को कुछ पीछे हटाने की आज्ञा दं, अपनी अश्व-सेना को पोयसल सेना का पीछा करने का आदेश देकर शेष सेना के साथ अश्व-सेना के साथ हो लिया। जग्गदेव को इस बात का अहसास भी नहीं हुआ था कि पोव्सल-सेना अचानक उसकी सेना के बीच आ सकती है। अपने गुप्तचरों से उसे मालूम हो गया था कि कलसापुर, सखरायपट्टण और चावगज में पोसल सेना युद्ध के लिए तैयार खड़ी है। उसका उद्देश्य था कि रास्ते में जितना • सम्भव हो सके, कम-से-कम हानि लेते हुए बढ़ते जाएँ और दोरसमुद्र पर ही हमला करें। इसलिए उसने सखरायपट्टण का रास्ता ही छोड़ दिया और दूसरे ही मार्ग से
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चला। यदि वेदावती में प्रवाई न होता तो पूर्व-नियोजित रीति से आगं बढ़ जाता ।
और अब तक दोरसमुद्र ही पहुंच गया होता। वहाँ विलम्ब हो गया। उधर से प्राप्त समाचार और रास्ता बदल जाने के कारण उसे अपनी योजना भी बदल देनी पड़ी। उसने वेदावती के उत्तरी किनारे-किनारे डेढ़ कोस पश्चिम की तरफ़ सेना भेज दी। इस कारण वेषान्तर में मौजूद नेगः इस हेन' से अग मला हो गयी।
माचण की सेना पीछे हट गयी थी। उसने समय फ़िजूल गँवाना उचित समझा और मौका भी ऐसा धा। इसलिए पीछा करनेवाली शत्रु-सेना पर सीधा हमला न करके छिपकर तीर बरसाना शुरू कर दिया। इस समय शत्रु-सेना के नायक ने सोचा कि उसके साथ जो सेना मौजूद है, वह शत्रु पर धावा बोलने के लिए अपर्याप्त है। अतः वह थोड़े समय के बाद आकर मिलनेवाली पैदल-सेना और हस्ति-सेना की प्रतीक्षा करते हुए तटस्थ रहा। वह सेना भी आ गयी, परन्तु रसद नहीं आयी। रसद के न आने का कारण जानने के लिए जो दो सबार गये थे, वे भी भागे-भागे लोट आये। उन्होंने घबराते हुए जग्गदेव को खबर दी, "हमारी रसद को शत्रुओं ने रोक रखा है और भारी युद्ध हो रहा है।"
जग्गदेव अब इस दुविधा में पड़ गया कि रसद पाने के लिए सेना को पीछे चनाएँ चा शत्रु-सेना का पीछा करने के तिए आगे बढ़ाएँ। लेकिन उसके लिए सोचने बैंटने का समय नहीं था इसलिए उसने यही ठीक समझा कि शत्रु-सेना का पीछा किया जाए ताकि अग्निम रक्षक सेना भी रास्ते में साथ हो ले और अपनी रसद हमें मिल जाए।
इधर दण्डनाथ माचण की सेना जग्गदेव की सेना के बीच अटक गयी। इस स्थिति की जानकारी मिलते ही तुरन्त दोरसमुद्र को उन्होंने खबर भेज दी। वे लोग तब दोरसमुद्र से बहुत दूर पर नहीं थे। राजधानी की रक्षा के लिए किले के अन्दर पर्याप्त मात्रा में सेना को रखकर स्वयं महादण्डनायक मरियाने युद्ध में जाने के लिए तैयार हुए। गंगराज ने उन्हें राजधानी ही में रोककर खुद सेना का नेतृत्व करने की सूचना दी। महाराज ने गंगराज के नेतृत्व का विरोध नहीं किया और खुद वे और छोटे अप्पाजी बिट्टिदेव सेना के साथ जाएँगे-इस बात की योषणा कर दी। वह जिज्ञासा करते बैठने का समय न था। तत्काल निर्णय हो जाना ज़रूरी था। महामातृश्री एचलदेवी से निवेदन कर उनका आशीवाद पाकर वे दोनों जग्गदेय का सामना करने के लिए निकल पड़े।
महाटण्डनायक को दोरसमुद्र में ही रहना पड़ा। पकती उन के कारण उन्हें राजधानी में ही रहने को कहा गया और इस विषय पर चर्चा करने के लिए मौका ही नहीं दिया। जब महाराज ने यह स्पष्ट कर दिया तो मरियाने ने कहा, "मेरे रहते महाराज खुद आगे बढ़े तो बदनामी मेरी होगी।"
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'प्रभुजी मलेपों के साथ युद्ध के समय आपकी आयु का ख्याल करके आपको राजधानी में ही रहने देकर खुद गये थे या नहीं: अब हम आपको युद्धक्षेत्र में जाने देंगे तो बदनामी हमारी होगी। इसलिए आपका जाना सम्भव नहीं।" बल्लाल ने स्थिति और भी स्पष्ट कर दी।
"परन्तु जब इस युद्ध की सूचना मिली थी तब मन्त्रणा-सभा में यही निश्चय हुआ था कि नेतृत्व के लिए मुझे ही नियोजित करेंगे। रोक दें तो, इसका यही माने हैं कि सन्निधान मुझ पर विश्वास नहीं रखते। पोस्सल के राजघराने ने मुझे निचले स्तर से ऊपर उठाया। ओहदा देकर गौरवान्वित किया। इसलिए राजपरिवार का विश्वास प्राप्त कर, युद्ध में मेरे प्राणों का चला जाना मैं अपना सौभाग्य ही मानता हूँ। मेरी निष्ठा में शंका हो तब जीते रहने से मरना ही बेहतर है।" कहते-कहते मरियाने का गला भर आया।
गंगराज ने ही उन्हें सान्त्वना दी, "आपकी निष्ठा पर शंकित होकर यह निर्णय नहीं किया गया है। वास्तव में आपके स्थान पर मैं स्वयं युद्ध का संचालन करूंगा। आप निश्चिन्त होकर राजधानी की निगरानी करते यहाँ रहें। सन्निधान की आज्ञा के पालन करने में हमारा और राष्ट्र का हित है।" इतना समझाकर इस चर्चा को समाप्त किया। और फिर महाराज आदि युद्धक्षेत्र की ओर चल पड़े।
चाहे कोई कुछ कहे, जितनी भी सान्त्वना दे, मरियाने का दिल नहीं मान रहा था। उन्हें अपने ही ऊपर घृणा होने लगी। राजधानी के लोगों को अभी शरणस्थली में भेजने का निर्णय नहीं लिया गया था। युद्धक्षेत्र से सूचना की प्रतीक्षा थी और उस कार्य की जिम्मेदारी संरक्षक दल की थी। उसे भी मरियाने की ही देखरेख में कार्यरत होना था। प्रतिदिन पद्मला इस बात की खबर बड़े उत्साह के साथ देती थी कि क्या काम हुआ और क्या नया काम उसने सीखा। वास्तव में पद्मला को शान्तला की शक्ति, उसका सामर्थ्य, औचित्यज्ञान आदि का पूर्ण परिचय मिल गया था। खुले दिल से पद्मला अपने माँ-बाप के सामने शान्तला की प्रशंसा किया करती। महादण्डनायक के परिवार को यही मालूम था कि उनका युद्धक्षेत्र में जाने का समय सन्निहित है, परन्तु स्वयं महाराज और उनके भाई ही गये, मरियाने को पीछे छोड़ गये-यह खवर सुनकर पचला का उत्साह भंग हो गया। भावी जीवन के बारे में पद्मता और शान्तला के बीच जो बासचीत हुई थी, उसकी पृष्ठभूमि में पद्मला व्याकुल हो उठी। मरियाने तो एकदम निराश हो गये थे और वह उसे छिपा भी न सके थे। पिता का चेहरा देखते ही पद्मला उनकी निराशा जान गयी।
दण्डनायिका को इससे बहुत क्षोभ हुआ, उसे गुस्सा आया। उसने आकर अपनी बेटी से कहा, “देखो बेटी, तुम जिसकी प्रशंसा कर रही थी उसी हेग्गड़े परिवार का वह प्रसाद है।"
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"मुँह बन्द कर!" मरियाने ने गरजकर छाँट दिया।
यह गर्जन सुन पद्मला की छाती धड़कने लगो। अपने पिता को इस तरह क्रोध में जोरदार झिड़की देते उसने कभी नहीं देखा था।
"मुझ पर क्यों गुस्सा करते हैं? सच्ची बात कही तो इतना शोर क्यों?"
"अगर सच्ची बात कहना-समझना इस जिन्दगी में तुम सीख लेती तो मेरी और मेरी बेटियों की जिन्दगी यों बरबाद न हुई होती, इस बुढ़ापे में मेरे जीवन पर कलंक नहीं लगता।" ___ "उन्होंने ऐसा भी किया।
"उन्होंने नहीं; इस सबका कारण तो तुम हो। अम्माजी, मुझे क्षमा करना बेंटी। तुम्हारा भविष्य सन्दिग्ध स्थिति में पड़ा है, इसका कारण क्या है यह तुम नहीं जानती । इसका कारण तुम्हारी मां के कार्य हैं। उसने जो किया, उसके साथ मैंने जी सहानुभूति दिखायी. उसी का यह परिणाम है। वास्तव में महाराज, महामातृश्री हमारे पूरे परिवार को ही शंका की दृष्टि से देखने लगे हैं। ये उदार हैं, इसलिए हमें दण्द न देकर चुपचाप बैठे हैं। उनकी उदारता और बड़प्पन की हम बराबरी नहीं कर सकते। तुम्हारी माँ के स्वार्थ ने उससे ऐसा कराया जिसे करना नहीं चाहिए। उसके इस नीच कार्य के कारण अब हमें मुंह छिपाकर कहीं भाग जाना होगा। इस आखिरी वक्त पर यदि यह कहा जाए कि मेरे सेना नायकत्व की उन्हें ज़रूरत नहीं तो यही समझना चाहिए कि उनका हम पर विश्वास नहीं रह गया है। महारानी केलेयब्बरसी जी के प्रेम, आदर तथा औदार्य में पलकर यह शरीर बढ़ा है, और यह आज राष्ट्र-रक्षा के कार्य के लिए अनुपयुक्त माना गया है। अब जिन्दा रहने का क्या प्रयोजन?" फिर दण्डनायिका की ओर मुड़कर बोले, "तुम अली प्रधान को बहिन और दण्डनायिका बनकर अकड़ती रहो। मैं और मेरी बेटियों कहीं दूर चले जाएँगे। वो अपमानित होकर जीवन बिताते यहाँ रहना मुझसे सम्भव नहीं। इस सबका कारण हो तुम। तुम्हारा उस वामाचारी का आश्रय लेना, तुम्हारा उसकं यहाँ जाना, उसे रहस्यमय ढंग से अपने यहाँ बुलवाना-उसी सबका यह नतीजा है। पागल बनकर वह अंजन लगवाने का काम क्यों कराया? मेरी और मेरी बच्चियों की इस दुर्दशा का मुख्य कारण यही है। बेटी चलो, क्या सब गुजरा है। उसे बता देने से मेरे दिल का बोझ कम हो जाएगा, चलो सब-कुछ बता दूँगा।'' यह कह दण्डनायक बच्चों को लेकर चलने लगे। ___ अब इतनी लम्बी अवधि तक जिस बात को बेटियों से गुप्त रखा था, उसी को क्षण-भर में इस ढलती उम्र में खोल दिया जाए इससे चामध्ये झुंझला उठी, "पूरी घटना बताने पर कुछ अनहोनी हो जाए तो क्या होगा आपकी सम्मति से ही
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तो गुजरी होंगी। उनके कुछ परिणामों को हमें ही भुगतना होगा। बच्चों को यह सब बातें नहीं बतानी चाहिए। अब भी मैं भगवान की सौगन्ध खाकर कहूँगी कि मैंने जो भी किया, अपनी बच्चियों के हित की दृष्टि से ही।" ।
"नहीं, तुमने जो कुछ किया वह हेग्गड़े परिवार के प्रति ईर्ष्या के कारण । इसीलिए तुमने हमारे घर के गोबर के साथ उन मनहूस ताबीजों को हेग्गड़े परिवार की बुराई चाहकर उनके घर भेज दिया और खुशी मनाची निर्दोष की बुराई चाहने पर तो उसका उल्टा असर बुराई करनेवाले पर ही पड़ता है-इस बात को अच्छी तरह याद रखो।" मरियाने ने कहा।
"इसलिए तुमने यह झूठ कहा कि वे हमारे नहीं। है न?" पद्यला ने माँ से कुछ गरम होकर पूछा। शान्तला ने जो सवाल उससे किये थे, वे मूर्तिमान होकर उसके दिल में उठ खड़े हुए। इसीलिए शायद पद्मला की बातों में इतनी कठोरता थी।
"उसका रहस्य न खुले, इसलिए ऐसा कहा था।" चामब्ये बोली।
"तुम समझती हो कि बह रहस्य है! उसके बारे में सारा राजमहल जानता है। हेगड़े के घर में सब जानते हैं। अगर कोई नही जानती तो मैं और मेरी वहिनें। अब मेरी समझ में आया है। तुमने पदकवाला हार इन्हीं मनहूस यन्त्रों के लिए बनवाया है। पिताजी को शायद पहले से ही शंका रही होगी इसलिए जब योप्पि ने दिखाया तो उन्हें पसन्द नहीं आया था। तुमने इसलिए कहा था कि उसे हमेशा पहने रहना चाहिए।" यह कहते हुए पद्मला ने अपने गले के उस हार को निकालकर फेंक दिया। ज़ोर से फेंकने के कारण उस पदक का ढक्कन खुल गया। ___"अब उसमें वह यन्त्र नहीं है, अम्माजी। हार पर गुस्सा क्यों करती हो?" मरियाने ने कहा।
"वही मेरे गले के मंगलसूत्र के लिए बाधक बन रहा है, पिताजी। इसलिए निकाल फेंक दिया। बदि इससे आपका मन दुःखी हुआ हो..."
"मुझे तनिक भी दुःख नहीं। मेरी केवल एक ही इच्छा है कि तुम्हारी आशाआकांक्षा सफल हो। लेकिन आज के वातावरण को देखने से लगता है, यह आशा केवल आकाश-कुसुम है।" ____ 'अप्पाजी, मुझे अपना भविष्य खूट बनाना है। इसलिए क्या सब गुजरा है, उसे कृपा करके मुझे बता दीजिए। बाद में..."
चामचे बीच में बोल उटी, "आप कुछ न कहें। मैं ही सब बता दूँगी, क्योंकि आपको भी सब मालूम नहीं है।" ___"तुम्हारे कहने में कोई बाधा नहीं। परन्तु मुझे ही पहले बताने दो, क्योंकि तुम्हारा नमक-मिर्च लगा किस्सा अम्माजी के भविष्य को कभी अच्छा नहीं बना
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सकता "
"तो क्या आप भी मुझ पर विश्वास नहीं रखते? जो कुछ मैं कहूँगी वह सब नमक-मिर्च लगाकर ही कहूँगी, यही आप सोचते हैं? मुझे सताना ही आपको पसन्द है न?"
“बको मत, जरा जबान पर काबू रखो। जो चाहे कहने के लिए आजाद हो गयी न? मैं भी कहूँगा, तुम भी हो। सच्चियाँ अब सवानी हो गयी हैं। ये ही निर्णय कर लेंगी।"
"तो क्या सभी बच्चियों से कहेंगे?"
“हाँ, मेरे घर में क्या सब गुजरा है, वह सभी बच्चियों को मालूम होना चाहिए। मालूम होने पर ही भावी परिस्थितियों का सामना करने के लिए उन्हें साहस होगा। दडिगा, दड़िया...!"
मालिक की इस ऊँची आवाज को सुनकर नौकर दडिगा भागा भागा आया । "बच्चियाँ कहाँ हैं" मरियाने ने पूछा।
"हेरगड़तीजी की बेटी के साथ कमरे में हैं ।"
“शान्तला आयी है? कब आयी" पद्मला ने पूछा ।
" आपको खोजती हुई आर्य, कुछ देर पहले ही । मैंने जब कहा कि आप मालिक से बातचीत कर रही हैं तो वहीं कमरे में बैठ गयीं ।"
पद्मला ने पिता की ओर इस तरह देखा मानो पूछ रही हो कि अब क्या करें? "दडिगा, जाओ, सबको मेरे कमरे में ले आओ ।" मरियाने ने कहा । ""मैं खुद जाकर बुला लाऊँगी।" कहकर पद्मला चली गयी। दडिगा लौटकर अपने काम पर लग गया।
" उससे सब कह देंगे?" चामब्बे का फिर वही सवाल था । "मैं कुछ भी करूँगा। तुम्हें मतलब?" दण्डनायक गरज पड़े। “आपकी विचारशक्ति लुप्त होती जा रही है, इसीलिए शायद महाराज ने आपको युद्ध क्षेत्र में जाने नहीं दिया।"
मरियाने ने गुस्से में लाल होकर दण्डनायिका की ओर देखा। उनके होठ काँप रहे थे। एक-दो मिनट तक इसी तरह देखते रहने के बाद कुछ बोले बिना झटके से अपने कमरे में चले गये।
असल दुःख से बोझिल हो दण्डनायिका घुटनों के बीच सिर रखकर सिसक-सिसककर रोने लगी।
शान्तला को देखते ही पद्मला समझ गयी कि वह शरणस्थली ले जाने के लिए आयी है। उसने अपने पिता की इच्छा के बारे में बताया तो सब एक साथ दण्डनायक के कमरे की ओर चल पड़ीं।
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मरियाने चिन्तामग्न हो पलंग पर बैठे थे। बच्चों के आने का भान होते ही किवाड़ की ओर देखा और बोले, "आओ!"
सब अन्दर आ गयीं। मरियाने ने शान्तला की ओर देखकर पाछा, 'क्यों शान्तला, किसी काम से आयी हो बेटी"
"हाँ, एक जरूरी काम था। हमें शरणस्थली जाना था। वहाँ पद्मला की गुरुजी हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं।" ___ “ठीक है। मुझे भी वहाँ काम है। अब हम सब ही चलेंगे। वहाँ पादत्राण और ढाल-तलवार, खुखड़ी-खड्ग, अंकुश-भाले आदि के निर्माण का काम हो रहा है। मुझे उसकी देखभाल करने जाना है। शत्रुओं की अग्रिम सेना में हस्तिबल होने के कारण हमारे मामूली तीर उतने उपयुक्त नहीं होंगे, इसलिए इन तीरों को तेज्ञ बनाकर तैयार कराने का काम हो रहा हैं। नये क़िस्म के तीर तैयार कराये जा रहे हैं। इसके लिए उपयुक्त लौह मिश्रा भी काम चल रहा। को भी ऐसे लौह से तैयार कराने का विचार है। कल की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त सामग्री तैयार हुई है या नहीं इसे भी देखना है। युद्ध अव राजधानी के पास तक पहुँच रहा है, इसलिए हथियार तैयार करने का कारखाना अब पश्चिम-दक्षिण के कोने के एक गुप्त स्थान पर स्थानान्तरित कर रखा है। हेग्गड़े मारसिंगय्या जी उसकी देखभाल के काम में लगे हैं। उन्हें तो वहीं से हिलना-डुलना तक भी नहीं। उन्हें घर से गये एक सप्ताह से भी अधिक समय हो गया होगा; है न" महादण्डनायाक मरियाने ने कहा। ___"अप्पाजी घर आये नहीं, सच है, परन्तु वे इस कारखाने की निगरानी कर रहे हैं, यह बात हमें मालूम नहीं थी।" शान्तला ने कहा।
"उन्होंने घर पर नहीं बताया?"
"राजाज्ञा के अनुसार यह तो बहुत ही गुप्त विषय हैं न? इसलिए नहीं कहा होगा।" शान्तला ने सहज ढंग से ही कहा।
महादण्डनायक की बच्चियों ने शान्तला और कुछ चकित हुए अपने पिता की ओर देखा।
महादण्डनाबक उठकर चलने लगे तो सब उनके साथ हो ली। सबके सवार होते ही घोड़ों का रथ चल पड़ा। उन्होंने रास्ते में बच्चियों को उतारकर कारखाना देखने के लिए भेज दिया और खुद हेग्गड़े से मिलने चले गये। यहाँ युद्धक्षेत्र से सन्देशवाहक आये हुए थे। हेग्गड़े मारसिंगय्या पत्र पढ़ रहे थे। सन्देशवाहक दूतों ने वह पत्र उन्हें दिया था। हेग्गड़े पत्र पढ़ ही रहे थे कि दण्डनायक वहाँ पहुँच गये। उन्हें देखते ही हेग्गड़े उठ खड़े हुए, प्रणाम किया, पत्र को पूरा पढ़े बिना ही तहकर दण्डनायक के हाथ में देने को आगे बढ़े।
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"आप पढ़ चुके?" परियाने ने पूला । "अभी नहीं।" "आप पढ़ लीजिए, मैं बाद में पढ़ लूंगा। कोई खास बात है?" "लगता है कि कुछ खास बात है।" कहकर खड़े-खड़े ही मारसिंगय्या पढ़ने
लगे।
मरियाने एक आसन पर बैठ गये। हेग्गड़े से भी कहा, "बैठिए!"
मारसिंगप्या की शायद बात सुनाई नहीं पड़ी, वे पत्र पढ़ने में मग्न थे। पढ़ चुकने के बाद तह कर मरियाने के हाथ में दे दिया।
उसे लेकर मरियाने बोले, 'बैंठिए!'' . मारसिंगय्या बैठ गये।
मरियाने पत्र पढ़ चुकने के बाद बोले, "ऐसा नहीं होना चाहिए था, हेग्गड़ेजी। महामातृत्री को बड़ा सदमा पहुँचेगा। प्रमु जब तक जीवित रहे तब तक चिण्णम दण्डनाथ उनके प्राण समान थे। प्रभु का उन पर सबसे अधिक विश्वास था। महामातृथी चिण्णम दण्टनाथ के विषय में बहुत आदर भाव रखती हैं। यह बात दूसरी है कि लोग इसे प्रदर्शित न किया था। व कभी अपने भा को प्रकट रूप से प्रदर्शित नहीं किया करती हैं। सगे भाई से भी ज्यादा उन पर अपनापन रखती रहीं। अब उनके न होने से बहुत बड़ा हदयाघात महामातृश्री को होगा। न, न, ऐसा नहीं होना चाहिए था। उनके बदले में मैं मर जाता तो मेरा जीवन सार्थक हो जाता।"
"किस प्रसंग में कौन-सी बात आप कह रहे हैं? पोरसल राज्य के महादण्डनायक जी के प्राण राष्ट्र के लिए रक्षा-कवच की तरह हैं, अमुल्य हैं।"
__ "मैं अपनी कीमत जानता हूँ। विश्वास खोये हुए पदाधिकारी का पद वरदान नहीं हेग्गड़ेजी, वह एक शाप है। पता नहीं, किसी प्रसंग में एक ग़लती हुई, उस ग़लती मे मेरे समूचे जीवन को घृणित जैसा बना दिया है।" यों ही बातें अधीरतावश दण्डनायक के मुँह से निकल गयीं। ___ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। आप अकारण गलत-सलत भावनाओं के वशीभूत होकर ऐसी बातें कर रहे हैं। आयु, अनुभव और जानकारी-सभी दृष्टियों से आप इस राष्ट्र में बहुत बड़े हैं। स्वर्गवासी महाराज विनयादित्य और प्रभु एरेयंग को जिन बातों का ज्ञान था, उन सभी की आपको भी भलीभाँति जानकारी है। आपको युद्धक्षेत्र की विपरीत घटनाओं के बीच फंसा देने से राष्ट्र के खजाने को लूटने के लिए मौक़ा देने जैसी स्थिति हो जाएगी। इसीलिए आपको युद्ध में न ले जाने का निर्णय किया गया। जहाँ तक मैं जानता हूँ मेरी ये बातें अक्षरशः सत्य हैं। आप व्यर्थ ही चिन्तित न हों। आपसे राष्ट्र को बड़ी-बड़ी अपेक्षाएँ हैं।
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आपसे राष्ट्र का हित जुड़ा हुन है। अरस मिश: देश, एक लोगों को आगे बढ़ाते रहना होगा। आपकी मनःस्थिति का पता हमें अम्माजी द्वारा चल गया है। युद्ध समाप्त होने तक इम संयम से काम लें, बाद में एक-एक कर सब ठीक हो जाएगा। महाराज अभी छोटी आयु के हैं। कभी उन्होंने जवानी के जोश में कुछ कहा हो या कह दें तो उसका ग़लत अर्थ नहीं निकालना चाहिए। फ़िलहाल अपनी वैयक्तिक बातें हम न करें। अब यह जो खबर मिली है, इसे महामातृश्री और दण्टनायिका चन्दला के पास कैसे पहुँचायी जाय? खासकर ऐसे समय में जब दण्डनायिका गर्भवती हैं। प्रसव का समय निकट है। उन्हें यह समाचार सुनाएँ भी तो कैसे?" मारसिंगय्या ने कहा।
"हाँ, मेरा ध्यान उस तरफ़ गया ही नहीं। भगवान दयालु हैं-ऐसा किस मुंह से कहें हेग्गड़ेजी? देखो न, भगवान ने ऐसा क्यों किया? इस बात को हेगड़ती जी के द्वारा महामातृश्री के पास पहुँचाने की व्यवस्था आप ही करें। वे दण्डनायिका चन्दला जी को कैसे बताएंगी-खुद महामातृश्री ही सोचकर तय करें। हम इस खबर को छुपाकर भी नहीं रख सकते। दण्डनाथ जी का पार्थिव शरीर राजपर्यादा के साथ राजधानी में आनेवाला हैं।' मरियाने ने बताया।
"राष्ट्र-गौरव के साथ राजधानी में आने के माने है कि जीत हमारी हुई है न?" कहती हुई शान्तला वहाँ आयी। दण्डनायक की बेटियों भी साथ थीं। वे कार्यागार को देखकर आयीं थीं।
“हाँ शान्तला, जीत हमारी हुई है यह तो निश्चित है परन्तु इसके लिए भी युद्ध करना है। हेग्गड़ेजी, आप इस विषय को घर पर सोचें और उस पर विचार-विमर्श कर लें, और तब उचित रीति से सन्निधान को यताएँ। आपकी बेटी साध रहेगी तो अच्छा होगा। उसकी सूक्ष्म बुद्धि को भी कुछ सूझेगा। आपने इस काागार की खबर घर पर नहीं दी, मालूम पड़ता है।" महादण्डनायक ने कहा। ___ "प्रभु की आज्ञा का पालन करना मुख्य है। जिन्हें जानना है वे जानते ही हैं। आज्ञा हो तो चलूँ: चलो अम्माजी?" मारसिंगच्या ने आदेश प्राप्त किया।
"तुम्हारा घोड़ा है, अम्माजी?" महादण्डनायक ने पूछा। "वह भी इसी घोड़े पर चलेगी।" मारसिंगय्या बोले। दोनों चले गये।
"शान्तला को भी हेग्गरेजी के साथ जाना चाहिए था, अप्पाजी? अभी तो हम सयको गुरुजी के पास जाना था!" पद्मला ने पूछा।
"गुरुजी को मैं खबर दे दूंगा। तुम लोग चिन्ता मत करो। यदि बेटी की शरूरत नहीं होती तो हेग्गड़ेजी अकेले ही चले जाते। थैठो, जो बातें तुम लोगों को अब तक नहीं बतायीं, उन्हें अब बता देता हूँ। मैं जो बताऊँ उसे अपनी अम्मा
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से नहीं कहोगी और वह क्या कहती है, सब सुन लिया करो, बाद में आगे की . सोचेंगे।" परियाने बोले।
"हाँ, वैसा ही करेंगी। अभी युद्ध का समाचार..." पद्मला ने बात शुरू की।
“आप लोगों तक पहुँचाने लायक कोई समाचार नहीं है। मैं जो कहता हूँ ध्यान से सुनो।" कहकर उस वापाचारी की समस्त बातें हू-ब-हू बता दी। पिता से मारी बातें सुन देटियाँ भौचक्की रह गयीं।
ईष्या मनुष्य को कितना नीचे गिरा सकती है-इसके लिए इससे बढ़कर दुसरा प्रमाण नहीं मिलेगा, पिताजी।" पान ने कहा !
"तुपको तो ईर्ष्या नहीं है न?" "थी, एक समय। अब नहीं है।''
हेगड़जी ती ख़रा सीना हैं। इसे समझने के लिए मुझको ही. काफ़ी समय लगा। मनुष्यों की कसौटी पर कसकर देखने में प्रभूजी निपूण थे। वे व्यक्ति के स्थान-मान पर नहीं, उसके साँचे व्यक्तित्व का मूल्य समझते थे। यह कितना महान गुण है! यह हमने समझा नहीं। इसलिए हम ठोकरें खाकर गिरते गये। फिर भी उन्होंने क्षमा दी थी। समझो कि वे कितने उदार थे! ऐसे प्रभु का बुरा सोचा गया! अब इसका कौन-सा प्रायश्चित्त होगा?" मरियाने बोले।।
"जो क्षमाशील होते हैं, वे सदा क्षमाशील ही रहेंगे। अब हमें राजपरिवार के अन्तस् में यह भाव लाने होंगे कि वास्तव में हम क्षमा योग्य हैं।" पद्मला ने कहा।
"तुम्हारी माँ को वह काम करना चाहिए। बेटी, तुम लोगों का तो कोई अपराध नहीं। अपराध किया उसने। उस अपराध से तुम लोगों को बेखबर रखनेवाली तो वह है। उसे ही यह काम करना होगा। परन्तु उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता।"
बेटियों को माँ के व्यवहार से उसके प्रति नफ़रत की भावना पैदा होने लगी। उनकी दृष्टि में वह माँ नहीं, कोई और ही लग रही थी। सभी बेटियों मौन हो बैठी रहीं।
ऐसे बँटे रहना कब तक सम्भव धा? महादण्डनायक भी अपना काम समाप्त कर लौट आये। तब तक बच्चियों की अध्यापिका भी वहाँ आ गयी थी? सब उटकर महादण्डनायक के महल की ओर चल पड़े। ___इधर घोड़े को सरपट दौड़ाले मारसिंगय्या और शान्तला घर पहुँचे और हेगड़ती माचिकलने की खबर सुनायी। सुनते ही उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बहिने लगी। कुछ देर बाद आँसू पोंछती हुई अवरुद्ध गले से बोली, "भगवान के घर न्याय नहीं रहा। अच्छों को जीवित नहीं रहने देता। दण्डनायिका चन्दलादेवी का क्या हाल होगा? उन्हें यह समाचार सुनाएं तो कैसे?"
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"चाहे जो भी हो, समाचार तो पहुँचाना ही होगा। पहले महामातृश्री को समाचार से अवगत करा देते हैं। फिर जैसा कहेंगी वैसा ही करेंगे। आप दोनों भी गाड़ी से वहाँ आ जाएँ।" मारसिंगय्या ने कही।
और तुरन्त उनकी गाड़ी राजमहल की ओर चल पड़ी।
शान्तला जऔर माचिकब्बे के यहाँ पहुंचने से पहले ही अपने घोड़े पर सवार होकर मारसिंगय्या राजमहल में पहुंच गये थे। वह अन्तःपुर में खबर पहुँचाकर सन्निधान के दर्शन की अनुमति पा चुके थे। गाड़ी से उतरते ही माचिकच्चे और शान्तला हेग्गड़े के साथ अन्तःपुर की तरफ़ चली गयीं।
रेविमय्या वहीं खड़ा था। उसकी ओर देखे बिना ही शान्तला जब तेजी से चली गयी तो वह एकदम चकित हो गया। शायद कोई पहत्त्वपूर्ण समाचार होगा दिल को झकझोरनेवाला। मन-ही-मन एसा सोचता वह भी धीरे-धीरे उनके पीछे चल
पड़ा।
___ आदेशानुसार हेग्गड़े, हेगड़ती और शान्तला, तीनों अन्तःपुर के बरामदे में जा बैठे। बैठने के एक-दो क्षण के अन्दर ही महामातृश्री एचलदेवी वहीं आ गयीं।
तीनों ने उठकर प्रणाम किया।
"हेगड़ती जी, बहुत समय के बाद चन्दलदेवी दण्डनायिका के गर्भ हुआ। आज बहुत कष्ट झेलने के बाद पुत्ररत्न को जन्म दिया है। तुरन्त मुझसे मिलने के इरादे से बुलवा भेजा है। मैं हो आती हूँ। तब तक आप लोगों को यहाँ मेरी प्रतीक्षा करनी होगी।" एचलदेवी ने कहा।
"यदि ठीक समझें तो हम भी सन्निधान के साथ चलें ।" माचिकब्बे ने कहा।
"चलिए, जच्चे-बच्चे को आप भी देख लेंगी। आप लोगों के आने का समाचार मिलने से पहले यह खबर हमारे पास आयी थी। यह समाचार भी मिला कि बहुत रक्तस्राव के कारण दण्डनायिका अत्यन्त दुर्बल हो गयी हैं।'
'हे परमेश्वर !'' माचिकच्चे के मुँह से निकला। ''क्यों? क्या हुआ?" एचलदेवी ने पूछा।
शान्तला और मारसिंगय्या दोनों ने हेग्गड़ती की ओर प्रश्नार्थक दृष्टि से देखा। माचिकळ्ये ने अपनी ग़लती को तुरन्त समझ लिया और कहा, "बहुत रक्तस्राव की बात सुनकर कुछ घबरा गयी।''
बात यहीं सक गयी। सब दण्डनायिका चन्दलदेवी को देखने के लिए आतर हो उटे थे। सो उनके घर जा पहुँचे।
तब तक पता नहीं कितनी ही बार चन्दलदेवी ने अत्यन्त क्षीण स्वर में पूछा था कि अभी महामातृश्शी आयीं नहीं: जब ये सब प्रसूतिगृह में पहुँचे उस समय भी यही पूछ रही थीं। जब चन्दलदेवी की दृष्टि उन पर पड़ी तो उनके मुख पर
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एक तृप्ति की छाया झलक आयी। उसने बड़ी कठिनाई से धीरे-धीरे अपने दोनों हाथ छाती पर लाकर जोड़ लिये, उन्हें उठा न सकी। फिर धीरे से एक हाथ थोड़ा उठाकर बैठने का अनुरोध किया। मार्चिकब्बे और एचलदेवी दोनों उनके दोनों तरफ़ बैठ गयीं। शान्तला दूर खड़ी रही।
चन्दलदेवी ने बहुत परिश्रम से अपना दायाँ हाथ धीरे से एचलदेवी की गोद में सरकाकर, प्रयास से साँस लेकर धीमी आवाज़ में कहा, "भगवान ने कम-से-कम मुझ पर इतनी कृपा तो की ।"
"भगवान में आपको सब कुछ दिया है। आप बड़ी भाग्यवती हैं।" स्नेह व सहानुभूति से एचलदेवी बोलीं ।"
"वही, कुछ सान्त्वना है ! परन्तु...
"परन्तु क्या?"
"परन्तु..." कहते-कहते उसका गला भर जाया ।
उधर माचिकब्बे मन में उमड़ती पीड़ा को रोकने की अथक कोशिश कर रही थी। उससे जब नहीं रहा गया तो वह फफक पड़ी।
एचलदेवी ने माचिकब्बे और चन्दलदेवी, दोनों को ढाढस बँधाया। थोड़ी देर वहीं मौन छाया रहा ।
कुछ देर बाद अपने रस्ते होटों को जीभ से तर करते हुए चन्दलदेवी ने कहा, "बच्चा... कहाँ ?”
"बगल के कमरे में सोया है " धाय ने कहा ।
"उठाकर ले आओ।"
" सो रहा है। हम खुद जाकर देख आएँगे। आप चिन्ता न करें।" एचलदेवी ने समझायी ।
“इस समय वे भी तो सामने नहीं हैं। अब इस वक़्त जब आखिरी साँस ले रही हूँ बच्चे को देखे बिना कैसे रहूँ? हाय, बच्चे को लाइए। उसको देखते हुए अन्तिम साँस निकल जाए ।" एक साँस में बोल न पाने के कारण चन्दलदेवी रुक-रुककर बोलीं ।
धाय ने महामातृश्री की ओर देखा। उन्होंने कहा, "माँ की सहज इच्छा होती है कि बच्चा पास रहे। बच्चे को जगाये बिना धीरे से उठा लाओ। यहीं लाकर सुला दो ।"
धाय गयी और बच्चे को ले आयी ।
शान्तला धाय के पीछे यन्त्र चालित-सी गयी और लौटकर महामातृश्री के निकट खड़ी हो गयी। बच्चे को बग़ल में लिटाते देख चन्दलदेवी ने कहा, "बच्चे को सन्निधान के हाथों में दो "
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धाव ने फिर महामातृश्री की ओर देखा । महामातृश्री ने दोनों हाथ आगे चढ़ाकर बच्चे को ले लिया ।
बच्चे को देखकर महामातृश्री एचलदेवी ने कहा, "आपका बेटा बड़ा सुन्दर है। दाविका जी मेरी है कि आपका बेटा आयुधा और कीर्तिशाली हो।" बच्चा इतने में जाग गया, आँखें खोल दीं। हाथ उठाकर हिलाने लगा । शान्तला ने थोड़ा-सा झुककर उसका हाथ पकड़ा, बच्चा हँसने लगा ।
" सन्निधान का आशीर्वाद पूर्ण हो। मेरी दो विनती हैं। मैं अपने पतिदेव से कहकर उनकी सम्मति ले आपकी सेवा में निवेदन करना चाहती थी। लेकिन अब वह नहीं हो सकता। वे युद्धक्षेत्र में शत्रुओं के खून बहाने में मस्त हैं। युद्ध समाप्त होकर उनके लौट आने तक मैं जीवित नहीं रहूंगी।"
"ऐसा मत कहिए, दण्डनायिका जी कुछ कमजोर होने मात्र से आपको यह सब नहीं सोचना चाहिए। सब ठीक हो जाएगा।" एचलदेवी ने कहा ।
"मैं अपनी हालत अच्छी तरह समझती हूँ, राजमाता। इसलिए मैं आपकी सेवा में अपनी विनती प्रस्तुत करना चाहती हूँ। वह मेरी अन्तिम आकांक्षाएँ हैं, आप इन्हें पूरा करेंगी, ऐसा मुझे भरोसा है।" चन्दलदेवी ने धीमे से कहा ।
"राजघराने ने कब किसकी सात्त्विक आकांक्षाओं को पूरा नहीं किया है, दण्डनायिका जी ! राजघराना आपकी आशा-आकांक्षाओं की पूर्ण करेगा ।"
"अगर मेरी हैसियत से भी अधिक की आकांक्षा हो तो?"
"ऐसी कोई आकांक्षा आपके मुँह पर आएगी ही नहीं। आप अधिक बातचीत करने से थक जाएँगी।"
"यह धक्काबट जल्दी ही सदा के लिए मिट जाएगी, मेरा अन्तरंग यही कह रहा है। इसलिए जो कहना चाहती हूँ उसे कह डालने की आज्ञा दीजिए।" "कहिए।"
बच्चे को इस तरह लिये रहने से महामातृश्री के हाथ न थक जाएँ यह सोचकर शान्तला ने धीरे से कहा, "मैं बच्चे को अपने हाथों में ले लूँ?"
चन्दलदेवी की दृष्टि शान्तला की ओर गयी। "ले लो अम्माजी। अच्छे पुण्यवानी के हाथों में पलकर बच्चा बड़ा हो और अपने वंश की कीर्ति बढ़ाए, में यही चाहती हूँ । दण्डनाथ को छोटे अप्पाजी पर बहुत गर्व है। अपना बच्चा भी उनके जैसा बने, यही उनकी आकांक्षा है। युद्धक्षेत्र से लौटने पर में स्वयं यह प्रार्थना करेंगे। उन्होंने कुलदेवता की मनौती की थी कि यदि इस बार पुत्र सन्तान हो तो उसका नाम 'बिट्टि' ही रखेंगे। यह शायद अनुचित आशा हो, फिर भी निवेदन कर रही हूँ डरते-डरते। उसे इस नाम से अभिहित करने का अनुग्रह राजघराना करे - यही निवेदन है। मेरे न होने अथवा दण्डनाथ के युद्धभूमि से न
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लौटने की स्थिति में मेरी प्रार्थना हैं कि बच्चे का यही नाम रखा जाए। यह तो . हुई मेरी पहली प्रार्थना। मेरी दूसरी प्रार्थना यह है कि बच्चा अच्छा योद्धा और राष्ट्रभक्त बने, इसके लिए राजघराना उचित शिक्षा की व्यवस्था करे। मेरी दो बच्चियाँ हैं उन्हें...न, न, मेरे मुँह से ऐसी वात; दण्डनाथ जी योग्य वर ढूंढकर उनका विवाह कर देंगे। मेरी ये दो आशाएं सफल करने का आश्वासन मुझे मिले तो मेरे प्राण निश्चिन्त होकर निकलेंगे।" कहती हुई चन्दलदेवी ने अपना हाथ एचलदेवी की गोद में रख दिया। उनकी आँखें एचलदेवी को ही देखती रहीं। तब तक शान्तला ने बच्चे को अपने हाथों में ले लिया था।
एचरलदंवी ने चन्दलदेवी का हाथ अपने हाथों में लेकर कहा, "आपके कहे अनसार ही करेंगे। आप आराम कीजिए। अब हम चलेंगे। और चन्दलदेवी का हाथ धीरे-से एक ओर कर एचलदेवी उठ खड़ी हुईं। ___ माचिकब्बे भी आँसू पोंछती उठी और एचलदेवी से पहले ही कमरे से बाहर आ गयीं। बच्चे को धाय के हाथों में देकर शान्तला भी एचलदेवी के पीछे-पीछे चली आयी। माचिकब्धं जो पहले ही बाहर आ गया था, वहीं बेठी सिसक-सिसककर रोती रहीं । शान्तला माँ के पास जाकर बोली, "उठो मां, सन्निधान चलने को तैयार खड़ी हैं।"
हेगड़े मारसिंगय्या वहाँ आये। बोले, "अम्माजी, तुम सन्निधान के साथ आगे चलो। मैं तुम्हारी माताजी को ले आऊँगा।' उन्हें पहले ही सब समाचार मालूम हो गया था। वास्तव में चिण्णम दण्डनाथ के वीरगति पाने का समाचार अभी तक सन्निधान को मालूम नहीं कराया गया था। अभी मालूम कराएँ या नहीं इसके बारे में वह सोच रहे थे। पत्नी के कन्धे पर हाथ रखकर कहा- "उठो, सन्निधान के समक्ष हमें संचम से रहना चाहिए।" ___"क्या करें, मेरा हृदय फट रहा है। हृदयान्तराल को इस बात का ज्ञान नहीं कि सन्निधान पास में हैं। मैं क्या करूं?" सिसकती हुई माचिक ने कहा । इच्छा के विरुद्ध उनकी आवाज़ ऊंची हो गयी थी। आवाज एचलदेवी को भी सुन पड़ी होगी, इसलिए वे लौट पड़ी।
"देखो, सन्निधान को भी लौटना पड़ा।" मारसिंगय्या ने फुसफुसाया।
"हेग्गड़ती जी, यहाँ की सारी हालत हम सबने एक साथ देखी है। परिस्थिति जैसा आपने कहा, दिल दहलानेवाली है। हम ही अगर अधीर हो बैठे तो उस बच्चे की माँ की क्या दशा होगी: अच्छा किया कि आप बाहर आ गयीं। उनके सामने ऐसा करती तो शायद उसे देखकर ही उनके प्राण-पखेरू उड़ जाते। मैं देख रही हूँ कि आप कुछ असहनीय दुःख का अनुभव कर रही हैं। इस दुःख भार को हल्का करना हो तो उसे दूसरों के साथ बाँट लेना चाहिए।" एचलदेवी बोली।
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वहाँ के नौकर-चाकरों को बाहर भेजकर किवाड़ बन्द करके मारसिंगव्या ने धीरे-से एचलदेवी को समाचार सुनाया।
सुनते ही एचलदेवी एकदम स्तम्भित हो गयीं। माचिको कुछ ढाढस के साथ उठ खड़ी हुईं। एचलदेवी फिर प्रसूतिगृह की ओर चल दी।
मारसिंगय्या ने जल्दी-टल्दी आगे बढ़कर किवाड़ धीरे-से सरकाया। चन्दलदेवी मौन लेटी थीं। उसके सिरहाने पर कोने में धाय बच्चे को गोद में लिटाये बैठी थी। किवाड़ के खुलते ही घबराकर धाय ने पूटा, "कौन?"
"सन्निधान फिर आ रही हैं।" मारसिंगय्या ने कहा। वह घबराकर खड़ी हो गयी। एचलदेवी अन्दर गयीं। मारसिंगय्या ने अपनी पत्नी को बाहर ही रोक रखा। पिता के उद्देश्य को समझकर शान्तला माँ के साथ बाहर ही खड़ी रहीं। यहाँ एक तरह का गम्भीर मौन छाया रहा। ___चलदेवी चन्दलदेवी की बग़ल में बैठकर सोच में डूब गयीं। इस बुरी खबर को कैसे सुनाएँ: इसी चिन्ता में वे अन्यत्र देखने लगीं। फिर चन्दलदेवी का हाथ अपने हाथ में लिया। फिर हाथ को तुरन्त छोड़कर ओढ़नी निकालकर उनका पैर छूकर देखा, गाल पर हाथ रखा, टुइडी पकड़कर हिलाया। पुकारा, "दण्डनायका जी।" और उनकी आँखों की ओर एकटक देखने लगीं। उस समय चन्दलदंवी की दृष्टि ही ऐसी लगती थी।
"दण्डनायिका जी, ऐसा क्यों देख रही हैं। बोलिए।" कहती हुई चन्दलदेवी के शरीर को एचलदेवी ने हिलाया। चन्दलदेवी का सिर निराधार-सा एक तरफ़ लुढ़क गया । एचलदेवी ने उनकी नाक के पास उँगली रखकर देखा । बोलीं, ''जल्दी जाकर वैद्यजी को चला लाएँ।"
मारसिंगय्या भागे और तुरन्त वैट को बुला लाये। इतने में शान्तला और माचिकब्बे अन्दर जाकर हाथ चाँधे खड़ी हो गयीं। वैद्य ने नब्ज देखी, आँखों के पलक उठाकर देखने की कोशिश की। कई तरह से जाँच करने के बाद यह उठ खड़े हुए, और सिर झुका लिया।
सब समझ गये, चन्दलदेवी अब नहीं रहीं। पुत्रोत्सव की खुशियाँ मनाता घर दुःख में डूब गया। इतने में चन्दलदेवी की दोनों बेटियों भी वहीं आ गयीं और माँ के शरीर पर लोट-लोटकर जोर-जोर से रोने लगीं। मरण से कभी भी विचलित न होनेवाले हेग्गड़े भी दीवार की ओर मुंह कर रो पड़े।
धाय की छाती से चिपका शिशु निश्चिन्त सो रहा था। जन्म देनेवाली माँ के प्रेम का उष्ण स्पर्श उसे अन्यत्र प्राप्त हो रहा था। एक बार फिर सब सजग हो उठे। एचलदेवी ने कहा, "हेग्गड़ेजी, महाराज के लौटने तक बच्चा आपके यहाँ
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रह। ये दोनों बच्चियाँ मेरे साथ राजमहल चलेंगी। मृत देह को दण्डनाथ जी के शव के आने तक सुरक्षित रखवाने की व्यवस्था कीजिए। उसके आने के बाद इन दोनों, नहीं-नहीं, एक जीव के दो कलेवरों का राष्ट्र-मर्यादा के साथ संस्कार हो। यह एक अपूर्व दाम्पत्य है। हम कितना भी सोचें या रोएँ, वे तो लौटेंगे नहीं। परन्तु भगवान ऐसा क्यों करता है? क्यों सत्पुरुषों को असमय ही इस धरती से उसा लेता है? पर हो, कम-से-कम इतनी कृपा तो उसने की कि एक की मृत्यु की जानकारी दूसरे को न हो पायीं और इस तरह दोनों को एक साथ अपने पास बुला लिया। इतने से हमें अपने को दिलासा दे लेना होगा। उफ़। अब समय नष्ट न करें। दण्डनायिका जी को अच्छी तरह हल्दी रोरी तथा फूलों से सजाकर सुमांगल्यपूर्वक अन्तिम यात्रा के लिए नैगार रखें। इतने में टण्दनाथ जी का भी शव आ जाएगा। उनकी अन्तिम यात्रा की समाप्ति तक हम यहीं रहेंगे। जिन-जिन प्रमुख व्यक्तियों के पास खबर भेजनी हो, भेज दीजिए। दण्डनायिका की मृत्यु का समाचार युद्धभूमि तक पहुँचाने की आवश्यकता नहीं है। यह खबर महादण्डनायक जी को भी दे देनी चाहिए।'
हेग्गड़े पारसिंगय्या “जो आज्ञा" कह वहाँ से चले गये। हेग्गड़ती और शान्तला वहीं रही आयीं। महादण्डनायिका चामब्बे, लसकी बेटियों और बाकी लोग भी शीघ्र वहाँ आ पहुँचे। दण्डनाथ के शव को जिस रथ पर ले आया गया था, उसी में चन्दलदेवी के भी शव को रखा गया और अन्तिम संस्कार के लिए ले जाया गया। मरियानं और मारसिंगच्या की देखरेख में दोनों भौतिक देहों का यथाविधि अन्तिम संस्कार सम्पन्न हुआ।
युद्ध दिन-ब-दिन 'भयंकर रूप धारण करता गया। प्रतिदिन दोनों तरफ़ अगणित सैनिक एकत्रित होते ; पायसनों ने शत्रुओं को रसद पहुँचाने से रोक दिया। फिर भी उनके गजदल को पीछे हटा नहीं सके। गंगराज, डाकरस, महाराज बल्लाल और उनके भाई शाओं का सामना करने में डटे रहे। उधर शत्रुओं को पीछे से नाश करते हुए उनकी आहार सामग्नी को रोककर माचण, छोटे चलिकनायक और रावत मायण आगे बढ़ रहे थे। जग्गदेव के दो सैन्य दलों के बीच पड़कर चिपणप दण्डनाथ के मृत कलेवर को, उसी के साथ घायल होकर गिरा दलनायक जन्निगा हिले-डुले बिना पड़ा रहकर, रात को युद्ध विराम के वक्त किसी तरह अपने मुनाप पर पहुँचकर, इस मृत्यु-समाचार को बताकर मर गया था। रातों-रात चिण्णप दण्डनाथ के मृत शरीर को युद्धभूमि से राजधानी पहुँचा देने का कार्य हो चुका था।
कारखाने में विशेष लौह से तीरों के नोक तैयार कर उनका हस्ति-दल पर
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प्रयोग भी किया गया, फिर भी वे तीर उन हाथियों की चमड़ी को न छेट संके थे। महाराज बल्लाल की सहनशक्ति अब जवाब दे चुकी थी। उन्होंने अब पीछे रहना उचित नहीं समझकर आगे बढ़ने में बिट्टिदेव से विचार-विमर्श किया। आगे बढ़ने के लिए बिट्टिदेव भी सहमत हो गये। परन्तु गंगराज और डाकरस दोनों ने इस तरह आगे बढ़ने नहीं दिया। उन लोगों ने स्पष्ट अनुरोध किया, “महाराज, जब तक हम जीते हैं तब तक आपको आगे आने की जरूरत नहीं होगी।"
दोनों ओर से मरनेवालों की संख्या बहुत बढ़ गयी। पोसलों के लिए एक सहूलियत यह रही कि उन्हें समय पर रसद मिल जाती और नयी युद्ध सामग्री भी प्राप्त हो जाती। इनके अतिरिक्त, नये सैनिक भी थोड़ी-बहुत संख्या में आकर सेना के साथ हो लिया करते थे। इन सब कारणों से शत्रु को अग्रसर होने से रोकने में मदद मिती। परन्तु यह नहीं हो सका कि इतने से शत्रु-सेना को पीछे हटा दें या कैद कर सकें।
अपनी रसद को रोक रखनेवाती बोतल-सेना को निज ने के बाद आगे हमला करने की बात सोचकर जग्गदेव ने एक दिन अपनी आधी से ज़्यादा सेना को पीछे की तरफ़ हमला करने भेज दिया। परन्तु उस सेना के कुछ भी हाथ न
__माचण दण्डनायक और उसकी पार्श्वसेना महाराज के आदेश से मूल सेना के साथ आ मिली।
तर एक रात पोसल युद्धशिविर में पन्त्रिपरिषद् की बैठक हुई। बल्लाल नं सलाह दी, "मृत्यु की परवाह न कर हमें अपनी सम्पूर्ण अश्वसेना को शव सेना पर धावा बोलने के लिए भेज देना होगा। वह सीधे शत्रु-सैनिकों की कतारों को कारते हुए घुसकर धावा कर दे। खासकर सामने के हस्ति-बल की कतार को तोड़ना होगा।"
गंगराज ने कहा, 'सन्निधान की सलाह तो अच्छी है। इस तरह ही अचानक जोरदार हमला करने पर शत्रु-सेना तितर-बितर हो सकती है। मगर यह भी सम्भव है कि उनकी स्तिसेना मजबूत रहकर सामना करे और हमारी अश्वसेना हताहत हो, कमजोर होकर पीछे हट जाय। इसलिए इस विषय पर कुछ गम्भीर होकर सोच-विचार करना होगा।' ___ 'जग्गदेव की कहीं एक बात हमारे सुनने में आयी है। उसे सुनकर भी हम चुप बैटे रहें, यह नहीं हो सकता।' बल्लाल ने कहा।
'हम जान सकते हों तो..."
'हा-हां क्यों नहीं? यह कहता फिरता है कि वह महाबोद्धा है। व्यूह-रचना में उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। खुट को अभेद्य हस्ति-बल का नायक
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बताता है और हमें छूट-पट नोड़ों पर फुदकते फिरनेवाले इरपोक कह रहा है। अगर हम अपनी शक्ति और अपने युद्ध-कौशल को न दिखाएँ तो क्या फायदा?"
_ 'फिर भी अकारण जानथूझकर मुसीबत मोल ले लेने से क्या लाभ?" गंगराज ने निवेदन किया।
"ये सब बातें मृत्य से डरनेवालों के लिए हैं, हमारे लिए नहीं। राष्ट्र का गौरव हमारे जीवन से बड़ा है। कल के युद्ध के महादण्डनायक हम होंगे। समझ गये? रातारातं सारी तैयारी हो जाए; सूर्योदय होते ही शार्दूल पताका लेकर हमारी अश्वसेना एकदम -सेना पर धावा बोल देगी ! और उसे पिन्न-छिन्न कर देगी। सभी दल-नायकों और सेना-नायकों को अभी तुरन्त बुलवा लें।" बल्लाल ने कहा।
''सन्निधान और कुछ सोचें तो बेहतर होगा" धीरे-से गंगराज ने कहा।
''सन्निधान का कहना मुझे टीक लग रहा है। मुझे अनुभव से यह स्पष्ट हो गया है कि इन सान्तसें की सेना में कुछ आतंक फैला दें तो बह जल्दी यश में आ जाएगी।'' माचण दण्डनाथ ने कहा।
"सन्निधान की सलाह मुझे भी मान्य है। प्रभु कभी कभी कहा करते थे कि गोसी परिस्थिति में जब कुछ समझ में न आए तो ऐसी कार्ययोजना अच्छा फल देती है। परन्तु सन्निधान का अग्रसर होकर जाना मेरे लिए स्वीकार्य नहीं।" डाकरस ने कहा।
"क्यों: इसलिए कि मुझे प्राणों का डर हैं।" बल्नाल ने पूछा।
"सन्निधान के प्राण राष्ट्र के लिए अनमोल हैं। राष्ट्र का अस्तित्व जितना महत्त्व रखता है, सन्निधान की सुरक्षा भी उतनी ही मूल्यवान है।' डाकरस ने जवाब दिया। ___ "महादण्डनायक की भी राय वही होगी?"
"हमको इस लायक तैयार करनेवाले तो वे ही हैं। उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में जो आचरण किया, उसी को सिखाया हम सब लोगों को। प्रभुजी इन मलेपों के साथ हुए युद्ध में हमारी यात मान जाते तो कितना अच्छा होता! सन्निधान भी तब प्रत्यक्षदर्शी रहे।" __दण्डनाथ जी, आपमें महादण्डनायक का खून बह रहा है, उन्हीं की तरह आप बात करते हैं। हममें प्रभुजी का खून बह रहा हैं, हम उनकी तरह बरतेंगे। मेरी समझ में चर्चा अब बहुत हो गयी। नायकों को बुलवाइए।" बल्लाल ने आज्ञा दी।
उन लोगों को बुलाने के लिए कुछ सैनिकों को भेजा गया। जल्दी ही सब इकट्ठे हो गये। खुद बल्लाल ने दूसरे दिन के हमले के बारे में विस्तार से समझाया। सब लोगों को अपने साथ नये कुटार, नयी धारदार तलवार और
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मुगदर लेने के लिए कहा गया। हाल में तैयार हुए जिगह-बख्तर पहनने का आदेश दिया गया। "स्योदय होते ही दसों दिशाओं में युद्ध के बाजे बज उठेंगे। तुरन्त सब योद्धाओं को प्रवाह की तरह आगे बढ़कर शत्रु-सेना पर एकदम धावा बोल देना होगा। हमारी शार्दूल पताका लेकर आनेवाली सेना जयघोष करते हुए पीछे-पीछे चले। सभी तीरन्दाज सेना आड़ के टावों में छिपकर चारों ओर से तीरों की वर्षा करे। कल का दिन पोय्सलों के लिए विजय का दिन होगा और जग्गदेव के पराजय का। अब चल दीजिए। बहुत वक्रत हो गया। इस सीमित समय के अन्दर जितना हो सके आराम कर लीजिए। प्रातः के भुरभुरे में ही सबको तैयार हो जाना होगा।" अल्लाल के ये बोल आवेशपूर्ण थे। उन्होंने फिर कहा, "हम भी आप लोगों के साध आगे चलेंगे। समझ गये न? जीवित रहे तो कल का दिन गर्व करने का होगा, नहीं तो वीरगति प्राप्त होगी। सब आप ही लोगों के हाथ है। हम केवल निमित्त मात्र हैं।" कहकर उठ खड़े हुए।
दल-नायक और सेना-नाचक सब उठ खड़े हुए और प्रणाम कर चले गये।
गंगराज मौन प्रेक्षक बनकर सब देख रहे थे। वह उठकर वहीं खड़े रहे, गये नहीं।
"हमारे व्यवहार से आपको परेशानी हुई, प्रधानजी:" पास जाकर बल्लाल ने पृला।
"नहीं सन्निधान। मुझे, माचण और डाकरस-हम तीनों को कन्न आपके अंगरक्षक बनकर आपके साथ रहने के लिए अनुमति मिलनी चाहिए।'' गंगराज ने कहा।
आप लोग नायक हैं, अंगरक्षक नहीं। इसलिए आप लोग नायक ही का काम कीजिए। अंगरक्षक तो साथ रहेंगे ही।" ___ "ऐसा नहीं हो सकता। सन्निधान को हमारी परिस्थिति भी समझनी चाहिए। हमने स्वर्गवासी प्रभु को और महामातृश्री को वचन दिया है; उस वचन का पालन करने के लिए हमें मौका दिया जाना चाहिए।"
'सी क्या है?" "जब तक हम जीवित हैं तब तक सन्निधान की रक्षा करेंगे।"
"हम आपके वचन पालन में बाधक नहीं होंगे। परन्तु युद्धभूमि की गतिविधियों पर हमारा काबू नहीं रहता, यह लो आप जानते हैं।"
"आप साथ रहने की आज्ञा दें, बाक़ी बातें हम खुद देख लेंगे।"
"यही कीजिए। अब समय हो गया। आप सब अब आराम कीजिए।" बल्लाल ने कहा।
गंगराज धीरे-धीरे चले गये। वहीं अब केवल तीन लोग बच रहे-बल्लाल,
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विह्निदेव और उदयादित्य ।
"छोटे अप्पाजी, उदय, अब चलें, सोएँ।" बल्लाल ने कहा। तीनों आराम करने चले गये।
सवेरा होने से पहले ही, पोय्सल सेना-शिविर फुर्ती से तैयारी में लग गया। पिछली रात को बल्लाल महाराज की जैसी आज्ञा हुई थी, उसी प्रकार सारी सेना का नियोजन हुआ।
विशेष ढंग से बने अंगरी (बस्तर) महाराज और उनके भाइयों ने धारण किये। अव - सेना की अगली कतार में महाराज और विट्टिदेव रहे। उदयादित्य पैदल सेना की पृष्ठवती घुड़सवार सेना की क़तार में छोटे चलिकंनायक के साथ सुरक्षित हुए।
सूर्योदय के साथ-साथ चारों ओर से रणभेरियाँ बज उठीं। उन्हें सुनते ही वृद्ध सन्नद्ध अश्वदल एक बार हिनहिनाकर आगे बढ़ने को तैयार हो गया ।
पताकाधारियों ने जय-जयकार किया। सैनिकों का विशाल प्रवाह महाराज के नेतृत्व में आगे चला। उधर शत्रु सेना अभी तैयारी में लगी थीं। जग्गदेव तब तक अपने हाथी पर हौदे में धनुष-बाण लिये बैठा था। उसकी सेना आगे बढ़ने के लिए फरमान की प्रतीक्षा में थी। जग्गदेव के फ़रमान देने के पहले ही पोटसल सेना ने धावा बोल दिया। नये तेज़ हथियार होने के कारण शत्रु सेना के हाथी घायल हो गये और विवाड़ने लगे। कुछ हाथी पोव्सल के नये हथियारों के आघात से जास्त भोकर पथरा गये। पोय्सल वीरों ने बस्तर पहन रखा था, इसलिए शत्रुओं के तीर उनका कुछ न बिगाड़ सके। कुल मिलाकर जग्गदेव की सेना में आतंक मा फैल गया। जग्गदेव के सैनिकों में यह भावना हो गयी कि वे शत्रु सेना के अश्वारोहियां - वर्षा केधा का सामना कर नहीं सकते। इसी बीच पोव्सल धनुर्धारी सेना ने बाण व शुरू कर दी जिससे अश्वसेना को मदद मिली।
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जग्गदेव स्थिति की गम्भीरता को समझते हुए पीछे खिसककर अपनी सेना के बीच में आ गया था । बल्लाल ने इसे देखा, विट्टिदेव को इशारे से बताकर आगे बढ़ा। उनके साथ ही काफ़ी संख्या में अश्वसेना भी घुस पड़ीं। कहीं से एक तीर आया और जगदेव के हाथी की आँख में घुस गया। वह हाथी बुरी तरह से चिंघाड़ने लगा । इतने में बल्लाल का तोमर उस हाथी के पेट में घुस गया। उनके पक्ष की तलवारों ने उस हाथी के पैर पर भी प्रहार किये। जग्गदेव ने बल्लाल की छाती पर लक्ष्य कर तीर छोड़ा। वह उन्हें लगकर खनखनाकर नीचे जा गिरा। इसे देख जग्गदेव हक्का-बक्का रह गया।
खाली सिपाही मात्र नहीं हूँ। मैं वीर बल्लाल हूँ।" पोयसल महाराज ने गर्जना की।
जग्गदेव भौचक्का होकर देखने लगा। फिर धनुष पर तीर चढ़ाया ही था कि
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हाथी लुढ़क गया। हौदा झुक गया। हाथी के पैरों के नीचे गिरने के डर से वह हौटे से कूद पड़ा और तलवार ले उसे चमकाने लगा। बल्लाल भी अपने घोड़े से कूटकर अपनी तलवार ले लड़ने को आ इटे। महाराज को घोड़े से उतरते देख मंगराज ने अपने घोड़े को उसी तरफ घुमा दिया। गंगराज के घोड़े को दूसरी ओर घूमते देख डाकरस ने भी अपने घोड़े को उसी तरफ़ मोड़ दिया। उनके आते-आते बल्लाल ने जग्गदेव की तलवार को उड़ाकर उसकी छाती पर लटके पदक को खींच लिया था। पदक के जोर से खींचे जाने के कारण जग्गदेव नीचे लुढ़क गया।
राजा को नीचे गिरते देख सान्तरों की सेना पीछे हटने लगी। सान्तरों के चारछ: सैनिक उस तरफ भागे-भागे आये। उनमें से एक कूदकर जग्मदेव के सामने आकर खड़ा हो गया। यह सब क्षण-भर में हो गया था। ''देखो, जग्गदेव उधर भागा जा रहा है।" कहता हुआ चिट्टिदेव उधर आ ही रहे थे कि इतने में वहाँ एक लोटा युद्ध ही शुरू हो गया। जग्गदेव अपनी सेना की आड़ में जान बचाकर लापता हो गया। उसे भागने का समय मिल जाए इसी खयाल से इन सान्नरों के सैनिकों ने युद्ध का खाँग रचा धा। बाद में ये भी चम्पत हो गये।
पारसलों की सेना ने शत्र-सेना के जितने लोग हाथ लगे. उतनों को गिरफ्तार कर लिया, जो भी शस्त्रास्त्र हाथ लगे सब बटोर लिये गये। शत्रओं के हाथी, घोड़े, भण्डार सब बटोरकर जय-जयकार करते हुए गाजे-बाजे के साथ राजधानी में पांसल सेना ने प्रवेश किया।
राजधानी की प्रजा को शरणस्थली में जाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। बड़ी धूमधाम के साथ विजयोत्सव मनाया गया। इस अवसर पर गंगराज ने महाराज बल्लाल के बुद्धिचातुर्य और धैर्य की हृदय से भूरि-भूरि प्रशंसा की। बिट्टिदेव की स्फूर्ति और युद्ध-कौशल की भी बड़ाई की। इस सन्दर्भ में, विजय पाने के लिए महाराज ने जिस स्फूर्ति और शीघ्रता की रीति से सैन्य का संचालन किया, उसके उपलक्ष्य में 'बगि-बलुदेव' की उपाधि से महाराज बल्लाल को विभूषित किया गया
और छोटे अप्पाजी बिट्टिदेव को 'जग्गदेव-सैन्य-निर्मूलन-भैरव' के पद से विभूषित किया गया। इसी सन्दर्भ में एक बात गंगराज ने कहना आवश्यक समझकर निवेदन किया, "मैं यह निवेदन करना चाहता हूँ कि हमें आगे रखकर सन्निधान को पीछे ही रहना चाहिए। हमने प्रभु को जो वचन दिया है, उसे राष्ट्रहित कं विचार से दिया है, अपने स्वार्थ से नहीं। इसीलिए भगवान की कृपा से हमें सन्निधान सुरक्षित मिले। सन्निधान और जग्गदेव के उस द्वन्हयुद्ध को जब देखा तब दिल दहल गया। जिस किसी को वह दृश्य देखने को मिलता, उसकी वही दशा होती। इस विजयोत्सव के आनन्द 4 भागी होने के लिए चिण्णम दण्डनाथ जीवित होते और देखते तो अपार आनन्द का अनुभव करते।'' यह कहकर उन्होंन
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हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
महाराज बल्ताल ने कहा, ''प्रधानजी, आपकी निष्ठा से हम परिचित हैं। यह हम सबकी विजय है। क्रिसो एक की विजय नहीं, जैसा कि आपने कहा। चिण्णम दण्डनाथ ने अपने प्राणों की आहुति देकर हमें इस विजयोत्सव का सन्तोष दिया है तो दृसरी ओर अपने अभाव का दुःख भी दिया है। अपने पति का अनुगमन करनेवाली चन्दलदेवी और चिण्णम दण्डनाथ के, दोनों पति-पत्नी के स्मारक के रूप में उस स्थान पर, जहाँ जग्गदेव से साँकल का पदक छीन कर उसे गिराया, हम एक विजय-स्तम्भ का निर्माण करेंगे। उनके तथा राष्ट्र के लिए प्राणार्पण करनेवाले वीरों की आत्मशान्ति के लिए सम्पूर्ण राजधानी में अन्नदान की व्यवस्था की जाए। पोसल साम्राज्य की समृद्धि हो और जनता सदा इसी निष्टा के साथ रहे। इसी आकांक्षा के साथ अब मैं सभा-विसर्जन करता हूँ।" ।
महाराज की आज्ञानुसार उसी स्थान पर दो ही दिनों में विजय-स्तम्भ की स्थापना भी हो गयी। अन्नदान का कार्य भी सम्पन्न हुआ। इतना ही नहीं, कुछ दिनों बाद शीघ्र ही चिण्णम दण्दनाथ की दोनों पुत्रियों का सुयोग्य वरों के साथ विवाह मा सम्पन्न कर दिया गया। इस सब पर वीरगति प्राप्त योद्धा परिवारों में शत्रुओं से प्राप्त भण्डार, धन और आभूषण आदि बाँट दिये गये। साथ ही, उन परिवारों को यह आश्वासन दिया गया कि यदि वे चाहेंगे तो उन सब के परिवारों से एक-एक युवक को सेना में भी ले लिया जाएगा।
विजयोत्सव तथा चिण्णम टण्डनाथ की बेटियों के विवाह के अवसर पर महादण्डनायक की पुत्रियों ने जिस उत्साह से काम किया था, उसे देखकर बल्लाल चकित था। शान्तला जितने उत्साह और श्रद्धा से ही उन्होंने काम किया था। हाँ, चामब्बे ज़रूर दोनों ही अवसर पर अनुपस्थित रहीं।
तब एक बार बल्लाल ने महादण्इनायक मरियाने से खुद पूछ लिया। "दण्डनायिका जी बिल्कुल दिखाई नहीं दीं?"
"उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं।' परिवाने ने संक्षेप में जवाब दिया। "क्या हुआ?" ''कामला है।" "चिकित्सा?' "चल रही है। दवा लगती नहीं।" “राजमहल के वैद्य को ले जाइए।" "जो आज्ञा।"
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"महामातृश्री को मालूम है?" "नहीं।" "क्यों नहीं बताया?"
"ऐसी मामूली-सी बातों को महामातृश्री तक बताते फिरना उचित नहीं। चामधे की भी यही राय थी।"
"महामातृश्री को बताना चाहिए था।" "जैसी आज्ञा ।"
"हमें खबर मिली है कि हमने आपको युद्धक्षेत्र में आने से मना कर दिया, आप असन्तुष्ट हैं।"
"असन्तोष नहीं, परेशानी हुई।" । "मत्तलब?''
"इस राजमहल का अन्न खाकर पला यह शरीर वक्त पर काम नहीं आया तो इसका क्या लाभ ? इसलिए परेशानी है। मुझे अपने ही ऊपर घृणा हो गयी है।"
"यहाँ आपने जो काम किया वह किसी दूसरे को तो करना ही पड़ता न"
''मैं थोड़ा हूँ। मेरा काम युद्धभूमि का है जबकि इसके लिए मैं अयोग्य माना गया।"
"ऐसी भावना आपके मन में क्यों आयी?" "उसे समझाकर बता सकने की शक्ति मुझमें नहीं है।" ।
"अप अकारण परेशान हो रहे हैं। आपकी ही तरह और भी अनेक लोग राजधानी में रहकर काम करते रहे। नागदेव, पद्मनाभय्या, मारसिंगय्या आदि तो यहीं रहे।
"उनमें से कोई पोय्सल राज्य का महादण्डनायक नहीं। युद्ध के आरम्भ के समय जो विश्वास सन्निधान का मुझ पर रहा, उसे वैसा ही रखने का भाग्य मेरा न रहा।" ___ 'क्या कहकर समझाने से आप सन्तुष्ट होंगे? राजकुल ने कभी आप पर अविश्वास नहीं किया। प्रभु के जीवित रहते समय किसी प्रसंग में सन्देह हुआ जरूर परन्तु सच बोलकर आप उनके गौरव का पात्र बने रहे। ऐसी दशा में अविश्वास का प्रश्न ही कहाँ उठता है? जो बात है नहीं उसकी कल्पना क्यों कर लेते हैं? आप लोग तो राष्ट्र के रक्षा कवच हैं।...आप राजपहल के वैद्य को बुला ले जाइए।"
"जो आज्ञा।" "वहाँ से आकर वैद्यजी मुझे भी बता दें उन्हें कह दीजिए।" "जो आज्ञा।" प्रणाम करके मरियाने चले गये।
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बल्लाल ने समझ लिया कि मरियान के दिल में कुछ दर्द है अवश्य । इस . सम्बन्ध में उन्होंने विट्टिदेव से वात छड़ी 1 तब तक विट्टिदेव को यह सब मालूम हो चुका था। अपने पिता से सारा घटनाचक्र जानने के बाद बेटियों अपनी माँ से भी सारा ब्यौरा जान चुकी थीं। उन सब बातों को सहजभाव से इन लोगों ने शान्ताला से भी कह दिया। और, शान्तला ने वह विष्टिदेव को सुना दिया। सारी बातें कर चुकने के बाद शान्तला ने बिट्टिदेव से कहा, "अब यह बात समझ में अ नहीं है कि गलती किसकी है। अपराध किसी ने किया और दण्ड किसी और को दिया जा रहा है; यह कैसा न्याय है? आप किसी तरह से इस स्थिति को टीक कर दें।
"मैं अवसर मिलते ही सन्निधान को जितना उचित होगा, बताऊँगा। सबसे पहले मैं उनके पूर्वाग्रह दूर करना चाहता हूँ ! उससे पहले माताजी को भी इस बारे में पूरी जानकारी देनी होगी। जिससे माताजी उनको क्षमा कर सकें। इसके बाद ही कुछ किया जा सकता है। यह सब कैसे हो पाएगा यह मुझे सूझ नहीं रहा है, क्योंकि सुनने में आया है कि दण्डनायिका का स्वास्थ्य ठीक नहीं। यह. प्रकारान्तर से माताजी को मान्नुम हो गया है, फिर भी इस बारे में कोई विशेष उत्सुकता नहीं दिखाकर उन्होंने इतना भर कहा, 'येचारी, जल्दी अच्छी हो जाएँ। "
शान्तला की त्योरियां चढ़ आयी थीं। बिट्टिदेव आगे कहते जा रहे थे, चन्दलदेवी ने जब देखना चाहा तब माताजो का जैसा व्यवहार था उससे तो तुप परिचित हो। तव की और अब की रीति में बहुत फ़र्क है न? तुम ही कहो! क्योंकि तुमने प्रत्यक्ष रहकर देखा हैं और जो देखा उसे बताया भी है तुमने।"
"चामच्चे की बात ही अलग है। देखने की इच्छा रहने पर पी प्रार्थना करने के लिए मन में संकोच है। इन दोनों में तुलना नहीं हो सकती। जल्दी ही इस बारे में कुछ करना चाहिए।"
"मेरी इच्छा को तुम जानती ही हो। मैं सुअवसर की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।" बिट्टिदेव ने कहा।
शान्तला से हुई बातचीत को कार्यरूप में परिणत करने के लिए उचित अवसर समझकर चिट्टिदेव ने सम्भिधान से पूछा, "सन्निधान का विचार है कि पहादण्डनायक के मन में शायद ऐसी कुछ वेदना है, है न?" ___ "हमें मालूम कैसे होगा? राष्ट्र के प्रति उनकी निष्टा में लेशमात्र भी सन्देह नहीं, लेकिन जग्गदेव के साथ के युद्ध के समय उन्हें राजधानी में ही रहने दिया, इससे उन्हें शंका हो गयी है कि उनकी निष्ठा में हमें विश्वास नहीं और इसी वजह से ने दुःखी हों तो हम क्या करें?" बल्लाल ने कहा।
"अगर वहीं अकेला कारण होता तो वे अपने दुःख या परेशानी को व्यक्त
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नहीं करते। वे व्यवहारकुशल हैं। बाल उससे अधिक मार्मिक रही होगी।"
"हर किसी की कोई-न-कोई आशा-आकांक्षाएँ रहती ही हैं। उन सभी को हम कैसे पूरा कर सकेंगे? इसके कारण अगर दुःखी हो तो हम कैसे उसके जिम्मेदार होंगे?"
"यानी
स
उनके दुःखी होने का यही सन्निधान का मन्तव्य है?"
" शायद यही ।"
केली कोई कारण हो सकता है।
"क्या मेरा यह सोचना ठीक होगा कि सन्निधान का उनकी बेटी से विवाह भी एक कारण हो सकता है ?"
"शायद हो!"
" पहले एकबार मैंने इस विषय पर बातचीत की थी । " "याद है । कोई नयी बात मालूम हुई?"
“बहुत-सी । मेरे विचार से हमें आपस में मिलकर विचार-विमर्श करना चाहिए। वस्तुस्थिति को समझ लेना चाहिए ताकि ग़लतफ़हमियाँ दूर हो सकें।" "मनुष्य का स्वभाव ही है अपनी नाक की सीध में कुछ कहना, है न?"
I
"सन्निधान भी मानव है, मैं भी मानव हूँ, माताजी भी मानव हैं, ऐसे ही प्रधानजी, महादण्डनायक जी, दण्डनायिका जी, उनकी पुत्रियाँ - सभी मानव ही हैं। सब अपनी-अपनी नाक की सीध में बोलते जाएँ तो सत्य कैसे प्रकट हो सकता है? इसलिए खुले दिल से विचार-विमर्श करने की बात मैंने कही "
"छोड़ो यह सब ! यह बताओ कि तुम्हें क्या बात मालूम हुई?"
"मेरे बताने का कोई लाभ नहीं होगा। मुझे जो मालूम हुआ है, उससे यही निवेदन करना चाहूँगा कि सन्निधान जल्दबाजी में कोई निर्णय न लें। पहले जिनकी बात हैं उन्हीं से पूरी तरह जान लेना चाहिए।"
"ऐसे तुम्हारा कहना ठीक लगता है, फिर भी वामाचारी से मदद पानेवाले से सम्बन्ध रखना ठीक है या नहीं यह तो सोचना ही होगा न? हमारी दृष्टि में ऐसा सम्बन्ध ठीक नहीं है ।"
" वामाचारी का सम्बन्ध किससे था? कैसा था? क्या सन्निधान को पूरी जानकारी है?"
"हमें केवल इतनी ही जानकारी है कि सम्बन्ध था। अंजन की भी बात मालूम है। अधिक ब्यौरा अभी ज्ञात नहीं किया। जानने की इच्छा भी नहीं हुई । वास्तव में प्रभु को भी यह आचरण पसन्द नहीं आया था। उनका यह उद्देश्य रहा होगा कि हम उनसे हेलपेल न रखें इसीलिए शायद उन्होंने मुझे बुलाकर वामाचारी से सम्बन्धित स्थिति को बताया था।"
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"वह सन्निधान का अनुमान होगा। क्या प्रभु ने स्पष्ट कहा था कि यह सम्बन्ध नहीं होना चाहिए?"
"नहीं!" "तो हम क्यों सोचें कि उनका यही उद्देश्य था।" बल्लाल कुछ न बोले।।
"और फिर दण्डनायक की बेटी को सन्निधान ने स्वीकार करने का निर्णय कर जब वचन दिया था तब पहले प्रभु की सहमति लेने की बात सोची थी?"
इस बार भी वालाल चुप रह आये।
पुरुष नारियों को चाहकर, अपने साथ कइयों को रख ले, परन्तु नारी...कोई चाहे श्रीक लगे या न लगे। एक बार जिससे पाणिग्रहण हो जाए उसी को देवता मानकर उसी के साथ जीवनयापन करने की उदारता दिखाती है। सारे जीवन में उसी एक के साथ रहती और अपना सर्वस्व उसे समर्पित करती हैं। ऐसी समपिता नारी को छोड़ने का भी कोई कारण होना चाहिए न?"
इस बार भी बल्लाल ने कुछ नहीं कहा। शायद वह अपने अन्तरंग को टटोल रहे थे।
"सन्निधान जानते हैं कि हमारी संस्कृति में नारी को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यह स्थान उसे उसकी निष्ठा के कारण, उसके त्याग के कारण, उसकी उदारता के कारण, उसकी करुणा के कारण, उसकी क्षमाशीलता के कारण, मानव-जीवन में पड़ सकनेवाली दरारों को पाटकर समतल कर सकने की शक्ति रखने के कारण, उसे सहज ही प्राप्त है। ऐसी नारी को दुःख देना क्या उचित है?"
"नारी होने के नाते वह कुछ भी करे, उसे क्षमा कर देना चाहिए छोटे अप्पाजी?"
मैंने यह नहीं कहा। क्या गलती है इसे जाने बिना और साबित हुए बिना कोई निर्णय लेना ठीक होगा? सन्निधान को सोचना चाहिए।"
"अब तुम्हारी क्या सलाह है? इस विषय में हमें स्वतन्त्रता नहीं होगी?"
“सन्निधान की स्वतन्त्रता छीनना मेरा उद्देश्य नहीं हैं। मैं चाहता हूँ कि लोग यह न कहें कि सन्निधान की ग़लतफ़हमी के कारण एक नारी के साथ अन्याय हुआ। प्रत्यक्ष को भी प्रमाणित होना चाहिए। विशेषकर हम जैसे ज़िम्मेदार लोगों को इतनी स्वतन्त्रता नहीं होती है।"
"हमारी विशेषता क्या है?"
"राजपद । राजपद के पाने यह नहीं कि हम पूर्णतः स्वतन्त्र हैं, जो जी में आए, करें। हमारा ऐसा बर्ताव होना चाहिए जो लोगों को अँचे। इसलिए हमें बड़ी
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सतर्कता से व्यवहार करना होता है।"
"यानी जनता की इच्छा-अनिच्छा को समझकर हमें अपनी अधांगिनी को चुनना होगा।" ___"जनता कभी यह नहीं चाहती। हमें ही यह देखना होगा कि एक नारी यह न कहे कि राजा ने उसके प्रति अन्याय किया। राजाओं के प्रत्येक काम को जनता ध्यान से देखती है। जनता की हार्दिक पसन्दगी राष्ट्र-निष्टा के लिए प्रेरक शक्ति है। जनता अपनी नापसन्दगी व्यक्त न भी करे तो भी वह अच्छा नहीं है।"
"नापसन्दगी को अव्यक्त ही क्यों रखते हैं."
"अधिकार के डर से, शक्ति से डरकर। इसलिए राष्ट्र की जनता में किसी के भी मन में किसी भी तरह की नापसन्दगी का कारण हमें नहीं बनना चाहिए। अगर नापसन्दगी कहीं दिखे तो हमें उसका निवारण करना होगा।"
''तो हमें दण्डनायक के मन में उत्पन्न हुए असन्तोष से डरकर सिर झुकाना
होगा।"
___इस प्रसंग में सबके दिपायों में केवः दापोह या काल्पनिक विचारों ने घर कर लिया है और पता नहीं क्या-क्या परिवर्तन इन विचारों ने ला रखा है! मैं सिर्फ इतना चाहता हूँ कि सन्निधान जो भी निर्णय लें, वास्तविक स्थिति को जानकर लें।"
"क्या हम वास्तविक स्थिति को जान सकते हैं? कोई सच न बोले लो?"
"हमें ऐसी शंका हो नहीं करनी है। बात कहने के ढंग से झूठ-सच का पता लग जाएगा। हमें भी खुले दिल से विषय का परिशीलन करना होगा। सन्निधान अगर ग़लत न मानें तो एक बात पूछना चाहता हूँ।"
"पूछो, छोटे अप्पाजी।" "क्या माँ ने कहा है कि यह विवाह नहीं होना चाहिए?''
"माँ ने ऐसा कुछ नहीं कहा ! कभी बात उठी ती इतना ही कहा था कि 'तुम्हारा निर्णय ही मेरा निर्णय है।' सो भी बहुत दिन पहले, तब जब प्रभु जीवित थे। इधर माँ से इस सम्बन्ध में कोई बात नहीं हुई है। ___ "सन्निधान जिस कन्या का पाणिग्रहण करें उसे माताजी भी स्वीकार करें-यही सन्निधान का विचार है न?"
"माँ के निर्णय पर हमें विश्वाप्त है। पहले से हम इसी अभिप्राय पर दृढ़ रहते तो यह पेचीदगी ही नहीं होती। हमें अब लगता है कि हमारी चंचलता और जल्दबाजी के कारण ही ऐसी सन्दिग्ध स्थिति आची है। वास्तव में कवि नागचन्द्र के शिष्य बनने और प्रभु के साथ युद्धभूमि में जाकर लौटने के बाद, हम और ही व्यक्ति बन गये हैं। उस पुराने विचार पर अटके रहना मानो अविवेकपूर्ण
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जल्दबाजी के निर्णय से बंधे रहना ही होगा। ठीक है न?"
"जब विचार गलत मजूम हो तब उसे हो जाता है। इसे बदलने के लिए भी स्पष्ट और निश्चित कारण होना चाहिए। एक बार Posts के घर पर इनके यहाँ की शिक्षिका ने जो बात कही थी, वह याद आ रही हैं। एक दिन 'शाकुन्तलम् पढ़ा रही थीं, प्रसंग दुष्यन्त की विस्मृति का था । गौतमी की संरक्षकता में शकुन्तला जायी तो दुष्यन्त ने उन्हें नहीं पहचाना था । इसे पढ़ाते समय शिक्षिका ने बताया था कि पूर्ण गर्भिणी के साथ ऐसा अन्याय नहीं होना चाहिए था । तब दण्डनायक जी की बेटी ने कहा कि शायद सभी पुरुष ऐसे ही होते हैं। तब शिक्षिका ने समझाया था कि किसी पुरुष द्वारा परिस्थिति विशेष में किया गया आचरण सभी पुरुषों का आचरण मान लेना उचित नहीं । यहाँ प्रारम्भ में जल्दबाजी कर प्रेम करना और बाद में ऐसा व्यवहार करना कि परिचय हो नहीं, दोनों बातें स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध के ही बारे में हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जल्दबाजी के प्रेम में ऐसी सन्दिग्धता उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए प्रेम के विषय में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए- यह इस पहलू की मुख्य बात हैं। सन्दिग्धता उत्पन्न होने पर भी अधीर न होकर दृढविश्वास रखें कि अन्त में प्रेम सार्थक हो, यह इस पहलू की दूसरी मुख्य बात है। प्रेम का शीघ्र उत्पन्न हो जाना जितना सत्य है, उसे उतना ही सुदृढ़ बनाना भी भारतीय रीति है। शिक्षिका ने ऐसा ही समझाया था ।”
“छोटे अप्पाजी, तुम दूसरों की दृष्टि से विचार कर रहे हो। मेरी जगह यदि तुम होते तो क्या कहते ? "
'
“अब मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वह सब सन्निधान के हित की दृष्टि से इसकी सचाई का पता लगाने के लिए मैं जी प्रयत्न करता हूँ उसमें मदद देने की कृपा करें और अनुमति देने का अनुग्रह करें। सच्ची बात सामने आ जाए तो इससे सम्बन्धित सात-आठ लोगों के अलावा पोप्सल राज्य की भी भलाई होगी।"
"छोटे अप्पाजी, हमें मालूम है कि तुम्हारे प्रयास से कौन-सा सत्य सामने आएगा। फिर भी तुमको निराशा न हो, इसलिए अनुमति देते हैं।" महाराज बल्लाल ने कहा ।
"सन्निधान ने उस वामाचारी को देखा था, जिसे देश निकाले का दण्ड दिया
गया?"
"हाँ ।”
“जगदेव के साथ युद्ध में जिन लोगों की गिरफ़्तार किया गया था, उन्हें सन्निधान ने देखा है ?"
"एक बार तुम्हारे ही साथ गया था।"
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'प्रचक को आपने निकट से तो नहीं देखा न.''
"मैंन सबको देखा है। मैं तीन लोगों को उन कैदियों में से चुनकर दिखाऊँगा। इन लीनों को अलग-अलग रखिए। महादण्इनायक की पुत्रियों को बलवाकर फिर एक एक करके इन लोगों को भी बुलवाकर उनसे सन्निधान पूछे कि वे उन्हें जानती हैं या नहीं।"
'हम यह काम नहीं कर सकते।" "तो मेरे प्रयत्न के लिए आपका सहयोग नहीं रहा, है न?" "हम ही क्यों पूछे, तुप ही उनसे पूछ लो।" "परन्तु इस काम को सन्निधान के समक्ष ही करना होगा।" "यह काम तुम खुद कगे और अपना निणंब बता दो; हम स्वीकार करेंगे।"
"एसी जिम्मेदारी को मैं उठा नहीं सकता। सब सन्निधान की उपस्थिति में ही होना चाहिए।"
"टीक है. ऐसा ही हो।
दूसरे ही दिन बिट्टिदेव के विचार क्रियान्वित हुए। महाराज बल्लाल के झालावा. गला, पला . और जेन वहाँ उपस्थित थीं। बिट्टिदेव के आदेश से एक कैदी हाज़िर हुआ।
विहिदेव ने उससे पूछा, “यहाँ बैठी इन लड़कियों से तुम परिचित हो: वताओ, ये कौन हैं?"
उसने कहा, "नहीं जानता, मालिक ।" फिर चारों लड़कियों से अलग-अलग बिट्टिदेव ने पूछा, “इसे जानती हो?" "मैं नहीं जानती," अलग-अलग सभी ने कहा। फिर बिट्टिदेव ने पूछा, ''सन्निधान इस व्यक्ति को पहचानते हैं?" ''हाँ, हम जानते हैं।' महाराज बल्लाल ने कहा। "ठीक, इसे अलग ले आओ।' ब्रिट्टिदेव बोले । फिर विट्टिदेव के आदेश से दूसरे कैदी को लाया गया। विट्टिदेव ने उससे भी नहीं प्रश्न क्रिया, "तुम इन लड़कियों को जानते हो?" उसने कहा, "हाँ, जानता हैं।" फिर उन्होंने पहले की तरह प्रत्येक लड़की से पूछा, "क्या इसे जानती हैं?''
दण्डनायक की बेटियों ने कहा, "हाँ, हम जानती हैं।" पर शान्तला ने कहा, "मैं नहीं जानती।"
उसे भी दूसरी जगह ले जाकर रखा गया। बाद में एक स्त्री कँदी को लाया
गया।
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उसने बताया कि इन लड़कियों को यह जानती है, परन्तु उन लड़कियों को इस स्त्री का परिचय नहीं था। तब उस स्त्री को एक अलग जगह बैठाने को कहा गया।
विट्टिदेव ने पद्यला से पूछा, "आपने कहा कि उस दूसरे आदमी को आप जानती हैं। कहाँ देखा था?"
"और कहौं, अपने ही महल में; यह हमारे यहाँ पानको होनेवाला नौकर था। उसका नाम चोकी है।" ___"इसे जानती हो तो उस पहले आदमी का भी परिचय होना चाहिए।" बिट्टिदेव ने छेड़ा।
"न मैं उसे जानती हूँ, न वह मुझे जानता है। फिर भी कोई कहे कि हमें परिचित होना - मैं दम का माली हैं.. नालागा ।
"महादण्डनायक की बेटी को झूठ नहीं बोलना चाहिए । वह बताता है कि कई वार आपके घर आया है।"
“हो सकता है। हमने देखा नहीं। उसने भी हमें नहीं देखा। तभी तो वह पहचानता नहीं।" पद्मला ने कहा।
__“देखिए, एक बात हम सबको मालूम है। अगर कोई पुरुष घर आए तो वह सम्भव है कि घर की स्त्रियाँ उसे न दिखें। परन्तु आगत पुरुषों को घर की स्त्रियाँ किसी तरह से, कम-से-कम परदे की आड़ से ही सही देख ज़रूर लेती हैं।''
"ठीक है। लेकिन यह सच है कि हमने उसे नहीं देखा।"
''आप लोग कितना ही कहें मुझे आपकी बातों पर भरोसा नहीं हो रहा है। हो सकता है कि देखा होने पर भी किसी कारण से नहीं देखा कह रही हो।" बिट्टिदेव ने कहा।
"अगर हमने झूठ कहा हो तो यहीं सन्निधान के सामने अपनी जीभ हम काटकर रखने को तैयार हैं। हमें झूठ बोलना नहीं आता। चामला ने कुछ खिन्न होकर कहा।
"अभी जो लोग आये थे, शत्र-सेना से कैद किये हुए हैं। वे आपके घर के यारे में बहुत कुछ कहते हैं। उनकी बातों की सत्यता को जानने के लिए आप लोगों को भी इस तरह कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ेगा। दूसरा मार्ग नहीं। आप लोगों को असन्तुष्ट न होकर धैर्यपूर्वक उत्तर देना होगा।" ___"हम सन्निधान के सामने हैं। सत्य ही कहना चाहिए-इस बात को हम जानती हैं। हमने वही सीखा है। सत्य कहने पर भी अगर यह कहें कि विश्वास नहीं होता तो यह सत्य का अपमान ही हुआ न?" चामला ने कुछ ढीठ होकर कहा।
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I
"राजसत्ता यदि सत्य को जानना चाहे, तो इस तरह से व्यवहार करना ही पड़ता है। यों व्यंग्य करने से छिपी बात बाहर निकलने की सम्भावना रहती है इससे खिन्न नहीं होना चाहिए।" शान्तला ने बीच में कहा। इस पर बात वहीं रुक गयी।
तभी रावत मायण आया. झुककर प्रणाम किया और बोला, "आपने आने का आदेश भेजा था। क्या आज्ञा हे?"
"हाँ, बैठिए ।" बिहिदेव ने कहा। फिर चोकी और उस औरत को बुलवाया। “इन दोनों को आप जानते हैं रावतजी ?" बिट्टिदेव ने पूछा ।
"इन चाण्डालों को क्यों दिखा रहे हैं यही हैं जिन्होंने मेरे पारिवारिक जीवन को आग लगायी। मेरी इस औरत को उड़ा ले गये। इसे मैंने सुद्धभूमि में औरतों के शिविर में आमने-सामने देखा और जैसे ही इसका सिर उड़ा देने के लिए तलवार उठायी कि इतने में यह रफूचक्कर हो गया। हाथ नहीं लग पाया। सन्निधान मुझे उसकी गर्दन उतारने की अनुमति दें।" मायण उत्तेजित हो उठा था । शान्तला को सारी पुरानी बातें याद आ गर्यो। बिट्टिदेव पहले हो सब समाचार जान चुका था। इसी वजह से पायण को बुलवाया था ।
"मायण ! तुम्हारे साथ अन्याय हुआ होगा, परन्तु उतनेभर से मृत्युदण्ड नहीं दिया जा सकता। लेकिन इसके राजद्रोही होने का अपराध प्रमाणित हो जाए तो इसे मृत्युदण्ड जरूर दिया जाना चाहिए। अगर तुम चाहो तो तुम ही यह काम कर सकते हो ।" बिङ्गिदेव ने कहा ।
तब वह औरत आगे आयी। बोली, "अगर ऐसी आज्ञा हो तो सन्निधान मुझे मौका दें। मुझे धोखा देकर मेरे जीवन को बरबाद करनेवाला है यह । मेरे पतिदेव मुझसे बहुत प्रेम करते हैं। वे मेरे प्राण हैं। परन्तु पता नहीं क्यों मुझ पर भगवान ने कृपा नहीं की। मुझे सन्तान नहीं दी। किसी धर्मात्मा ने कहा कि एक भण्डत ( अड़तालीस दिन ) तक पीपल की परिक्रमा करो। इसके बाद नागदेव की प्रतिष्ठा करो। तब सन्तान होगी। मैंने बड़ी भक्ति और निष्ठा के साथ वह सब भी किया। यह सब मैंने अपने पतिदेव की अनुमति लेकर ही किया। यह मेरे पतिदेव भी जानते हैं। नागदेव की प्रतिमा बनाने के लिए शिल्पी को भी कह दिया था। तभी एक दिन यह आदमी आया। इसने कहा, 'सन्तान चाहिए तो इतना कष्ट करने की क्या जरूरत? एक महात्मा हैं। उनसे अभिमन्त्रित भस्म लेकर तुम और तुम्हारे पति दोनों पानी में घोलकर पी लो। एक क्या जुड़वें बच्चे पैदा हो जाएँगे।" महादण्डनायक के घर का नौकर होने के कारण मैंने उसकी बातों पर विश्वास कर लिया। फिर भी मैंने तुरन्त सम्मति नहीं दी। मैंने कहा, मेरे पतिदेव से कहो ।' इस पर वह बोला, 'यह सब तुम्हारे पति से कहें और वे स्वीकार न करें तो हमारी
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दण्दनायिका चामब्बे खुद अपने पति से न कहकर उस महात्मा के पास जाती-आती रहती हैं। फिर तुम क्यों डली हो?' यह मरा दुभाग्य ही था कि मैंने इसकी बात पर विश्वास कर लिया और इसके साथ चली गयी। पता नहीं यह किसके पास ले गया। उसने चिकनी-चुपड़ी बातें करके जैसा इसने कहा था, अभिमन्त्रित भस्म दिया। दोनों ने आधा भस्म वहीं खा लेने के लिए मुझसे कहा। उसे खाने के बाद क्या हुआ मुझे कुछ भी पता नहीं। मुझे जब होश आया तो मैं समझ नहीं पा रही थी कि मैं कहाँ हूँ। मैं कैद कर ली गयी थी। निस्सहाय होकर मुझे अपने शोल की बलि देनी पड़ी। हर क्षण शाप देती मैं बन्धन में दिन काटा करती थी। बाद में पता चला कि यह शत्रुओं का गुप्तचर है। भस्म देनेवाले भी गुप्तचर हैं, यह भी पता चल गया। दोनों, रात के बक्त, जहाँ मुझे कैद करके रखा था, वहाँ मिलते थे। दोनों ने मेरा शील बिगाड़ा। यह सब मैं असहाय ही सहती रही। दूसरा कोई चारा नहीं था। मरना भी चाहा मगर इन लोगों की मुझ पर कड़ी नज़र होने के कारण वह भी नहीं हो सका। शील भंग होने के कारण पुझमें तीव्र प्रतिकार की ज्वाला भभक उठी। इन लोगों का षड्यन्त्र हमारे पोय्सल सानाञ्च कं सर्वनाश करने के लिए चल रहा है-जब यह मुझे स्पष्ट हो गया तो मैंने निश्चय किया कि मेरा शील भंग तो हो ही गया, कम-से-कम राज्य की रक्षा के लिए तो कुछ कर सकें। इसी इरादे से मैंने इनसे ऐसा व्यवहार रखा कि उन लोगों को मुझ पर पूरा विश्वास हो गया । पोयसल राज्य के हित की रक्षा के उद्देश्य से मैं स्वयं गुप्तचर बन गयी। जग्गदेव के सैन्य शिविर में उनका भण्डार कहाँ है और रसद किस जगह है, सेना की गतिविधि कैसी है आदि, सभी बातों का पता लगाकर पोसल गुप्तचर चाविपच्या के जरिये खबर भेजती रही। चाहें तो चाविमय्या को बुलवाकर दयाफ्त कर सकते हैं। एक बार लम्बी साँस लेकर अन्त में वह बोली, "मैं शील भ्रप्ट और पतिता हूँ, लेकिन विश्वास कीजिए मैंने राजद्रोह नहीं किया।
बिट्टिदेव ने बल्लाल से एकान्त में कुछ बातचीत की। बाद में आदेश दिया, "अब इन सबको जहाँ कंद में रखा गया है, वहीं ले जाओ।"
कैदियों को यथास्थान ले जाया गया।
"अब आप लोग भी विदा ले सकती हैं। किसी वैयक्तिक विचार-विमर्श करने के इराद से आज यहाँ म एकत्रित हुए थे। परन्तु इसमें कहीं कोई ऊंचा राजनीतिक षड्यन्त्र दिखाई दे रहा है। इसलिए विस्तार के साथ इन बातों की तहकीकात करनी होगी। और इस कार्य के लिए ऊंचे पद के राज्याधिकारियों की उपस्थिति की आवश्यकता सन्निधान महसूस करते हैं अतएव बैठक काल तक के लिए स्थगित कर रहे हैं। आप लोगों की आवश्यकता होगी तो बुलवा भजेंगे।"
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पद्मला की तरफ़ मुड़कर बिट्टिदेव ने कहा।
चारों उठी और महाराज को झुककर प्रणाम किया। महाराज कुछ सोच रहे थे. इसलिए उस तरफ़ उन्होंने ध्यान नहीं दिया।
शान्तला ने विहिदेव की ओर देखा। उन्होंने जाने की अनुमति इशारे से ही दे टी। चारों चलने लगीं। आँचल सँभालकर चलते वक्त हाथ के कंगन और पैरों के नूपुर महाराज की उपस्थिति की परवाह न करके बजने लगे। आवाज सुन वाल्लाल ने जानेवालों की तरफ़ सिर ठाकर देखा ! सबसे पीछे पन्नण शी। हगोटी, पार करते वक्त एक बार सुखासनासीन महाराज की ओर उसने दृष्टि डानी । पत्तक झपकते पद्मला सपन गयी कि महाराज देख रहे हैं। आँखों से ओझल होते ही दरवाजे पर परदा लग गया।
वन्लाल एकदम उठकर कुछ सोचते हा चहलकदमी करने लगे। विट्टिदेव यह चुपचाप देखते रहे। थोड़ी देर बाद महाराज ने प्रश्न किया, "छोटे अपाजी, इसकी जड़ कहाँ और अन्त कहाँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा है।'' __“सन्निधान अभी दिमाग़ न खपाएँ । मौन प्रेक्षक बने रहिए, काफ़ी है। हम सब मिलकर इसके मूल का भी पता लगा लेंगे और बिना किसी उलझन के सुलझा भी देंगे। अभी आप काफ़ी थके हैं। आराम कीजिए।"
"नहीं। अब विषयान्तर की जरूरत है। कविजी को वुलवाकर उनसे किसी विषय पर कुछ देर चर्चा करेंगे। चलो, पाठशाला में चलें।"
दोनों पाठशाला में पचे। गोंका कवि को बुलाने चला गया !
उधर शान्तला पद्मला और उनकी बहिनों को उनके महल में छोड़कर, रेविमय्या के साथ अपने घर पहुँच गयी। उस दिन जो कुछ हुआ, उससे शान्तला को कुछ सान्चना मिली। सभी बातों को स्वयं जानते हुए भी अपने मुँह से न बताकर, अन्यत्र कहीं से किसी दूसरे के मुँह से कहलाने की बिट्टिदेव की बुद्धिमत्ता शान्तला को बहुत पसन्द आयी। पद्मला का भविष्य अब ठीक मार्ग पर आगे बढ़ता हुआ लगने लगा था। फिर भी उसे इस बात की चिन्ता हुई कि या सारा प्रसंग राजनीतिक मामला बन गया। एक कुलीन स्त्री को धोखा देकर उसे 'प्रष्ट करनेवाले ऐसे धूर्त लोगों से सम्पर्क महादण्डनायक मरियाने के घरवालों का है, यह बात पहले से ही उनके बारे में असन्तुष्ट महाराज और महामातृश्री चलदेवी जान जाएँ, तो भगवान जाने क्या होगा? यह चट्टला-इसकी क्या दशा होगी? इसी प्रसंग के कारण रावत मायण स्त्री जाति से ही द्वेष करने लगा है। परन्तु अब इसकी पत्नी किसी दूसरे के साथ भागी नहीं, वह धोखे में आ गयी-यह बात मालूम होने से शायद यह अपना मन बदल ले। मगर यह इतनी उदारता दिखा सकेगा कि उसे अपनाकर पहले जैसा परिवार वसा ले? शान्तला इसी तरह सोचती
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रही। अपने सारे विचार तथा राजमहल में जो कुछ घटा, वह सब उसने अपनी माता को भी बताया। हेग्गड़ती माचिकच्चे ने बेटी की सारी बातें सुनकर कहा, "अम्माजी, त्याग के अनेक रूप हैं। चट्टला का त्याग बड़ा महान त्याग है। उसे राज सम्मान मिलना चाहिए "
"माँ, उसे अब राज-सम्मान नहीं चाहिए, उसे चाहिए कौटुम्बिक सुख । यदि उसे प्राप्त करा दें तो वही उसके त्याग का उचित मूल्य होगा।'
“शीलभ्रष्ट स्त्री के साथ परिवार बसाना कैसे हो सकता है, अम्माजी?"
"बह तो इच्छापूर्वक उसने नहीं किया न?" ___“सच है, उसके प्रति सहानुभूति हो सकती हैं। परन्तु जैसा तुम कहती हो वैसा होना सम्भव नहीं लगता।" ___तब तो वही कहना होगा कि समाज अन्धा है। माँ, थोखा खाकर अहल्या का भी तो शील भंग हुआ था। वह स्तुतिपाट की पंच-कन्याओं में एक बनी या नहीं? प्राचीन काल का वह ओदार्य आज हमें अनुकरणीय नहीं?" शान्तला ने तर्क दिया।
"तुम बहुत पढ़ी-लिखी हो, अम्माजी। तुमसे वाद-विवाद करने की योग्यता मुझमें नहीं है। वह सब देवताओं और ऋषियों का जमाना था। यह हम मानवों का कलिकाल है। दोनों में बहुत फर्क है। अनजाने कुछ कर जाने पर भी उसने शाप भोगकर ही उससे मुक्ति पायी थी न? चट्टला शाप-ग्रस्त है। उसके शाप के विमोचन के लिए राम जैसे का अवतार तो सम्भव नहीं। मानों का लालच बढ़ता जा रहा है। दण्डनायिका जी को भला किस बात की कमी थी कि उन्होंने उस वामाचारी की मदद ली? एक बार यह भी मान लिया जाय कि वह इन सांसारिक प्रपंचों से अपरिचित थी, परन्तु दण्डनायक जी तो उसे समझा सकते थे। इन वामाचारियों का अस्तित्व ही अन्याय को आश्रय देने के लिए है।" शायद उसकी बात और आगे चलती, इतने में पालने में से बच्चे के रोने की आवाज़ सुनाई पड़ी। "बच्चे को दूध पिलाने का समय हो गया है,' कहती हुई माचिकच्चे चली गयीं।
शान्तला उस रोते बच्चे को उठा लायी। उसे खिलाने लगी। रोना कुछ कम हुआ। माचिकब्बे तब तक दूध और पिलाने का पात्र ले आयीं। और एक खम्भे से पीट सटाकर बैठ गयीं और योली, "ला, बच्चे को इधर ला ।'
शान्तला 'मैं ही दूध पिलाऊँगी," कहकर बच्चे को अपनी गोद में लिटाकर पान से दूध पिलाने लगी। बच्चा धीरे-धीरे दूध पीने लगा और पीते-पीते हाथ-पैर हिला-डुलाकर खेलने लगा। ''अरे, एक दूसरे भी तुम्हारे ही नामवाले हैं। बहुत बुद्धिमान हे वे। तुम्हें उनसे भी बढ़कर बुद्धिमान बनना है। लो पियो!" ऐसे ही कुछ बोलती शान्तला दूध पिलाती रही। इतने में हेगड़े मारसिंगव्या आये। अपने
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कपड़े उतार हाथ-मुँह धो आये। तब तक दूध पिलाना हो चुका था।
"छोटा दण्डनाथ क्या कहता हैं?" मारसिंगय्या ने कहा।
"अभी तो छोटा है। बाद में यह सेर का सवासेर हो जाएगा। यह कोई साधारण नहीं। इसकी जन्मपत्री लिखनेवाले ज्योतिषी ने कहा है कि यह बहुत प्रतिभावान, शूर-बीर बनेंगा।"
''तुम्हारे हाथ से दूध पीने के बाद उसे ऐसा ही बनना होगा।" मारसिंगच्या ने चुटकी ली। फिर राजमहल में जो सब गुजरा वह विस्तार से शान्तला ने पिताजी को कह सुनाया।
उधर महादण्डनायक के घर में एक दूसरा ही अध्याय शुरू हो गया था।
कामला से पीड़ित दण्डनाविका चामब्वे ने पूरी तरह से बिस्तर पकड़ लिया था। प्रधानजी के वैद्य गणराशि पण्डित ने चिकित्सा की, परन्तु कोई फायदा नहीं हुआ। राजमहल के पण्डित चारुकीर्ति जी की चिकित्सा हुई, मगर उससे भी कुछ लाभ नहीं हुआ। उसका सारा शरीर पीला पड़ गया था। आँखें एकदम पतझड़ के पत्ते की तरह बन गयी थीं। होठ सूखकर सूखे छिलके की तरह हो गये थे। पहले हमेशा चमकती रहनेवाली उसकी आँखें गड्ढे में घुसकर तेजहीन हो गयी थीं। इधर कुछ समय से यह कम ही बोला करती थी। जिस बात को वह बच्चों में छिपा रखना चाहती थी, वह सब-कुछ बच्चों को मालूम हो जाने के कारण अपने पति
और बच्चियों के सामने भी उसे शरम से सिर झुकाना पड़ा था। वह अपनी दुर्दशा के कारण बहुत दुःखी थी। अपने अधिकार के बल पर जो बड़े गर्व से दूसरों के सामनं इतराती हुई, ऐंठकर चलती थी, आज भगवान ने उसकी ऐसी दशा कर रखी थी कि जो कुछ नहीं होना चाहिए था, वही हो रहा था। प्रेम में पगे पतिदेव और अपनी कोख की बच्चियाँ भी अगर कभी-कभी पूछताछ करती तो उसमें
औपचारिकता मात्र दिखती थी, पहले जैसी आत्मीयता नहीं। उसे अपने-आप से घृणा होने लगी थी। उसे भी राजमहल की घटना का पता चल गया था। उसके मन में यही दुःख था कि बच्चियों को महाराज के सामने खड़ी होकर गवाही देनी पड़ी। उसने अपने पतिदेव के सामने इसका जिक्र भी किया, "बच्चियों से ऐसी गवाही के बाद उनसे उनके पाणिग्रहण की प्रार्थना कैसे हो सकेगी? क्या इस स्थिति से बचने के लिए कुछ नहीं किया जा सकता?"
"तुमसे कितनी बार कहा है कि राजमहल की बात मत पूछो, फिर भी तुम नहीं मानती हो; इस बीमारी की हालत में भी तुम्हारा यह झगड़ालू स्वभाव नहीं छूटेगा?" दण्डनायक झिड़की देकर वहाँ से उठकर चले गये।
बच्चियों से भी पूछा, "जाना ही होगा क्या?' "जाना तो होगा ही, जो करना चाहा सो सब किया और अब पूछती
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हो.-'जाना ही होगा?' न जाएंगे तो हथकड़ी पहना ले जाएँगे। अब तुम्हारी बात मान लूँ तो वह भी हो जाएगा।" पद्मला तुनक पड़ी।
"ओफ़'' एक लम्बी साँस लेकर उसने करवट ले ली। बेटियों का सामना करने की उसकी हिम्मत नहीं हुई।
माजमहल जाने से पहले के मातीका चामब्बे के मन पर बहुत प्रभाव पड़ा। अब तो वह एक तरह से सन्तान के प्रेम से वंचित मां हो गयी थी। पड़े-पड़े वह भगवान से प्रार्थना करने लगी, ''हे भगवान! सन्तान भी अब मुझसे प्रेम नहीं करती। ऐसी माँ होकर जीवित रहने का भी क्या प्रयोजन? शायद पेरा जीवित रहना ही मेरी बेटियों की भलाई के लिए भारी अड़चन का कारण हो। भगवन्! मुझे अब इस धरती से उठा लो। वे सुखी रहें। इतना काफ़ी हैं। यह सब है कि एक समय था जबकि मैं महत्त्वाकांक्षा रखती थी। मैं चाहती थी कि पोसल महाराज की सास बनकर इतराती-इठलाती फिलें। शायद भगवान की वह इच्छा नहीं रही। मुझे इसलिए बीमार बना दिया। जल्दी बुला लो भगवन् ! इतनी कृपा करो भगवन!"
राजमहल से बेटियों लौट आयीं। मरने की चाह रखनेवाली चापब्बे को यह जानने की इच्छा हुई कि राजमहल में क्या-क्या बातें हुई। उसे लगा कि इसी बहाने महाराज से बेटी की कुछ बातचीत तो हुई होगी। उसने पूछा, ''बेटी, महाराज ने तुमसे बात को?"
"हाँ, इतनी देर तक हम दोनों का ही एकान्त चना। तुमने तो इसके लिए बहुत ही अच्छी भूमिका बना रखी है न?" पद्मला ने बहुत कड़वे ढंग से कहा।
'जाने दो। मैं कुछ बोलती हूँ तो सब पर गुस्मा सवार हो जाता है। एक लम्बी साँस ली चामब्बे ने। ___ "माँ, हम विश्वासपात्र नहीं। कहते हैं कि हम झूठ बोलनेवाली हैं।" चामला बोली।
"हाँ, क्यों न कहेंगे। बड़ों का पाप घर-भर का शाप।" व्यंग्य करती पद्यला ने कहा।
चामथ्या गुस्से से लाल होकर उठ बैटी। उसी आवेश में उसने पूछना चाहा, "क्या कहा " परन्तु दम घुटने के कारण आवाज़ नहीं निकली।
"कुछ नहीं। तुम चुपचाप आराम से पड़ी रही।'' कहती हुई पद्मला वहाँ से निकल गयी। दोनों बहिनों ने भी उसी का अनुकरण किया।
चामध्ये विमूढ़-सी उस तरफ़ देखती बैटी रही जिधर बेटियाँ गयी थीं।
बेटियाँ अपने पिता के कक्ष में पहुँची और राजपाल में जो तहकीकात हुई वह सब विस्तार से कह सुनायी। सब सुनकर वह भौचक्का हो गये। वह वामाचारी
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और दण्डनायक के घर का पालकी वाहक चोकी दोनों दुश्मनों के गुप्तचर हैं- यह जानकर आश्चर्य तो होना ही था। एक राज्य के महादण्डनायक ने अपने घर में शत्रुओं के गुप्तचरों को आश्रय दिया हो तो ऐसे व्यक्ति के बारे में क्या राय हो सकती है? पहले अपनी ही पत्नी पर गुप्तचर रखे जाने की बात थी, जिस पर ख़ुद वहीं चकित हो गयी थी। जो निगरानी उस पर रखी गयी थी वहीं इस वामाचारी पर क्यों नहीं रखी गयी? उस नौकर चोकी के बारे में पहले से विचार किये बिना काम पर क्यों लगाया गया था? अगर कल की महासभा में यह सब सवाल पूछ लिये गये तो मैं क्या उत्तर दे सकूंगा। इस मनहूस औरत के कारण मेरी यह हालत हो गयी है। उसी ने तो कहा था कि चोकी को काम पर लगा लें। सच है, उसे आदमियों के स्वभाव, गुण आदि का पता लग भी कैसे सकता हैं, वह इतनी समझदार कहाँ है? उसकी गतिविधि और चाल-चलन पर निगरानी रखनी चाहिए थी। नवागन्तुक होने के कारण उस पर ध्यान रखना जरूरी था। मैंने बहुत भारी गलती की। इस ग़लती के लिए क्षमा मिल सकना सम्भव नहीं । पैदा होते ही मर जाता तो अच्छा होता। बुद्ध में अगुआ बनकर मैं चिणम दण्डनाथ की तरह लड़कर प्राण दे देता तो पेरी कीर्ति स्थायी हो बाजी राव की की बात जाने दो, इतने दशकों का जीवन भी व्यर्थ हो गया। अपमानित होकर मृत्यु की प्रतीक्षा करते जीने से बढ़कर दण्ड एक योद्धा के लिए क्या हो सकता है ? यह सब इस औरत के कारण हुआ। उपनयन के निमन्त्रण पत्र को छिपा रखा और क़दम क़दम पर अपमान से सिर झुकाते रहने की हालत पैदा कर दी यह सब सोचते - विचारते मरियाने का क्रोध बढ़ आया। इसी क्रोध में वे अपनी पत्नी के कमरे में जा पहुँचे ।
नायिका चामबे को उसी हालत में बैठे पाया। उसके मन में क्या सब बिचार चल रहा था इसकी ओर उनका ध्यान नहीं गया। गुस्से से वह आग-बबूला तो हो ही रहे थे, सो गरजकर बोले, “अब तुमको सन्तोष हुआ? हमें तुमने ऐसी हालत में ढकेल डाला। इतना अपयश जिनका नमक खाया, उन्हीं से नमक हरामी की इस मरियाने के वंशजों ने ! अब तो तुम आनन्द से रह सकती हो!"
पति की इन रोष भरी बातों को सुनकर दण्डनायिका की सारी देह थर-थर काँपने लगी। धीरे से पति की ओर मुड़कर देखा । कुछ कहना चाहती थी मगर बात नहीं निकली।
"क्यों, ऐसे उल्लू की तरह देख रही हो? तुम्हारा वह चोकी और वामाचारी पोय्सल राज्य के शत्रुओं के गुप्तचर बनकर आये थे इस राज्य की शत्रुओं के हवाले करने के लिए। उठो, बिस्तरा वकुचा बाँध बँधकर तैयार हो जाओ। कल महासभा में अपमानित होने से पहले यहाँ से हम दोनों किसी निर्जन प्रदेश में
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जाकर फाँसी से लटककर मर जाएँ या फिर जहर खाकर प्राण त्याग कर दें।" मरियान ने कहा ।
दण्डनायक की बात पूर्णतया उसे सुनाई दी या नहीं, पर उसके बाद ही वह विस्तर पर लुक गयी। उसका हाथ अपने गले पर था। जीभ निकल आयी थी । "जितना बिगाड़ करना था वह सब कर लेने के बाद अब यों ढोंग करो तो उससे क्या लाभ? अब भुगती ।" कहकर दण्डनायक वहाँ से चले गये। उनकी बातों पर पत्नी की क्या प्रतिक्रिया हुई है, इसे देखें समझे बिना वहाँ से निकल गये थे।
दवा देने का समय हो गया था, इसलिए थोड़ी ही दर में देवब्बे वहाँ दवा लेकर आयी। मालकिन को इस हालत में नहीं यह नवरा गज "मालिक, मालिक" चिल्लाती हुई वह भागी भागी आयी, मरियाने के कमरे की ड्योढ़ी से टकरानेवाली ही थी कि इतने में मरियाने दरवाजे तक पहुँचे और उसे गिरने से बचा लिया।
"मालिक, मालकिन के मुँह से फेन निकल रहा हैं, और वह बेहोश पड़ी हैं।" बराहट से नौकरानी कलाती हुई बोली ।
"दङिगा को जल्दी वैद्य को बुला लाने के लिए भेज" कहकर मरियाने अपनी पत्नी के कमरे की ओर गये और विचित्र दशा में पड़ी अपनी पत्नी को देखा। नौकरानी कब्बे की घबरायी हुई आवाज सुनकर बेटियाँ भी घबराकर हड़बड़ाती हुई आयो ।
पिता को देखते ही, “पिताजी माँ..." पद्मला का गला रुँध गया ।
घबरावी बयों को देखकर खुद भी घबरा जाऊँ तो इन्हें दिलासा कौन देगा? यह सोच मरियाने ने कहा, “घबराने की जरूरत नहीं। यह विचित्र बीमारी है अभी वैद्यजी आएँगे, सब ठीक हो जाएगा...।"
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सब वहीं रहे । वैद्य चारुकीर्ति के आने तक कोई कुछ न बोला। एक गम्भीर मौन छाया रहा कि तभी दडिगा वैद्यजी को लेकर आ गया। यदि वैद्यजी घर पर ही होते तो शायद और जल्दी आ जाते। वे राजमहल गये थे। नौकर दडिगा ने बीमार की हालत का जो परिचय दिया था उससे वैद्यजी को मालूम हो गया था कि बीमारी क्या है। इसलिए घर से निकलते समय उसके लिए आवश्यक बुकनी की पुड़िया साथ ले गये थे। जाते ही उन्होंने नब्ज देखी। नाड़ी की गति का क्रम ठीक नहीं था। कुछ न कहकर, जो पुड़िया साथ लाये थे, उसे खोलकर बुकनी सुँधायी और नाक के अन्दर फूँका। बुकनी के अन्दर जाते ही चामध्ये ने सिर इधर-उधर हिलाया । "कोई वबराने की बात नहीं। दण्डनायिका जी जल्दी सचेत हो जाएँगी। हम अब तक केवल कामिला की दवा कर रहे थे। हमें यह मालूम
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नहीं था कि इन्हें अपस्मार की बीमारी है। ऐसा कितने दिनों के बाद होता है?" पण्डितजी ने पूछा ।
“जहाँ तक मेरी जानकारी है, पहले कभी ऐसा नहीं हुआ।" मरियान की आवाज़ में कुछ घबराहट थी ।
"तो क्या यह पहली बार है" पण्डितजी ने फिर पूछा ।
“हाँ, छुटपन में शायद ऐसा रहा हो, न भी रहा हो, मैं नहीं जानता । प्रधानजी से पूछने पर मालूम पड़ सकता है।" मरियाने ने कहा ।
"कुछ जरूरत नहीं। अगर छुटपन में होता तो कभी-कभी असर दिखाई देता । आपका विवाह हुए कम-से-कम दो दशक तो बीत गये होंगे?"
" करीब-करीब तीन दशक कहिए ।"
"तो मतलव हुआ कि इन्हें अपस्मार बीमारी नहीं थी। कामला भी मनुष्य को कमजोर बना देता है। दण्डनायिका जी की यह बीमारी कई तरह की दवाइयाँ करने पर भी कम नहीं हुई । काढ़ा कषाय कई क़िस्म के पिलाये तब भी कम नहीं हुई। कामिला स्पष्ट दिखता हैं। मेरी समझ में जितनी दवाइयाँ इनके लिए योग्य मालूम हुई सब कुछ किया। कोई फ़ायदा नहीं हुआ। निष्कर्ष यह हुआ कि इन्हें और भी कोई ऐसी बीमारी है जो हमारी समझ के बाहर है। इनकी इस बीमारी को समझने की बहुतेरी कोशिश की फिर भी सफलता नहीं मिली। पर ऐसा मालूम पड़ता है कि इन्हें कुछ मानसिक आघात हुआ है। और मस्तिष्क पर उसका असर हुआ है। मैंने जिस चूर्ण का प्रयोग किया वह षाण्मास कल्प है जो नीम और काली मिर्च के बीज से निर्मित रसायन है। यह बहुत जल्दी दिमाग़ को सचेत करेगा। यदि दिमाग़ के अन्दर कोई कीड़े पैदा हुए होंगे तो उनका नाश कर देगा। आपको घबराने की कोई जरूरत नहीं होगी। उन्हें पूरा आराम चाहिए। उनके दिमाग पर असर हो ऐसी कोई बात उनके कानों में न पड़े। यदि वे स्वयं कुछ चाहेंगी तो उसे उन्हें उपलब्ध कराएँ। उस सम्बन्ध में कोई सवाल उनसे न करें। उनके मन को और आघात न लगे ऐसा वातावरण बनाए रखें। तब उन्हें धीरज बंधेगा। मन में यदि अधैर्य होगा तो उन्हें लगेगा कि सारी दुनिया विरोध कर रही है। ऐसे विचार आते ही उनकी पुनः ऐसी स्थिति हो सकती है। मैं यह कह नहीं सकता कि यह हालत इसलिए हुई। आगे ऐसा न हो, इसका खयाल रखकर व्यवहार करना होगा। यह जावश्यक है। मैं कल सुबह स्नान-पूजा-पाठ के बाद जल्दी आऊँगा । इन्हें ठण्डा पानी इनके जागने के बाद दीजिए। छाछ, डाभ आदि दीजिए। बीच में कोई तकलीफ़ नहीं होगी, ऐसी मेरी आशा है। अगर मेरी जरूरत महसूस हुई तो कहला भेजें, मैं आ जाऊँगा" - यह कहकर पण्डितजी उठ खड़े हुए। "अच्छा।" मरियाने बोले ।
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चारुकीर्ति पण्डितजी चले गये 1
"अम्माजी, तुम लोग जाओ। मैं यहीं रहूँगा । दडिंगा और देकब्ने यहीं बाहर रहें।" यह आदेश देकर मरियाने पत्नी के पास बैठ गये। बेटियाँ चली गयीं । पण्डित चारुकीर्ति ने जो बलाया उसे सुन मरियाने चिन्ताग्रस्त हो गये । बेटियों के कहने से उन्हें मालूम हो चुका था। उन्होंने भी माँ को अपनी बातों से दुखाया होगा। इसके अलावा मेरी भी झिड़कियों ने उसके दिमाग पर आघात किया होगा। यही सोचकर वह व्यथित हुए। वे नरम-दिल थे, और पत्नी तथा बेटियों पर विशेष स्नेह रखते थे। वे सदा इन लोगों से ऐसा व्यवहार करते जिससे किसी का दिल न दुखे । इसका यह मतलब नहीं कि कभी-कभी गुस्से में आकर कुछ कहा न हो। कहा जरूर है। फिर उन्हें भुला भी दिया है। परन्तु एक बात में वे सदा सतर्क और कठोर रहा करते। कहीं कभी राज्य निष्ठा के विषय में कोई शंका की बात सुन पड़ती तो वह उन्हें सहन नहीं होती थी । ऐसी राजद्रोह की बात सुनते तो सुनानेवाले पर पिल पड़ते। आज भी उनकी बातें उनके स्वभाव के अनुरूप ही थीं। परन्तु यह उनकी कल्पना में भी नहीं आया था कि उनकी पत्नी का स्वास्थ्य इस हद तक बिगड़ जाएगा। वे अपनी करनी पर पछताने लगे।
दण्डनायिका ने धीरे से कराहा। हाथ कुछ हिलने-डुलने भी लगे। 'हाय माँ' करती हुई उसने करवट ली। धीरे से आँखें खोलीं। अँगुली से संकेत कर पूछा, "वहाँ कौन खड़े हैं?"
"मैं... कब्बा... पीने के लिए कुछ..."
"सिर फटा जा रहा है... ठण्डा... पानी... सिर... पर डालो...” चामब्बे का दम घुट रहा था ।
मरियाने ने और नजदीक सरककर उसके माथे पर हाथ रखा। कहा, वैद्य जी ने दवा दी हैं। घबराने की बात नहीं। जल्दी अच्छी हो जाओगी - कह गये हैं । तुम्हारे जगने के बाद कुछ ठण्डा पेय देने को भी कह गये हैं। देकच्ये को बताने पर ला देगी ।"
मरियाने के स्पर्श ने शायद दण्डनायिका के शरीर में कुछ गरमी पैदा की हो, उसे वह हितकारी भी लगा हो, उसने अपने पति की ओर देखा। उसकी आँखें डबडबा आयीं। वह सिसक-सिसककर रोने लगी।
मरियानं ने और पास सरककर कहा, "देखो, इस तरह अगर तुम करोगी तो थक जाओगी और उससे हालत और ज़्यादा बिगड़ जाएगी। इसलिए अपने को सँभालो । अब क्या हुआ है जो तुम रोओ। 'देकच्या जाओ, छाछ ला दो ।' सुन देकब्बे जल्दी जल्दी चली गयी।
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"दडिंगा, जाओ, बच्चियों को बुला लाओ। कहो कि तुम्हारी माँ जग गयी
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है"-कहकर मरियाने अपने अंगरखे के छोर से उसके आँसू पोंछने लगे। चामब्बे ने अब पतिदेव को दूसरे ही रूप में पाया ।
देकब्बे छाछ लेकर भागी-मागी आयी। "थोड़ा-थोड़ा कर पिलाओ।" कहकर दण्डनायक कुछ पीछे हट गये।
चामध्ये ने मुंह खोला; देकब्बे थोड़ा-थोड़ा करके छाछ पिलाने लगी। पहले पहल तो निगलना मुश्किल हो रहा था। निगलने में कुछ तकलीफ़ हो रही थी। तीन-चार बार गले से छाल उतरने के बाद कुछ आसानी हो गयी । वामध्ये ने बीच में देकब्बे के हाथ को रोककर सूचना दी कि अब और नहीं।
"आज दिन-भर पेट में कुछ भी तो नहीं गया है। थोड़ा-सा बचा है। इसे पी लें। पट डा रहेगा। कहकर सारः छाछ, जो लाया था, पिला दिया।
इतने में बेटियाँ भी यहाँ आ गयीं। देकचे पात्र खाली लेकर खड़ी हुई ही थी कि तभी "टेकच्चे, तुम और दडिगा अपना-अपना दूसरा काम देखो।" मरियाने ने कहा। वह बाहर जाकर दडिगा को मालिक की आज्ञा सुनाकर अपने काम पर चली गयी।
चामब्बे ने बच्चियों की ओर देखा। बोली, "आओ।' होठ मात्र हिले । आवाज नहीं निकली। बेटियों ने देखा कि माँ का सिर विचित्र ढंग से लुढ़का पड़ा है। बेटियाँ पास आवीं तो चामब्वे ने कुछ सरककर हाथ से इशारा कर बैठने को कहा।
माँ की इच्छा के अनुसार वे बैठ गयीं। मरियाने, जो उसकी बगल में बैठे थे, उठकर सिरहाने आ बैठे तो उन तीनों को बैठने के लिए जगह हो गयी।
घोप्पिदेवी उसके पास बैठी थी। उसकी जाँघ पर चामब्बे ने हाथ रख अपने पति और बच्चियों को बारी-बारी से देखा। उसके निर्जीव चेहरे पर एक तरह के समाधान की भावना झलकी। अपने पति की ओर देखकर यह बड़ी मुश्किल से धीरे-धीरे बोलने का उपक्रम करने लगी, “मेरी एक आशा..." मुंह से शब्द पूरे निकल नहीं रहे थे, एक-एक अक्षर बोलकर इतना कह पायी।।
''एक क्यों? तुम्हारी सारी आशाओं को पूरी करूँगा। अब कुछ मत बोला, आराम करो। कल सुबह वैद्यजी आएंगे। तुम्हारे गले की नसों की ऐंठन ठीक करने की दवा देंगे। नसों के ढीला हो जाने पर कल जो कहना हो सो कहना।'' मरियाने ने कहा।
"क...ल...राज...महल..."
"इन सबके बारे में क्यों सोचती हो? अब इन विचारों को छोड़कर अपने मस्तिष्क को विश्राम दो। तुम अब आँख मूंदकर आराम से लेट जाओ। नींद आ जाएगी। अम्माजी, उस बेंच पर ख़स का पंखा है। उसे लेकर झलाओ।' मरियाने ने कहा।
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पछला पंखा झलने लगी। चामब्बे ने बोप्पिदेवी की जाँघ पर से अपना हाथ उठाकर पतिदेव की जाँघ पर रखा और उनकी दृष्टि को अपनी ओर आकर्षित किया। अपनी तर्जनी दिखा संकेत किया "एक अभिलाषा!..."
"अब कुछ नहीं कहो, आराम से सो जाओ।" मरियाने ने फिर कहा।
वह आँख मूंदकर पड़ी रही। उसके श्वासोच्छ्वास की गति कभी तेज कभी धीमी होती रही। फिर एक साधारण गते पर आ गयी। धीरे-धीरे आँख लग गयी। माँ को सोया पाकर पद्मला ने पंखा झलना बन्द कर दिया। सभी वेटियाँ उठ खड़ी हुईं। चामला ने माँ के पैरों के पास पड़ी ओढ़नी को उठाकर धीरे-से माँ के शरीर को गले तक डेंक दिया।
मरिगोभी उठ खडे हा और बोले "टिगा को यहीं रहने के लिए आदेश दूंगा। तुम लोगों में से कोई एक देकब्बे को यहाँ भेजो, और जाकर सो जाओ।"
पद्मला ने कहना शुरू ही किया कि भोजन...कि तुरन्त परियाने बोले, "अम्माजी, आज कुछ नहीं चाहिए। मुझे नींद आ जाए तो अच्छा । तुम लोगों की भी यही हालत हो रही होगी। जाकर सोने का यत्न करो। कल की महासभा में जाना हो तो हमें आज रात आराम करना चाहिए ही। अब जाओ।" कहकर मरियाने ने पत्नी की ओर एक बार देखा और चले गये।
दडिगा और देकय्ये के आने पर वे भी सोने चली गयीं।
पिता-पुत्रियों को बहुत देर तक नींद न आ पायी होगी, उनके उठने के पहले ही वैद्यजी आ गये। परिवाने वैद्यजी के आने की बात जामकर प्रातःकालीन सभी कृत्यों से निपटकर हाथ-मुँह धो यहाँ जल्दी ही आ गये। उनके आने से पहले वैद्यजी देकब्बे से पूछताछ कर जान चुके थे कि चूर्ण सूंघने के बाद दण्डनायिका की कैसी हालत रही। तब दण्डनायिका जागी न थी। दण्डनायक को आते देखकर पण्डितजी उठने की कोशिश में लगे तो मरियाने "वैठिए, बैठिए, मैं भी बैट्रॅगा," कहते हुए गलीचे पर पण्डितजी के पास ही बैठ गये।
'चूर्ण का प्रयोग करने के बाद क्या सब हुआ यह देकब्बे के द्वारा मालूम पड़ा। सुना कि रात को एक बार जगी थीं। जागते हुए भी एक तरह की बेहोशी छायी रही । सुना कि फिर जल्दी सी गयीं। इसलिए यह मालूम होता है कि चूर्ण ने अच्छा असर किया हैं। पहले की बीमारी कामिला जो स्थायी रूप से घर कर चुकी थी, शायद दूर हो जाय। ऐसी सम्भावना तो है फिर आपका और इन बच्चियों का भाग्य है।" पण्डित ने कहा।
"यह सब आपके हाथ का प्रभाव है, वैद्यजी।" मरियाने ने हार्दिक भाव से कहा।
"अगर इसे मेरे हाथ का प्रभाव मानें तो वह केवल अहंकार की बात होगी।
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इसी हाथ से एरेयंग प्रभु को भी दवा खिलायी थी न? तब वह हाथ का गुण कहाँ गया था? यह सब उनके भाग्य की बात है, सब पूर्व-नियोजित है। प्रभुजी की कोई दलती उम्र तो नहीं थी वह और कुछ दशाब्दियों तक जीवित रह सकते थे। यह पोय्सल राज्य का दुर्भाग्य था कि हमने उन्हें खो दिया। यह कितना बड़ा नुकसान है, इस बात को आप मुझसे अधिक समझते हैं ।" पण्डितजी ने कहा ।
"सच है" मरियाने ने कहा। उसे लगा कि इस वक्त पण्डित के मुँह से यह बात क्यों निकलनी चाहिए थी। जब हमारा मन कहीं अन्यत्र किसी दूसरी बाल की चिन्ता में लगा रहता है तब किसी की कड़ी प्रासंगिक बात का विपरीत अर्थ निकालना मनुष्य का स्वभाव होता है। इस पण्डित को शायद सभी बातों की जानकारी हो गयी होगी। मेरे सामने, इस वक्त यह बात क्यों कहनी थी ? व्यंग्योक्ति क्यों कहनी थी? इस बात का आज होनेवाली महासभा के साथ कुछ-न-कुछ सम्बन्ध होना चाहिए। राजमह को किराने के लिए कहनेवाले महाराज ने इस पति को शायद मेरे घर में गुप्तचरी का काम करने के लिए भेजा होगा क्या? - यों मरियाने की विचारधारा कहाँ से कहाँ बहने लगी । वह कुछ कहना चाहते थे कि इतने में पद्मला ने आकर कहा, "माँ जाग गयी।" "उनके हाथ-मुँह धुलवा दीजिए।” पण्डितजी ने कहा ।
"सब हो चुका है आप पधारिए।" पद्यला बोली ।
उसके साथ पण्डितजी और मरियाने दोनों अन्दर गये।
पण्डित ने नब्ज़, जीभ, आँख का मुआयना किया और "हाँ अच्छा" कहकर अपनी दवा-दारू की पेटी खोली। चूर्ण की दो पुड़ियाँ और दवा की चार गोलियाँ दीं और कहा, "कुछ लघु आहार दे दें। उसके बाद चूर्ण की एक पुड़िया शहद में मिला चटवा दें और उसके दो घड़ी बाद इन गोलियों में से दो का चूर्ण बनाकर शहद में मिलाकर चटवा दें। इसी तरह मध्याह्न के बाद भी करें।... अभी मुझे राजमहल जाना हैं, आज्ञा दें।" कहकर पण्डितजी उठ खड़े हुए।
"माँ बात करने में बहुत कष्ट का अनुभव कर रही हैं। गले की इन नों की ऐंठन ढीली हो सके ऐसी कोई दवा दी जा सकेगी?" पद्मला ने पूछा ।
"वह चूर्ण इसी के लिए दिया है, अम्माजी। इसे खाने के कुछ समय के बाद ध्वनितन्तु ठीक होते जाएँगे। कुछ प्यास ज्यादा लगेगी। डाभ पिलाइए। अब मैं चलूँ?” मरियाने की ओर मुड़कर पूछा।
"अच्छा पण्डितजी," कहते हुए मरियाने वैद्य के साथ आगे बढ़े। दरवाजे तक पहुँचने पर पण्डितजी खड़े हो गये। कुछ इधर-उधर देखा । किसी को न देख मरियाने के पास आये और धीरे से सिर झुका लिया ।
मरियाने ने पण्डित की ओर देखकर पूछा, "कुछ चाहिए था क्या?" फिर
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इधर-उधर देखकर छोले, "कुछ संकोच करने की जरूरत नहीं, कहिए।'
"आज आप दण्डनायिका जी के पास ही रहें,' पण्डितजी ने कहा। "तो..." घबराकर मरियाने न पाण्डत की ओर देखा। ''टण्डनायिका जी की नाई की गति सन्तोषजनक नहीं। पित्त का प्रकोप बहुत अधिक हो गया हैं। आज का दिन अगर बीत जाय तो फिर हृदय की गति के ठीक हो जाने की सम्भावना है। इस पित्त के प्रकोप को शमन करने के लिए अच्छी और प्रभावशाली दवा दी है। अगर वह दवा दण्डनायिका जी को लग जाती है, तो वे बीमारी से जल्दी ही मुक्त हो जाएंगी। इसलिए आपको आज उन्हीं के पास रहना चाहिए।' पण्डितजी ने कहा।
"ऐसा ही होगा पण्डितजी" मरियाने ने कहा।
उनकं कहने के ढंग को देख पण्डितजी ने धीरज धारण करने को कहा, "दण्डनायक जी घबराएँ नहीं। स्थिति का धैर्य के साथ सामना करना होगा। बच्चियाँ घबरा जाएँ ऐसी कोई बात न कहें। आपका धैर्य दण्डनायिका जी को नया जीवन भी ला सकता है। मैं राजमहल से लौटते हुए फिर यहाँ आऊँगा। ठीक है ना
मरियाने ने सिर हिलाकर सम्मति की सूचना दी। पण्डितजी चले गये। मरियाने फिर अपनी पत्नी के कमरे में आ गये। बच्चियों भी माँ के पास ही बैंठी
रहीं।
"अम्माजी, नाश्ता तैयार हो गया होगा, तुम सब जाकर नाश्ता कर लो। देकव्वे से कहीं कि वह तुम्हारी माँ के लिए आहार ला दे। आहार और चूर्ण खिल्लाने के बाद मैं भी नाश्ता कर लूंगा, फिर तुम लोग यहाँ रह सकती हो।" मरियाने ने समझाया।
"वैद्यजी ने वहां कोई विशेष बात नहीं की, बाहर आपको कुछ बताया अप्पाजी?' पद्मला ने पूछा। ___"बेटी, कहा कि कुछ घबराने की जरूरत नहीं। आज कुछ प्रभावशाली दवा दी है। गोलियाँ भी दी हैं। इन दवाओं के लेने से हृदय और पित्तकोश के क्रियाशील होने में मदद मिल जाएगी। उनके पास हमेशा किसी-न-किसी को रहना चाहिए। जब प्यास लगे तब कोई ठण्डा पेय देते रहना चाहिए। इसलिए मैं वहाँ रहूँगा। तुम लोग हो आओ।" दण्डनायक ने कहा।
बच्चियाँ चली गयीं।
चामब्बे ने कराहते हुए धीरे-से कहा, "और भी पास आ जाइए।' मरियाने और नज़दीक आकर बैठ गये। चामब्बे ने अस्पष्ट स्वर में कहा, “मुझे राजमहल...जाना... हैं।"
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"अच्छा, कल सुधर जाने के बाद चलेंगे।" “न, न, आज ही...जाना...वाहिए।" ''हाँ, वही हो। अभी वैधजी आएंगे। तब उनसे पूछकर ले चलूंगा। ठीक है
"इतना...करें...ब...ह...त उप...कार...हो...गा।"
"वैद्यजी ने कहा है कि अधिक बात नहीं करनी चाहिए। बात किये बिना आराम से लेटी रहिए।" सिर हिलाकर दण्डनायिका ने सात जतायी।
दकव्वे कॉजी ले आयी। पित्त को शान्त करने में यह सहायक है और जल्दी हज़म भी होती है, इस बात को वैद्यजी पहले ही बता गये थे। देकब्बे ने छोटे बर्तन में थोड़ा-थोड़ा करके पिलाया। पतली होने के कारण दण्डनायिका को निगलने में विशेष तकलीफ़ नहीं हुई। दंकव्ये जितनी कांजी लायी थी. उसमें से आधी के करीब पी जा चुकी थी, तब दण्डनायिका के माथे पर, नाक पर और होठों पर पसीना निकलने लगा। दूसरी ओर बैठे दण्डनायक ने पास पड़े तौलिये से पसीना पोंछ दिया। ___ "देकव्ये, अब आध यड़ी बाद चूर्ण खिला देना।" दण्डनायक ने कहा। देकच्चे वहाँ के बर्तन-बासन उठा ले गयी और थोड़ी देर बाद चूर्ण को शहद में मिलाकर ले आची। उसे मरियाने ने अपने हाथ में लिया और बोले, ''मैं खुद खिलाऊंगा। बाँच्चयों का नाश्ता हो चुका हो तो वे यहाँ आ जाएँ।"
बह चली गयी।
दण्डनायक ने गजकणं पलाश के पत्तं पर शहद में मिलाये चूर्ण को अपनी अँगुली से लेकर दण्डनायिका को चटाया। उन्होंने उसे निगल लिया। थोड़ी दर में बेटियों भी वहाँ आ गयीं और पिताजी को जाने के लिए छुट्टी दी। वह चने गये फिर स्नान आदि से निबटकर, नाश्ता करके वहीं लौट आये। बच्चियों से बोले, “हाँ, मैं आ गया, अब तुम लोग जाओ और नहा-धोकर कपड़े बदलकर कंघी-अंधी कर आओ।" बेटियाँ चली गयीं।
धोड़ी देर बाद देकब्जे शहद में गोली मिलाकर ले आयी ! उसे अपने हाथ में लेकर मरियाने न देकञ्चे को भेज दिया और खुद पत्नी को वह दवा चटाची। पत्नी ने दवा चाटने के बाद दो बार ज़ोर से खाँसा। ___देखिए, आपने कहा कि बैद्यजी आएँगे, आकर दवा दे जाएँगे। आपको यहाँ क्यों बैटे रहना चाहिए बेकार। दड़िगा से कहिए. वह यहाँ रहेगा। आप जाकर अपना काम देख लीजिए।" चामब्बे ने अपने पति की ओर नजर डाली। वास्तव में उसका गला और नितन्तु कुछ खुल गये थे। बात बोलने पर पहले की अपेक्षा
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अधिक स्पष्ट रूप से सुन पढ़ सकभी "पारी श्यारा कलमासानी ने कंन की स्थिति हो गयी थी। आसानी से बात कर सकने की हालत न होने पर भी पहले की अपेक्षा ज़्यादा सुगम-सा महसूस हो रहा था। ___ "मुझे कोई ज़रूरी काम नहीं है। वैद्य ने कहा है कि उनके आने तक मैं तुम्हारे ही पास बैठा रहूँ। नौकर जा संवा करंगा यह प्रतिफलाकांक्षी होकर की जानेवाली सेवा है। हम जो करते हैं वह प्रेम और आदर की सेवा है। अब तुम्हें ऐसे ही प्रेम और आदर से की जानेवाली सेवा की शरत है। वैद्य ने वहीं कहा
''मेरे लिए इस सबसे बढ़कर सेवा मुझं राजमहल ले जाना है।" 'मैंने पहले ही कहा न कि ले जाएँगे।" ''चैद्यजी से अनुमति लेकर ही जाना होगा?''
"तुमको आराम से रखने के लिए कहा है। इस जगह से अभी हिलना-इलना नहीं चाहिए। अब तुम काछ अच्छी होती जा रही हो, तुमको यह महसूस हो रहा होगा। उनके आने तक और अच्छी हो जाओगी। वे देख लें और कहें तो हमें हादस बँधेगा।'' मरियाने बोले। उन्हें लगा कि पू:-राजमहल क्यों जाना है। लेकिन यों पुङकर उसे बातों में घसीटना इस स्थिति में अमुचित समझकर चुप रहे। परन्तु उनके मन में तरह-तरह के सवाल उठने लगे, "राजमहल इसे क्या काम है? वहाँ इसका आदरपूर्वक कौन स्वागत करेगा? अब यह कुछ बात को और उसकी प्रतिक्रिया कुछ और हो जाय तो उसका क्या पयवसान होगा? वैद्य ने आसानी से कह दिया कि उसको इच्छा पूरी करो। उसकी इस इच्छा को पूरी करें कैसे? इच्छा पूरी करें भी लेकिन यदि हित के बदले अहित ही हो तो ऐसी इच्छा को पूरी करना उचित होगा?"
इतने में दांडेगा दौड़ा-दौड़ा आया और बोला, 'मालिक, राजमहल की पालकी आयी है।" ___ "तुम यहीं रहो," कहकर मरियाने बाहर दरवाजे के पास जल्दी-जल्दी गये। उनके मन में कई सवाल उठे, "मेरे घर पर राजमहल की पालकी? कौन आये होंगे? क्यों आये होंगे?" यों सबालों में उलझे हुए ही दरवाजे पर पहुंच गये।
दडिगा ने देकव्य को सूचना दे दी थी। दण्डनायक की बेटियां भी फाटक तक जा पहुँचौं। महामातृश्री एचलदेवी और विहिदेव दोनों पालकी से उतरकर फाटक की ओर आ रहे थे। परिवाने ने झुककर उन्हें प्रणाम किया।
सन्निधान के आने की सूचना पहले मालूम नहीं हुई।'' संकोच के साथ मरियाने बोले। ___ "दण्डनायिका जी की तबीयत कैसी है? उनका स्वास्थ्य इतना बिगड़ गया
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मगर हमको ख़बर नहीं सो भी वैद्यजी से मालूम करना था?" एचलदेवी ने कहा । कल शाम के बाद अचानक ही स्वास्थ्य बिगड़ गया। वैद्यजी ने कहा कि मुझे यहाँ से हिलना नहीं हैं, उन्होंने भी भरोसा दिया है। कल रात से अव बहुत अच्छी है । सुबह से एक ही बात कह रही है, "राजमहल ले चलिए।" दोपहर की राजमहल जाने से पहले वैद्यजी यहाँ आने की बात कह गये हैं। अब उनके आने के बाद, उनसे पूछकर अगर ले जाने को कहते तो ले आना चाहता था । इतने में सन्निधान ही यहाँ देवी प्रेरणा से पधार गयी हैं । हम बड़े भाग्यवान हैं। कि सन्निधान की कृपा के पात्र बने।" यों कहते गये दण्डनायक अब तक वे दण्डनायिका के कमरे तक पहुंच चुके थे। उन दोनों का चिट्टिदेव, पद्मला, चामला और बोपदेवी ने अनुसरण किया।
किवाड़ को सरकाकर मरियाने अन्दर गये और अपनी पत्नी से कहा, "महामातुश्री मन्निधान यहीं पधारे हैं। तुम चाहती थीं कि राजमहल जाएँ । राजमहल ही यहाँ आया है।" इतने में एचलदेवी अन्दर आ चुकी थीं ।
पायाने उनके बैठने के लिए आसन ठीक कर ही रहे थे कि इतने में एचलदेवी ने कहा, "रहने दीजिए। अभी इस उपचार की जरूरत नहीं ।" वह पास की एक आसन पर बैठ ग 7 GR1 ARM at 1 बिहिदेव उस आसन पर बैठ गये ।
।
चाम अपनी ही आँखों पर विश्वास न कर सकी। एकटक महामातृश्री को देखती रह गयी । चन्दलदेवी के यहाँ जा सकनेवाली बात्सल्यमयी माता का यहाँ आने में आश्चर्य ही क्या हैं? परन्तु सद्यः इस परिस्थिति में खुद भी जाते तो भी महामातृश्री का दर्शन पाना जहाँ सम्भव नहीं लग रहा था वहाँ वे स्वयं आकर दर्शन दें - इस बात ने उसे एक बड़े भ्रम में डाल दिया था। वे अप्रार्थित होकर जाय तो इस पर विश्वास ही कैसे कर सकते हैं? ऐसी स्थिति में भी उसमें हर्ष का संचार हुआ। वह पलंग पर उठकर बैठ गयी और उतरने का प्रयत्न करने लगी । दण्डनायेका जी, आप चुपचाप लेटी रहेंगी तो हम यहां रहेंगी। ऐसे थक जाएँगी तो हम चले जाएंगे।"
"वैद्यजी ने भी यही कहा है। यह मानती नहीं।” मरियाने ने बीच ही में
कहा :
"लेटी ही रही। उठ कहाँ सकती थी? सन्निधान के दर्शन ने मुझे इतनी शक्ति दी कि उठकर बैठ गयी। मुझे बैठी रहने की अनुमति दें।" यों रुक-रुककर बोली । फिर कमरे में के प्रत्येक व्यक्ति को एक बार देखा और फिर एचलदेवी की ओर मुड़कर कहा, "मुझे सन्निधान से कुछ बात करनी हैं, दूसरे लोग न रहें तो अच्छा ?"
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो: 235
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उपस्थित लोगों ने एक-दूसरे को देखा। "छोटे अप्पाजी!'' एबलदेवी ने कहा।
"अच्छा माँ, कहकर बिद्रिदेव उठकर बाहर चल आये। मरियाने भी उनके साथ चले आये। बच्चियाँ भी बाहर आकर अपने-अपने कमरे की ओर चली गयौं । माँ के कहे अनुसार पद्मला ने बाहर से किवाड़ बन्द कर दिया था। अन्दर केवल दो ही रहीं-चामब्बे और एचलदेवी।
चामव्ये धीरे-से पलंग पर ही उस छोर की तरफ सरक आयी जिधर एचलदेवी बैठी थी। उसने एचलदेवी की गांद पर हाथ रखा, साथ ही अपना सिर भी। और कहने लगी, "सन्निधान, अपनी शरण में रहने वाले हमें क्षमा करें। पण्डित जी को मेरे जीवित रहने में शंका उत्पन्न हो गयी है। इन सब लोगों ने जो कुछ भी कहा वह मुझे धोखे में रखने के लिए कहा है। मरने से मैं इरती नहीं। मुझ पर पक भारी बोझ पड़ा हआ है। इस बोझ को ठोकर मैं मरना नहीं चाहती। इस बोझ की उतार देने में ही इरादे से आन मैं राजमहल ले जाने के लिए कह रही थी। खद भगवान ही सन्निधान को यहाँ बुला लाचे। सन्निधान के समक्ष अपनी गलती पान लें तो मेरा बोझा उतर सकता है। क्षमा करना या न करना सन्निधान की इच्छा के अधीन हैं।'' कहती हुई चामल्ने कुछ देर तक रुक गयी। उसकी साँस भारी हो गयी थी। शुरू-शुरू में बातें आसानी से नहीं निकल रही थीं। परन्तु धीरे-धीरे सुधर रही धी। उसकी काँसे की-सी आवाज़ अब न रहने पर भी उसकी बातें धीमी और रुक-रुककर कहीं जाने पर भी एचलदेवी को स्पष्ट सुनाई पड़ रही थीं। प्रचल करने पर भी उसकी आवाज ऊँची न हो सकी।
दण्डनायिका है सकते ही चलदेवी ने कहा, "क्यों दण्डनायिका जी: क्यों ऐसी अतम्बद्ध बातें कर रही हैं: किसने कहा कि आपने ग़लती की? बेकार ही झूठ-मूठ अपने ऊपर ओढ़ ले रहीं हैं। कल शाम को जब पण्डितजी को आपके यहाँ घबराकर जल्दी बुलवाया गया तभी से हम आपके स्वास्थ्य के बारे में बहुत चिन्तित रहे और बराबर समाचार प्राप्त करते रहे। पण्डितजी ने बताया कि आपके हदय की गाँत कुछ विचित्र-सी हो रही है। अपनी आँखों से खुद देख कुछ दिलासा देकर धीरज बंधाने के लिए हम यहां आये हैं। आप इस तरह घबरा जाएँगी तो इन बेटियों की क्या हालत होगी: आपके स्वस्थ होने की जिम्मेदारी अब दवा पर नहीं, आप ही पर अधिक निर्भर करती है। पण्डितजी ने भी यह कहा है। अन्न आप निश्चिन्त होकर आराप करें। समझी."
"तन्निधान मुझे क्षमा करें ! मैं छोटी बच्ची नहीं हूँ। पुझे सब याद है। मैंने अन्छा-बुस जो भी किया, मुझे मालूम है। अभी सन्निधान से जैसा निवेदन किया मझे जीने की आशा नहीं। परने से पूर्व मुझे अपनी गलती के लिए क्षमा मिले,
23 :: पट्टमहादेची शान्तला : भाग दो
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यही मेरे लिए भाग्य की बात होगी। सन्निधान यहाँ तक पधारी इस उदारता के लिए मैं सर्वथा योग्य नहीं हूँ-यह मुझे मालूम है। जो मैं कहूँगी उस सबको आप सुन लें तभी मेरे लिए सन्तोष होगा। मैंने ग़लत काम करने की बात कभी सोची ही नहीं। मेरे स्वार्थ ने मुझसे कुछ ग़लत काम कराया है। उस समय यह मालूम होता कि यह ग़लत है तो शायद करती भी नहीं। अब यह साबित हो गया है कि यह सब मेरी ग़लती से हुआ, अन्यथा मेरे पतिदेव और मेरी ही बेटियाँ मुन्ने दोषी कह दूषित न करते।''-इतना कहकर उसने दम लिया और फिर पिछले दिन पति-पुत्रियों से जो बातचीत हुई थी उसका सारा किस्सा सुना डाला था। फिर कहने लगी, ''मैंने जिस पत्तल में खाया उसी में छेट किया। राजद्रोहियों के साथ मिलकर राजद्रोह का काम मैंने किया-यह दोष मुझ पर लगाया गया है। मैं अपनी बेटियों की सौगन्ध खाकर कहती हैं कि मैंने राजद्रोह का कोई काम नहीं किया। मैंने जो भी किया उसका एक ही लक्ष्य था। यह यह कि मैं अपनी बेटियों को सन्निधान की बहुएं बनाना चाह रही थी। वे जीवन-पर सखी रहें, एक यही मंग स्वार्थ था। स्त्री का सुख ब्याहे घर में ही निहित है। सो मेरो एक बही आकांक्षा थी और उसे ही सफल बनाने की मैं कोशिश करती रही।"
एक क्षण रुककर चामब्बे ने आगे कहा, 'मुझे एक बार ऐसा लगा कि हेग्गड़ती की बेटी मेरी इच्छा के पूर्ण होने में काँटा बनी हुई है। इस कारण से असूया उत्पन्न हो गयी। यह ग़लतफ़हमी है इसका ज्ञान पुझे बहुत देर बाद हुआ। जब मैं उस वामाचारी के पास गयी तब भी मैंने किसी के बारे में कोई बात नहीं कही। उसने अपनी सारी बुद्धिमानी से मेरे विरोधियों के बारे में पूछा। कोई भी हो तुम्हें उससे क्या मतलब? हमें रक्षा चाहिए। मैं और मेरा परिवार सुखी हो, मेरी बेटियों सुख से जीएँ-इतना ही कहा। उसने हमारी रक्षा के लिए सर्वतोभद्र यन्त्र बनाकर दिया। मैंने और मेरी बेटियों ने उसे धारण किया। लेकिन यह सारी बात अपनी बेटियों से गुप्त रखी। उन्हें मालूम न हो ऐसा ही इन्तजाम किया था। मेरे घर का नौकर और यह वामाचारी दोनों शत्रुओं के गुप्तचर थे, यह बात कल ही मुझे मालूम पड़ी।"
थोड़ा रुककर चामब्बे ने कहना जारी रखा, "तभी से मुझमें धीरज नहीं रहा। मेरे दिमाग में भारी हलचल शुरू हो गयी थी। जो समस्या मुझे कष्ट दे रही थी उसका मुझे जैसे हल मिल गया था। उस रात हमारे यहाँ उस वामाचारी ने जो अंजन-क्रिया की उसमें अपने विरोधियों को देखने की मझे लालसा उठी। परन्तु यहाँ देखा किसी और को। मैंने उसमें अपने प्यारे अन्नदाता प्रभु को देखा। मुझे क्या पता था कि उस वामाचारी ने अपनी शत्रुता के कारण ही हमारे अन्नदाता को दिखाया था। तब उस कल्पना ने ही मेरे दिल-दिमाग को दहला दिया था।
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मेरे मन में क ल तुमुः सामने : i ...! वि किती ने मुझे उठाकर एक बड़े गहरे खड्ड में पटरा दिया है। लगा कि मेरी सारी रामकहानी ख़त्म हो गयी। काश! ऐसा हो गया होता तो मैं इस भारी बोझ को लेकर भूत बनकर रह रही होती। जाने में या अनजाने में आग में हाथ डालने पर जलेगा ही। स्वार्थ और अज्ञानता के कारण उस वामाचारी की सलाह लेने गयी...बहुत बड़ा अपराध किया मैंन। मुझे जो भी दण्ड दें उसे निस्संकोच स्वीकार करूंगी। मेरी ग़लतियों का दण्ड मेरी बेटियों को न भुगतना पड़, उनका भविष्य अन्धकारमय न हो-यह मेरी विनती है। लेकिन उसके बारे में अनुरोध करने की स्थिति में मैं नहीं हूँ। बेटियों के भविष्य की चिन्ता से मैंने जो काम किया, वहीं उनके भविष्य के लिए काँटा बन गया। अब उसे ठीक करने के लिए मुझमें साहस नहीं रह गया है। अब तो तीनों बच्चियों को आपकी गोद में डाल रही हूँ। उनका उद्धार करना सन्निधान की इच्छा पर निर्भर हैं।
"मेरी इच्छा थी कि उन्हें सन्निधान की बहुएँ बना ट्रें। उनकी भी यही आकांक्षा है। उन्हें पाणिग्रहण करनेवाला की आकांक्षा भी एक मुख्य बात है। फिर मन्निधान भी माँ हैं-सो माँ के दुःख-दर्द से अपरिचित नहीं है। अधिकार-दर्प से इतराना गलत है यह बात मैं असूया से परे, अच्छी मानवता के आदर्श पर चलनेवाले आप लोगों के व्यवहार तथा आप और हेग्गड़ती जी के इस परस्पर आत्मीयता के सम्बन्ध को देखकर समझ सकी। लेकिन अब काफ़ी देर हो चुकी। एक समय था, जब मैं समझती थी कि मेरी बेटी पटरानी बनेगी तो मैं दर्प के साथ इतराती फिरूँगी। जिनसे प्रेम हुआ उनसे पाणिग्रहण कर सहज एवं सुखद जीवनयापन करने का अपना एक महत्त्व होता है-यह मैं बहुत देर बात समझ सकी। पता नहीं कि इस बात इतना बोल सकने की ताकत मुझमें कहाँ से आ गयी : जैसे बुझते समय दीपक अधिक प्रकाश देता है शायद वैसे ही वह भी है। अपनी ग़लतियों के प्रायश्चित्त के रूप में अपनी बेटियों को सन्निधान की गोद में समर्पित कर रही हूँ। सन्निधान जैसा कुछ भी करें, मुझे स्वीकार है। यदि मेरी आशा-आकांक्षा सफल न हो तो अन्य किसी के हाथ सौंपने के बदले इन्हें मेरी तरफ़ से भगवान की सेवा के लिए धरोहर रखें । मैंने खुले दिल से जो कहना था, कह दिया। सन्निधान अगर कह दें कि क्षमा कर दिया है तो मैं शान्ति से अन्तिम साँस ले सकेंगी।"
चामब्ने धीरे-धीरे धीमी आवाज़ में ही बोल रही थी, कभी-कभी उसकी आवाज कुछ तेज भी हो जाती थीं। बात कर चुकने के बाद उसे थकावट मालूम हुई। खाट पर ही हाथों के सहारे बैठी रहने की कोशिश की, परन्तु कमजोरी के कारण ऐसा न हो सका।
Y.3 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग दो
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चामब्वे की यह दशा देख एचलदेवी ने स्वयं उठकर उसकी भुजाओं पर हाथ रखकर धीरे-से लिटाते हुए कहा, "लेट जाइए, आप बहुत थक गयी हैं। यह अच्छा हुआ कि आपने खुले दिल से सब-कुछ कह दिया। राजघराने की नीति-रीति रही है-राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर, ऊँच-नीच के भेदभाव के बिना, असूयारहित होकर एक परिवार की तरह रहना। इस आदर्श के लिए सहयोग करनेवालों की आशा-आकांक्षा की पूर्ति में न्यूनता न होगी। अब दण्डनाथ जी की पत्नी चन्द्रलदेवी का बच्चा हेग्गड़ती जी के घर में उनकी प्रेमपूर्ण देखरेख में पल रहा हैं न? अपनी बेटियों की देखरेख करने के लिए आप स्वयं जल्दी ही अच्छी हो जाएँगी-ऐसा भरोसा है। आप दुनिया भर की चिन्ता न करें।"
"मुझे तो बचने की आशा नहीं।" चामब्बे ने अपनी सूखी आँखों से अपनी मालकिन की ओर निहारा।
फिर वही बात! ऐसा न कहें ।' कहकर खुद श्चलदेवी ने उठकर किवाड़ खोला । खुलने से कुछ आवाज़ हुई। भीतरी प्रकोष्ठ से उठकर सब अन्दर आ गये। तब तक पण्डितजी भी आ चुके थे। उन्हें देखकर खुद बाहर आ एचलदेवी ने कहा, "दण्टनाविका जी ने जी भरकर बातचीत की। उन्हें बात करने से रोक नहीं सकी। शान्ति से बैंठकर सुनने के सिवा कोई चारा न था। आप जग उनकी हालत देख नीजिए।
पण्डितजी और मरियाने दोनों अन्दर चले गये।
महामातृश्री को अकंली छोड़कर जाना उचित न समझकर पद्मला ने एक आसन दिखाकर उस पर बैठने के लिए निवेदन किया। एचलदेवी ने दण्डनायक जी की तीनों बेटियों को देखा। धीरे-से आसन की ओर जाकर बैट गयीं और चाली, "छोटे अप्पाजी, बैठो। पण्डितजी के आने के बाद हम चलेंगे।"
दण्डनायिका की बेटियों खड़ी ही रहीं। "तुम लोग भी बैठो, खड़ी क्यों हो।' एचलदेवी ने कहा। वे भी वहाँ चिठी दरी पर कुछ दूर पर संकोच से बैठ गयीं। ___माँ को मौन देख बिट्टिदेव ने समझा कि माँ किसी गम्भीर बात पर विचार कर रही हैं। अन्दर दोनों में क्या बातचीत हुई-जानने का उनके मन में कुतूहल जगा। फिर भी यह उचित स्थान न समझकर चुप रहे।
देकब्बे दो बार स्नानगृह में गयी और दोनों बार थाली-लोटा लायी थी जल्दी में। सबका ध्यान उसी कमरे की ओर लगा था। अन्दर से के करने की आवाज सुन पड़ी। बाद में देकच्चे होशियारी से थाली लेकर पिछवाड़े की ओर चली गयी।
तभी मरियाने कमरे से बाहर आये और बेटियों से बोले, ''बेटी, तुम लोग अन्दर जाओ, तुम्हारी मौं बुला रही है।" वे उठी और अन्दर चली गयीं।
मरियाने बाहर के प्रकोष्ठ के एक खम्बे से सटकर खड़े हो गये। बिट्टिदेव
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ने उन्हें देखा। लगा कि उनके अन्तरंग में कुछ तुमुल चल रहा है। वह पास गये। उनका ध्यान आकर्षित करने के इरादे से कहा, "खड़े क्यों हैं? आइए दण्डनायक जी, बैंठिए।" ___ "हाँ, हुँ..." कहते हुए दण्डनायक गलीचे पर वहीं बैट गये। बिट्टिदेव भी उन्हीं की बगल में जा बैठे।
बिट्टिदेव ने पूछा, ''दण्डनायिका जी बहुत थक गयी हैं?"
"हाँ, उल्टियां करने से थकावट आ गयी है। उसकी तकलीफ़ देखी नहीं जाती। भगवान उसे पार लगा दे, काफ़ी है। लगता है, मैं ही उसकी मृत्यु का कारण बन रहा हूँ।" उनका गना ऊँध गया ।
उस पुष्ट बलवान व्यक्ति का यों विहल होना देख बिट्टिदेव का अन्तरंग मानो घुलकर द्रवित होने लगा। वह कुछ कह न सके।
तब एचलदेवी ने सान्त्वना देते हुए कहा, ''दण्डनायक जी, दण्डनायिका जी ने मुझे वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया है। आप दोनों के बीच और उसके पहले बेटियों और उनके बीच जो कुछ भी बातचीत हुई थी वह सब भी बता दी है। मा भगान की इता है। उसका दूसरा कोई व्यक्ति कारण नहीं बन सकता। प्रभु को मृत्यु के लिए दण्डनायिका जी को कारण टहराना जितना निराधार है, यह भी उतना ही अर्थहीन है। दण्डनायिका जी मन-ही-मन जिन बातों के कारण घुल रही थीं, उन्हें खुलकर व्यवत्त करने के लिए आप स्वयं प्रेरक रह हैं। उसी का फल हैं कि आज उनकी आत्मा को शान्ति प्राप्त हुई हैं। वे दीघांय होंगी। लेकिन यदि मृत्यु हो भी गयीं तो हम यही कहेंगे कि वे शान्ति और सन्तोष के साथ चल दी। इसलिए आपने उनका उपकार ही किया है। आप दुखी न हों। जल्दी होते समय तकलीफ़ तो होती हैं लेकिन बाद में आराम हो जाता है। भगवान की इच्छा होगी तो वह जल्दी ही अच्छी हो जाएंगी।"
“बात कहनेवाला मैं था। मैं जानता हूँ कि वह कैसी चुभती-सी बात थी।"
"तो मैं भी कह सकती हूँ बिना बुलाये आ गयी और उनके थकने तक उनसे बातें करवाकर और पकाने का कारण बनी या कि उनकी मृत्य का कारण बनी। ऐसा नहीं है। हमें बुद्धि से काम लेना है। हमें ऐसा नहीं विचारना चाहिए। हर काम के पीछे कोई अदृश्य हाथ क्रियाशील है, हम इस बात को मानते हैं। हम तो केवल करणमात्र हैं, कारण नहीं । करण को कृति-दोष नहीं लगता। काटनेवाले हाथ को जो दोप है वह तलवार को नहीं लगता। अब आपको वो घबराना नहीं चाहिए। अगर आप ही संयम खो बैठेंगे तो इन वेचारी अबोध बच्चियों का क्या होगा? आपका संयम बच्चियों को डाढस बंधाने के लिए बहुत आवश्यक है-हम बड़े लोगों को यह बात नहीं भूलना चाहिए।" एचलदेवी ने फिर से समझाया।
241 :: पट्टमहादयो शान्तला : 'माग दो
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बात समाप्त हो गयी। दण्डनायक मौन ही बैठे रहे। शायट महामातृश्री की सान्त्वना भरी बातों से उन्हें काफ़ी बल मिल गया था।
पण्डितजी अपनी दवाओं की पेटी को लेकर बाहर आये। एचलदेवी, मरियाने और विट्टिदेव उठ खड़े हुए।
एचलदेवी ने पूछा, “पण्डितजी, क्या हाल है?"
"सन्निधान को पहले जो बताया है उससे भिन्न कोई विशेष बात नहीं कह पा रहा हूँ। भगवदिवा को न जाता है." पसिनः कता:
"अभी कैसी है?"
"शान्ति से लेटी हैं। उल्टी होने से गला कमजोर हो गया है। बोलने पर भी आवाज साफ़ सुन नहीं पड़ती, फुसफुसाती-सी सुन पड़ती है। पूछ रही थीं कि क्या सन्निधान राजमहल चली गयीं। मैंने कहा कि यही हैं, मिलना है? इस पर वह बोलीं- "दिख नहीं रहीं सो यों पूछ ही लिया।' इतना कह पण्डितजी मौन हो गये।
'चलो छोटे अप्पाजी, जाने से पूर्व एक बार और उन्हें देख लें।' काकर एचलदंवी बिट्टिदेव के साथ कमरे के अन्दर गयीं। ___ लड़कियाँ उट खड़ी हुई । दण्डनायिका की दृष्टि पचलदेयी और बिट्टिदेव की ओर गयी। उसने दोनों हाध जोड़े। "बेटियों को आपकी गोद...." कहना चाहती थी। होट. मात्र हिले, बोल न सकी। ___"आप आराम कीजिए। हम फिर आएँगे।" कहकर एचलदेवो वहाँ से निकल आयीं। विट्टिदेव भी चले आये। उन लोगों को विदा करने के लिए सबके सब पालकी तक आचे। पालकी चढ़ते वक्त बिट्टिदेव ने कहा, "आज की सभा स्थगित की गयी है, दण्डनायिका जी का स्वास्थ्य अच्छा होने के बाद सभा युलाने का निश्चय सन्निधान ने किया है।" . 'अच्छा।'' मरियाने बोले। एचलदेवी और बिहिदेव राजमहल की तरफ़ और पण्डितजी अपने घर की ओर चले गये और दण्डनायक और उनकी बेटियाँ अपने महल में।
देकब्बे ने बताया कि मालकिन को नींद लग गयी है।
'दहिगा वहीं रहे। हम जल्दी भोजन कर आते हैं। देकब्बे, जितनी जल्दी हो सके भोजन चार करो और हमें सूचित करो।' मरियाने ने कहा और वहीं झूले पर बैठ गये। बेटियाँ अपनी माँ को देखकर कमरे में लौट आयीं।
देकब्बे से सूचना मिलते ही सब गये और भोजन कर आये। घर की हालत ऐसी थी कि शिक्षिका को भी नौकर से सूचना दिला दी गयी कि अध्यापन के लिए आज नहीं आना है। ऐसी दशा में बच्चियों का मन भला अध्ययन में लगता?
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इसलिए पिताजी को आराम करने के लिए कहकर वे सब माँ के कमरे में आ गर्ची ।
दूसरे दिन दण्डनायिका ने अपनी इस भौतिक देह को छोड़ दिया। उसने महामातृश्री से 'बेटियों को आपकी गोद में...' कहा था सो वे ही उसके आखिरी शब्द बनकर रह गये थे। इस अवसर पर महाराज बल्लाल सहित पूरा राजपरिवार पार्थिव देह को देखने आया और श्रद्धांजलि अर्पित कर राजमहल वापस चला
गजा १
दण्डनायिका ने जब आखिरी साँस ली थी तब मरियाने और उनकी बेटियाँ वहीं उपस्थित रहे। उन्हें इस बात का समाधान रहा कि वे यहाँ अन्त तक रहे। परिवार के सदस्य तथा अन्य सभी जन वहाँ थे, इस बात का ज्ञान दण्डनायिका को अपने आखिरी क्षणों में रहा या नहीं मालूम नहीं। मृत्यु के बाद जो-जो संस्कार आदि होने चाहिए थे, तो सब विधिवत् हुए। इस मृत्यु के कारण महासभा पन्द्रह दिन के लिए स्थगित कर दी गयी।
दण्डनायिका की मृत्यु के समय हेग्गड़ती और शान्तला बिड़िया के साथ वहाँ उपस्थित रहे। प्रधानजी और उनकी पत्नी लक्कलदेवी भी वहाँ थीं। मरियाने की पहली पत्नी का पुत्र माचण और डाकरस तथा उनकी पत्नियां भी उपस्थित रहीं । इन सबके होने से दण्डनायक की बेटियों को ढाढस बँधा रहा। खासकर आत्मीया माचिकब्बे और शान्तला की उपस्थिति उनके लिए बहुत ही सहायक सिद्ध हुई ।
पद्मता और चामला को, माचिकब्बे से परिचय होने के कारण उनके प्रति और अधिक आदर और गौरव-भाव उत्पन्न हो गया। ऐसी करुणामयी के बारे में हमारी माँ ने क्यों ऐसे बुरे विचार हममें उत्पन्न किये थे? सब बातों को जानती हुई भी, क्षमाशीलता का प्रतीक बन यहाँ आकर हम सबको अपना ही मानकर हम सबकी कुशल कामना करती हुई, हमारी देखभाल करनेवाली है यह करुणामयी आदर्श माँ । इसी वजह से उनकी बेटी इतनी गुणवती है। ऐसे लोगों का प्रेम, आदर प्राप्त करना. भी एक भाग्य की बात है- दण्डनायक की बेटियों के दिलों में ऐसी भावना धर कर गयी थी। इस भावना ने उन्हें और भी निकट ला दिया था। माँ को खोने के दुःख को भुलाकर माँ का प्रेम देकर माचिकब्बे ने दण्डनायिका की बेटियों के हृदयों में ऊँचा स्थान पा लिया था ।
मरियाने का मन दुःख से भर गया था। मारसिंगय्या ने उनके प्रति अपनी पूरी सहानुभूति प्रकट की और उनके इस दुःख को हल्का करने का प्रयास किया ।
एचलदेवी ने सभी बातें बिट्टिदेव को नहीं बतायी थीं। अब आगे का कार्यक्रम क्या 242 पड़महादेवी शान्तला भाग दां
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हो, बिट्टिदेव यह सोच ही रहे थे कि दण्डनायिका चल बसीं। इसी वजह से महासभा के कार्यक्रम स्थगित कर दिये गये थे। वह स्थगित सभा आज बुलायी
यी थी र इर: सा योगा, परी और चट्टला की सुनवाई होनी थी। सभा में प्रधान गंगराज, महादण्डनायक, मन्त्रिगण, दपइनाघ, हेग्गड़े मारसिंगय्या, शान्तला, मरियाने की बेटियाँ, रावत मायण तथा अन्यान्य अधिकारी मौजूद थे। महाराज बल्लाल और उनके भाई भी थे। पिछली बार की तरह इस बार भी सभा के सारे कार्य का निर्वहण बिट्टिदेव को ही करना पड़ा।
अबकी बार महासभा के समक्ष चोकी और वामाचारी को एक साथ उपस्थित किया गया था। वे केवल एक-दूसरे को देख सकते थे, आपस में बातचीत नहीं कर सकले थे। दोनों दूर-दूर पर खड़े किये गये थे। चोकी और बामाचारी दोनों को हथकड़ी पड़ी हुई थी।
बिट्टिदेव ने चोकी से कहा, ''इस महासभा के सामने झूठ कहकर पार नहीं हो सकोगे इसलिए सत्य बोलना होगा। उस दिन जिस स्त्री को तुमने देखा था, वह कौन है-जानते हो?"
"जानता हूँ।'' "उस दिन उसमे जो कुछ कहा, वह सत्य है?" ।
“पति के सामने कोई विवाहिता अपनी करनी स्वीकार करने को तैयार होगी?'' चोकी ने भी सविनम्र प्रश्न किया।
"तो तुम्हारा कहना है कि उसका कथन सरासर झूठ है।" "सच और झूट को मिलाकर कहा है।" "क्या झूट और क्या सच है" ।
'पीपल की परिक्रमा करना सच हैं। मैं रोज देख-देखकर तरस खाता रहा। एक बार उस बेचारी पर दया आ गयी तो मैंने उससे पूछा। उसने सन्तान प्राप्त करने का अपना उद्देश्य प्रकट किया। मैंने पूछा, 'अगर तुम्हारा पति हिजड़ा हो तो सन्तान कैसे होगी? तुम्हें पति चाहिए या सन्तान?' वह बोली, 'जो पति सन्तान नहीं दे सकता उससे क्या प्रयोजन?' मैंने अपनी सहानुभूति जतायी । वह सुन्दर थी, मुझे अच्छी भी लगी। उसके पास वशीकरण के लिए भस्म लेकर मचा। मैंने उससे यह नहीं कहा कि मैं कौन हूँ, बस उस पर भस्म का प्रयोग कर दिया। वह नकेल लगी गाय की तरह जिधर घसीटा उधर चलने लगी। बाद में उससे उसके पति की बात छेड़ता तो वह शायद चिढ़ जाती। मैंने उसे छोड़ देने की बात कही तब भी वह मुझसे चिपकी रही। यह बदचलन औरत ही तो हैं। युद्धशिविर में किसी और के साथ प्रेम हो लिया, उसके साथ रंगरेलियाँ मनाती रही। इसने आपकी तरफ़ के एक गुप्तचर को अपने जाल में फंसा लिया और सेना की
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 2-13
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गतिविधियों का पता लगाकर बता देने का काम स्वीकार कर लिया। और अन्न तक वहीं काम किया। इस वजह से वह जी रही हैं। वह एक बदज्ञात औरत है. वह विश्वासपात्र नहीं हैं।" चोकी ने बताया।
"तो तुमने उस पर बलात्कार नहीं किया?" "खुद-ब-खुद आकर पैरों पड़नेवाली औरत पर बलात्कार ही क्यों करें"
"जो तुम कह रहे हो उसे सत्य कैसे माने? सत्य साबित करने के लिए कोई गवाह है?"
"दूसरे गवाह की क्या जरूरत? चाबुक लेकर दो-चार लगा दिये जाएँ तो खुद ही एक देगी।"
"तो इस चाबुक का प्रयोग पहले तुम पर ही क्यों न हो?" "मने झूठ तो नहीं कहा!"
"ह मालूम तो पड़ना चाहिए कि तुमने झूट नहीं कहा। अच्छा, यह बात अभी रहने दो, पहले यह बताओ कि तुम हमारी इस राजधानी में कब और किस की आज्ञा से आये: अकेले आये या और भी?"
मैं और वामशक्ति दोनों साथ आये। हम उनके काम पर आये जिनका हम नमक खा रहे हैं। उनका कार्य हमने पूरी तरह समर्पित होकर किया हैं इसलिए हमें कोई दुःख नहीं।"
"तुम लोग मुप्तचर बनकर ही आये थे?"
"हम किसी से सरोकार नहीं रखना चाह रहे थे। हम पर तुम्हारे मालिक की यह कार्रवाई क्यों?"
"मालिक के आदेश का पालन मात्र हमारा काम है। उनसे सवाल करनेवाले हम कौन होते हैं?"
"तुम्हारा मालिक वह जग्गदेव ही है न?"
"हमें आप शूली पर ही क्यों न चढ़ा दें, लेकिन हमसे यह बात आप जान नहीं सकेंगे।"
"जग्गदेव हो या कोई दूसरा, जिस किसी ने भी उसे युद्ध के लिए प्रेरित किया है वह खुद-ब-खुद प्रकट हो जाएगा । तुमने दण्डनायक के घर में काम पाया कैसे? उन्हीं के घर को क्यों चुना?"
""राजमहल के विषयों की जानकारी यदि मालूम करना पड़े तो बहुत ऊँचे अधिकारियों के घरों से ही सम्भव है। प्रधानजी का घर, मन्त्रियों के घर, दण्डनायक का घर-ये ही समाचार संग्रह करने के योग्य ठिकाने हैं। आपके महादण्डनायक के घर को चुनने का कारण उनकी छोटी पत्नी है। और फिर वह प्रधानजी की
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बहिन भी है।"
"बस, इतना ही कारण रहा?" ''इतना ही।"
"तो क्या हमारे यहाँ के अधिकारियों के घरवालों पर कोई नियन्त्रण नहीं, वे जो चाहे कह सकते हैं तुम्हारा यही खयाल है?"
"ऐसे लोग पोयसल राज्य में कम हैं। एरेयंग प्रभु के पट्टाभिषेक के विषय में मतभेद रहा, यह बात सारी दुनिया तक पहुँच चुकी थी। यह मतभेद क्यों और कहों से है, इसका पता लग गया था। उस भेद को और अधिक बढ़ाने के लिए हमने जिस स्थान को चुना वह बहुत ही उपयक्त था । दण्डनायिका जी किसी बात पर बहुत जल्दी विश्वास कर लेती थीं। इसलिए मुझे आसानी से जगह पिल गयी। इसके अलावा, छोटे नौकरों पर किसी का विशेष ध्यान नहीं रहता। यह भी मेरे लिए अनुकूल स्थिति रही।"
___ रेवंग प्रभु और सिंहासनासीन होने के विरुद्ध विचार रखनेवालों में वैरभाव हैं। तुपने वही सोचा होगा"
हों, लेकिन यह बात गलत निकली। हमारे कार्य के निर्वाह में इसीलिए विलम्ब हुआ। किसी-किसी विषय में अभिप्राय भिन्नता के होने पर भी राज्यनिष्ठा के विषय में किसी पर कोई शंका नहीं की जा सकती थी। जिस प्रयोजन से हम यहाँ आये उसमें यदि सफलता नहीं मिल सकी तो जीना ही व्यर्थ है, इसलिए अपने कार्य की सिद्धि के लिए एक नयी योजना पर विचार कर ही रहे थे कि इतने में हमें मालूम पड़ा कि दण्डनायिका का कहीं किसी से विरोध चल रहा है। इसी सूत्र को हमने पकड़ा और पता लगाने की कोशिश की कि कहीं राजद्रोह है या नहीं। अगर हो तो इसी भावना को और अधिक विस्तार देना उपयुक्त होगा। हमने ऐसा ही किया। हमास पहला कदम यह था कि दण्डनायिका का मन वापाचारी की सलाह लेने के लिए तैयार किया जाए। इसमें सफलता प्राप्त करने पर हमने बड़ी मुक्ति से उनसे उन बुराई करनेवालों का पता-ठिकाना लगाने की कोशिश की। मगर कुछ भी पता नहीं लगा। हमारे पण्डित ने अपने तरकस के सारे तीर छोड़ डाले। 'हमें बाधा न हो ऐसे यन्त्र दो' यही उन्होंने कहा। उनका सन्देह किस पर रहा, यह नहीं बताया। अंजन लगाने का नाटक रचा गया, उससे भी कुछ पता नहीं लगा। दण्डनायिका ने क्या देखा सो उन्होंने नहीं बताया। इतना ही कहा कि हमने अपने वैरी को नहीं देखा। अपनी सारी युक्तियों एवं कोशिशों के बाद हम इस निर्णय पर पहुँचे कि हमें निराश होने के सिवाय कुछ और नहीं मिलेगा। अन्त में पण्डित को देश-निकाले का दण्ड मिला। उनके बिना मैं अकेला कुछ नहीं कर सकता था, इसलिए मैं भी चला गया। परन्तु एरेयंग प्रभु और
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महाराज विनयादित्य दोनों के निधन के बाद, हमें लगा कि राज्य छोटे बालकों के हाथ में पड़कर कमजोर हो जाएगा। ऐसी दशा में हमला करें तो अच्छा होगा। यही सोचकर हमला करने का निर्णय लिया गया। परन्तु इस बार भी लारे विचार गलत सावित हुए। राष्ट्रनिष्ठा में पोसल राज्य की जनता की कोई बराबरी नहीं कर सकता-यह प्रमाणित हो गया।"
"तुम लोगों ने गुप्तचर बनकर क्या काम किया?"
"अधिकारी वर्ग में मेल-मिलाप है या वैमनस्य -यह जानकर ख़बर भेजते रहना; सेना की गतिविधियों की समय-समय पर जानकारी देते रहना, रसद का संग्रह कितना हुआ है, राष्ट्र में वर्षा और पैदावार एवं उसकी सुरक्षा आदि बातों का पता लगाकर समाचार पहुँचाना, हमलों की सम्भावना हो तो पता लगाकर अपने मालिक को आगाह कर देना, जहाँ सम्भव हो वहाँ द्वेष पैदा करना, देष को बढ़ाने की कोशिश करना-आदि-आदि।" ___ "दोरसमुद्र पर सीधा हमला करने क्यों आये?" । __“महाराज बेलापुरी में हैं। दक्षिण-पश्चिम की ओर से गाल्वों के हमले के डर से सेना के एक हिस्से को यादवपुरी में रखा गया। राज्य का भण्डार राजधानी में है उसे अपने वश में करने पर चल घट जाएगा। उधर चेंगाल्वों को उकसाकर भेज दिया जाय और जो सेना है उसे दो भागों में विभक्त कर दें तो आपकी पराजय निश्चित है, यही समझकर यह निर्णय किया गया। इधर चेंगाल्व पीछे हटे, उधर हमने सेना संचालन में भी कुछ ग़लतियाँ कीं। सबसे अधिक आपकी एकता प्रशंसनीय है जिसके कारण आपकी जीत हुई। राज्य का भविष्य भी अच्छा है।"
"हमने जग्गदेव के प्रति क्या अन्याय किया था?" "उन्हें अपने राज्य को विस्तृत बनाने की आकांक्षा है।" “राज्य विस्तार के लिए जिस किसी पर हमला, हत्या-ये ही साधन हैं?"
"उत्तर देने के लिए ये प्रश्न मेरी शक्ति के बाहर हैं। पोय्सल चालुक्य चक्रवर्ती के सामन्त ही तो हैं। फिर भी सिंहासनारोहण के समय उनकी सम्मति के विना पट्टाभिषिक्त होना चक्रवर्ती के लिए यानहानि की बात होगी न? इस मानहानि को वे भला कैसे सह सकते थे? जग्गदेव की उस महत्त्वाकांक्षा को उन्होंने इसीलिए प्रोत्साहित किया और इसी कारण से उन्होंने हमला किया।"
"चालुक्यों के लिए अपने प्राण-अर्पण करने को पोसल तैयार रहे हैं। धारानगरी के युद्ध में चालुक्यों की विजय के लिए एरेयंग प्रभु ही कारण नहीं थे।"
"आवश्यकता पड़ने पर चक्रवर्ती की सहायता करना सामन्त का धर्म है। सहायता देनेमात्र से वह सर्वाधिकारी नहीं बन जाते। जो गौरव मिलना चाहिए वह अगर न मिले तो क्षुब्ध होना सहज ही है। और, शंका भी उत्पन्न हो सकती हैं।
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चक्रवर्ती की यही आकांक्षा है कि चालुक्य साम्राज्य यथावत् बना रहे ! जहाँ-तहाँ. रहनेवाले सामन्त अपने आप स्वतन्त्र व्यवहार करने लग जाएँ, यह एक सम्राट् को कैसे सह्य हो सकता हैं? अपने बल, अधिकार और सार्वभौम प्रभुत्व की रक्षा के लिए वह कुछ भी कर सकते हैं।'
“तो क्या तुम लोग कल्याण के गुप्तचर हो?"
“मैंने ऐसा तो नहीं कहा। मात्र वस्तुस्थिति को बताया। मैं किसका गुप्तचर हूँ उसे आप नहीं जान सकेंगे।"
"सो ऐसा तुम सोचते हो, छोड़ दो उस बात को!'' कहते हुए बिट्टिदेय वामाचारी के पास आये और बोले, इस चोकी ने जो कुछ कहा सो सब तुमने सुना? वह सब सच है?"
“जिसे मैं नहीं जानता उसके सत्यासत्य का निर्णय कैसे कर सकता हूँ?" "मतलब" “मतलब बह कि उसने जो कहा उसके लिए वही जिम्मेदार है।" "तुम भी इससे सम्बन्धित हो, ऐसा बताया न" "बताया, उसने बताया। मैं सम्बन्धित हूँ यह कहाँ सिद्ध होता है?" “शत्रु-सेना में तुम मिले रहे, यह झूठ है?" "झूठ कहकर मैं अपनी जीभ को क्यों खराब करूँ? सच है।" "तो यह प्रमाणित हुआ न कि तुम हमारे शत्रुओं के गुप्तचर हो?" “मैं गुप्तचर भी नहीं, कुछ भी नहीं, मैं शुद्ध वामाचारी हूँ।" “वामाचार ही अशुद्ध है।"
"शुद्ध-अशुद्ध यह सब व्यक्ति विशेष के विश्वास पर अवलम्बित हैं। मैं युद्ध शिविर में जग्गदेव प्रभु की रक्षा मात्र के लिए था।"
"तो अब तुम्हारी रक्षा कौन करेगा?" "मैं जिस शक्ति पर विश्वास रखता हूँ वहीं मुझे बचाएगी।" "तो क्या उस शक्ति से दूसरों को तुम मार सकते हो?" "बेशक।" "मुझे विश्वास नहीं।" 'अनुभव होने पर भी विश्वास न हो तो क्या कहूँ?'' 'मतलब?" "मतलब यह कि एरेयंग प्रभु की मृत्यु के लिए मेरी शक्ति ही कारण है।" ''उन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?" "उन्होंने कुछ नहीं किया। दूसरों के हित के लिए मैंने किया। 'किसके हित के लिए?"
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"धारानगरी के राजा भोज के हित के लिए। एरेवंग प्रभु के रहते विक्रमादित्य की हार नहीं हो सकेगी-यह जानकर उन्होंने इस काम के लिए मुझे नियोजित किया। मैं यहाँ आ बसा। राजमहल में दण्इनायिका की आवाजाही के लिए कहीं कोई अड़चन नहीं, इस बात का पता लगाया। चौकी से मैत्री वढ़ायी। वशीकरण में उसे मदद देकर उसी के द्वारा दण्डनायिका के मन में विश्वास जगाया। चोकी से मैंने झूठ कहा कि मैं शत्रुओं का गुप्तचर हूँ। या इसलिए कि मैं उसका विश्वासभाजन बन जाऊं। दोनों एक ही व्यक्ति द्वारा नियोजित मान उसे मुझ पर विश्वाप्त हो गया ! योगी की बातों से पता लगा कि सचिवः को चिन्ताएँ है, उनके स्वभाव में कष्ट दुर्बलताएँ हैं। यह सब मेरे कार्य के लिए अनुकूल पड़ा। एक दिन खुद देण्इनायिका मेरे घर आयीं। उन्होंने बताया कि कोई उन्हें बुरा बनाने के लिए उनके प्रयत्नों को विफल करने में लगे हैं। उन विफल करनेवालों को समझने की बहुत कोशिश की परन्तु सफलता नहीं मिली। उन्होंने कुछ कहा नहीं । बस, वापाचार के प्रयोग से उन्होंने अपनी बाधाओं को दूर करने की इच्छा प्रकट की। मैंने सर्वतोभद्र बन्त्र तैयार कर देने की बात कही। उन्होंने बताया कि यह मन्त्र उनकी बेटियों के लिए भी चाहिए। मैंने कुल चार यन्त्र बनाकर दिये। पेरे कार्य को उससे चौगुना बल मिला। मैंने जानबूझकर इन चारों यन्त्रों में एरेयंग प्रभु के विरुद्ध मन्त्र का प्रयोग किया था, क्योंकि मैंने सोचा कि ये लोग किसी बाधा या रोक-टोक के बिना गजमहल में चल-फिर सकती हैं और उससे एरेयंग प्रभु के विरुद्ध ग्रहशक्तियों को प्रबल बनने में सहायता मिलेगी। यही हुआ। ग्रहपीड़ा अधिक क्रियाशील बनी। वे स्वयं यह नहीं जानती थीं कि वे क्या कर रही हैं; अनजाने ही ये चारों मेरी मदद के लिए बड़ी आसानी से हाथ आ गयीं। अंजन-क्रिया चली। उस दिन दण्डनायिका ने जिसे देखा वह एरेयंग प्रभु ही थे-यह मैं जानता था। मैं चाहता भी यही था। उन्होंने बताया नहीं, फिर भी मेरे लिए समाधान की बात थी, क्योंकि मैं जो चाहता था उसे देखकर मुझे तृप्ति मिली थी।"
बीच में महाराज बल्लाल चोल उठे, "उस दिन तो गंगराज प्रधानजी के सामने कुछ और ही बक रहे धे!"
'हो, अपनी जान बचानी थी, इसलिए झुट बोलना ही पड़ा था। मेरे इस झूट बोलने के लिए दण्डनायिका एक अस्त्र की तरह मेरे हाथ लगी थी। मेरे लिए दूसरा चारा नहीं था। अपनी शक्ति का सीधा प्रयोग करने में मुझे सहायता मिली सां मैंने उसका सीधा प्रयोग किया। इसके बाद देश-निकाले का दण्ड मुझे वरदान के रूप में मिला। उस महात्मा ने, जिसे मार डालने के लिए, मैं आया था, मुझे अमृत ही पिलाया।"
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"तुम्हारा काम तो बन गया न: अब यह सब क्यों?"
"बिना किये रह नहीं सकता। जो शक्ति मेरी वशर्तिनी है, उसे अन्यत्र काम करने नहीं लगाऊँ तो वह मुझे ही खा जाएगी। उसे काम देना ही था। पोय्सल राज्य में मेरे लिए जगह नहीं रही। यहाँ की गतिविधियों का थोड़ा-बहुत परिचय तो हो हो गया था। इस चौकी से मदद मिल सकने की सम्भावना भी थी। इसलिए मैं इसे भी साथ लेकर पट्टिगोंबुच्चपुर गया। वहाँ मुझे आसानी से राजाश्रय भी प्राप्त हो गया।
“अव उतनी ही आसानी से राजकोप भी तुमको मिलेगा।" बल्लाल ने कहा। ___ "उससे मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा। मैंने जो किया है वही मेरी शक्ति की गवाही दे रहा है। मेरा विरोध करके आप लोग तकलीफ़ में फंसने को तैयार नहीं हो सकतं-यह मैं जानता हूँ।" ___“अपनी शक्ति की डींग मत मारो। डींग मारना केवल टोंग है-यह हमें मालूम है। तुम जो भी कहो, हम इस बात पर विश्वास नहीं रखते कि तुममें मारने या मरने से बचाने की शक्ति है। कमजोर मनवालों को जाल में फंसाकर, उन्हें वश में करके, युक्ति से गुप्तचरी का काम करना मात्र तुम्हारा काम है, यह हम अच्छी तरह समझ गये हैं।' बल्लाल ने कहा। __वामाचारी कहकहा लगाकर हंस दिया। बोला, "आपकी सूझ का कोई जवाब नहीं।"
विट्टिदेव ने आदेश दिया, “उस औरत को बुला लाओ।' दो सिपाही चट्टला को ले आये। ''तुम इस औरत को जानते हो?"
''हाँ।"
"कहाँ, कैसे?"
"इस चोकी के द्वारा । उसने इसे एक घर में रखा था। मेरी इच्छानुसार इसने कई रातें मेरे साथ बितायी हैं।"
"इस पर भी तुमने अपने वशीकरण का प्रयोग किया?"
"अपनी शक्ति का उपयोग अपने लिए करने पर वह नाश हो जाती है, इसलिए स्वार्थ के लिए हम किसी स्त्री पर वशीकरण मन्त्र नहीं चलाते।"
"तो फिर यह तुम्हारे वश में कैसे आयी?"
''वह सब पूर्व-नियोजित है। वह चोकी की व्यवस्था है। उसके हाथ में यह अकेली ही नहीं, और भी कई स्त्रियाँ थीं।"
"तुम जैसा कि लिए तुमसे ही भस्म पाकर यह वश में कर लेता था?" "वशीकरण से जो वश में आती हैं वह स्त्री उस अकेले की वशवर्तिनी बनती
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है। वह दूसरों के वश में नहीं होती।'
"तो यह तुम्हारे भस्म से वशीकृत नहीं:" "बिलकुल नहीं।"
चोकी ने तरधर वामाचारी की ओर देखा। लेकिन वामाचारी ने चाकी की ओर निहाग तक नहीं।
चोकी चिल्ला हटा, ''यह जो ऋछ कहता है सब झूठ है।"
"खामोश! यह राजसमा है।' कहकर बिट्टिदेव चोकी के पास आये और बोले, ''क्या सत्य और क्या झूठ-इसे कैसे प्रकट कराना होता है. इस सभा को मालूम हैं। जब पूछा जाय तब जघाब दोग। बीच में बोने तो जीभ काट ली जाएगी। और यह भी समझ लो कि अगर झुठ बोले तो कष्ट में पड़ोगे और अन्त में सत्य बोलने के लिए विवश हो जाओगें । इसलिए इससे तो अच्छा यही है कि पहले हो सब सच-सच कह दो। तुम दानों को अभी अवसर है कि जो कुछ घटित हुआ है। से खुलकर बना टो।"
तो क्या इस स्त्री ने ओ कहा गं मन्य मानकर निर्णय लिया जा चका है।" चोकी ने पूछा।
''हमारी रीति पर प्रश्न करने की धृष्टता भी तुझमें है : रेविमम्या जाकर शस्त्रधारी ताड़कों को बुला लाओ! इसके नाक कान दवाये जाएँ तो सत्य । अपने-आप बाहर आ जाएगा। पीट पर चाबुक माग्न से यह ज़्यादा आसान है। देखनेवालों को भी अच्छा लगेगा।" बिहिदेव ने कहा।
आदेश मिलते ही शस्त्रधारी आ गये। 'हाँ, अब बाला, सच धोलांगे या सच कहलवा?"
“पीड़ा दीजिए। उसे सहन न कर यदि जो चाहें, जैसा चाहें, झूट ही बोलें, उसी को सत्य मानकर विश्वास कर लेंगे?"
“पीड़ा से बचने के लिए झूट बोले तो वह सत्य कैसे हो जाएगा? प्रत्येक पहलू से हर एक के मुंह से एक जैसा ज्ञात पड़ने पर ही सत्य का स्वरूप दिखेगा। उससे तुम्हें क्या मतलब : स्वयं प्रेरित होकर सत्य को छिपाय विना कह देना या न कहना तुम्हारी इच्छा पर है। इसके लिए तुम्हें घोड़ा-सा समय और दिया जाता है। इतने में और लोगों की भी तहकीकात करना है।' बिट्टिदेव ने कहा । फिर चट्टला की ओर देखकर बोले, ''इस सभा के सामने और भी कहने लायक बात हो तो उसे बताने के लिए अभी मौका है। जो कहना बाकी है सो सय बता दो।"
उसने पुनः अपना बयान दिया : "मेरा शील भ्रष्ट हुआ हैं यह पहले ही बता युकी हूँ। राष्ट्रभक्ति का काम मैंने जिस तरह निवाहा है, सो सब गुप्तचर चाविमय्या को मालूम हैं। बेहतर यही होगा कि वही यहाँ आकर कहे। मेरे शील
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भ्रष्ट होने के विषय में इन दोनों ने सम्पति दी है। इस चोकी ने मुझ पर जबरदस्ती की और शीलभ्रष्ट किया, भ्रष्ट हुई। अब रह ही क्या गया था इसलिए राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर कुछ कर गुजरने के लिए मने, इस चोकी ने जैसा कहा, बैसा किया, किसी तरह का विरोध किये बिना। संख्या प्रधान नहीं। जिस स्थिति में वैसा किया वह मुख्य है-यही मैं मानती हूँ। परदे के पीछे रहकर मैंने इस चौकी की सारी बातें सुनी हैं। सन्निधान चाहें तो पीट पर चाबुक लगवा सकते हैं। उस समय भी मेरे मुँह से वही सत्य निकलेगा। मुझे इस जिन्दगी में अब कोई आशा नहीं है। स्त्री होकर जन्मी, भरपूर प्रेम करनेवाले पति को पाया था। माँ बनकर घर को मॅजाने की अभिनाशा रखनेवाली मुझको भगवान ने ऐसा दण्ड क्यों दिया सो मालूम नहीं। वह शायद किसी पूर्वजन्मकृत पाप का फल हो सकता है। मैं पतिता बनी। फिर भी राष्ट्रप्रेम का पवित्र कार्य किया-इस बात की तृप्ति मुझे मिली है। यह महासभा मुझे चाहे जो दण्ड दे, मैं भुगतने के लिए तैयार हूं। मुझे भयंकर मनोवेदना देकर मेरे शरीर का उपयोग अपन सुख के लिए करनवाले इन लोगों से बदला लेने की मेरी इच्छा है। मेरी इस एकमात्र अभिलाषा को सफल बनाएँ-यही मेरी प्रार्थना है।"
चाविमय्या तब तक वहाँ पहुँच चुका था। उसने बताया
"चोकी और वामाचारी दोनों गुप्तचर का ही काम करनेवाले हैं। यह वामाचार आमाचार सब-कुछ केवल ढोंग और नाटक है। दुर्बल मन कं लोगों को नचाने की युक्ति है। यह सव नाटक रच रखा है। इसको यह मालूम नहीं पड़ा कि मैं पीयसल राज्य का गुप्तचर है। इस चट्टलदेवी के महान त्याग से शत्रुओं के अनेक रहस्य जानने में सहायता मिली. और शत्रुओं की सना को आड़े-तिरछे मागों में चलने-चलाने के लिए उकसाने में मदद मिली। वास्तव में पहले इस चहलदेवी पर मैंने विश्वाप्त ही नहीं किया। इस भ्रष्ट स्त्री के कारण मेरे लिए अनिष्ट की सम्भावना हो सकती है-यह सोच पैने बहुत सावधान रहकर इसका हर तरह से, हर पहलू से निरीक्षण किया। उसके बदला लेने की प्रबल इच्छा से स्पष्ट हो गया कि वह राष्ट्र-निष्ठा सहज स्वभाव-मत्त है और सुभद्र है। राष्ट्र-निष्ठा के ध्येय को साधने में अपनी देह को भी दाँव पर लगाकर इसने शुन्द्ध और स्वस्थ मन से शत्रुओं की अनेक गुप्त गतिविधियों का पता लगाया। इस जग्गदेव को दबाने और पकड़ लेने में चट्टनदेवी की राज्यनिष्ठा ही सबसे अधिक सहायक रही है।" ___ चाविमय्या ने आगे कहा, "इस वामाचारी का धारानगरी के भोज से कोई सम्बन्ध नहीं। उसने जो क्रिम्सा सुनाया वह सब सरासर झूठ है। परदे के पीछे रहकर मैंने, इसने जो कुछ भी कहा, सब सुना। ये दोनों एक ही शत्रु के गुप्तचर हैं। ये चोल प्रतिनिधि आदियम के गुप्तचर हैं। राजनीतिक गतिविधियों को ध्यान
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में रखते हुए समयानुकूल सात से बात करने में ये बड़े चतुर हैं। जग्गदेव के हमने की वात जानकर, हो सका तो उन्हीं से हमारी शक्ति को कण्ठित करने के इरादे से, उनके पास जाकर अपनी वामाचार शक्तियों की डींग भारकर, गरेयंग प्रभु के मारने को अपनी शक्ति का प्रताप बताकर, उसे अपने वश में करके तात्कालिक रूप से उसकी सेना में इन्होंने प्रवेश पाया और उसके गुप्तचर बनकर काम किया। इनका सारा किस्सा हमें मालूम है। ये दोनों हमारे बन्दी हो गये. इस बात का पता उस आटियम का कैसे लगा, पता नहीं। अभी परसों यात्रा के भेष में एक व्यक्ति आया था। कहता था कि उसकी पत्नी को कोई भूत-पिशाच की बाधा है। इस बहाने यह वामाचार्ग पण्डित का पता लगाने के लिए इधर-उधर पूछताछ करता रहा। इस पर शंका हुई तो उसे पकड़ लिया, ज्यों-त्यों करके उससे सच्चो बात निकलवायी। उसका नाम इसकया है। वह जग्गदेव के युद्ध-शिविर में, जब ये लोग थे, इनसे मिलने आया था। यहाँ से आदियम के पास ख़बर भेजने की बात चलदेवी जानती हैं। हम इसकन्या के चाल-चतन की गतिविधि पर शंका उत्पन्न होने के कारण जब मैंने इस पकडकर यांफ़्त किया तो इसन अपना नाम प्रभुवय्या बताया और का कि तला संक्रमण के अवसर पर स्नान करने तलकावेरी की यात्रा कर, वहाँ से उदभव हानवात पवित्र गंगाजल को लाकर उसे अपनी पानी पर छिड़केगा तो उसकी भूतपीड़ा का परिसार हो जाएगा-यों उसे उसके गुरु ने बताया है। और यह भी उसने बताया कि दोरसमुद्र रास्ते में पड़ता है। महावैभवशाली नगर हैं यह भी सुन रखा था। दौरसमुद्र आया तो यहाँ किसी ने बागशक्ति पति के बारे में बताया इससे उसे देखने का कनहल हुआ-यों उसने मनमाने कुल किम्से गढ़े। उसने यह भी कहा कि मान्यखेड़ का हैं। राजनीति से उसका कोई सम्बन्ध नहीं, केवल यात्रार्थी है। फिर भी मुझे विश्वास नहीं हुआ। मैंने अपने साथी गुप्तचरों को दिखाकर, चलदेवी को भी संकेत कर दिया। चद्दलदेवी को देखत ही उसकी छाती फट गर्या । उसके सामने लाने सच बात कह दी। आदेश हो तो उसे अभी बुलवाया जा सकता है।''-चाधिमय्या ने विस्तार के साथ सारा किस्सा. किसी तरह की शंका के लिए मौका ही न हो, इस तरह स्पष्ट रूप से सुना दिया। ___ इसकया का नाम सुनते हो चोंकी और वामाचारी एकदम फक पड़ गये। अन्य बातों को उजागर करने के लिए साक्षी बनकर खड़ी चट्टला की मौजूदगी में झूर कहकर बच निकालना सम्भव नहीं था। ___“हाँ, तो अब सारी सच्चाई को सीधे-सीधे सामने रख दी। अन्यथा प्रताड़ना देने पर सव-छि उगलवा लिया जाएगा।'' विदिदेव ने कहा।
''हमें सूली पर चढ़ा दीजिए, हम तैयार हैं। गुप्तचर चामिया ने जैसा बताया, हम दोनों आइयम कंी गुप्तचर हैं। हम वामाचार नहीं जानते। वह सब
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एक ढांग था, एक नाटक था।'' ___ तुमने कहा, अंजन के प्रयोग में एरेयंग प्रभु को देखा।"
''उस नाम को बताने पर विश्वास करने की स्थिति थी। एरेयंग प्रभु को किसी बात पर मरिचाने दण्डनायक पर सन्देह है, यह हमें मालूम था।"
"दण्टनाविका जी ने जिसे देखा, बताया, वह झूठ था?"
"उन-उनकी कल्पना के अनुसार कुछ देखने का सा आभास होता है। जिनका मन दुर्बल होता है। उन्हें जैसा कहोगे वही आभास होने लगता है।" ___ "तो यह अंजन-क्रिया सब झूठ है?"
"मैं इसे नहीं जानता। जो इस वृत्ति को जानते हैं उनसे ही दर्यात करना होगा। उनमें प्रसिद्ध अंजन-क्रिया करनेवालों को मैंने देखा हैं। उनके सवाल के ढंग को गौर से देखा है। जीवन में पहली बार मैंने महादण्डनायक के ही घर में इसका प्रयोग किया।"
"तो फिर बशीकरण"
'बह सब-कुल मैं नहीं जानता। मुझे इतना भर पता था कि इस वशीकरण के लिए भस्म दिया करते हैं, सो मैंने भी दे दिया। मुझे कोई भी मन्त्र-सिद्धि नहीं। मैं तन्त्र मात्र जानता हूँ।"
"ठीक है। फिर एक बार पूछता हूँ, ये चार लड़कियाँ कौन हैं, जानते हो?" "नहीं, इन कोई मेरे स नर, अ.यो. मग इन्हें कहीं नहीं देखा है।" "तो वे जो कहती हैं कि तुमको देखा नहीं...यह सच है?"
''मैंने नहीं देखा-यह सच है। उन्होंने मुझे मेरी नज़र बचाकर अगर देखा हो तो मैं कैसे कहूँ कि नहीं देखा। उनकी बातों पर विश्वास करना न करना आप की इच्छा और सन्दर्भ पर निर्भर हैं।'
फिर बिहिदेव महाराज के पास गये। दोनों ने आपस में बातचीत की।
“किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि हमारे पीठ पीछे कुछ हुआ, इसी लिए यह महासभा बुलायी गयी। इस विषय में जल्दबाजी से कोई निर्णय देना
सन्निधान की इच्छा नहीं हैं। सबसे एक साथ या प्रत्येक से अलग-अलग चर्चा • करने के बाद ही कोई निर्णय लिया जा सकेगा। तब तक ये तीनों और इसकय्या बन्धन में ही रहेंगे। आज की यह महासभा विसर्जित की जाती है।" बिट्टिदेव ने कहा।
घण्टी बजी । सैनिक बन्दियों को ले गये। सभासदों ने झुककर प्रणाम किया और पीछे की ओर सरकते हुए विदा हुए।
महाराज बल्लाल और बिट्टिदेव अन्तःपुर की ओर चले गये।
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किसी वैयक्तिक विषय को लेकर विचार करने के लिए महासभा का आयोजन किया गया था, परन्तु सुनवाई के होते-होते बहुत दूर-दूर के राजनीतिक सवाल उठ खड़े हुए। मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार, चोकी और वामाचारी को सूली पर चढ़ाने का निर्णय हुआ। इसकय्या को देश-नकाले का दण्ड दिया गया और फिर वह आये तो पहचानने के लिए उसके दायें हाथ पर लोहे की गर्म शलाका से दो बार दाग भी दिया गया।
चट्टला की सबने प्रशंसा की और सबने उसके प्रति सहानुभूति दिखायी। उसे स्वीकार करके फिर से परिवार बसाने की सलाह रावत मायण को देने का निर्णय करने का किसी को साहस नहीं हुआ, क्योंकि यह सीधे उसके वैयक्तिक जीवन से सम्बद्ध विषय था। किसी की जबरदस्ती या अनिवार्च परिस्थिति के वशीभूत होकर आज टुर वह स्वीकार कर ले आर कल उसकं पारिवारिक जीवन में सामंजस्य न हो पाए तो क्या होगा? यह शंका उत्पन्न होने के कारण चट्टला के भविष्य के बारे में निर्णय करने का उत्तरदायित्व उन्हीं दोनों पर छोड़ दिया गया।
इधर मावण सोचने तगा : 'यदि मैं स्त्री होता और क्षमा याचना करने की हालत उत्पन्न हुई होती तो क्या होता? क्या सहानुभूति एवं उदारतापूर्ण व्यवहार की आकांक्षा न करता?' स्वभाव से वह अच्छा आदमी था। उसका मन साफ़ था । बहुत सोच-विचार करने के बाद उसने चट्टला से कहा, ''हम पहले की ही तरह पारिवारिक जीवन बिताएगे।'' ____ चट्टला ने कहा, 'आप में पहला का-सा ही प्रेप मुझ पर है, वह कभी पालन नहीं हुआ। परन्तु मेरा यह शरीर कलंकित हो चुका है। बड़े प्रेम से पाणिग्रहण करनेवाले के साथ मैंने धोखा किया और भाग खड़ी हुई-आपने अब तक यही सोचा होगा। ऐसा सोचना गलत भी नहीं। परन्तु मैं धोखेबाज्ञ नहीं, इच्छापूर्वक नहीं भागी। आपके उस पवित्र प्रेम को कलंकित करनेवाली नहीं। ऐसा मानकर आप मुझे क्षमादान देकर अनुग्रह करें, यही मेरे लिए पर्याप्त है। कोई पूर्व जन्म का पुण्य था। सो मेरा आपसे विवाह हुआ, मैं आजीवन आपकी सेवा करती रहूँगी 1 आपके साथ पारिवारिक जीवन में योगदान दे सकने की योग्यता मैं खो बैंठी हूँ। आप दूसरा विवाह कर लें। मुझे आप दोनों की सेवा करते रहने की स्वीकृति देकर मुझ पर अनुग्रह करें।"
"दूसरा विवाह करके तुम्हें दासी बनाकर रखना मुझसे सम्भव नहीं।''
"आपका जीवन निरर्थक न जाय। आप दूसरा विवाह करके सुखी जीवन बिताएँ। मैं अपने जीवन को, सन्निधान की आज्ञा के अनुसार, राष्ट्र-सेवा के लिए धरोहर के रूप में समर्पित कर दूंगी। पास रहकर, पुरानी बातों को याद कर,
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बदहज़मी के इकार लेकर स्वादिष्ट भोजन के स्वाद को बिगाड़ने की भाँति, आप अपने जीवन को क्यों थिगाड़ें। दूर-दूर रहकर ही उस प्रेम के स्वरूप के ज्या-का-त्यों बचाए रखेंगे।" चट्टला ने अनुरोध किया।
चाविमच्या द्वारा यह सारा समाचार सन्निधान को विदित हो गया। चाविमव्या ने निवेदन किया, "उस पहिला को हमारे गुप्तचरों के दल में सम्मिलित कर लें। तो बड़ा उपकार हो सकता है। वह बहुत सूक्ष्म-मति है।" फिर भी महामातृश्री की इच्छा के कारण चाविमय्या की सलाह कारगर नहीं हो सकी। महामातृश्श्री (एचलदेवी ने स्पष्ट कह दिया, “पोयसल राज्य की नारियों को अपना शील भंग करने की जरूरत नहीं।" इसलिए विचार-विमर्श के बाद अन्त में उनके जीवनयापन के लिए आवश्यक थोड़ी-सी खेती और कुछ मासिक वेतन देने का निश्चय किया।
अब एक तरह से राजधानी और राजमहल का वातावरण शुद्ध और परिष्कृत बनकर सहन हो रहा था।
ऐसे ही एक दिन बिट्टिदेव ने अपने बड़े भैया से खुद के बारे में बात छेड़ी। दण्डनायिका चामब्बे ने महापातृश्री से क्या कहा था, यह मालूम नहीं था। इसे छोड़कर तब तक और जो भी बातें हुई थी उनसे तो सब परिचित ही थे। सुनवाई के बाद दूसरे दिन मरियाने दण्डनायक ने महाराज बल्लाल के दर्शन कर निवेदन किया, "भगवान ने हमारे राज्य पर कृपा बरसायी, सब-कुछ ठीक चल रहा हैं। राज्य का महादण्डनायक होकर भी उस वामाचारी के बारे में, वह नया व्यक्ति होने के कारण, विशेष जानकारी प्राप्त न करने की भारी ग़लती की। ऐसा अपराध करने पर भी इस महादण्इनायक के पद पर मेरे बने रह जाने का औचित्य नहीं रह जाता। इस बात को मैंने प्रधानजी से भी निवेदन किया है। सन्निधान और ये-दोनों ही मुझसे छोटे हैं। उम्र अधिक होने पर भी छोटों के सामने ग़लती को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं। मुझे इस पद से मुक्त कर दें तो मैं कृतज्ञ होऊँगा। इस भारी ग़लती का बोझ ढोकर इस जिम्मेदारी का निर्वहण नहीं हो सकता।"
अनजान में गलतियाँ हो जाएँ तो कोई क्या कर सकता है? आपने मन-वचन-तन से कभी भी राष्ट्रहित की उपेक्षा नहीं की। आपका जीवन राष्ट्र के लिए ही समर्पित रहा है। इसलिए पिछली सब बातों को भूलकर जैसा अब तक चला है वैसे ही चलना चाहिए। किसी परिवर्तन की आवश्यकता नहीं-यह हमारी राय है। प्रधानजी ने क्या कहा?" ___"इस विषय में तो सन्निधान ही निर्णय ले सकते हैं-कहकर वह खिसक गये।"
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"उन्हें आपको सलाह जेंची नहीं। सन्निधान की ओर इशारा कर दिया।".
"रिश्ते-नाते में, निर्णय करने में संकोच होता है, इसलिए वे खिसक गये। इस पद के त्याग करने में मुझे कोई परेशानी नहीं । खुशी से मैं खुद अपनी इच्छा से त्याग कर रहा हूं, यह न्यायसंगत भी है।"
आपने कहा और हमने स्वीकार कर लिया-इसका तो यही अर्थ होगा कि हमने आपको अपराधी मान लिया। जब तक हमें ऐसा नहीं लगेगा कि आप अपराधी हैं तब तक आपकी इस मांग को सुरक्षित रखे रहना होगा। आप अब विदा ले सकते हैं।'' बल्लाल ने कहा।
यह वार्तालाप भी बिट्टिदेव के समक्ष ही हुआ था। इस सम्भाषण ने बिट्टिदेव को कुछ विशिष्ट बातों पर बातचीत करने के लिए सहूलियत पैंटा कर दी, कहा जा सकता है। क्योंकि मरियाने के विषय में बल्लाल की राम भी मालूम हो गयी थी। __"क्या अब ऐसा मान सकता हूँ कि सन्निधान के मन में सारी बात स्पष्ट हो गयी है?'' विट्टिदेव ने प्रश्न किया।
"कौन-सी सारी बात?"
"वही, उस वामाचारी की. महादण्डनायक जी की, उ नायिका जी की एवं उनकी बेटियों की।"
"हो. मैं नहीं तोल रहा है। नाम : नागा सूक्षा : कभी-कभी पूर्वापर विचार किये बिना कैसी-कैसी ग़लतियों कर बैठता है : कैसी-कैसी बातों में फँस जाता है ! इसके कैंसे-कैसे परिणाम होते हैं! क्या-क्या खतरे उत्पन्न हो जाते हैं! ग़लती किसी और की और दण्ड किसी और को-ऐसी भी स्थिति हो जाती हैं। निरपराध भी दण्डित हो जाते हैं-यह सब अच्छी तरह स्पष्ट हो गया।"
"तो पहले दिये हुए वचन का पालन कर सन्निधान पोसलों के सत्यवचन परिपालन की कीति को चिरस्थायी कर सकेंगे न"
"मेरा मन पूर्वाग्रह से मुक्त है। फिर भी महामातृश्री की इच्छा के विरुद्ध कछ नहीं कर सकूँगा।"
"आपके ये विचार ठीक हैं। माताजी से खुद सन्निधान बात करेंगे या मैं ही बात करूं?"
"तम ही बात कर लो। माँ के मन की रीति से तुम मुझसे अधिक परिचित हो। परन्तु जिसने वचन लिया वे यदि न चाहें तब।" ।
___ "सन्निधान मुझे क्षमा करें। हम पुरुष इस विषय में उतने निष्ठावान नहीं होते। वे ऐसी नहीं, एक बार किसी को दिल दे दिया तो बदलेंगी नहीं।"
"परुष होकर तुमको यह सब कैसे मालूम?"
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"निश्चित रूप से जानने में है. दवा रहा है।" "तब तो आपका भी अभी...?" "पहले जो आये उनका पहले, बाद की बात बाद में।"
"जैसा ठीक लगे करो, छोटे अप्पाजी। मेरा मन दुविधा में पड़कर भयंकर पीड़ा का अनुभव कर रहा था। कई बार यह अनुभव हुआ कि मैं भी सबकी तरह सामान्य मनुष्य ही बनकर रहा होता तो कितना अच्छा होता! जो मन में नहीं हैं, उसे मुंह से कहकर सन्दिग्धावस्था से पार होने की भी स्थिति आयी थी। असली रूप को छिपाकर कुछ बाहरी आवरण ढक लेना पड़ता था। हम जैसे हैं वैसे यदि नहीं दिखे तो दूसरों को दुःख होगा, उन्हें अच्छा नहीं लगेगा-इस वजह से जो हम चाहते हैं उसे छोड़ देना पड़े तो वह कितना कष्टदायक दण्ड होगा-जानते हो अप्पाजी: परन्तु ऐसी सभी परिस्थितियों में तुमने सहारा दिया है। छोटे होने पर भी दूर तक को सोचन में तुम मुझसे श्रेष्ठ हो। तुम्हारे सहारे चलने पर सदा ही अनेक प्रसंगों में हमारा हित हुआ है। इसका प्रमाण मिल चुका है। हमारे हित के लिए, हमारे सुख के लिए तुमने जो सब किया उससे हम परिचित हैं, इसलिए जो तुम कहोगे हमारे राज्य में वही शासन की रीति होगी।'
"सन्निधान की प्रशंसा मेरे लिए आशीर्वाद है। मैंने माताजी को बचन दिया है कि मेरा जीवन सन्निधान की और राष्ट्र की सेवा के लिए समर्पित है। इस वचन के पालन करने के लिए सन्निधान मुझे आज्ञा और अवसर दें। मैं एक निष्ठावान प्रभु-किंकर बनकर रहना चाहता हूँ।"
"प्रभु-किंकर ये सब बात कवियों के लिए सुरक्षित रखो। अब आगे क्या करना है, सो देखा।
"जल्दी करेंगे तो कैसे होगा?"
“अब आगे का कदम क्या हो इसके लिए सलाह-मशविरा करना होगा शायद। कब हेग्गड़ेजी के घर की ओर यात्रा होगी?'' __ "वहाँ क्यों जाना होगा? मुझे सभी अधिकार जब प्राप्त हैं तो यहीं बैठे-बैठे बुलवा सकता हूँ। परन्तु फ़िलहाल उसकी आवश्यकता नहीं, क्योंकि महामातश्री नं हेग्गड़ती जी को बलवा भेजा हैं।"
"तो तुम्हारा कहना है कि छोटी हेग्गड़ती भी आएंगी-याही न?" इतने में किशड़ सरकाकर रेविमव्या ने अन्दर की ओर झाँका ।
"बह देखो, तुम्हारा प्रिय शिष्य झाँक रहा है। छोटी हेग्गड़ती जरूर आयी होंगी, जाओ।' कहकर बल्लाल ने जोर से घण्टी बजायी।
रेविमव्या ने किवाड़ खोलकर परदा हटाया। बिहिदेव बाहर निकल आये। परदा सरकाकर किवाड़ बन्द कर रेबिमय्या भी उनके पीछे चला गया।
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शान्तला के साथ वालक विट्टिगा था। रेविमथ्या को देखते ही बिडिगा उठकर रेबिमव्या के पास चला गया। उधर अन्दर एचलदेवी और पाचिक बातचीत कर रही थीं। इधर शान्ततः कि बादची कामे तर २ ढंगला होने पर भी दोनों तरफ़ से विषय एक ही घा। कुशल प्रश्न के बाद उधर एचलदेवी ने कहना शुरू किया, “हेग्गड़ती जी, सहज आत्मीयता से बातचीत करके युग-युग बीत गया-सा लगता है। भगवान ही जानता है कि प्रभु जब से युद्धक्षेत्र से लौटे तब से अब तक मैंने समय कैसे गुजारा है। उसके पूर्व जो प्रशान्त वातावरण रहा वह एकदम कलुषित हो गया था। किसी एक के कारण ऐसा हुआ. वह नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक उसे शक्त्यनुसार बिगाड़ने का काम व्यक्त या अव्यक्त कर से करने के कारण बने हैं। बहुत दिनों के बाद अब यह वातावरण छनकर साफ़ हुआ है। अब लगने लगा है कि धीरे-धीरे प्रशान्त बनेगा। वास्तव में मेरा मन बहुत कुण्ठित हो गया था। दण्डनायिका चामब्बे को उनकी मृत्यु से पहले जो देख आए, उसके बाद मन कुछ हलका हुआ है। छोटे अप्पाजी और आपकी अम्माजी के प्रयत्नों के फलस्वरूप सत्यांश प्रकट हो सका। उन दोनों ने वातावरण को शुद्ध बनाने के लिए क्या-क्या किया सो सब समय-समय पर रेविमय्या ने बताया है। छोटे अप्पाजी की बुद्धिमत्ता और चतुराई के कारण सभी के मन पूर्वाग्रह से मुक्त हो गये हैं। अब केवल एक बात रह गयो है, जिसे मैं अकेली जानती हूँ, और कोई नहीं जानता। वह है मेरे और दण्डनायिका के बीच हुई बातचीत । वहाँ से लौटते ही लोटे अप्पाजी ने मुझसे पूछा भी, लेकिन मैंने उससे भी नहीं कहा। कह दिया कि स्त्रियों की बातें हैं, तुम लोगों से कहने की नहीं । वास्तव में चारुर्कीर्ति पण्डितजी ने कहा था कि दण्डनायिका जी का जीना कठिन है, इसलिए मैं खुद देख आने के इरादे से गधी। पालूम हुआ कि दण्डनायिका जी ने दण्डनायक जी से राजमहल में आने की इच्छा प्रकट की थी। उनकी स्थिति ऐसी नहीं थी कि उन्हें वहाँ से हिलने भी दिया जाए । मेरा जाना ही अच्छा हुआ।' कहकर एचलदेवी ने घण्टी बजायी। सेविका उपस्थित हुई। "दरवाजा बन्द करके बाहर ही रही, किसी को अन्दर न आने दो।" सेविका को आदेश दिया।
सेविका 'जो आजा' का बाहर चली गयी।
एचलदेवी से जो बातें हुई थीं, सबकी-सब विस्तार के साथ हेग्गड़ती को बता दौं। उन्होंने भी बड़े कुतूहल से सुना। बाद में एचलदेवी ने कहा, “हेग्गड़ती जी आपको सारी हालत मालूम है। अभी हाल जो महासभा हुई, उसमें सारी बातें प्रकट हो गयी हैं-यह भी आप जानती हैं। चामब्बे जी का यह कथन था कि 'बच्चियों को मैंने आपकी गोद में डाल दिया। शायद यही उनके आखिरी शब्द थे। बाद को दो दिन साँस लेती रहीं, मगर बोली नहीं। उन्होंने तो बेटियों को मुझे सीपकर
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छुट्टी पा ली। अब मुझे नहीं सूझ रहा है कि क्या करूँ? उन्हें अपनी बहुएँ बनानी होंगी, नहीं तो उन्हें मन्दिर की सेवा में समर्पित करना होगा। यह कैसी सन्दिग्ध स्थिति है!" कहकर वह मौन हो गयीं।
"महाराज की राय जानना अच्छा होगा न?"
"हो सकता है कि अब मन बदल गया हो। यह सच है कि पहले वह पद्मला को चाहता था। अगर वह अब भी चाहता हो तो मुझे सन्तोष हैं। मगर बाकी दोनों को क्या करूँ?"
"मातृश्री के तीन सुपुत्र हैं, इसलिए दण्डनायिका जी ने सोचा होगा कि अपनी तीनों बेटियों को तीनों को दे दें तो ठीक हो जाएगा।" ___ "चामब्बे की बहुतेरी आकांक्षाएँ हो सकती हैं। मेरे अपने बेटों की आशाएँ क्या हैं, सो मैं समझती हूँ। चाहे जो भी हो जाय छोटे अप्पाजी के विषय में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते, वह भगवान की इच्छा है। एक बार नहीं, दस-दस बार इस सम्बन्ध में मन-ही-मन निश्चय हो चुका है। हो सकता क किसी ने व्यक्तरूप से बताया न हो। अव रहा उदय। वे सब लड़कियाँ उम्र में उससे बड़ी लगती हैं।"
"नहीं, आखिरी लड़की एक-दो महीने छोटी ही होगी।"
"फिर भी यह कैसे हो सकता हैं कम-से-कम चार साल का अन्तर तो होना ही चाहिए न"
"हाँ, सो तो ठीक है, कुछ सूझता नहीं कि क्या करना चाहिए। मुश्किल है।"
"हेग्गड़ेजी से बातचीत करें। उन्हें हो सकता है कि कुछ सूझे। हमारा उरा तरह स्वीकार कर लेना मृत्युशैया पर पड़ी दण्डनायिका जी को वचन दिया-सा हो गया। इस बारे में मरिवाने दण्डनायक जी की क्या राय हैं, यह मालूम नहीं हो पा रहा है।" ___ "उन्होंने फिर इस विषय को छेड़ा नहीं?"
"वे इन सभी बातों से काफी परेशान ही नहीं, बल्कि बहुत बड़ी मानसिक पीड़ा का अनुभव कर रहे हैं। इस भारी ग़लती के कारण, अपनी वर्तमान जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं। इसलिए खुद महाराज के पास जाकर उन्होंने जनसे निवेदन किया कि भारी गलती हो जाने से अब ऐसी ज़िम्मेदारी के निर्वहण की योग्यता को खो बैठने के कारण उससे उन्हें मुक्त कर दें। इस मनःस्थिति में विवाह के सम्बन्ध में बात करने का साहस वे कैसे कर सकते थे? उनके मन में क्या है, इस बात को हेग्गड़ेजी समझने की कोशिश करें तो अच्छा होगा।" .. "दण्डनायिका जी ने क्या कहा था-इस विषय की जानकारी दण्डनायक और उनकी बेटियों को है?"
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"नहीं, इस बात को जाननेवाली अब आप दूसरी हैं। किसी और को कुछ भी मालूम नहीं ।"
"मैं अपने मालिक को यह बात बता सकती हूँ?"
" बताइए । मैं भी आज छोटे अप्पाजी को बताऊँगी। यह समस्या हल हो जाय तो मैं तीर्थयात्रा पर जाने का विचार कर रही हूँ।"
" चन्दलदेवी के बच्चे की जिम्मेदारी न होती तो मैं भी तीर्थयात्रा पर चल सकती थी । "
"उसके लिए दूसरी व्यवस्था कर ली जा सकती हैं। यों तो शाम्तला यहीं राजमहल में ही तो रहेगी" कहकर एचलदेवी ने घण्टी बजायी । नौकरानी उपस्थित हुई।
"देखो, राजमहल में बालक आया है। उसे दूध पिलाया या नहीं, मालूम नहीं हुआ। छोटे अप्पाजी कहाँ हैं ? हेग्गड़ती जी की बेटी कहाँ हैं? वह रेचिमय्या कहाँ हैं?" एक साथ एचलदेवी ने कई प्रश्न कर डाले।
"रेविया बाहर के बड़े प्रकोष्ठ में बालक को खिला रहे हैं। उन्होंने बालक को दूध भी पिला दिया है। छोटे मालिक और छोटी अम्माजी पाठशाला के कक्ष में हैं, ऐसा रेविमव्या ने बताया है।"
"टीक, उन्हें यहाँ बुला लाओ। देरी हो गयी, हेग्गड़ती जी को जाना है ।" नौकरानी जल्दी जाकर उन्हें बुला लायी। शान्तला और बिट्टिदेव आ गये। एचलदेवी नौकरानी से हल्दी- कुंकुम, पान, सुपारी मँगवाकर हेग्गड़ती को बुलवाती हुई बोलीं, “देखिए हेग्गड़ती जी, बहुओं के आने तक इन लोगों से मंगल द्रव्य दिलवाना पड़ता है ।"
"हर बात के लिए समय की प्रतीक्षा करनी ही होती है। हम सब उस विधि के हाथ की कठपुतली हैं। अच्छा, आज्ञा हो तो चलूँ।" माचिकब्बे ने कहा । शान्तला ने एचलदेवी के पैर छूकर प्रणाम किया और कहा, "आज्ञा दें, हो आऊँ ।"
"बांछित पति का पाणिग्रहण कर सुखी रहो बेटी!" एचलदेवी ने आशीर्वाद दिया। उसे मालूम था कि बिल्देव वहीं है । शान्तला को सन्तोष हुआ । परन्तु उसे प्रकट न करके सिर झुकाकर बड़े संकोच से उसने बिट्टिदेव की ओर देखा और माँ के साथ चल दी। पालकी तक रेविमय्या बिलिंग को उठा लाया और शान्तला के हाथों में दे दिया। पालकी चल दी ।
पालकी के ओझल होने तक बिट्टिदेव दरवाजे पर खड़े रहे।
विवाह की बात एक साथ कई कारणों से स्थगित हो गयी थी, लगता था इससे
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सम्बन्धित सभी व्यक्ति यही सोच रहे थे कि बात फिर उठेगी कि नहीं। किन्तु इस वामाचारी के विषय में लड़कियाँ कुछ जानती ही नहीं यह स्पष्ट मालूम हो जाने पर, तथा शान्तला और बिट्टिदेव के प्रयत्नों के कारण, सो भी कई विचित्र संयोगों के जरिये, यह बात फिर से चेतना पा गयी थीं। जिन परिस्थितियों के कारण बात को स्थगित होना पड़ा था वे सब बातें अब छंटती हुई नज़र आ रही थीं। इससे चर्चा के फिर से छिड़ने में सहूलियत हो गयी थी।
मारसिंगय्या ने दण्डनायक से बातचीत करने के बाद फिर प्रधान गंगराज से भी विचार-विमर्श किया था। इसके बाद हेग्गड़ती माचिकब्बे द्वारा एचलदेवी को ठीक-ठीक सलाह दी गयी। दण्डनायिका ने आहिरी साँस लेते हुए इच्छा प्रकट की थी, उसे पूरा करने के लिए एक ही मार्ग था। वह यह कि बल्लाल एक साथ तीनों लड़कियों से विवाह कर लें। तीनों को महाराज के हाथ सौंपने के विरोधी नहीं थे दण्डनायक मरियाने । गंगराज ने भी कहा, “ऐसा होने में कोई दोष नहीं, इच्छा होने पर महाराज परानी के साथ और रानियों को भी रख सकते हैं। यह धर्म विरुद्ध भी नहीं। और किसी से विवाह कर सौतिया डाह के लिए मौका देने से बेहतर यह होगा कि उन बहिनों से ही विवाह कर लें लेकिन यह तभी सम्भव है जब महाराज, महापातृश्री तथा विवाह करनेवाली लड़कियों स्वीकार कर लें।"
एचलदेवी ने सारी जिम्मेदारी बल्लाल पर छोड़ दी। बल्लाल का प्रेम पद्मला पर था। दूसरों पर अपनी प्रेयसी की बहिनें होने के नाते एक सहज वात्सल्य मात्र था। ऐसी स्थिति पैदा हो जाने की इसे कल्पना तक नहीं थी। उसे मालूप था कि महाराज की कई रानियों हो सकती हैं परन्तु बहिनों से विवाह करके अधिक समय पद्मला के साथ व्यतीत करने पर दूसरी परेशान हों तो बहिनों में आपस में इप्या के उत्पन्न होने का वह कारण बन सकती है। इसलिए इस बात के निर्णय का दायित्व उन्हीं पर छोड़ देने की सूचना बल्लाल ने दी। इसका तात्पर्य यह हुआ कि तीनों के साथ विवाह करने के विषय में उत्साह न होने पर भी, होना पड़े तो हज नहीं-इस विचार का बल्लाल ने संकेत किया।
आगे की जिम्मेदारी पद्मला पर आ पड़ी। वह सोचने लगी : ''मैं पट्टरानी बनें और बहिनें रानियाँ बनें और सौत बनें-इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है? स्वीकार करने के लिए कहें भी तो कैसे : उनकी भी अपनी-अपनी आशाएँ-आकांक्षाएँ होंगी ही, ऐसी हालत में उन पर जोर डालें भी तो कैसे?" बड़ी दुविधा में पड़कर वह शान्तला के पास गयो। इस समस्या और उसके समाधान से चामला या बोप्पि दोनों बेखबर थीं। इसलिए उन्हें समझा-बुझाकर उनकी राय जानने का जिम्मा उसने शान्तला पर डाल दिया। परन्तु उन लोगों की स्वीकृति मिल जाने पर स्वयं पद्मला को कोई एतराज नहीं होगा-इस बात की जानकारी शान्तला को जब तक
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न हो तब तक वह इस काम में आगे बढ़े भी तो कैसे? शान्तला ने पद्यला से . सीधा सवाल किया, "आपकी आशा को सफल बनाने के लिए हमने प्रयत्न किया वह तो सार्थक हुआ। आपको भी पोसल महारानी बनाने की आशा थी। आपकी माँ भी चाहती थीं। यह सकती हैं। महाराज ना सहन ही प पदा है, उसे सफल बनने का रास्ता मिल गया। अगर आप यह चाहेंगी कि महाराज का प्रेम आप तक ही सीमित रहे तो आपकी बहिनों की कल क्या दशा होगी? अगर उन्हीं से उनको विवाह करना पड़े तब अपने पति के प्रेप को अपनी बहिनों के साथ बाँटकर सन्तोष से रहने के लिए आपको म्वीकृति देनी होगी। उन दोनों की स्वीकृति आपके सुख-सन्तोष में बाधक नहीं होगी-इस बात पर भी आपको सहमत होना होगा। इस बारे में आपकी राय बिलकुल स्पाट होनी चाहिए। यह विश्वास हो जाय तो मैं फिर इस सम्बन्ध में उनसे बातचीत कर लूँगी..." शान्तला ने कहा।
"हमारी माँ होती तो क्या होता, कौन जाने ? महामातथी माता से भी श्रेष्ठमाता बन सकेंगी। इसलिए मेरी माता ने आखिरी वक्त कहा था कि 'येटियों को आपकी गोद में डाल दिया है। मैं अपनी बहिनों के सुख के रास्ते में काँटा नहीं बनूँगो। पाणिग्रहण करनेवाले का प्रेम पाना उनका काम हैं। महागज के व्यवहार पर हम सबका जीवन अवलम्बित है। मैं बड़ी होने के कारण मातृहीना अपनी बहिनों की माँ बनकर रह सकती हूँ, सौत बनकर नहीं-इतना आश्वासन दे सकती हूँ।" पद्मला ने कहा।
पद्मला के साथ ही दोनों बहिनों को बिठाकर शान्तला ने प्रस्तुत प्रसंग की पृष्ठभूमि में युक्ति-युक्त बातें समझाकर बताया, “आपकी माता की अन्तिम आशा को चरितार्थ करने के लिए महामातृश्री और आप सबके लिए एक ही मार्ग रह जाता है। अपनी दीदी सहित दोनों को महाराज से विवाह करना होगा। सोचकर देखो। दण्डनायक जी बृद्ध हो गये हैं। दण्डनायिका जी की मृत्यु के बाद बहुत कमज़ोर भी हो गये हैं। आप सबके बिवाह जन तक नहीं हो जाते, चे अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकेंगे। विवाह प्रत्येक के जीवन में भाग्य की बात है। भाग्य अच्छा रहा तो विवाह सुखकर होगा। नहीं तो वह दुःख का एक पुलिन्दा है। करुणामयी क्षमाशीला महामातृश्री की बहू बनना भी बड़े भाग्य की बात है। . आप सभी बहिनें महाराज से विवाह करेंगी। और सौत न बनकर बहिनों की ही तरह महाराज के जीवन को सुखमय और सन्तोषप्रद बना सकती हैं। महाराज दूसरों से विवाहित होंगे तो उन रानियों से आपकी दीदी को वह प्रेम और आदर शायद नहीं मिलेगा जो आप लोगों से मिल सकता है। आप लोग सोचकर निर्णय कर लें।" शान्तला ने कहा।
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उन दोनों के लिए यह अनिरीक्षित विषय था। उन लोगों के मन में कभी यह विचार उठा ही नहीं था। धे सोचने लगीं : रानी होने की आशा का होना तो सहज ही है, परन्तु अपनी दीदी जिससे विवाह करे उन्हीं से विवाहित होना ठीक है?
चामला को काफ़ी दिन पहले घटी एक घटना की याद आ गयी। उस दिन उसके वहाँ, बन्लाल अतिथि बनकर गये थे। बल्लाल जब अकेले रहे तब उसने पञ्चला को बुलाने के लिए घण्टी बजायी लेकिन चामला अन्दर आ गयी: उसी को अनजाने में पद्मला समझकर, “मैं तुम्हें चाहता हूँ।" कह दिया था। जब देखा वह पद्मला नहीं, तो वह कुछ अकचकाकर पूछने लगा, "तुम्हारी दीदी कहाँ है?" तब उसने पूछा था कि "उसे ही चाहिए? मैं ही आऊँ तो क्या...?" यही वह घटना थीं। यह सब पुरानी और बचपन की बातें थीं। अब उसे लग रहा था कि ये बातें : ही अपू मानला तकित मी हुई। साथ ही उसी समय की
और एक घटना याद आ गयी। तब उसने कहा था - "लब आपका हिस्सा मेरा चना, वहाँ दीदी के साथ मेरा हिस्सा आपका..."-इसी धुन में वह सोचने लगी थी।
मेरी दीदी को कोई एतराज नहीं हो तो मैं विवाह के लिए तैयार हैं।" चापला ने कहा। ''अव मेरा क्या: मुझे भी अपने साथ कर लो।' खोप्पि ने भी कहा।
अब वही निश्चय हुआ कि एक ही विवाह वेदी पर महादण्डनायक मरियाने की तीनों बेटियों का विवाह महाराज के साथ हो।
लड़कियों के मामा प्रधान गंगराज ने ही तीनों बेटियों का कन्यादान किया। हाल के युद्ध के कारण राज्य का खजाना खाली हो गया था। इससे विशेष धूम-धाम के बिना, विशेष आह्वानों के बिना, केवल दोरसमुद्र और उसके इर्दगिर्ट ही आमन्त्रण पत्र भेज देने का निर्णय महाराज बल्लाल ने सुनाया। उसी तरह व्यवस्था की गयी। शक संवत् 1025 के श्रीमत् स्वभानु संवत्सर, कार्तिक सुदी दशमी के दिन, शुभ मुहूर्त में गंगराज की बहिन चामन्ये दण्डनायिका और मरियाने दण्डनायक की पुत्रियों पद्मलदेवी, चामलदेवी और बोप्पदेवी-तीनों के साथ पोय्सल महाराज बल्लालदेव का शुभ विवाह सम्पन्न हुआ।
इसके पश्चात् राजमहल में महामातधी एचलदेवी को नौकरानियों से मंगलद्रव्य दिलाने की जरूरत नहीं पड़ी। राजमहल में अब तीन-तीन सुमंगलियाँ रह रही थीं। ___ इस विवाह के बाद महाराज ने ससुर को बुलवाकर कहा, "उस दिन आपने विधान्ति पाने की इच्छा प्रकट की थी। आपको विश्राम की आवश्यकता थी इस बात को जानते हुए भी तब आपकी इच्छा पूरी न कर सका। तब आपकी आशा
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मैं पूर्ण करता तो उसका कुछ और अर्थ हो जाता, ग़लतफ़हमी हो जाती। दोनों के मन में कटुवापन रह जाता। अब जो विश्राम आफ्को वास्तव में मिलना चाहिए उसे देने को शासन तैयार है, विश्राम-वेतन के रूप में आपको सिन्दगेरे की जागीर दी जाती हैं।" बल्लाल ने कहा।
चामब्बे जीवित रहती तो कितना खुश हुई होती।
बल्लाल के विवाह के बाद राजमहल के वातावरण में शान्ति फैल सची थी। जब बड़ी दीदी पद्यलदेवी को पटरानी घोषित किया तो रानी चामलदेवी और रानी बोप्पदेवी-दोनों को कोई परेशानी नहीं हुई। कुछ धार्मिक कार्य के अवसर पर पटरानी के लिए अग्रस्थान देना रुविंगत व्यवहार था। सिवाय इसके बल्लाल के उन जीवन-संगियों में कोई अन्तर नहीं दिख रहा था। अपने-अपने जीवन में समरसता ताने के लिए सबने महाराज को सुखी रखा था।
एक तरह का समाधान एचलदेवी को भी पिल गया था। किसी नयी समस्या के बिना चामब्बे दण्टनायिका की अन्तिम इच्छा पूरी हो गयी थी।
पूस के समाप्त होने के पहले एक दिन पचलदेवी ने बल्लाल के पास अपनी तीर्थयात्रा की बात छेड़ी।
आपकी छाया में हम सुखी हैं। आप बुजुर्ग रहकर सदा हमें दिशानिर्देश देती रहेंगी तो अभी जो सुख-सन्तोष है वह ज्यों-का-त्यों बना रहेगा। किसी एक क्षेत्र की यात्रा कर लौटने की बात होती तो हम मान लेते। भारतवर्ष के सभी तीर्थों का सन्दर्शन कर लौटना हो तो कई साल ही लग जाएंगे। इस उम्र में इतना श्रम-यह हमें कुछ ठीक नहीं लगता!" बल्लाल ने कहा।
"शाश्वत क्या है? अपने जीवन में मैंने सुख-दुःख दोनों भोगे हैं। तुम सबकी देखभाल करते हुए राष्ट्र की उन्नति के सम्पूर्ण म्वाम्य तुम लोगों को दिला देने सक की जिम्मेदारी प्रभुजी ने मुझे सौंपी थी। पट्टाभिषेक को हुए एक वर्ष बीत गया। एक मीषण युद्ध में तुमने विजय प्राप्त की। तुम्हारे दायें हाथ जैसे दक्ष भाई तुम्हारे साथ हैं। अपनी इच्छानुसार विवाहित होकर तुम गृहस्थ भी हो गये। मुझे अब यहाँ रहकर कुछ करना भी नहीं है। अगर यह तुम समझते हो कि मुझे भी विश्रान्ति की ज़रूरत है तो मुझे सम्मति दो। सब झंझट भूल-भालकर मानसिक शान्ति पाने में मेरी मदद करो।"
"तो क्या वहाँ अब तक वह मनःशान्ति नहीं रही, माँ"
"नहीं रही, यह तो कह नहीं सकती। फिर भी प्रभु से बिछुड़ने के बाद से मुझे वास्तव में शान्ति नहीं ! उन्होंने जो जिम्मेदारी मुझे सौंपी थी उसके निर्वहण
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के लिए शान्ति रही हो, ऐसा संयम से व्यवहार करती रही । मेरी माँ सदा कहा करती थीं कि नारी को संयम से बरतना चाहिए, ऐसा बरतने से कोई समस्या नहीं। उठती। अगर कभी समस्या उदी भी तो यह समर्पक ढंग से हल भी हो जाएगी। प्रभु ने भी यही सब सिखाया। तुम लोग भी इसी तरह संयम से रहने का अभ्यास करो और सुखी रहो। मुझे इन सबसे मुक्ति चाहिए। इस राजमहल के झंझटों से कुछ समय तक दूर रहूँ तो अच्छा हो। तुम्हें जन्म देकर बड़ा किया, बदले में इससे अधिक मैं नहीं माँगती। इतनी अभिलाषा को पूरा करो।"
"ऐसा ही हो माँ, आपकी इच्छा को पूरा न करें - ऐसा स्वार्थ हममें नहीं है। जब आप तीर्थ यात्रा पर जाती हैं तो आपके लौटने तक छोटे अप्पाजी को कुँवारा ही रहना होगा । उसका विवाह होने में और अधिक विलम्ब करना उचित नहीं, ऐसा मेरा विचार है। उसे भी सम्पन्न कर देतीं तो अच्छा होता।" बल्लाल ने कहा। तुरन्त ज्योतिषी को बुलाया गया, कुण्डलियाँ मिलायी गयीं। बताया गया. ''इस स्वभानु संवत्सर में समय अनुकूल नहीं। तारण संवत्सर के चैत्र- वैशाख मं व्यवस्था कर सकते हैं।"
अब क्या किया जा सकता है? माघ मास में यात्रा आरम्भ करने की एचलदेवी की इच्छा थी, सो अब उसे चार-पाँच महीनों तक के लिए स्थगित कर देना पड़ा। माँ का सान्निध्य कम-से-कम तब से उगाही - सोपा खुश हुए. शान्तला और बिट्टिदेव का विवाह अब तक लोगों के केवल ऊहापोह की ही बात बनी रहीं । परन्तु अब सभी को मालूम हो गया कि यह निश्चित है ।
हेगड़े मारसिंगय्या और माचिकब्बे तथा शान्तला को सामान्य जनता में पहले में भी अधिक गौरव का स्थान प्राप्त हुआ। सबसे अधिक आनन्द रेविमय्या को मिला तारण संवत्सर का चैत्र वैशाख जल्दी आए, यही मनौती भगवान बाहुबली सेरेविमय्या ने की थी । दोरसमुद्र के कार्यकलाप सन्तुलित रीति से चलने लगे थे। महाराज की तीन रानियाँ थीं और शीघ्र ही बिट्टिदेव का विवाह भी होनेवाला था, इसीलिए दोरसमुद्र के राजमहल के अन्तःपुर के हिस्से को विस्तृत करना भी जरूरी हो गया था। विट्टिदेव के विवाह के पहले इस विस्तरण कार्य को पूरा करने की व्यवस्था की गयी। नवविवाहितों को स्वतन्त्र रहने की इच्छा का होना सहज ही हैं, इसलिए महाराज बल्लाल अपनी रानियों के साथ बेलापुरी में रहें और महामातृश्री, उदयादित्य और बिहिदेव दोरसमुद्र में ही रहें तथा साधारण राजकाज का निर्वहण बिहिदेव ही करें यही व्यवस्था निर्णीत हुई।
युद्ध के बाद सिंगिमच्या बेलापुरी आ गये थे, इसलिए महाराज और रानियों की सुरक्षा आदि के लिए अन्य व्यवस्था करने की जरूरत नहीं पड़ी । महाराज के परिवार के साथ रानियों के गुरु और कवि नागचन्द्र दोनों बेलापुरी चले गये ।
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उल नाट्या सहारा लोप में की ना गरे। उनकी उपस्थिति का लाभ पूर्णरूप से उठाया शान्तना ने। उसने औत्तरेय नृत्य-पद्धति में भी दक्षता प्राप्त कर ली। तब तक बिट्टिगा तुतलाने लगा था और थोड़ा चलने भी लगा था। वह शान्तला का अनुकरण करने लगा। मैं भी नाचूँगा" कहता हुआ उछल-कूदकर गिर पड़ता। चीर. लगने पर गने लगता।
"बेटा, तुम्हें अपने पिता से भी उत्तम दण्डनाथ बनना है। तुम्हें वह नृत्य क्चों" कहकर शान्तला उसे गोद में लेकर समाधान करती।
इसी बीच बिट्टिदेव का जन्मदिन आया। एक दो दिन के लिए महाराज और गनियाँ वहाँ आ गयीं। इस दिन शाम को राजमहल में सोमित ढंग से बिट्टिदेव के सन्तोषार्थ नृत्य और संगीत का आयोजन हुआ।
शान्तला ने गीत के साथ दोनों प्रकार के नृत्य का प्रदर्शन किया। मृदंग और तबला महापात्र ने ही बजाया। उसकी बहुत दिनों की इच्छा आज पूरी हुई थी, वह बहुत तृप्त और सन्तुष्ट था। शान्तला के जोर देन पर महामातृश्री और महाराज की अनुमति प्राप्त कर महारानियों ने भी गान और नृत्य किया। उन लोगों ने भी पर्याप्त दक्षता पा ली है-इसका साक्ष्य उस प्रदर्शन से मिल गया।
महाराज बल्लाल ने कहा, "शान्तलदेवी ने तो बचपन से यह विद्या सीखकर उसमें पाण्डित्य पाया है-ठीक है, पर उस स्तर तक पहुँचना साध्य न होने पर भी तुम लोगों ने भी जितना सीखा वह क्रम प्रशंसनीय नहीं है। बहुत कुछ दक्षता दिखाई दे रही है। पहले जब तुम्हारा नृत्य जैसा देखा था उससे इस अब के नृत्य की तुलना नहीं। यह मेरे लिए गर्व का विषय है। इस सम्बन्ध में तुम लोगों ने मुझसे कभी कुछ कहा नहीं?"
"हमने तो इतना अच्छा सीखा नहीं जो कहने लायक रहा हो। आपने तब भी प्रशंसा की थी और आज भी कर रहे हैं। अगर उस समय की आपकी उस प्रशंसा से तृप्त हो गयी होती तो आज हम इतना भी नहीं सीख पातीं। सन्निधान के भाईजी चामला द्वारा ग़लती सुधारने का संकेत करते रहे, इस कारण से हमने कम-से-कम इतना तो सीख ही लिया। इम और चार जन्म ले लें तो भी उतना नहीं सीख सकेंगी जितना शान्तला ने सीखा-समझा है। एक समय था जव हमारे अज्ञान और अन्य प्रचोदनों के कारण शान्तला के विषय में, उसकी शक्ति और सामथ्य के बारे में कुछ ग़लत-सलत खयाल थे। कभी-कभी उसके प्रति हमने अनादर का व्यवहार भी किया था। उसके सुसंस्कृत सूक्ष्म और सुलझे हुए विचार हैं। हमारे अज्ञान के कारण जो ग़लती हुई उसके लिए हमें क्षमा करके उसने सच में ही हमारा उपकार किया है। उस उपकार को हम कभी नहीं भूल सकतीं। औतरेय नृत्य-कला में भी इतनी जल्दी इतनी अच्छी प्रवीणता पा
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सकेंगी-इसकी कल्पना तक हमने नहीं की थी। शान्ति, संयम, प्रज्ञा-इस त्रिवेणी का संगम है शान्तला । वह शीघ्र ही राजपरिवार की सदस्या बनने जा रही है वह राजपरिवार के भव्य भविष्य को शुभ सूचना है। इस शुभ अवसर पर शान्तला को 'उभय-क्रम-मृत्य-परिणता' की प्रशस्ति से सन्निधान भूषित करें-वह हमारी प्रार्थना हैं।" पटरानी पधला ने निवेदन किया।
___'मैंने प्रशस्ति पाने के लिए विद्या नहीं सीखी और न उसका प्रदर्शन ही किया। मुझे किसी तरह की प्रशस्ति की जरूरत नहीं। इस खुशहाली के अवसर पर वह मेरी अल्प सेवा है, समझकर मैंने नृत्य किया। सेवा का फल आत्मानन्द है। आत्मानन्द का मूल्य प्रशस्ति देने के रूप में निश्चित करना उचित नहीं । सन्निधान इतनी कृपा करें कि मेरा आत्मानन्द मेरे लिए बच रहे ।'' शान्तला ने विनीत होकर प्रार्थना की, और फिर हाथ जोड़कर प्रणाम किया। ___ "किसी के आत्मानन्द को छीनने की हमारी इच्छा नहीं हैं। कला वृद्धि केवल आत्मानन्द तक ही सीमित नहीं। सहृदयों की प्रशंसा कला की वृद्धि के लिए एक तरह का साधन भी है। इसलिए कला की प्रगति और अभिवृद्धि को लक्ष्य में रखकर ही हम यह प्रशस्ति दे रहे हैं। इस प्रशस्ति को स्वीकार करना कलाकार की अभिरुचि पर निर्भर है।" बल्लान ने अपना निर्णय दिया।
"जो आज्ञा'' कहकर शान्तता महाराज के पास गयी। पैर छूकर उसने प्रणाम किया और निवेदन किया, ''इस प्रशस्ति के फलस्वरूप मुझमें अहंकार की भावना उत्पन्न न हो यही आशीर्वाद दें।"
अपने दोनों हाथ शान्तला के सिर पर रखकर महाराज बल्लाल बोले, "उठो, तुम्हारा नाम लेने मात्र से अहंकार इरकर दूर भागता है। वह तुम पर आक्रमण कैसे करेगा? ग़लती स्वीकार करने के फलस्वरूप टूटे मन जुड़ते हैं, एक होते हैं, इस बात को प्रमाणित कर दिखानेवाली तुम हो। एक समय था जबकि मैंने भी कहा था कि तुममें अहंकार है। वह मेरे अज्ञान के कारण कही गयी बात थी। मेरी इस ग़लत धारणा को जानती हुई भी तुमने उसकी परवाह नहीं की और प्रयास कर इधर के सारे बिखराब को बड़ी मजबूती से जोड़ा, पुनः एक बनाया। तुम्हें अपने परिवार में सम्मिलित करना इस परिवार का महान भाग्य है। पटरानी जी की इस बात से मैं सम्पूर्ण रूप से सहमत हूँ। छोटे अप्पाजी! तुम और शान्तला डानों मों के पैर छूकर एक साथ प्रणाम कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करो। माँ का आशीर्वाद ही भविष्य के मंगल-मुहूर्त के लिए सिद्धिदायक होगा।"
दोनों ने महाराज को आज्ञा का पालन किया। आनन्दाथ के साथ महामातृश्शी एचलदेवी ने दोनों को आशीष दिया। रेविमथ्या ने वहाँ अपनी उपस्थिति को भूलकर हर्ष विहल हो करतल ध्वनि की।
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बिहिदेव का जन्मोत्सव पनाने के बाद महाराज बल्लाल फिर बेलापुरी चले गये। . पत्नियों के सन्तोष के अनुरूप एक नियोजित ढंग से बल्लाल का जीवन सुखमय वातावरण में व्यतील होने लगा। एक दिन महाराज यगची नदी के तीर की अमराई पर पत्नियों के साथ गये। शाम की ठण्डी हवा, नयी-नयी निकली कोंपल, आम्न मंजरियाँ, गच्छों में लटकती आमियों-सबने मिलकर अमराई को एक नयी शोभा से अलंकृत किया था। नदी को सीढ़ियों से सटकर एक सुन्दर मण्डप बना हुआ या। इसमें सुखासीन होकर सबने उपाहार किया। वसन्त का समय था। वर्षा में अंग भरकर बहिनेवाली नदी तब मानो अपने सम्पूर्ण यौवन को आम मंजरियों में बाँटकर खुद पतली हो गयी थीं। इस अमराई के भरे सौन्दर्य को देखकर विस्मृत-सो होकर धीरे-धीरे पतली धार में आनन्द से बह रही थी। उपाहार के शद हाथ-मह धोने के लिए रानियाँ सीढ़ियों से उतरी। महाराज भी वहीं उपस्थित हो गये। पद्मना, जो वहीं खड़ी होकर चारों ओर देख रही थी, बोली, "उधर फल-फूलों से लदे आम और इधर पतली होकर वहिनेवाली नदी! काश, नदी भी भरकर बहती तो कितना सुन्दर होता!" ।
' “टा, भो सौन्दयं को देखने में आनन्द नो आता ही है.'' कहते हुए बललाल ने अपने में दो सीढ़ियों नीचे खड़ी अपनी रानियों की ओर देखा।
से क्यों देख रहे हैं। भर सौन्दर्य का आनन्द वहाँ उस अमराई में है। इस तरफ़ अभी जो कुछ है वह कंबल पतली बनी यमची मात्र है" चामलदेवी ने कहा।
"वर्षाकाल जर तक न आए, वगची भरे कैसे?'' बोप्पदेवी ने सवाल किया और यहिनी की और न देखकर बनाल की ओर दृष्टि डाली।
"उधर क्या देखता हो आकाश की ओर? वहाँ तो बरसाकर रीते हुए बादल ही हैं।' चापला ने व्यंग्य किया।
सहज ही तो है, अंग भरने की अभिलाषा होना स्त्री के लिए सहज ही तो है। प्रकारान्तर से मन की अभिलाषा दूसरे ही ढंग से प्रकट होती है-बल्लाल को लगा। वह बोले, “आओ, आप लोगों को एक पुरानी बात बताऊँ। घटना इसी स्थान पर घटी छी। अचानक पाद आ गयी। तब और अब में कितना अन्तर है! दृष्टिभेद और भाव भी भिन्न हैं-यही तो आश्चर्य है:'' कहते हुए सीढ़ियों चढ़कर मण्डप में प्रवेश किया और अंगरक्षक से कहा, ''तुम जाकर पालकी के पास रहो, जरूरत होगी तो बुला लेंगे। यह सब भी उठा से जाओ।"
रानियों के चढ़कर आते-आते अंगरक्षक चला गया था। थोड़ी देर सब मौन बैटे रहे। चामलदेवी ने बल्लाल की ओर देखकर कहा, ''मौन क्यों? पुरानी बात का यही माने है?" ____ "कहाँ से और कंसे शुरू करें-यहीं सोच रहा था। हमारे छोटे अप्पाजी के
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उपनयन की बात आप सबको याद है न?"
"हाँ, हमारे पिताजी और माताजी ने हो तो उस समय सारे कार्यभार को निबाहा था।"
''हाँ, हो, उन्होंने ही तो निवहण किया था इसीलिए इस जगह को एक ऐतिहासिक रूप प्राप्त हुआ है। नग उपनय से अबसर पर की और शान्तला नहीं आयी थीं।"
"उसे हम कभी न भूल सकेंगी। उनके न आने का कारण हमारी माँ ने कैसी चातुरी के साथ महामातृश्री को विस्तार के साथ समझाया घा, इसे घण्टों तक हमें सुनाया है, तब हम कैसे भूलेंगी भला?''
"आप लोगों ने कभी शान्तला से पूछा भी था कि क्यों नहीं आयीं?'
"पूछे बिना रहेंगी कैसे : पूला ही। छोटे अप्पाजी इनकं न आने से निराश मन से वेदी पर बैठे रहे। वह दृश्य हमारे दिलों पर छापे की तरह अंकित हो गया था।"
"तत्व शान्तला ने क्या कहा था?"
"उसने कहा था कि ठीक उसी वस्त किसी से ख़बर मिली तो जल्दी में उसके पिताजी को अकेले ही आना पड़ा। जिस समय खबर मिली उस वक्त सपरिवार निकलते तो ठीक मुहूर्त पर दोरसमुद्र नहीं पहुँच सकते थे। मां-बंटी को साथ न ला सकने के कारण उन्हें बहुत दुःख रहा।" ।
"आप लोगों ने विश्वास कर लिया?''
"हमारी माँ को कही बातें जन मन में रहीं तब अविश्वास करना सम्भव नहीं घा। यही सोचकर कि इस विषय पर हमें जिज्ञासा ही क्यों, हम चुप रह गयीं।" पद्मला ने बताया।
"तब हेग्गड़ेजी अकेले आये थे न, उस सम्बन्ध में मेरे और छोटे अप्पाजी के बीच एक विशेष चर्चा हुई थी।" कहकर बल्लाल ने उस दिन की सारी चर्चा को विस्तार के साथ ज्यों-का-त्यों कह सुनाया और बताया कि आपके और आपके घराने में जो गहरा विश्वास था उसका निशान हैं यह स्थान ! बह विश्वास बाड में छिन्न-भिन्न हो गया। आज वह छिन्न विश्वास फिर जड़ा है। वास्तव में राजमहल के वातावरण के बिगड़ने का मुख्य कारण वहीं धा कि ये उपनयन के अवसर पर क्यों नहीं आयीं। शायद यह बात आप लोगों को मालूम नहीं।
'नहीं।"
"हेग्गड़े परिवार के लिए जो आमन्त्रण था उसे भेजने से तुम्हारी माँ ने रोक रखा, यह बात मालूम हो गयी और यही वातावरण के विषाक्त होने का कारण बना।"
तीनों चकित हो उठीं। "क्या कहा? हमारी माँ ने रोक रखा? झूठ है।
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आमन्त्रितों की सूची में उनका नाम छूट गया था तो उसे, कहते हैं, मेरी माँ ने . ही जोड़ा था। ऐसी हालत में कैंसे विश्वास करें कि उन्होंने रोक रखा था," पद्यला ने कहा।
"यह विषय महामातृत्री को मालूम है। तुम्हारी माँ को भी मालूम धा; बाद में महादण्डनायक जी को भी मालूम हो गया।'
"हमारे पिताजी को माता की बात पर पहले अवश्य अधिक विश्वास था। परन्तु इधर कुछ समय से वे माँ की बात को सुनते नहीं थे। यही शायद उसका कारण रहा होगा। पद्यला ने कहा।
"जानं दो, आपकी माँ ने क्या किया, क्यों किया आदि सभी बातों को महामातृश्री से स्पष्ट कह दिया है। उस पर अब चर्चा करने की जरूरत नहीं। इस बात को मैंने इमलिए कहा कि इतना तीन मतभेंट होने पर भी स्थान माहात्म्य के कारण हम तीनों भाइयों के बीच मनमुटाय नहीं हो सका। आप तीनों बहिनें यहाँ मौजूद हैं। मुझ अकेले को आप तीनों को समान रूप से खुश रखना है। मैं भी मनुष्य ही तो हूँ। यदि आप लोगों को ऐसा लगे कि मैं आप सबके प्रति समानता का व्यवहार नहीं कर रहा हूँ, तो ऐसी स्थिति में आप लोगों में शंका उत्पन्न नहीं होनी चाहिए। इस तरह नहीं समझा जाय कि 'उसके कहे अनुसार ही करते हैं, मेरी तरफ ध्यान ही नहीं देते' --आदि आदि। ऐमो भावनाएँ सहज ही उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए जब कभी किसी को ऐसा महसूस हो तो वह मुझे अवश्य बताए। मेरे व्यवहार के लिए किसी और को कारक मानकर अपने दिमाग को खराब नहीं करेंगी।" ____ "हम आपस में एक-दूसरे को अच्छी तरह समझी हैं इसलिए ऐसा मौका ही नहीं आएगा। और फिर सन्निधान भी हम सबको समान रूप से देखते रहेंगे--इस वात का हमें विश्वास है।" पद्मला ने कहा।
ठीक हैं। आप तीनों एक माँ-बाप की बेटियाँ हो। संयोग से मुझसे आप तीनों का विवाह हो गया है। फल भरे आमों को देखकर आप सभी में फल पाने की इच्छा उत्पन्न हो सकती हैं। ऐसा होना सहज भी है। कल आपके गर्भ-सम्भूतों को सिंहासन के लिए झगड़ा करने की स्थिति उत्पन्न न हो।" ___. “झगड़े की बात क्यों जटती है! पट्टमहादेवी के गर्भ-संजात ही पट्टाभिषिक्त होंगे न?' बोप्पदेयी ने प्रश्न किया।
"सो तो सच है। बचपन में आप लोग अपनी माँ जैसा नचाती वैसा नाचती रहीं। लेकिन अब आप पोसल वंश को रानियाँ हैं अतः आनेवाली सन्तान को आप बचपन से ही ऐसी शिक्षा देती रहेंगी जैसी कि हमारी माँ ने हमें दी। कैसी भी परीक्षा कर आजमाकर देखें, छोटे अप्पाजी महाराज बनने के लिए हमसे
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अधिक योग्य हैं। यह कहते हमें कोई संकोच नहीं, बल्कि अभिमान होता है । परन्तु वह हमारा अनुवर्ती बनकर रहता है। हम एक ही माता-पिता की सन्तान हैं। कल आपकी सन्तान के लिए पिता एक होने पर भी माताएँ भिन्न-भिन्न होंगी। ऐसा होने पर भी उन शिशुओं को एक माँ की सन्तान की तरह बढ़ाना होगा। इसके लिए आप तीनों को सूत्रधार बनना होगा।"
"सन्निधान की सौगन्ध, हम वैसे ही बरतेंगी।" पद्मला ने कहा ।
"कई बार कहा है कि सौगन्ध नहीं खानी चाहिए। बुरी आदत सीखी हैं, जाएगी भी तो कैसे " बल्लाल ने कहा ।
"गलती हुई, क्षमा करें। बचपन से अभ्यस्त बात कभी-कभी मुँह से अनजाने निकल आती है। आग लगे ऐसी जीभ को ।" कहती हुई पद्मला ने बल्लाल के पैर पकड़ लिये ।
"ठीक है। उठो, कोई नौकर-चाकर देख न ले। मुझे और कुछ नहीं चाहिए, बस द्वेष रहित मनोधर्म हमारी सन्तान में बढ़े- ऐसा संकल्प आप लोगों का हो।" "वैसा ही करेंगी।" तीनों ने कहा ।
"राज्य बड़े बेटे को या पटरानी के बेटे को ?" बोपदेवी ने पूछा ।
बल्लाल ने सन्दिग्धता में अपनी रानी की ओर देखा और कहा, "पटरानी के बेटे को पट्टाभिषेक करने की रूढ़ि है। ऐसे ही बड़े बेटे को पट्टाभिषिक्त करने की भी परिपाटी है। आप बहिनें हो, स्वयं आप ही लोग निर्णय कर लो। फिर उसी तरह व्यवस्था कर तंगे ।"
"हम नहीं कहेंगी। पटरानी तो बड़ी दीदी हैं। वह जैसा कहेंगी वैसा ही हम करेंगी।" खोप्पदेवी ने कहा ।
पटरानी ही बड़े बेटे को जन्म दे तो कोई समस्या ही नहीं उठेगी न?" चामलदेवी ने कहा ।
"मैं बड़ी हूँ, इसलिए पटरानी बनी। बहिन चामला ने अपनी सदिच्छा प्रकट की। फिर भी उस बात से यह ध्वनित होता है कि बड़ा बेटा हो । सन्निधान के बड़े बेटे को पट्टाभिषिक्त करने में कोई एतराज नहीं। अपनी तरफ़ से स्पष्ट कहती हूँ ।" पद्मला ने कहा ।
" शान्तला के साथ मैत्री का फल है तुम्हारा यह निर्णय, पद्यला तुमसे प्रेम करके मैं धन्य हुआ ।" बल्लाल ने कहा ।
“मतलब?" चामलदेवी ने पूछा ।
"ऐसी पद्मला की बहिनों ने मुझसे पाणिग्रहण किया - यह महाभाग्य है, ठीक है न?"
सबके चेहरों पर मन्दहास खिल उठा। अमराई से कोयल की कूक सुन पड़ी।
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एक दूसरी कोकिला ने उसका जवाब दिया। सबकी आँखें अमराई की और मई गयीं। आवाज उसी ओर से आयी थी। फल-फूल से लदे आमों में सबमें एक भावी आशा उत्पन्न कर दी। सूर्यास्त का समय सन्निहित था इसलिए सब राजमहल की तरफ रवाना हुए।
इधर राजमहल के विस्तरण का कार्य तीव्र गति से चल रहा था। महाराज का विवाह ही एक सीमित परिधि में जब सम्पन्न हुआ था तो बिट्टिदेव का विवाह भी इसी तरह सादे ढंग से सम्पन्न करने की व्यवस्था की गयी। इसी अवसर पर उदयादित्य के उपनयन को भी सम्पन्न करने की सलाह एचलदेवी ने दी जो स्वीकार कर ली गयो। ग्रहगति अच्छी होने के कारण विवाह से एक-दो दिन पूर्व उपनयन का मुहूर्त ठहराया गया। पुरोहितों ने प्रशस्त मुहूतं दोनों के लिए ठहराकर निश्चित किया था। जिन-जिन को आमन्त्रण भेजना था, सबको भेज दिया गया।
इधर-उधर की बातों के सिलसिले में रेविमय्या ने एचलदेवी से कहा, ''पिरियरसी जी के लिा भी आमन्ना भेजने तो अत्रया होला, यह विवाह उनके लिए बहुत प्रिय है।"
"वह सब राजनीतिक विषय है। आमन्त्रण भेजना न भेजना राजमहल के अधिकारियों से सम्बन्धित विषय हैं। परिस्थिति को देखने पर यही लगता है कि आमन्त्रण भेजने की सम्भावना नहीं। जैसा तुमने कहा पिरियरसी जी को यह विवाह प्रिय है। विवाह की बात उन्हें मालूम पड़े, और उन्हें स्वतन्त्रता मिले तो वे जरूर इस विवाह में पधारकर आशीष देंगी ही। परन्तु वे पराधीन हैं। फिर भी तुम्हारी यह बात छोटे अप्पाजो के समक्ष रमूंगी। चाह कोई आए, तुम रहो नहीं पर्याप्त है। पहले से यह तुम्हारी बड़ी आकांक्षा रही। वह अब सफल हो रही है।" एचलदेवी ने कहा।
वहाँ हेग्गड़े के घर में भी बुतुगा यही बात करता रहा : "मालिक किसी तरह से इस विवाह में पिरिबरसी जी को बुला लाने का काम करें । अम्माजी उनके लिए प्राण समान हैं। मालिक और मालकिन तो उनके लिए बहुत आदरणीय हैं। वे और चक्रवती जी दोनों आएं तो इस विवाह में चार चाँद लग जाएँगे।" ___ 'वह सब राजमहल का काम है। फिर जाजकल चक्रवती हमारे विरोधी बन गये हैं, राजमहलवाले उन्हें बुलाएंगे कैसे?"
"पालिक, यही समझ में नहीं आ रहा है। तब उनकी जान बचाने और युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए हमारे प्रभु की आवश्यकता थी। पिरियरसी जी के गौरव को बचाने और उनकी रक्षा के लिए आप और मालकिन की आवश्यकता थीं। अब एकदम वह विरोध क्यों? जब ज़रूरत पड़ी तो एक तरह से, जब जरूरत नहीं तो दूसरे ढंग से व्यवहार? यही है चक्रवती की नीति? मुझे ही भेज दीजिए,
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मैं देखूगा कैसे नहीं आएँगी? क्या पिरियरसी जी को मैं नहीं जानता? पूछ लेंगा, यह कैसा न्याय है?" बुतुगा की आँखों में हल्का-सा रोष भर आया था।
"गलमहल ने यति गट निर्णय लिया कि साम बल गे तो फिर तुमको ही भेज दूंगा। टीक है न?"
"आप राजमहत में कहिए। ऐसी सब बातें राजमहलों को सूझती नहीं।'' "हाँ, कहेंगे। अब जाकर पहले अम्माजी को बुला लाओ।"
कुछ ही देर में बुतुगा कं साध शान्तला आयी। "अम्माजी, यह बुतुगा क्या कहता था, मालूम है? अगर हम भेजेंगे तो यह बुतगा खुद जाकर पिरियरसी जी को तुम्हारे विवाह में बुला लाएगा। इसे भेज दें" मारसिंगव्या ने पूछा। ___ येचारे बुतुगा को वस्तुस्थिति क्या मालूम? यह ठीक है कि उसने कहा, मैं बुलाने जाऊँगा। अगर स्वतन्त्रता होती तो शायद पिरियरसी जी आ जाती उसके साथ। परन्तु अभी आमन्त्रण ही नहीं गया है न"
"क्यों, इस सम्बन्ध में किसी ने सोचा नहीं?" “सोचा नहीं, ऐसा तो नहीं है। सोचकर निर्णय लिया गया कि भेजना नहीं
"तो क्या, तुम कहती हो कि इस विषय में फिर से सुझाना नहीं चाहिए?"
"मेरी भी यही इच्छा है कि वे आएं। अप्पाजी, मैंने सुझाया भी। किन्तु राजनीतिक कारणों से आमन्त्रण न भेजने का ही निर्णय हुआ।"
"तुम्हारी बात पर विट्टिदेव भी सहमत नहीं हुए?"
"उन्होंने मेरे विचार को माना। अभी शत्रुओं के गुप्तचरों ने दोरसमुद्र में जो गड़बड़ी मचायी थी, उसकी वजह से एक हमला कर और आर्थिक दृष्टि से काफ़ी हद तक कमजोर हुए हैं। विवाह के आमन्त्रण को स्वीकार कर यहाँ आने का बहाना करके गुप्तचरों का एक बड़ा जाल पोयसल राज्य में फैल जाय तो क्या दशा होगी एक छोटी-सी बात को लेकर राष्ट्र के भविष्य को खतरे में डालना उचित नहीं। उनके कथन में काफ़ी सत्यांश भी है, अप्पाजी। इसलिए इस विषय पर सोचने की ज़रूरत नहीं। हाँ, बुतुगा का निराश होमा सहज है। बुतुगा, तुम एक काम कर सकोगे? अगर वह काम कर दोगे तो मुझे और तुम्हें दोनों को तृप्ति होगी।' ___ "ऐसा ही हो, अम्माजी।" बुतुगा ने कहा और यही प्रतीक्षा करता रहा कि वे क्या कहती हैं।
"युतुगा, तुम्हारा विवाह करानेवाली पिरियरसी जी ही थीं न?" "हाँ।" "उन्होंने तुम्हें और दासब्बे को आशीवांट दिया था न"
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“हाँ।"
"इसलिए तुम एक काम करो। मेरे विवाह के दिन तुम और दासच्चे मुझे आशीर्वाद दो। तुम्हारे आशीर्वाद के द्वारा पिरियरसी जी का आशीर्वाद मुझे मिल जाएगा। इससे मुझे भी तृप्ति मिल जाएगी।"
"हाँ, हाँ, यह सब बचपना क्यों कर रही हैं, यह सब होने जाने की बात नहीं।” कहकर बुतुगा वहाँ से चला गया।
थोड़ी देर बाद मारसिंगय्या बोले, "तो बात यह हुई अम्माजी, चालुक्य चक्रवर्ती और पोसल राजाओं में अब आगे स्नेह-सम्बन्ध सम्भव ही नहीं । एरेयंग प्रभु को भाई समझनेवाले विक्रमादित्य चक्रवर्ती आखिर ऐसे क्यों हुए यह एक समस्या है। एक बार किसी बहाने मिलें और खुले दिल से वार्ता करें तो फिर से वही स्नेह, वही बन्धुभाव आ सकता है, ऐसा मुझे अब भी लगता है। दोनों कर्नाटक राज्य एक बनकर रहे होते तो यह अजेय गढ़ बनकर रह सकता था।"
" अधिकार का दुरहंकार ही ऐसा होता है, अप्पाजी। लड़की को ब्याह देकर समधी बननेवाले राष्ट्रकूट भी तो कर्नाटकी ही थे न उससे द्वेष करके उनका नामोनिशान मिटाकर चालुक्य वैभव से प्रतिष्ठित हुए। राष्ट्रकूटों की जैसी हालत कर दी, वही हालत उनकी भी कोई करेगा - यह सोच विचार न करके अधिकार जतलाना अहंकार नहीं तो और क्या हैं? विक्रमादित्य ने अपना शक स्थापित किया ठीक है। उसे आचन्द्रार्क स्थायी बने रहना हो तो चालुक्य राज्य को बना रहना जरूरी है। इसके लिए स्नेह बढ़ाकर लोगों में सद्भाव बढ़ाना होगा। अधिकारमद से वह साध्य नहीं होगा। अधिकार-दर्प के वशीभूत होना आदर्श राजा का लक्षण नहीं । राजा का यह निर्णय इस दृष्टि से ठीक है; ऐसा मैं सोचती हूँ ।" शान्तला बोली ।
"फिर भी स्नेह का हाथ बढ़ाना ग़लत नहीं, अम्माजी । स्नेह दिखाने का अर्थ झुकना नहीं । द्वेप बढ़ाने का अर्थ हैं बुद्ध के लिए बुलावा देना। युद्ध का अर्थ हैं निरपराध जनजीवन को संकट में डालना। स्नेह बढ़ाने पर युद्ध पीछे सरक जाता है। वह जितना टले उतना अच्छा। जनता को यह मुख्य नहीं कि कौन राज करता है, कैसा राज चलाता है। अपने सुख और खुशहाली के लिए यह राज्य संचालन पोषक और पूरक है या नहीं, इसी को प्रजा देखती है। जग्गदेव की बड़ी सेना को हमने जीत लिया। परन्तु इस विजय के पीछे हमने कितनों के प्राण गँवाये, कितनी सम्पत्ति खोची! फिर से इतना अर्जन करने के लिए कितना और समय चाहिए!
यह सब सोचा है? चालुक्यों की निगलने के लिए चारों ओर लोग सशस्त्र हो समय की प्रतीक्षा में हैं। उनका निवारण करने के लिए सशक्त न होने के कारण, राजनीति की बुद्धिमत्ता दर्शाते हुए उन लोगों को इधर मोड़ दिया था। अभी हमने
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हार न मानकर अपनी शक्ति यी हैं ! हमारी मदद चालुक्यों के लिए हर समय रहेगी और उनकी मदद हमारे लिए है-यह मालूम होने पर मलेप, चेंगाल्य, कोंगाल्व सय जहाँ-के-तहाँ चुप हो जाएंगे। ऐसा करना बुद्धिमत्ता है या नहीं, तुम सोच देखो।" मारसिंगच्या ने कहा।
शान्तला ने तुरन्त कोई उत्तर नहीं दिया। पिता की चिन्तन-धारा कितनी व्यापक है. यह समझकर एक प्रशंसा की झलक के साथ पिता की ओर देखा। थोड़ी देर बाद बोली, "अप्पाजी, इस दृष्टिकोण से प्रभुसत्ता ने विचार नहीं किया। फिर एक बार इस बारे में उनसे विचार-विपर्श करना अनुचित न होगा।"
"में ही बात छहूँ या तुम छेड़ोगी?"
"आप द्वारा बात छेड़ना ही उचित है। बात करने के विषय में आप यदि निर्णय करते हैं तो इसमें विलम्ब न करें। आमन्त्रण उनके पास पहुंचे और वे आने का पन करें-इस सबके लिए समय भी तो रहना चाहिए।"
"ठीक है, आज ही दोपहर को विचार प्रस्तुत करूँगा।" कहकर हेग्गड़े चुप हो गये।
"इसी के लिए मुझे बुलवाया?"
"विवाह के अवसर पर अपनी तरफ़ से देने के लिए एक अंगूठी और एक हार लाया हूँ। तुम अगर पसन्द करो तो रखेंगे, नहीं तो दूसरा बनवाएँगे। आओ" कहते हुए अपने कमरे की ओर चल दिये।
''माँ नहीं देखना चाहेंगी?" शान्तला ने पूछा। "उन्होंने देख लिया है।"
अपने कक्ष में पहुंचकर हेग्गड़े मारसिंगय्या ने उन दोनों चीजों को शान्तला को दिखाया। अँगूठी में नील पत्थर जड़ा था, लाल मणियों से मयूराकार बना था।
और कमल के आकार के मणियों में जगमग पदक हथेली के बराबर चौड़ा था हार में। नवरत्न खचित पदक में विकसित कमल बने थे। दोनों चीजें शान्तला को पसन्द आ गयीं। उन्हें सुरक्षित रखकर मारसिंगव्या राजमहल की ओर चले गये।
महामातृश्री और बिहिदेव के बीच आमन्त्रण-पत्र भेजने के विषय में एक बार चर्चा चल चुकी थी। वह निर्णीत विषय मातृश्री द्वारा फिर उठ खड़ा हुआ देख बिट्टिदेव संकोच में पड़ गये। ठीक इसी वक्त द्वारपाल ने आकर निवेदन किया कि हेग्गड़े मारसिंगय्या जी महामातृश्री के दर्शन करना चाहते हैं। तुरन्त उन्हें अन्दर बुला लिया गया । नमस्कार-प्रतिनमस्कार के बाद, मारसिंगच्या एक आसन पर बैठ गये। उनके बैठते ही बिट्टिदेव ने, "आप ठीक समय पर आये हैं। हमारे सामने जो
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समस्या उठ खड़ी हुई है, उसका समाधान करने में आपकी उपस्थिति से मदद मिल. जाएगी।" कहते हुए समस्या उनके सामने प्रस्तुत की।
मारसिंगय्या ने बताया, "वास्तव में मैं भी उसी विषय पर बातचीत करने के इरादे से आया हूँ। अभी थोड़ी देर पहले हमारे यहाँ भी इसी बात पर चर्चा चली।" नौकर बुतुगा से जो सूचना मिली, तथा बाद में भी इस सम्बन्ध में जो भी बातचीत चली थी, हेग्गड़ेली ने वह सब कह सुनायी और अन्त में निवेदन किया, "यद्यपि मेरा भी मन्तव्य इस चर्चा में निहित है लेकिन ऐसा ही करना यह मेरा मन्तव्य नहीं; इस पर विस्तार से विचार किया जाना चाहिए। अन्तिम निर्णय राजघराना ही करेगा। व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए दोनों बराबर हैं।' इतना कहकर मारसिंगय्या चुप हो गये।
बिट्रिदेव ने कहा, "सोच-समझकर ही विचार करना होगा। सन्निधान के समक्ष पेश कर विचार-विमर्श करने के बाद ही निर्णय करना उचित है, यही ठीक होगा न, मौं?"
महामातृश्री एचलदेवी ने कहा, "हम स्त्रियाँ हैं। ऐसे मांगलिक अवसरों पर हम ममता, आत्मीयता देखना चाहती हैं। राष्ट्रहित सर्वोपरि है इससे मैं सहमत हूँ परन्तु इस समस्या के दो पहलू हैं। अब तक तुमने जो बताया एक वह है और हेग्गड़ेजी जो बता रहे हैं वह दूसरा पहलू हैं। प्रधानजी के साथ तुम बेलापुरी जाओ
और वहाँ निर्णय करो। मैं जानती हूँ कि तुम्हारे प्रभु सदा ही स्नेहपूर्ण व्यवहार करनेवाले हैं। यह उनका स्वभाव है। तब की स्थिति कुछ और थी अब उसमें कुछ परिवर्तन आया होगा। मैं यह कहने में असमर्थ हूँ कि वह ठीक है।''
बिट्टिदेव उठ खड़ा हुआ। मारसिंगय्या भी उठ खड़े हुए और विनीत होकर बोले, "आज्ञा हो तो मैं भी साथ हो आऊँ?"
"न, हम ही दोनों हो आएँगे।" विट्टिदेव ने कहा। मारसिंगच्या दोनों को प्रणाम कर वहाँ से चले गये।
यिट्टिदेव गंगराज को साथ लेकर वेलापुरी पहुँचे और बल्लाल के साथ विचार-विमर्श कर लौट आये। बल्लाल को लगा कि आमन्त्रण भेजना अपनी दुबेलता का प्रतीक माना जाएगा, इसलिए उन्होंने अपना निर्णय सुनाया, "अपने पट्टाभिषेक एवं विवाह के अवसरों पर आमन्त्रण नहीं भेजा गया है। इसलिए अब आमन्त्रण न ही भेजना उचित होगा।"
इस निर्णय के साथ यह बात समाप्त हो गयी।
उपनयन संस्कार के लिए पहले मुहूर्त टहराया गया था। एक सप्ताह पहले ही महागज बल्लाल अपनी रानियों सहित दोरतमुद्र पधार गये।
आमन्त्रित करीब-करीब सभी आये थे। छोटे चलिकेनायक अनेक तरह के
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भेंट-उपहार ले आये थे, वर-वधू के लिए वह परिवार सहित आये थे। नायक के साथ उनकी पत्नी और दोनों पुत्र आये थे। उसका बड़ा बेटा नीणये नायक छ: बरस का था। छोटा बेटा मानेनायक और चन्दलदेवी का बेटा बिट्टिगा दोनों करीय समवयस्क थे।
जग्गदेव से हुए युद्ध के बाद, डाकरस दण्डनाथ चादवपुरी में ही रहे। पता नहीं, ये गाल्व कब कैसे व्यवहार करने लग जाएँ-इसलिए उधर काफ़ी सतर्क रहकर उस ओर की रक्षा का दायित्व दक्ष हाथों में रहे, ऐसी व्यवस्था की गयी थी। अब इस विवाह समारम्भ के लिए डाकरस दण्डनाथ तथा उनकी पत्नी एचियक्का और उनके पुत्र मरियाने और भरत भी आये थे। सिंगिमय्या और सिरियादेवी को तो आना ही था। सिंगिमय्या तो शान्तला के मामा ही थे और कन्यादान के समय मामा का उपस्थित रहना आवश्यक होता है।
एक समय था कि जब पद्यलदेवी यह सोचकर कि पटरानी पद के लिए अपनी प्रतिस्पर्धिनी के रूप में शान्तला बढ़ रही है उसके प्रति द्वेष भाव से अन्दर ही अन्दर जल रही थी, आज उसी पद्मला को अय स्वयं मंगलवेदिका पर बैठी शान्तला को राजमहल की बह स्वीकार करना था। इसलिए आज इस द्वेष के बदले अखण्ड प्रेम और कृतज्ञता की भावना से उसका हृदय भर आया था।
उपनयन संस्कार कस्तू स-- अ। दंपन। सेवा ही विशालमारम्भ धा। विवाह वेदिका सलिंकार से सुसज्जित हो गयी थी। मांगलिक तूर्यनाद से दिशाएँ गूंजने लगी थीं। यथाविधि बेदघोष होने लग गया। पुष्पमाला धारण, मांगल्य धारण, सप्तपदी आदि वैवाहिक विधियाँ यधाशास्त्र सम्पन्न हुई। विवाह बदी हषोल्लास से भर उठी। अब नज्ञराने, भेंट-चढ़ावे पुरोहितों के विधिवत् मन्त्र घोष के साथ वर-वधू के हाथ में देनेवालों के नाम घोषित करते हुए सौंपे जाने लगे। इस सिलसिले में श्रीदेवी के आशीर्वाद के साथ, एक सोने के परात में सफ़ेद जरीदार रेशम की साड़ी, कंचुकी, मंगलद्रव्य, सोने का हार, कंगन आदि विवाह के उपलक्ष्य में वधू बनी शान्तला के हाथों में पुरोहितों ने श्रीदेवी का नाम घोषित करते हुए दिये। चकित होकर शान्तला और बिट्टिदेव ने इस तरह पुरस्कृत करनेवाली महिमामनी को अन्वेषण करती दृष्टि से चारों ओर निहारा । दूर से ही उन्होंने देखा कि रेविमय्या और बुतुगा श्रीदेवी को लिवाकर आ रहे हैं। उनके साथ एक सुन्दर बालक भी था। ___उन्हें आते देख बल्लाल और उनकी रानियों, एचलदेवी, गंगराज आदि प्रमुख राजपुरुष उठ खड़े हुए। श्रीदेवी के पास आने पर वर-वधू दोनों ने एक साथ आगे बढ़कर उनके पैर छुए। श्रीदेवी ने झुककर उनकी पीठ सहलाते हुए कहा, "उठो, भगवान दयामय है। इसका एक प्रमाण यही है कि भगवान ने तुम दोनों को साथ
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कर दिया और एक यह कि इस मांगलिक अवसर पर उपस्थित रहकर दोनों को अपनी आँखों से देख सन्तुष्ट होने का अवसर मुझे दिया। मैं दो दिन यहीं रहूँगी । विधिवत् कार्यक्रम सम्पन्न होवें अचानक इस अवसर पर मेरा आना आप लोगों को आश्चर्यजनक लगा होगा। सारी बात बाद में बताऊँगी । परन्तु कोई इस बात को न भूले कि मैं श्रीदेवी हूँ ।" कहती हुई ये वहीं विवाह वेदी के पास जाकर बैठ गयीं ।
रेवमय्या और बुलुगा को लगा कि अब विवाह वेदी एक नयी प्रभा से जगमगा रही है। श्रीदेवी के बारे में कुछ न जाननेवाले आपस में बातचीत करने लगे कि यह कौन है। जो जानते थे वे मौन रहे आये। 'श्रीदेवी' नाम सुन, कुछ सोच-विचारकर विवाहोत्सव की उस चहल-पहल में भी छोटे चलिकेनायक उनके पास आये। उन्होंने हाथ जोड़कर सविनय अपना परिचय दिया, “मैं नायक का बेटा छोटे चलिकेनायक हूँ ।"
"नायकजी आये हैं?" श्रीदेवी ने पूछा।
"वे तो प्रभु के साथ ही चल बसे ।"
"क्या हुआ था?"
"उम्र भी काफ़ी थी। आदर्श जीवन व्यतीत करते हुए हमें सन्मार्ग दिखाकर चल बसे इसलिए दुख की बात नहीं "
"वह जिस तरह प्रभु के विश्वासपात्र बनकर रहें, तुम्हें भी उसी तरह इस नवविवाहित दम्पती के साथ रहना चाहिए, नायक ।" श्रीदेवी ने कहा ।
"जैसी आपकी आज्ञा ।"
"अकेले ही आये हो?"
"नहीं, पत्नी और बच्चे सब आये हैं।"
"याद में देखूँगी ।"
नायक जैसा आया था वैसा ही लौट गया। वह बेचारा अपने उतावलेपन को रोक नहीं सका था ।
शालिवाहन शक वर्ष 1027 श्रीतारण संवत्सर, उत्तरायण वसंत ऋतु, वैशाख शुक्ल पंचमी, मृगशिरा नक्षत्र युक्त शुभ कर्नाटक लग्न में, लाभ स्थान में गुरु चन्द्र, भाग्यस्थान में उच्च शुक्र, कर्म स्थान में उच्च रवि के रहते विधिवत् यह विवाह सम्पन्न हुआ।
श्रीदेवी आते ही राजमहल के बाहर के साधारण निवास में ठहर गयी थीं, अब उन्हें राजमहल में बुलवा लिया गया। उनका सारा रक्षक दल वहीं ठहर गया। विवाह के दिन सब अपने-अपने कार्यों में व्यस्त रहे, इसलिए श्रीदेवी को विश्राम करने का मौका मिल गया। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उनकी
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देखरेख का दायित्व बुलुगा और दासब्बे पर ही छोड़ दिया गया।
विवाह समारोह के कके समाप्त होने के बाद दोपहर के जन्त सब लोग अन्तःपुर के मुखमण्डप में एकत्रित हुए । यहाँ सबका अर्थ सीमित जनों से ही है। श्रीदेवी, नवदम्पती, एचलदेवी, हेगड़े दम्पती, सिगिमय्या और उनकी पत्नी रानियों सहित महाराज बल्लाल, उदयादित्य छोटे चलिकेनायक और उनका परिवार, प्रधान गंगराज, मरियाने दण्डनायक - ये ही सब एकत्रित हुए थे। बम्मले, रेविमय्या, दासब्बे भी थे। विवाह के समय अन्य छोटे-मोटे काम सँभालने के लिए चट्टला को बुला लाया गया था। उसे बिट्टिगा की देखभाल में लगा दिया गया था। श्रीदेवी के साथ गालब्बे और लेंक तो आये ही थे। श्रीदेवी की एक दृष्टि सब पर पड़ गयी थी। तभी उन्हें नायक की पत्नी और बच्चे भी दिख गये थे। वहाँ जितने जन उपस्थित रहे सब के सब एक न एक तरह से श्रीदेवी से परिचित ही थे। वे जानती थीं, कि उपस्थितों में कोई ऐसे नहीं, जो कथित विषय जो भी रहे, उसे गुप्त ही रखेंगे। इन सब परिचितों में बही एक स्त्री, जो बच्चे को लिये हुए थी, श्रीदेवी के लिए अपरिचित जान पड़ी। वह यह चहला थी। उसके रहने से कोई हर्ज नहीं, मानकर ही उसे रहने दिया होगा - यह निश्चय होने पर भी श्रीदेवी ने पूछ ही लिया कि वह कौन है?
शान्तला ने इस चट्टला के सारे वृत्तान्त को बहुत रसीले ढंग से बताया।
यह सुनकर श्रीदेवी कहने लगी, “इसका वृत्तान्त तो बड़ा रोचक है। यह कितनी त्यागमयी और साहसिक नारी है! यहाँ के लोगों की निष्ठा और उस निष्ठा का वैविध्य ही मेरी समझ से परे है। ऐसी निष्ठावाले राज्य के मित्र होकर सहजीवन यापन करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त नहीं हुआ। राज करनेवाले राजाओं का मन जाने किस-किस के वश में हो जाता है, और कब क्या कर बैठते हैं, कुछ पता नहीं चलता। किन्हीं विचित्र परिस्थितियों के कारण, चक्रवर्ती पोय्सलों के विरोधी बन बैठे हैं। मैं यह नहीं कहती कि वह ठीक है। ऐसी भावना रखना ठीक नहीं। निष्ठावान प्रजाजन के संबर्धन में इस राज्य के बुजुर्गों की निष्ठा सर्वोपरि रही है। उस पर सन्देह करना उचित नहीं। उनका स्नेह हमारे लिए रक्षा कवच है । बलिपुर प्रान्त को पहले जैसा उन्हीं के अधीन करके और उन्हीं को उसकी देखभाल का कार्य सौंपकर मैत्री को बनाये रखने के लिए मैंने कई बार मिन्नतें की। आखिर मैं स्त्री ही तो ठहरी। मेरी बातों का क्या मूल्या उत्तर में वे बोले, ' दो-चार दिन अच्छी तरह तुम्हारी देखभाल की इसलिए तुम समझ बैठीं कि वे दूध के धुले और स्वर्ग से उतरे हैं। सियासी हालचाल की ये बातें तुम्हारी समझ में नहीं आएँगी। तुम्हें इन बातों में दखल नहीं देना चाहिए। हमारी रीति-नीति तुम्हें अच्छी नहीं लगती हो तो तुम वहीं जाकर रहो।' जब मेरी बातों का कोई मूल्य
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नहीं रहा तब मौन रहकर दिन व्यतीत करते रहने के सिवाय करती ही क्या? हो सकता है अनेक रानियों के होने पर मुझ अकेली का न होना उन्हें खटकेगा नहीं। परन्तु मैं भारतीय नारी हूँ। हमारा वही विश्वास है कि पति ही सती के लिए परमदेव हैं। स्वयंवर के पर सला पहा मी स्वयं को समर्पित का दिया। तब उनके ऐसा कहने मात्र से उनसे दूर होना मेरे लिए ठीक होगा? नहीं। चाहे ठीक लगे या न लगे मुझे वहीं जीना होगा। दूसरा चारा नहीं।"
एक क्षण रुककर श्रीदेवी ने आगे कहना आरम्भ किया, "यहाँ जो भी होता था वह सब गुप्तचरों से मालूम हो जाता था। एरेयंग प्रभु के पट्टाभिषेक समारम्भ के आमन्त्रण के बाद, वहाँ से कोई आमन्त्रण हमें नहीं मिला । हम उसकी प्रतीक्षा भी नहीं कर सकते थे। यहाँ जो भी कार्य सम्पन्न हुए, प्रत्येक की खबर मिलने के साथ उनका क्रोध बढ़ता ही गया है। जग्गदेव की हार पर तो चक्रवर्ती और अधिक बिगड़े हैं-ऐसी हालत में मेरे यहाँ आने और आप लोगों से मिलने की बातों की मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी-यह स्पष्ट मालूम था। मैं क्या करूँ? मुझे यहाँ मैत्री, मिलनसारी और विश्वास भी है। लेकिन चक्रवर्ती को... उनको यह सब नहीं चाहिए। आपके महाराज का जब विवाह हुआ तब मेरा जयकर्ण एक साल का था। इसके बाद अचानक ही मेरा मन इधर आने को करता ग्रहा। मैं सोचने लगी कि दोरसमुद्र के राजमहल में बिट्टिदेव का विवाह कब सम्पन्न होगा? होगा तो किसके साथ होगा? बहुत समय से मेरी यही चाह रही कि हो तो इन्हीं दोनों का विवाह हो। राजनीतिक परिस्थितियाँ कब कौन-सा करवट ले लें, कौन जाने! हो सकता है मेरी चाह चाह ही रह जाय। ऐसी परिस्थिति की सम्भावना से मैं परिचित भी थीं। परन्तु मेरे अन्तः के प्रेम एवं वात्सल्य भाव को कौंन रोक सकता था? हाँ, देह को बाँधकर रखा जा सकता है। यही धारणा मेरे मस्तिष्क में व्याप गयी थी। मैं कछ भी कर नहीं सकती थी। ऐसी हालत में मुझे एक दुःखद समाचार मिला; मेरा मन उस ओर चला गया। समाचार मेरे पूज्य पिता मारसिंग प्रभु के बारे में था, वे मृत्यु शैया पर थे। चक्रवती की अनुमति पाकर मैं पितृचरण को देखने आयी। पितृचरणों का अन्तिम दर्शन पूर्वपुण्य से मिला। वहीं आपका आमन्त्रण भी मिला। आमन्त्रण मेरे लिए नहीं, करहाट के शिलहार महाराज के लिए था। आमन्त्रण देखकर आमन्त्रित के बदले मैं श्रीदेवी चली आयी, वधू की फूफी। पिरियरसी तो आ नहीं सकती थीं। उन्हें आमन्त्रण भी नहीं। श्रीदेवी पर रोक कौन लगाए? यह विवाह समारम्भ तो उसी के घर का कार्य है, यही समझकर चली आयी।
"ईश्वर ने मेरी अभिलाषा पूरी की। मेरे यहाँ आने की बात कल्याण तक न पहुँचे-यही इच्छा है। मुझे इस बात का विश्वास था कि बिन बुलाये आने पर
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भी आप लोग अन्यथा न लेंगे। चलते हुए रास्ते में सोचा भी कि कहीं आमन्त्रण के विना जाने के कारण दक्ष के यहाँ सती की जो दशा हुई वही मेरी भी न हो जाय। फिर भी मेरे अन्तरंग का वह प्रेम गझे यहाँ तक खींच लाया। मेरे उस प्रेम के बदले में वही प्रेम मिला। अब ग़लतफ़हमी में पड़े चक्रयती बाद में वस्तुस्थिति से परिचित हो जाने पर बदल भी जाएँ यह भी असम्भव नहीं। मेरी विनती है कि आप लोगों का मन सदा खुला रहे। कटकर दूर होने को मत सोचें। यहाँ न समझा सकनेवाली मैं यहाँ आप लोगों को समझाने की धृष्टता कर रही हूँ-ऐसा मत समझें। मुझे विश्वास है कि आप लोग अन्यथा नहीं समझेंगे। मेरी परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि रहना चाहूँ तो भी रह नहीं सकती हूँ। देखें, मेरी इच्छा के अनुसार सब ठीक हो जाए तो कल ही मैं यहाँ से प्रस्थान कर दूंगी। गालब्बे और लेंका ने यहीं रहने की इच्छा प्रकट की है। मुझं भी स्वीकार है। अगर यह चट्टलदेवी मेरे साथ चलना स्वीकार करें तो इसे साथ लेती जाऊँगी।"
चट्टला को यह बात शिरोधार्य नहीं हुई। यह बोली, “पहली साँस पोय्सल राज्य में ली थी, अन्तिम साँस भी यहीं लेना चाहूँगी।"
श्रीदेवी अचानक आयीं, कुछ लोगों को खुश करके चली गयीं। जाने के पहले एक बार नवविवाहिता दम्पती को उन्होंने आशीवाद दिया और छोटे चलिकेनायक को बुलवाकर कहा, “खी नायक, तुम्हें और तुम्हारे परिवार को इन नूतन दम्पतियों की सेवा में अपना जीवन वरोहर रखना होगा। तुम्हारा पंश सदा ही स्वामीनिष्ठ रहा है और स्वामी द्रोहियों का नाशक विरुद धारण करता आया है। अपने वंश की इस कीर्ति को बनाये रखना तुम्हारा कर्तव्य है। रेविमय्या, तुम्हारी और मेरी अभिलाषा पूरी हुई। इस दृष्टि से तुम और मैं दोनों ही बराबर हैं न? एक साधारण नौकर होते हुए तुम्हें जो स्वातन्त्र्य प्राप्त है वह मुझे नहीं। मेरे लिए यही तो एक तृप्ति और सन्तोष है कि अवसर पर यहाँ आ सकी, भले ही इसकी जानकारी मैंने किसी को नहीं दी।
श्रीदेवी एक और बात से भी तृप्त थीं कि रेक्मिय्या और बुतुगा उन्हें स्मरण कर रहे थे और आमन्त्रित करने का प्रस्ताब भी करते रहे। इस सम्बन्ध में अपने पिता के साथ हुई सारी चचा से शान्तला ने श्रीदेवी को अवगत करा दिया था।
विवाह-महोत्सव समाप्त होते ही डाकरस दण्डनाथ सपरिवार यादवपुरी के लिए रवाना हो गये।
श्रीदेवी के आदेश के अनुसार छोटे चलिकेनायक को राजमहल के रक्षकदल की देखभाल के काम के लिए वहीं रोक लिया गया। बल्लाल के लिए जैसे सिंगिमय्या आप्त रक्षक था वैसे ही बिट्टिदेव के लिए छोटे चलिकेनायक रक्षक बन गया।
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डाकरस ने चादवपरी पहँचने के थोड़े ही दिनों बाद वहाँ से खबर भेजी कि उधर चेंगाल्वों में युद्ध की तैयारियाँ तंज्ञी से शुरू होने लगी हैं। इसलिए इस तरफ़ हमें अपनी शैन्य शक्ति को बढ़ाना आवश्यक है।
खबर सुनते ही बालाल ने कहा, ''मैं स्वयं वहाँ जाऊँगा।"
बिट्टिदेव ने कहा, "सन्निधान की दोरसमुद्र में ही मुकाम करना चाहिए। यादवपुरी में मेरा रहना ठीक होगा। आज न सही, कल उस जगह को प्रबल राजधानी के रूप में परिवर्तित करना ही होगा। इसके अलावा चेंगाल्चों को इधर बढ़ने से रोकना ही नहीं, उन्हें दवाना भी होगा। इसके लिए आवश्यक योजना तैयार कर ली जाएगी।" ___अभी नवविवाहित हो, तुम्हें अभी वहाँ नहीं जाना चाहिए।'' वरलाल बोले।
''मैं अकेला नहीं लगना। शन्नता भी सा: देगी . छोड़ जाने के लिए तो विवाह नहीं किया न!" कहते हुए विहिदेब मुस्कुरा दिये।
प्रधानजी तथा अन्य मन्त्रियों के साथ विचार-विमर्श हुआ और बिट्टिदेव की सलाह के अनुसार ही निर्णय ले लिया गया।
हेगड़े दम्पती दोरसमुद्र में ही ठहरे। उनकी सेवा के लिए अब फिर से लेंका और गालब्बे तैनात कर दिये गये। बुतुगा और दासब्बे यादवपुरी चले गये। रेविमय्या महामातश्री की सेवा में बोम्मला के साथ दोरसमद्र में ही ठहर गया। शान्तला की राय चट्टला को साथ ले जाने की थी इसलिए वह भी यादवपुरी चली गयी। बिटिगा भी शान्तला के साथ यादवपुरी पहुँच गया।
इन नवविवाहितों के आनन्दमय जीवन में यह बालक एक बाधा बन गया-यह सोच एचलदेवी परेशान हुई। परन्तु शान्तला ने ही समझाया कि जब चट्टला और दासब्जे मौजूद हैं तो वाधा किस बात की।
बिट्टिदेव यादवपुरी पहुँचकर वहीं सुनियोजित ढंग से कार्यनिरत हो गये।
इधर पचलदेवी ने फिर से तीर्थयात्रा की वात उठायी। बल्लाल को मना लिया गया। दो नौकरानियों और सवार वीरप्पा तथा दो-चार सिपाहियों को साथ लेकर वे यात्रा पर चलने को तैयार हो गयौं। महामातृश्री का साथ देने के इरादे से हेगड़ती माचिकब्ध भी चलने को तैयार हो गयी थीं। यह बात्रा-संघ भी दोरसमुद्र से रवाना हुआ। ___ भविष्य को दृष्टि में रखकर राजमहल का विस्तार किया गया था। परन्तु अब वहाँ थोड़े ही जन रह गये थे।
बल्लाल के जन्मदिन समारोह पर यादवपुरी से विट्टिदेव आदि सभी आये थे। इस समारोह का यह पहला अवसर था जब मातृश्री की अनुपस्थिति खटक रही
थी।
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बल्लाल के विवाह के बाद, उत्कल के नाट्याचार्य काफ़ी भारी मात्रा में गुस-दक्षिणा प्राप्त कर अपने देश प्रस्थान कर चुके थे। बोकिमच्या हेगड़ेजी के अहाते में ही रहे। बल्लाल जव बेलापुरी गये थे तो उनके साथ नागचन्द्र और रानियों की शिक्षिका दोनों भी वहाँ गये थे और फिर दोनों ही उनके साध यहीं आ गये। जग्गदेव के साथ हुए युद्ध के समय में नागचन्द्र काव्य-रचना के कार्य में लगे हुए थे। विराम के समय दण्डनायक के घर की शिक्षिका को अपना नवनिर्मित कान्य पढ़-सुनाकर उनकी सलाह भी लिया करते थे। उनकी दृष्टि में वह शिक्षिका अधिक प्रतिभावती थी इसलिए दोनों में परस्पर सद्भावना दृढ़ हो गयी थी। कभी-कभी चोकिमच्या भी इस काव्यवाचन को सुनने के लिए शामिल हो जाया करते।
विवाह के बाद शान्तला के बिट्टिदेव के साथ यादवपुरी चले जाने पर कवि बोकिमय्या और शिल्पी गंगाचार्य दोनों, हेग्गड़ेजी से अनुमति लेकर बेलुगोल चले गये थे, इस इरादे से कि वहीं शेष जीवन व्यतीत करेंगे। ___ इस स्थिति के कारण अबकी बार जन्म-दिनोत्सव में कुछ कमी महसूस हो रही थी।
नागचन्द्र का काव्य समाप्तप्राय था, वलाल को यह बात मानूम थो! बिट्टिदेव के आते ही उनसे बोले, "हम अपने गुरुवर्य को क्यों न आस्थान कवि बना दें: __ बिट्टिदेव बोले, "बहुत पहले ही यह कार कर लेना था। शुभस्य शीघ्रम् ।'' बिट्टिदेव ने तुरन्त सहमति दे दी।
कवि नागचन्द्र को सूचित किया गया। उन्होंने निवेदन किया. ''ग़ानियों की गुरु और शिक्षिका मुझसे भी अधिक प्रतिभावती हैं, उन्हें भी राजसभा की आस्थान कवयित्री बनाएँ तो अच्छा होगा।'
"नाप-धाम कुछ भी तो पता नहीं, उन्होंने यह कुछ नहीं बताया।"
"प्रतिभा प्रतिभा ही है। जीवन से अनासक्त होकर सभी व्यावहारिक बातों से निर्लिप्त हो जाने मात्र से क्या प्रतिभा का सम्मान न हो?"
उन्हें भी बुलवाकर सूचना दी गयी।
उन्होंने कहा, ''मुझे किसी भी तरह की अभिलाषा नहीं । यदि प्राज्ञ चाहते हैं तो इनकार नहीं कर सकती; इससे मेरे छात्रों को सन्तोष मिलता हो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं। सन्निधान की इच्छा का मैं विरोध नहीं करूंगी।" ''राजसभा में इस बात की घोषणा करनी होगी तो कोई नाम भी चाहिए न?"
"मैं एक 'क्रन्ती हूँ। 'कन्ती' का अर्थ होता है भक्त्त। 'कन्नी' कहकर घोषित कीजिए। एक "भक्ता' कहने पर लोग मानेंगे नहीं।''
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पहाराज के जन्मदिन समारोह के अवसर पर कन्ती और नागचन्द्र दोनों पोसल राज्य के आस्थान-कवि घोषित हुए। रानियाँ अपनी शिक्षिका को आस्थान कवयित्री बनाने पर बहुत आनन्दित हुईं।
शान्तला को मालूम हुआ कि उसके गुरु बेलुगोल जा बसे हैं। जन्मदिन का उत्सव समाप्त होते ही, दो ही दिन के बाद, बिट्टिदेव आदि यादवपुरी की ओर रवाना हुए। पश्चिमोत्तर के कोने से दक्षिण-पश्चिम के कोने तक फैली पर्वत श्रेणी के पूर्व की तरफ फैली यादवपुरी का का स्थान बिहदेव और शान्तला को बहुत भाचा। वहाँ का राजमहल विस्तृत रूप से बनाया गया। अपना भावी जीवन इसी स्थान पर व्यतीत करने के निश्चय के अनुकूल राजमहल के अन्दर ही शान्तला देवी की इच्छा के अनुसार एक नाट्यागार का भी निर्माण किया गया। यों विशाल राजमहल के कारण यादवपुरी एक नयी चमक-दमक से मुशोभित होने लगी। ___टण्डनाघ झाकरस के लिए राजमहल के अहाते में ही एक विशाल सोध का निर्माण हुआ। एचलदेवी और चन्दलदेवी में जैसी आत्मीयता बनी रही वैसी ही आत्मीय भावना शान्तला और दण्डनायिका एचियक्का में बहुत ही शीघ्र बन गयी। मेलजोल बढ़ गया। एक दिन किसी बातचीत के सिलसिले में एचियक्का ने दण्डनाधिका चामब्बे के बारे में कुछ असन्तुष्टि के भाव व्यक्त किये। यह भी बताया कि दण्डनायिका उस एचियक्का) के प्रति उपेक्षा भाव रखती थी। परन्तु यह नहीं बताया कि एरंचंग प्रभ के पट्टाभिषेक के समय कलश वाहिनी पाँच सुमंगलियों में उसको न मिलाकर मांचकब्बे को शामिल करने से उसको असन्तोष हुआ था।
शान्तला ने कहा, "जो हमें छोड़कर चली गयीं उनके बारे में हम चर्चा ही क्यों करें? दण्डनायिका चामब्बे का मुझे काफ़ी परिचय है। संसार में सब लोग एक ही तरह की आशा-आकांक्षार लेकर तो जन्मते नहीं। जन्म लेने के बाद सभी का एक जैसे बातावरण में तो पालन-पोषण होता नहीं । जन्म के समय सभी बच्चों का मन परिशुद्ध ही रहता है। फिर वे जिस बातावरण में पल-पुसकर बढ़ते हैं उसके अनुसार ये व्यक्तित्व ग्रहण करते हैं। आपके बच्चे यदि महादण्डनायक जी के वातावरण में पलते-बढ़ते तो उनका स्वभाव कैसा होता-कौन कह सकता है: अब तो आप ही के पास प्रेम से पल-पुस रहे हैं। आपकी सरलता उनमें भी रूपित हो रही है। उनके छुटपन से ही उन्हें ऐसा दिशा-निर्देश मिलता रहना चाहिए कि उनमें कभी भी असूबा की भावना न आए। एक बार असूया या भेदभाव पैदा हो जाय तो उसे जड़ से उखाड़ फेंकना कठिन हो जाता हैं। अब देखिए, यह बालक विष्ट्टिगा जन्मते ही माँ-बाप को खो बैठा। इसे मेरी अविवाहित अवस्था में ही, मेरी गोद में पलकर बड़ा होना पड़ा। वह मंरा पोप्यपुत्र ही तो है। कल ईश्वर की कृपा
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से हमारी भी सन्तान होगी, तो हम अपनी सन्तान और बिट्टिगा में भेदभाव करें तो बेचारे बिट्टिगा की मनःस्थिति क्या होगी, जरा सोचिए।" "आपसे ऐसा भेद हो ही नहीं सकता। जिनमें
इ स होली है गरे उस दुर्भाव को निकाल फेंककर उन्हें एक सूत्र में जोड़ने की आप में क्षमता है। आप न होती तो पेरी ननदों का राजरानियाँ होना सम्भव ही नहीं था। परन्तु मैं उन्हें तथा उनके माँ-बाप को बहुत अच्छी तरह जानती हूँ। सब पिता के स्वभाव के अनुरूप हों तो बातें सुगम हो सकती हैं लेकिन यदि वे मां के अनुरूप हों, तब नहीं, उनमें यदि एक भी माँ के अनुरूप हो जाय तो आपका सारा किया-कराया पानी में होम करने का-सा होगा।"
"न, न, हमें ऐसा सोचना तक नहीं चाहिए। हम जब सबका हित चाहते हैं तो हमें किसी के बारे में ऐसा सोचना तक नहीं चाहिए।"
"उनके व्यवहार पर महाराज के जीवन का सुख-सन्तोष अवलम्बित है इसलिा। उस ओर मेरा ध्यान गया। वे मेरे मालिक (पति) की बहिनें हैं। उनका जीवन सुखी हो-या परी आकांक्षा है। माता के बारे में इसलिए कहा कि बच्चों नगी चलित की शीन' को प्रयास से मेरा in trai |
"माँ ने जो ग़लतियाँ की उन सबका उन्हें बोध है, इसलिए ऐसा नहीं होगा।"
"मैं भी यही चाहती हूँ। पहादण्डनायक जी के वंशीय सदा ऐसे ही निष्ठावान बनकर रहें, यही आकांक्षा है। मेरे मालिक की भी यही आशा है। मेरे मालिक अभी से कह रहे हैं कि अपने बच्चों को उसी तरह तैयार करना होगा जैसे उसके पिता ने उन्हें और उनके बड़े भाई को राष्ट्र कि प्रति निष्ठावान के रूप में तैयार किया
"अब यह राजा और राजकर्मचारी का अथवा मालिक नौकर का सम्बन्ध नहीं, दण्डनायिका जी, इस सबसे बढ़कर हैं अब का यह रिश्ता। दोनों तरह की बन्धुता के सूत्र में बंधे हैं। इसको इसी तरह आगे भी बनाये रखना है।"
"राजपरिवार की उदारता ऐसी ही बनी रहे तब सब सम्भव हो सकेगा।"
“राजपरिवार की उदारता जाएगी कहाँ? ऐसी ही बनी रहेगी। सभी उसकी उस उदारता के पात्र होंगे। कल आपकी ननदों में किसी के यदि लड़की पैदा हो तो आपकी बहू बनाये बिना रहेंगी?" ___ मैं कैसे कहूँ! मेरे लड़के तो राजा बनेंगे नहीं। वे ही यदि सोचें कि उनकी बेटियाँ भी गनी ही बने तो इसे ग़लत भी कैसे कहें? ऐसी कोई आकांक्षा नहीं मुझमें।"
"न हो तो आप स्वयं लड़की को जन्म देकर उस रानी बना, मना कौन करेगा।"
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"यह सब बहुत दूर की बात है। अभी से इसकी चर्चा ही क्यों? महाराज . और मेरे मालिक सीमान्न से अभी तक लौटे नहीं । उनके बारे में कोई खबर मिली हो, तो जानने के लिए मैं आयी थी। यहाँ बातें कुछ और ही चल पड़ी।" एचिवक्का बोली।
“पनसोगे की तरफ़ गये हैं, लौटने की खबर नहीं मिली।" "इतनी दूर तक जाने की बात मालिक ने नहीं बतायी?"
स्वयं उन्हीं को मालूम नहीं था। हेमावती (नदी) के किनारे तक हो आने की बात कही थी। सुना कि पनसोगे क्षेत्र के अरिगौंड वहीं उनसे मिले और बताया कि स्वयं और राजगौंड मिलकर सोमेश्वर मन्दिर का निर्माण करवा रहे हैं। मन्दिर निर्माण का कार्य समाप्तप्राय है। इस मन्दिर में मूर्ति की प्रतिष्ठा के समारम्भ के अवसर पर पधारने की प्रार्थना उन्होंने महाराज से की है। महाराज को वहाँ उपस्थित रहना है तो मन्दिर को पर्याप्त मात्रा में विस्तारवाला व विशाल होना चाहिए। यही सोचकर वहाँ देख आने गये हैं, दण्डनाथ जी भी साथ गये हैं।" शान्तला ने बताया।
"मन्दिर देखना शायद बहाना है। शायद वहाँ चेंगाल्वों का जाल फैला होगा, और यह बात प्रकट भी हुई होगी। स्वयं देख-समझने के लिए गये हैं। किसी कोने में बनं एक मन्दिर में मूर्ति-प्रतिष्ठा के समारम्भ के लिए महाराज को क्यों जाना चाहिए" एचियक्का बोली।
“दण्इनायिका जी ने बड़ी सूझ की बात कही है।"
"तो युद्ध सन्निहित...'' एचियक्का बोल ही रही थी कि बीच ही में शान्तला ने मुँह पर उँगली रख संकेत किया। एचियक्का मौन हो गयी।
"माँ, मां" आवाज निकट होती आयीं। चट्टला के साथ बिट्टिगा आया।
'टण्डनायिका के मुंह से कोई युद्ध की बात निकली-सी सुन पड़ी। फिर कोई युद्ध है? किसी तरह के संकोच के बिना चट्टला पूछ बैठी। ___ "ओह, वही इस छोटे बिट्टिगा की बात। जब इसकी माँ ने इसे राजपरिवार को सौंपा तब उन्होंने यह इच्छा प्रकट की थी कि इसे अच्छा वीर योद्धा बनाना है। मैं दण्डनायिका जी से कह रही थी कि राज्याधिकारियों के बच्चों के साथ इसे भी डाकरस जी द्वारा ही युद्ध-शिक्षण दिलवाया जाय।"
"युद्ध की बात सुनते ही मेरे कान खड़े हो गये। आप महाराज से कहिए कि यदि युद्ध हो तो उसमें मेरी सेवाओं का उपयोग भी किसी तरह से करें।" चट्टला बोली।
शान्तला ने कहा, "ठीक है।" तब तक बिट्टिगा शान्तला की गोद में चढ़ आया था। उसे देख चट्टला बोली,
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"देखिए इस मुन्ना को, आपको याद आयी कि फिर उसका ध्यान अन्यत्र आकर्षित करना सम्भव ही नहीं होता। जब तक न देख लैगा तब तक मां, पी' चिल्लाता, रट लगाता ही रहेगा। वास्तविक माँ न होते हुए भी आपसे इसे कितना लगाव है! आपने तो पूरी मपता उड़ेल दी है उस पर।' चट्टला बोली।
"तुम भी यह जाने रहो कि वह जब तक बड़ा न हो जाए, समझ-बूझ न आ जाए तब तक उसे ऐसे ही समझने टो। जरा जाकर देखो तो, नाश्ता तैयार है या नहीं।" शान्तला ने आदेश दिया।
चट्टला गयी और शीघ्र लौटकर बताया, "तैयार हैं।"
शान्तला देवी विट्टिगा को गोद में उठाकर दण्डनायिका एचियक्का के साथ नाश्ता करने चली गयीं।
इधर दोरसमुद्र में किसी तरह के उतार-चढ़ाव के बिना दिन गुजरते चले गये। एक दिन अचानक बोप्पदेयी ने आकर वल्लाल के पैर छुए और हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी। बालाल ने चकित हो हैंसमुख होकर पूछा, "कोई खास बात है?'
बोप्पदेवी ने एक यार आँख भर देखा। एक कदम आगे रख पल्लू के छोर को हाथ में ले लजाती हुई मरोड़ने लगी। संकोच के मारे सिर झुका लिया था।
"बलाल ने अपने हाथ आगे बढ़ाये तो बोप्पदेवी ने उन्हें अपने हाथों में थाम लिया। उसे खींचकर बल्लाल ने उसे अपनी अगल में बैठा लिया और पूछा, बताओ क्या बात है: मुझसे कहते संकोच क्यों?"
वह फिर नीचे झुकी और पैर छूकर बोली, "पोसल सिंहासन का उत्तराधिकारी ही जनमे-ऐसा आशीर्वाद दें।"
इसके सिर पर बालाल का हाघ यों सहज ही आ गया था लेकिन जब उन्होंने यह सुना तो अनपेक्षित ही वह झाध पीछे सरक गया। उसे कोई उत्साहपूर्ण उत्तर नहीं मिला था। यह सब कुछ ही क्षणों की प्रतिक्रिया थी। छोटी रानी ने सिर उठाकर पत्ति की ओर देखा । पूछा, "क्यों प्रभु! मेरी वह अभिलाषा आपको रुचिकर नहीं लगी?' उसकी आँखें भर आयी थीं।
बल्लाल को अब अपनी असावधानी का परिणाम प्रत्यक्ष दिख रहा था। वे बोले, ''इसका माने क्या है, देवी? मेरी होनेवाली पहली सन्तान मेरी उत्तराधिकारी बने-यही मेरी अभिलाषा है। तुमने जो कहा वह शीन मेरी समझ में नहीं आया था। अब जाओ, और भगवान के सामने घी के दीये जलाकर प्रणाम कर आओ, अपनी दीदियों का भी आशीर्वाद पाओ।"
उतावली में छोटी रानी को आँसू तक पोंछने का ध्यान नहीं रहा। वहीं से
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सीधे पूजाग्रह में गयी और घी के दीये जलाकर नमस्कार करके फिर बनाल के पास आ गयी। बल्लाल ने पूछा, “इतनी जल्दी ही सब हो गया?'' और मुस्कुरा दिन।
भगवान के सामने घी के दीये जला दिये. प्रणाम किया। अब तो दीदियों के पास सन्निधान के साथ जाने की अभिलाषा है।" चोपदेवी बोली।
तीनों रानियों के आपस में एक समझौता हुआ था कि क्रमशः एक-एक मौसम (ऋत) में महाराज के साथ रहेंगी। इसके अनुसार क्रम से दो-दो मौसम महाराज के साथ व्यतीत हो चुके थे। और अब साल पूरे होने को था। अपने सुखी जीवन में कोई अकेली न रही। महाराज के साथ एक रानी को जब रहना होता तो बाकी दोनों साथ रहती थीं। मतलब यह कि इस एक वर्ष का यह जीवन उन सबने बड़े ही हपोल्लास के साथ व्यतीत किया था।
सबके अन्दर गत बसन्त ऋतु से एक सुप्त भावना क्रियाशील थी और वह निरन्तर बढ़ती जा रही थी। प्रत्येक की यही मनोवांका थी कि महाराज के उत्तराधिकारी का जन्म उसकी अपनी कोख से हो। आधा वसन्त उपनयन और विवाह के समारम्भ में ही व्यतीत हो चुका था। इन मुहूर्तों के समय पाला वेदी पर साथ-साथ बैठती तो रही, लेकिन सान्निध्य बोप्पदेवी का रहा आया। बाद में पद्मला और चामला के साथ महाराज के सानिध्य के दो ऋतु ग्रीष्म और वर्षा बीत चुके थे। सन्निधान की शरद ऋतु बोपदेवी के साथ बितानी थी। अपनी बारी पर सन्निधान के साथ रहने के फलम्बरूप, अपनी सफलता का सन्तोष सन्निधान से निवेदन कर, उस अपने उल्लास की अपनी दीदियों में बाँटने के उद्देश्य से वह चन्द्रशाला में आयी। ___दम्पती का यह आगमन अनिरीक्षित ही था, फिर भी बड़े उत्साह से इन लोगों ने उनका स्वागत किया। बैठने के लिए सुसज्जित आसन दिये। सबके बैठ जाने के बाद बल्लाल ने कहा, "तुम्हारी बहिन आशीवाद पाने के लिए आयी है। अकेली आने में संकोच कर रही थी इसलिए यह हमें पकड़ लाथी है।"
"आशीर्वाद माँगना क्या है, वह तो हमेशा ही रहेगा। इसमें संकोच करने की क्या बात थी?" पद्मला ने कहा।
"जब वह खुद आशीर्वाद मांगने आयी हैं तो उसी से पूछ लो । क्या उसे यह मालूम नहीं कि तुम दोनों सदा ही उसके मंगल की कामना करती हो।' बल्लाल का उत्तर था।
"तो फिर" चामलदेवी का सवाल था।
"कुछ उद्देश्य है, इसलिए आयी है। हमसे आशीर्वाद माँग रही थी। आप उसके लिए बड़ी हैं, इसलिए आपका आशीर्वाद लेने को हमने कहा। इसके लिए
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यह हमें भी साथ वसीट लायी है।" बल्लाल ने कहा ।
"ऐसा हो तो स्वयं सन्निधान ही बता सकेंगे न?" "वही कहें।" कहते हुए ये बोप्पदेवी की ओर मुड़कर बोले, "कहो!" "मेरी होनेवाली सन्तान लड़का हो यही आशीर्वाद दें।" कहते हुए उसने दोनों को प्रणाम किया।
यह बात दोनों को ठीक नहीं जँची। उनकी इस भावना का आभास उनके चेहरों पर स्पष्ट था। फिर बोली, "उठो बोप्पि, जिस भगवान ने तुम पर यह कृपा दिखायी है वह इस आकांक्षा को पूरा करेगा। हमारे आशीर्वाद से न लड़की लड़का बन सकेगी और न ही लड़का लड़की। है न चामू!" अपनी बहिन के उत्तर की प्रतीक्षा न करके पचलदेवी ने घण्टी बजायी ।
नौकरानी रुद्रब्बे उपस्थित हुई ।
"रुद्रब्बे, कुछ मिठाई तुरन्त ले आओ।" पद्मला ने कहा । इतने ही क्षणों में उनके मन में ईष्यां का भाव अंकुरित हो चुका था ।
दासी मिठाई लाने ही वाली थी कि इतने में दूसरी दासी सुग्गा ने गुप्तचर चाविमय्या के आने की खबर सुनायी। तुरन्त बल्लाल उठे, "अभी आते हैं" कह मन्त्रणागार में चले गये, जहाँ चाविमय्या उनकी प्रतीक्षा कर रहा था ।
चाविमय्या ने धीमे स्वर में निवेदन किया, "चेंगाल्वों का आनन्दिनी सुसज्जित सेना को साथ लेकर आ रहा है। सेना को एक पखवारे में कावेरी के उस वीर पहुँच जाने की सम्भावना है। उसकी संख्या का अनुमान लगाने के बाद, लगता हैं अब यादवपुरी में स्थित हमारी सेना अपर्याप्त है। यहाँ से सेना को शीघ्र ही मल्लिपट्टण के जरिये रवाना करने की व्यवस्था होनी चाहिए। इसमें अब विलम्व न हो, इसलिए मुझे ही सीधे सन्निधान के पास भेजा गया है।"
"तुमः"
“मुझे तुरन्त लौटना है। वहाँ जाने पर कौन-सा हुक्म देंगे, पता नहीं ।" "अच्छा, तुम जा सकते हो, कहो कि व्यवस्था हो जाएगी।" बल्लाल ने कहा । चाविपय्या चला गया । बल्लाल पद्मलदेवी के अन्तःपुर की ओर बढ़े। उनका मस्तिष्क कुछ और सोच रहा था। मिठाई को बाँट लेने की उनकी इच्छा अब शायद उनके मन से खिसक गयी थी। इसलिए अन्तःपुर के दरवाजे पर पहुँचकर एक-दो क्षण के लिए खड़े रहे। उन्हें पद्मलदेवी की बात सुन पड़ी वह कह रही थी- "देखा चामू, इस बोप्पि को ! ज़्यादा बातें नं करके गुमशुम रहकर अपना लक्ष्य साध लेती है।"
"मुझे बात करना नहीं आता इसलिए मैं अधिक नहीं बोलती। कुछ का कुछ बोल गयी तो क्या अच्छा होगा? बोप्पदेवी ने कहा बल्लाल को लगा कि उसकी
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ध्वनि में कुछ दर्द है।"
उस वार्तालाप को वैसे ही चलने दें तो इनमें विरसता आ सकती है-यही सोचकर बल्लाल ने ज़ोर से धक्का देकर किवाड़ खोल दिया। बोले, ''करी, करो, अब नहीं छेड़खानी करोगी तो कब करोगी; चिढ़ाओ, चिढ़ाओ अपनी बहिन को । तुम स्त्रियाँ छेड़खानी करना कब छोड़ती हो? कहाँ है पिटाई" उन्होंने एक साथ जैसे खातों की बौछार ही कर दी। वहीं पास में एक चौकी पर लड्डुओं से भरा थाल रखा धा। एक बार दो-दो के हिसाब से लड्डू उठाकर अपनी पत्नियों के मुँह में टूसे और स्वयं ने भी एक लड्डू लेकर अपने मुँह में डालते हुए कहा, "देखो, एक दाना भी नीचे न गिरे; जो ऐसा खाएगा उसके लिए विशेष पुरस्कार मिलेगा। इस पुरस्कार के पात्र हम भी होंगे।"
महाराज सामान्य लोगों की तरह चों अल्हड़पन का व्यवहार करेंगे-इसकी उन्हें कलाना भी नहीं घी। कहीं नौकर-नातर देख न लें-इसलिए पद्मलदेवी जाकर किंधाड़ बन्द कर आयीं। उन्हें इर घा कि नौकर यह सब देखकर इधर-उधर कहते फिरें तो लोक होगा?
बल्लाल ने एक आदमकद आईना दिखाते हुए कहा, "तुम लोग अपने-अपने मख को इस आईने में तो देखो।" वह खुद पास जाकर आईने के सामने खड़े हो गये । लड्डू भरे उन दोनों गाल फूल गये थे और बन्दर से लगने लगे थे। उनका मुख और उस लङ्क के निगलने के इस प्रयाप्त को देख सब एक साथ ठहाका मारकर हँसने लगीं। उन्होंने सबको इशारे से पास बुलाया। उनके पास आने पर उनके गले में बाँह डालकर उनके साथ वे खुद भी हंसते हार बोले, ''हम सबको इसी तरह हँसते रहना चाहिए।" कुछ देर बाद उन्होंने कहा, 'आज शाम को हम सब दर्शन हेतु मन्दिर जाएँगे; अभी ख़बर किये दे रहे हैं। तुम सब सज-धजकर तैयार हो लो तब तक।' इतना कहकर वे चल पड़े।
उस समय असूया शायद काफ़ी कुष्ठ बढ़ जाती लेकिन इस प्रसंग के कारण उस दिन के लिए थमी रही। शाम को सब मिलकर पन्दिर गये। वहाँ से लौटकर सबने भोजन किया और पद्मलदेवी तथा चामलदेवी एक ओर तथा बोप्पदेवी और महाराज एक और चले गये।
अपने शयन-कक्ष में जाने के बाद बल्लाल बोप्पदेवी से-''एक अत्यन्त आवश्यक राजकार्य आ पड़ा है, मैं मन्त्रणागृह जा रहा हूँ, आज मन्त्रिपरिषद की बैठक है। आने में विलम्ब हो जाय तो परेशान न होना," कहकर मन्त्रणा-गृह की ओर चल पड़े।
बोपदेवी अकेली थी। अकेले में उसकी दीदियों ने जो बात कही थी उसे मन ही मन दोहराने लगी : “मैं गर्भिणी बनी, यह उनकी इंध्या का कारण हुआ। उन्हें
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इस बात का डर भी हुआ होगा कि अगर लड़का हुआ तो क्या होगा। इसलिए उन्होंने खुले दिल से आशीवाद भी नहीं दिया। भगवान को जो मरज़ी होगी वही मुझे मिलेगा। उनसे पहले सन्तान पाने की प्रार्थना मैंने भगवान से नहीं की थी। स्वयं भगवान ने मुझ पा : या दिशारी: मायने या आकांक्षा की कि होनेवाली सन्तान लड़का हो। इसमें मेरी क्या ग़लती मुझसे पहले अगर ये ही गर्भवती हो जाती तो क्या कहती : वैसे यदि कहतीं कि लड़का हो और आसीस देती तो उनका क्या बिगड़ जाता? अगर उनके यह कहने पर भी मुझं लड़की होती तो क्या मैं असन्तुष्ट होती? आगे चलकर जब राजगद्दी पर बैठने के हकदार की बात उठेगी तब बड़ी दीदी जो कहेंगी वही करने का वचन भी मैंने दिया ही तो है। मैंने यह बात अनमने होकर तो नहीं कही थी। अपनी दीदी पर मझे विश्वास है...इसी निश्चय से मैंने हृदय से यह बात कही थी। जो सहृदयता पने दिखायी, बड़ी होकर भी मेरी दीदी ने वह सहृदयता नहीं दिखायी मेरे प्रति। वह बड़ी हैं, इस नाते वह पटरानी बनी। मुझे इससे ईष्या नहीं। सच तो यह है कि हमारी बड़ी दीदी पटरानी बनी-इसका मुझे गर्व है। इतना होने पर भी उसके मुंह से अभी असंगत बात निकली!...आगे क्या होगा? इस वक़्त शान्तलदेवी भी वहाँ नहीं। वे होती तो उन्हें समझाकर सही रास्ते पर ले आतीं। उन्हीं के प्रयत्न से तो दीदी पटरानी बनी। अन्चथा किसी घुड़सवार की पत्नी बनी होती, उस माँ की करतूत के कारण। माँ के वे ही गण इसमें उतर आये-से लगते हैं। माँ की तरह चलेगी तो इसकी भी दशा वहीं होगी जो माँ की हुई।' यों उसके मन में विचार चल रहे थे। इस तरह सोचते-सोचते पता नहीं कब उसकी आँख लग गयी। नौकरानी ने . जो दूध ला रखा था उसे पीना भी वह भूल गयी।
मन्त्रणागृह से बल्लाल लौट आये। देखा तो दूध ज्यों-का-स्यों धरा पड़ा हैं। उन्होंने उसे जगाया, "तुम्हारी दीदी ने हँसी-हँसी में कोई ऐसी बात कह दी हो तो इतनी-सी यात पर असन्तुष्ट होकर दूध पिये बिना ही सो जायेगी क्या? अब तुम अकेली नहीं, दो जीव हो। उठो, पहले दूध पिओ।' कहकर दूध का गिलास देने को हाथ बढ़ाया।
उसने मिलास हाथ में लेकर, 'वर. प्रसाद बनकर मिले तो अमृत यन जाएगा," कहती हुई महाराज के मुँह की ओर बढ़ाया। उनके लिए यह कोई नयी बात नहीं थी। आधा स्वामी के लिए, शेष देवी के लिए-यों दूध का विनियोम हुआ।
"इस तरह ऐसे वक्त मन्त्रणा के माने विषय कुछ विशेष गम्भीर ही होगा। अगर मैं जान सकती हूँ, तो..." कहते-कहते रुक गयी। ___"अब न भी बताऊँ तो कल मालूम हो ही जाएगा। चेंगाल्बों का आनन्दिनी
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बड़ी सेना लेकर आ रहा है। सुनते हैं कि वह हमारे राज्य पर हमला करने के - इरादे से आ रहा है। छोटे अप्पाजी ने और सेना भिजवाने की ख़बर भेजी है । विलम्व नहीं किया जा सकता। तुरन्त व्यवस्था करनी थी। अब कल मैं स्वयं सेना लेकर उनकी मदद के लिए जा रहा हूँ ।"
"हमारे भैया को भेज देंगे लो नहीं बनेगा "
I
"युद्ध में विजय पाने की दृष्टि से तो काफ़ी है। परन्तु अप्पाजी अभी नवविवाहित हैं। उनको युद्धक्षेत्र में भेजकर मैं यहाँ रनिवास में पेश करता पड़ा रहूँ तो लोग क्या कहेंगे? उसे भी कैसा लगेगा? हम जाएंगे तो उसे कितना आनन्द होगा जानती हो? ऐसे ही वक्त पर वास्तव में भ्रातृवात्सल्य प्रकट होता है सुख-दुःख में भागी बनें तभी भ्रातृत्व का मूल्य हैं।... मैंने जाने का निश्चय किया है " "जिस तरह आप भाई-भाई वात्सल्यपूर्ण व्यवहार करने में तत्पर हैं वैसे ही हम बहिनें भी रहें तो कितना अच्छा हो। इन परिस्थितियों में शान्तलदेवी यादवपुरी में अकेली क्यों रहें: क्यों न उन्हें यहीं बुलवा लिया जाय "
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" देवी का सोचना भी ठीक है। वही करेंगे। अब देर हो गयी, सोएँ ।" शान्तलदेवी के जाने के भरोसे से बोप्पदेवी की जल्दी ही नींद लग गयी बल्लाल को जल्दी नींद नहीं आयी। उनके मन में कुछ शंका उत्पन्न हो गयी । शान्तलदेवी के बुलवाने के औचित्य पर उन्हें जब विश्वास का भाव जमा तो उन्हें भी नींद आ गयी ।
दूसरे दिन प्रातः उठते ही महाराज ने बिट्टिदेव के पास पत्र लिख भेजा। उसमें लिखा था "स्वयं अपने नेतृत्व में सेना के साथ हेमावती को पार करके मल्लिपट्टण पहुँचूँगा । यादवपुर से निकलकर तुम भी सीधे पहुँचकर मिलो । युद्ध सम्बन्धी आगे के कार्यक्रम पर वहीं निर्णय करेंगे। इस वक्त अकेली शान्तलदेवी का यादवपुर में रहना ठीक नहीं। उन्हें और दण्डनायिका एचियक्का - दोनों को आवश्यक आरक्षण दल के साथ तुरन्त राजधानी को रवाना कर दें।"
तदनुसार शान्तलदेवी, एचिवक्का दोनों ही बिट्टिगा और मरियाने भरत को साथ लेकर दोरसमुद्र चल देने को तैयार हो गयीं। रास्ते में बेलुगील जाकर बाहुबली स्वामी के दर्शन कर अपने गुरुजी का कुशल जानने और वहाँ से दोरसमुद्र पहुँचने के अपने मन्तव्य को बताकर शान्तलदेवी ने बिट्टिदेव से अनुमति ली । साथ ही, अपनी माता के तीर्थयात्रा पर जाने के कारण पिता के साथ तब तक रहने की भी अनुमति ले ली जब तक यहाँ से बुलावा न आए।
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इनकी चह टोली रास्ते में किक्करी में मुकाम कर, पूर्व निर्णय के अनुसार बेलगोल पहुंची और भगवान बाहुबली के दर्शन कर विजय की कामना करते हुए उनसे प्रार्थना की, और जिनस्तात्र का सस्वर पाल किया। पहले जब वह (शान्तलदेवी) ग्रहाँ दो बार आयी थीं तब-तब उनके मन में जो भाव उटे थे उन्हें तथा और किस-किसने क्या-क्या सोचा था आदि सभी बातों का स्मरण कर, सब एचियक्का को सुनाया। उन्हें बार-बार रेविमय्या की याद आती रही। फिर कबि वाकिमया और शिल्पी नाट्याचार्य गंगाचारी आदि का दर्शन कर, उन्हें राजमहल की भेंट आदि समर्पित कर वहाँ से दोरसमुद्र जा पहुँची। मरियाने दण्डनायक सिंदगैरे गये थे, इस वजह से दण्डनाविका एचियक्का ने राजमहल में ही मुकाम किया। शान्तलदेवी ने अपने पिता के यहाँ बिडिगा के साथ मुक्काम किया।
उधर महाराज के पत्र के अनुसार, मल्लिपट्टन में दोनों भाइयों की भेंट हुई। विचार-विमर्श के बाद एक निश्चित कार्यक्रम बना।
हमलावर शत्रु को ग़लतफ़हमी में डालने के लिए उँगाल्वों के राज्य के सीमा प्रान्त में हेग्गड़े अरिंगौंड और राजौड द्वारा निर्मित सोमेश्वर महादेव की प्रतिष्ठा के उत्सव के सन्दर्भ में, सावंजानेक जानकारी के लिए सर्वत्र यह प्रचार किया गया : 'मन्दिर की प्रतिष्ठा के शभ अवसर पर पोय्सल राज्य के महाराज बल्लाल देव एवं बिट्टिदेव दोनों पधारंगे। श्रद्धालु पौरजन तथा सार्वजनिकों को यह जानकारी दी जाती हैं कि इस अवसर पर सब लोग पधारें और अपने महाराज के दर्शन कर आत्मलाभ लें। हमारे महाराज बल्लालदेव असं और विट्टिदंब अर्स के विवाह-महोत्सव पर इस प्रदेश के लोगों को सम्मिलित होने का मौका नहीं मिला था- यह बात ग़जपरिवार को अच्छी तरह ज्ञात है। इसलिए इस शुभ अवसर पर बृहत्-सभा का भी आयोजन किया गया है। आनेवाले सभी जनों के लिए टहरने के साथ-साध जलपान भोजन की भी व्यवस्था है। ____घोड़े, बैलगाड़ी आदि वाहनों पर आनेवालों की सुविधा के लिए अश्वशालाओं आदि की व्यवस्था के साथ उनके लिए दाना-पानी, चाग आदि की व्यवस्था भी की गयी है। वैद्य और पश-चिकित्सकों की सेवाएँ भी उपलब्ध रहेंगी।'' इस तरह की घोषणा गाँव-गाँव कर दी गयी।
घोषण्या के अनुसार, हत-सभा के लिए मन्दिर के सामने विशाल सभागार तैयार किया गया। मन्दिर के चारों ओर एक कोस दूर तक जगह-जगह तम्बू लगाये गये। बीच-बीच में रसोई, पानीयशालाएँ भी तैयार की गयीं। जानवरों के लिए आवश्यक दाना-घास के ढेर जगह-जगह लग गये। अश्यशालाएँ स्थान-स्थान पर बन गयीं। वैद्यशालाएँ भी खुल गयीं 1 इस तरह बड़े पैमाने पर मेले की व्यवस्था की गयी। उत्सव के लिए निर्दिष्ट दिन से दो दिन पूर्व सभी आवास स्थान लोगों
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और उनके वाहनों से खचाखच भर गये। देखते ही देखते, मनिदर के चारों ओर एक बड़ा नगर ही बस गया।
इस सारी तैयारी का समाचार चेंगाल्वों के जानन्दिनी के कानों में पड़ चुका था। वह समझ बैठा था कि पोय्सलों को इस बात की ख्वर ही नहीं कि यहाँ युद्ध की तैयारी हुई है। ऐसी हालत में इस धार्मिक मेले में एकत्रित जन-समुदाय घण्टी बजातं खा-पीकर आराम से पड़ा रहेगा। ऐसे मौके पर इस जन-स्तोम के बीच पोय्सल महाराज और उसके भाई की आसानी से पकड़ लिया जा सकेगा। और तब जीत का इंका हमारा ही बजेगा । अगर मेले में सम्मिलित जन-स्तोय बिगड़ उठा तो उसे हरा-धमकाकर, पीछा करते हा ले जाकर कावेरी नदी में डूबो देंगे। बदि पोयसल राज्य हमारे हाथ लग जाय तो फिर चालुक्यों के लिए हमसे खटका पैदा हो जाएगा। यो मन्त्रणा करके चेंगाल्बों के जानन्दिनी ने अपनी सेना को गुप्त रीति से पहाड़ी मार्ग से रवाना कर दिया। उस सेना ने सोमेश्वर महादेव के जतिष्ठा महोत्सव में तो वि भने ही कोरी के उत्तर और हेमावती के दक्षिणी पहाड़ी प्रदेश में अपना पड़ाव डाल दिया। पहाड़ी प्रदेश में सैन्य संचालन आसान न होने के कारण उसकी सेना पैदल सिपाहियों की ही रही। ___ आनन्दिनी की गतिविधियों का पता पोप्सल सेना का समय-समय पर पिन जाचा करता। महाराज बल्लाल और बिट्टिदेव दोनों सोमेश्वर स्थापना में सम्मिलित हुए। सोमेश्वर महादेव की सोमबासर की पूजा-अचां आदि कैकर्य के लिए तया अखण्ड दीप के लिए सिन्दूर को दान के रूप में दे दिया। सोमेश्वर महादेव की प्रतिष्ठा आठ महीन पूर्व ही हो चुकी थी। इस बात का पता चेंगाल्चों को नहीं था। माघ मास के दिन महादेव की पूजा-अचर्चा के लिए विशेष रूप से श्रेष्ठ माने जाते हैं। माघ बहुल दशमी के दिन पुनः प्रतिष्ठित सोपेश्वर महादेव की विशेष पूजा-अर्चा की, महाशिवरात्रि के साथ सोमवार होने के कारण व्यवस्था की गयी थी। लक्षदीपोत्सव और मशालों के साथ सोमेश्वर महादेव के जलूस के लिए रथ को सजा दिया गया था। उत्सव की घोषणा कर दी गयी।
वहाँ डेरे-टेरे में जितने लोग ठहरे थे सबने एक-एक मशाल तैयार कर ली थी। मन्दिर के सामने का विशाल प्रांगण मशालों की तारों से जगमगाने लगा। महादेव की उत्सवमूर्ति को पालकी में विराजमान किया गया। हजारों मशाल एक साथ जगमगा रहे थे। किसी को इस बात का भान तक नहीं हुआ कि वह अमावस्या की रात है।
उत्सव मूर्ति के अगल-बग़ल महाराज बल्लाल और विट्टिदेव दोनों शुभ्रवस्त्र धारण किये खड़े थे । एक पुजारी परात हाथ में लेकर उनके पास आया और प्रणाम करके दोनों को ढाक के पत्तों में प्रसाद दिया। श्रद्धा-भक्ति के साथ दोनों ने प्रसाद
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हाथ में लिया और मूर्ति को नमन किंवा । पुजारी वहीं खड़ा था। प्रसाद वाले ढाक के पत्ते को यायें हाथ में ले दायें हाथ से प्रसाद लेकर आँखों से लगाकर, मुंह में डालने ही वाले थे कि इतने में दूर से आवाज़ सुनाई पड़ी : "प्रभु! वह प्रसाद नहीं जहर है, प्राण घातक जहर। जिसने प्रसाद कहकर दिया वह कोई पुजारी नहीं, वह हत्यारा है, उसे पकड़ लीजिए।
महाराज बल्लाल और विट्टिदेव ने अपने उस हाथ को नीचे कर लिया। इस घटना के तुरन्त बाद, 'हा हा' का आर्तनाद सुन पड़ा।
कुछेक ''पकड़ो, पकड़ो" कहते हुए उस ओर दौड़ने लगे। लेकिन तब तक वह व्यक्ति खिसक चुका था। इस सबके कारण वहाँ खलबली मच गयी थी।
"हाहाकार करते गिरे हुए व्यक्ति को उठाकर तुरन्त चिकित्सालय पहुंचा दिया गया। उसकी काख में खुखरो लगा था। महाराज और बिट्टिदेव के हाथ के उस प्रसाद को भी परीक्षार्थ चिकित्सालय में भेज दिया गया। खलबली के शान्त होने तक वहीं रहकर, हाथ धो चुकने के बाद महाराज बल्लाल बिट्टिदेव के साथ चिकित्सालय गये। चिकित्सकों ने इस खुखड़ी को बाहर निकालकर रक्तस्त्राव को रोकने हेतु कुछ जड़ी-बूटियों के रस से घाव को लेप दिया था। और अब वे रक्तारक्त वस्त्रों को अलग कर मरहमपट्टी कर रहे थे। घायल ने महाराज को देखा
और हांफते हुए निवेदन किया, ''प्रभो! शनु हमला करने के लिए आगे बढ़ रहे हैं। उन लोगों ने हमारे इस शिविर के सभी लोगों को मार डालने का विचार किया है। हमारे इस शिविर से आधे कोस को दूरी पर वे दक्षिण-पश्चिम के जंगल में छिपे तैयार बैटे हैं। उनकी इस योजना का प्रयोग उन्हीं पर कर दें। इसमें कुछ भी विलम्ब न करें।"
सन्निधान का यहीं रहना अच्छा हैं। मैं इस हमले का सामना करूंगा। डाकरस की अश्वसेना दुश्मनों को चारों ओर से घेर लेगी," कहकर आदेश की प्रतीक्षा न करके विट्टिदेव चल पड़ा।
तूफ़ान की तरह भागनेवाले विट्टिदेव को देखकर बल्लाल "अप्पाजी ! अप्पाजी!'' पुकारते हुए चिकित्सालय से बाहर की ओर दौड़े। तब तक तो विट्टिदेव आँखों से ओझल हो चुके थे। महाराज फिर चिकित्सालय के अन्दर चले गये। खबर देनेवाला वह अपरिचित व्यक्ति जीभ निकाले, गले पर हाथ धरे लेटा था। चिकित्सक एक कटोरे में पानी लाकर उसे पिलाने की कोशिश कर रहे थे। पीड़ा के मारे वह विकल हो रहा था। किसी तरह प्रयत्न करके थोड़ा पानी पिलाया गया।
बल्लाल ने चिकित्सक से कहा, "किसी तरह से इसे बचाना होगा, वह बहुत जरूरी है।"
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चिकित्सक ने स्वीकृति के भाव से सिर हिलाकर सूचित किया।
"हम अपने डेरे में ही रहेंगे। कुछ अच्छा होते ही हमें खबर दीजिए" कहकर उस अँधेरे ही में वे अपने डेरे की ओर चले गये।
चेंगाल्वों की सेना के, उस जंगल से निकलकर, हमला शुरू करने से पहले ही बिदिदेव और डाकरस की सेना ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया, और धकधक जलते मशाल शत्रुओं पर फेंकना शुरू कर दिया। छिपने के ख़याल से शत्रुओं ने जगह-जगह से पेड़ों के तनों को काट-काटकर इधर-उधर फैला दिया था। इससे पोय्सल सेना को बहुत मदद मिल गयी। फेंके गये मशालों की आग से वे झाड़-झंखाड़ जल उठे। देखते-ही-देखते वहाँ दावानल-सा फैल गया। शत्रु-सेना भौचक्का हो गया, और सिर पर पाँव रख इधर-उधर से भाग खड़ी हुई। आधी रात के पहले ही शत्रु का पता तक नहीं रह गया ।
बचे-खुचे लोग पकड़ लिये गये। कुछ हथियार भी हाथ लग गये। परन्तु उनका नायक आनन्दिनी नहीं पकड़ा जा सका। आधी रात के बाद एक-आध पहर का समय बीत चुका था कि विट्टिदेव महाराज के डेरे पर वापस आ गये। वह भी डसी डेरे में महाराज के साथ रह रहे थे। ____महाराज बल्लाल अभी सोये नहीं थे। उन्हें बैठे देख बिट्टिदेव बोले, “आसानी से हमारी जीत हो गयी। पता नहीं वह कौन था जिसने हमें बचाया और हमारे लिए इतनी आसानी से जीते जाने का मार्ग दिखाया? उस पुण्य पुरुष की हालत
अब कैसी है? उसके बारे में कोई समाचार सन्निधान को मिला हैं कि वह कौन है?" बिट्टिदेव ने निवेदन किया। ____ 'यह सब मालूम नहीं। पर इतना सच है कि यह व्यक्ति बड़ा चतुर है। ठीक वक्त पर हमें होशियार न करता तो हम दोनों अब तक प्रभु के पास पहुँच गये होते। प्रसाद मानकर जहर खा लेते तो आध घण्टे में हमारी जीवन-लीला समाप्त हो गयी होती।"
"उस व्यक्ति को यह सब मालूम कैसे हुआ? इस युद्ध शिविर में कब आया। कैसे आवा: किसके हुक्म से आया?"
"इस सबका व्यौरा बताने के लिए उसमें शक्ति नहीं रही। खुखरी का याव बड़ा गहरा है। बहुत रक्तस्राव हुआ है। बड़ा कमजोर हो गया है वह । तत्काल चिकित्सा की व्यवस्था न हुई होती तो शायद ही उसके प्राण अब तक बचते।"
"अब आगे का क्या कार्यक्रम है? बापस लौटना ही न?''
"एक-दो दिन यहीं ठहरेंगे। महादेवजी के प्रतिष्ठा समारोह के ही लिए कुछ और लोग भी तो आये हैं। इनमें पचहत्तर प्रतिशत तो हमारे सैनिक ही हैं, वह उनको मालूम नहीं। उन्हें भी यह खबर सुनागें और उनसे कहें कि सीमा प्रान्तों
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में हम सतर्क रहें। और गाँव-गाँव में सुरक्षा दलों का संगठन करें। बाद में उन्हें वापस भेज दिया जाएगा। फिर यह देखेंगे कि शत्रु कहीं फिर से आने की तैयारी तो नहीं कर रहा है? वहाँ से शत्र पक्ष के समाचार जानकर ही सोचेंगे कि आगे क्या कार्यक्रम बनाना है।"
"ठीक है, उस व्यक्ति की व्यवस्था?" बिट्टिदेव ने पूछा।
"व्यवस्था की गयी है। पूरी रक्षा के साथ उसे राजधानी ले जाया जाएगा। राजधानी में जब तक हम उससे नहीं मिलेंगे तब तक कोई उससे किसी भी तरह की बात न कहे। उसको कहाँ लिये जा रहे हैं इस बात की जानकारी भी उसे न हो। इन बातों की कड़ी आज्ञा दे रखी है।"
___ "हम उससे कब मिलेंगे?" ___राजधानी ही में। वे देरी में यहां से रवाना होंगे। इसलिए दो दिन ठहरकर चलें तब भी हम उनसे पहले वहाँ पहुँच जाएंगे।"
"उसने लो जम्कार किया है उस लिस का दाह होगा ' रोग न करें-यह पेरा आग्रह हैं। वह चाहे जो भी हो, स्वयं प्रेरित होकर आया है, इसका कोई कारण होना चाहिए। चाहे वह किसी भी कारण से आया हो, इससे हमारा बड़ा उपकार हुआ है। उसके इस उपकार की हमें जानकारी हो गयी है। यह बात उसे मालूम हो जाए तो निश्चित ही उसे बहुत खुशी होगी। उससे राजधानी ही में मिलने की बात चित नहीं लगती। इतनी लम्बी अवधि तक उस व्यक्ति को यह मालूम न हो कि उसने जो किया उससे सन्निधान प्रसन्न हैं तो इससे उसके मन पर उल्टा प्रभाव भी हो सकता है। सन्निधान की इच्छा भी यहां कुछ दिन रहने की है, और उसकी चिकित्सा भी यहीं हो रही है। वह अच्छा हो जाय । हम उससे मिलें, अपनी कृतज्ञता प्रकट करें, अपनी सद्भावना प्रकट करें। क्यों और कैसे मिलें आदि के बारे में क्या राजधानी पहुँचने पर विचार करेंगे? मुझं तो उसकी इस सेवा से बहुत प्रसन्नता हुई है। हमें विजय भी प्राप्त हुई। कम-से-कम यही दो बातें उसे बता दी जाएँ। मेरी राय तो यही है, फिर प्रभु की जैसी इटा।' बिट्टिदेव ने कहा। ___"तुम अभी लौट आओगे, इतने थोड़े समय में हमें जय लाभ हो जाएगा यह हम सोच भी नहीं सके थे। उसकी सुरक्षा की व्यवस्था की आवश्यकता हैं यह जानकर और उसे किसी तरह की मानसिक वेदना न हो इसी इरादे से हमने यह सूचना दी। लेकिन अब तुम्हारे कधन पर विचार करना युक्ति-युक्त लगता है। कल प्रातः डाकरस जी को बुलवाएंग और उनसे परामर्श कर निर्णय करेंगे। काफ़ी समय हो गया, अब विश्राम करेंगे।' बल्लाल ने कहा।
दोनों अपने शयन-कक्ष में चले गये।
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दण्डनायेका एचियक्का और शान्तलदेवी दोरसमुद्र पहुँच गयीं। उनके पहुंचने पर शान्तलदेवी यह बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुई कि बोम्पदेवी माँ बननेवाली है। समाचार मिलते ही तुरन्त वह राजमहल की ओर चल पड़ीं। राजमहल में पहले ही यह सूचित कर दिया गया था।
पटरानी पद्मलदेवी शान्तलदेवी की प्रतीक्षा में अपने अन्तःपुर में तैयार बैठी थी। वह कहने की ज़रूरत नहीं कि चामलदेवी भी वहीं साथ रही। शान्तनदेवी से इन वाहनों में चामलदेवी का बहुत लगाव था। पद्मलदेवी कृतज्ञ थी। बोपदेवी उनके प्रति बहुत गौरव रखती धी। शान्तलदेवी यही सोच रही थीं कि तीनों से एक साथ मिल लेंगी। परन्तु ग़जपहल के दरवाजे पर पहुंचते ही दण्डनायिका एचियक्का नै धीरे-से उनके कान में कहा, "पहले बोप्पदेवी से मलाकात होगी चा पटरानी से" ___ यह सुन शान्तलदेवी को आश्चर्य हुआ। बोली, "अभी तो महाराज युद्ध में गये हुए हैं, फिर भी इनसे अलग-अलग मिलना होगा?"
स्थिति सुधारने का काम तो आपका हैं । वातावरण लो एक तरह से गम्भीर है।' एचियक्का ने कहा।
'ठीक है। तब चलिए, पहले रानी बोप्पदेवी से ही मिल ले।" शान्तलदेवी बास ।
शान्तलदेवी के प्रवेश करते ही बोप्पदेवी ने प्रणाम किया और कहा, ''दीदी, मुझे आशीवाद दें। अब आप आ गयी हैं सो आगे सब ठीक हो ही जाएगा।" ___ "माँ बननेवाली की आकांक्षा को पूर्ण करना उनके आस-पास रहनेवालों का कर्तव्य हैं। आपकी इच्छा डाहवली की कृपा से परिपूर्ण होवें। आप सो महाराज की पाणिगृहीता हैं। नाते के हिसाब से हमें आपके पैर पड़ना चाहिए, न कि आपको हमारे । मैं आयु में बड़ी हूँ, फिर भी आपसे पैर छुआने जैसा स्थान मेरा नहीं 1 यदि मैं जानती कि आप इस तरह करेंगी, तो मैं इसके लिए मौका ही न देती। अब इसे आखिरी बार समझें। आपको ऐसा नहीं करना चाहिए। यह न मेरे लिए श्रेयस्कर होगा, न आपके लिए।"
“वहीं सही, पैर न छुऊँगी। मेरे लिए यही प्रयाप्त है कि आप मुझे दीदी कहने की अनुमति दें। अच्छा, आइए, बैठिए । यादवपुरी कैसी लगी? मुझे भी वहाँ आने की अभिलाषा है।''
ऐसी कोई बात नहीं, कभी भी पधार सकती हैं। युद्धक्षेत्र से महाराज के लौटने पर साथ ही चलेंगी। सन्निधान की भी अनुमति मिल जाएगी। और हाँ, समाचार सुनकर मुझे बहुत आनन्द हुआ। अभी और प्रतीक्षा करनी होगी या शीघ्र ही पुत्रोत्सव का भोज मिलेगा?" शान्तलदेवी मुस्कुरा दीं।
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“अभी जो असीस दिया, इसके लिए मुंह मीठा कर लें। बाकी यातों पर फिर विचार करेंगे।" ऋहती हुई घण्टी बजाने को उठी ही थी कि इतने में शान्तला ने कहा, "मिठाई सभी मिलकर पटगनी के साथ ही खाएँगी। इस खुशी की प्रथप अधिकारिणी तो पटरानी जी हैं। और फिर वे आपकी बष्टी दीदी जो ठहरौं।'
घोप्यदेवी कुछ निराश-सी हो गयी। कुछ कहा नहीं। उसके मुख की वह पुग्ध छबि कुछ-कुछ म्लान-सी दिखी।
"क्यों मुझसे कोई गलती हो गयी?" शान्तलदेवी ने पूछा। ''नहीं दीदी, आपका कहना ठीक है। परन्तु ऐसा हो नहीं पाएगा।" बोप्पटवी ने कहा।
आपको ऐसी बात नहीं करनी चाहिए। पटरानी जी आपको बहुत प्यार करती हैं। खासकर लव से जय दण्डनायिका जी का स्वर्गवास हुआ। उनकी यही अभिलाषा रही कि माँ से भी बढ़कर वाप्पि की देखभाल होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में आपकी इस तरह ही आशंका मेरी समझ में नहीं आती। क्यों? कोई ऐसी बात चली है क्या:" शान्तलदंबी ने पूछा।
"कह नहीं सकती, ऐसी कोई बात चली। फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि उनसे पहले मैं माँ बननेवाली हूँ-यह उनके लिए अच्छा नहीं लगा है।
"ऐसा उन्होंने कहा?"
''कहेंगी: व्यवहार से पता चलता है। अगर मुझसे कोई गलती हो गयी हो तो मैं अपने को सुधार लूंगी। वे बड़ी हैं। मुझे चपत लगाकर ग़लती को मुंह पर बता सकती हैं। परन्तु इस तरह के व्यवहार को कौन सह सकती है।"
"आपके मन में से विचार उठने का कुछ कारण भी तो होगा?"
"धातें हुई : तन्निधान के समक्ष ही बातें हुई । क्या बातें हुई उन्हें ज्यों-का-त्यों बता दूंगी।" कह उस दिन अमराई में जो-जो बातें हुई थीं, बोप्पदेवी ने उनसे लेकर गर्भवती बनने तक सब-कुछ विस्तार से कह सुनाया।
“ऐसी छोटी-सी बात को इतना बड़ा नहीं बनाना चाहिए।'
"मैं यह नहीं चाहती। उस दिन सन्निधान ने बताया कि यह सव हँसी-दिल्लगी की बातें हैं। मुझको चिढ़ाने के लिए कही गयी हैं. वहीं मैं समझती घो। सन्निधान वहीं उपस्थित रहते तो क्या होता, कह नहीं सकती। चंगाल्यों के साथ के युद्ध का मेरे गर्भवती होने से क्या सम्बन्ध है, आप ही कहिए दीदी? कहने लगो : मेरे पेट में पिता को निगलनेवाला भूत है, इसलिए यह बुद्ध छिड़ा हैं। ऐसी बात को मैं कैसे सह सकूँगी" कहती हुई बोपदेवी रो पड़ी।
"आए ऐसा क्यों सोचती हैं। रोना नहीं चाहिए। विशेषकर इन दिनों में आपके मन में किसी तरह के बुरे भाव नहीं आने चाहिए। इन सारी वातों का
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असर गर्भस्थ सन्तान पर पड़ता है। इन सब चिन्ताओं को छोड़कर हँसी-खुशी से रहें।" ___ "एसी बात कहनेवाले भी यहाँ नहीं रहे, दीदी। दिन में हजार चार आपकी याद करती थी।"
"अथ तो आ गयी हूँ न! सन्निधान और ग़जासाहव के आने तक मैं यहीं रहेगी।"
"आप राजमहल में ही ठहरती तो अच्छा होता।"
"कहीं भी रहूँ एक जैसा है। यदि मेरी माताजी या होती तो मैं यहीं ठहरती। पिताजी अकंलं हैं। राजासाहब ने भी वहीं रहने के लिए अनुमति दी है। रोज़ आती-जाती रहूँगी। आपकी भाभी तो यहीं रहेंगी न? अब उठिए, सब पटरानी जी के डॉ स"
शाकाहा! तीनों पटरानी पद्यलदेवी के यहाँ चली गयीं।
छोटी बहिन के यहां शान्तलदेधी के जाने की बात इनको मालूम हो गयी थी। इसमें उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगा। फिर भी शान्तलदेवी के प्रति प्रेमभाव के कारण उन बहिनों ने अपने उस असन्तोष को दवाकर समय गुजारा ।
अन्दर प्रवेश करते ही पचलदेवी दोली, "आओ, झान्नन्ना । सन्निधान ने युद्ध में जाने के पाने की यह बताया था कि तुम यहाँ आओगी। धाग्यपुर की आबोहवा अष्टी तगी-सी लगती हैं। कर चुस्त-सी लग रही हो। चेहरे पर भी कुछ अधिक लालपन आ गया है।"
सा कुछ नहीं, जैसी धी वैसी ही हैं।"
"ऐसा कैसे हो सकता हैं? तुम हो, राजा हैं, हमेशा का साथ । तब काहे की चिन्ता? हमारी वात ऐसी नहीं। देखो, तुम आची हो-यह इस अन्तःपुर का भाग्य है। भावी राजमाता भी पधारी हैं।' चामलदेवी ने कहा।
यह सन शान्तला कुछ असमंजस में पड़ गयी। फिर भी उसने कहा, "वैटिए दण्डनायिका जी, रानीजी आप भी बैंटिए।" करती हुई शान्तलदेवी भी बैट गयी ।
थोड़ी देर तक मौन छाया रहा। हाट में शान्तलदेवी ने खुद ही घण्टी बजायी। दासी सुग्गला उपस्थित हुई। “पट्टगनीजी की आज्ञा है कि अब नाश्ता यहीं हो। कितना समय लगेगा:" शान्तलदेवी ने कहा। ___ सब तैयार है, अभी लायी।' दासी तुरन्त भागी गयी और नाश्ता की थालियाँ और दूध भरे कटोरे लेकर आ पहुंची।
शान्तलदेवी ने कहा, "मेरी एक बिनतो है। पटरानी जी और रानियाँ मुझे धमा करें। आते हुए ग़म्त में बाइबली का दर्शन कर मैंने प्रार्थना की कि सन्निधान बिनयी होकर शीघ्र लौटं और अभयहस्त वहाँ तक पसारकर यह आसीसें कि ये
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सही-सलामत लौट आएँ। भगवान बाहुबली फिर कभी उनका हाथ न छोड़ेंगे। उन्होंने वंशोद्धार के लिए एक अंकुर देने का अनुग्रह किया है, वही हाथ अव विजय प्रदान भी करेगा। अर्हन्त के आशीर्वाद से प्राप्त होनेवाली पोसल वंश की सन्तान की और युद्ध में विजय की कामना करते हुए यह मिटाई खाएँ।'
शान्तलदेवी का आग्रह स्वीकार करते हुए सभी प्रसन्नतापूर्वक मिटाई खाने लगीं। वामलदेवी की वातों से खिन्न बोप्पदेवी भी सहज हो गयी। शुरू-शुरू में जो व्यंग्य-भरी बातें होती रहीं वे अब नहीं रहीं। वहुत दिनों बाद सबका यों एक साथ मिलना हुआ था। आज सभी के मन का मैल निकल गया था। शान्तलदेवी ने पूछा, “एक खेल शतरंज का क्यों न हो जाय!"
"हम पाँच लोग हैं न?" बोपदेवी ने कहा। __ "आय चार जने ही खेले। मैं पक्का गोट निकाल दिया करूंगी।" एपियक्का ने कहा।
फिर क्या था, शान्तलदेवी ने घण्टी बजायी। और देखते-देखते ही खेल की तैयारी हो गयी। चारों ने गोट रखे। पहले खेले कौन यह निश्चय होना चाहिए न?
एचियरका ने कहा, "अब लोग एक-एक संख्या बताइए। मैं पासा डालूंगी। आप चारों की कही संख्या में से जिसकी संख्या गिरे वे पहलं खेलें। यदि किसी की भी संख्या नहीं आची तो बड़ी रानी ही खेल शुरू करेंगी।''
प्रत्येक ने एक-एक संख्या बतायी। बाद में पचियक्का ने पासा खेला। पद्मन देवी ने जो संख्या बताची, वहीं आयीं थी। चौथी वार पासा खेलने पर पद्मलदेवी ने कहा, "मैंने जो संख्या कही वह अगर न भी गिरी होती तो भी मुझो को खेल शुरू करना था।" __ "पटसनी को पहले खेलने देने के लिए हम सब तैयार हैं। हैं न?" कहती हुई शान्तलदेवी ने चामलदेवी और बोपदेवी की ओर देखा।
"उन्हें प्रथम स्थान देना हमारा कर्तव्य है और वही सही है।" बोप्पदेवी बोली ।
"ठीक है। खेल शुरू करने के पहले एक-एक बार पासा खेलकर उसे भगवान के लिए छोड़ देंगे। पासा खेलने के पहले हम भगवान के नाम का स्मरण करें। भगवान से यह प्रार्थना करें : पोय्सल वंश में अंकुरित होनेवाली सन्तान लड़की होगी या लड़का-इसे यह पासा ही बताएगा। अगर सम संख्या होगी तो लड़की,
और असम होगी तो लड़का। जिसके जैसे पासे उसकी वैसी इच्छा। ठीक है न पटरानी जी!" शान्तला ने प्रस्ताव रखा।
"ऐसा हंसी-मज्ञान मेरी यह छोटी बहिन बरदाश्त नहीं करेगी। अगर वह मान ले तो हमें कोई एतराज नहीं।" पद्मलदेवी ने कहा।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 503
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"भगवान की बात कहीं पासे से बदली जा सकती है?" बोपदेवी बोली । -
पास डाले गये। पलदेवी ने असम संख्या गिराधी। चामलदेवी ने भी असम संख्या गिरायी। शान्तलदेवी ने भी असम संख्या ही गिरायी। लेकिन बोपदेवी ने सम-संख्या गिरायी।
छोटी रानी की अपनी इच्छा-लड़की । हम सबकी इच्छा-लड़का। छोटी रानी को छोड़ हम सबकी एक ही इच्छा रही।'' शान्तलदेवी ने कहा ।
तो बार यहीं हुई कि भगवान अभी कुछ बताना नहीं चाहते।" एचियक्का ने कहा।
आगे खेल चला। मनचाही संख्या पासे से मिलने के कारण सबसे पहले बोप्पदेवी जीत गयी। उस दिन के खेल में अगर कोई हार गयी तो वह शान्तलदेवी ही थी। वास्तव में शान्तलदेवी गोट चलाने में अधिक होशियार नहीं थी।
पद्मलदेवी ने कमा, "चाहकर खेलने बैठी बेचारी शान्तला । पर हार गयी।"
शान्तलदवो मुस्कुरा दी। बोली, "मेरी हार में आप लोगों की जीत है। आप लोगों का मन से मैं अपनी ही जो मानती हूँ इसलिए आप लोगों की जीत मेरी हार के दुःख को दूर कर देगी, उसे भुला देगी। हमें अपने जीवन में भी इसी तत्व का अनुसरण करना चाहिए। यदि हम अपनी हार पर दःखी हों ता उसक फलस्वरूप हममें ईप्यां पैदा होगी। धीरे-धीरे यही ईष्या सब दुःखों की जड़ बन जाती है। दूसरों की विजय से हमें आनन्द का अनुभव होने लग जाए तो यहाँ ईर्ष्या के लिए स्थान ही नहीं रहेगा। ईर्ष्या न होगी तो दुःख भी न होगा। मेरी इस हार से मझे कोई दुःख नहीं है।'
तब तक शाम हो चली थी। शान्तलदेवो उठ खड़ी हुई और पटरानी से बोली, "अब आज्ञा दें, फिर दर्शन के लिए आऊँगी।"
"वहीं ठहर जाती तो अच्छा होता।' पद्मलदेवी ने कहा।
“घर पर पिताजी अकेले हैं, इसलिए वहीं पिताजी के साथ रहने के लिए राजा से अनुपति ले आयी थी। फिर भी पटरानी जी का यही आदेश हो कि मैं यहीं रहूँ तो उस आदेश का पालन करूँगी। पिताजी से कहकर आ जाऊँगी।" शान्तलदेवी ने कहा।
__ "हाँ तो. हेग्गड़ती जी तीर्थयात्रा करने गयी हैं। हेग्गड़ेजी के सुख-सन्तोष के लिए हम क्यों बाधक बनें। कभी-कभी आ जाया करो।' पद्मलदेवी ने कहा। ___ "जैसी आपकी आज्ञा ।'' कहकर शान्तलदेवी राजमहल से चल पड़ी।
एक ही दिन में शान्तलदेवी को मालूम हो चुका था कि रानियों में आपस में मेल-जोल नहीं है। जुदा-जुदा घरों में जन्म लेकर एक ही व्यक्ति के साथ विवाह करें तो सबका एक मन होना कठिन हो सकता है। लेकिन एक ही माता-पिता
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की सन्तान होकर इन बहिनों में आपस में आत्मीय भाव न हो तो महाराज की क्या हालत होगी अधिकार और पद के मोह में पड़ने पर ही मन कलुषित होकर विरसता पैदा करता है। इनकी माँ के कारण एक अनिरीक्षित घटना ही घट गयी। जैसे-तैसे उसे ठीक किया गया। और फिर, इन्होंने प्रेम व्यक्ति से किया न कि उसके पद या अधिकार से । ''मुझे वे स्वीकार कर लें यहीं पर्याप्त है। मुझे रानी न कहें तब भी कोई दुःख नहीं होगा। यदि वे मुझ पर कृपा नहीं करेंगे तो मैं बनूंगी नहीं"-चों गिड़गिड़ानेवाली वह पटाना अब आनी डी दहिन कर रही है! उस बहिन की स्वीकृति से ही तो यह पट्टमहिषी बनी। यों ये आपस में ईर्ष्या से अपने मन मैले कर लें तो उस व्यक्ति को, जिन्होंने इनसे विवाह किया है, सखी कैसे बना सकती हैं? इस स्थिति को बढ़ने नहीं देना चाहिए। इसको रोकने के लिए कुछ-न-कुछ करना ही होगा। महाराज की मानसिक शान्ति और सुख-सन्तोष राष्ट्रहित की दृष्टि से बहुत ही आवश्यक है। महामातृश्री यदि यहाँ होती तो ऐसी बातों के लिए मीका ही नहीं मिलता। राजपरिवार हमारे परिवार के साथ जो आदर-भाव रखता था उसे सही रूप में न लेकर, स्वार्थवश उसके पनमाने अर्थ लगाकर दण्डनायिका ने क्या-क्या नहीं किया? पृष्ठभूमि में विचार करने पर पद्मलदेवी के स्वभाव में उनकी माँ के इन्हीं गुणों का प्रभाव विशेष रूप से लक्षित होता है। में पट्टमहिषी हूँ, मेरी कोख से उत्पन्न पुत्र को ही राजगद्दी मित्ननी चाहिए. बों चाह रखना एक स्वाभाविक बात है। परन्तु उसे यह कैसे भरोसा है कि उसकं लड़का ही होगा। अच्छा, इस बात को जाने दें। अब गर्भवती चोप्पदेवी की सन्तान लड़का ही होगा-इस बात का भी क्या भरोसा है? यदि कभी महाराज ने यों ही यह बात कही हो कि मेरी प्रथम सन्तान ही भावी महाराज होगी तो यह समस्या भी तब उठेगी जब ऐसा मौका आएगा। राष्ट्र का हित चाहनेवाले बुजुर्ग परम्परागत रीति की दृष्टि से जैसा निर्णय करेंगे वैसा मान लिया जाए तो बात यहीं समाप्त हो सकती है। राजगद्दी पर बैठने के लिए प्रभु एरेयंग के साथ स्पर्धा करनेवाला कोई नहीं था। फिर भी पट्टाभिषिक्त होने का सुयोग उन्हें प्राप्त नहीं हुआ। यह समझकर कि सब-कुछ हमारे ही हाथ में है, हम कुछ-का-कुछ सोचकर तरह-तरह ही कल्पना कर बैठें तो क्या हालत होगी? इसलिए युद्धक्षेत्र से महाराज के लौटने पर, सबको आमने-सामने बैठाकर उस सम्बन्ध में खुलकर वार्ता हो जानी चाहिए। तब तक महामातृश्री भी पधार जाएँ तो कितना अच्छा रहे! हे अहंन्, सब शीघ्र एक साथ मिलें ऐसा समय जल्दी आए। राजमहल में जो मनमुटाव का वातावरण उत्पन्न हो गया है इसे अब और नहीं बढ़ने देना होगा। यदि मैं राजमहल में ही रह जाऊँ तो शायद इसे आगे न बढ़ने में सहायता मिल सकती है। पिताजी को राजमहल की इस परिस्थिति का परिचय दे दूँ तो वे इसे अन्यथा
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नहीं लेंगे। यह सब विचार कर अपने आगे के कार्यक्रम की एक स्थूल रूपरेखा . शान्तलदेवी ने बनायी। उन्होंने पिताजी से विचार-विमर्श किया। ___ हेग्गड़ेजी को लगा कि राजमहल के भीतर एक गम्भीर और गूढ वातावरण बन गया है। वह सोचने लगे कि निश्चित ही कोई अपने स्वार्थ को साधने की दृष्टि से अन्दर ही अन्दर उकसा रहा होगा और वह यहीं कहीं होगा। यह विचार आते ही उन्होंने निश्चय किया कि शान्तला राजमहल में ही रहे। यो दोरसमुद्र पहुँचने के एक पखवारे के अन्दर वह राजमहल में ही रहने लगा।
राजमहल पहुँचने के दो-तीन दिन बाद, एक दिन दण्डनाधिका एचियक्का से रानियों के बीच उत्पन्न इस अनधन के बारे में शान्तलदेवी ने बातचीत की। उन्होंने कहा कि शायद कोई इन रानियों के कान भरकर भड़का रहा हो। ऐसे लोगों का पता लगाना चाहिए। तभी शान्तलदेवी की चट्टला की चाद आ गयी। बोली, "उसे तो अब तक यहाँ पहुँच जाना चाहिए था।"
"हाँ तो। उसने कंवल चार दिन अपनी दीदी के यहाँ रहकर लौटने की अनुमति आपसे ली थी और किक्केरी में जा रही। बह होती तो अच्छा था, ऐसी बातों में वह बहुत निपण है। वह इस बात का पता लगा लेती कि राजमहल की कौन दीवार क्या बोल रही है।" एचियरका ने कहा।
"ऐसी हालत में उसे बुलाने के लिए कान किसको भेजे? ढ़िया ने कहा होगा कि दो-चार दिन और ठहरकर जाए, इस पर वह ठहर गयो होगी। कल ही किसी को भेजकर बुलवा लेना चाहिए। आदमी भेजने पर एक सप्ताह के अन्दर यहाँ आ पहुंचेगी। अगर अच्छा सवार हो, घोड़ा भी अच्छा हो तो एक ही दिन में वहाँ पहुँचा जा सकता है। किक्करी यहाँ से चार कोस की दूरी पर ही तो हैं न? घोड़े को भी आराम देकर दो दिन के अन्दर पहुंच सकता है।" पिताजी के पास शान्तलदेवी ने यो समाचार भेज दिया।
मारसिंगय्या ने आकर शान्तला से सारी परिस्थिति समझी और अपनी सहमति व्यक्त करते हुए कहा, “मायण यहीं है। उसी को भेज देंगे।"
"ठीक है। मैं सोच रही थी कि कहीं हमारे रायण, को भेजने को कहें।" शान्तलदेवी ने कहा।
"सो भी हो सकता था। लेकिन मायण सारी बातें जानता है।" उसे कहला भेजा गया। मायण के आने पर शान्तलदेवी ने सारी बातें समझा दी।
सुनकर मायण ने कहा, "किक्केरी में उसके कोई रिश्तेदार नहीं हैं। उसकी कोई दादी-नानी नहीं जो जीती-जागती है। उसने रानीजी से झूठ कहा है। वह तो उसका जन्मजात स्वभाव है। जनम के साथ आवे गुण मरने पर भी नहीं मिटेंगे।"
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''वह मुझमें शूट क्यों कहंगी: मैंने उसकी नानी-दादी के बारे में कोई व्योग नहीं पूछा। कोइ दूर की दादी-नानी हान्न में वहाँ रह रही हो। एक गर वहां हा आना अच्छा है।" शान्तलादेवी ने कहा।
मुझसे ज़्यादा, उसके बारे में रानीजी जानती हैं। और किसी से झुट बान्ने ती एक गर क्षमा भी किया जा सकता है। आपसे पैर कह तो महा नहीं जागा । कारण कल और भी होगा। उस औरत के जाने के रास्तं का पता नहीं लग सकेगा। 'भाड़ में जागा वह...'' ___ गायग, तम अब और भी अधिक जन्दबाज्ञ हो गय हो। बिना सोच-समशे हा निणय पर पहुंच जात हो। अभी तम्हें राजमहल का काम करना है। समान लो कि बात से तुम्हाग कोई सम्बन्ध नहीं हैं। उसे हमार साघबरा सही-सलामत
आ पहुंचना चाहिए था। वह गजाज्ञा थी। रास्ते में ठहर जाने की अनमान मैन द दी. यह हमारी गलती है। गला के लौटने से पहले न गन ला ग., दाना तान्त किक जाकर उस युला लाओ।" शान्तलदेवी ने कहा।।
__ "जमा गनीजी ने कहा, मैं जान्दवाब हैं। मैं वहाँ जा और वह किसी दूसरे भादी के साथ मजे से हंस-वननी दिख गयी तो मुझे गुस्सा आ जाएगा, तय में कल का कछ कर बैट्रगा। इसलिए किसी दूसरे को यह काम करने को कहें और मुझे वर्ग कर दें तो मैं आपका चिरकणी रहूंगा। यह चरणसेवक गनीजी से विनती कला है।'' मायण ने सिर झुका लिया। ___किसी दृसंरक माथ उसे हंसी-खल करना होगा तो यह किक्कंग में रहगी हो क्यों ? इसलिए तम हा आओ। यह बान तुम्हारी पत्नी मे सम्बन्धित है। तुम स्वयं जाओ और मर प्रत्यक्ष देख लो ना तुम्हारे लिए भी यह अच्छा होगा। दूसगं की बातों पर विश्वास करने की ज़रूरत ही न होगी। तुम हो आओ। फिर भी यदि नम्हें कोई सी यात दिखं नो गुम्सा मल करना । वहाँ के हेगड़ेजी को उन सभी के बारे में कहकर पकड़वा देना जिन-जिन पर तहे गस्सा आग। बाद में उन सबको तहकीकात कर लेंगे।" शान्तलदंवों ने कहा।
मायण कोई उत्तर दिये बिना मौन खड़ा रहा। "जब भी शंवा कर रहे हो।
'गनाजी के लिग तो जो भी मफ़ेद है वह सब दृध हो लगता है। सफ़ेद दिखनं पर भी वह 'फटा दूध है। उसे भाद में जान दीजिए, गनीजी।"
"मेरी समझ में ही नहीं आता कि तुम क्या का हो, मायण । अब लम गामा कह रहे हा! पहले तो जग्गटेब के माथ गद्ध समाप्त होने के बाद, नुमने कहा था कि स्वयं उसके साथ रहकर परिवारी बनकर रहांगे, उसको काई ग़लती नहीं। बेचारी वह खुद चोली थी- 'तुम दूसरी शादी कर लो, सुख से रहा में भ्राता है।'
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और अब तुम यों कह रहे हो? या टोक नहीं :"
"अगर वह मेरी इच्छा के अनुसार मेरे साथ रहती तो अच्छा था। उसके इनकार करने का कारण ही कुछ और है। पत्नी कहकर वह बन्धित रहेगी तो उसे अभिलषित स्वाद मिलेगा भी कैसे? सन्निधान ने उसके गुजर-बसर की व्यवस्था भी कर दी है। इससे उसे स्वेच्छाचारी बनकर रहने का मार्ग मिल गया। किसी के आश्रय में रहने की जरूरत ही नहीं रह गयीं उसे। इसलिए बुजुर्गों ने कहा है-'न स्त्री स्वातन्त्र्यमहंति'-स्त्री को स्वतन्त्रता नहीं देनी चाहिए।" ___“किसी बात को लेकर, किसी और बात के साथ तुलना करना उचित नहीं। अभी हमारे सामने इस सिद्धान्त का प्रश्न नहीं हैं। तुमसे इस बात पर बहस करने का प्रयोजन भी नहीं। सारांश यह निकला कि तुम्हें जाने की इच्छा नहीं। घोड़े को घास जबरदस्ती नहीं खिलाया जा सकता, यह मालूम है। जाओ, तुम अपने काम पर जाओ। मैं कुछ दूसरी व्यवस्था करुंगी। जब तुम्हारा यह सिद्धान्त ही है कि स्त्रियों को स्वतन्त्रता नहीं देनी चाहिए, तब तुम मेरी बात ही क्यों मानोगे, मैं भी तो स्त्री हूँ।" शान्तलदेवी ने कहा।
"न, न, मैंने रानीजी को दृष्टि में रखकर यह बाल नहीं कहीं। मैं ही जाऊंगा।" ___ "इस तरह घुमाव-फिराव की ज़रूरत नहीं। पुरुष के लिए स्त्री एक मोग्य वस्तु है. उसे न स्वतन्त्रता है, और न अभिलाषा ही। रहना भी नहीं चाहिए। वह तो पुरुष के सुख की ही सामग्री है। पुरुष उसे जैसा नचाए वैसा नाचती रहे। पुरुष लात भारकर उसे बाहर कर दे तब भी उसे मूक बनकर रहना चाहिए। उसने कुछ किया हो या न किया हो. पुरुष जो भी आरोप लगाए उन सभी को मुँह बन्द करके चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए-यही, इस तरह के विचार ही हमारे समाज के लिए कण्टक से बने हुए हैं। तुम जैसे पुरुष ही इसका कारण हैं। तुम जा सकते हो। पोयसलों का राजमहल अनाथ नहीं है। अभी धर्मश्रद्धा रखनेवाले, राष्ट्र के प्रति निष्ठा रखनेवाले, दूसरों पर गौरव रखनेवाले, स्त्री के लिए स्थान-मान की जरूरत समझनेवाल असंख्य पुरुष राजमहल के सहायक बने हुए हैं।''
मायण मूक बनकर ज्यों-का-त्वों खड़ा रहा।
"क्यों खड़े हो? तुम जा सकते हो। पोय्सल रानी के साथ रहनेवाली एक दासी के सम्बन्ध में कोई खबर नहीं मिली। उसका पता लगना चाहिए। पता न लगे
तो राजपरिवार बदनाम होगा, अन्तःपुर वदनाम होगा। ऐसा नहीं होना चाहिए। . जाने को कहने पर भी न जाकर, अपनी ही बात को ठीक मानकर, उसी की स्ट
लगाये बैठे हो! तुममें स्त्री की मान-मर्यादा की रक्षा करने की कर्तव्य-निष्टा ही नहीं। न ही तुम पुरुष का धर्म जानते हो। अप्पाजी, हमारे रायण को भेज दीजिए।
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इस पायण को किसी भी कारण से आइन्दा मेरे पास आने की ज़रूरत नहीं। स्त्री के प्रति गौरव-बुद्धि न रखनेवाले इसकी सेवा की मुझे आवश्यकता नहीं। यह इधर खड़ा क्यों है? अप्पाजी इसे कहें कि यह यहाँ से जाए।" शान्तला ने कहा।
मारसिंगय्या ने अपनी बेटी को इस तरह निष्ठुर होकर बात करते कभी नहीं देखा था। एक तरह से वह हक्का-बक्का रह गये। मायण विश्वासपात्र व्यक्ति भी है, साथ-साथ उसे चट्टला के प्रति अनुकम्पा भी आयी थी। उसके पन में पुरानी बातें उभर आचीं तो वह कुछ जोश में आ गया-यही मारसिंगव्या ने सोचा। वे चिन्तित होने लगे कि क्या-से-क्या हो गया! इस प्रवृत्ति को अब और नहीं बढ़ने देना चाहिए-यह सोच मारसिंगय्या ने कहा, “मावण, खड़े रहने से क्या प्रयोजना रानीजी ने कह दिया तो बात खत्म हो गयी। जाओ, कर्तव्यच्युत मत होओ! अनावश्यक वाद-विवाद मत किया करी।''
"जो आज्ञा ।" कहकर मावण चल पड़ा।
"अनुमति हो तो मैं..." मारसिंगय्या कहने ही वाले थे कि इतने में शान्तलदेवी ने उन्हें रोक दिया और कहा, "हाँ, हाँ, समझ गयी। कहने की जरूरत नहीं। अप्पाजी, मैं जानती हूँ कि मायण एक विचित्र मनोवृत्ति का आदमी हैं। वह निष्ठावान है, विश्वासपात्र है-यह भी मैं जानती हूँ। उसे मैंने अब जो दवा दी वह उस पर अच्छा प्रभाव डालेगी। मुझे उस पर गुस्सा नहीं। उसका मुंह बन्द करने के लिए मुझे कठोर बननः का पहला न। उच्छ स्ट: । भूट बाला है। इस यात पर मुझे विश्वास नहीं होता। वह दूसरे पुरुष के साथ मौज्ञ उझती है-यह बात मैं मान ही नहीं सकती। वही उसके बारे में ऐसी बातें कहता फिरता है तो लोगों का मुँह बन्द कौन करे? अप्पाजी, आप ही कहें, निश्चित रूप से किसी की शीलभ्रष्टता का प्रमाण न मिले तब तक उस स्त्री को शीलभ्रष्टा नहीं कहना चाहिए। अपनी इच्छा से जो भ्रष्टशीला होगी उसे कोई कुछ भी कहे, उस पर उसका कोई असर होगा ही नहीं। परन्तु जो स्त्री शील को ही स्त्रीत्व की निधि मानकर चलती है उसके बारे में दुष्प्रचार हो तो उसका सामना कर सकने की दुर्बलता के कारण वह अन्दर-ही-अन्दर युलती रहेगी। अकारण ही पुरुष को स्त्री के मन को नहीं दुखाना चाहिए। है न पिताजी ?" - "जल्दबाजी में जो वह बक गया, वह दूसरों के कानों में न पड़े इसका ख़याल रखना है। अब मायण ही को किक्केरी भेजना है न' मारसिंगय्या ने पूछा।
"यह आज रात को आपके पास आएगा। कहेगा, 'रानीजी से कहकर मुझे ही भेजने की व्यवस्था कराएँ ।' तब कहिए, 'वह किसी भी हालत में हो, उस पर गुस्सा न करके उसे गौरव के साथ बुला लाओगे तो जाओ, नहीं तो मत जाओ। कुछ-का-कुछ हो जाय तो क्या होगा?' यों उसे समझाइए। बाद में जब वह मान
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जाएगा तो फिर उसी को भेज देंगे।"
"अगर वह न आया तो?" "तो फिर रायण को भेज दीजिए।'
"रायण को भेजना तो मेरे हाथ की बात है। मायण को भेजना हो तो माचण दण्डनाथ से कहकर ही भेज सकते हैं।" मारसिंगय्या ने कहा। ___ "मैं खुद उन्हें ख़बर कर दूंगी। मावण ही जाय, नहीं रायण ही सही। मैं दण्डनाथ जी से कह दूंगी।"
"ठीक, तब मैं चलूँ?" "अच्छा अप्पाजी।"
मारसिंगय्या चले गये। इसके बाद एथिक्का ने कहा, “जब आप लोग यातचीत कर रहे थे तब बीच में बोलना उचित न था। समझ लीजिए कि जैसा मायण ने कहा, चट्टला ने रानीजी से अगर झूठ ही कहा हो तब क्या करेंगी? मैं तो अपढ़ हूँ। लोगों के साथ सम्पर्क भी कम है। मगर मेरे मालिक एक बात कहते रहते हैं : 'दुनिया में बहुत भले को देखना हो तो स्त्री में ही देख सकेंगे। और बड़ी से बड़ी बुराई देखना हो तो उसे भी स्त्री में ही देख सकेंगे। पति को जहर पिलाकर, मृत्यु की पीड़ा का अनुभव करते रहनेवाले पति के सामने ही पराये के साथ हँसती स्त्री को उन्होंने देखा है...इसलिए...' " बात आगे कहनेवाली ही थी कि बीच में ही शान्तलदेवी बोल उठी___ "इससे यह कहना ठीक नहीं कि चट्टला भी उसी तरह की है। उसकी इच्छा के विरुद्ध उसका शील भ्रष्ट हुआ फिर भी वह शीलभ्रष्टा नहीं है। वह ऐसा निन्दनीय व्यवहार करेगी-इस निर्णय पर पहुँचना ठीक नहीं है। पुरुष की दुर्दयनीय प्रवृत्ति के कारण परेशान होकर स्त्री अपने जीवन को बिगाड़ लेती है। बिगाइनेवाले पुरुषों के ही कारण स्त्री बिगड़ती है न? दोष किसका? अबला स्त्री का या उसे बिगाइनेवाले पुरुष का? आपको चट्टला का पूरा किस्सा मालूम नहीं, दण्दनायिका जी। वह एक विशिष्ट व्यक्तित्व वाली स्त्री है। जीवन में बहुत अन्याय का शिकार बनी है। उस अन्याय की स्मृति ही उसके जीवन की समस्त पीड़ा है, जीवन में व्याप्त दुःख है। उसके जीवन की कहानी को जो जानते हैं, उनका कर्तव्य है कि उसके उस दुःख को भुलाने का यत्न करें। अब उसके बारे में चर्चा काफ़ी हो चुकी। उसके किक्केरी से यहाँ पहुँचने तक राजमहल में उत्पन्न इस द्वेष, ईर्ष्या से कलुषित वातावरण के विषय में कुछ तहकीकात करें। यह जानने की कोशिश करें कि ऐसा कलुषित वातावरण बनाने के पीछे किसी का हाथ है या नहीं। अब चलिए, भोजन का समय हो आया।" शान्तलदेवी कहती हुई वहीं से उठीं। रानियों को भी साथ लिया और भोजन- करने चली गयीं।
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शान्तलदेवी के अभिप्राय के अनुसार मायण मारसिंगय्या के पास नहीं गया। इसलिए दूसरे ही दिन मारसिंगय्या ने रायण को किक्केरी भेजकर शान्तलदेवी को सूचित का जिला ___शान्तलदेवी ने इतना ही कहा, "ठीक है।" फिर यह बात उसके दिमाग़ में
आबी ही नहीं। दिन गुज़रते गये। एक सप्ताह बाद रायण लौटा। उसने अपनी किक्केरी यात्रा का सारा विवरण यों दिया : "सारी किक्केरी को छान डाला। वहाँ किसी को पता तक नहीं कि चट्टलदेवी नामक कोई स्त्री भी है। चट्टलदेवी ने जिसका नाम बताया था उस नामवाली कोई स्त्री किक्केरी में है ही नहीं! दयाफ्त करने पर यही मालूम हुआ कि हाल में उस गाँव में कोई नयी औरत ही नहीं आयी। वहाँ के हेगड़े ने बताया कि मेरे जाने से दो दिन पहले कोई एक व्यक्ति उस स्त्री को ढूँढते आया था तो सारे गाँव में दयाफ्त किया गया था। मैंने उन्हें अपना परिचय दिया था, इसलिए पूछा कि वह दूसरा आदमी कौन था? उन्होंने कहा, 'उसने अपने को उस औरत का कोई निकट सम्बन्धी बताया था । नाम भी कुछ यताया था पर अब मुझे याद नहीं। वह बहुत जल्दी में था। बहुत उम्र नहीं थी उसकी, यही कोई तीस-पैंतीस का रहा होगा। उसके बाल कुछ लाल मिश्रित काले रंग के थे।' पता नहीं लगा कि वह कौन होगा! मुझे कुछ सूझा भी नहीं, यों ही लौट आया।"
यह सुनकर शान्तलदेवी ने उसे भेज दिया और स्वयं सोचती बैठी रहीं : पहले उसकी खोज में जो गया वह मायण ही है; अप्पाजी (पिताजी से भी बिना कहे चला गया है। परन्तु दण्डनाथ जी की आज्ञा के बिना जा भी कैसे सकेगा? उनसे दर्यात करने पर पता लग जाएगा। जब वह वहाँ न मिली तो उसकी खोज में शायद अन्यत्र गया हो; उसे उसकी गतिविधि का अन्दाज कहीं से लगा होगा इसीलिए शायद अभी तक नहीं लौटा। उसके लौटने तक उसका कुछ भी पता नहीं लगेगा। जो भी बात हो, दण्डनाथ जी से दर्याप्त करनी होगी; यों सोचकर शान्तलदेवी ने दण्डनाथ जी के यहाँ खबर भेज दी। मात्रण दण्डनाय ने कहला भेजा-'उसने कहा कि कोई मनौती हैं, वेलुगोल जाना है, लोटने में एक पखवारा लग जाएगा, अनुमति दें। इसलिए उसे अनुमति दी गयी थी।"
शान्तलदेवी सोचने लगीं, “चाहा कुछ, हुआ कुछ और ही। अब उपाच ही क्या है।" एक-दो दिन यों ही विचार करते निकल गये। “अब इससे क्या लाभ? पहले तो यह जानना है कि इन रानियों में आपस में यह अनबन क्यों है? इसके पीछे क्या प्रोत्साहित करनेवाले भी कोई हैं? इस बात का पता लगाना ही होगा।" शान्तलदेवी मायके से राजमहल में जब आयी तब गालब्बे को साथ लेती आयी थी। चट्टला का पता न लगने पर, पता लगाने का यह काप इसी को सौंप दिया।
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दोरसमुद्र के राजमहल का जब विस्तार किया जा रहा था तब वहाँ की विशाल और मनोज्ञ फुलवारी में एक सन्दर केलिगृह का भी निर्माण किया गया था। महाराज ही यहां जब न रहे तो इस केलिगृह का उपयोग भी कौन करे? बाग़वानी में दिलचस्पी होने के कारण शान्तलदेवी एक दिन शाम को गालब्बे और बिट्टिगा को साथ लेकर उस उद्यान में गयीं। जाने पर उन्हें उस केलिगृह के अन्दर से किसी के हँसने की आवाज सुनाई पड़ी। शान्तलदेवी ने कहा, "गालब्बे, बिट्टिगा को मेरे हाथ में दे दो, मैं वहाँ उस चमेली के पास रहूँगी। महाराज के उस केलिगृह में कौन है-जारा देख के आ।" गालब्बे धीरे से उस जगह पहुँची। वहाँ उसे स्त्री-पुरुष दोनों की आवाज सुनाई पड़ी। ____केलिगृह में स्त्री कह रही थी : “तुम बहुत बुरे हो, तुमने इस तरह चुलहबाती कर गुदगुदाया कि इतनी तेज हँसी आ गयी। कोई सुन ले तो? महाराज राजधानी में नहीं हैं। हमें यह मौके की जगह मिल गया है। किसी को पता तक न लगे, इस तरह यहाँ हम आते-जाते रहते हैं। यदि कोई महाराज के केलिगृह में हमें देख ले तो हमारी इतिश्वी हो जाएगी।'
पुरुष कह रहा था : ''यहाँ अभी कोई भूत भी नहीं फटकेगा। और फिर, इस धूल-भरे पलंग का उपयोग कर हम इसको बरबाद होने से बचा रहे हैं। इसलिए हम जो कर रहे हैं वह अच्छा ही तो कर रहे हैं। मौका मिलता है तो उसका सुख भोगना ही चाहिए। तुम्हें मैं हँसाऊँ और तुम हँसो, तभी सच्चा मज़ा आता है।''
“सो तो ठीक हैं। मैं भी यह चाहती हूँ, परन्तु कोई सुन ले और हम फँस जाएँ तब क्या हाल होगा?" स्त्री की आवाज़ थी। ____ 'यह तो दूर एक कोने में है। यहाँ तक कौन आता हैं, छोड़ी, रहने टो।...अच्छा फिर आगे क्या हुआ?" ।
"क्या? कौन-सी बात?" । "वही, उस दिन कहा न, रानियों में अनबन है?"
''धत् तेरे की, संग-सुख की चाह से चोरी-छुपे आयी तो फिर ये अनबन की बात क्यों? सो तो बहुत है पर इस समय मत पूछो। अंधेरा होने से पहले मुझे घर पहुंचना है।"
"तुम्हारा पति तो है नहीं, वह तो युद्ध में गया है। उसके जिन्दा लौटने तक..."
''पोसी बुरी बात मत कहो। वह जीवित बना रहे तभी कुशल है।"
"तुम पुरुष लोग क्या जानो: सुख पाना मात्र जानते हो।" "क्या सुख अकेले को ही मिलता है।"
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''दोनों को है, परन्तु स्त्री के लिए उससे आगे कुछ और भी है। उस तकलीफ़ को तुम क्या जानो। अभी हमल टिककर मेरे दो महीने हो गये थे। कुछ दवा-दारू करके हमल गिराया है।"
अगर वह होता तो इसे गिराने की नौबत नहीं आती-यही न? ओह, कितनी दूर की सोच रही हो! मैं समझ नहीं पाया था। सो तो ठीक, यह बताओ वह दवा तुम कैसे जान गयीं"
"मैं क्या जानूँ, यहाँ एक दाई है वही यह सब बात जानती है।" ।''तो क्या तुमने उससे कहा?"
"मैं ऐसी बेवकूफ़ हूँ? उससे दवा ली और कहा कि किसी बड़े घर स्त्री के लिए चाहिए, कुछ अनहीन हो गयी है। ए. बाकसके लिया गरे देनी पड़ी।"
“अच्छा, जाने दो; में दे दूंगा। तुम चिन्ता मत करो। बड़ों के घर का नाम बताया न? किसका बताया?"
"इस सबसे तुम्हें क्या मतलब ?' "वता दोगी तो कौन-सी ग़लती हो जाएगी." “पुरुषों का भता क्या विश्वास" ''क्या मैं ऐसा आदमी हूँ?"
"यह सवाल अपनी घरवाली से जाकर पूछो। कह दिया · नहीं कहँगी, ख़तम।"
'अच्छा, मत कहो; जाने दो।"
'अच्छा, अब फ़िजूल की बातें खूब हो लीं। मुझे जल्दी घर जाना है। देर हो गयीं तो मेरी सास खांजती हुई राजमहल पहुंच जाएगी।"
गोसा?"
उन लोगों की बातचीत वन्द हो गयी। गालब्बे दो-चार क्षण वहीं खड़ी रही। वहाँ से जल्दी-जल्दी शान्तलदेवी के पास आयी और यह सारा वृत्तान्त उसने कह सुनाया।
शान्तलदेवी बहाँ से उठकर जल्दी-जन्दी उद्यान से बाहर आयीं। बिटिगा की गोद में ले गालो उनके साथ हो गयी।
बिट्टिगा को पुनः अपनी गोद में लेकर राजमहल की ओर जाते हुए शान्तलदेवी ने गालब्बे में कहा, ''गाल: तुम इस द्वार से दूर आड़ में रहकर देखो कि वे दोनों कौन हैं?' और खुद चली गयीं।
मालब्बे उस द्वार पर आड़ में छिपकर देखती रही। थोड़ी देर बाद वह वहाँ से लौटी। शान्तलदेवी को उसने बताया, "वह आदमी उस उद्यान से बड़ी सतर्कता
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से बाहर आचा। फिर उसने खड़े होकर इर्दगिर्द देखा, और फिर दो बार ताली बजाकर चल पड़ा। इसके थोड़ी देर बाद वह स्त्री एक फूलों से भरी टोकरी लेकर सहज ढंग से ही बाहर आयी और चली गयी। मैंने राजमहल की सभी दासियों को देखा नहीं। सभी से परिचित नहीं हूँ, इसलिए मैं उसका नाम नहीं जानती। परन्तु उसे पहचान सकतो हूँ।"
"उसके नाम-धाम का पता लगाओ। नहीं, नहीं, मैं जब रहूँ तब वे इधर चलते-फिरते नजर आ जाएँ तो मुझे संकेत कर देना।" शान्तलदेवी ने कहा।
'रानीजी उसे काम सं हटा सकती हैं न?"
"नहीं, उसे काम से हटाने पर हमें कई बातें मालूम नहीं होंगी। नीतिभ्रष्ट लोग ही कई तरह के अन्यायों में सहायक बनते हैं। इनके प्रति सतर्क रहना; वह देखते रहना कि वे किस-किससे मिलते हैं, और मिलते समय सतर्क रहकर मिलते हैं या सहज रीति से-इन बातों पर विशेष ध्यान देकर उनकी चाल-चलन का पता लगाती रहना। सुन सकती हो तो आपस में जो बातें होती हैं उनको ऐसा छिपकर सुनना कि जिससे तुम उनकी नजर के सामने न पड़ो।'' शान्तलदेवी ने कहा।
उस दिन से गालब्चे बिडिगा की देखभाल के काम से छुट्टी पा गयी। वह जो भी काम करेगी, साहस के साथ कर सकेगी। पहले एक बार बाघ के पिंजड़े में जाता . पदद लामी। यह गे गहामी पहिमा की लिसी से डरनेवाली नहीं थी।
उस दिन से उस भ्रष्टशीला ओरत और उसके रखैल कामुक पुरुष-दोनों पर वह सतर्क दृष्टि रखती रही। शान्तलदेवी को भी, दूर से उनको देखने का मौक़ा मिल गया। उन्हें लगा कि उनके यादवपुर चले जाने के बाद, शायद इन दोनों की नियुक्ति हुई हैं।
शान्तलदेवी को अच्छा नहीं लग रहा था । चहिनें भी एक साथ मिलती ती थीं। परन्तु इस मिलन में परस्पर प्रेम और अपनेपन का भाव दिखता-सा नहीं लगता था। लगता कि वे हृदय से नहीं, उसकं दाक्षिण्य के वशीभूत होकर मिलने की रस्म अदा कर रही हैं। शान्तलदेवी को मायके से राजमहल में आये इस तरह एक महीना हो गया था।
तभी पट्टरानी पद्मलदेवी के जन्मोत्सव का दिन आया। राजमहल के परोहितजी ने आकर प्रधानजी की यह सूचना दी। प्रधान गंगराज ने, दण्डनायक भाषण से विचार-विमर्श करकं, जन्मोत्सव को मनाने की रीति और व्यवस्था के सम्बन्ध में पट्टानी से परामर्श करने के लिए एक विज्ञप्ति उनके पास भजी।
- पद्मलदेवी सोचने लगी- में पट्टमहादेवी हूँ इसाला! न मुद्दा यह गौरव प्राप्त हं! मामा स्वयं मेरे पास विज्ञप्ति भेजते हैं। भाई भी विज्ञप्ति भेजते हैं। ऐसे
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गौरवशाली स्थान पर मैं इस वक्त रह रही हूँ। कल यदि मैं राजमाता नहीं बन सकती तो मेरा यह स्थान हास्यास्पद बनेगा न' महाराज के लौट आने पर इस बात का निर्णय हो ही जाना चाहिए। अगर शान्नला यहाँ रहेगी तो पलड़ा किस तरफ़ भारी होगा, काँटा किधर झकेगा, कह नहीं सकती। इसलिए बुद्धक्षेत्र से महाराज के लौटते ही इन दोनों को यादवपुर भेज दूं तो भरा काम शायद आसान हो जाएगा। लौटने के बाद, महाराज को पूरी ऋतु मेरे ही साथ रहना होगा न! तब ठीक कर लूँगी। अन्यत्र जो कार्य नहीं सधता, इसे अन्तःपुर में साधा जा सकता है।" यह सब सोच-विचारकर उसने निर्णय किया, 'जय महाराज युद्धक्षेत्र में है तो वर्धन्ती का यह उत्सव आडम्बरपूर्ण न हो, निमित्तमात्र के लिए मनाया जाय, और राजमहल तक ही सीमित हो।"
अपने इस निर्णय की सूचना प्रधानजी और पटनाश मात्तप गेनों को दे दी ! प्रधान गंगराज ने कहा, "ठीक है, पट्टमहादेवीं के विचार बहत उत्तम हैं, हां भी स्वीकार है। फिर भी यह अछा है कि दूसरी रानियों से भी पूछ लें। यह लौकिक व्यवहार की बात है।'' उन्हें मालूम था कि रानियों में परस्पर अनबन है और इप्या भी हैं। ____ "यह तो हमारी अपनी बात है। दूसरी रानियों की राय की इसमें क्या जरूरत? जव महाराज यहां नहीं हैं तो क्या वे धूमधाम चाहेंगी? इसमें लौकिक व्यवहार की क्या बात है" पालदेवी ने कहा।
"महाराज वहाँ होतं तो इस सम्बन्ध में बात करने के लिए यहाँ तक आने की हमें आवश्यकता ही नहीं पड़ती। महाराज जय तक बद्धक्षेत्र में हैं तब तक राजमहल में कोई भी कार्य करना पड़े तो सब रानियों से पूठकर ही निर्णय करने का आदेश है।"
"मैंने अपनी राय बता दी; फिर जैसी आप लोगों की इच्छा ।" पदानदेवी ने बात को वहीं समाप्त कर दिया।
"अच्छा।' कहकर दोनों बजर्ग यहाँ से चल दिये। उनके चले जाने पर पद्मलदेवी ने घण्टी बजायी। दासी दामब्वे ने उपस्थित होकर प्रणाम किया।
पद्मलदेवी ने उसे आदेश दिया, ''जाओ. प्रधानजी और दण्डनायक किस तरफ़ गये देखकर मुझे बता।"
दामब्बे तुरन्त चल पड़ी।
पालदेवी गुस्से तमतमा रही थी : तो क्या महाराज समझत हैं कि पट्टरानी दासीमात्र हैं। गजमहल के कार्यों को करना हो तो उन छोकरियों में क्यों पूछना होगा इसका क्या मान साफ़ है-वह बोणि गर्भवती हुई, वह अकंली वंश
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का उद्धार करनेवाली, वहीं सबसे मुख्य हैं, उसके कहे अनुसार राजमहल के कार्य-कलाप सम्पन्न हों, यही नः दुर्बलता दिखाएँ तो लोग सवार ही हो जाएंगे। अगर मैं अपने स्थान और पद को और मजबूत न बना रखू तो हमारे दास-दासियाँ भी हमें धूल बराबर समझने लगेंगे। मैं ऐसी स्थिति नहीं आने दूंगी।"
इधर दामध्ये प्रधानजी के पीछे-पीछे चली। उसने देखा कि वे सीधे अपने-अपने कार्यालय में चले गये हैं। लौटकर उसने अपनी मालकिन को यह इता दिया ! पालवी से गान ग्राम अंक कि वे उसकी बहिनों से विचार करने गये होंगे। वे ऐसे मूर्ख थोड़े ही हैं, ऐसा क्यों करने लगे अच्छा, पहले से महाराज मुझे ही चाहते थे न: ये दोनों रानियाँ बनीं मेरी पूँछ बनकर । आज चामला मेरे साथ है सही, कल अगर बोप्पि की लड़की हो और मुझसे पहले यह लड़के की माँ बने, तब इसका भी रंगढंग बदल जाएगा। किसी पर विश्वास नहीं किया जा सकता। इसलिए अब मेरे लिए यहीं एक कर्तव्य है कि मैं अपने स्थान को मजबूत बना लें। किसी पर विश्वास नहीं करना होगा। यों सोचती हुई वह इस निर्णच पर पहुंची : "ये मुझसे दूर होती जाएंगी, अन्त में मैं अकेली ही रह जाऊँगी। सम्भव है कि ये दोनों मेरी शत्रु भी बन जाएँ।''
आदेश की प्रतीक्षा करती हुई दामब्बा वहीं खड़ी थी। पद्यलदेवी ने उसे इशारे से पास बुलाया और कहा, ''अन्तःपुर कहाँ क्या होता है इस सबका पता लगाकर मुझे उन बातों की ख़बर देती रहना। तुम मेरे रनिवास से सीधा सम्बन्ध रखनेवाली दासी हो, इसलिए तुम विशेष रूप से आया-जाया करोगी, तुम पर कोई शंका नहीं करेगा। हमारे राजमहल के नौकरों में कोई ऐसा आदमी, जिसे तुम अच्छी तरह जानती हो और जिस पर पूर्ण विश्वास हो तो उसे बुला लाओ।" पद्यलदेवी ने कहा।
''है एक आदमी।"
''मैं उससे कहूँगी कि क्या करना होगा। बाद में तुम उससे मिल लेना और सारी स्थिति समझकर फिर मुझे बता देना।" पद्मलदेवी ने दामब्बे के कान में कहा।
“पिरिचरसी जी से मुझे पहले ही कहना चाहिए था। मुझे यह शंका रही कि यदि मुद्दा पर अविश्वास हुआ तो...इसलिए मैं चुप रही आयी। मैंने परसों ही कुछ सुना था। दामव्ध ने मौका पाकर अपनी नीचता आरिहर दिखा ही दी।
'कहो, क्या बात है" 'पिरियरसी जी की वहीं वर्धन्ती की बात । छोटी रानी..." ''कौन बोप्पिः" 'हाँ, ये ही छोटी रानी से कह रही धीं।''
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"क्या ?" "यह सब धूमधाम क्यों? जब महाराज युद्धक्षेत्र में हैं..." "यह सब मेरी इच्छा हैं। पूछनेवाली यह कौन होती हैं?"
"हम तो ठहरे नौकर, रानियों से ऐसा हप पूछ सकते हैं? अगर बता दें तो कहेंगी कि हम ही ने झगड़े का बीज बोया। न कहें लो अन्नदाता के प्रति द्रोह होगा। अन्दर ही अन्दर घुलती रही कि कहें तो क्या करूँ" ___ "तुम्हारे लिए मेरा हित मुख्य है; बाकी से तुम्हें क्या मतलब?"
"ऐसा नहीं, हम बेचारी दासी ठहरी। कल आप बड़े लोग एक हो जाएं तो हमारा जीवन काँटों में पड़ जाएगा।"
"ऐसा वक्त नहीं आएगा। मनुष्य जब अहंकारी बनता है तो टेढ़ा रास्ता एकड़ता है। मोटी रानी कापी ग्रही शान है।" ___"हो सकता है, पर वे तो सगी छोटी बहिन हैं आपकी। दीदी के साथ कैसा बरतना चाहिए, इतनी समझ तो होनी ही चाहिए।"
"मैं इस सबका कारण समझाती हूँ। वही, जो गर्भ उसके पेट में है वहीं मेरा
___गर्भ क्या करेगा? कुछ लोगों को देरी से हमल टिकता है। क्या करें : अवकी बार भगवान आप पर भी कृपा करेंगे। इसलिए ऐसी चिन्ता नहीं करनी चाहिए।"
"अगर भगवान ने अब दिया भी तो किस प्रयोजन का? कल उसकी कोख से लड़का पैदा हुआ तो वही सजगद्दी का अधिकारी होगा। बाद में मेरे लिए लड़के 'का होना न होना दोनों बराबर है।"
"सो कैसे? पट्टरानी का बेटा ही तो गद्दी का अधिकारी होगा? ऐसा मनमाना करेंगे तो कल लोग विद्रोह कर बैठेंगे। राजपरिवार को न्याय और धर्म के विरुद्ध चलना कैसे सम्भव हो सकता है? इस सबसे आपको डरना नहीं चाहिए।'
'यों दिलासा दे सकने वाले तो अब यहाँ नहीं हैं। कम-से-कम तुम तो हो। अच्छा, तुमने किसी नौकर के बारे में कहा न, उसे जितनी जल्दी हो सके मेरे पास ले आओ।" पलदेवी ने कहा।
समय की प्रतीक्षा करती रही यह दासी दामचा । मौका पाकर वह बाचमा को समझा-युझाकर पधलदेवी के पास ले गयी। पाला ने उसे जो कुछ कहना था सो सब बता दिया। उसने कहा, "मैं चरण सेवक हूँ। जितना मैं जानता-समझता हूँ, सो करूँगा।" यो आश्वासन देकर वह चला गया।
बाचमा के चले जाने के बाद पालदेवी ने दामध्ये को पास बुलाकर कहा, "पता नहीं क्यों मुझे उसकी नजर ठीक नहीं अँची। उसे तुम अच्छी तरह जानती हो न?"
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"से अविश्वस्त व्यक्ति को यहाँ लक बुला लाना सम्भव हो सकेगा वह अच्छा आदमी है, काम भी ठीक-ठीक करेगा। दो ही दिनों में जान जाओंगी कि वह कैसा हैं।" दामच्चे ने दिलासा दी। उसने कह तो दिया, मगर वह मन-ही-मन उसे गाली देती और कुढ़ती रही-"मैं उस कम्बख्त से कहती रहती हूँ कि सभी जगह बुरी दृष्टि से न देखा कर-वह मानता ही नहीं। सजग रहना तो जानता ही नहीं।" यो मन-ही-मन दोहराती दामब्या अपने काम पर चली गयी।
प्रधानजी के पीछे-पीछे जाना और बाचमा को साथ ले जाकर पट्टमहादा से मुलाकात कराना आदि दामञ्चे के सभी कार्यों की खबर पालञ्चे ने शान्तलदेवी को दी।
शान्तलदेवी ने इन दोनों पर निगरानी रखे रहने को गालब्बे से कहा।
तभी पिता के घर से लेंका एक चिट्ठी लेकर आया और उसे शान्तलदेवी को दी। शान्तलदेवी ने चिट्ठी पढ़ी। उसमें ये ही सब बातें थीं जो रानी पद्यलदेवी ने प्रधानजी और दण्डनाथ माचण से कही थीं। पढ़कर उन्हें बहुत दुःख हुआ। भाई
और मामा की बात का भी कोई मूल्य न रहा! व्यक्ति को इतने निम्न स्तर तक नहीं उतरना चाहिए। पटरानी के दिमाग़ में किसने ऐसे विचार भरे? इन बातों का पता लगाना ही होगा। ये बातें राजमहल के लोगों के दिमागों में कहीं घुस ठी तो राजपरिवार ही ख़त्म हो जाएगा। बुजुर्गों के प्रति अनादर और ऊपर से उनके पीछे पता लगाने के लिए कि वे कहाँ आते-जाते हैं, नौकरों को लगा दें? यह कैसा यवहार? एक तो करेला तिस पर नीम चढ़ा! प्रधानजी पर विश्वास न करने के माने हैं अपने आप पर विश्वास न रखना। इससे बढ़कर मूर्खता और क्या हो सकती है। किसी भी तरह से सही, वहाँ विवेक पैदा करना ही होगा-शान्तलदेवी ने निश्चय किया।
इसके लिए क्या करना होगा-यह सोचते-करते ही तीन-चार दिन बीत गये।
पश्चात् एक दिन, भोजन के समय शान्तलदेवी ने यात छेड़ी। उन्होंने कहा, "अभी रानी बोप्मदेवी के छह मास लगे हैं, प्रथप गर्भ है। उचित रीति से सीमन्त संस्कार को सम्पन्न करना होगा। महामातृश्री होती तो चे दिशादर्शन कर देती और बतार्ती कि इसे कैसे मनाना है। इस वक्त वे यहीं नहीं हैं। अतः सारी जिम्मेदारी पटरानी जी पर आ पड़ी है।"
"तुम्हारा कहना ठीक है। परन्तु यहाँ की हालत ऐसी है कि मैं इस कार्य में हाथ नहीं डाल सकतीं। यह विषय उससे सम्बन्धित है। सो जैसा चाहे धूमधाम से मनाने की व्यवस्था करा ले। मैं उसकी तरह दूसरों की बातों में हस्तक्षेप नहीं करती।" पालदेवी ने यो निर्धार के साथ कह दिया।
"मैंने किसके विषय में हस्तक्षेप किया है? ऐसा कहना बड़ों को शोभा नहीं
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देता।' बोप्पदेवी ने कहा।
"जो किया, किया, वही काफ़ी है; सब कर चुकने के बाद अब उपदेश देने चली है।" और भी कड़ा होकर कहा पद्मलदेवी ने। ___मैंने कुछ नहीं किया। जो किया वह तुमने ही किया। मेरा गर्भ रहा, इससे तुम्हें ईष्या हो गयी। ईर्ष्या से जलने लगी। इसलिए तुम यो खेल दिखा रही हो-क्या इतना भी नहीं समझती हूँ मैं? मेरे लिए सीमन्त संस्कार विधिवत् न हो इसलिए तुमने अपने जन्मदिनोत्सव को धूमधाम से न मनाने का बहाना कर लिया। वही तो सुनती हूँ।' बोप्पदेवी ने कहा।
पसल जा पाहिलात नहीं, हो 'पी युद्धक्षेत्र में गये हैं तब मुझ बाँझ को जन्मदिन का यह आडम्बर क्यों? यह तुमने जो कहा सो भी मैं समझती हूँ। मैं बाँझ सीमन्त की चिन्ता ही क्यों करूँ?" पचलदेवी बौखला उठी।
"ऐ, बोप्पी, तुमने ऐसा कहा?" कहती हुई चामलदेवी ने पद्मला की तरफ़ मुड़कर पूछा, "किससे कहा इसने?" ___ "बहुत अच्छा! बात सुनकर पीठ ठोंकनेवाली ही यों सवाल करें तो समझना चाहिए कि पैरोंतले जमीन ही खिसक गथी। यों पीट पीछे बात करना मुझे सह्य नहीं। साहस हो तो सामने कहो।' पद्मलदेवी ने कहा। __ "शायद किसी ने यों ही कह दिया होगा।" चामलदेवी बोली।
“यों ही? कानों सुनी बात बतायी है। ऐसा कौन है कि जो कही बातों को स्वीकार कर ले। मैं परेशान हूँ, महाराज आ जाएँ तो बस; यहाँ की सारी रामकहानी सुनाकर कह देना चाहती हूँ कि आपको कुछ सोचना होगा।" पद्मलदेवी ने कहा।
इन बातों को आमूलाग्र जाननेवाली शान्तलदेवी अब तक चुप रही आवीं लेकिन अब उन्हें बोलना पड़ा, "अब पटरानी जी से मेरी एक विनती है। इन बातों से स्पष्ट हो गया कि अभिप्राय भिन्नता और ग़लतफ़हमी हो गयी हैं। मेरे लिए तो बहुत-सी बातें नयी हैं। मुझे लगता है कि ऐसी बातों पर विश्वास करना ही कठिन है। इतना सच है कि अभी-अभी आप लोगों ने जो बातें कहीं, इनको सुनने से निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ये बातें किसी जरिये किसी लक्ष्य की साधना करने के उद्देश्य से उठी हैं। ये सब घटी हैं पीठ-पीछे। सम्भव है कि इन बातों को सुनानेवालों ने ही ग़लत सुनायी हों। यह सुनकर यदि संघर्ष हुआ तो यह उन सुनानेवालों की गलती है, आप लोगों की नहीं। पटरानी जी को एक बात हम सबके लिए मान्य होनी चाहिए। महाराज के आने तक हमारा इन बातों पर ध्यान नहीं जाना चाहिए। जय' सारा राष्ट्र युद्ध में लगा है और महाराज स्वयं युद्ध में लगे हैं तब राजमहल में बैभव के साथ वर्धन्ती को मनाना उचित नहीं लगता। पटरानी का यह निर्णय बहुत ही योग्य है। यह निर्णय करके पटरानी जी ने
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आनेवाली पीढ़ियों को एक दिशा-निर्देश दिया है। हम सभी को इसके लिए उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। जैसा उन्होंने कहा, अपने खुद के विषय में, उनका निर्णय सबके लिए मान्य है। इस निर्णय को नमक-मिर्च लगाकर तरह-तरह की व्याख्या करना गलत होगा। उनकी बात पर हमें विश्वास करना चाहिए।" शान्तलदेवी बोली।
परन्तु बात यहीं नहीं सकी। कुछ आगे बढ़ गयी। ''मुझे भी इसमें घसीटा गया है; मैं न गर्भवती हूँ, न पट्टमहादेवी ही; मेरा जन्मदिन भी समीप में नहीं है। तब फिर मुझे भी यो घसीटना उचित है? मैं सामने ही सवाल कर रही हूँ।'' चामलदेवी ने कहा।
"अच्छा, अब इसी बात को लें; आप और छोटी रानी के बीच कर बातचीत चनी होगी और यह खबर पटरानी जी को भी लग गयी होगी। इस कारण से यह विवाद पैदा हो गया होगा। क्या आपके और छोटी रानी के बीच कुछ बातचीत हुई?" शान्तलदेवी ने चामलदेवी से पूछा।
"मैंने भी पाँच-छह दिन पहले सीमन्न-संस्कार के बारे में बोप्पि से बातचीत की तो उसने बताया कि जव महाराज नहीं हैं तब धूमधाम क्यों: निमित्तमात्र के लिए कोई विधि सम्पन्न करनी है तो कर ली जाय। यह धूमधाम से मनाने का समय नहीं हैं। मुझे भी उसका कहना ठीक लगा। मैंने कहा यही ठीक है। इसके सिवा और कोई बात नहीं हुई। ऐसी हालत में दूसरी बातों के लिए जगह ही कहाँ है?" चामलदेवी ने कहा।
इस सबसे यही सारांश निकलता है कि आपकी बातचीत को जिसने पटरानी जी से कहा है उसने नमक-मिर्च लगाकर कहा है। ऐसे ही पटरानी जी ने जो बातें नहीं कहीं उनको भी मिलाकर छोटी रानी को भरा गया है। इस आपसी विवाद की जड़ ये वार्तावाहक हैं। इस विषय को इन्हीं चुगलखोरों ने यह रूप दिया है। इन बातों पर अवलम्बित होना कहाँ तक ठीक हो सकता है? हमें तो राजमहल की एकता को बनाये रखने के लिए जी-जान से प्रयल करना चाहिए। हमारे मनों को परिवर्तित करनेवाले इन लोगों की बातों पर चलना-बरतना उचित होगा? ऐसा करना भावी सर्वनाश के लिए नान्दी नहीं होगा? ऐसे काम के लिए हमें सहायक नहीं बनना है। इस तरह की भ्रान्ति पैदा करनेवालों का निश्चित ही कोई उद्देश्य होगा। किसने ऐसा समाचार फैलाकर गलतफहमी पैदा की है-यह अब तक आपको भान हो गया हो, तो भी उसका लक्ष्य क्या है, इसका पता जब तक न लग जाग तब तक हमें मौन रहना चाहिए, यही अच्छा है।" शान्तलदेवी ने समझाया।
विवाद से कुछ विरसता उत्पन्न हो जाने पर भी शान्तलदेवी की विवेकयुक्त,
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तकबद्ध और संयम से पूर्ण बातों ने रानियों पर कुछ अनुकूल ही असर किया। उनकी बातों के विरुद्ध कुछ कहने का किसी ने प्रयत्न नहीं किया। लेकिन यह भी नहीं कहा कि हाँ ठीक है।' उनके मौन को सम्मतिसूचक मानकर शान्तलदेवी फिर कहने लगे
___“पटरानी जी और आप सब मिलकर हमें अनुमति दें तो इन चुगलखोरों का पता और उनका लक्ष्य-दोनों को जानने की कोशिश करूँगी। आप लोगों को पहले ऐसी बातों का अनुभव हो चुका है। आप लोग जानती ही हैं कि उस वामाचारी
और चोकी की करतूत का फल क्या हुआ। ऐसी स्थिति इस राज्य में फिर न हो। फ़िलहाल राजमहल में रहनेवाले हम ही तो हैं। हम अपने पीट-पीछे कोई कुछ कहे तो सुनेंगी ही नहीं, सुनें भी तो उसके आधार पर कोई निर्णय नहीं करेंगी-वों दृढ़ संकल्प हमारा होना चाहिए। हमारी भलाई हमारे ही हाथ है, इधर-उधर की बातों को सुनाकर नचानेवालों के हार्यों में नहीं। हमें ऐसे लोगों के हाथ में नहीं पड़ना है। जो मैं कह रही हूँ यह आप लोगों को ठीक लगे तो महाराज के आने तक हम सब एक होकर रहें और अब तक के मनोमालिन्य को भूल जाएँ। इन चुगलखोरों और स्वार्थ-साधकों का पता लगाएँ। महाराज के लौटने पर सब मिलकर उनको बतायें और फिर निर्णय करने का दायित्व भी उन्हीं पर छोड़ दें। इस पर पटरानी जी का क्या आदेश है."
"अकेली का ही निर्णय क्यों? सब मिलकर ही कुछ निर्णय कर लें।" “उसी निर्णय को पटरानी जी कहें तो हम सबके लिए सम्मत होगा।"
"आप जैसा कहें वही करेंगी। महाराज को सारी बात बता दी जाएगी। फिर ने ही निर्णय करें। बाकी सब बातें ज्यों-कीत्यों चलें। कहनेवाले कुछ भी कहते रहें; सुनकर कोई निर्णच न करके चुप रहें। अगर आपके कहे अनुसार, इन चुग़लखोरों का लक्ष्य बुरा है, इसका पता लग जाए तो उनके साथ क्या करना चाहिए, इसका विचार बाद में करेंगे।" पटरानी ने कहा।
"अब ठीक हुआ। जन्मोत्सव और सीमन्त समारम्भ-दोनों को कैसा मनाना होगा इसका निर्णय सब मिलकर कर लें। आप दोनों की राय है कि धूमधाम न हो, मुझे भी वही ठीक लगता है। अभी दण्डनायिका एचियक्का यहीं हैं। माचण दण्डनाथ जी की पत्नी, लक्कलदेवी भी हैं इन्हीं सुमंगलियों के समक्ष इस उत्सव को अन्तःपुर की स्त्रियों तक सीमित रखकर मनाएँ, यहीं मुझे ठीक लगता है।" शान्तलदेवी ने कहा। __ "तीन की जगह पाँच सुमंगलियाँ हों, दोनों मन्त्रियों की पलियों को भी आमन्त्रित कर लें तो ठीक होगा।" पधलदेवी ने कहा।
इस तरह किसी तरह के विवाद के लिए मौका न देकर पट्टमहादेवी पद्मला
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का जन्मोत्सव और बोप्यदेवी का प्रथम गर्भ सीमन्त समारम्भ- दोनों शान्तलदेवी. के नेतृत्व में बिना किसी धूमधाम के बाहरी लोगों की जानकारी के बिना, अन्तःपुर तक सीमित रहकर सम्पन्न हुए।
समय गुजरता गया । शान्तलदेवी के कहने पर भी इन लोगों में विवेक नहीं आया। दामध्बे और बाचमा की चातुरी से इन बहिनों में परस्पर देध की भावना अन्दर ही अन्दर बढ़ने लगी। ये दोनों राजमहल के लोगों के साथ और अन्य नौकर-चाकरों के साथ जिस मिलनसारी और सरसता से मिलते-जुलते थे; इसे देखकर गालब्बे को यह समझना कुछ मुश्किल हो गया कि कौन क्या कर रहे हैं। एक बात उसे स्पष्ट मालूम हो गयी कि किसी-न-किसी बहाने बोप्पदेवी को कोई दवा खिलाकर, गर्भस्त्राव कराने का षड्यन्त्र रचा जा रहा हैं। परन्तु उसे यह मालूम नहीं हो पाया कि आखिर इस षड्यन्त्र की प्रेरक शक्ति कौन हैं।
गालब्बे को जो कुछ मालूम हुआ, वह सब उसने शान्तलदेवी को निवेदन किया। सुनकर शान्तलदेवी स्तब्ध-सी हो गयी। कुछ देर तक वह सोचती रही। और फिर उसने इस गर्भपात के प्रयत्न को विफल करने का निश्चय कर लिया। इसका अब एक ही रास्ता है कि बोप्पदेवी को इस दिशा में सजग कर दिया जाए तथा उसके खानपान पर कड़ी नजर रखी जाए ।
शान्तलदेवी बोप्पदेवी से मिलीं। सारा वृत्तान्त संक्षेप में समझाया और कहा, "हमें सतर्क रहना होगा। बोल बहुत सकते हैं परन्तु कार्य करना हो तो धीरज के साथ काम में लगना पड़ता है। और फिर इस सारे षड्यन्त्र का मूल कहाँ
- इसका पता नहीं लग पाया है।" शान्तलदेवी आगे कुछ और कह रही थीं कि बीच में ही बोप्पदेवी कह उठी, “मेरे गर्भ पर उस पद्मी के सिवाय और किसी की आँख नहीं लगी है। वही इस षड्यन्त्र की प्रेरक शक्ति है। इसमें किसी और को रुचि लेने की आवश्यकता ही क्या है? दीदी, यह सब देखती हूँ तो यही लगता हैं कि ऐसी रानी बनकर इन तकलीफ़ों में पड़ने से तो यही बेहतर होता कि किसी एक के साथ विवाहित होकर माता बनकर सुखी जीवन बिताती ।"
“मुझे यह अच्छी तरह मालूम है कि स्त्री माँ बनकर जिस सुख का अनुभव करती है वह सुख और सन्तोष सर्वश्रेष्ठ होता है। परन्तु एक बात ! सच्चाई क्या है यह निश्चित रूप से मालूम न होने तक पटरानी पर दोषारोपण करना ठीक नहीं । अच्छा, अब एक काम करेंगे। अब यह कहकर कि स्वास्थ्य ठीक नहीं, तुम्हें अपने अन्तःपुर में ही रहना होगा। तुम्हारे खाने-पीने की वस्तुएं मेरे हाथ से या गाल के हाथ से मिलने पर ही तुम्हें स्वीकार करनी होंगी। दूसरा कोई लाए तो
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इनकार न करके कहना कि अभी नहीं, थोड़े समय के बाद लूँगी, अपने पास रखवा लेना । हमें इस षड्यन्त्र का पता लग गया है इस बात की गन्ध तक किसी की न लगे, ऐसा व्यवहार करना होगा ।"
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"दीदी, तुम कितना ही सिखाओ यह ठीक न होंगी। कुत्ते की पूँछ कुछ भी करें टेढ़ी ही रहेगी। मुझे पटरानी बनने की चाह नहीं। और तो और, महाराज की पत्नी बनने की भी इच्छा नहीं रही। मैंने कभी सोचा ही नहीं कि मुझे अमुक व्यक्ति से ही शादी करनी होगी। कभी मेरी माँ कहा करती थी मैं तुमको राजमहल की बहू बनाऊँगी। उनकी इस बात से मुझमें कोई स्फूर्ति उत्पन्न नहीं हुई थी । मैं नहीं चाहती कि मैं रानी कहाऊँ । महाराज को मेरे पास आने की भी जरूरत नहीं। मेरी सन्तान मेरे लिए हो-यही पर्याप्त है। मैंने प्रथम गर्भ के कई उत्सव-समारोहों को ठखा है। परन्तु मेरे लिए यह बड़ा ही दुःखदायक लग रहा है। सुनती हूँ कि मेरे गर्भधारण के कारण ही वर्तमान युद्ध छिड़ा है, इसके पहले कोई बुद्ध छिड़ा ही नहीं था। राजमहल के वातावरण को देखने पर लगता है मानो मेरा जीवित रहना ही अनर्थ का कारण हो। मैं अपने गर्भस्थ शिशु की माँ बनूँगी या उसके लिए मृत्यु ही बनूँगी- - पता नहीं। क्षण-भर के लिए भी मन को शान्ति नहीं। कोई-न-कोई एक न एक बात कहते ही रहते हैं। सच कहती हूँ दीदी, तुम यहाँ हां, इसलिए साँस ले रही हूँ, नहीं तो यह कभी की रुक गयी होती।” कहती हुई उस बेचारी का गला रुंध गया।
"तुम साधारण स्त्री नहीं, पोप्सल महाराज की पाणिगृहीना रानी हो। इस तरह अधीर होओगी तो काम नहीं चलेगा। धीरज से सामना करना होगा। ऐसे समय जितना और जैसा साहस दिखाओगी वैसा ही साहसी और वीर पुत्र जन्येगा ।" “दीदी, तुम्हारे कहे अनुसार हो जाय, यही काफ़ी है। तुम्हारी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूंगी।"
"अभी तो मैंने जो कहा सो बाद रहे। महाराज के आ जाने पर सारे राजमहल का शुद्धिकरण हो जाएगा ।" य दिलासा दे आयी शान्तलदेवी ।
कुछ ही क्षणों में राजमहल में रानी बोप्पदेवी के अस्वस्थ रहने की ख़बर सर्वत्र फैल गयी। राजपरिवार के वैधजी एक दाई के साथ आये और नब्ज की परीक्षा की और बोले, "घबराने की कोई ज़रूरत नहीं। दोनों सामान्य हैं। बहुत चिन्तित हो तो ऐसी दुर्बलता हो सकती है और कमज़ोरी भी आ सकती है। मेरे थैले में अभी देने लायक़ कोई दधा नहीं है। उसे इसी दाई के हाथ भिजवा दूँगा । अथवा कोई दास या दासी मेरे साथ आए तो पुड़िया भिजवा दूंगा। अगर आज्ञा हो तो मैं खुद आकर दबा दे आऊंगा।" पण्डितजी ने कहा ।
चारुकीर्ति पण्डित तो महाराज के साथ गये थे; उनके बदले अब भास्कर
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पण्डित को बुलाना का
"दाई के हो हाथ भिजवा दीजिए" शान्तलदेवी ने कहा।
पण्डित और दाई दोनों चले गये ।
पटरानी जी आयीं। उन्होंने पूछा, "पण्डितजी ने क्या कहा? कोई चिन्ता की बात नहीं है नः"
"कुछ घबराने की बात नहीं। पण्डितजी ने नब्ज़ देखकर कहा है। पुड़िया ढाई के हाथ से भिजवाने की बात कह गये हैं ।" शान्ततदेवी ने कहा ।
"दाई को क्यों आना चाहिए था? हमारी कोई दासी ही गयी होती ?" पद्मलदेवी ने कहा ।
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"मैंने ही स्वयं यह बात कही। पण्डितजी ने कहा भी कि किसी दासी को भेज दें और यह भी कहा कि वह खुद भी आ सकते हैं। बात गर्भवती की है, इसलिए मैंने ही कहा- इतने में ही कोई बात हुई तो दाई के ही आने पर सुविधा भी हो जाएगी।" शान्तलदेवी वाली 1
"सो भी ठीक है, चाहे तो दाई यहीं रहे। "
"देखें परिस्थिति ऐसी हो तो दाई को यहीं रख लेंगे।" शान्तलदेवी ने कहा । पटरानी जी चली गयीं । दाई पुड़िया ले आयी। बोली, "यह चूरन बहुत कड़वा है इसलिए वैद्यजी ने गुड़ के साथ मिलाकर छोटी-छोटी गोलियाँ बनाकर दी हैं। एक के बाद एक करके निगलकर थोड़ा-सा पानी पीना है। इसे खाने के आध घण्टे के भीतर आहार ले लेना होगा।"
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"गोलियों को तुरन्त तो नहीं ले सकतीं, क्योंकि अभी-अभी रानीजी ने आहार लिया है। कम-से-कम तीन चार घण्टे के बाद फिर आहार ले सकेंगी। इसलिए बाद में यह औपनि दी जा सकती है न?" शान्तलदेवी ने पूछा ।
जी ने कहा है- तुम खुद देकर आओ।" दाई बोली ।
"क्यों गोलियाँ निगलना कौन नहीं जानता
"नहीं, ऐसा नहीं, कर्तव्य की दृष्टि से यों कहा है। रहने को कहें तो मैं रह जाऊँगी, नहीं तो चली जाऊँगी।” दाई ने कहा।
"रानीजी से पूछ लेंगे, वे जैसा कहें, करेंगे।" कहकर शान्तलदेवी बोपडेबी की ओर मुड़ी।
वोपदेवी ने कहा, "गोलियाँ मेरे सिरहाने रख दें। भूख लगते ही उन्हें निगलकर बाद में कुछ आहार ले लूँगी। उसे प्रतीक्षा करते रहने की क्या आवश्यकता है इतने में ही कहीं से कोई बुलावा इसके लिए आ सकता है, बेचारी वह यह क्यों रहे?"
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वहाँ और भी चार दाइयाँ हैं।" दाई बोली ।
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"हो सकती हैं। कुछ लोग चाहते होंगे कि अमुक दाई ही ही। तुमने अपने काम में वैशिष्ट्य पाकर नाम पाया है। तुम पर भरोसा रखनेवाले अनेक लोग होंगे। बहतों का यह विश्वास भी हो सकता है कि तुमसे काम सुरक्षित ढंग से सुगम हो जाएगा। राजमहल के लोगों को ये बातें मालूम हैं। तुम्हें भी मालूम होगा नः शीघ्र प्रसव होनेवाली स्त्रियों की सूची तुम्हारे पास होगी ही।"
"चाहे कोई हो, मेरे विचार में राजमहल का काम सबसे प्रथम है।" ___ "राजमहल के विषय में इतना ख्याल रखना तो अच्छा है परन्तु जब राजमहल में आवश्यकता नहीं होगी, तब राजमहल का नाम लेकर दूसरों को जो सेवा मिल सकती है, उससे उन्हें चित करना बुद्धिमत्ता नहीं। हम देख लेंगी; तुम जा सकती हो।" शान्तलदेवी ने कहा।
दाई खड़ी ही रही।
'पण्डितजी अगर आपेक्ष करें और कहें कि तुमने खुद चूरन क्यों नहीं खिलाबा, तो हम स्वयं राजमहल से पण्डितजी के पास खबर भेज देंगी।"
“राजपरिवार को क्यों कष्ट दें, मैं ही जाकर पण्डितजी से कह लूंगी।'' यह दाई अन्तःपुर से निकल पड़ी। उसने यह सोचा ही नहीं कि कोई उसके चलन-वलन पर ध्यान भी दे रहे हैं। अन्तःपुर के बाहर के मुखमण्डप के स्तम्भ की आड़ में वह दामब्दे के साल फर कोनारी, कती रही और पार पण्डितजी के घर न जाकर सीधे अपने घर चली गबी-यह समाचार भी शान्तलदेवी को तुरन्त मिल गया।
दाई ने जो गोलियाँ दी थीं उन्हें सुरक्षित रखवा दिया गया। वास्तव में बोप्पदवी स्वस्थ ही थी। उसे पुड़िया या गोलियों की जरूरत नहीं थी। उसे केवल पौष्टिक आहार और दूध-फल वगैरह की जरूरत थी। राजमहल में इनकी कमी नहीं थी। राजमहल में बोपदेवी के लिए जो भोजन तैयार होकर आता उसे छूने तक न दिया जाता था। गालब्बे जो उनके लिए खानपान तैयार करती बहीं वह खाना-पीया करती।
चामलदेवी और पालदेबी कभी-कभी आकर देख जाया करती थीं।
अकेली गालब्बे से सारा काम संभालना सम्भव नहीं हो सकता था इसलिए शान्तलदेवी ने अपने पिता को यहाँ की सारी बातें समझायीं; यह भी बता दिया कि खुद ने क्या सब किया है। इस सारे पड्यन्त्र की जड़ क्या है और इस बात के पीछे कौन है. इन बातों का पता लगाने के लिए किन्हीं अन्य व्यक्तियों से सहायता लेना उचित होगा या नहीं आदि बातों के बारे में अपने पिताजी से विचार-विमर्श किया शान्तलदेवी ने। पिता ने इन कार्यों में सीमित रूप से मदद देने का आश्वासन दिया। तब शान्तलदेवी ने, जिन-जिन व्यक्तियों पर शंका थी,
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उनको गतिविधियों तथा उनके चाल-चलन पर नज़र रखी।
इधर उधान के कोलगृह के कार्यकलाप चलते ही रहे, बिना किसी रोकथाम के । गालव्ये विस्तार के साथ वाह सारा समाचार शान्तलदेवी को सुना दिया करती थी। गालब्बे ने मलाह भी दी कि इस उद्यान में प्रवेश करना ही मना कर दें तो अच्छा होगा। इसका विचार था कि यहाँ इस उद्यान में ये लोग आपस में मिलते-जुलते रहते हैं और षड्यन्त्र रचते रहते हैं। प्रयेश बन्द करने से यह सब बन्द हो जाएगा।
षड्यन्त्र रचनेवाले यहाँ नहीं तो दूसरी जगह खोज लेंगे। यहाँ इनके मिलते-जुलते रहने पर हमें उन लोगों की गतिविधियों का पता लगता रहेगा। इसके अतिरिक्त अगर हम केलिवन में प्रवेश बन्द कर दें तो इन लोगों को यह सोचने का मौका मिल जाएगा कि इनकी सारी कार्यवाहियों का पता राजपरिवार को लग गया है। उस हालत में ये लोग चौकन्ना हो जाएंगे। फिर कुछ भी मालूम नहीं हो सकेगा। इसलिए अभी जैसा चल रहा है, वैसा ही चलते रहने दें।" शान्तलदेवी ने कहा। अतः वह सब कार्यकलाप ज्यों-का-त्यों चलता रहा।
राजमहत का वातावरण इन बातों के कारण तरह-तरह की परिस्थितियों से अशान्त और कलुषित हो चला था। पटरानी पद्यलदेवी ऊपर से चाहे जैसा भी व्यवहार करें, अन्दर-ही-अन्द! ५.: निर्णय २ शि. से नहान घड़ अपनी मुट्टी में रखेगी।
इधर बाप्पदेवी ने अपने मन में यह निश्चय कर लिया कि विजयी होकर महाराज जन्न लाँटें तब वह उन्हें एक शिशु दे सके। इतनी कृपा भगवान उस पर कर दें, तो फिर देखेगी कि उसका कौन क्या कर सकता है।
अपने-अपने बारे में यही उन लोगों का निर्णय था। पद्मलदेवी यह सोचती रही : अगर शान्तला दोरसमुद्र में रहेगी तो मेरे लिए रुकावट ही बनकर रहेगी, इसलिए उसको यहाँ नहीं रहने देना चाहिए। पर बोपदेवी यह सोचती रही । यदि शान्तला यही रहेंगी तो मैं राजमाता भी बनूँगी, मेरी सम्पूर्ण सुरक्षा वह करेंगी, इसलिए उन्हें यहाँ से जाने न देकर यहीं ठहरा लेना होगा, इसकी व्यवस्था करनी होगी।
चामलदेवी एक तरह से इन सब बातों से अनासक्त थीं। इधर अनावश्यक ही इन बातों में उसका नाम पसीटकर उस पर टोप लगाने की कार्रवाई हो चली थी जिससे परेशान होकर उसने यह निर्णय कर लिया था कि अबकी महाराज के आने पर उनसे अपने पिता के यहाँ जाने की अनुमति ले लेगी। उसे इन झगड़ों के बीच रहना पसन्द ही न था। ___ इस हालत में एक दिन समाचार मिला कि महाराज विजयी होकर लौट रहे
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हैं इसलिए धूमधाम से विजयोत्सव की व्यवस्था हो। वह भी ज्ञात हुआ कि एक सप्ताह के अन्दर ही विजयी महाराज और राजा बिट्टिदेव जयमाला पहने नगर में प्रवेश करेंगे।
दोरस जानन्द के भागने लगा। सर्वत्र आनन्दोत्साह उमड़ रहा था। "अब क्या कहती हैं? गर्भस्थ शिशु घुरा है या अच्छा-इसका निर्णय महाराज की विजय ही करेगी।" बोप्पदेवी ने यह बात सबके सामने नहीं, केवल शान्तला के सामने कही। ___ सन्तोष के अवसर पर व्यंग्य नहीं करना चाहिए। अब सब लोगों को एक होकर एक मन से महाराज का स्वागत करने के सिवाय और कुछ नहीं सोचना चाहिए।" शान्तला ने विवेकयुक्त बात कहीं।
सम्पूर्ण दोरसमुद्र पोय्सल पताकाओं से सज गया । स्थान-स्थान पर मण्डप बन गये। गृहिणियों ने अपने-अपने घरों के सामने लीप-पोतकर चौक परकर सजा दिये थे। जहाँ-तहाँ सारी राजधानी बन्दनबारों से अलंकृत हो उठी थी। अपने महाराज के विजयी होकर नगर-प्रवेश के उत्सव के सन्दर्भ में घर-घर में त्यौहार मनाया जा रहा था। सभी लोग नूतन वस्त्र धारण करके इस उत्सव में भागी होने की तैयारी में थे। राजमहल के भीतर-बाहर सफाई हो रही थी। ___महाराज के विजयी होकर राजधानी पहुँचने के एक दिन पहले, दुपहर को राजमहल में एक सभा का आयोजन किया गया। उसमें प्रधानजी, दोनों मन्त्री, माचण दण्डनाथ, हेग्गड़े मारसिंगय्या, पट्टमहादेवी पद्यला, रानी चामलदेवी, शान्तल देवी उपस्थित हुए। दण्डनाधिका एचियक्का और गालब्बे रानी बोपदेवी के साथ रहीं।
इस सभा में महाराज के आगमन के उपलक्ष्य में आवश्यक रूप से किये जानेवाले कार्यक्रमों की रूपरेखा यों बनी :
प्रधानजी और माचण दण्डनाथ दोनों राजधानी के महाद्वार से एक कोस की दूरी पर नये वस्त्र उपरना आदि देकर महाराज का स्वागत करेंगे। वहाँ से मंगल वाधघोष के साथ उन्हें लिवा लाएंगे। महाद्वार के समीप शेष मन्त्रिगण, अधिकारी वर्ग, प्रमुख पौरजन, पुरोहित वर्ग आदि उपस्थित रहेंगे और पूर्णकुम्भ के साथ महाराज का स्वागत करेंगे। बिरुदावली के उद्घोष के साथ वेदघोष और राजाशीवाद होगा; इसके बाद हौदे से सुसज्जित हाथी पर महाराज और बिट्टिदेव विराजेंगे, वहीं से यह जुलूस राजधानी के प्रमुख राजमार्गों से होकर राजमहल पहुँचेगा। राजमहल के महाद्वार पर पट्टमहादेवी पादोदक से महाराज के पैर धोएंगी, और रानी चामलदेवी पैर पोंछकर शुभ्रवस्त्र बिछाकर महाराज को लिवा लाएँगी; रानी बोप्पदेवी सन्निधान को तिलक करेंगी; तीन एक-एक मल्लिका पुष्पहार सन्निधान को पहनाएंगी।
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इसी तरह रानी शान्तलदेवी राजा बिट्टिदेव के चरण धोकर पोंछने के बाद, शुभ्र वस्त्र बिछाकर उनका स्वागत करेंगी और तिलक देकर मल्लिका हार पहनाएँगी। तदनन्तर दो वृद्ध सुवासिदियो भारती आदी वहाँ मे कहते हुए महा राजमहल के अन्दर के मन्दिर में प्रवेश कर पूजा-प्रणाम के बाद विश्राम करेंगे। शाम के बाद राजमहल के अहाते की सभा में अपनी दो महान विजयों के उपलक्ष्य में नयी विरुदावली से महाराज भूषित होंगे।
अन्तःपुर में दूसरे दिन के कार्यक्रम के लिए तैयारियाँ होने लगीं। सभी का ध्यान इस तैयारी पर लगा था।
इसी समय गालब्बे शान्तलदेवी के पास आयी और इशारे से कुछ बताया। शान्तलदेवी समझ गयी और उससे बोली, "तो बात यों है? तुम पिताजी के पास जाकर कहो कि माचण दण्डनाथ को साथ लेकर आएँ। उन्हें बता दो कि माचण दण्डनाथ किस जगह हैं। जल्दी जाओ। एचियक्का रानी बोपदेवी के पास ही रहें। मैं पट्टमहादेवी और रानी चामलदेवी को साथ लेकर आती हूँ ।"
गालब्बे चली गयी। बाद में शान्तलदेवी पट्टमहादेवी पद्मलदेवी के पास गयी और बोली, "एक जरूरी बात बतानी थी।"
पट्टमहादेवी बोली, "मेरे वस्त्राभरणों का प्रकोष्ठ यहीं पास है, वहीं जाएँगी " दोनों उस प्रकोष्ठ में चली गयीं ।
"सन्निधान बहुत आनन्दित हो लौटे हैं। वे स्वयं रानियों के साथ उद्यान के केलिंगृह में रहना चाहेंगे। उनकी ऐसी इच्छा होना सहज भी है। एक बार वहाँ की सारी स्थिति को अपनी आँखों देख आना उचित होगा। रानी बोप्पदेवी तो नहीं आ सकेंगी। देख आने के लिए न बुलाने पर रानी चामलदेवी भी अन्यथा समझेंगी। मान जाएँगी तो हम तीनों वहाँ हो आएँगी। मैंने नौकरों को पहले ही भेज दिया है। " शान्तलदेवी ने कहा ।
"मुझे सूझा ही नहीं, शान्तला । वास्तव में उस केलिगृह की ओर किसी का ध्यान ही नहीं रहा। भगवान जाने वह किस स्थिति में है! नौकर गये हैं अच्छा हुआ। चलो चलें।" पद्मलदेवी ने कहा। दोनों ने चामलदेवी को भी साथ लेकर उद्यान में प्रवेश किया।
शान्तलदेवी रुकीं। धीमे स्वर में कहा, "मैं आपको एक अद्भुत बात दिखाऊँगी। आप लोगों को चुपचाप आना होगा। कुछ भी प्रत्यक्ष देखें, आपको गुस्सा नहीं करना होगा।"
"इसके माने ?” पद्मलदेवी ने पूछा ।
"कानों से सुनकर, प्रत्यक्ष देखकर ही समझने की बात हैं। इसका निपटारा कल सन्निधान के आ जाने पर उनकी सहूलियत देखकर करेंगे, आइए।" कहती
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हुई साड़ी संभालकर आगे-आगे चलने लगी। इन लोगों ने भी वही किया। आगे चढ़कर वे उस लिगृह के बाग़ में जा पहुंचीं। अन्दर से किसी की बातचीत सुनाई पड़ी। वह यों बात कर रहे थे
“यहाँ आये कितनी देर हो गयी! तुम्हारा क़िस्सा खत्म ही नहीं होता। कल महाराज आनेवाले हैं। कितना काम रहता है। अगर बुलाएँ तो?"
"अरीं बेवकूफ़ अब कौंन बुलाएंगे? सभी का मन महाराज की ओर है। ठीक है। महीनों बीत गये हैं, मिलन की इच्छा का होना सहज ही है। इतनी जल्दी क्या थी आने के लिए, इस महाराज को? अब तो आगे से हम यहाँ नहीं मिल सकेंगे।"
"जितना प्राप्त हो उतने से खुश होना चाहिए। जो करना नहीं, वही कर रहे हैं। वह राजमोग क्या शाश्वत बना रहेगा? इतने दिनों तक जो सुख मिला उससे तुमको तृप्ति ही नहीं मिली ? अभी तक यह सय गुप्त ही बना रहा. समझो कि इसलिए हम जीवित हैं।"
"यह गुप्त रहेगा, खुलेगा नहीं।"
"अब इस बात को रहने दो। पखवारा क्यों, एक महीना ही बीत गया है। हम दोनों यहाँ मिल ही नहीं पाये। वही उस दिन से; जब तुमने दाई के पास से लाकर दया टी थी न?"
"क्या हुआ?" "दवा ली और गर्भपात हो गया।" "तो मैं जीत गया।' "इसके पाने?"
'इसके माने यह कि पण्डितजी ने रानी के लिए जो दवा दी उसे अलग निकालकर रख दी और उस दाई ने तुमको जो दवा दी वही दवा रानी को दिलवायी।"
"छि: तुम कैसे दृष्ट हो! मेरी दशा ऐसी थी. अपनी मान-मर्यादा की रक्षा करनी थी, इसलिए मैंने दवा ले ली थी। रानी को भी वह दवा दिला दी? कैसे चाण्डाल हो तुम!"
"अब कुछ भी कही, जो गाली देना है दे लो। दवा तो दे ही दी और उन्होंने ले भी ली। दवा अपना काम करेगी ही। आज या कल में दवा का परिणाम दिख जाएगा।"
"उस कपबल दाई ने किस साहस से रानी को वह दवा दी?" ''दवा देनेगले तो वैद्य थे न?"
"इसका माने हुआ, सलती वैद्य की होगी। क्या-क्या सोचा है तुमने वह दाई कैसे गयी?"
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"एक तो बात यह कि वह तो खुद पार पा जाएगी। दूसरी यह कि मैंने कहा था, यह काम पट्टमहादेवी को पसन्द हैं, बाद में तुम्हें खूब इनाम दिलवाऊँगा ।" "परन्तु बेचारी पटरानी ने यह तो कहा नहीं था न?"
"इससे क्या ? मुँह से कहा नहीं, पर उनके मन में यह बात थी।” "मन में कुछ भी रहे। वह बुरा काम तुमने क्यों किया?"
"यह सब मत पूछो। किसी लक्ष्य के बिना कोई भी किसी काम को नहीं करता ।"
"मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता। में सब बातें पटरानी जी से कह दूँगी।" "कहो, कौन मना करता है? मैं भी कहूँगा। तुमने अपनी मान-मर्यादा की रक्षा के लिए दाई से यह कहकर कि पट्टमहादेवी के दो महीने लगे हैं, महाराज शहर में नहीं, उनके गौरव की रक्षा करनी है, खूब इनाम दिलाऊँगी, तुम वह दवा दो । और दवा लेकर तुमने अपनी मर्यादा बचा ली। तुम भी कहो, मैं भी कहूँगा।" "हाय हाय ! ऐसा काम मत करो। "
"तुम मुँह बन्द कर चुप पड़ी रहो, सब ठीक हो जाएगा।"
"जाय भाड़ में, कुछ भी करो। तुम जैसे भालू के साथ जो फँस गयी हूँ न !” "बेचारा भालू क्या करता है। यह तो गुदगुदाकरभर
“हाँ, गुदगुदाकर हँसाकर मार डालता है। तुम भी वैसे ही हो, सुख देकर बरबाद भी कर देते हो, ऐसा ही लगता है।"
" अब यह बात क्यों? तुमको कुछ भी तकलीफ़ न हो, मैं इसकी देखभाल कर लूँगा। हुआ न?"
यह सम्भाषण समाप्त हुआ । शान्तलदेवी ने पटरानी और चामलदेवी को आनं का इशारा किया और स्वयं आगे चलने लगी। इशारा पाकर दोनों ने उनका अनुसरण किया। तीनों ने एक साथ केलिगृह में प्रवेश किया।
वहाँ देखते क्या हैं? नग्न स्त्री-पुरुष। तीनों ने एक साथ उन्हें धिक्कारा और आँचल से मुँह बन्द कर लौट पड़ीं। इतने में शान्तलदेवी ने ताली बजायी । दण्डनाथ माचण और मारसिंगय्या तथा कुछ सिपाही वहाँ आ पहुँचे । जब ये तीनों देवियाँ बाहर आ रही थीं, मारसिंगच्या ने कहा, "अम्माजी, हमने सब कुछ सुन लिया है। इन लोगों की गिरफ़्तार कर जेल में रखेंगे। शेष सब काम सन्निधान के लौटने पर ।"
इस घटना का पता किसी को नहीं लगा ।
शान्तदेवी ने पट्टमहादेवी से या चामलदेवी से कोई बातचीत नहीं की। शाम का भोजन और दूसरे दिन के कार्यकलाप की ओर सबका ध्यान लगा रहा । पूर्व नियोजित व्यवस्था के अनुसार महाराज बल्लाल और राजा बिट्टिदेव का [38] :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो
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नगर-प्रवेश और राजमहल में प्रवेश आदि यथाक्रम सम्पन्न हुए।
आनन्दित जनस्तोम ने उमंगभरे हर्षोल्लास के साथ जय-जयकार करते हुए स्वागत किया। इससे महाराज और विट्टिदेय दोनों को सन्तृप्ति मिली थी। उसी दिन शाम को राजमहल के प्रांगण में समाविष्ट बृहत् सभा में महाराज 'जगदव-प्रबलपन्नग-बैनतेय' और 'रिपुजलधि-बड़वानल' की विरुदावली से विभूषित हुए। 'मूाभिषिक्त महाराज होने के नाते हम इन विरुदावलियों को पारम्परिक रीति से स्वीकार करेंगे। परन्तु इन दोनों विजयों की कीर्ति हमारे प्रिय भाई और आप सबके प्रीतिपात्र चिट्टिदेव को ही मिलनी चाहिए। इस विजयोत्सव के सन्दर्भ में 'जग्गदेव-वल-विलय-भैरव' विसद से विट्टिदेव विभुषित होवें-यह हम चाहते हैं।" महाराज ने कहा।
हषोद्गार के साथ ताली बजाते हुए उस महासभा ने अभिनन्दन किया।
ऊँची आवाज से लोगों ने नारा लगाया, "पोयसल सन्तानश्री:..." जनस्तोम ने उत्तर में उद्घोष किया "चिरमभिवर्धताम्।" एक बार फिर तालियों से प्रांगण गूंज उठा।
उस प्रांगण में परकोटे के बुजों पर लगे पोरसल लांछन युक्त शार्दूल-पताकाएँ फहर-फहरकर इन ताली बजानेवालों का साथ दे रही थीं।
फिर सबने एक कण्ठ हा घोषित किया, "रिमभिवर्धता पोय्सत्तसन्ताननीः !'' और मंगलवाद्य-घोष के साथ यह भारी सभा विसर्जित हुई।
सेवा से निवृत्त होने के बाद मरियानं दण्डनायक सिन्दगेरे में शेष जीवन आराम से व्यतीत कर रहे थे। यह कहने की जरूरत नहीं कि ये विजयोत्सव के इस सन्दर्भ में उपस्थित रहे। उपस्थित तो रहे, परन्नु विजयोत्सव आयोजन के सन्दर्भ में कार्यक्रम रूपित करने के लिए जो सभा हुई थी, उसमें उन्होंने भाग नहीं लिया था। तो भी सभी प्रमुख कार्यक्रमों में उपस्थित थे। वास्तव में उनमें पहले का-सा उत्साह नहीं दिखता था। अपनी इन बेटियों ने पृथक्-पृथक् उनसे जो बातें कहीं, उन्हें सुनकर उनका मन शायद आलोडित हुआ हो । बोप्पदवी के गर्भवती होने के समाचार से उन्हें सन्तोष तो था, तो भी इस सम्बन्ध में राजमहल में हुई बातें और यटित घटनाएँ सुनकर उनका मन आलोडित हुए बिना रह भी कैसे सकता था? राज्य के महादण्डनायक के पद पर रहकर उन्होंने बहुत अनुभब पाया तो था ही। सीधे न सही, तो अप्रत्यक्ष रूप से ही, प्रकारान्तर से विषय-संग्रह तो उन्होंने किया ही था। जिन-जिन से उनका व्यक्तिगत परिचय था, उन सभी से उन्होंने जानकारी प्राप्त की थी। सब जानकर भी कहीं कोई प्रतिक्रिया उन्होंने नहीं दिखायी थी।
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बच्चों को भी गम्भीरता से केवल इतना ही उपदेश दिया कि परस्पर मिन्न-जुलकर रहना चाहिए; अपनी पत्नी के कार्य-कलापों के कारण इन बेटियों के जीवन में जो प्रक्षुब्ध परिस्थिति उत्पन्न हो गयी घी उसे बड़ी होशियारी से निवारण करनेवाली शान्तलदेवी के प्रति मरियाने के मन में बहुत गौरव-भाव उत्पन्न हो गया था। उनके साथ भी उन्होंने इन सारी बातों पर विचार-विमर्श किया था। शान्तलदेवी ने भी सारा विवरण न देकर इतना ही कहा था : “सन्निधान के आने पर सब अपने-आप ठीक हो जाएगा।"
विजयोत्सव के बाद चार-पाँच दिन आराम से गुजरे। इसी बीच शान्तलदेवी ने अवकाश पाकर यह सारा मामला विस्तार के साथ बिट्टिदेव को सुना दिया था। सारी बातें सुनकर वह बहुत परेशान हुए। उन्होंने कहा, "राजमहल में बिना देखे-परखे तरह-तरह के लोगों को नौकरी पर लगाने से यही सब होता है। अच्छा, इसे ठीक करेंगे। वास्तव में तुमने जो काम किया है वह प्रशंसनीय है," कहकर शान्तलदेवी की कार्य-कुशलता की सराहना की।
इसके पश्चाः , ए-दो दिन अन्दर ही इस बात की चर्चा हुई कि उन दी व्यभिचारियों का न्याय-विचार हो। इसके लिए सार्वजनिक मंच उचित होगा या नहीं इस बात को लेकर मतभेद था। अतः इसके लिए एक समिति की बैठक हुई। विचार-विपशं होने लगा। इस सम्बन्ध में सभी एकमत नहीं हो सके। वात राजमहल से सम्बन्धित जी है। राजपाल की अन्दरूनी बातों की चर्चा बाहर सभा में करें, यह अच्छा न होगा । जो बातें राजमहल के अन्दर घटी हैं वे लोगों के सामने आएँ और आम लोगों तक पहुंचें, और फिर वे विकृत रूप धारण कर लें तो राजमहल के व्यवहारों से अपरिचित लोगों पर उन बातों का क्या प्रभाव पड़ेगा-ग्रह विचारणीय है। इसे सुनकर विष्टिदेव ने कहा, "राजपरिवार ने कोई ग़लती नहीं की है; बाहर के लोगों ने अपने स्वार्थ साधने की दृष्टि से जो कार्रवाई की है यह भरी सभा के सामने खुल जाब तो इससे दो तरह से लाभ होगा। एक, राजपरिवार के बारे में लोग ग़लत कल्पना नहीं करेंगे, क्योंकि सारी बातों की चची सार्वजनिकों के सामने हो जाएगी। दूसरा यह कि ऐसे चुगलखोरों से राष्ट्र और समाज के लिए जो अहित हो सकता है उसे लोग समझेंगे। समाज ऐसे लोगों को बहिष्कृत कर देगा।" ___ मन्त्रिवर्ग के एक सदस्य ने कहा, “फिर भी यह बात राजपरिवार से सम्बन्धित है।" इसे सुनकर विट्टिदेव ने समझाते हुए कहा, “हेग्गड़ेजी से पूछ लें। बहुत दिन पहले पिरियरसी जी को भी महासभा में बैठाकर न्याय-विचार किया था या नहीं! सुनते हैं कि तय हमारे पूज्य प्रभु भी वहाँ उपस्थित रहे थे। उस न्याय-विचार का पूरा दायित्व, सुनते हैं कि हेगड़ेजी ने अपने ऊपर लिया था।
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और उस न्याय-विचार के बाद, सभी लोगों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा था। स्वयं पिरियरसी जी ने ही यह राय प्रकट की थी। उस समय किस ढंग से न्याय-विचार किया गया था सो उन्हीं से पूछ लें। इस तरह का न्याय-निर्णय राज्य में हमसे भी मिलने का विश्वास प्रजा में निश्चित उत्पन्न होगा। अतः सन्निधान से मेरी या विनती है कि इन लोगों का न्याय-विचार सार्वजनिकों के ही सामने हो।"
"उस समय पिरियरसी जी परिस्थितिवश अज्ञातवास की अवस्था में रहीं। उनकी अनुमति प्राप्त करके ही खुले तौर पर न्याय-विचार करने का आयोजना किया गया था। इसके अलावा, तब अन्य राष्ट्र के गुप्तचर के विषय में न्याय विचार करना था। उस समय का प्रसंग ही अलग है। अब की स्थिति और विषय भी अलग है। प्रस्तुत विषय से सम्बद्ध सभी व्यक्ति अपनं ही राज्य के हैं। वहाँ अज्ञातवास में पिरियरसी जी मेरी बहिन बनकर रहीं इसलिए परिस्थिति इतनी संगीन नहीं थी। परन्तु यहाँ स्थिति भिन्न है। यह बात पांसल रानियों से सीधा सम्बन्ध रखती है अतः उस वक्त के न्चाय-विचार की घटना के साथ इस वक्त की इस बात की तुलना नहीं हो सकती। फिर भी बिट्टिदेव जो कहते हैं वह मेरे लिए मान्य है। पट्टमहादेवी और शेष दोनों रानियाँ भी इस बात को स्वीकार कर लें तो प्रकट रोति से न्यार-विचार हो सकता है।" यों मारसिंगय्या ने विनम्न होकर अपनी राय पेश की।
पहाराज बल्लाल ने कहा, "हेग्गड़े मारसिंगव्या का कथन ठीक लगता है। मैं खुद रानियों से विचार-विमर्श करके निर्णय लूंगा।" यह कहकर इस मन्त्रणा सभा को उन्होंने विसर्जित किया।
इसके बाद महाराज बल्लाल ने सभी रानियों को अपने सीध में बुलाया और कहा, "अब न्याय विचार आमसभा के समन करने की अनेक लोगों की राय है। एक माता-पिता की सन्तान होकर, महादण्डनायक के पद की प्रतिष्ठा से अनुरूप अपने मायके के गौरव को टुकराकर, पोय्सल राजपरिवार की बहुएँ बनकर इस राजवंश की प्रतिष्ठा का भी विचार न करके तुम लोगों ने अनपढ़ गँवारों की तरह, संस्कार-शून्य फूहड़ औरतों जैसा, अपनी मूर्खता को थोड़ा-बहुत प्रदर्शित कर ही दिया। इसी मूर्खता के परिणामस्वरूप तो यह न्याय-विचार होनेवाला है! बह न्यायविचार आमसभा में होने पर तुम लोगों को सदा ही लज्जा से सिर झुकाये रहना होगा। इस तरह के ऊल-जलूल कामों को छोड़कर, अपने आपसी मनमुटाव को भूलकर एक परिवार के लोगों जैसे रहकर, पायके तथा ससुग़ल दोनों घरानों की कीर्ति बढ़ाने का आश्वासन देकर अन्तरंग न्याय-विचार के लिए तैयार होओगी तो हमको बता दो। तात्कालिक रूप से एक होने का आश्वासन देकर आगे फिर वही पुरानी चाल चलोगी तो उस हालत में हम क्या करेंगे, उसे अभी कह नहीं
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सकते। तुम पोयसल वंश की रानियां हो, इस वजह से तुम्हारी राय लेकर हमें यह निर्णय करने की अनुमति मन्त्रणा समिति से प्राप्त है कि यह न्याय - विचार सभा ख़ास लोगों की हो या सार्वजनिकों की। इसलिए तुम लोगों की निश्चित राय क्या है-सी बता दो ।"
"हम बहिनों में भिन्नमत होने के लिए मौका ही नहीं आना चाहिए था, पर किसी कारण से मतभिन्नता आ गयी। इसका दुरुपयोग पास के लोगों ने कर लिया है। हम बलिपशु जैसी मूक हो गयी हैं। फिर भी हमने अपनी इस ग़लती को पहचान लिया है। भरी आपसमा के सामने बैठकर सामना करने का साहस हममें नहीं है, इसलिए यह न्याय- विचार बहिरंग सभा में न हो यही अच्छा होगा ।" पद्मलदेवी ने कहा। अन्य रानियों ने भी ऐसी ही अपनी सहमति प्रकट की ।
वल्वाल ने वही निर्णय किया कि मन्त्रणालय में सीमित गोष्टी के सामने न्याय-विचार हो और इस कार्य के लिए दूसरे दिन सभा बुलाने का आदेश दे दिया
गया।
महाराज के आदेशानुसार राजमहल को विस्तृत करते वक़्त निर्मित विशाल मन्त्रणायलय में न्याय-विचार करने के लिए सभा बैठी महाराज बल्लाल, पाँचों सचिव, सभी दण्डनाथ, बिट्टिदेव, उदयादित्व, तीनों रानियाँ, शान्तलदेवी, मरियाने दण्डनायक हेग्गट्टे भारसिंगय्या, दण्डनायिका एचियक्का वे ही सब लोग उस सभा में उपस्थित थे ।
कामुकी दामब्वे, व्यभिचारी बाचम, वैद्य भास्कर पण्डित, दाई, दामचे का पति बिदियम, गालब्बे और कुछ दास-दासियाँ भी उस सभा में बुलाये गये थे ।
शान्तला ने विचारणीय विषय को विस्तार के साथ सभा के सामने पेश किया। बाचम और दामब्बे के बीच का अनैतिक सम्बन्ध इन लोगों ने महाराज के केलिगृह का उपयोग किस तरह से किया, किस-किस ढंग से अण्ट-सप्ट बातें कहकर रानियों में परस्पर असूया और असमाधान पैदा किया, किस तरह से किन-किन के समक्ष दामव्वे और बाचम को गिरफ्तार किया गया, और इन लोगों ने क्या काम किया आदि सभी बातों को विस्तार के साथ उपस्थित सभासदों को बताया । "ऐसे लोगों को राजमहल में ही नहीं, अन्यत्र कहीं भी इस राष्ट्र में नौकरी करने देना खतरनाक है। इन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए।" शान्तलदेवी का यह भी प्रस्ताव था ।
आपादित अपराधियों से सवाल किया गया। उन लोगों ने जवाब दिया, "यह बात सच है कि हमने केलिगृह में अनैतिक सम्बन्ध किया। नमक मिर्च खानेवाला शरीर ही इसका कारण है। रानीजी स्वयं पूछत तो ज्ञात विषय बता देते थे। नौकर
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होने के कारण बता देने से कोई ग़लती नहीं, यह हमारी भावना रही। हम इस अनैतिक सम्बन्ध के लिए क्षमा माँगते हैं, चाहें तो हम पति-पत्नी बनकर रहने के लिए तैयार भी हैं।"
यह सुनकर बल्लाल ने कहा, "तुम लोगों का अनैतिक सम्बन्ध प्रासंगिक हैं, उसे एक बार छोड़ दें, पर सबसे बढ़कर दोष तो यह है कि गर्भवती रानी को गर्भपात की दवा देने का षड्यन्त्र तुम लोगों ने किया। यह काम तुम लोगों को भ्रूणहत्या और राजद्रोह के कारण महापराधी ठहराता है। एक अपराध की स्वीकृति की आड़ में दूसरे महापराध से छूट नहीं सकते हो।"
" वह सब मनगढन्त है। हमारे अनैतिक सम्बन्ध का कारण ही दूसरा हैं । कहीं किसी में असूया उत्पन्न हुई, उससे हमें तकलीफ़ में डालने के लिए यह सव किस्सा गढ़ लिया गया है। इसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं ।" इसी आशय का प्रतिपादन उन दोनों ने किया।
फिर बैद्यजी से प्रश्न किया गया। उन्होंने कहा, "राजमहल से बुलावा आया । गर्भवती गनीजी अस्वस्थ हैं, तो अकेले आना उचित न समझकर एक निपुण दाई को भी साथ लेने आया और परीक्षण का कार्य किया। मैंने कहा कि मैं स्वयं दवा तैयार करके लाऊँगा । आदेश हुआ कि दाई के जरिये भेज देना पर्याप्त है। तो मैंने दाई के हाथ चूरन की पुड़िया भेज दी। फिर मुझे बुलावा राजमहल से नहीं मिला। समाचार मिला कि रानीजी कुशल हैं, अतः मैं चुप रह गया। इससे अधिक मैं कुछ नहीं जानता ।"
तब शान्तलदेवी ने पूछा, "आप और दाई दोनों राजमहल से एक साथ निकले। तब दाई आपके साथ आपके यहाँ गयी ?"
वैद्य ने चकित होकर शान्तलदेवी की ओर देखा और कहा, "नहीं गयी। "चूरन तैयार कर रखिए, मैं इतने में आ जाऊँगी। पटवारी चन्दिमय्या की बहू के प्रसव के दिन निकट हैं, एक बार देख आऊँ कहकर वह चली गयी और क्रुद्ध समय के बाद ही हमारे यहाँ आयी । परन्तु यह बात यहाँ तक पहुँची हैं, यह आश्चर्य है !"
"यही नहीं इससे भी अधिक आश्चर्यजनक बात और निकलेगी। हमारे कहलवाने से पहले सत्य बात ज्यों-की-त्यों कह दें तो अच्छा! " शान्तलदेवी ने दाई से प्रश्न किया।
उसने कहा, "पण्डितजी का कहना ठीक है। मैं पटवारी के घर जाकर वहाँ से पण्डितजी के घर गयी। इतने में चूरन तैयार कर पुड़िया मेरे हाथ में उन्होंने दी और दवा लेने का विधान समझाया और कहा, तुम स्वयं जाकर उक्त प्रकार से दवा खिलाओ। मैंने उसे राजमहल में दिया। रानीजी ने आहार ले लिया था ।
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इसलिए बाद में दबा लेने की बात बतायी गयी। मैं चली गयी।"
"कहाँ चली गयी?"
"सीधे अपने घर ।"
"नहीं। तुम इस बाचम के साथ केलिगृह में गयी।" "केलिंग दाई ने आश्चर्य से पूछा ।
"सवाल मत करो। मानां तुम जानती ही नहीं! तुम उस दिन जैसा पण्डितजी से कहा था, पटवारी चन्दिमय्या के यहाँ नहीं गयीं। तुम गयीं बाचम के घर । उसके बाद पण्डितजी के घर गयीं। वहाँ से अपने घर गयीं। अनन्तर राजमहल आकर पण्डितजी की दी हुई बताकर तुमने दया की पुड़िया दी।"
दर्द की छत पर उटी
"सच-सच कहो!" शान्तलदेवी ने कहा ।
"तो क्या मुझे चक्कर में डालकर मुझसे यह कहलवाना चाहती हैं कि मैंने जो दवा पाण्डतजी ने दी थी, उसे नहीं टी और दूसरी ही कुछ दी है?"
“भ्रूणहत्या, प्राणिहत्या करनेवाले कभी चक्कर में नहीं पड़ते। छूटने के लिए चक्कर में पड़े हुए-से अभिनय किया करते हैं। जैसा तुमने कहा, तुम वह दया जिस पांण्डतजी ने दी थी, न देकर कुछ और ही दे गयी हो ।”
"झूठ मेरा इस बाचम के साथ अनैतिक सम्बन्ध है। उसने कहा कि राजमहल के उस केलिगृह में जो सुख मिलता है वह स्वर्ग में भी नहीं मिलता। मेरी भी इच्छा हुई । राजमहल में आने का मौका भी मिला तो इस मौके का उपयोग करने की ख़बर देने के लिए मैं उसके घर गयी थी ।"
उसे स्वीकार कर लेने पर भी पण्डितजी के घर से फिर अपने घर क्यों
गयी ?"
"मेरे वे दिन गर्भधारण करने के लिए अनुकूल दिन थे, केलिगृह के सुखानुभव के फलस्वरूप कहीं हमल टिकने में सहायक न हो जाय, इस इरादे से गर्भनिरोध की व्यवस्था कर लेने के इरादे से घर गयी थी।"
"गर्भपात की व्यवस्था के साथ-साथ उसके निरोध की भी व्यवस्था में तुम सहायिका बन सकती हो
"दोनों होने से बहुतों की आन बच जाती है ।"
“इन असम्बद्ध बातों को सन्निधान के सामने मत बको। तुमने जो कुछ कहा, वह सब झुट है। तुम घर से गर्भपात की दवा लायीं। उसे रानीजी को खुद खिलाना भी चाहती थीं ।"
"आपकी बात को असत्य ठहराने के लिए यहाँ साक्षी होकर स्वयं रानीजी मौजूद हैं। नैतिक रूप से गर्भधारण करनेवालों को हम गर्भपात की दवा कभी नहीं
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देती।"
"तो मतलब यह कि तुमने रानीजी को गर्भपात की दवा नहीं दी, वही दवा दी जो पण्डितजी ने दी थी-यही कहना चाहती हो?"
"हाँ, यह सच हैं।''
मार, उसी क; इधर ले आ के कहने पर गालब्बे जिस धैली को नाची उसको दिखाते हुए शान्तलदेवी ने पूछा, “यह थैली किसकी है?"
"यह मेरी है। यह यहाँ कैसे आयी?"
"वहाँ नहीं आयी; उस केलिगृह में लुढ़की पड़ी थी। अय भी तुमसे पूछती हूँ सच बात कह दो।" शान्तलदेवी ने पूछा।
"सत्य हमेशा सत्य ही रहेगा। कह चुकी हूँ।"
"टीक, पण्डितजी आप इधर आइए।" थैली देते हुए शान्तला ने कहा, इसमें एक पुड़िया हैं, देखकर बताएँ कि वह आपकी दी हुई है या नहीं।"
“हों, यह पुड़िया मैंने ही दी थी, इसे खोला तक नहीं!" चकित होकर पण्डितजी ने पुड़िया हाथ में लेकर देखते हुए उस दाई की ओर देखा।
''गालब्बे, उस दूसरी पुड़िया को इधर ले आ।" गालब्बे ने उस दूसरी पुड़िया को लाकर शान्तलदेवी के हाथ में दिया। उसे पण्डितजी को दिखाते हुए पूछा, "क्या इस पुड़िया को भी आपने इस दाई के हाथ में देकर रानीजी को देने के लिए कहा था।" ___ "नहीं न। इस तरह की पुड़िया मेरे पास से जा ही नहीं सकती। इतनी मोटी गोलियों देने जैसा कुछ नहीं हुआ था न, रानीजी को। परीक्षा की थी, दोनों नाड़ियों की गति सपर्पक थी। केवल कुछ कमजोरी को दूर करने के लिए चूरन दिया था 1 यह तो मैंने नहीं दिया!"
शान्तलदेवी ने पूछा, "बताइए उसमें क्या चीज है?"
पण्डितजी ने पुड़िया खोली। देखा तो गुड़ की टिकियाँ! उन्हें तोड़कर देखा, अन्दर काली-सी कोई चीज दिखी। सूंघकर देखा, मुँह से निकला-“छि:-छिः।"
महाराज बल्लाल ने पूछा, "क्या है वह ?"
"यह मशकारि पाषाण शहर है। वैद्यक न जाननेवाली, अनैतिक व्यवहार करनेवाली व्यभिचारिणियाँ अनैतिक गभं को गिराने के लिए इसका इस्तेमाल करती हैं। शुरू-शुरू में ही यह कारगर हो सकता है। परन्तु यह पाचनशक्ति पर बहुत बुरा असर करता है।" भास्कर पण्डित ने बताया।
"ठोक, अब बताओ, तुमने किस मतलब से इसे लाकर रानीजी को दिया?"
"यह मेरा दिया हुआ नहीं हैं। मुझ पर दोष लगाने के ख्याल से की गयी युक्ति है।' कहकर दाई ने विरोध किया।
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"अभी सत्य कहने का तुम्हारा मन नहीं हुआ। इस स्त्री के आने के बाद इसके घर पर सिपाहियों का पहग रखा गया है। इसके साथ चार सिपाही जाग
और यह प्रसव कराने के समय अपने साथ जो पेटी लेती जाती है, उस पेटी को इसी के हाथ दुलवा लाएँ। उस पेटी में ऐसी गुड़ की टिकियों कितनी हैं, उन्हें निकालकर यह अपने ही हाथ से सन्निधान को दिखाएँ।" शान्तलदेवी ने कहा।
___ अब इस दाई का मुँह फीका पड़ गया। "ह्यय' मैंने कैसी बेवकूफी की उन गुड़ की टिकियों को उठाकर! दूसरी पेटी में रख दिया होता तो अच्छा होता! अब तो किसी को धोखा दे नहीं सकती। हाय' अब तो फंस गयी!" यों अपने आप में कहती हुई प्रश्नार्थक दृष्टि से बाचम की ओर देखने लगी। __“हाँ, क्ताओ; पोय्सल रानी के गर्भपात कराने में तुम्हें क्यों यह अभिरुचि हुई ? ऐसा काम करने की प्रेरणा तुम्हें किसने दी: जिसने तुम्हें प्रेरित किया उसे भी क्या फायदा मिलेगा?" बल्लाल महाराज ने पूछा।।
''यह सथ मैं नहीं जानती। मैं वाचम के साथ रहती हूँ। उससे मुझे देह का सुख मिन्नता रहा हैं। वह जैसा कहे वैसा करना मात्र मेरा काम रहा हैं।'' दाई ने कहा।
"उसके साथ तुम्हारा यह सह-जीवन कितने समय से है?" "छह-सात साल से।" "यह सम्बन्ध हुआ कैसे?''
''मेरी शादी के बाद तीन-चार साल के अन्दर पनि मर गया। ससुगल बालों ने कुलच्छनी, पति को निगल जाने वाली कहकर मुझे घर से बाहर निकाल दिया। उस हालत में छोटे गाँव में गुजर करना मुश्किल लगता था। गजधानी में कहीं कोई काम मिल जाय तो अच्छा होगा, बड़ा शहर है-वही सोचकर यहाँ चली आयी। अब यहाँ आयी तो एक दाई हालचब्बे से परिचय हुआ। काफी वृद्ध थी वह । उसी के पास मैंने काम सीखा। छोटी-पोटी बीमारियों के लिए दवा-दारू करना भी उसने सिखाया। बड़े-बड़े आदमियों के यहाँ वह जाया करती। उसके मरने के बाद उसका काम मुझे मिल गया। फिर भी अकेली रहकर जीना अखरता था। बाथम ने इस कमी को दूर कर दिया। उसके साथ रहने लगी तो इसने इस तरह के अनैतिक गर्भपात कराने को प्रेरणा दी और जबरदस्ती यह काम कराया। मैंने कहा कि ऐसा काम नहीं करना चाहिए। 'बड़े लोग कुछ असावधानी से यदि ऐसा काम कर बैठे तब हम छोटे लोग इस तरह मदद कर देंगे तो उनका गौरव बच जाएगा और उनकी हैसियत के प्रभाव से हमें फायदा भी मिलेगा' उसने यों लालच दिखाकर मुझसे यह कराया। हमारे गाँव में एक बुढ़िया थी, वह कहा करती थी, मशकारि पाषाण को गुड़ में मिलाकर खिलाने से गर्भपात हो जाता है। मैंने जिस किसी को
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यह दवा दी उन सबका गर्भपात हुआ है। कुछ दिनों से वह मुझसे यह कह रहा था कि रानीजो को यह दवा देकर गर्भपात करा देना चाहिए। पण्डितजी ने जन मुझे बुलाया तब मैंने सोचा कि इसके लिए मुझे बहुत अच्छा मौका मिला। गर्भ के अधिक समय बीत जाने के कारण मैंने दवा की मात्रा बढ़ाकर ला दी थी। उससे पूछा, 'ऐसा अन्याय क्यों करना चाहते हो?' उसने कहा, 'इस सबसे तम्हें क्या मतलब जो कहता हूँ सो करो; इससे अपना भला होगा। मैंने पूछा भी कि अगर कुछ उल्टा-सीधा परिणाम हो तो ? यह बोला, 'उससे तुम्हारा क्या बिगड़ता है। पण्डितजी ने जो दिया उसे मैंने ला दिया, कह देना।' जब यह खबर मिली कि गर्भ गिरा ही नहीं तो हमें शंका होने लगी कि दवा की मात्रा शायद कम रह गयी। इसके लिए कुल और उपाय करना चाहिए-यह बात सोच ही रहे थे कि इतने में यह साग रहस्य खल गया।' सारी बातें स्पष्ट रूप से एक ही दम में कह डाली उस दाई ने। वास्तव में वह वहाँ से जितनी जल्दी हो सके भाग जाना चाहती थी।
यह सुनने के बाद बाचम से पूछा गया। ''सब लोग मुझे फँसाने के लिए दोष मुझ पर ही लगा रहे हैं। यह सच है कि मैं औरतों के साथ मिलनसारी से बरतता हूँ। वही खुद मेरे पास आती है तो मैं मना क्योंकर करूँ! मैं भी जीवन से निराश हो गया हूँ, घृणा हो गयी है। जी भी छोड़ा-सा सुख मिल जाय उतना ही सही-यही समझकर मैं इसके साथ रहने लगा। इससे ज़्यादा मैं कुछ नहीं जानता। जहर खिलाकर मार डालना या गर्भपात कराना तो वैद्य और दाइयों के खास काम हैं। धन के लालच में पड़कर उन्होंने यह सब किया होगा। इसका सूत्रधार कोई और होगा। इस सम्बन्ध में सच्ची बात वैधी और इस दाई के ही मुंह से निकलवाइए। मैं कुछ नहीं जानता।"-यों बाचम ने शान्त रीति से अपनी दलील पेश की।
मारसिंगय्या तब तक बैठे सब बातें शान्त होकर सुनते रहे। वे उठ खड़े हुए और बोले. “मैं सन्निधान के समक्ष एक-दो बातें निवेदन करना चाहता हूँ। यह उचित अवसर भी हैं। आज्ञा हो तो निवेदन करूँ"
"क्या बात आज के विषय से सम्बन्धित है?" बल्लाल ने पूछा।
''मैं वह तो नहीं कह सकता कि इस विषय से सीधा सम्बन्ध रखती है। परन्तु इस बात के पता लगाने में कुछ नवी रोशनी मिल सकती है तथा यह व्यक्ति कौन है और हम इसकी बातों पर कितना विश्वास रख सकते हैं इन बातों को समझने में सहायक भी हो सकती है। बाद में इस समय जो न्याय-विचार हो रहा है उससे सम्बन्धित बातें भी प्रकट हो सकती हैं। मारसिंगय्या ने कहा।
“इसकी जड़ कहाँ है- यह समझना है। इसके लिए सभी बातों की आवश्यकता है। काहिए।" बल्लाल ने कहा।
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"जो आज्ञा।" कहकर मारसिंगय्या ने झुककर प्रणाम किया और कहने लगे,. "अब तक इस व्यक्ति को बाधा नाकर सा विार को रा] , इस.ए इसके बार में कुछ अधिक बातें मालूम नहीं हो रही हैं। बहुत दिनों तक मैं भी सचमुच यही सपझ रहा घा कि यह बेलुगोल से काम की खोज में आया हुआ वाचम है। हमारी अम्माजी ने कहा कि इसका चालचलन सन्तोषजनक नहीं, इसलिए में किसी को बताये दिना इस व्यक्ति के बारे में अधिक बातें जानने के प्रयत्न में लग गया। इस सन्दर्भ में एक बात प्रकट हुई। यह आदमी हमारे बड़े महादण्डनायक मरियाने के दूर का कोई रिश्तेदार है। अगर उनका रिश्तेदार है तो कुछ गण्यमान्य व्यक्ति होना चाहिए? फिर नाम बदलकर वहाँ नौकरी करने भला क्चों चला आया :-इस बात का रहस्य मालूम नहीं पड़ा। अकारण कोई नकली नाम रखकर जीवन व्यतीत नहीं करता। कुछ रहस्यमय विषयों का मूल यही होगा-या सोचकर इसके बारे में सभी बातों की जानकारी प्राप्त की। भाग्यवश दण्डनायक जो भी यहाँ उपस्थित हैं। इससे मेरी जानकारी के विषय में सत्यासत्व की परीक्षा भी हो सकती हैं। इसका असली नाम आचण हैं।'
"क्या यह वहीं आचण है?" अपने आश्चर्य को रोक न सकने के कारण महादपढ़नायक जी जहाँ बैठे थे वहाँ से उठकर उसकी ओर आने लगे।
"तो मलाच हुआ कि हेग्गड़ेजी के कथन में कुछ खास बात जरूर हैं। इस आचण के विषय में महादण्डनाचक जी को भी काफ़ी बातें मालूम होनी चाहिए। बता सकते हैं कि वे बातें क्या हैं?" बल्लाल ने पूछा। __महादण्डनायक मरियाने ने धीरे-से झुककर प्रणाम किया और कहा, "सन्निधान का कहना सही हैं। यह अगर आचण ही है तो इन घटनाओं के होने के लिए कारण भी है। ऐसा मुझे लग रहा है। पहले निश्चय कर लूँ कि यह आचण ही है या नहीं। बाद में छिपाव-दुराव के बिना, जितना इसके बारे में मैं जानता हूँ, सन्निधान के समक्ष निवेदन करूँगा।" कहते हुए परियाने दण्डनायक उसके पास गये।
''यह तो आधण ही है। कोई तुरत न पहचाने इसके लिए ये लम्बी दाढ़ी बढ़ा ली है। यह यहाँ कब काम पर लगा?" मरियाने ने पूछा।
"शायद दण्डनायक जी के सिन्दगैरे जाने के एक पखवारे के बाद।" प्रधान गंगराज ने कहा।
“आप भी इसे न पहचान सके, प्रधानजी?" मरियाने ने पूछा । ''कभी एक बार देखा था, कैसे याद रह सकेगा?' प्रधान ने कहा ।
-'मेरे सिन्दगेरे यार बसने के वाद, इसी भरोसे से वह यहाँ आकर बस गया हैं। परन्तु बिट्टिदेवरस जी के विवाह के सन्दर्भ में देखा-सा स्मरण नहीं न।"
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"आपकी दृष्टि से बचकर निकलता रहा होगा। भीड़ में यह सब सहज है । अलावा इसके, उस समय आप बहुत दिन यहाँ ठहरे भी नहीं।" गंगराज ने कहा । "ठीक, अब सन्निधान के समक्ष निवेदन करूँगा।” मरियाने ने आचण की तरफ़ एक तेज दृष्टि डाली और महाराज की ओर मुड़कर बोले, "यह एक बार यह कहकर कि हमारा दूर का रिश्तेदार है, हमारे यहाँ आकर ठहरा। यह बहुत पुरानी बात है। मुझे याद पड़ता है कि शायद सन्निधान के उपनयन के अवसर की रही होगी । इसने कुछ काम माँगा। मैंने कहा, 'देखेंगे, फ़िलहाल घर पर कोई काम करते रहो ।' घर पर काम करता हुआ अभी थोड़े दिन ही बीते थे तब इसने हमारी बड़ी लड़की का पीछा करना, और उसे बुरी नजर से देखना शुरू किया । एक दिन लड़की फुलबारी में थी तो इसने उसका आँचल पकड़कर खींचना बाहा । इस बात को लड़की ने अपनी माँ से कहा। जब इसने आँचल खींचा तो वह गुस्से में हो आयी और उसको खूब जोर का एक चाँटा जड़ दिया । अष्टकोण आकृतिवाली अंगूठी, जो उसकी उँगली में थी, इस आदमी के गाल पर लगी तो वह छिल गया और चाव से खून बह गया था। आज भी उस घाव का चिह्न इस आदमी के गाल पर हैं। शायद इतना गुस्सा आया कि यह सह न सकी, इसलिए ऐसा चाँटा मेरी इस बड़ी लड़की ने मारा था। घाव की चिकित्सा करवाकर उसे राजधानी से निकाल दिया गया था। एक-दो साल बाद वह फिर आया। अब हालत अनुकूल है पहले कभी बनन में ग़लती की उसे क्षमा कर दें और आपकी लड़की से मेरा विवाह कर मेरे वंश को बढ़ाने में सहायता करें। उसने मुझसे पूछा । 'ऐसी बात ही मत कहो । बड़ी लड़की का विवाह तो निश्चित हो ही गया हैं ।' मैंने भलमनसाहत से कहा। फिर उसने पूछा, किसके साथ?' ती मैंने कहा, 'भावी पोय्सल महाराज बल्लाल राजकुमार के साथ।' तब मुझे प्रकारान्तर से यह मालूम हुआ था कि सन्निधान ने मेरी लड़की को वचन दिया है। यह सुनकर वह चुपचाप चला गया। यों तो वह आया ही था तो मैंने सहपंक्ति खिला-पिलाकर भेज दिया था। उसके चले जाने के बाद मेरी बड़ी लड़की ने आकर कहा, 'वह महाधूर्त व्यक्ति हैं, इसकी दृष्टि बहुत बुरी है। इसे कभी घर पर आने न दीजिए। यहीं इस घटना का अन्त हो गया, मैं यही समझ रहा था। इस बीच मेरी पत्नी की जल्दबाजी और बेवक़ूफ़ी के कारण प्रभुजी की अकालमृत्यु हो गयी, इससे आन्तरिक असमाधान की स्थितियों उत्पन्न हो गयीं और विवाह की बात ही स्थगित हो गयी। मेरी बेटी ने स्पष्ट कह दिया था कि यदि बल्लालकुमार से उसका विवाह नहीं हुआ तो वह कुएँ-तालाब में गिरकर जान दे देगी। हमें कुछ कह सकने की स्थिति नहीं रही। उस हालत में यह आदमी फिर आया और बोला, 'हुई न शादी, जिसे पा नहीं सकते उसे पाने की कोशिश की, न पा सके;
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अब पछताने से क्या? मुझसे उसका विवाह कर दें।' मैंने कहा, 'तुमसे शादी कर दूं तो वह कुएँ में कूदकर जान दे देगी।' उसने कहा, 'वही हो, ऐसा कुछ आग्रह नहीं। आपकी लड़कियों में से कोई भी सही। आपकी लड़की से विवाह होने पर मेरी भी कष्ट हस्ती-हैसियत बढ़ सकती है-यही बात है। वात वहाँ तक बढ़ गयी। 'मेरी और तुम्हारी समानता कैसे हो सकती है: तुम अपनी हैसियत की किसी और से शादी कर लो।' 'आपकी योग्यता को सभी जानते हैं न? विनयादित्य महाराज ने आपको इतना ऊपर उठाया। आप भी बड़े आदमी बने। क्या मैं आपकी दृष्टि में छोटा है। उसने मेरे मुंह पर सा ! मैं स्पष्ट कह दिया, 'मैं तुम्हारे हाथ में अपनी लड़की को डालकर तुम्हारे वंश को बढ़ाने का मौका नहीं दूंगा। चाहे मैं अपनी लड़की को भगवान के नाम पर छोड़ दूं, पर यह हो नहीं सकेगा। अब तुम तुरन्त यहाँ से निकल जाओ, एक क्षण-भर के लिए भी यहाँ नहीं ठहरना। ठहरोगे तो तुम्हारी जान नहीं बचेगी', कहते हए मैंने अपनी कमर में खोसी हुई खुखरी को हाथ में निकाल लिया था। कभी मुझे इतना गुस्सा नहीं आया था। वह मुझे देखते हुए इर से पीछे हटने लगा। मैंने उसे चेतावनी दी, फिर कभी इस महल में कदम रखा तो तुम्हारी दशा क्या होगी -कह नहीं सकता।' मैंने इस आदमी पर नज़र रखने का आदेश दिया था। बाद में मैंने सुना, यह कि 'मैं इनके बराबर कैसे नहीं हूँ, दिखा दूँगा कि बराबर का हूँ या नहीं। देखूगा कि इस वंश की वृद्धि कैसे होती है:' कहता फिरता था। यही उसकी वरावरी को प्रदर्शित करने की रीति मालूम पड़ती है? अपनी इच्छा पूर्ण न हो सकने के कारण इस तरह वंश के अंकुर का नाश कर देने का प्रयत्न इसने किया होगा-यह विश्वास किया जा सकता है। यह महाधूर्त है, कुछ भी कर सकता है। ऐसे हीन मनुष्य को अपनी बराबरी का कैसे मान सकते हैं? यह अपराधी है, इसमें कोई सन्देह ही नहीं।" मरिवाने ने स्पष्ट किया।
"आपको और कुछ कहना है, हेग्गड़ेजी?'' बल्लाल ने पूछा।
"ज्यादा कुछ नहीं। ऐसे लोग मौजूद हैं जिन्होंने इसकी यह बात सुनी है कि 'वंश को बढ़ने न दूंगा।' चाहें तो उन्हें बुलवा लेता हूँ।" मारसिंगच्या ने कहा।
"अगर वह महादण्डनायक जी की बात को अस्वीकार करे तो बुलवाना ही पड़ेगा। उससे पूछिए क्या कहता है।" बल्लाल ने आदेश दिया।
"उन्होंने जो निस्सा सुनाया बह सच हो सकता है। अपने गत-जीवन को भूलकर अपने पद-गौरव की साक्षी के रूप में अपनी रामकहानी उन्होंने साफ़-साफ़ बता दी। उन्होंने जिस आचण की बात कही उससे ये टीक बरतते तो वह ऐसी बात कहता या नहीं, कौन बता सकता है? गुस्सा आया, सहज ही हैं, कह दिया और चला गया। इस घटना को मेरे ऊपर क्यों थोपा जा रहा है? मैं आचण नहीं
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हूँ। दण्डनायक जी ने जो सब बताया उसके साथ मेरा कोई सम्बन्ध ही नहीं। मैं वाचम हूँ। बेलगोल का हूँ। चाहें तो बेलगोल से किसी को बुलवा लीजिए। हेगड़े की बेटी के गुरु वहाँ है । माज बा तो उन्ही को बुलाकर व्याप्त कर हो । उन्होंने पोयसल राजाओं की उदारता आदि गुणों की बहुत प्रशंसा की हैं। इससे प्रभावित होकर मैं काम खोजता हुआ इधर आया था। उन्होंने अपने बलिपुर के जीवन, हेग्गड़ेजी की बेटी को पढ़ाना, चालुक्य पिरियरसी का आकर वहाँ ठहरना, धारानगरी के गुप्तचरों का पता लगाना, हेग्गड़े परिवार के प्रति अपनी प्रशंसा आदि सभी बातों का परिचय दिया है।" बिलकुल शान्त भाव से कहा उस आदमी ने।
इतने में एक नौकर ने आकर झुककर प्रणाम किया। "क्या हैं?" बिट्टिदेव ने पूछा।
"रावत मायण किसी को साथ ले आये हैं। कहते हैं कि अभी-अभी आये हैं। यह भी कह रहे हैं कि आते ही सन्निधान के दर्शन करने का आदेश था। नौकर ने कहा।
बिट्टिदेव ने महाराज की ओर देखा। महाराज ने कहा, "वुलवा लो।"
नौकर चला गया। तब बल्लाल बोले, “बड़ी अजीब दुनिया है। कैसे-कैसे लोग रहते हैं। देखकर आश्चर्य होता है।"
बात अप्रासंगिक लगी। एक बिट्टिदेव को छोड़कर बाकी सबने महाराज की ओर. फिर दरवाजे की और देखा । शान्तला को मायण का नाम सुनते ही कुछ आश्चर्य-सा हुआ था। वानी रानियों को भी आश्चर्य होने लगा। वह अपने खास काम से गया था, महीनों बाद आया है। शीघ्र ही मायण एक अन्य को साथ लेकर 'भीतर आया और झुककर प्रणाम किया।
आसन दिखाकर उनसे बैटने को कहा गया। दोनों बैठ गये।
महाराज ने अपराधी की ओर देखकर कहा, "कहो, सच के बिना तुमको छूट नहीं मिलेगी। बेलगोल से उन लोगों को भी बुलवाएँगे। वे तो अभी-अभी हाल में वहाँ गये हैं। तुमसे भी पहले वहाँ जो गये है, उन्हें भी बुलवाएंगे। वहाँ के हेग्गड़े को भी बुलवाएंगे। उन सबके आने तक तुम छूट नहीं सकोगे। सच-सच कह दो, तो उन सबको बुलवाने का श्रम हमें भी न होगा, समय भी बचेगा।"
राक्त मावण के साथ जो व्यक्ति आया था, उसने अपराधी की ओर देखा। "यह यहाँ क्यों आया? सन्निधान ने इसे कहाँ पकड़ा? पकड़ा अच्छा किया 1 यह वही है जो इस दिन लापता हो गया था।'
बिदिव अपने आसन से तुरन्त उठ खड़े हो गये। "न सन्निधान को और न ही बिट्टिदेवरस जी को इस बात का पता लग
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सकता है कि यह कौन है। उसे मालूम है कि मैं कौन हूँ। देखिए, उसकी मुखाकृति मुझे देखते ही कैसी बन गयी है। मुझे देख उसे डर लग रहा होगा, क्योंकि यहाँ मैं अकेला इसे जानता हूँ। वैसे यह मुझे जानता है फिर भी मेरा पूरा नहीं है। यह सिने शिवरात्रि के दिन सन्निधान और बिट्टिदेवरस जी को प्रसाद कहकर जहर दिया था ।" मायण के साथ आये व्यक्ति ने कहा ।
"सच ! वह पुजारी के वेश में न था? यह बढ़ी हुई दाढ़ी थी. इसकी याद नहीं ।" बिट्टिदेव ने कहा ।
"वह बनावटी है। पकड़कर खींच लें तो निकल आएगी ।" आगन्तुक ने
1
कहा।
नौकर से यह काम कराया गया। पचलदेवी की चपत से अँगूठी लगकर गाल पर जो घाव हुआ था, उसका निशान भी दीख पड़ा। वह निशान छिपाने की उसने बहुत कोशिश की। उसके केश पकड़कर, उस खुले सपाट मुख को और गाल पर के उस निशान को दिखाया गया।
" अब तो मान लोगे कि तुम आचण ही हो?" बल्लाल ने पूछा । उसके लिए अब कोई दूसरा चारा नहीं रह गया था । "यह सब तुमने क्यों किया ?”
"पेट की जलन से अपमान का बदला लेने के लिए।" "जिन्होंने अपमान किया था उनसे बदला क्यों नहीं लिया
"जब तक मैं जिन्दा हूँ तब तक यह मुझे जलाता ही रहेगा। जैसे मेरा दिल जलता है वैसे इस बड़े का भी दिल जलता रहे और तड़पता रहे यही मैं देखना
चाहता था।"
" लेकिन जिन्होंने तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा, उस पर तुमने यह प्रयोग क्यों किया ?
"मैं क्या करूँ? उन्होंने इस प्रतिष्ठित के यहाँ जन्म लिया। उस वंश का नामोनिशान मिटाना हो तो यहीं एक आसान मार्ग है- महाराज का नाम ही इस दुनिया से मिट जाना । तभी गर्भस्थ अंकुर को दवा देनी चाही थी सो इसी संकल्प के साथ यहाँ आया था। पर बाद में महाराज को ही ख़त्म कर दूँ तो दण्डनायक की इन बेटियों के लिए बच्चे ही कैसे होंगे? इसलिए जहर देने की बात सोची थी।"
"बिट्टिदेवरस ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था ? "
"कुछ भी नहीं। इसीलिए मैंने उन्हें केवल प्रसाद ही दिया था। जहर केवल महाराज को हो दिया था। जहर खाने से महाराज को बचा लिया इस आदमी ने ।
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मुझे अब भी मालूम नहीं कि इसे कैसे मालूम हुआ कि वह जहर मिला प्रसाद था। अब मालूम तो हो ही गया था। कम-से-कम मेरा पता तो न लगे, इसलिए मैंने इस पर खुखरी फेंकी कि इसे मार ही डालूँ। मैं निश्चिन्त हो गया था कि यह मर गया। परन्तु अब सब बदल गया। मुझे कोई दुःख नहीं। मैं समझँगा कि इन महोदय ने मेरा जो अपमान किया था उसका मैंने बदला ले लिया।" उस अपराधी ने कहा ।
• इसके लिए क्या दण्ड होगा, जानते हो? बाल ने पूछा।
-- मैं अपने इस विफल जीवन को खुद भी नहीं चाहता । दण्ड कुछ भी हो मेरे लिए सब बराबर हैं। सूली पर चढ़ा दें, परन्तु केवल मुझे ही मूली पर चढ़ाएँ । बाक़ी इन लोगों को इस दाई की और दाम को क्षमा कर दें। वे मेरे हाथ की कठपुतलियाँ बनकर रहीं। इनको अपने जीवन में जो दैहिक सुख कभी न मिला था, उसे मुझसे पाया और जैसा मैं नचाता रहा वैसी ये नाचती रहीं । यह मेरे इस अन्तिम समय की प्रार्थना है । परन्तु एक बात मुझे मालूम नहीं पड़ी कि मैंने जव इससे कड़ा नहीं था कि मैं जहर मिला प्रसाद दे रहा हूँ तो इसने कैसे जाना? मरने से पहले यह मालूम हो जाय तो आनन्द के साथ प्राण त्याग हैं।"
"तुम केवल अपने बारे में पूछ सकते हो। दूसरों के बारे में जो प्रार्थना करते हो तो हम नहीं मानेंगे। जिस-जिसने जैसा अपराध किया है उस अपराध कं अनुसार उसे दण्ड भोगना ही पड़ेगा। पांच संसदीय मन्त्रिमण्डल दण्ड का निर्णय करेगा। अभी इन तीनों को वन्धन में रखा जाय।" बल्लाल ने आदेश दिया ।
सिपाहियों ने उन लोगों को ले जाकर जेल में बन्द कर दिया
मरियाने दण्डनायक सिर झुकाये बैठे रहे। रानियाँ भी वैसे ही बेठी रहीं । "तो यह व्यक्ति कौन है जिसने महाराज और राजा के प्राणों की रक्षा का महान कार्य करके पोय्सल राजवंश को जीवनदान दिया है ? विजयोत्सव के सन्दर्भ में सन्निधान के साथ ही ये पधारते तो इनका सार्वजनिकों के सामने वीरांचित सम्मान भी कर सकते थे।" शान्तलदेवी ने कहा ।
"हमने भी उनसे कुछ पूछताछ नहीं की। हम सुरक्षित हैं। उन्हीं की सूचना से हम विजयी हुए हैं, इतना मात्र हमने उनसे कहा था। साथ में आते थे, मगर रास्ते में भयंकर बुखार चढ़ने से इन्हें मायण के साथ छोड़कर हम इतने लोग निर्दिष्ट समय पर आ पहुंचे। ये विश्रान्ति के बाद बुखार से मुक्त होकर अब आये हैं। हमें भी इनके बारे में जानने का कुतूहल है । आज इस समय यहाँ इनके आने से एक नयी वात प्रकट हुई। यहाँ राजमहल में बाचम के नाम से जो काम कर रहा था वह वही आचण हैं जिसने हमारे प्राणहरण का प्रयत्न किया था, इसका प्रमाण मिल गया। अगर ये हमसे बिछुड़ जाते तो इस आचण के कार्यों का पूरा
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पता इतनी जल्दी नहीं लग पाता । अब तो आप अपना परिचय दे सकेंगे न" . बल्लाल ने प्रश्न किया।
बह कुछ आगा-पोला करता हुआ-सा दिखा। "संकोच करने की ज़रूरत नहीं। कहिए।" बल्नाल ने कहा।
'पहले सन्निधान वैद्यजी को क्षमा करें, और गजपरिवार मुद्दा भी क्षमा करे । यह आश्वासन मिले, तव निवेदन करुंगा।"
"यद्यजी लो यहीं नहीं हैं न। क्षमा चाहते हो तो उन्हें अपनी ग़लती के बारे में स्वयं कहना होगा। यदि क्षम्य होगी तो क्षमा अवश्य मित जाएगी। उन्हें बुनवा लिया जाए।"
"नहीं, जरूरत नहीं। बेचार बहुत थक गयें हैं। उन्हें तकलीफ़ क्यों द? सभी बातें मैं खुद ह यता श्रृंगा. कहते अपने स्थाः. से बह शान्तनदेवी के पास गया और उनके दोनों पैर ज़ोर से पकड़कर निवेदन करने लगा, "रानीजी आश्वासन दें कि क्षमा कर दिया है। मैंने रानीजी से झुट कहकर धोखा दिया है, इसलिए क्षमा मांग रही हूं। झूठ कहने में मेग उद्देश्य बुरा नहीं था। यादवपुरी में ही पुझे राजा के साथ जाने की अनुमति मिल जाती ता मुझे रानीजी से झूठ बोलने का मौका ही नहीं मिलता।"
"तो...मतलब... चट्टलदेवी।" "हाँ मैं चट्टला। "क्या चट्टलदेवी है?" सबके मुँह से एक साथ निकल पड़ा।
"हाँ, मुझे कोई अन्नात शक्ति रणरंग की ओर बुला रही थी। मैंने प्रार्थना की। स्त्रियों को रक्षा के लिए प्रणबद्ध पौसलों द्वारा नारी जाति को युद्धक्षेत्र में साक्षात मृत्यु के सामने खड़ा करना असम्भव धा। राजा का आदेश था-वह नहीं हो सकता। उनकी दृष्टि से यह सही भी हैं। हममें भी कोन स्त्री होगी जो बद्धक्षेत्र में जाने को तैयार होगी? लेकिन मेरी स्थिति कुछ विचित्र ही है। अबला की हैसियत से अपना शील भ्रष्ट किया, तो बदले में मुझे जो अनुभव प्राप्त हुआ था, उसका उपयोग मैंने राज्य के लिए प्राणों की बलि टेकर भी करने का निश्चय किया । वही मैं चाहती हैं। इस काम में मुझे जो मानसिक शान्ति मिलती है वह अन्य किसी से भी नहीं मिलती। मैं अपनी शील भ्रष्ट देह को देखती हूँ तो मुझ असह्य पीड़ा होती है जिन दुष्टों ने मेरा शीलभंग किया, उनके कुतन्त्रों के मारक रूप से अपनी इस देह को समर्पित कर, उन दृष्ट शक्तियों को काट डालने का प्रयत्न मन किया है। शील भ्रष्ट होने के बाद भी पक्ष पतिता को कप-से-कम इस बात की तृप्ति है कि मैंने राष्ट्र की सेवा की। इसलिए मैं झूठ बोनकर किस्केरी से राजपरिवार से अलग होकर शत्रु-शिविर में दाखिल हो गयी। वह
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आदमी वहाँ जाया। आनन्दनी और इस आदमी के बीच गाढ़ी मित्रता है। यह मेरे जाल में फंस गया। और इस तरह सारा रहस्य मिल गया। सन्निधान और बिट्टिदेवरस जी के प्राण बच गये। उस आदमी ने जो कहा वह झूठ है। दोनों ढाक के पत्तों में पाषाण था, प्रसाद नहीं। वैद्यजी ने उसकी परीक्षा भी की है। उसने मुझे मार डालने का भी प्रयत्न किया। उसे कमर में बैंधी खुखरी की ओर हाथ बढ़ाते मैंने देख लिया तो मैं उछल पड़ी। खुखरी छाती के बदले कोख में लगी। मैं मरी नहीं, बच गयी। जीती रहने की मेरी इच्छा कभी की लुप्त हो गयी है। खुद मृत्यु का बुला लेने वाली बुजदित मैं नहीं हूँ। जी गयी, अच्छा हुआ। यह कम्बख्त खुखरी मेरो कोख में न लगकर जाँघ में लग जाती तो वैद्यजी भी नहीं समझ पाते कि मैं स्त्री हूँ। उन्हें सारा वृत्तान्त बताकर मैंने उनसे प्रार्थना की कि यह बात किसी से प्रकट न करें कि मैं स्त्री हूँ। महाराज की प्राणरक्षा की, इसलिए उनमें मेरे प्रति एक आत्मीयता उत्पन्न हो गयी थी।" ___"सो तो ठीक हैं। मगर तुम्हारी ध्वनि तो कुछ और की-सी लगती है न?" शान्तलदेवी ने पूछा।
" मग बजाएँ " करती रई सिर पर जोर दाढ़ी एवं भौंह पर चिपकाचे बाल सब निकाल फेंके।
उसकं ध्वनि-विन्यास पर सब चकित थे।
"क्यों मायण, मना करते थे, लेकिन तुम खुद जाकर चट्टला को पकड़ लाये ? उसे सजीव लाये न? क्यों, उस पर तुम्हें गुस्सा नहीं आया" शान्तला ने पूछा ।
"हम नालायक हों तो लायक़ बातें कैसे मालूम पड़ें! ग़लती के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।'' कहकर भायण न सिर झुकाकर प्रणाम किया।
"देखो तो, यह रावत मायण जो तुम्हारी खोज में गया था, कितना होशियार है! साध ले आया पर पता नहीं लगा सका। मायण, यह तुम्हारी ग़लती नहीं। आगे से ऐसी मनमानी बातें मत किया करो।' शान्तलदेवी ने कहा ।
"मायण का क्या क्रिस्सा है?" बिट्टिदेव ने पछा।
“उसे फुरसत से बताऊँगी। बहुत समय से आप सब बेटे हैं। यह एक ख़ास सभा हुई। सभी बुजुर्ग हम सबकी बातें मौन होकर सुनते रहे। सन्निधान अब आज्ञा दें तो इस सभा को समाप्त कर सकते हैं।" शान्तलदेवी ने कहा। ___ मन्त्रिगण चाहें तो अभी फैसला सुना सकते हैं, नहीं तो कल ही सही।'' बल्लाल ने कहा।
मन्त्रिगण की तरफ़ से प्रधान गंगराज ने कहा, "अभी फैसला सुना सकते हैं। आचण को सूली पर चढ़ा दिया जाय। और इन दोनों औरतों को छह-छह सान्न की कड़ी सजा दी जाय। धर्म-विरुद्ध, भ्रूणहत्या करनेवालों को आइन्दा इससे
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अधिक कड़ी सजा दी जाएगी, इस बात की घोषणा भी की जाय।"
"सूली पर चढ़ाने से पहले मैं चाहती हूँ और विनती करती हूँ कि आचण वाचभ बायक नामक यह व्यक्ति मुझे असली रूप में देखने दें। उसे यों ही नहीं परना चाहिए।' चट्टलदेवी ने कहा।
महागज ने बात मान ली। इसके बाद उस दिन की सभा विसर्जित हुई।
मरियाने दण्डनायक ने बेटियों को अपने पास बैठाकर बहुत समझाया। कहा, "तुम लोगों में कोई भी सही, 'अगर छोटी-सी भी ग़लती करे, वह तुम्हारी माँ और हमारे घगने पर धध्या होगा। तुम लोग जिस स्थान पर हो वहाँ एक-दूसरे से मिल-जुलकर दुनिया के सामने एक बहुत ऊंचा आदर्श स्थापित कर सकती हो। यदि एक माँ की बेटियाँ ही सौतों की तरह आपस में झगड़ा करें तो और दूसरे वैसा करेंगे तो क्या दोष है, यों तुम प्रमाण बनकर कभी मत खड़ी होओ। चट्टला के त्याग से, शान्तला के संयम से राजपान का गौरव आज बन गया। नहीं तो पता नहीं क्या होता? आगे ले ऐसा नहीं होने देना चाहिए। चुगलखोरों की बातों में पत आना। प्रत्यक्ष देखने पर भी उसे परख कर भी देख-समझ लेना चाहिए। ऐसी हालत में कही या सनी-सुनायी बार्ता पर निर्णय करती जाओगी तो पता नहीं क्या-क्या अनर्थ होगा- इस बात को अच्छी तरह समझ लें। राजपरिवार एक है, इस एकता को नोड़ना नहीं हैं। तुम लोगों का व्यवहार इसे बनाये रखने योग्य रहे। चाललोरों का मुंह तो अपने आप वन्द हो जाएगा।"
सबने पिता की बातों पर सहमति प्रकट की।
चार-छह दिन राजधानी में रहकर मरियाने फिर सिन्दगेरे चले गये। डाकरस युद्ध क्षेत्र में सीधे यादवपुरी चले गये थे, इसलिए राजधानी में जो घटनाएँ घर्टी उनकी कोई जानकारी उन्हें नहीं थी। वह बिट्टिदेव आदि सभी की प्रतीक्षा में यादवपुरी में ही रहे।
विट्टिदेव ने यादवपुरी जाने की बात महाराज से कही।
"तुम्हें जाना ही चाहिए क्या छोटे अप्पाजी वहाँ डाकरस जी तो हैं ही। अवकी युद्ध में भी न ले जाने के कारण उदय को कुछ असमाधान हुआ हैं। मैं बेकार हूं। मुझे किसी भी काम पर नियोजित नहीं करते। यहाँ राजमहल में इतना सर हुआ नः मुझे इन बातों की खबर तक नहीं'-ऐसा कहता था। उसकी उम्न अभी डोटी है। कुछ बातों में फ़िलहाल उसे दूर ही रखना उचित होगा, इस कारण शान्तलदेवो ने इससे कुछ कहा न होगा। भाषण दण्डनाथ जी को हमारे यहाँ आने से कष्ट ही दिन पहले यह बात मालूम हुई है। बहुत संयम और चातुर्य से इस
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सारी घटना का निर्वहण किया गया है। इसके बारे में अब उसे कुछ भी विवरण दो उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। इसलिए उसे राजप्रतिनिधि बनाकर यादवपुरी भेज दें। अभी दण्डनाविका और उनके बच्चों को वहाँ भेजना तो है हो।" बल्लाल ने कहा।
"उदय को यहाँ भेजकर उसमें आत्मविश्वास पैदा करने का यह विचार अन्छा ही हैं। उसके साथ जाकर सथा डाकरस दण्डनाथ जी को कुछ बातें बताकर, वहाँ भी सारी स्थिति उदय की समझाकर लौट आऊँगा 1 ठीक होगा न?" बिहिदेव ने निवेदन किया। __ ''वही करो,'' बल्लारत ने सहमति प्रकट की।
इस कार्यक्रम के अनुसार बिट्टिदेव, उदयादित्य और दण्डनाधिका चियरका तथा उनके बच्चे मरियाने और भरत आदि सभो दलदुरी के :
विट्टिदेव के लौट आने तक पिता के यहाँ रहन को अनुमति लेकर शान्तलदंवी बिट्टिगा, गालब्बे और चट्टला के साथ पिता के घर चली गयी।
महाराज और राजा बिट्टिदेव की प्राणरक्षा करनेवाली और चेंगाल्चों को पराजित करने में चट्टला ने जो अतुलनीय साहस और चातुर्य दिखाया था उसके कारण उसके प्रति विशेष गौरव शान्तलदेवी में उत्पन्न हो गया था। फिर भी यह सब करने के लिए एक स्त्री को अपना शील दौंव पर रखना पड़ा. इससे उसके मन में एक पीड़ा रही आयीं । एक स्त्री का शील भ्रष्ट होने देकर किसी की जान बचा लेने का आखिर मूल्य ही क्या है? यो शान्तलदेवी ने वह प्रसंग उठाया तो चट्टला ने कहा, "रानीजी के विचार बहुत अच्छे हैं। मैं स्त्री हूँ; मुझे स्त्री के विन के प्रति आदर हैं। शत्रुओं की जालसाज़ी का पता लगाये बिना, विजय पाना आसान नहीं। युद्ध में हार जाएँ तो सेकड़ों हजारों शीलवती नारियों का शीलहरण शत्रु सैनिक कर डालेंगे। ऐसी निस्सहाय हजारों वहिनों के गौरव की और शीन की रक्षा करने के लिए मुझ जैसी भ्रष्टशीलाओं द्वारा इस माध्यम से शत्रओं की जालसाजी का पता लग जाए यह एक अच्छा काम है। काँटा काँटे से ही निकलता है। इस विषय पं देह का कोई मूल्य नहीं रह जाता। शनीजी, देह नष्ट होने पर भी यह स्थायी राष्ट्रीपयोगी कार्य है। इसमें संकोच करने का कोई कारण नहीं है। सिर झुकाने की भी कोई जरूरत नहीं हैं। भगवान का नाम लेकर देवासी पन्थ का निर्माण कर अति कामुक लोगों से शीलवतियों को बचाने में सहायक होनेवाले इस सपाज को मुझ जैसी रणरंगदासियों की एक सेना को ही राष्ट्र के लिए तैयार करना उचित है। उस आचण के कार्य को किसी और ढंग से पता लगाना हो ही नहीं सकता था। रानीजी! उसके कार्यों पर शाबाशी देकर, उसके कार्यों में सहायता देते हुए उसमें विश्वास पैदा करके, उसे अपने जाल में फंसाये विना काम बनता ही नहीं।
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इस बात को लेकर आपको पाथापच्ची नहीं करनी चाहिए, रानीजी। किसी के शीलं को दाँव पर लगाकर राष्ट्र की रक्षा करने की बात नहीं है यह 1 अपने स्वार्थ के लिए शील नष्ट करनेवाली दामख्या जैसी स्त्रियाँ भी हैं। ऐसे लोगों से यह कार्य नहीं बनता। ऐसी स्त्रियों रणरंगदासियाँ भी बनें तब भी उनसे कोई राष्ट्रहित नहीं होगा। परन्तु मुझ जैसी स्त्रियों में, अपनी इच्छा के विरुद्ध शील भ्रष्ट हुआ तो हममें जो क्रोध की चिनगारी उत्पन्न होगी, उसमें एक विशिष्ट शक्ति होगी। जीवन में एक ही बार किसी का शील भ्रष्ट होता है। फिर जो शील भ्रष्ट हुआ, वह लौटेगा नहीं। इसलिए उस शील को दाँव पर लगाने की बात ही नहीं उठती। इस शोध की शक्ति को राष्ट्रप्रेम में बदलकर ऐसे लोगों को भी सक्रिय बनाकर क्रियाशील बना देना राष्ट्रहित की दृष्टि से बहुत ही अच्छा है। मेरे अपने अनुमव ने मुझे यही पाठ पढ़ाया है। मैं एक साधारण स्त्री हूँ। मेरा अनुभव भी बहुत कम है। यदि इसे मान्यता मिले तो खुशी होगी। ऐसी रणरंगदासियों का एक दल तैयार करने के लिए अनुमति दिलवा दीजिए। ___ "तुम्हारी विचारधारा सुनने पर वह संगत ही मालूम पड़ती है। फिर भी इस तरह के विषय पर जल्दयाज्ञी से निर्णच नहीं करना चाहिए। सोचेंगे' कहना चाहूँ तो भी मेरा पन नहीं मान रहा है। तुम्हारी इस सलाह में इनकार भी नहीं किया जा सकता। रहनं दो। फिर जब युद्ध की बात उठेगी तब विचार कर लिया जाएगा। मायण क्या कहता है ? उसने तुमसे वात की?'' शान्तलदेवी ने पूछा।
"उनका ढंग अलग है। गुस्सा भी जल्दी आता है, प्रेम भी जल्दी हो जाता है। उनका मन अच्छा है। उन्हें इस बात का दुःख है कि कोई सामने यह कहे कि-तुम्हारी स्त्री बुरी है, तो ये कैसे सहेंगे? सुना कि किसी अनैतिक व्यवहार करते देख लेने पर तो वे वहीं कार डालने की बात करते रहे। यह भी कहते हैं-'आओ, परिवार बसाकर जिन्दगी बिताएँगे।' अब आप ही बतलाइए, ऐसी शुद्ध अात्मा को अपने इस जूटन को कैसे सौंपूँ? पहले ही कहा था कि मुझे मर गयी मान लें और दूसरा विवाह कर लें। इस पर उन्होंने पूछा, 'पति के मरने पर पत्नी विधवा बनकर मर सकती है तो पत्नी के मरने पर पति विधुर होकर क्यों नहीं मर सकता? उसे फिर दूसरा विवाह करने की क्या जरूरत?' मुझे कुछ सूझा नहीं कि क्या कहूँ?" चहला ने कहा।
“यदि उसकी सच्ची अभिलाषा हो और परिवार बसाने पर उसे सुख मिलता हो तो क्यों परिवार बसाकर आराम से नहीं रह सकते।" शान्तनदेवी ने कहा।
"उनको भी इच्छा है। परिवार वसाने पर उन्हें सुख भी मिलेगा 1 परन्तु ये लोग कहाँ चुप रहेंगे? कहेंगे, 'तुमको शर्म नहीं, उसने खुद अपने को भ्रष्टशीला घोषित भी किया है। ऐसी स्त्री के साध वह परिवार बसाना क्या उचित काम है ' मैंने
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पूछा यदि लोग ऐसा कहने लगेंगे तो क्या करेंगे। उन्होंने उत्तर दिया, 'कहनेवालों , को कहने दो, उनको समाधान करने के लिए कह दूंगा कि मैंने पत्नी नहीं, रखैल बनाया हैं। यह कहकर उन लोगों का मुह बन्द कर दूंगा'।"
"तो मतलब यह हुआ उसे तुमसे बहुत प्यार है।" शान्तला ने कहा।
“बह सारी बात प्रवास करते वक़्त ही स्पष्ट हो गयी। उन्हें पता नहीं लगा कि मैं कौन हूँ। अपनी पली का गुणगान करते ही गये। मैं मी चिढ़ाती जाती थी। मैं कहती थी उस भ्रष्टशीला पर तुम्हें इतना प्रेम म्यों? जब मैं किक्केरी में नहीं दिखाई पड़ी तो यह समझकर कि शायद मैं वहाँ हूँगी, सीधे हमारी सेना में पहुँचे। वहाँ भी मेरा पता न लगा। उन्हें चिन्ता लगी होगी कि मुझे हो क्या गया ? उन्होंने यह भी अन्दाज लगा लिया होगा कि शत्रुसेना में गुप्तचरी का काम करने को. बिना चली गयी होगी। युद्ध समाप्त हो गया, तब भी उन्हें मेरा पता नहीं लगा तो उन्होंने सोच लिया होगा कि शत्रुओं ने पता लगाकर मुझे मार डाला होगा। इस तरह पता नहीं क्या-क्या बातें सोचकर भावावेश में मेरी प्रशंसा ही प्रशंसा करते गये। मैंने सहानुभूति दिखाकर कहा, 'इतनी होशियार स्त्री कहीं फंस सकेगी? क्रिसी तरह छूटकर ही आएगी। क्यों सोच में पड़ते हो वास्तव में उसी ने मुझसे इस जहर की बात कही थी, इसलिए कि तुम्हें कुछ तसल्ली मिले।' उन्होंने यह सब सुनकर पूछा, 'यह कैसे मालूम हुआ कि तहर की बात बतानेवाली वहीं हैं। उसके दायें गाल के गड्ढे से कुछ ऊपर एक कुल्थी के दाने के प्रमाण का तिल था?' मैंने कहा, 'हाँ, उसके केश-गुच्छ के नीचे गले के पिछले भाग पर चने के बराबर उभरा हुआ तिल भी था।' तब उन्हें मेरी बातों पर विश्वास हुआ। कुछ आशा भी बँधी।" चट्टला ने कहा।
"तुम मेरी बात मानो तो कुछ कहूँ ?' "कहिए।' "उसकी इच्छा है तो तुम परिवार बसा लो।" "हों, देखेंगे। शायद वही हो, कौंन जाने!'' चट्टलदेवी बोली।
बालों-ही-बातों में युद्ध के बारे में भी व्यौरा पूछ लिया शान्तलदेवी ने। उसने सब व्यौरा सुना दिया। जब उसने विट्टिदेव के चातुर्य का वर्णन किया तो शान्तलदेवी को लगा, काश मैं भी इस युद्ध में राजा के साथ रहती तो कितना अच्छा होता!" ___"रणभूमि में काम करनेवालों को रहना चाहिए। शस्त्रहीन वा बेकार लोग रहें तो बहुत-सी अड़चनें पैदा होगी। उसमें भी रानीजी रहेंगी तो उनकी रक्षा का कार्य प्रमुख बन जाता है। ऐसी हालत में शत्रु के आक्रपर्णी की ओर ध्यान देना कठिन हो जाता हैं। अगर आक्रमण करते भी रहें तय भी रानीजी की रक्षा की तरफ़ ही
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ध्यान लगा रहता है, उन्हीं की चिन्ता बनी रहती है। आक्रमण पर एकाग्न मन नहीं रहता। इस कारण आपका न जाना ही अच्छा जी।
'क्या तुमने मुझे बूढ़ी नानी समझ लिया? मुझे मेरे पिता ने सम्पूर्ण योद्धा वनने की शिक्षा दिलायी हैं। एक बार एक घटना हुई, तुम्हें बताती हूँ, सुनो। एक बार राजा (निदेव) और में वीच तलवार चलाने की स्पर्धा हुई। यह हमारी पगेक्षा की बात थी। उस समय की बलिपुर में घटी सभी बातों का विस्तार के साथ विवरण देकर पहामातृश्री ने जो वादा करा लिया था सो सब बतला दिया शान्तलदेवी ने।
''तो तब से महामातृश्री अपने मन में आपका ख़याल रखती आ रही थीं।"
"उन जैसी विशाल हृदय कहाँ मिलेंगी चट्टला ? यही मुझे लगता है कि अच्छा सुआ जो इस वक्त वे यहां नहीं रहीं। उन्हें ऐसी टेढ़ी खोटी बातें, चुगलखोरों की बातें सुनना, जिद करना आदि बिलकुल पसन्द नहीं। मैं धन्य हूँ कि मैंने उनका लेह पाया । मेरे माता-पिता का भी यही ख्याल है कि वे भी उनकी प्रीति का पात्र बन सकें। मैं रोज भगवान से यही प्रार्थना कर रही हूँ कि वे अपनी तीर्थयात्रा से जितनी जल्दी हो सके लौट आएँ।'
___"हेगड़ती जी भी तो साथ हैं, इसलिा कोई चिन्ता की बात नहीं।' चट्टलदेवी चोली।
"चाहे कोई रहे वा न रहे, एक रेविमच्या साथ रहे, वहीं पर्याप्त है।" शान्तलदेवी ने कहा।
"क्या बात है कि उन्हें उस पर इतना विश्वास है?"
"ऐसे व्यक्ति का जन्म विरला ही होता है। यह राजमहल का सौभाग्य है कि ऐसा व्यक्ति सेवा करने के लिए प्राप्त हो गया है। उसे यहाँ के सभी के स्वभाव का परिचय है। सबकी इच्छा-अनिच्छाओं को समझला है। सबसे मिल-जुलकर रहने की बुद्धिमत्ता उसमें है। निःस्वार्थ सेवा करने में उसका अग्रगण्य स्थान है। वह और माताजी दोनों महामातृश्री के साथ रहने से उनकी यात्रा सुगम होगी और आराम से लौट आएँगी, यह मेरा दृढ़ विश्वास है।' शान्तलदेवी ने कहा।
"क्या विश्वास, अम्माजी!" पूछते हुए मारसिंगय्या अन्दर आये।
“महामातृश्री..." शान्तलदेवी कुछ कहना ही चाहती थीं कि इतने में मारसिंगव्या ने कहा, "ये आ गयीं।" इतना कहकर फिर बोले, "तुम्हें राजमहल भेजने के लिए आया हूँ, तुम्हारी माँ भी वहीं हैं; वह आज शाम तक ही यहाँ आ पाएँगी। तुम तुरन्त बिट्टिगा को साथ लेकर चलो। पालकी तैयार है। तुम्हारी सारी चीजें चट्टलदेवी सँभालकर ले आएगी।" मारसिंगय्या ने कहा। . "रेविमव्या..."
330 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो
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“यह भी आया है, अाते ही उसने तुम्हारे ही वारे में पूछा । तुम्हें बुलाने खुद ही आनेवाला था। मैंने ही ''यात्रा के कारण थके हुए हो, आराम करो'' कहकर उसे रोक दिया, और उससे यह कह आया कि मैं शान्तला को ख़ुद साथ लेकर आऊँगा।" मारसिंगय्या बोले।
"राजा (बिट्टिदेव) अभी लौटे नहीं। अब तक लौट आते तो कितना अच्छा होना।' शान्तलदेवी ने कहा।
"उन्हें और पहाराज को सन्देश देने के लिए आदमी भेज दिया गया है। अब जल्दी चलो, देर मत करो। नहीं तो वह रेविमच्या भागकर आ जाएगा।" मार्गसंगव्या ने कहा।
शान्तलदेवी बिट्टिगा के साथ पालकी में बैंटी और राजमहल चल दी।
''चट्टला, तुम अम्माजी का सारा सामान तैयार कर रखना, मैं मायण को भेज रहा हूँ। बाद में तुम दोनों वह सामान लेकर आ जाना। गालब्बे! गालच्चे!!''
पुकार सुनकर गालब्बे आयीं। "देखो, अम्माजी राजमहल गयी हैं। मायण आएगा। चट्टला और मायण को खिलाकर गजमहल भेज देना। तुम और लेका भोजन कर लेना। मैं राजमहल जाऊंगा। दासब्वे और बुतुगा सामान-सरंजाम ले आएंगे। उनके आते ही तुम और लेंका गजमहल पहुँच जाओगे। महामातुश्री ने दफ़्त किया है।'' इतना कहकर पारसिंगय्या राजमहल चल पड़े।
चट्टनदेवी ने कहा, "गालब्चे, रानी के मुंह में अमृत। ये महामातृश्री के सुरक्षित लौटने की वात कह ही रही थीं कि पालिक ने आकर कहा कि वे सकुशल लौट आयीं। वही हुआ न? ऐसी दवा को पट्टमहादेवी होना चाहिए था। बड़े लोगों की बेटियाँ कहकर झुण्ड के झुण्ड को रानी बनाने से क्या फ़ायदा? राजमहल का सारा किस्सा तुम जानती ही हो न? मैं यह पूछती हूँ कि वह ईश्वर भी कितना अविवेकी है। बुद्धि, शक्ति, साहस, निपुणता, विषयग्रहण करने की सूक्ष्म मति
आदि सभी बातों में बिट्टिदेवरस जी महाराज से भी अधिक चुस्त हैं। हमारी रानीजी (शान्तलदेवो उनके लिए बराबर की हैं। कैसी सुन्दर जोड़ी है। यह ! मगर जस ईश्वर ने यह ठीक नहीं किया कि बिट्टिदेवरस को पहले जनमने न दिया। ऐसा क्यों किया?"
"अकलमन्दी से ही ईश्वर ने यह काम किया है। अगर उनका जन्म पहले हुआ होता तो उन्हें इस दण्डनायक की बेटियों से शादी करनी पड़ती। इससे उन्हें अपने सारे जीवन में तकलीफ़ ही झेलतं रहना पड़ता। ऐसा न हो, इसलिए उन्हें बाद को जनमने दिया और इनसे शादी करवा दी। ईश्वर की मर्जी का हमें पता कैंस लगेगा? प्रत्येक की अपनी अपनी आशा-आकांक्षाएँ होती हैं। ऐसी दशा में ईश्वर हमें सन्तुष्ट करने के लिए कोई काम नहीं करता। उसे जो ठीक ऊंचे उसी
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को वह करेगा।" गालब्बे ने कहा।
"तो क्या मेरा शील बिगाड़ना भी उसकी मर्जी थी?"
"मैं एक साधारण इसका क्या उत्तर दे सकती हूँ? कहने के लिए तुम शीलभ्रष्टा हो । दामब्बे भी शीलभ्रष्टा है। वह चक्की चलाती जेल में पड़ी है। और तम राजमहल में गौरव के साथ काम कर रही हो। इस फ़र्क की दृष्टि में रखकर, उत इंश्वर की मर्जी क्या है इसे समझना होगा। हाँ, अब उठो, तैयार हो जाओ, अब तुम दोनों मेरे हाथ में फँसे हो। तुम दोनों को साथ बैठाकर खिलाऊंगी। बगीचे में जाकर दो अच्छे केले के पत्ते कार लाओ। उठो।'' कहकर गालचे चली गयी।
"हमें साथ बैलाकर भोजन! हे ईश्वर, ग केही सुशी की है में भी जो लभ्य नहीं वह मुझे मिले?" कहती हुई केलं के पत्ते काट लाने के लिए चट्टला बगीचे में चली गयी।
शान्तला के साथ आये विष्टिगा को देखकर चलदेवी ने कहा, "यह कितना बड़ा हो गया हैं! बढ़ने में इसकी तीव्र गति है उसके पिता की तरह ।..."
"यह सब तो ठीक है, परन्तु एक क्षण के लिए भी यह चुप नहीं रहता। ऐसा कोई काम नहीं जिसमें यह हाथ नहीं डालता हो । कोई कुछ करे तो खुद भी वह काम करने के लिए उतावला हो उठता है! उसकी माँ ने कहा था कि उसे अच्छा दण्डनायक वनाना है। यह कहना अब काटन हो गया हैं कि वह क्या बनेगा। इसकी प्रवृत्तियों को देखकर मेरे मन में कई तरह की समस्याएँ उठती थी तो एक बार मैंने राजपरिवार के ज्योतिषी से पूछा । उन्होंने कहा, 'इसकी जन्मपत्री में कुल उच्च और लग्न केन्द्र स्थान में है। इसलिए कोई विद्या ऐसी नहीं जिसमें यह पक्का और निष्णात न हो। पंचमहापुरुषयोगों में एक रुचकयोग इसे है। इस कारण इसकी कई बातों में रुचि है, और उन सभी बातों में वह निष्णात भी होगा। इस विषय में चिन्तित होने की ज़रूरत नहीं। कुज शौर्य, निष्टात और वाक आदि स्थानों का अधिपत्ति है, इसलिए यह अच्छा बक्ता, महापराक्रमी, कार्यदक्ष बनेगा।' ज्योतिषी के यह बताने पर मुझे कुछ सान्त्वना मिली।'' शान्तलदेवी ने कहा । ___ "यदि यह ऐसा बनेगा तो इसके मां-बाप की आशा सफल होगी। इसे से गुणसम्पन्न होकर बढ़ते हुए देखने का भाग्य मुझे मिलेगा या नहीं, मालूम नहीं। इन सब बातों को ध्यान में रखकर ही मैंने इसे तुम्हें सौंपा है।" एचलदेवी ने कहा।
“आप भी इसे इस तरह का बना देग्नें-यही हमारी आकांक्षा है। आपकी
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तीर्थयात्रा सुगमरूप से सम्पन्न हुई होगी। कहाँ-कहाँ हो आयीं" शान्तलदेवी ने पूछा।
एचलदेवी ने पूरा विवरण विस्तार के साथ सुनाया और कहा, "मेरे लिए और कोई बांछा नहीं रही है। आप सन्ध लाग एक परिवार बनकर जीवन निवाह करें यही मेरी आकांक्षा हैं।"
"आपकी आशाएँ आप ही के आशीर्वाद के बल से सफल बनें-यही चाहती हूँ। मुझसे परिवार की एकता टूटने का कोई कार्य न घटे यह शक्ति मुझे आपके स्नेह से प्राप्त हो, वही आशीष दीजिए।" कहती हुई एचनदेवी के पैर छूकर | शान्तलदेवी ने प्रणाम किया।
"इसका मतलब...."
'मतलब यह कि आपके आशीवाट का बल रहा तो ऐसा मौका आने पर भी असूवारहित संयमयुक्त जीवन व्यतीत कर सकेंगे।"
'तुम्हें किसी के आशीवाद की जरूरत ही नहीं। अन्दर बैठा हुआ दर्द कभी न कभी अनजाने ही आपसे आप बाहर प्रकट हो ही जाना है। तुम्हारी बात से लो मुझे वही लगता है। तुम्हारे जोर देकर कहने का ढंग देखकर लगता है कि किसी और की तरफ से इस तरह का काम हुआ है जिससे तुम्हारे मन को दुःख पहुंचा है। ऐसी क्या बात हुई ?" एचलदेवी ने पूछा ।
"अब सब ठीक हो गया हैं। इतना ही काफी है।" "ऐसा नहीं, बात मुझे पालूम ही लो अच्छा होगा न?" "इस बात को महाराज या राजा के आने पर उनसे पूछ लें तो उचित होगा।" "ठीक है। तुम पर जोर जबरदस्ती नहीं। सुना कि तुम बेनुगोल हो आयी"
"हाँ, सन्निधान की युद्ध जाना पड़ा, युद्ध में विजय प्रदान करने की प्रार्थना करने गयी थी।"
"एक विचित्र बात सुनो। बात्रा से लौटते-लौटते शिवरात्रि नजदीक पड़ी। छोटे अप्पाजी ने तुम लोगों के साघ शिवगंगा में जो समय व्यतीत किया था उसका वर्णन करते-करते तब वह अघाता नहीं था। मुझे भी लगा कि शिवरात्रि को वहीं रहकर फिर आगे बढ़ें। शिवगंगा के धमंदी ने हमारी काफ़ी आवभगत की। उन्हें वह पुरानी बात याद हो आयी जब तुम लोग वहाँ गयी थीं। उन्होंने कहा, 'उत्तम समय पर सन्निधान का आना हुआ है। राष्ट्र और राजघराने के श्रेय के लिए आज रात भर चारों याम पूजा-अर्चा की व्यवस्था की जाएगी। हमने भी इस पूजा-अर्चा में भाग लिया और रात्रि जागरण रखा। वे बहुत खुश हुए। शिवजी की इस वैभवपूर्ण पूजा को देखकर. हमें भी बहुत आनन्द हुआ। उस बृहदाकार बाहुबली के महामस्तकाभिषेक और इस शिवजी के अभिषेक दोनों में, सिवाय उस वृहदाकार
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कं, किसी दूसरी तरह का अन्तर ही नहीं रहा। बृहदाकार याहुवली और शिवगंगा . के शिवजी के अभिषेकों में एक समान आनन्दानुभव हुआ। उस समय छोटे अप्पाजी ने जो धर्म जिज्ञासा तुम्हारे गुरुजी से की थी उस सबका उसने मुझं परिचय दिया। भगवान हमारी कल्पना के अनुरूप हो जाते हैं परन्तु उस कल्पना में परिशुद्ध भाव होना चाहिए। इस बात का अच्छा अनुभव हमने पाया।" एचलदेवी ने कहा।
"उसी दिन सन्निधान और ग़जा दोनों के प्राण बच गये। इतना ही नहीं, क्षण-घर में बिजय भी प्राप्त कर ली थी। वे भी उसी दिन सामेश्वर के मन्दिर में शिवजी की पूजा में भाग लेन गये थे। सुना कि एक दुश्मन ने प्रसाद में जहर मिलाकर सन्निधान और गजा को मार डालना चाहा या। स्वयं सहर पीकर दुनिया का उद्धार करनेवाग्ने महादेव हैं न शिवजी! उन्होंने इन दोनों को बचा लिया। आपकी शिवगंगा की शिवपूजा के आनन्द के अनुभव का ही फल आज हमें प्राप्त हा हैं।" शान्तला ने कहा।
"तो क्या, हमारी तीर्थयात्रा के आरम्भ होने के बाद फिर से युद्ध हुआ?" पलटेबी ने पूछा।
'हाँ।" 'बनुगोल में भी इस सम्बन्ध में किसी ने कुछ कहा नहीं!"
"जहाँ बुद्ध हुआ, उस स्थान को छोड़कर अन्यत्र कहीं उसका प्रचार नहीं किया गया था। विजयोत्सव के सन्दर्भ में यदि कोई बेलुगोन से आये होंगे तो उनसे मालूम किया जा सकता था। सो भी उनकं लौटने पर न?"
'हमारी चट्टलदेवी को आने दीजिए। वह वहाँ थी, इसलिए इस सम्बन्ध में वह अधिक जानती है। और, वह बहुत रोचक ढंग से सब बताती है।"
इसके बाद उदयादित्य के बार में बात शुरू हुई।
"का बहुत कम बोलता है उसकी कई आकांक्षाएँ हैं परन्तु कहते उसे संकोच होता है। यों वह अन्दर-ही-अन्दर दुःख का अनुभव करता रहता है। वह ऐसा सोचता है कि उसे सत्र कमलार मानते हैं और अनुभवनहीन तथा भाला सपझकर छोड़ देते हैं। किसी तरह का इत्तरदायित्व उसे नहीं सौंपते । त्यागी विरक्त के लिए तो अन्तमखी होना ठीक है, परन्तु यौवन की देहरी पर खड़ा व्यक्ति अपनी आन्तरिक चंदना को प्रकट न करके अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को बढ़ाता रहे तो उससे हानि ही होगी। उसे किसी दायित्वपूर्ण काम पर लगाते रहे हैं या नहीं?" एचलदेवी ने पूछा।
'नहीं, लेकिन अब उनकी अन्नमुखी प्रवृत्ति दूर हो रही हैं और अब यह जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने की अभिलाषा प्रकट कर रहे हैं। उन्हें यादवपुरी के
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कार्य की जिम्मेदारी सौंपकर आने के ही उद्देश्य से राजा गये हुए हैं।"
“इच्छा प्रकट की, कहना तो यों ही पीठ ठोंकने जैसी बात है। कहीं कुछ उसने वो गुनगुनाकर कह दिया होगा। खैर, जो भी हो यह अच्छा हुआ। वैसे यों गुनगुन करना मनुष्य की दुर्बलता का एक लक्षण ही है। ऐसे गुनगुन करनेवाले कोई कार्य नहीं साध सकते।"
"अब तो राजा के साथ देवर भैया भी आ ही रहे हैं न? तब उन्हें प्रोत्साहित करना अच्छा होगा न?"
"मुझे जो कहना होगा सो तो कहूँगी ही। इसमें में कर्तव्य से युक्त नहीं हूँगी । परन्तु सबको बता सकने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। तुम उम्र में छोटी जरूर हो, पर तुम ऐसा कुछ कर सकती हो यही मेरे लिए सान्त्वना की बात है | प्रभु नं मुझे जो जिम्मेदारी सौंपी है उसे मैं अब तुम्हें सौंप सकती हूँ, क्योंकि अब तुम राजघराने के संचालन में और उसे नियन्त्रण में कर रखने में सब तरह से समर्थ हो और इस सामथ्यं की केन्द्र बिन्दु हो ।"
" आपके आशीर्वाद की छाया में आपके दशाये मार्ग पर संयम के साथ आगे बढ़ेगी। आपका मार्गदर्शन हमें दीर्घकाल तक मिलता रहे। भगवान हमारी इस आशा को सफल बनाएं, यही हमारी प्रार्थना है। मेरे माँ-बाप ने मुझे जैमा पाल-पोसकर बड़ा बनाया, उसके अनुरूप मुझमें स्वातन्त्र्य और साहस विकसित हुआ हैं। आपका विशाल मनोभाव और संयमी जीवन मेरे लिए आदर्श बने हैं। इन कारणों से स्वेच्छा रोग से मैं ग्रस्त नहीं हुई। सुसंस्कृत मानवता से पूर्ण व्यक्तित्व को मुझमें रूपित करने का लक्ष्य मेरे गुरुवर्यो ने मेरे सामने उपस्थित कर रखा है। आपके मार्गदर्शन में मुझे इन आदर्श तक पहुँचना है - यही मेरी आकांक्षा है। मैं आखिरी दम तक आपकी आज्ञा का पालन करती रहूँगी। आपकी प्रशंसा की बातें मुझमें स्वप्रतिष्ठा और अहंकार की भावना उत्पन्न न करें, आपके विशाल मनोधर्म की सद्भावनाएँ मेरे आचरण में रूपित हों, ऐसा आशीर्वाद दीजिए।"
यों बातें हो रही थीं कि इतने में चहला ने आकर कहा, "सारा सामान लेकर आ गयी हूँ । आपके प्रकोष्ठ में रख आयी हूँ ।"
"वह देखिए चट्टला आ ही गयाँ चट्टले ! महामातृश्री की आकांक्षा है कि युद्ध सम्बन्धी सभी बातों को आमूल सुनें। तुम तो वहीं रहीं। मैंने कहा कि तुम सभी यातों को जानती हो । सब-कुछ सुनाओ और तुमने क्या-क्या किया, किस तरह किया सब कुछ बताओ।" कहकर उसे महामातृश्री के पास छोड़कर शान्तलदेवी बिट्टिगा को साथ लेकर अपने प्रकोष्ठ की ओर चली गयीं ।
चहला ने विस्तार के साथ सब कह सुनाया। उसने अपने बारे में इतना ही
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कहा कि उसने षड्यन्त्र का पता लगाया। कैसे पता लगा सकी सो नहीं बताया। . बिट्टिदेवरस की कुशनमा वर्णन भाग्ने समय मा उन्माट का कोई भीर-छोर नहीं रहा। कहने के इस उत्साह में सब कुछ बता तो दिया, मगर सन्निधान के बारे में कुछ बताया नहीं यों समझकर उसने कहा कि चेंगाल्चों की सेना इतनी बड़ी तो नहीं इसलिए डाकरस दण्डनाथ और छोटे राजा दोनों ने सन्निधान को आगे जाने नहीं दिया। अगर उन्हें आगे जाने देतं तो ये क्या कोई साधारण योद्धा हैं? जग्गदेव के साथ युद्ध करते वक्त मैंने देखा हैं न इस तरह उनके युद्ध-कौशल का वर्णन कर समाधानोक्ति प्रस्तुत की।
एचलदेवी को राजमहल के विषय में जानना था। जब चट्टला की बात एक सीमा तक पहुँची जो उसको वहीं रोककर कहा, ''चट्टला, जाकर देख आओ कि सन्निधान मन्त्रणागार में ही हैं या अन्तःपुर में गये हैं."
"कुछ कहना था?" चट्टला ने पूछा।
"कुछ मत पूछो। अकेले में हैं क्या, देखकर आ। आय हों तो उनसे मुझे मिलना है।" एचलदेवी बोली।
चट्टला दख आयी। बोली, "मालूम हुआ कि आये काफ़ी वक्त हो गया।" "अकेले हैं या..." "अकेले हैं।" पाचलदेवी तुरन्त महाराज चल्लाल से मिलने चली गयीं। बल्लाल माताजी को आते देखकर उठ खड़े हुए। माँ का हाथ पकड़कर अपने पलंग पर बैठाते हुए बोले, "माँ, आप यात्रा के कारण थक गयी होंगी, आराम नहीं किया?" ।
फिर एक क्षण बाद बल्लाल ने पूछा, "कुछ विशेष काप था?" 'हाँ, धा।" दरवाज़े की ओर देखती हुई एचलादेवी बोली।
बल्लाल ने माँ का इंगित समझ लिया और घण्टी बजायी। नौकर हाजिर हआ। उसे आदेश दिया गया, “किवाड़ बन्द कर बाहर ही रहो। हमारे आदेश के बिना किसी को आने न दो।'
नौकर किवाड़ बन्द करके बाहर ही खड़ा रहा। माँ की ओर देखते हुए बल्लाल ने कहा, 'अब कहिए मॉ!''
। 'कुछ नहीं। राजमहल के बारे में मैंने शान्तला से पूछा। उसने कहा, सन्निधान से पूछकर ब्यौरा जानें तो अच्छा। उसके कहने के ढंग से ही उसके मन की पौड़ा स्पाट होती थी। इसलिए मैं जोर न देकर तुमसे जानने के लिए यहाँ आयीं। मेरे तीर्घयात्रा पर जाने के बाद यहाँ राजमहल में कुछ असन्तोषकर घटनाएँ हुई?'' एचलदेवी ने पूछा। ___ “अब तो कुछ नहीं, इससे बीती बात बता सकते हैं। उस अवसर पर
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शाम्तलदेवी ने जो बुद्धिमाना दिखायी और स्थिति की संभाला, इसी से आपका खुशी से स्वागत कर मकने की हालत आज उत्पन्न हुई है।'' यो कहकर इस दिन की अमराई में हुई बानबीन से लेकर बोपदेवी के गर्भवती बनने के प्रसंग तक का साग बिवरण देकर बताया कि इस गर्मधारण के कारण गलत विचार करने लगने से वातावरण कलुषित हो उठा धा 1 उस वातावरण को स्वस्थ बनाने में शान्तलदेवी का कितना प्रमुख भाग था, चट्टाला के त्याग के कारण क्या उपकार हुआ, गालव्यं आदि की निष्ठा से रहस्य कैंस खुला, भयंकर षड़यन्त्र के खुल जाने
और गष्ट्र को विजयी बनाने आदि विशिष्ट बानों का सम्पूर्ण व्यौरा कह सुनाया। गजमहल में किस तरह से सन्तोष का हर लहराने लगी वगैरह सभी बाता स महागज बल्लाल ने महामातृधी को अवगत कराया। और अन्न में कहा, "देखिए माताजी, महादण्डनायक या दण्डनायिका इन दोनों ने या इनमें में किसी एक ने उस आचण को अपने बराबर की हेसिंचत का न मानका कह दिया कि 'हम अंचे और तम निचले स्तर के हो।' यों कहकर उस आतण के पन की दरखा रिचा। उसका फल, कब किस रूप में फट पड़ा। अब गनियों को पता चल गया हैं कि वे स्वयं क्या हैं। जो भी हुआ सो अच्छा ही हुआ, यही लगता है।"
वृक्ष पं पके और पचाल में गर्मी देकर पकाय फलों में क्या अन्नर है, सो अब मानम मा गया होगा। इस तीर्थयात्रा ने मुद्दा मानसिक शान्ति दी, इसलिए जब मैं लौन आयी। भगवान ने यह अनग्रह किया कि मैं सबको खुश देख सकी। छोटे अप्पाजी और उदय पर लौटते वक्त यहाँ होत तो आन ही सयका एकसाथ देसने की तृप्ति पिन जाती। अब तो उनकं आने की प्रतीक्षा करनी होगी।
'वही होता। उढरा की असन्तुष्टि के कारण उनकी यह यात्रा है। असन्तष्टि का उदय के मन में होना ठीक नहीं लगा, इसलिए उसे यादवपुरी भेजने का निर्णय | किया है। इसके अतिरिक्त यह भी निश्चित बात थी कि शान्तलदेवी के उपस्थित
रहने पर ही राजमहल का वातावरण शुद्ध और स्वस्थ रहता है, और छोटे आपाजी । पर यह दृढ़ विश्वास है कि उसके साथ रहने से हमारी शक्ति कई गना बढ़
जाएगी-इन कारणों में इन दोनों को नहीं ठहरना उचित समझकर ऐसा निर्णय ।। हम दोनों ने किया। उदय क साथ यादवपर्ग जाकर, कसको कहाँ की सारी बातें
समझाकर आन के लिए वोट अप्पाजो साय गये हैं। अभी दोनों का आन के लिए | खबर भेज दी गयी है। अब दो एक-दिन में आ ही जाएंगे। उन्हें भी आपके
दर्शन की उतनी ही आतरता हैं।" नलाल ने बताया। । “दा दिन प्रतीक्षा में व्यतीत करना भी अव काटकर मालूम होता हैं। लाचार
हूँ, प्रतीक्षा नो करनी ही होगी। न दोनों के यहाँ रहते सभी बुजुर्गों को इकट्ठा कर मराजगद्दी के भावी उत्साधिकारी के विषय में निर्णय कर लेना अच्छा है। छोटी ग़नी
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की सन्तान भगवान की इच्छा के अनुसार ही होगी। यदि बच्ची हो जाय तो कोई क्लिष्ट पारेस्थिति नहीं उत्पन्न होगी। यदि लड़का जनमेगा तो उस हालत में भी समस्या उठ खड़ी हो सकती है, इसलिए राजपरिवार की रीति का निर्णय हो जाना अच्छा है। इस तरह निर्णय होने पर सभी की निश्चित धारणा बन सकेगी। उस हालत में किसी को स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा के लिए मौका नहीं रहेगा। एक स्थान के लि अनेक अधिकारी जनमेंगे ती ऐसे मौके पर ईर्ष्या, द्वेष, मात्सर्य आदि भावनाएँ बढ़ने लग जाती हैं।" एचलदेवी ने स्पष्ट किया।
"आपकी राय क्या है, मों?'' "मेरी दृष्टि में पट्टपहिषी के पुत्र का ही पट्टाभिषेक हो, यही उचित लगता
है।"
''यदि उसे पुत्र सन्तान न हो, तब:" "उसके बाद की रानी के पुत्र को यह अधिकार मिलना चाहिए।'
"तो आपकी दृष्टि में छोटी रानी को अब पुत्र जनमे तो भी उसे सिंहासन पर बैठने का अधिकार नहीं रहेगा। उसे बह अधिकार तभी मिल सकता है कि जव अन्य रानियों के लड़के न हों। यही न?'
__''मुझे नो वही न्यायसंगत मालूम होता है। सभी की राय ले लो। परन्तु यह निर्णय हो ही जाना चाहिए। प्रसव होने तक प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।'
ऐसा ही हो. माँ। वही करेंगे।" बल्लाल के इस आश्वासन ने उन्हें साधना दी। राजमहल में जो घटना घटी थी उसे सुनकर उनके मन पर पञ्जाघात-सा अनुभव हुआ था ! बाद में वे अपनी बहुओं के साथ सहज व्यवहार ही करती रहीं मानो कुछ हुआ ही नहीं।
बल्लाल के कहे अनुसार, विट्टिदेव और उदयादित्य दोनों दोरसमुद्र शीघ्र ही लौट आये।
एक प्रशान्त वातावरण में राजमहल का जीवन एक पखवारे तक गजरा। तारण संवत्सर समाप्त हुआ और पार्थिव संवत्सर का आगमन हो गया।
एचलदेवी की इच्छा के अनुसार, सिंहासन के उत्तराधिकारी को चुनने के सिद्धान्त पर निर्णय करने के लिए सभा बुलावी गयी और निर्णय भी किया गया। इसके फलस्वरूप बोप्पदेयो में अंकुरित एक दूर की आशा वहीं मुरझा गयी। इस मौके पर मरियाने दण्डनायक को भी बुलवा लिया था। उन्होंने भी इस निर्णय को योग्य माना और इन लोगों से कभी आपस में बातों ही बातों में कहे गये विषय को लेकर जिद करना उचित नहीं मानकर, अपनी बेटी को भी समझाया। __ पिताजी, इस निर्णय से मेरे बेटे की जान बच गयी समझो। यही मेरा अहोभाग्य है।'' कहती हुई एक माँस में बोप्पदेवी ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर
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दी निराशा, दर्द और एक समाधान की भावना तीनों उसकी बातों में सम्मिलित-सी प्रतीत हुईं।
वह इस बात को अधिक बढ़ाना नहीं चाहते थे इसलिए चुप हो गये। फिर चोप्पी ने ही पिता से बातें शुरू कीं, "पिताजी, लड़कियाँ प्रथम प्रसव के लिए मायके जाया करती हैं। मुझे क्या वह सौभाग्य भी नहीं मिलेगा?"
“मैं सिन्दगेरे में अकेला हूँ। नौकर-नौकरानी बगैरह तो हैं परन्तु रानी वनी तुमको वहाँ इस वक्त रखना उचित नहीं । यहाँ तुम्हारे बड़े भाई का भी घर है। राजधानी में ही रहकर राजमहल से इसके लिए अन्यत्र रहना युक्तिसंगत नहीं । अब बच्चा यादवपुरी में तुम्हारे दूसरे भाई का घर। मुझे तो तुम्हारी इस तरह की इच्छा का होना अनुचित नहीं लगता, इसलिए अगर तुम वहां जाने की बात मान लो तो मैं स्वयं सन्निधान से अनुमति लेकर साथ चलूँगा। वहाँ अब कोई राजा भी नहीं। राजमहल के अहाते में ही तुम्हारे भाई का सौंध है इसलिए सब ठीक हो सकता है।" मरियाने ने बताया ।
थोड़ी देर सोचकर बांप्पदेवी ने कहा, "वही कीजिए, पिताजी "
परिमाने ने महाराज के समक्ष बात छड़ी बल्लाल ने कहा, "सोचकर बताऊंगा।" फिर उन्होंने अपनी मां से और विट्टिदेव एवं शान्तलदेवी से भी सलाह लेकर अपनी सहमति दे दी I
एक अच्छे मुहूर्त के दिन नरम गद्दियों से सजी सुन्दर गाड़ी में कुसुम जैसी कोमल चोप्पदेवी को यादवपुरी में बड़ी सावधानी से पहुँचा दिया गया।
बोपदेवी के चले जाने के दो-तीन दिन बाद एक दिन बल्लाल मध्याहन के भोजन के पश्चात् पट्टमहादेवी पद्मलदेवी के साथ उनके प्रकोष्ट में गये। वहीं पान खाते हुए कुछ इधर-उधर की वालों में लग गये। इसी सिलसिले में उन्होंने पूछा, " पति के घर पर सब तरह की सहूलियतें रहने पर भी प्रथम प्रसव के लिए मायके जाने की इच्छा क्यों किया करती हैं? शायद स्त्रियों की यहीं रीति मालूम पड़ती हैं ?"
ओह, सन्निधान बोपदेवी की ही बात को ध्यान में रखकर सवाल कर रहे होंगे। वह मायके के प्रति प्रीति की बात नहीं, राजमहल के निर्णय का प्रभाव है।" पद्मलदेवी ने कहा ।
"इसके माने?"
"माने स्पष्ट हैं। निर्णय के विषय में असन्तुष्टि । लड़के का जन्म हुआ तो भी उसे सिंहासन पर बैठने का अधिकार नहीं रहेगा, इसी के कारण क्रीध है।" "न, न, जब उसने पूछा, 'सन्निधान हैरान तो नहीं होंगे, परेशानी तो न होगी न उस समय उसकी आँखों में दीनता का भाव झलक रहा था उसे तब देखना
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चाहिए था। गसमें क्रोध रंच मात्र का भी नहीं दीखा ! क्रोध को यों छिपाये रखना सम्भव नहीं होता।"
"वह दैन्य नहीं। मन-ही-मन जो शाप दे रही थी उसके लिए वह एक आवरण था। मैं अपनी बहिन को सन्निधान से भी अधिक जानती हूँ। वह हम सभी को शाप देने से कभी पीछे हटनेवाली नहीं। वह चुपचाप मौन साधे रहकर अन्दर-ही-अन्दर षड्यन्त्र करनेवाली धातुक प्रवृत्ति की है।'' कहते-कहते दाँत कटकटाने लगी। बाद में "दैन्न-वैन्न कहाँ? ऐसा होता तो जाते वक्त मुझसे आशीर्वाद लेने क्यों न आची? मैं तो अब छोटी बच्ची नहीं हूँ। अब मैं सब समझ गयी हूँ। मुझे यह भी मालूम हैं कि किसे-किसे पकड़ में रखना चाहिए।' पद्मलदेवी ने कहा।
बल्लाल को लगा कि सिर चक्कर खा रहा है। मुँह में पान की पीक भरी थी, उसे निगलते बक्त घूट गले में अटक गया। अपनी छाती पर हाथ रखकर बोले, ''पानी, पानी..."
घबराती हुई पद्यलदेवी छठी और एक चाँदी के घड़े में से कटोरे में पानी लेकर उनके हाथ में दिया। उसे पीकर बल्लाल वहाँ से उटकर चल दिये।
"सन्निधान यहीं आराम करते तो अच्छा होता।" पालदेवी ने उनके छाती पर रखे हाथ की ओर देखते हुए कहा।
"कुछ नहीं। सुपारी का टोष है, कुछ अटका-सा हुआ है। कुछ घबराने की जरूरत नहीं।'' कहकर फिर बात करने के लिए मौका न देकर अपने प्रकोष्ठ की
ओर चले गये। यहाँ पेट के बल अपने पलंग पर लेट गये। उनके दिमाग़ में पता नहीं क्या-क्या विचार अाते रहे। सब ठीक हुआ मानना केवल मरीचिका है। थंगली, थेगली ही रहेगी। जहाँ धेगली लगी वहीं फिर फटती है। इसे ठीक करना किसी के भी वश की बात नहीं। यही लगता है। स्त्री के इस मन को ऐसा तैयार करने के लिए भगवान किन-किन वस्तुओं का उपयोग करता होगा बात और तो प्रतिक्रिया कुछ और। छोटी रानी को गुस्मा है या इसी को? चाहे कोई गुस्सा करे, हमें तो मानसिक अशान्ति ही होगी? सही क्या है, ग़लत क्या हैं, इस बात का विचार न करके अपने को सब ओर से धन्द रखकर बैठनेवाली ऐसी औरतों के साथ रहना असाध्य है। पीष्टे चलकर जीवन असाध्य हो उठे तो कोई आश्चर्य नहीं। अच्छे गुस, उत्तम साधी संगी, प्रशान्त वातावरण, सब तरह की सख-समृद्धि सब बातों के होते हुए भी इस तरह का बरताय? इस तरह के व्यवहारां का फल प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष ही सही भुगतने के बाद भी ऐसा व्यवहार करे तो लगता हैं कि स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पता नहीं भगवान की क्या मी है। पहले ही मैं छोटे अप्पाजी की तरह माँ की बात मान लेता तो शायद यह हालत
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न हुई होती-यों कई तरह की बातों के बारे में सोचते-विचारत महाराज वलवाल पेट के बल लेटकर पड़े रहे, पता नहीं कब उनकी नींद लग गयी।
दिन के वक्त विश्राम करते ता भी जल्दी उठ जाने की आदत थी बल्लाल की। आमतौर पर भाई-बन्धु दोपहर के बाद सन्निधान के मन्त्रणामार के मुख-मण्डप में बैटकर कार्यक्रमों के बारे में विचार-विमर्श करते; यही उनकी तति थी। इसी क्रम में विट्टिदेव और उदयादित्य समय पर आये और सन्निधान की प्रतीक्षा में बैठे रहे। बहुत देर तक प्रतीक्षा की, फिर भी न आये तो सोचा कि सन्निधान रनिवास गये होंगे इसी शंका से यहाँ के नौकर से पूछा। ___ "भोजनान्तर सन्निधान पट्टमहादेवी के प्रकोष्ठ में तो गये, पर वहाँ से जल्दी ही लौट पड़े। और अपने प्रकोष्ट में जाते हुए आदेश दिया कि जब तक हम स्वयं नहीं बुलाएँ तब तक किसी की अन्दर न जाने दें। नौकर ने सूचित किया।
तुरन्त बिट्टेिदेव उदादित्य के साथ महाराज के प्रकोष्ठ की ओर गये। किवाड़ यों ही सरका दिया था। सोचा शायद अन्दर से वन्द हो। किवाड़ को कुछ ढकेला, किवाड़ खुल गया। अन्दर झोंककर देखा। महाराज पेट के बल लेटे पड़े थे। उदयादित्य को इशारे से बलाया, दोनों अन्दर गये। बल्लान का दायों हाथ पलंग से बाहर नरक रहा था। यह सोचकर कि ऐसी गहरी नींद शायट बहुत थके होने के कारण लग गयी होगी, उस लटकं हाघ को धीरे-से उठाने के विचार से उसे पकड़ा, तो देखते क्या हैं कि हाथ आग की तरह जल रहा है।
उन्होंने कहा, “उदय, शीध्र चारुकीर्ति पण्डितजी को खबर कर दो, जल्दी बलासो। भाताजी को भी बता दी। सन्निधान का बदन आग की तरह तप रहा
उदयादित्य ने पण्डित के वहाँ नौकर दौड़ाया। वह स्वयं माँ के पास गया और उन्हें ख़बर दी। में भी तुरन्त इसके साथ वहाँ आ गयीं। __इतने में बल्लाल जग गये थे। आँखें लाल हो गयी थीं, चेहरा चिपचिपा हो गया था। आते ही एचलदेवी ने बल्लाल का माथा कर देखा। "कब में छोटे अप्पाजी...?'' उन्होंने पूछा।
भाजन के वक्त तो स्वस्थ ही थे। सुना कि थोड़ी देर पटरानी जी के यहाँ रहे. फिर आकर लेट गये। हम रोज की तरह वहाँ आये, प्रतीक्षा की; बहुत देर प्रतीक्षा करने पर भी ये जब नहीं आये तो स्वयं चले आये। देखा, नींद में थे। शरीर तप रहा था। वैद्यजी को खबर कर दी है।"
"रानी को खबर नहीं दी?" चलदेवी ने पूछा।
“इसलिए नहीं कहला भेजा कि घबरा जाएंगी। वैद्यजी के आने के बाद वह जानकर कि क्या कहेंगे, तब कहला 'भेजेंगे।" विहिदेव ने कहा।
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“पहले उन्हें रखबर कर दो।" प्रचलरंबी ने कहा। "उनकी वहाँ ज़रूरत नहीं। इलान के मुंह से आवाज आयो । सब कित होकर उनकी ओर देखकर चुप रह गये।
शीन ही चारूकीर्ति पण्डित आयें। परीक्षा की, दवा निकाली। चूर्ण शहद में घोलकर चटा दिया। किसी को भेज देंगे नो एक क्वाथ (आगष्ट भेज ड्रगा। उसे दिन में दो बार एक पखवारे तक इना है।" और कहा, “आज राल कोई आहार न दें। सन्निधान से कोई ज्यादा वातचीत न करें। सन्निधान को पूर्ण विश्रान्ति की आवश्यकता है। कल सवो तक पसीना निकलकर बुखार उत्तर जाय तो बाद में कोई खतरा नहीं। सुबह में एक काढ़ा बनाकर लाऊंगा। वातावरण शान्त और मौन रहें। किसी तरह को आवाज़ से उनका विश्वान्ति भंग हो सकती हैं। इस बात का सब लोग विशेष ध्यान रखें। सन्निधान जिसे नहीं चाहते उस पर जोर न दें।" कहकर वैद्य चले गये।
महाराज अस्वस्थ हो तो सवाल इंटे बिना रहेगा कैस: उनके सामने सवाल न उठाने की मनाही बंद्य ने की। वे अपना काम करके चले गये । बिट्टिदेव उनके साथ बाहर पाये।
वैद्य ने उनसे पूछा, "कोई ऐसी बातचीत हुई जिससे महाराज के मन का कुछ परशा हु हो।"
''मालूम नहीं। भोजन के बाद पमहादेवी के साथ, मुना कि कुछ समय रिताया। अगर कुछ ऐसी बातचीत हुई तो वहीं हुई हो। व्योग जानना है। विहिदेव ने पूछा।
"जरूरत नही, कष्ट लक्षण से नगते हैं कि उन्हें कल भानसिक आघात हुआ है। उनके लेटे रहने की रीति, अचानक चढ़ा हुआ बुखार, नज्ञ की विचित्र गति यह सब परखने से तो मुझे ऐसा ही लगता है। सन्निधान जिस पास रहने की अनुमति दें और चाहे वे ही उनके पास रहें। किसी भी स्थिति में उनके पास कोई रहे, यह आवश्यक है। सन्निधान के पास क्यों न कोई रानी रही आग?"
महामातृश्री ने रानी को बुलान की बात जर कही तो सन्निधान ने कहा, उन्हें यहां आने की जरूरत नहीं " बिट्टिदेव ने कहा।
पोसा है तो उनका सन्निधान सं दूर रहना ही बेहतर है। मैं सुबह आऊंगा।' कहकर वैद्यजी विदा हा। विमय्या वैद्यजी के साथ गया और वाथ
अरिष्ट ने आया। बैधजी के कहे अनुसार उस दिन क्वाथ एक बार पिलाया गया। वारी-बारी से बिहिंदेव और महामातृश्वी ने रात वहीं विताची। पहाराज कर बड़वाते हुए चुपचाप सायं पड़े थे। ऋछ देर नींद-सी लगती फिर जग जाते।
दोनों गनियों ने बिना नींद के ही रात बितायीं। उन्हें सन्निधान से मिलने
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का मौका ही नहीं मिला।
पण्डित चारुकीर्ति ने समझा धा कि बीमारी एक सप्ताह के अन्दर ठीक हो जाएगी, मगर ऐसा न होने के कारण कुछ भीचक्के-से रह गये। उन्होंने दवा बदली। नवी जड़ी-बूटियाँ मंगवाकर सिद्धकल्प विधि से दया तैयार करके दी। मानसिक आवंश के कारण जो बीमारी शुरू हुई वह बुखार के उतर जाने पर भी दिमाग़ी बीमारी के रूप में बदल गयी। यह इर भी लगने लगा कि यह कहीं उन्पाद का रूप धारण न कर ले।
कारण तो बहुत छोटा था! मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया कि मुझे अपन पतिदेव की सेवा से वंचित होना पड़ा: जब मुझसे कोई ग़लती हुई ही नहीं तो यह मनाही क्यों?-या सोचकर जितना सहन कर सकी किया, आखिर पद्मलदेवी
.:: न पर । यह जी: सानिया के प्रदर में गयी। एक पखवारे की रोमारी के कारण बल्लाल बहुत कृशकाय हो गये थे। रुग्ण चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ बढ़
आयी थी। नाई का पास न आने देने और उस्तरे का प्रयोग न करने का आदेश दिया था। उनकी उस हालत को देखकर वह घबरा गयी। महामातृश्री की उपस्थिति का भी खयाल न करके वह मनमाने ढंग से कहने लगी, 'अनहानी कुछ का जाय तो भुगतनेवाती तो हम ही हैं। खाली सहानुभूति दिखानेवालों का क्या हैं : पति की सेवा करने का हक मेरा है। उससे मुझे भला बाँचत कौन कर सकेगा, मैं देगी। में यहाँ से हटूंगी ही नहीं। मेरी कोई परवाह ही नहीं करतं, इसलिए ऐसा हुआ। अपने लड़के को गही नहीं मिलगी-यह जानकर वाप्पि ने शाप दिया हैं। यह उसी के शाप का फल है। इसे खुद न देख सकने की ही वजह से वह बहाना करके यादवपुर चली गयी है। मैं देख लूँगी वह इस राजमहल में कैसे फिर आएगी। सन्निधान की सरलता का उसने दुरुपयोग किया। परमधातु की है वह। उसके गर्भ में पोयसल सन्तान नहीं। सन्निधान को लील जान के लिए चुडैल पैदा है। उसे हमल टिका, सन्निधान को रणक्षेत्र में भागना पड़ा। पेरा सामांगल्य अच्छा रहा. वे खतरे से पार हो गये। अब आठवा महीना है, उसी का कुप्रभाव है। मुझे भालूम है कि वह सन्निधान की बुराई के लिए है।" पद्मलदेवी यों बड़बड़ाती रहीं।
एचलदेवी सब सुनती रही, आगे ने सुन नहीं सकीं। तुरन्न उन्होंने जोर से घण्टी बजा दी; दो-चार नौकर उपस्थित हो गये एकदम। घटी की आवाज़ ने पद्यला के मुँह को बन्द कर दिया।
बल्लाल ने 'हाय-हाय" कहा। अपने चारों ओर क्या हो रहा है, इसका उन्हें भान न रहा।
"क्या है अप्पाजी,'' कहती हुई एचलदेवी ने आँसू भरी आंखों से बेटे की ओर देखा। बिट्टिदेव कहीं बाहर धा। आवाज सुनकर वह भी अन्दर आ गया।
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"माँ, मन को आयात लगनेवाला कोई शब्द न करें-बैद्यजी ने यही कहा था न? घण्टी किसने बजायौ?" विट्टिदेव ने पूछा ।
मैंने ही बजायी, छोटे अय्याजी। तुम्हारी इस परमहादेवो को उनके प्रकोष्ट में छोड़ आने की व्यवस्था करो।" एचलदेवी ने कहा।
"पट्टमहादेवा ! कहाँ है वह? उसका गला घोंट दूंगा।' चल्लाल गरजा।।
पालदेवी थरघर कांप उठी । "साय: भगवान मरी यह दशा: मेग जीना व्यर्थ है।" कहती हुई वह बाहर चली गयी।
लसकं पीछे ही बिादेव निकले। वह अपने प्रकोष्ठ में गयी और धड़ाम से किवाड़, बन्द कर लिये। विष्टिदेव ने नौकरों से कहा, ''सन्निधान की अम्वम्यता के कारण पट्टमहादेवी का मन बहुत विचलित हुआ हैं। यह कुछ कर न बैठे। होशियार रहना, निगरानी रखं रहना। फिर वह बल्लाल के शयन-कक्ष में चले गचे।
"हो, गनी को बुलवाएंगे अप्पाजी, वह मायक्रे गयी हैं।'' वाचलदेवी बल्लाल से कह रही थीं।
"हाँ ! न पहावी - आम माविन हो चुकं हैं न : आन दें, धीरे-स आएँ ।' अल्लात ने कहा । वैद्यजी आये। उन्हें बाहर ले जाकर चलदेवी ने जो हुआ सब कह सुनाया। ''अधको यह बीमारी उन्माद की आर न बढ़े। यदि वात
और बढ़ती तो उसका परिणाम बहुत बुग होता। मेरे मन में यह शंका रही कि यह बीमारी हैं, या ग्रहवाधा। अब यह निश्चित हो गया । वह बीमारी ही है। जवान बेकाबू हो तो ऐसे मांगों की बातों से शस्त्रावात से भी अधिक गहरा बान दिमाग पर हो जाता है। पहले से ही मेरी कुछ ऐसी शंका रही। अब निश्चित हो गया। अन्न तक की चिकित्सा और परीक्षा से कोई अभिलपित फल न मिला तो भी कोई चिन्ता नहीं। इरा आगामी ज्येष्ठ पार्णमा तक सन्निधान को स्वस्थ बना दूंगा। अगर ऐसा न कर सका तो इस बंधक वृत्ति को ही छोड़ देंगा। वैद्य को आरोग्य की रक्षा और प्राणां की रक्षा करनी ही होगी। यह कभी प्राणभक्षक नहीं बन सकेगा। चाहे कोई भी नाखुश हो, किसी को उनके प्रकोष्ट में आने नहीं देना चाहिए। नौकरों की भी जरूरत नहीं। मैं यहीं रह जाऊंगा। दवा की ज़रूरत होने पर खुद जाऊँगा और से जाऊंगा : में, गजा और आप-हम तीनों के सिवाय अन्च कोई इस प्रकाप्ट में न आने पाए।" पण्डितजी ने स्पष्ट कर दिया।
बंसी ही व्यवस्था को गयी। पोण्डतजी न बड़ी निष्ठा के साथ नियमानुसार दवा दी, चिकित्सा और उपचार से सन्निधान को स्वम्ध बनाकर, उन्होंने अपनी बात रखी। तीन पखवागें सं अधिक समय लगा; फिर भी पण्डितजी ने महागज का नारोग बनाकर अपनी प्रतिज्ञा को बनाये रखा। मृतप्राय बल्लाल जी उठे।
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अन्धकाराच्छन्न दौरसमुद्र का राजमहल फिर जगमगा इठा ।
फलपूर्णिमा के दिन यादवपुरी में घोप्पदेवी ने एक लड़की को जन्म दिया । महाराज की अस्वस्थता की खबर केवल मरियाने को ही दी गयी थी। वह एक धार आये और महाराज के दर्शन कर पद्मला को कुछ उपदेश देकर यादवपुरी लौट गये। पण्डितजी के कहने से बोप्यदेवी को ख़बर नहीं दी गयी थी। बल्लाल की वीमारी, पद्मलदेवी और महाराज के घोच का वातालाप, उसके बाद घटी घटनाएँ आदि किसी भी बात की बाप्पदेवी को खबर नहीं थी। गर्भिणी सुखी रहे, प्रसव सही हो-३ : से ही रह जातीशी कोई खबर नहीं दी गयी थी। उद्देश्य सफल हुआ। सही प्रसव भी हुआ।
राजमहल को जब इस बात की खबर मिली तब महाराज स्वस्थ हो रहे थे। उन्हें शायद ऐसा लगा हो कि राजकुमारी का जन्म होना ही अच्छा हुआ। हो सकता है कि पद्मलदेवी को भी खुशी हुई हो।
पहाराज की यह बीमारी और उसके उन्मादावस्था तक पहुँचने का हाल आदि सभी बातें मालूम होने पर शान्तलदेवी और चामलदेवी को बहुत घबराहर हुई। पहले भी इस पद्मलदेवी की ही बातों की वजह से असमाधान हुआ था। अब भी इस सारी घटना का बही कारण बन गयी। उसे ठीक करना असाध्य है। उसमें करीब-करीब माँ के कुछ गुण आये है- यही उन दोनों को लग रहा था। उन दोनों को बोप्यदेवी पर विशेष शात्मीय भावना उत्पन्न हो गयी। इस बात पर उन्हें सन्तोष भी हुआ कि बोप्पदेवो भविष्य को सोचकर यहां से दूर रही, इससे ठीक प्रसव भी हुआ। वहीं रही होती तो सम्भव था अकाल प्रसव आदि अनहोनी ही हो रहती। ऐसी दुर्घटनाएँ न हो पायीं, यही एक समाधान था। इस सम्पूर्ण घटना में अपना कोई हाथ नहीं या तो भी वैद्य के कथनानुसार किसी के महाराज के पास न जाने के नियम का चामलदेवी ने निष्टा और संयम के साथ पालन किया था। महाराज की अस्वस्थता के बारे में परोक्ष रूप से जानकारी प्राप्त होती तो थी, फिर भी वह भगवान से यही प्रार्थना करती थी कि उन्हें शीघ्र अच्छा कर दें। उसकी इस मनःस्थिति से शान्तलदेवी बहत सन्तुष्ट थीं।
जब पद्मसदेवी की बाप्पदेवी की लड़की होने का समाचार मिला तो उसने जो सन्तोष प्रकट किया वह निम्न स्तर का था, इसे समझकर दोनों उसके प्रति कुछ असन्तुष्ट ही हुई। शान्तलदेवी ने चामलदेवी से कहा, ''प्रसव के बाद धच्या-जाया दोनों सुखी हैं न, इससे बढ़कर और क्या चाहिए। मां बनने की आकांक्षा रखनेवाली स्त्री की यह इच्छा तो सहज है; जब माँ बनी तो बच्ची या बच्चे की कल्पना कर
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मेदभाव से अपनी सन्तान की देखना माँ का काम नहीं में लड़की है इसमें मेरी मां कभी दुःखी नहीं हुई। लड़के का जन्म न होने का उन्हें कभी दुःख नहीं मुआ।"
"सब ऐसा ही भमझती तो दुनिया की रीत ही और होती। यह सब जानकर भीमं खुद कही सुनी बातें सुनकर क्या से क्या बन गयी थी। फिलहाल भगवान इतनी कृपा करे तो काफी है कि उस पट्टमहादेवी को पहले एक लड़का दे दे !" वामदेवो बोली |
"आपको लड़का नहीं चाहिए।"
"कोन स्वी ऐसा कहेगी कि लड़का नहीं चाहिए। परन्तु पहले उसका लड़का हो जाए तो उसके जीवन का लक्ष्य सथ जाएगा। हम उसकी ईव्यों से बच जाएँगी। श्रम स्त्रियों को भगवान ने कैसे भी दुःख को सह लेने की शक्ति दे रखी है ! महाराज तो कठिन तों को नहीं सह सकेंगे। उसके सड़का हो जाय तो महाराज कभी बीमार न हो। हमारी मां न पहले से उसके दिमाग़ में ऐसी बातें भर टी है जो कहीं सड़ रही है। उसके मन में केवल ही बातें है कि महादेवी बने और उसका लड़का महाराज बने। इन दो बालों के अलावा उसके दिमाग में और कुछ हे नहीं
"बुराई करनेवालों के प्रति भी भलाई कर सकनेवाले कितने मिलेंगे?" "यह उपकार करने की बात नहीं में अपने को अच्छी तरह समझती हूँ । अपनी रक्षा और सुख के लिए तथा संविधान की मनःशान्ति के लिए उसने बढ़कर अच्छा कोई दूसरा मार्ग ही नहीं। इसमें उपकार करने की वृद्धि से अधिक स्वार्थ वृद्धि है। इस वजह से ये प्रशंसा सही नहीं है ।"
उपकार के बदले आपकार ही पानेवाले इस समाज में अपकार को दवा उपकार को माननेवालों की प्रशंसा होना सहज ही है। अच्छा, इस बात को रहने दें जब राजकुमारी के साथ बापदेवी यहाँ आएँगी तब हमें इस बात का खधाल रखना होगा कि महादेवी के मुंह से कोई व्यंग्य की बात न निकले और वहां जो कुछ हुआ इस बात की जानकारी उसे न दें - यही सूचना महामातृश्री ने दी मुझे भी यही ठीक लगता। इसलिए यहाँ को सब बातों को जाननेवालों का इस काम में सहयोग चाहती हूँ ।"
"इसमें मेरा पूर्ण सहयोग है। यदि वह ही कुछ छेड़कर जानना चाहे तो भी कुछ कहूँगी नहीं।" चाभलदेवी ने कहा ।
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यहां की परिस्थिति से परिचित सभी लोगों से आश्वासन पाने के बाद शान्तलदेवी रानी वोप्पदेती और राजकुमारी के स्वागत की तैयारी में लग गयीं । परियाने दण्डनायक के साथ बाप्पदेवी और राजकुमारी दोरसमुद्र पहुँचे। वैभव
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के साथ रानी का स्वागत किया गया। उनकी अनुपस्थिति में यहाँ जो ग़ज़री थी इससे अनजान रानी लोप्यदेवी को सन्लोप हुआ ही। बच्ची को दूध पिलाती रानी से एक बार मरियाने ने कहा था कि महाराज का स्वास्थ्य बिगड़ गया था, पर अब अच्छे हैं। यह दात यादवपरो में ही उन्होंने सुनायी थी। उस समय बोप्पदेवी ने बच्ची को लाती से लगाकर कहा था. ''बेटी, तम पर दो बार आरोप लगाया गया था कि तुम पिता का अहित करनेवाली हो; भगवान ने तुमको इस आरोप से बचा लिया है। वहीं पेरी कोख का सौभाग्य है ।" फिर बच्ची को चुम्मा देकर खुश हो उटी थी। उसी खुशी में राजमहल में उसने प्रवेश किया था। देहरी पर आरती उतारकर उसे अन्दर बुला लिया गया था। अपने बेटे की ही शक्ल-सुरत लिये नवजान राजकुमारी की एचलदेवी ने अपनी गोद में लेकर चूमा और आशीर्वाद दिया। ''सुखी रही येदी, अज्ञातावस्था में रहनेवाली तुमने राजमहाल में उथल-पुथल मचा रखी थी लेकिन आज खुशी के फव्वारे छूटे हैं। तुम्हारी उपस्थिति से आज राजमहल जगमगा उठा है।''
स्त्रियां की सारी मांगलिक क्रियाग समाप्त हुई, तब रानी बोप्पदेवी बच्ची के साथ महाराज के पास पहुँची। उन्होंने हँसते हा उसका स्वागत किया। वह अपनी ही आँखों पर विश्वास न कर सकी। उसे लगा कि इतना कमजोर होना हो तो यह वीमाग भी कैसी रही होगी। फिर भी उसने जल्दबाजी नहीं की। 'यह सन्निधान का अनुग्रह है।'' कहती हुई बल्लाल के हाथों में बच्ची को दे दिया। उन्होंने बच्ची को लेकर चुप्मा दिया। फिर कुशल-क्षेम के बाद उन्होंने कहा, 'यात्रा से यकी होगी धाव जाकर आग़म करो।"
बोपदेवी ने पूछा, "सन्निधान को इतना कमजोर बनानेवाली ऐसी भयंकर वोमागे क्या थी?'
'सव आराम से बताऊँगा। अब तो सब ठीक हो गया है न: अव तुम ज़्यादा अपने को थकाओ मत । जाओ, आराम करो।' बल्नाल ने कहा।
बच्ची को उनके हाथ से लेकर वह अपने प्रकोष्ठ की ओर चली गयी।
राजमहल का जीवन एक तरह से किसी तरह के लथल-पुथल के बिना चलने लगा था। शायद यही कारण है कि सब कम बोलते थे। बल्लाल महाराज को पूर्ववत् शक्तिशाली बनने के लिए काफ़ी समय लग सकता हैं, वही चासकीर्ति पण्डित ने कहा था। उन्होंने यह भी कहा था कि कम-से-कम एक साल तक वे स्त्री-सम्पर्क न करें। शरीर के दुर्बल होने की वजह से महाराज किसी भी काम में विशेष उत्साह नहीं दिखाते थे। इसलिए सब अपने-अपने कामों में लगे रहे, यो महना शायद ग़लत न होगा।
दिन गुजरते गये। महाराज अधिक समय विश्रान्ति में ही व्यतीत कर रहे थे,
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किसी राजकाज या अन्य तरह के कार्यों में समय नहीं देते किसी विषय को लेकर विशेष चिन्ता भी नहीं करते। यो ही समय व्यतीत करने से कुछ अच्छे विचारों की ओर महाराज का मन लगाने की बात सोचकर शान्तलदेवी ने यह अच्छा समझकर प्रतिदिन मध्यानान्तर कवि नागचन्द्ररचित रामचन्द्रचरतपुराण का पठन उसका अर्थ विवेचन एवं उस पर विचार चर्चा करने के कार्यक्रम का आयोजन किया। इस गोष्ठी में महाराज, रानियाँ, विहिदेव उदयादित्य एचलदेवी, शान्तलदेवी और कवयित्री कन्ति इतने ही लोग उपस्थित रहा करते। इस कार्यक्रम में बल्लाल कुछ नवीन स्फूर्ति से भाग लिया करते, जो उनके लिए आवश्यक भी था। फुरसत के वक़्त और कुछ न सांपकर काव्य के ही विषय में सांचा करते। इससे उनका उत्साह प्रतिदिन बढ़ता ही गया ।
"आपका काव्य उत्तम हैं प्रेरणा की मूल शक्ति हैं, यो होने
इतने में बल्लाल की वर्धन्ती भी आ गयी। तब तक रामचन्द्रचरतपुराण का वाचन भी समाप्त हो चुका था। विचार-यातां करते वक़्त कन्ति जो सवाल उठाती उसका उत्तर देना नागचन्द्र के लिए कुछ कॉटन होता था। कई एक बार उनकी सलाह के अनुसार उन्होंने कुछ इधर-उधर परिवर्तन भी किये। गुणपत्र और विमलसूरि की कृतियों ही आपकी पर भी विमलसृरि कृत रामायण का प्रभाव आपके है। बहुत विस्तृत रामकथा को संक्षिप्त बनाने में आपकी बुद्धिमत्ता विशेष रूप से प्रशंसनीय है। महाकवि पम्प की तरह श्रेष्ठ काव्य के निर्माण करने की आपकी अभिलाषा सफल हुई है। हम सब आपको अभिनव पम्प कह सकते हैं। परन्तु जब भी आप एक विषय को स्वीकार करें तो बदल सकते हैं। यह मुझे मालूम हैं कि कवि की स्वतन्त्रता को कोई छीन नहीं सकता। फिर भी वह विषय मूल से कुछ निम्न स्तर का सा लगता है, मूल के गाम्भीर्य की सीमा का उल्लंघन हुआ-सा लगता है।" कन्ति ने कहा ।
में है वह
"कौन-सा विषय आपकी ऐसा लग रहा हे?" नागचन्द्र ने पूछा।
"सीताजी के मोह में उन्मत्त रावण द्वारा प्रलोभन देकर उन्हें पाने के प्रयत्न के प्रसंग में संवाद की गम्भीरता कुछ ढीली हुई-सी प्रतीत होती है। मूल में जो गम्भीरता रही है उसे वैसे ही रहने देत ती ठीक होता!" कन्ति ने कहा ।
"मैं विमलसूरि की कृति का अत्यन्त ऋणी हूँ। उनके द्वारा निर्मित पात्रों के स्वरूप में परिवर्तन लाने की मेरी इच्छा नहीं। यह परिवर्तन नहीं, संग्रह है। उनके और हमारे समय के व्यवहार में बहुत अन्तर है। समकालीन रीति-नीतियों को छोड़कर कवि जी नहीं सकता। उसे उसी पुगने ढंग पर चित्रित करने पर तो कवि कृतक बन जाता है। समसामयिक रीति-नीतियां काव्य में समन्धित हो तभी काव्य में नवीनता आ सकती है। तभी लगता है, "हां, यह सहज है।" यही भाव लोगों
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में उत्पन्न होता है। आज की रीति-नीतियाँ सार्वकालिक हैं, काव्य-रचना इसी आवरण में होती रहेगी, या कैसे कहा जा सकता है? बात पुरानी होने पर भी कहने का ढंग नया बनता है। इसलिए यह प्रसंग ऐसा ही रहे, मेरी इच्छा है। इस बात पर विश्वास करना भी कठिन है कि मेरा यह काव्य अपरिवर्तित होकर जैसा अब है वैसे आगे भी बना रहेगा। जैसे-जैसे नकल उतारी जाएगी, परिवर्तन भी होता रहेगा। नकल उतारनेवाले की त्रुटि के कारण या उसकी प्रतिभा के कारण मूल रूप बदल भी सकता है। इसलिए ऐसा ही रहे," नागचन्द्र ने कहा।
एचलदेवी ने पूछा, ''कवि निष्ठावान जैन हैं। बालचन्द्र मुनिवयं के प्रिय शिष्य हैं। कर्नाटक के जैन कवियों ने जैन-गुराण ग्रन्थों की रचना करके गहुल उपकार किया है। हमारे छोरे अप्पाजी ने आपसे सीखे आदिपुराण, शान्तिपुराण और
अजितनाथपुराण आदि की कथा मुझे सुनायी है। आप एक जैन-पुराण क्यों नहीं लिख सकते?" ___''बहुत समय पहले मैंने मल्लिनाथपुराण लिख रखा है। परन्तु उसमें बहुत परिष्कार की आवश्यकता है।''
"उस काम को जल्दी कीजिरा न!" एचलदेवी ने कहा।
"जो आज्ञा। मरियाने दण्डनायक जी ने मुझ पर बहुत बड़ा अनुग्रह किया। उन्हीं के कारण मुझे पोय्सल राजाओं का आश्चय प्राप्त हुआ। यहां मैंने जितने दिन व्यतीत किये वे साधक रहे। यहाँ रहकर राजमहल के व्यक्तियों से लेकर एक सामान्य नौकर तक सभी लोगों के जीवन की रीति-नीतियों का परिचय पाने से मुझे काफ़ी अनुभव प्राप्त हुआ। काय के शरीर को पुष्ट बनाने में इस अनुभव से विशेष सहायता प्राप्त होगी। इससे समसामयिक प्रज्ञा मुझमें जाग्रत हुई है। कन्तिदेवी ने भ्रातृवात्सल्य से अपना सम्पूर्ण सहयोग देकर यह प्रमाणित कर दिया हैं कि बार-श्रीसम्पन्न रचनाकर मात्सर्यरहित और सहृदय होते हैं। वे एक महाकाव्य की रचना करके टेंगी तो सारस्वत लोक का बड़ा उपकार होगा। इस अभिनय बाग्देवी का नाम अमर हो जाएगा। इस प्रकृत सन्दर्भ में मैं उनसे प्रार्थना करूँगा कि वे एक महाकाव्य की रचना करें।" नागचन्द्र ने कहा।
"भगवदिच्छा होगी लो काव्य-रचना हो जाएगी," क्रन्ति ने कहा।
वर्धन्ती के इस अवसर पर चारुकीर्ति पण्डित, कवि नागचन्द्र और कन्तिदेवी को सम्मानित करने का निर्णय भी हुआ।
निर्णय के अनुसार पण्डित चारूकीर्ति को 'बल्लाल जीवनरक्षक', कन्तिदेवी को 'अभिनय वाग्देवी' और कवि नागचन्द्र को 'कविता मनोहर' विरुद से अलंकृत किया गया और कंकण चूड़ी पहनाकर, दुशाल ओढ़ाकर सम्मानित भी किया गया।
यों कुछ महीने शान्ति से गुज़र गये। महाराज यल्लाल मानसिक-स्वास्थ्य के
पट्टपहादेवी शान्ताला : भाग दो :: :6:/
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कार दिन-ब-दिन स्वस्थ होकः शक्तिलाभ कर रहे थे। उनकी मालत ध्यान में . रखकर विहिदेव द्वारसमुद्र में ही रह गये। वधता के समारम्भ के बाद उदयादित्य यादवपुरी चले गये। किसी तरह की विशेष घटना के बिना पार्थिव संवत्सर समाप्त होकर व्यय संवत्सर ने प्रवेश किया।
महाराज वन्लास जब से वेगान्चों के युद्ध में गये तब में रानियों की मानसिक शान्ति भंग हो गयी थी। उसके बाद पूर्णरूप से मानसिक शान्ति रही ऐसा कहा गह जा सकता था ! एक आरोग्य जीवन राजमहल में गुजार रहा था लेकिन बाद म महाराज की अस्वस्थता के कारण उसमें हेर-फेर अा गया था। अन्तरंग के यह विचार दिमाग में कीड़ा बनकर मस्तिष्क में छंद बनाने जा रहे थे। महाराज कामक्तो कदम: द टीवन्न कारण देश्यवश गनियों से सम्पर्क नहीं लख रहे थे। कभी प्रसंगवश मिलने तो गन्टहास के प्रति मन्द्रहास कर देते। इतना हो। इससे अधिक घटने का मौका ही नहीं देते। वास्तव में कान्त में वे किसी रनी स मिलने डरत थे, कहा जा सकता है। उन्हें इस बात का डर था कि
नई माथ का कान्न, पता नहीं किधर घसीट देगा। इस तरह रहने में इन्हें कोई मानांसक वेदना अनभूत नहीं हुई थी। या यों कहा जा सकता है कि इससे उन्हें वह मानभिः शान्ति मिली थी।
शनियों की मनःस्थिति गम। नहीं थी। काकी जीवन के कारण च और उदास हो गयीं थीं। बाप्पादेवी का ग अकंपन के ऋष्ट से बचाने के लिए अपनी बच्ची का का सहारा मिल जाता। शेप दोनों को ऐसी कोई सहूलियत भी नहीं थी। चामानदवी त-साई के कष्ट का अनुभव करने पर भी संयम के साथ बलती रहीं। उसका यहीं अभिनाय था कि अपने ताल्मालिक सुख से भी सन्निधान का स्वास्थ्य अधिक प्रधान है।
पदमादेवी भी सह सकती थी; सन्निधान के स्वास्थ्व सं वह अपरिचत तो नहीं थी। एकान्त में उनसे दो-चार बातें करने तक का मौक़ा न हो, इसके क्या माने हैं: एकान्त में थोड़ा समय उनके साय घट्गी तो क्या में उनके शरीर का खून वृस लँगी: क्या मैं नहीं चाहती कि वे स्वस्थ रहें, भी भी अपन सहाग की चाह है। अपना मौमांगल्य बच्चा रखने में मुझे श्रद्धा है। फिर भी मुझो एकान्त में उन न मिलने टने के लिए राजमहल में कोई पड़यन्त्र रचा जा रहा है। असूया के कारण ही य किया जा रहा है। निधान से मेरा सम्पर्क है। छुड़ा देने पर शायद किसी की कोई आशा पूरी होगी। इसीलिए! यह सब हो रहा है। यह स्थिति यों ही रहने दूं तो वे पड्यन्त्रकारी मुझे राजमहल से भी बाहर कर देंगे ! चामला जो इतनी मिलनसार थी वह भी आजकल बहत ही सीमित और कम मिलती है।
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लगता है कि वह भी इस षड्यन्त्र में शामिल है। पता नहीं उसे कौन सा लालच दिखाया गया है। जो भी हो, सबने मेरा साथ छोड़ दिया है। पिता से भी झिड़कियाँ दिला सकनेवाले लोग क्या नहीं कर सकेंगे? इसका कुछ-न-कुछ प्रतिकार करना ही होगा -पाला ने यह निश्चय किया। क्या करना होगा, इस पर सोचती ही रही। उसे कुछ सूझा ही नहीं। उस हालत में वह किसी से सन्नाह भी नहीं ले सकती थी; क्योंकि उसके मन में यह भावना बाई 1 चु
ब ह के है। वह सोचती कि अगर माँ होती तो कोई-न-कोई रास्ता निकाल सकती थी। वह होती तो मेरी यह हालत न हुई होती। खुद भी उमंग से उछलती और मुझे भी उमंग से भर देती। बल्लाल के साथ विवाह होने की बात जब स्वप्न की चीज़ बनी थी तब उसे माँ के प्रति एक असह्य की भावना आयी ज़रूर थी, परन्तु अब एकदम उसका गुणगान करने लगी। हमारी सहलियत के लिए बाक़ी सब लोग हैं, यह भावना जब बढ़ जाती है, तब ऐसा ही हुआ करता है। गुणगान करते रहने पर भी जब वह मदद करने के लिए आएगी ती नहीं। फिर भी उसका नाम स्मरण करने से रूपांते मिल सके तो अच्छा ही है न? मां का स्मरण करती हुई स्फूर्ति की आशा में पद्मला बैंटी रही। इतने में वर्धमान जयन्ती का पयं आ गया। ___इस पर्व में विशेष पूजा-अर्चा की राजमहल में व्यवस्था करनी धी। पुरोहित जो कुछ करना है, उस बताने के लिए आ गये। महामातृश्रीजी थी, इसलिए उन्हीं को तह सब बताकर राजमहल से जाने के पहले पट्टमहादेवी का भी संदर्शन करते गये।
वर्धमान जयन्ती के लिए राजमहल में विशेष अर्चना की व्यवस्था हुई थी। सभी इस कार्य में श्रद्धा-भक्ति के साथ जुट गये। सबका मन हर्षोल्लास से भर गया था। उस दिन की पूजा के प्रधान कर्ता ये महाग़ज बल्लाल और पद्मलदेवी। इसलिए इन दोनों को संग बैठना पड़ा था। भोजन के वक्त भी वैसी व्यवस्था होने के कारण साथ ही बैठे थे। भोजनोपरान्त आराम करने के लिए निकलते समय पद्मलदेवी ने कहा, "आज मन बहुत प्रशान्त हैं। पुरानी कई बातें याद आ रही हैं। सन्निधान से एक विनती करने का इरादा है। मेरे प्रकोष्ट में पधारने का अनुग्रह करें।" इसकी आँखों में दैन्य धा। इसका बल्लाल के मन पर प्रभाव पड़ा। इसके अलावा सुबह से एक साथ रहने से उसका भी शायद कुछ प्रभाव पड़ा था। इसलिए वह उसके प्रकोष्ठ में चले गये।
उन्हें पलंग पर बिठाकर पान दिया। और खुद भी पान खाने लगी। पान पूरा चबा लेने तक कोई बातचीत नहीं हुई। पैर पसारकर तकिये का सहारा ले बल्लाल लेटे रहे। पद्मलदेवी उनके पैर दाबने लगी। उस हाथ की गी लगने से बहुत समय तक वंचित रहने के कारण यह पैर दाबना सुखकर ही लगा होगा, यह कहने
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की जरूरत नहीं। पैर दान-दावते उसने कहा, 'समिशन के पैर फिलन कृश हो गये हैं।'
''यह शरीर ही अशाश्वत है, इसकी सूचना देने के लिए पैर ऐसे बन गये हैं।' दल्नाल ने कहा।
'सन्निधान अभी से विरक्त हो जाएं तो हम लोगों का क्या हाल होगा?'' "हम लोग, इस बहुबन्धन का प्रयोग क्यों?''
"कवचन होगा कैसे एक लक्ष्य रखनेवाली और सन्निधान की पाणिगृहीता हम तीनों पृथक-पृथक् तीन शरीर मात्र हैं न?"
"ओह, सौतों की तरफ़ से भी पट्टमहादेवी विनती कर रही हैं। "सौत होने पर भी वहिनें ही तो हैं।"
"बहिनें होकर भी सौत हैं, इस भावना से सौतें बहिनें हैं, यह भावना अधिक अच्छी है।" वल्लाल ने कहा।
"देरी से इसका बोध हुआ है। पद्मलदेवी वाती! "वात हृदय से निकली हो तो सन्तोष का विषय है।"
"हम सयका जीवन इस प्राम्भिक दशा में जैसा था वैसा ही होना चाहिए। उस अमराई में, जन आन-मंजरियों से लदे वृक्षों के बीच जैस हमारे वे दिन व्यतीत हुए वैसा ही होना चाहिए । अब सब-कम है, फिर भी कुछ नहीं ऐसा जीवन किस काम का सन्निधान इस यात को जब तक स्वीकार न करें और मेरे प्रकोष्ठ में आकर साथ न रहें, तब तक मंगे वही धारणा रहेगी कि मुझे मान्नधान से दूर रखने का एक षड्यन्त्र राजमहल में हो रहा है। इस षड्यन्त्र का कारण सन्तान पाने की मेरी आकांक्षा है, जो सहज है और पट्टमहाटेवी होने के नाते भी हैं। हमारे विवाह को करीब-करीब तीन वर्ष हो गये, फिर भी माँ बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। इस सौभाग्य की प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिए, इस बात को लेकर मैंने पुगेहितजी से पूछा । इसन्निा पाछा कि बोप्पदेयी पर भगवान 'ना ने कृपा की वह मुझ पर क्यों नहीं की। उन्होंने कहा कि इसके लिए नागदेव की प्रतिष्टा करें। सन्निधान से पृष्ठकर इस विषय में पुरोहितजी से गय लेनी चाहिए थी। इस पर पहले विचार कर लेती तो ऐसा करना सम्भव हो सकता था। परन्तु वधमान जयन्ती के सन्दर्भ में पुरोहितजी जब राजमहल में आय तो उन्हें देख अचानक मेरे मन में यह भावना आदी। उन्हें चलवाकर पूछ लिया। सन्निधान मुझपर अनुग्रह करें।"
बल्लाल ने तुरन्त क. जवाब नहीं दिया। किसी सोच में इंव रहे।
थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद पक्षालदेवी ने पुख, "क्या, सन्निधान की इच्छा नहीं :"
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"तुम्हारी इच्छा अपने ही लिए हैं न?" "मुझ पर भगवान : : नहीं दु है, यह मुझे पापा को यही में
आयेलापा
"फिर भी इस विषय पर दूसरों का भी अभिपत जान लेना, मेरी राय में उचित होगा।
"सन्निधान को रोक कौन सकता है?" "तो तुम्हारा मतलब है कि किसी का अभिमत जानने की जरूरत नहीं।"
"इसका यों माने न लगाइएगा। अगर किसी ने इनकार कर दिया तो तब क्या होगा?"
"इनकार क्यों करेगा"
"सब के मन के अन्दर प्रवेश कर जानने की कोशिश करना, सम्भव हो सकता है?" ___ "हम लोग कहने पर यह जरूरी हो जाता है कि 'हम' में सम्मिलित सभी की बात जानने की कोशिश होनी चाहिए।"
मेरे मन में जैसे विचार हैं, वे ही मेरी बहिनों के भी हों और पुरोहितजी ने जो सलाह दी उसे भी वे मान लें, तो मैं जानती हूँ, सब ठीक हो जाएगा। अगर उनमें वे भावनाएँ न हों तो मत-भिन्नता हो जाती है। परन्तु जब मैंने 'हम' कहा तब मेरा इतना ही अभिप्राय था कि सन्निधान के प्रेम का फल मेरी बहिनों को भी मिले। इसलिए बहुवचन का प्रयोग किया।"
''यह बातों का विन्यास है। उन सबसे पूछकर देखेंगे तभी हमें समाधान होगा।' यह कहकर बात बहीं खत्म कर दी बल्लाल ने।
"जैसी सन्निधान की इच्छा।" पद्मलदेवी ने कहा। "हमें जो बुलाया सो काम समाप्त हुआ न?"
"आज यहीं ठहर जाएँ। हो सकेगा" कहती हुई महाराज का हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाने लगी।
उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।
''इसके लिए वैद्यजी से अनुमति लेनी होगी" पप्पलदेवी पूछना चाहती थी। परन्तु पता नहीं, क्या सोचकर पूछा नहीं।
"तुमने जब खुलकर सवाल रखा तो मैं यहाँ न ठहरकर चला जाऊँ तो तुम इसका कुछ और ही माने निकाल लोगी। इसलिए रहूँगा।" कुछ देर सोचने के बाद बल्लाल ने कहा।
'सन्निधान इतने दिन तक यहाँ नहीं आये।" "इसके लिए तुमने षड्यन्त्र समझ लिया। अभी तक तुम्हारा मन साफ़ नहीं
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हो सका। तुम्हारे मन में एक सन्देह का भूत घर कर बैठा है कि तुम्हारी अभिलाषां पूर्ण होने न देने के लिए कहीं कोई रोक-रुकावट डाल रहे हैं। एक बात अच्छी तरह समझ लो । हमने सबको पाप-तौल कर देख लिया है। किसी को तुमसे द्वेष भाव नहीं। अगर किसी को कुछ द्वेष भाव हो भी तो प्रेम से उन्हें अपनाने की शक्ति पट्टमहादेवी में होनी चाहिए। यहीं मेरी आकांक्षा है। परन्तु तुम कहीं गहरे गड्ढे में जा पड़ी हो। पता नहीं तुम कब उससे ऊपर उठोगी। भगवान ही जाने !” "मैं किसी से द्वेष नहीं करती।"
"मैंने कहा कि तुमको अपने मन में निर्व्याज प्रेम बसाना चाहिए।" "तो क्या मैं सन्निधान से प्रेम नहीं करती ?"
"तुम्हारा प्रत्येक कार्य स्वार्थ से घिरा है इसलिए एक परिपूर्ण व्यक्तित्व तुममें विकसित होना मुश्किल है "
"तो मतलब यह कि मैं सन्निधान के योग्य नहीं यही है न सन्निधान का आशय ?"
"तुम जिस पद पर बैठो हो उसके योग्य बनने का प्रयत्न नहीं कर रही हो, मेरे कहने का यह आशय है।"
"योग्य कैसे बनना होगा? मैं जाकर उस चामला के पैर पहूँ? वह आजकल मेरी परवाह ही नहीं करती। आमना-सामना हो जान तो केवल हँस देती है। रही चोप्पि, उसकी बात छोड़िए, लड़की को जन्म देकर ही वह इतनी गवली हो गयी हैं। यदि वह लड़के की माँ बन जाती तो हमें भूनकर ही खा जाती । सन्निधान को स्त्रियों की चाल मालूम नहीं पड़ती; समझ में नहीं आती। सबने मिलकर मेरे विषय में सन्निधान की दृष्टि को ही बदल दिया है। मैं कंवल नाम के वास्ते पट्टमहादेवी हूँ। पर सबके पैरों की धूल बनी हूँ। ऐसा जीवन जीने मे मरना अच्छा। स्वार्थ मुझे अकेली में है दूसरों में नहीं? स्वार्य, मुझमें इस स्वार्थ को जगानेवाले कौन? मुझे पीठ पीछे बाँझ कहकर किमने अपमानित किया? सन्निधान की ऐसे ही लोग ठीक जँचते हैं। वही हो। मैं बाँझ रहकर ही समाप्त हो जाऊँगी। स्वयं तृप्त करने के व्याज से सन्निधान को यहाँ ठहराने की मेरी इच्छा नहीं । सन्निधान को भी मुझ जैसी तृप्ति और सन्तोष हो इसलिए मैंने निवेदन किया था। मैं सन्निधान को किसी भी तरह से रोकनेवाली नहीं हूँ। जहाँ इच्छा हो सन्निधान वहाँ विहार कर सकते हैं।" कहकर पद्मला यहाँ से उठकर प्रकोप्ट का दरवाजा खोलने को उद्यत हुई ।
उसकी मनोवृत्ति को समझनेवाले बल्लाल स्वयं उठकर उसे रोककर बोले, " जल्दबाजी में कुछ अनहोनी कर बैठने में तुम अपनी माँ के ही बराबर हो - ऐसा ही लगता है। यों बड़बड़ाकर बात करना ठीक नहीं। आओ ।" कहकर उसे जबरन
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पलंग पर बिठा लिया।
उसने झटका देकर निकल जाने की कोशिश की परन्तु वैसे हो न सका । "आप मुझे कुछ भी कहें, मगर मरकर सुरलोक में रहनेवाली मेरी माँ की चात यहाँ क्यों उठाना चाहिए थी?" पद्मला ने प्रतिवाद किया।
"जो बात है सो कहा तो इसमें असमाधान की क्या बात हुई तुम ही ने तो अपनी माँ के चारे में आक्षेप किया कि उस तरह का उनका व्यवहार ठीक नहीं था। यह बात तुम अपने पर लागू करके अपने को ठीक बना लो, यही मेरे कहने का आशय है। इसके किसी अन्य अर्थ की कल्पना मत करो।"
"हीं, मैं तो सदा अपार्थ की ही कल्पना करती रहती हूँ। इसलिए मेरा संग सन्निधान जैसे गण्य व्यक्तियों के योग्य नहीं। इसलिए, आपको सहूलियत हो इसी खयाल से मैं किवाड़ खोलने निकली थी।"
"वह तुम्हारी टेढ़ी मनोवृत्ति का प्रतीक है।”
"किसकी प्रेरणा से सन्निधान मुझपर यह आरोप लगा रहे हैं ? "
"इसके लिए प्रेरणा की क्या जरूरत हैं? आँखों देख-सुनकर एक-दूसरे का विरोधी जानने के बाद ऐसा ही सोचा जा सकता है।"
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"हाँ, मेरा सारा काम तो दूसरों के विरुद्ध है। हँसते-फुटकते मीठी बातें करके अपनी इच्छा अनुसार नचाने की हिकमत कर उस व्यभिचारिणी चट्टला से नाटक रंचाकर सब काम साधनेवाला कौन है, ये मैं जानती हूँ। उनका क्या लक्ष्य है सो भी मैं समझती हूँ। वह है वह पोथ्सल राजगद्दी । सन्निधान इन बातों की ओर से बेखबर हो सकते हैं मैं तो अन्धी नहीं बन सकती । षड्यन्त्र के खुल जाने के डर से उस बाचम को सूली पर चढ़ा दिया गया न!" "इन असंगत बातों को बन्द करो
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हमारी सहनशक्ति की भी कोई सीमा
हैं।"
"यह जानना अच्छा होगा न कि औरों की सहनशक्ति की भी कोई सीमा होती है। पीढ़ा लगाकर मिष्टान्न सामने रखकर खाने से मना करें तो कितने समय तक उसे बैठे देखते रह सकते हैं? स्वास्थ्य के बहाने वैद्य से कहलाकर रानियों के संग से दूर रखने का उद्देश्य और क्या हो सकता है? इसका यही तो माने हुआ कि पत्तल परोसकर सामने बिठाकर खाने से मना कर देना । सन्निधान को सोचना-विचारना चाहिए। रानियों के पुरुष सन्तान न हो तो उससे लाभ किसे होगा ? यह आप समझें न समझें, यह बात मेरे लिए इतने महत्त्व की नहीं। अभिलषित भोजन सामने पाकर मैं व्रत नहीं रख सकूँगी। सन्निधान ऐसा ही रहने का आदेश दें तो परिणाम क्या होगा। सो मैं कह नहीं सकती। कुछ भी हो मैं अब चुप रहनेवाली नहीं, भले ही कोई होनी हो जाय। अब सन्निधान स्वयं निर्णय
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कर लें।"
नागचन्द्र बल्लाल की सभी शास्त्र पढ़ा चुके थे। इससे उन्हें यह समझने में सहायता हुई कि यह अतृप्त वासना का रूप हैं। उसने माना कि इस वासना को तृप्त कर दें तो सब ठीक हो जाएगा। इसलिए पट्टमहादेवी के ही प्रकोष्ठ में वह रहने लगे। फलस्वरूप राजमहल का वातावरण कुछ नया रूप धारण करने लगा।
शान्तलदेवी, विवि और महामातृश्री एचलदेवी के प्रति विशेष आदर होने के कारण चामलदेवी और बोप्पदेवी अपने-अपने स्वार्थ को महत्त्व देकर राजमहल के वातावरण को बिगाड़ना नहीं चाहती थीं। क्योंकि हितवचन चाहे कितना ही श्रेयस्कर क्यों न हो, स्वार्थ उसके आगे झुकेगा नहीं। वर्धन्ती के वक़्त जब मरियाने आये थे तब अकेली रहकर इस तनहाई के कष्ट को भोगते रहने और इस क्रोधाद्वेग को पनपने देने से बेहतर यह होगा कि पिता के घर जाकर पिता के साथ रहें, इस विचार से वामलदेवी और वोप्पदेवी दोनों ने वहीं जाकर रहने का निश्चय किया । पद्मलदेवी ने इतना शिष्टाचार भी नहीं निभाया कि उन्हें जाने से रोकने को कहती। उसने समझा बला टल गयी। अपनी बड़ी बेटी की यह हालत देखकर मरियाने बहुत दुःखी हुए। मगर बोले कुछ नहीं ।
दिन गुजरते गये। चल्लाल ने राजकाज की सभी तरह की जिम्मेदारियाँ बिट्टिदेव पर छोड़ रखी थीं। वे पट्टमहादेवी के शयन कक्ष से ही सन्तुष्ट और सीमित रह गये । इस तरह के जीवन का फल भी मिला । पद्मलदेवी गर्भवती हुई । वह गर्व से फूल उटी । हजार-हज़ार पनौतियाँ मनायी गयीं, बेटा ही हो। उसकी इच्छा सफल हुई । "अपने विरोधियों को रौंद सकनेवाले सिंह को जन्म दिया है, इसलिए इसका नाम नरसिंह रखा जाए।" पद्मलदेवी ने कहा। बल्लाल की इच्छा थी कि अपने दादा के ही नाम पर उसका अभिधान करें। पद्मलदेवी की इच्छा के सामने उन्हें झुकना पड़ा। राजकुमार में मेरा ही खून है लेकिन यदि माँ के गुण इसमें आ गये तो विनयादित्य नाम उसके लिए अन्वर्थ न होगा। इस तरह का भी विचार उनके दिमाग़ में एक बार आया । वह पद्मलदेवी के हाथ की कठपुतली ही बन गये थे।
बिट्टिदेव कुछ समझा-बुझाकर राजकाज में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देते तो वे कहते, "पट्टमहादेवी को तृप्त रखना ही एकमात्र साधन है राजमहल में शान्ति स्थापना के लिए। हम चाहें या न चाहें, हमें ऐसा ही करना होगा। शेष सारा कार्य तुम्हारे जिम्मे हैं, छोटे अप्पाजी। इस विषय का उल्लेख भी मेरे सामने न करो, मुझे सोच-विचार करने के लिए प्रेरणा भी मत दो। तुम्हारे हाथों में राष्ट्र सुरक्षित है, दिया I यही मेरे लिए पर्याप्त है।" बल्लाल ने अपना निर्णय सुना
पद्मलदेवी का व्यवहार शारीरिक तृप्ति तक सीमित हो गया। शेष सब बातें उसे गौण थीं। बल्लाल का जीवन यान्त्रिक बन गया था। पद्मलदेवी के लिए यह
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जीवन स्वर्ग-सा लग रहा था। परन्तु पालदेवी को याद नहीं सूझा कि बल्लाल के लिए यह जीवन नरक बन गया है।
समय सरकता रहा। दुर्भाग्यवश बोपदेवी की बेटी बीमार हो गयी और उसी में इहलीला समाप्त कर चल बसी। तब भी पद्मलदेवी के मन में यह विचार नहीं आया कि उसे राजधानी में बुलाकर कुछ सान्त्वना देवें। महाराज बल्लाल पट्टमहादेवी और राजकुमार के साथ वहाँ गये जहाँ बोप्पदेवी थी और उसे देख आये।
चामलदेवी को अपनी दीदी (पद्मला) का यह व्यवहार बहुत बुरा लगा। उसे लग रहा था कि वह दुःखी बहिन के दुःख में सहभागिनी होने नहीं, बल्कि अपना लड़का दिखाकर उसे चिढ़ाने आयी है। बात कुछ कड़वी थी पर थी स्पष्ट ।।
बोप्पदेवी प्रतिक्रियात्मक भावना में बोली, “भगवान अन्धा नहीं। जो नमक खाते हैं उन्हें पानी पीना ही पड़ेगा।"
चार-छ: साल पुर गो : जापतली और बोगटेनी दोनों राजधानी में लौट आयीं। ऐसा दिखता था कि सब-कुछ शान्ति और सन्तोष के साथ चल रहा है। महामातृश्री एचलदेवी भगवान से यही प्रार्थना कर रही थीं : “शान्तिमय वातावरण के रहते हुए, हे भगवान मुझे दुनिया से उठा लो।" परन्तु भगवान ने उनकी विनती सुनी ही नहीं।
भगवान की रीति निराली है। वह किसी की समझ में नहीं आती। अपनी इच्छा के अनुसार काम हो गया तो कहेंगे कि ईश्वर की कृपा हुई । इच्छानुसार काम न हुआ तो कहेंगे कि पुराकृत कर्म का फल है। गुस्सा आ गया तो कह बैठते हैं कि भगवान अन्धा हो गया है। परन्तु भगवान न तो आसक्त है, न अनासक्त ही। सब-कुछ पहले से नियोजित हैं, यों नहीं समझते। इस दशा में, एक दिन राजकुमार नरसिंह शाम को खेल रहा था। अचानक उसने कहा कि गले में दर्द हो रहा है। तुरन्त बैंथजी को बुलाया गया। औषध-उपचार शुरू हुआ। परन्तु कुछ सफलता नहीं मिली। वह गण्डमाल रोग बालक राजकुमार नरसिंह को दुनिया से उठा ले गया।
पद्मलदेवी इधर सिहिनी बन बैठी । एक तरह से अशक्त बल्लाल को अकेले ही इसके सब तरह के उत्पातों को सहना पड़ता था। बों तो राजकुमार की मृत्यु सहज ही बीमारी के कारण हुई थी, परन्तु पालदेवी समझती थी कि इसमें किसी का हाथ है। साथ ही, इसके प्रतिकार करने की उसमें शक्ति न रही। वह सोचती कि अधिकार सूत्र मेरे अपने ही हाथ होता तो अच्छा था। उसने यह निर्णय कर • लिया कि फिर एक दूसरा बच्चा जन्मे। इसके लिए वह कोशिश करने लगी।
इस प्रयत्न का प्रभाव भी शीघ्र देखने को मिला। वैद्यजी को फिर से राजमहल
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में आना पड़ा। चारुकीर्ति पण्डित आये, देखा और कहा, "पहले के मस्तक रोग . के प्रभाव के कारण सन्निधान की नसों में दुर्बलता आ गयी है। इन्हें उत्तेजित करने जैसी कोई क्रिया अत्यधिक हो जाए तो वही बीमारी दुबारा लग सकती है, इसलिए सावधान रहना अब अत्यन्त आवश्यक है।"
"आपके इस सन्निधान का जीवन सब तरह से व्यर्थ है। इससे पूरे राजमहल में हलाहल विष फैलाने के बदले हम अकेले पी लें यही अच्छा है। हम इसी निश्चय पर पहुँचे हैं। इस निश्चय के अनुरूप हमें अपने जीवन को रूपित कर लेना है। आप अपना काम करें, हम अपना काम करेंगे। हमें तो अपने सुख से राजमहल एवं राष्ट्र का हित प्रधान है।"
राष्ट्रहित और राजमहल का हित दोनों के लिए सन्निधान का हित बहुत प्रधान है।"
___ "आपकी दृष्टि में ऐसा हो सकता है। आज की स्थिति देखते हुए राजमहल का हित और राष्ट्र का हित. इन दोनों से हमारे हित का कोई वास्ता नहीं। राष्ट्र हित के लिए हमारा बलिदान ही अच्छा यही निश्चय हमने कर लिया है। भगवदिच्छा क्या होगी सो मालूम नहीं। आप अपना काम करें। फल की ओर देखकर निराश न हो।"
पण्डित चास्कीर्ति ने सोचा कि अब इनसे बात करना व्यर्थ है। उन्होंने जो दवा देनी थी, दे दी। वहाँ से चलकर वे एकान्त में बिट्टिदेवरस से मिले और उन्हें समझाकर कहा, "राजाजी! सन्निधान को समझा-बुझाकर आपको उनकी मानसिक पीड़ा के परिहार की कोई युक्ति निकालनी होगी। ऐसा न हुआ तो कोई दवा काम न आएगी। उनकी कृपा से मुझे जो विरुदावली प्राप्त है, यह अर्थहीन हो जाएगी।"
विष्टिदेय जानते थे कि यह काम इतना आसान नहीं। पिछली वर्धमान जयन्ती के समय से बल्लाल पट्टमहादेवी के रनिवास से बाहर निकले ही नहीं थे। इससे उनकी लाचारी का उन्हें पता था। पूर्व घटित सारी घटनावली की पृष्ठभूमि के विचार से उन्हें यह अच्छी तरह मालूम हो गया था कि बात पेचीदा है। फिर भी उन्होंने सोचा कि महाराज को अपने निश्चय से पसङ्मुख करना होगा। शान्तलदेवी से भी सलाह-मशविरा किया 1 रानी चामलदेवी पर विश्वास कर, अपने अंतरंग में लेकर उन्हें आगे कर निवास को बदल देना शायद अच्छा हो-यही मानकर दोनों ने विचार किया। फिर चामलदेवी और बोपदेवी इन दोनों की इच्छा के अनुसार मरियाने दण्डनायक जी को बुलवाया।
शान्तलदेवी ने चामलदेवी से एकान्त में बातचीत की। पहले से भी चामलदेवी की रीति एक तरह से सीधी ही रही कहा जा सकता है। उसने भी यही विचार किया कि सन्निधान के बिगड़ते हुए स्वास्थ्य को और बिगड़ने से रोकना चाहिए।
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यही सब सोच-विचारकर वह अपनी बड़ी दीदी के पास ययी। उसकी मुखस्तुति करके, बढ़ा-चढ़ाकर उसकी प्रशंसा करके बोली, “योष्पदेवी के हाथ का कौर मुँह तक नहीं पहुँचा, फिर वह उसे न मिले इसके लिए तुमने सन्निधान को अपने निवास से निकलने ही नहीं दिया तो समझा कि बहुत जबरदस्त युक्ति का तुमने प्रयोग किया। तुम्हारी जैसी बुद्धिमत्ता हममें होगी भी कैसे: यह सब देखकर कह सकती हूँ कि ऐसी बातों में अपनी बुद्धि को दौड़ाने में तुम तो माँ से अधिक चतुर हो । मुझे शायद किसी साधारण व्यक्ति से पाणिग्रहण करके कहीं पड़े रहना चाहिए घा: तुम्हारी उदारता के कारण मुझे भी सनी बनने का अवसर मिला था। तुमने बड़ी उदारता के साथ ऐसी व्यवस्था की कि साल में दो ऋतुओं का समय सन्निधान के संग रहने की तृप्ति मुझे प्राप्त होनी चाहिए थी। साल पर साल बीत गये। मैं भी तुम्हारी ही तरह भाती हूँ परन्तु इस धा नो मिसरे के लिए ल्या करना चाहिए-यह सोच-सोचकर थक गयी; मुझे कोई रास्ता ही नहीं सूझा। तुमसे पूछने का विचार मन में आया, परन्तु फ़िलहाल तुम्हारा मन भी सहवास न रहने के कारण कुछ इस्टे विचारों में डूबा था और दुःखी था। मेरा मन कहता था कि इस सम्बन्ध में तुमसे बातचीत कर तुम्हें परेशानी में डालना ठीक नहीं ! इसलिए वर्षों तक ऐसी ही तन्हाई का जीवन व्यतीत करती रही। अब तुम्हारे पास पति-भिक्षा माँगने आयी हूँ। पहले जैसी उदारता दिखाकर पी वह भिक्षा देकर मेरी भी भूख मिटाने की कृपा करो।"
"देखो चामु, मुझे तुम पर या बाप्पी पर कोई द्वेष नहीं. कोई असमाधान नहीं। पोसलों की राजगद्दी मेरे बेटे को या तुम्हारे या बोप्पो के बेटे को ही मिलनी चाहिए। इस समय उस अधिकार को हमसे छीनने के लिए और खुद गद्दी पर बैठने के उद्देश्य से राजमहल में एक षड्यन्त्र रचा जा रहा हैं। इसे जानकर मैंने निश्चय किया कि इस षड्यन्त्र को ख़त्म ही कर देना चाहिए। इसलिए सन्निधान को चिढ़ाकर, चेतावनी देकर उन्हें मैंने अपना वशवतीं बना लिया है। परन्तु एक बात मुझे खटक रही है। सोच रही थी कि इसके लिए क्या करूं। वैद्य कहते हैं कि सन्निधान की नसें ढीली हो गयी हैं। उन्हें उत्तेजित नहीं करना चाहिए। परन्तु सन्निधान इस बात पर जिद पकड़े बैठे हैं। इस विषय में मेरी इच्छा-अनिच्छा की बात सुनते ही नहीं। मेरी कही बात को उल्टा मुझपर ही प्रयोग करते हुए कहते हैं : 'बेचारी को भूखे रखना ठीक नहीं। पोयसल महाराज इस आरोप को न सह सकेंगे कि ये पोयसल रानियों को तृप्त नहीं कर सके। इस तरह जिद पर अड़े रहते हैं। शायद मेरे ऊपर के गुस्से को इस तरह अपने ही ऊपर प्रयोग करके, म्वयं को दण्ड दे रहे हैं. यही लगता है। अतः वे तुम्हारे रनिवास में आ जाएँगे तो तुम्हारा भी हित होगा, उनका भी। इसलिए तुम सन्निधान के पास जाकर
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आमन्त्रित करो। मैं भी सहयोग दूंगी।"-उसके मुँह से ऐसी बात की सम्भावना कोई नहीं कर सकता था।
बल्लाल ने एकदम मना कर दिया। लेकिन किसी तरह वह चामलदेवी के अन्तःपुर में चले आयें। जिस दिन र चामलदेवी के अन्तःपुर में आये, उस रात बेखटके सोने का मौका मिला। पश्चात् एक पखवारे के अन्दर ही अन्दर वह उस उद्धेग की भावना से धीरे-धरि अपनी सहज स्थिति में आ गये। शान्तलदेवी की सलाह के अनुसार, यामलक्ष्यों ने अपना बहार समिमा रखा और संयम के साथ पतिदेव के साथ बरतती रही। उसके इस तरह के व्यवहार के कारण महाराज का शारीरिक स्वास्थ्य के साथ मन भी स्वस्थ हो चला था। हित और मित व्यवहार से उनका जीवन दो पखवारे तक सुख से व्यतीत हुआ। प्रतिदिन परीक्षा करनेवाले महाराज के वैद्य ने चूर्ण और गालियाँ देना बन्द करके केवल शक्तिवर्धक लेह्य-सेबन ही पर्याप्त माना और उसी से उपचार किया।
इस हालत में बिदिव ने महाराज का दर्शन पाया। तब तक चामलदेवी के द्वारा शान्तलदेवी को यह समाचार मिल गया था कि पद्मलदेवी के मन में वह शंका उत्पन्न हो गयी है कि महाराज बल्लालदेव के हाथ से राजगद्दी को छीनने के लिए षड्यन्त्र किया जा रहा है। राजकाज के विषय में इधर-उधर की बातों के सिलसिले में बिट्टिदेव ने कहा, ''मैंने माँ की एक बचन दिया है उसका अक्षर-अक्षर पालन कर रहा हूँ और आगे भी करूँगा। परन्तु मेरा यह वचनपालन केबल दिखावर है...ऐसी एक असंगत वात राजमहल में फैल रही हैं जो मेरे सुनने में आयी है। अचानक कभी यह बात सन्निधान के कानों में पड़ेगी तो सन्निधान आतोंकेत न हों, इसलिए मैं और शान्तलदेवी एक निर्णय पर पहुंचे हैं। वह निणंब, मों को दिये गये वचन को पप्ट करता है। और यह जो असंगत बात फैल रही है उसे रोक देता है। ___ “छोटे अप्पाजी, यह सब-छि हमें मालूम हैं। अविश्वसनीय बात को हम कभी प्रश्रय नहीं देते। तुम और शान्तलदेवी इस सम्बन्ध में कुछ मत सोचो। हम सबकी सुख-शान्ति के लिए, उसमें भी मेरे जीवन को सुख-शान्तिमय बनाने के ही लक्ष्य से, तुम दोनों जो कुछ करते रहे हो और जो सब कर चुके हो-इन दातों से मैं अनभिज्ञ नहीं हैं। कहनेवाले कहते रहें; बेसुरा राग अलापते रहें। वह बेसुरा राग सुनकर खुश होनेवाले लोग हमारे राष्ट्र में बहुत नहीं । तुप दोनों के बारे में यदि हम सन्देह करने लगें तो हम माताजी और पूज्य प्रभु की योग्य सन्तान नहीं कहलाएंगे। हमारी भावनाओं के बारे में तुम्हें आतंकित होने का कोई कारण नहीं।'' बल्लाल ने कहा।
"सन्निधान के स्वास्थ्य पर वे घटनाएँ और ऐसी बातें बहुत परिणामकारी
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होती हैं, इसीलिए इस तरह बेसुरा राग अलापनेवालों को अलापने दें और इस राग को छेड़नेवाले को छेड़ने दें-यों कहकर हम चुप बैठे रहें तो यह अच्छा न होगा। उनका मुँह बन्द करना होगा, तार छेड़नेवाले उस हाथ को रोक रखना होगा। इसलिए मुझे सन्निधान के लिए गरुड़ बनकर आत्मार्पण करने की अनुमति प्रदान करें; मेरी इस प्रार्थना को मान लें।" बिट्टिदेव ने कहा। __बल्लाल गरज उठे, “छोटे अप्पाजी!" उनकी आँखें लाल हो उठीं। होठ फड़कने लगे। छाती हाँफने लगी।
कभी इतनी ऊँची आवाज्ञ से न बोलनेवाले भैया के स्वभाव से परिचित बिट्टिदेव इस प्रतिक्रिया को देख अकचका गये। एकदम वह भी बात को आगे न बढ़ा सके। चुपचाप दालाल की ओर देखते हुए बैठे रहे।
थोड़ी देर तक बल्लाल उसी तरह सिर झुकाकर बैठे रहे। हॉफना कुछ थप गया तो एक दीर्थ निःश्वास के साथ धीरे-से सिर उठाया और कहा, "छोटे अण्णाजी, पास आओ, यहां बगल में बैठो।'
विद्रिदेव ने वैसा ही किया। उसके बाद कन्धे पर हाथ रखकर बल्लाल बोले. "छोटे अप्पाजी, तुम मेधावान हो, मेरा विश्वास था कि सभी हालात से परिचित हो। परन्तु वह दीक धारणा न लगी। इसीलिए उद्विग्न हो उठा। तुम्ही बताओ, व्यक्ति प्रधान है या राष्ट्र बताओ?''
"राष्ट्र का प्रतीक रूप व्यक्ति भी उतना ही प्रधान है जितना राष्ट्र।" ''राष्ट्र शाश्वत हैं या व्यक्ति?" "राष्ट्र। राष्ट्र के जीवन में व्यक्ति का जीवन एक अंश मात्र है।"
"ऐसी दशा में तुम्हें यह समझना चाहिए कि राष्ट्र ही सबसे प्रधान है। हम अपने स्वास्थ्य से हम स्वयं ठीक-से परिचित नहीं हो पा रहे हैं। मन प्रायः अशान्त ही रहता है। इसके फलस्रूप हम जल्दबाजी में कुछ कर बैठते हैं। सोच-विचार तक नहीं करते कि अमक काम करना चाहिए या नहीं, ठीक है या नहीं। इसलिए अन्तःपुर से बाहर निकलकर सम्पर्क करते रहने का साहस नहीं करते। अन्तःपुर में जो भी अविवक होता है उसका फल व्यक्तिगत होता है। ब्रह्मा भी अन उसका निवारण नहीं कर सकता। हमारे भरोसे पोयसल राष्ट्र की कोई भलाई नहीं हो सकती, इस बात को हम अच्छी तरह जान चुके हैं। नसों की दुर्बलता व्यक्ति को कितना हीन बना देती हैं, यह हमारे अनुभव में आ चुका है। हमारी राय में अब राष्ट्रहित की दृष्टि से तुम्हाग रहना बहुत ही आवश्यक है। इस बात को तुम भी जानते हो। परन्तु केवल भाई समझकर भ्रातप्रम के कारण, तुप भी इस तरह विवेकशून्य कार्य करने पर उतारू हो जाओगे इस बात की मैंने कल्पना तक नहीं की थीं। तमने कहा कि इस पर शान्तला भी सहमत है। माँ और शान्तला दोनों
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को बुला लाओ। नहीं, हम खुद वहाँ चलेंगे, चलो। उन्हीं के सामने यह बात मनवा दूंगा कि ऐसी बात फिर कभी न उठे। छोटे अप्पाजी, अब वस्तुस्थिति का सामना करना ही होगा 1 बात छिपाकर रखने से कोई लाभ नहीं। हमारा जीवन एक असह्य जीवन है। इस जीवन में शान्ति अलभ्य है। फिलहाल कुछ सुख-शान्ति का अनुभव हो सकता है लेकिन एक-न-एक दिन वह ज्वालामुखी फटेगा ही, उसे गले से जो लगा लिया है। वह जो आग उगलेगा वह हमें भस्म करके ही रहेगी यह सत्य है। और लगता है, वह दिन भी दूर नहीं।" बल्लाल ने कहा।
बिट्टिदेव ने तुरन्त उनके मुँह पर अपना हाथ रख दिया। कहा, ''सन्निधान के मुंह से ऐसी बात हम सुनना नहीं चाहतं ।"
उनके हाथ को हटाकर बल्लाल ने कहा, ''न भी कहें तब भी होगा वही। इसके लिए दुःखी नहीं होना चाहिए। व्यक्ति मुख्य नहीं, राष्ट्र ही मुख्य है; जब हम यह बात कहते थे तर हमारा यही आशय था। कल अगर हम बिछुड़े गये तो उसका करण ढूँढ़ने की या चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं। इसके हम स्वयं कारण हैं। राष्ट्रहित की दृष्टि से यह अनिवार्य हैं। अब जाओ, फिर इस सम्बन्ध में कुछ भी बात न करना।"
"ठीक है।" कहकर चिट्टिदेव चले गये। पण्डितजी को बुलवाया गया। निर्गदेव, शान्दलदेवी और पदेनी तीनों ने रखले दिल से उनसे बातचीत की। बल्लाल के साथ हुई बातचीत का विवरण बिट्टिदेव ने पहले ही अपनी माँ और पत्नी को दे दिया था। ___ एचलदेवी ने कहा, ''पण्डितजी, आपने एक बार मेरे पुत्र को बचाया है। अब की हालत इस तरह है। इसके निवारण का क्या उपाय है: मुझे अब पुत्र-भिक्षा दें। सब-कुछ आपके हाथ में है। "बल्लाल जीवन रक्षक' आप अपने इस विरुद को सार्थक बनाइए।"
"सबका प्राणरक्षक तो वह सिरजनहार है। हम केवल निमित्त मात्र हैं। सन्निधान ने मुझे विरुद देकर भूषित किया वह तो उनके प्रेम का संकेत है, उनकी उदारता की देन है। यह औदार्य और प्रेम कर्तव्य के लिए प्रेरित करते हैं, यही इसका मुत्य है। वह सर्वज्ञत्व का साक्षो नहीं। अपनी बुद्धि-बल से भी अधिक प्रयत्न करूँगा। इसमें हमारी औपधि से अधिक मुख्य बात रोगी का सहयोग है। वर्तमान स्थिति में मन के बढेग के कारण यह रोग क्षण-क्षण पर अलग-अलग रूप धारण कर रहा हैं। इसलिए इस मानसिक उद्वेग विकारों को अवकाश न होने योग्य वातावरण उनके चारों ओर होना आवश्यक है। अबकी बार मुझे अनुभव हुआ कि छोटी रानी के अन्तःपुर में रहने पर सन्निधान का स्वास्थ्य अधिक सुधरा है। वे वहीं रहें तो उत्तम होगा।' पण्डितजी ने स्पष्ट बताया।
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"इस विषय में हमारे निर्णय को कौन पूल्य देगा? आपके कथन से इस बात की सूचना मिलती है कि ये पट्टमहादेवी के निवास से दूर रहें तो कुशल है। फिर भी, यह विषय बहुत पेचीदा है।" बिट्टिदेव ने कहा।
"विषय पेचीदा है समझकर उदासीन हो जाएँ तो परिणाम भयंकर भी हो सकता है। मुझे लगता है कि महाराज को स्थानान्तरित करना उत्तम है। उनके मन को सान्चना दें और नसों को उद्दीप्त न होने दें, ऐसी परिस्थिति में उनका रहना तथा आवश्यक उपचार करना, उनके लिए आवश्यक है। महामातृश्री का प्रेमपूर्ण पालन ही उनके लिए पर्याप्त होगा। यह मेरी राय है। परन्तु रानियों से दूर रहने की बात कहनेवाला मैं कौन होता हूँ: यदि रानियों यों सवाल कर बैठे लो मैं क्या उत्तर दे सकूँगा? इसके लिए मेरे पास कोई जवाब नहीं। इतना कह सकता हूँ कि इसके सिवाय महाराज की रक्षा करने का दूसरा कोई उपाय नहीं है।" चारुकीर्ति पण्डित ने कहा।
सबसे अधिक मुख्य विषय महाराज का स्वास्थ्य हैं। इसलिए यह निर्णय किया गया कि केवल महाराज और महामातृश्री ही पण्डितजी के साथ वेलापुरी जाकर रहें।
इराकी पूर्व-तैयारियां होने लगा। पर निज मा किया गया कि बेलापुरी के लिए रवाना होने तक इस बात को गुप्त ही रखा जाए, केवल रवाना होते समय ही कहा जाए। इसलिए यह वात न महाराज को मालूम थी, न ही रानियां को। महामानुत्री ही उन लोगों से कहें, इसका भी निर्णय किया गया था। इसके अनुसार यात्रा पर निकतने के दिन दोपहर के भोजन के पश्चात, महामातृश्री एचलदेवी ने महाराज को और रानियों को अपने अन्तःपुर में बुला लिया। सबको बैठाकर बताया, ''महाराज का स्वास्थ्य सर्वोपरि है। इस विषय पर पण्डितजी को बुलवाकर मैंने पूछताछ की है। उनकी राय में जलवायु बदलना महाराज के लिए इस वक्त बहुत आवश्यक है। इसलिए मैं और अप्पाजी दोनों ने वेलापूरी जाने का निर्णय किया है। अप्पाजी, मैंने तुमसे इसपर विचार-विमर्श नहीं किया. इससे तुम हैरान न होओ, और तुम लोग भी परेशान न होओ।'
बल्लाल ने कुछ नहीं कहा।
योप्पदेवी बोली, "सन्निधान की स्वास्थ्य-रक्षा के लिए जो भी करना होगा सो सब करना ही उचित है। हमसे पूछा नहीं, इसलिए हम परेशान क्यों हो? जन्म देनेवाली माँ को सन्निधान के विषय में चिन्ता रखना सहज ही है।" ___चामलदेवी ने कहा, "सन्निधान का स्वास्थ्य ही हमारे जीवन के लिए प्रकाश देनेवाला है। उनका स्वास्थ्य जिस तरह से हो, सुधरना ही चाहिए। इसके लिए जो भी करना हो, करना ही होगा। पण्डितजी ने भी कहा है कि वातावरण और
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हवा बदलने से शीया माय-लाभ होगा। इसके लिया या प्रयत्न अच्छा ही है।" -
पद्मलदेवी ने कहा, “अगर पण्डितजी ने यह कहा है तो वह करना ठीक है। चाहे कोई साध जाए या न जाए मैं तो सन्निधान के साथ जाऊँगी ही।''
एचलदेवी ने प्रकारान्तर से कहा, "कोई साथ न रहे। उन्हें एकान्त की आवश्यकता है, यही पण्डितजी की राय है।''
सन्निधान की देखरेख कौन करेगा। इस उम्र में यह सारा भार यदि आप पर लाद दें तो दुनिया क्या कहेगी? कल लोग हमारी निन्दा करेंगे। यह आरोप मुझ पर लगाएंगे तो मैं शिकार बनने के लिए तैयार नहीं।'' पद्मलदेवी ने कहा।
वल्लाल अभी तक सब सुनते हुए चुपचाप बैठे थे, एकाएक बोल उठे, "माँ, असाध्य को सामने का प्रयत्न कर रही हैं। हमारे स्वस्थ होने की उसे आवश्यकता नहीं । हमें निचोड़ चूसकर अपना अंग भर लेना ही उसकी इच्छा है। यदि वह वहाँ भी आती हैं तो जितने दिन जीवित रहना है उतने दिन यहीं रहकर गुजार देंगे। माँ, आपके दो और लड़के हैं। मैं आज आपका लड़का नहीं हूँ। उसका स्वत्व बनकर रह गया हूँ। जितनी जल्दी हो वह मुझे लूट ले। अब इस तेलापुरी की यात्रा की बात ही छोड़ देवें।" कहकर आगे बात करने के लिए अवकाश न देकर वहाँ से चले गये।
वह चामला के अन्तःपुर में न जाकर पट महादेवी के अन्तःपर में गये और पलंग पर चित पड़कर लेट गये।
"होनेवाले अच्छे काम को न होने देकर अपने ही पैरों पर कल्हाड़ी मार ली इस हठवादिता से।' बोपदेवी ने कहा।
"मैंने कौन-सी ग़लती की पति के साथ रहने का अधिकार पत्नी को नहीं हैं क्या: लनके स्वास्थ्य के विषय में माता को हमसे भी अधिक क्या आसक्ति है: एक बेटा गया तो दो और बेटे हैं। पर हमारी क्या गति हो? बच्चों पर माँ का प्रेम हो सकता है। यह मान्य है। वही प्रेम पत्नी को पति पर नहीं होना चाहिए। कन्या का दान कर देने के बाद वह अपनी नहीं, वैसे ही विवाह के बाद लड़के पर पत्नी का अधिकार होता है। इस बात की भी जानकारी होनी चाहिए। जब तुम दोनों ने यह कहा कि वे कहीं भी रहें, तभी मैं समझ गयी कि उनके प्रति तुम्हारी श्रद्धा कितनी है। अपने लिए उन्हें बचा लूँगी और उसका लाभ आप लोगों को भी हो तो मुझे कोई दुःख नहीं। पण्डितजी से बातचीत करते वक्त हमें भी धुना रोते तो क्या हो जाता? कुल मिलाकर यही निष्कर्ष हुआ कि हम विश्वसनीय नहीं। जब हम पर विश्वास नहीं तो हम भी उनपर विश्वास क्यों करें?' कहकर पद्मलदेवी वहाँ से सीधी चामला के अन्तःपुर में गयीं। वहाँ पति को न पाकर नौकरानी से पूछा तो उसने बताया कि वे पट्टमहादेवी के अन्तःपुर
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में ही हैं।
"ऐसा हो तो सन्निधान में विवेक जगा है। इसीलिए व्यंग्य करते हुए अपनी माँ से कहा था कि तुम्हारे दो लड़कं और हैं। मेरे पतिदेव बहुत ही अच्छे है, यों कह उसने बड़ी ही खुशी से अपने अन्तःपुर में प्रवेश किया और पति के पास जा बैठी। उनका सिर सहलाती हुई बोली, 'सन्निधान से बिना पूछे स्थानान्तरित करने का निर्णय करनेवाले वे कौन होते हैं। इसलिए सन्निधान का यह कहना बहुत ठीक हुआ कि बेलापुरी जाने का कार्यक्रम रद्द कर दें।"
"हो, बेलापुरी में जाकर मरने से यहीं रहकर मरें, इसलिए हमने यह बात कही।'
तो बेलापुरी ले जाकर वहाँ समाप्त कर टालने का षड्यन्त्र किया था? यह वात सन्निधान को मालूम हो गयी थी?"
बल्लाल तनकर खड़ा हो गया और पूरी शक्ति लगाकर जोर से उसके गाल पर थप्पड़ मारकर गरज उठा, "मुँह बन्द करोगी या नहीं!"
बह इस थप्पड़ के आघात को सह न सकी, 'हाय दैया करती हुई पलंग पर से लुढ़ककर नीचे जा गिरी। गिरने से सिर पर बाध लग गया और खन बहिने लगा। नौकगनी भागी-भागी आयी। दूसरे ही क्षण यह खबर समूचे राजमहल में फैल गयी। सब उधर दौड़े आये। पण्डितजी को बुलाने के लिए उनके पास खबर भेज दी गयी।
उसे उठा ले जाकर दूसर स्थान पर लिटाया गया। पद्मलदेवी के माथे के एक छोर पर घाव लगा था और वहाँ से खून निकल रहा था। उसके कपाल पर बल्लाल की उँगलियाँ उभर आयी थीं।
बल्लाल के बैठे रहने का रंग-ढंग देख, इर के मारे सब मूक बने खड़े थे। एचलदेवी बेटे के पास गयीं और कन्धा सहलाती हुई बोली, “अप्पाजी, अब सो जाओ।"
उन्होंने “आँ!" कहकर चारों ओर नजर फेरी। माँ बोली, "अप्पाजी, तुम थक गये हो । सो जाओ बेटे! अभी तुम्हें आराम की जरूरत है।' कहकर जबरदस्ती उन्हें सुला दिया। "छोटे अप्पाजी, पण्डितजी के आने का वक्त हो गया है न? यहाँ किसी को आने न दो; समझे?' बिट्टिदेव से बोलीं।।
वहाँ जो लोग थे सब बाहर आ गये। स्त्रियाँ अपने-अपने अन्तःपुर में चली गयीं। अकेले घिहिदेव राजमहल के द्वार पर पण्डितजी के आगमन की प्रतीक्षा में खुड़े थे। उनके आते ही उन्होंने संक्षेप में सारी हालत बता दी। उनको 'भी साथ लेकर जहाँ बल्लाल थे वहाँ आये।
पण्डितजी को देखते ही बल्लाल ने कहा, "पण्डितजी, अब आपकी दवा का
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कोई प्रयोजन नहीं। हमारी सारी शक्ति का विनियोग अब तक हो सका है। हमें मृत्यु से कोई भय नहीं। शायद यही हमारे लिए मुक्ति का मार्ग है।"
पण्डितजी ने नब्ज देखते हुए कहा, “भन्निधान ऐसी बात करेंगे तो सब पर क्या बीतेगी?" फिर पलक खोलकर देखा, तलुए की खरोंचकर देखा, उँगलियों के जोड़ की हड्डी से घुटने पर मारकर देखा, पैरों पर की सूजन को देखा । फिर अपनी दवा की पेटी खोली। एक-दो गोलियां निकालकर खिलायीं। एक बुकनी निकालकर उसे सूंघने को कहा, सँघाया । बल्लाल ने किसी का विरोध नहीं किया। तात्कालिक चिकित्सा करने के बाद एक काढ़ा तैयार कर ले आने की बात कहकर पण्डितजी उठ खड़े हुए।
_ 'पण्डितजी, आपके लिए वह वृथा श्रम है। दवा व्यथं है। आपका मन दुखे नहीं, इसलिए सब सह लेता हूँ। सबका सेवन कर लेता हूँ। मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरा पैर सृजता जा रहा है। मुझे अपने पर छोड़ दीजिए, यही मेरी प्रार्थना है।' बल्लाल ने कहा।
"सन्निधान को अन्यथा नहीं सोचना चाहिए। चाहे किसी भी कारण से हो, चिकित्सा रोकनी नहीं पढ़ली 1 रोक दें तो सीखी विद्या के प्रति द्रोह होता है।" पण्डितजी बोले।
"आपकी इन्छा। लेकिन मुद्दो निश्चित रूप से मालूप है कि क्या होगा 1 कुछ चिन्ता की बात नहीं।
विदेिव पण्डितजी के साथ ही बाहर आये और उन्हें पद्मलदेवी के विधामकक्ष में ले गये। उसके लिए आवश्यक चिकित्सा की गयी। और फिर पण्डितजी काढ़ा तैयार कर ले आने के लिए जल्दी-जन्दी धर दौड़े गये।
विहिदेव फिर माँ के साथ आ गये। बल्लाल की आँखों से अश्रुधारा बह रही थीं। एचलदेवी अपने आँचल से उसे पोछती हुई बोलीं, ''बेटा, तुम्हें आँसू नहीं बहाना चाहिए। तम मूर्धाभिषिक्त महाराज हो। सब ठीक हो जाएगा।" ___गा, मेरे बदले छोटे अप्पाजी का जन्म पहले होता तो अच्छा होता। मैंने अपने समस्त जीवन को विचार करके देख लिया है। मेरी जल्दबाज़ी और अविवेक--ये दोनों मेरे जीवन को जलानेवाली आग बन गये हैं। फिर भी आप सब लोगों ने मुझे क्षमा दान देकर मुझे सुखी बनाने के लिए पूरा सहयोग दिया। मुझसे इस राष्ट्र का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सका। छोटे अप्पाजी, राष्ट्र की जिम्मेदारी तुम पर है। भगवान तुम्हें चिरायु बनाएँ । मेरी मृत्यु इतनी जल्दी आ जागगी इसकी सम्भावना नहीं थी। मैं ही अपनी आयु कम करके, उसे मैं तुम्हें निर्मल मन से धेयपूर्वक दे रहा हूँ। मुझे दुनिया से उटा देने और स्वयं गद्दी पर बैट जाने के इगटे से षड्यन्त्र चलाने आदि नीच और हेय बातें कहनेवाला यह चाण्डाल मुँह फिर
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न खुले-इसीलिए अपनी सारी शक्ति लगाकर उस मँह के दाँत मैंने तोड दिये हैं। मेरे मन में कभी भी तम्हारे बारे में ऐसे विचार तब नहीं आये। फिर भी जिससे मैंने प्रेम किया उसने यह बात कही है। उसकी तरफ़ से मैं क्षमा माँगता हूँ। वह एक दुष्ट स्त्री है। उसकी बातों की कोई कीमत नहीं। सचमुच बहुत दिन मैं जीवित नहीं रहूँगा। वास्तव में मुझे जीन की अभिलाषा भी नहीं है। इसलिए मैं महाराज बनकर नहीं, भाई होकर बहुवचन का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ जो रूढ़िगत है। मों, तुम इस अविवेकी बेटे को क्षमा कर देना।'' कहते हुए बल्लाल ने अपना सिर माँ की गोद में रख दिया।
उनकी पीठ पर हाथ फेरती हुई माँ शून्य की ओर देखती रही, कुछ बोली नहीं। पण्डितजी आये। काढ़ा दिया गया। बाद में बिट्टिदेव बाहर चले आये।
दो-तीन दिन की चिकित्सा के बाद पट्टपहादेवी पञ्चलदेवी कुछ सुधर गयीं। झड़े दाँत तो फिर उग नहीं सकते थे। मगर माथे पर के घाव को भरना था।
बल्लाल की हालत दवा-दारू और चिकित्सा-उपचार आदि से भी सुधरी नहीं। बड़ बिगड़ती ही चली गयी। सूजन भी बढ़ती ही गयी। उदयादिस्य और डाकरम के पास भी खबर भेज दी गयी थी सो सभी जन दोरसमुद्र आ गये थे।
इसके बाद बहुत समय तक इल्लाल ने पण्डितजी की दवाओं का खर्च नहीं किया। खर संवत्सर में ही बल्लाल ने अपने पार्थिव शरीर को त्यागकर जिस शान्ति को बहुत समय से चाहा था, उसे पा लिया।
राजधानी शोक-सागर में डूब गयी।
सारा राजमहल दुःखी होकर रो उठा । महाराज बल्लाल के शव का दाह संस्कार राजोचित ढंग से किया गया।
- पालदेवी मौन हो आँसू बहाती रही। छाती पीट-पीटकर वह अपने दुर्भाग्य के कारण खुद को कोसती रही। उसका अन्तरंग यही कह रहा था कि उसके ही कारण यह सब हुआ। पैंतीस साल के जवान बल्लाल का कुछ ही वर्षों का राज्य काल इसी तरह समाप्त हो गया।
राजा बिट्टिदेय पट्टाभिषिक्त हुए। साथ ही शान्तलदेवी पट्टपहादेवी यनीं । अय तक पट्टमहादेवी शान्तलदेवी के चौथे गर्भ के तीन महीने हो चुके थे।
इतनी अल्पआयु में ही, महाराज बल्लाल का निधन हो जाने के कारण सम्पूर्ण पोप्सल राज्य शोक-सन्तप्त हो गया। बुढ़ापे में मरियाने दण्डनायक इस आघात को सह नहीं सके। उनकी पत्नी और वे स्वयं, जब से भावी महाराज बल्लाल राजकुमार के साथ अपनी पुत्री का विवाह करा देने के बारे में विचार करने लगे
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थे, तब से लेकर नालाल के इस अकाल मरण तक की सारी घटनाओं में वे पूर्णतया परिचित थे। यदि व पालदेवी के पिता न हुए होत ता पता नहीं क्या करतं! अपनी तीनों बेटियों में से कोई भी अपने जन्ममुहूत या सुहाग के बल पर अपने पति को न बचा पाधी। इसके पाने वही हुआ कि उन्होंने तीन बेटियों को इसीलिए: जन्म दिया जिसस ने पोत्सल भहारान की आहुति लें, इसका उन्हें गहरा द:ख हुआ; इसी चिन्ता में घुलने लगे। आः यह दशा देखने के लि!, इसका वीजारोपण करनवाली उनकी पत्नी न रही और उन्हें अकेले ही जीधित रहना पड़ा। वे बहुत शोकाकुल हो उठे : पदमहादेवी केलगत्वरसी ने कितने प्रेम से मुझे भाई से बदकर भाना और मुझे बड़ा बनाया। उनके इस उपकार के बदले मैंने उनके इस राजवंश को अकाल मृत्यु के लिए भेंट कर दिया । मैं किसी भी तरह की क्षमा का पात्र नहीं। फनी के स्वभाव से परिचित होकर भी मैंने यह विचार नहीं किया कि इन बेटियों का स्वभाव भो माँ को तर हो तो इनसे विवाह करने वाले की दशा क्या होगी। बहुत जल्दबाज और बड़बनाने वालियों के साथ जीना बहुत कठिन होता हैं। यह हमारी पी, ही अब तो वह कंवल पी ही है। मैंने कभी नहीं सोचा था कि उसकी जीभ इतनी पैनी हो जाएगी। बीच में दो-तीन बार मैंने उसे हितवचन भी कहे. उन बातों का भी मूल्य न रहा! इस हालत में उसके व्यवहार को समझते कुछ भी नहीं सूझा। अब माथा टोकने वा छाती मारकर रोने सं भी क्या मायदा? इसने जो वांव किया उसका फल इन दोनों को भी भोगना पड़ा। घाँटयों का यह दःख रखते हुए अब क्या शान्ति से मर सकूँगा' पतिविहीन थे बच्चियाँ अब यहाँ गौरव के साथ कैसे जी सकेंगी? उम गौरः के योग्य हो तभी तो गौरव मिलेगा। अब 'भुगतें अपने भाग्य। मैं भला क्यों इस चिन्ता में पई? यों सोचकर उन्होंने तीनों को वहीं छोड़कर चल देने का निर्णय किया 1 चापनदेवी और घोप्पदेनी ने साथ ले चलने का आग्रह किया लेकिन व्यर्थ रहा। साथ न ले जाएँगे ता दारव्य से बँधाये गये तालाब में कूदकर मरने की बात कहकर पद्मालदेवी जिद कर बैठी। उस अकेली को ही क्यों, यो सांचकर वे तीनों को लेकर अपने सिन्दगर वरले गये।
शान्तलदेवी और पाचलदेवी दोनों में बहुत सभगाया और कहा कि वहीं रही आयें परन्तु यहां रहने पर पुरानी स्मृतियाँ वार-बार आती हैं जिसे सहना बहुत कष्टदायक होता है-वही बहाना बनाकर पद्मनदेवी पिता के साथ चली गयी। परन्तु इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि वह यह सोचती रही हो-“पट्टानी बनकर यह इटलाती रहे और मैं इसे देखने के लिए यहाँ बैठी रहूँ?"
पण्डित वारुकीर्ति जी ने, क्षणिक स्वार्थ के लिए लोगों में जहर बाँटनेवालों के इस समाज को देखकर असह्य-भाव से, उदासीन हो ऐसे स्वार्थिया की शुश्रूषा
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से सार्थकता नहीं समझकर संसार को त्याग देने के विचार से संन्यास ग्रहण कर दोरसपुद्र को ही त्याग दिया।
चला तो खुद मरकर भी सन्निधान को जीवित देखना चाहती थी; यो हालत के पलट जाने के कारण रात-दिन रोती बैठी रही। सन्निधान की प्राणरक्षा के लिए अपना शील तक लुटा देनेवाली के आज प्राण नहीं निकल रहे हैं। पतिव्रता बनकर पति के ही प्राण हरण करनेवाली के जीवन से अपने जीवन को ही पुनीत कहकर वह आगबबूला हो उठी थी।
किसी तरह की प्रतिक्रिया के वशीभूत न होकर, बल्लाल की मृत्यु को गम्भीर सागर की तरह सामना करनेवाली अकेली कोई थी तो वह पहामातृश्री एचलदेवी थीं। उनके संयम ने सबको धीरज बँधाया।
बिट्टिदेव सिंहासनारूढ़ हुए परन्तु उन्हें महाराज बनने की कोई खुशी नहीं हुई। कभी स्वप्न में भी उन्होंने नहीं होगा कि किसान का होता. मी भाभी ने कहा था कि उन्हें सिंहासन का लालच है। उस मूर्ख स्त्री की बात की कोई कीमत न थी, इसतिए उस ओर उदासीन ही रहे। केवल राष्ट्रहित साधने के कर्तव्य को अपना दायित्व मानकर बड़े गौरब और आदर से उस सिंहासन पर आरूढ़ हुए थे। उन्होंने एक बार (भाई से) वह भी स्पष्ट कह दिया था, ''मैं आपका गरुड़ बनकर आत्मार्पण करने तक के लिए तैयार हूँ।" ___ एक बार पालदेवी का झूठा आरोप इस तरह सच हो जाएगा. इस बात की किसी को कल्पना भी न थी। रेविमय्या को दुःख भी हुआ सन्तोष भी। माचिकब्बे इस देवी लीला पर चकित थी। उन्होंने अपने पति मारसिंगय्या से कहा, 'कुछ का शाप वर बन जाता है इसके लिए यह निदर्शन हो सकता है?''
'दूसरों की बुराई न चाहनेवालों को ईश्वर किस तरह का वरदान देता है, इस वैचित्र्च की रीति को समझने के लिए यही प्रमाण है।" मारसिंगय्या ने पली की राय में अपनी राय मिलायी।
छुटपन में बल्लाल का बरताव देख एक बार एचलदेवी ने मन-ही-मन कहा था कि बिट्टिदेव ही पहले जन्मा होता तो अच्छा धा। इसी बात को मरने से पहले बल्लाल के मुँह से कहलवाया मानो उसने मेरे मन की बात को पहले ही सुन लिया हो। उस भगवान की रीति ही निराली है। मैं माता, मेरे मन में ऐसी बात को क्यों उत्पन्न किया? माँ बनकर मैंने बच्चों के साथ प्रेम करने में किसी तरह का भेदभाव नहीं रखा। राष्ट्रहित चाहनेवाले मन को जो सूझा वह ईश्वर द्वारा पहले से ही नियोजित है या होना चाहिए, उसके निर्णय से भिन्न निर्णय करनेवालों के लिए उत्तर वहाँ है। उसकी इच्छा हुई तो एक साधारण हेगड़े की बेटी न चाहते हुए भी रानी बन सकती है। दूसरी ओर रानी बनने की इच्छा लेकर, उसके लिए
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षड्यन्त्र रचकर, रानी बनने पर भी उस पद का धोड़ा-सा भी सुखानुभव किये बिना रह सकती है। उस भगवान ने जो अनुग्रह किया उसी को परमपवित्र मानकर विचलित हुए बिना जीवन को बिताना होगा। इस तत्त्व की जिज्ञासा एचलदेवी के मन में होने लगी।
बल्लाल को मृत्यु पर सवन शोक मनाया फिर धीरज और सन्तोष के साथ सबने विट्टिदेव के पट्टाभिषेक समारम्भ में भी भाग लिया।
इसी बीच मन्त्री पोचिमण्या, सन्धिविग्रही नागिदेव दिवंगत हो गये थे। इनके बाद सुरिगे नागिदेवपणा और पुनीसमय्या मन्त्री बना दिये गये थे। पट्टाभिषेक के कुछ दिन बाद मन्त्रणा करके बिट्टिदेव ने यह निर्णय लिया कि राजधानी को दोरसमुद्र से वेलापुरी ले जाया जाए। उनका विचार था कि प्रभु और अण्णाजी दोनों के लिए दोरसमुद्र शुभकर नहीं हुआ। उन्हीं पुरानी बातों का स्मरण करके खिन्न होते रहना अच्छा नहीं। अलावा इसके, महाराज की मृत्यु का समाचार बाहर के लोगों को मालूम हो जाने पर पता नहीं कौन-कौन हम पर आक्रमण करने का उद्यम करने लगेंगे! हमें अब अपनी सैनिक-शक्ति को बढ़ाना होगा, इसके लिए योजना बनानी होगी। राष्ट्र की सीमाओं का रक्षण ही नहीं, गुण्डागिरी को दबाकर वहाँ अपने शार्दूल लांछन को फहराना होगा। दोरसमुद्र में रहें तो न जाने क्या-क्या पूर्व-स्मृतियों आती रहेंगी, उस हालत में हमारे इन विचारों में सकावट भी आ सकती है। वेलापुरी को राजधानी बनाने पर नये वातावरण में नयी दृष्टि भी प्राप्त हो सकेगी। इसलिए राजधानी को स्थानान्तरित करने की बात निर्णीत हुई। निर्णय के तुरन्त बाद स्थानान्तरित करने का कार्य जल्दी शुरू हो गया। माचण दण्वनाथ दोरसमुद्र में ही ठहरे। डाकरस को वेलापुरी में, नागिदेवण्णा को यादवपुरी में रखने का भी निर्णय लिया गया। शेष सब को वेलापुरी चलने का निर्देश था।
राजधानी के परिवर्तन के बाद आगे के कार्यक्रमों के विषय में आमूलाग्र विचार-विमर्श किया गया। अपनी सैनिक शक्ति को बढ़ाना, जिधर से शत्रुओं के आक्रमण का डर है उधर रक्षण-व्यवस्था को सुदृढ़ बनाना आदि सभी बातों पर विचार हुआ। __ महाराज बल्लाल को निगलनेवाला खर संवत्सर बीत गया और नन्दन संवत्सर का प्रवेश हुआ। पट्टमहादेवी शान्तलदेवी ने इसी नन्दन संवत्सर की वसन्त ऋतु में एक पुत्ररत्न को जन्म दिया।
एचलदेवी और माचिकब्बे दोनों बेलापुरी में ही रही, इसलिए शान्तलदेवी के पट्टमहादेवी बनने के बाद इस पुत्र जन्म-उत्सव को बड़े सम्भ्रम के साथ शास्त्रीय विधि-विधानों के अनुसार मनाया गया। उनका बड़ा बेटा कुमार बल्लाल, कुमारी हरिवलदेवी, छोटे बिट्टिदेय अब पट्टमहादेवी के संजात कहलाये, लोगों की दृष्टि में ।
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नये महाराज के सिंहासनारूढ़ होने के वर्ष के अन्दर ही पुत्रोत्सव होने से ज्योतिषियों ने राष्ट्र-विस्तार के लिए इसे शुभसूचक सगुन और राष्ट्र-विस्तार की पूर्व सूचना बताया।
नामकरण संस्कार भी बड़े धूमधाम से मनाया गया। मरियाने दण्डनायक के पास आमन्त्रणपत्र भेजा गया था तो भी ये नहीं आये। पद्मलदेवी को इस उत्सव में भागी होने की इच्छा नहीं रही, न ही इसे ईर्ष्या के कारण सह सकी थी। चामलदेवी और बोप्पदवी दीदी के कारण सिन्दगैरे को न छोड़ सकी थीं। यों उनमें से कोई नहीं आया।
नामल" मा हो र एर चर्चा हुई : लिवन्द की मलय शी कि शिशु का नाम विनयादित्य रखा जाय। मारसिंगय्या और माचिकव्ये की यह सूचना रही कि अपने प्रिय प्रभु के नाम से ही अभिहित किया जाय । शान्तलदेवी ने कहा
“सन्निधान के अग्रज वेलापुरी छोड़ दोरसमुद्र में रहने ही इच्छा नहीं रखते थे। कारणवश वहाँ जाकर वहीं रहकर प्राण देने पर भी, उनका मन वेलापुरी से ही अधिक लगाव रख रहा था। अकाल मृत्यु के कारण ये हमसे बिछुड़ गये तो भी उनकी स्मृति हम सबके लिए हितकर है। वह अपने पुत्र को विनयादित्य के नाम से अभिहित करना चाह रहे थे, परन्तु सफल न हो सके। विनयादित्य कहकर अभिधान करने पर बुजुर्गों के नाम से अभिहित करने की उनकी इच्छा भी पूर्ण हो जाएगी। वही करेंगे।"
एचलदेवी ने कहा, "शान्तलदेवी की इच्छा उचित लगती है।"
एक शुभ मुहूर्त में शिशु का नामकरण संस्कार सम्पन्न हुआ। शिशु का नाम विनयादित्य रखा गया।
इस नामकरण महोत्सव में उपस्थित सभी लोगों ने एक कण्ठ हो योषित किया, “चिरमभिवर्धतां पोसलसन्तानश्रीः, माता-पित्रो शिशोश्व दीर्घायुरारोग्यप्राप्तिरस्तु, ऐश्वयंप्राप्तिरस्तु, देशकोशमभिवृद्धिरस्तु।"
सन्तान किसे हो, किस तरह की हो, कब हो-इस स्वार्थ के कारण एक बहुत बड़ी घटना ही यट चकी थी। अब राजमहल में किसी तरह के असमाधान के विना, किसी तरह की दर्द भरी घटना के बिना, किसी तरह की व्यंग्योंक्तियों के बिना, पुत्रोत्सव का यह समारम्भ प्रगति-सूचक रूप में सुसम्पन्न हुआ।
आस्थान-ऋधि अभिनव पम्प नागचन्द्र और आस्थान कर्वायत्री कन्तिदेवी दोनों ही वेलापुरी आ गये थे। वास्तव में कन्तिदेवी निवृत होना चाहती थीं। लेकिन तुरन्त पूछने पर अन्यथा समझे जाने की आशंका के कारण वह वेलापुरी आ गयी थीं।
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कन्तिदेयी यहुत अनमनी-सी हो गयी थीं। स्वयं अज्ञात होकर रहती थीं। परन्तु मुझे बहुत विषयों की जानकारी हैं वह मानकर दण्डनायक मरियाने ने मुझे अपनी बेटियों की शिक्षिका बनाकर रखा। मैंने अपने वारे में कुछ न कहा तो भी मुझको नियुक्त करते समय उन्होंने एक बात कही थी-"देखिए, मेरी इच्छा है कि मेरी बेटियाँ गुणवती बनें । वास्तव में मुझे यह नहीं लगता कि लड़कियों को विशेष शिक्षण की आवश्यकता है, यह मेरी व्यक्तिगत राय है। वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में पारिवारिक जीवन को छोड़कर किसी तरह के बाहरी व्यवहार के विषय पें विचार-विमर्श स्त्री से पुरुष करें यह सम्भव नहीं। महर्षि मनु ने कभी कहा था कि 'कार्येषु मन्त्री' इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि स्त्रियों से विचार-विमर्श किया जाता रहा है। वह हालत क्यों बदल गयी यह तो मुझे मालूम नहीं। जो भी हो, इस स्थिति में भी समाज चलता रहा है। इधर-उधर कुछ मन्द बुद्धिवाली नारियों टेढ़ी-मेढ़ी राह पकड़कर अपने सुख-भोग की इच्छाओं को पूरा करती रही हैं और इस वजह से पुरुषों के प्रति उदासीन रही आर्थी, यह मुझे मालूम है। इनमें कौन सही, कौन गलत है-इस बात की विवेचना कर सकने की सायिक प्रज्ञा मुझमें नहीं है। हमारे राजघराने के लोग विद्या-प्रेमी, कला-प्रेमी और अभिमान के धनी हैं। इन दातों के प्रति रुचि उत्पन्न होना हो तो एक विशेष प्रज्ञा की आवश्यकता है, यह सत्य है। इन सब बातों को लक्ष्य में रखकर ही ग़जकुमारों की शिक्षा की व्यवस्था की गयी है। हमारा राजपरिवार के साथ निकट सम्बन्ध होने की सम्भावना है। हमारी च्चियों को इस सम्बन्ध के योग्य बनाना होगा। ऐसा शिक्षण उनको मिलना चाहिए।"
जितना हो सकता है उतना शिक्षण देने का प्रयत्न करना कर्तव्य समझकर कन्तिदेवी ने स्वीकृति दी धी। शिक्षिका बनने के बाद, बड़े राजकुमार के साथ दण्डनायक जी की बड़ी लड़की के विवाह की बात चली। उस हालत में जिम्मेदारी कितनी बड़ी हैं, या भी विदित हो गया । वास्तव में पद्मलदेवी की महारानी के पद के योग्य बनने के लिए किस तरह के शिक्षण की आवश्यकता है, इसे समझ-बूझकर उसके योग्य शिक्षण देने का भी विशेष ध्यान रखा गया। संयम, विवेचनाशक्ति, उदारता, पूर्वाग्रह-दोष-मुक्त-मनोवृत्ति, करुणा आदि का स्वरूप-निरूपण करके उनसे प्राप्त होनेवाली फल-प्राप्ति आदि बातों का भी अच्छी तरह मनन करवाया था। शान्तलदेवी के दोरसमुद्र में आने के बाद, इन शिक्षित मनोभावों का शिष्यों के मन में सुस्पष्ट रूप व्यक्त हुआ भी धा। अपनी जिम्मेदारी को भलीभाँति निर्वहण करने के लिए उनके मन में दृढ़ संकल्प भी जागा था परन्तु बाद में घटी घटनाओं की जानकारी होने पर उनके मन में एक तरह की परेशानी उत्पन्न हो गयी थी। उन्हें ऐसा लग रहा था कि सारा परिश्रम पानी में होम करने का-सा हुआ।
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पहले कभी एक बार कांधे नागचन्द्र और स्वयं ऋन्तिदेवी में किसी साहित्यिक विषय पर चर्चा हुई होगी, उस समय उन दोनों ने अपने-अपने शिष्यों के विषय में भी बान की भी। तब कतिवी में या कि अपन, शिघ्याओं को खरा सोना बना देंगी। उस सपय राजमहल में घटित बल्लाल के असहनीय व्यवहार और बाद में हुए परिवर्तन आदि विषयों को बताते हुए कवि नागचन्द्र ने कहा था कि उनका शिष्य भी उनके शिक्षण और मार्गदर्शन में महाराज बनने के योग्य व्यक्तित्व प्राप्त करने की ओर प्रगति कर रहा है। इस चर्चा के पश्चात् दोनों कभी-कभी आपस में विचार-विमर्श करते समय कहा करते थे कि वे एक आदर्श राज-दम्पती बनाने में सफलता पाएँगे। ये सब बातें आज उन्हें अपनी आँखों के सामने दिख रही थीं। अपनी असफलता की याद करके कन्तिदेवी ने निश्चय ही कर लिया कि वहाँ रहना उचित नहीं। वे तो कभी अपने जीवन में अपने लिए किसी तरह की कोई आकांक्षा ही नहीं रख रही थीं। दण्डनायक ने जो कार्य सौंया था उसका शक्तिभर निर्वहण किया था। अब तो उनकी बेटियों को किसी तरह की शिक्षा की आवश्यकता भी नहीं थी। आस्थान-कवयित्री बनने की भी उन्हें चाह नहीं थी। ईयां रहित एक कवि भाई के औदार्य ने यह पद और विस्दावली आदि सम्मान प्राप्त कराया था। परन्तु उनका भी उन्हें कोई मूल्य नहीं दिखाई दिया। संन्यास ग्रहण करके भावी जीवन ध्यान कर्म में व्यतीत करने का निश्चय कर, यहाँ से मुक्त होने की अनुमति प्राप्त करने के विचार से वे पट्टमहादेवी शान्तलदेवी के पास गयीं।
शान्तलदेवी ने उनके इस प्रस्ताव को एकदम स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा, "ज्ञानदान से महान कोई दूसरा दान नहीं। वह ध्यानस्थ होने से भी बढ़कर है। सन्निधान पेरी सलाह के अनुसार केवल लड़कियों के लिए अलग शिक्षण की व्यवस्था करना चाहते हैं। उसके निर्वहण संचालन आदि पर आपकी ही देखरेख हो, यही उनकी अभिलाषा है। इसलिए पोयसल राज्य का एक बहुत बड़ा उपकार अभी आपसे होना है; ऐसी स्थिति में मुक्त होने के लिए अनुमति कैसे मिल सकेंगी?''
"परन्तु योग्य शिक्षण देने में मैं असफल हुई हूँ। इसलिए, जिस महान योजना को सन्निधान कार्यगत करना चाहते हैं, और जिसका करना आवश्यक है, उसके लिए मेरी योग्यता अपर्याप्त है। दोरसमुद्र में राजपरिवार और टण्डनायक परिवार-दोनों ने बहुत प्रेम के साथ मुझे आदर देकर गौरवान्वित किया है. मेरी इस अल्पविद्या को मान्यता देकर सम्मानित किया है। मैं इस ऋण से कभी मुक्त हो ही नहीं सकती। परन्तु, पूर्वस्थित महाराज का अवसान मेरी प्रिय शिष्या के ही बरताव के कारण हुआ; इसका स्मरण करते हुए मैं यहाँ शान्तिमय जीवन व्यतीत
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नहीं कर सकती। जब आयी थी तो मन से स्वीकार कर आयी थी। अब तक मन मानता रहा, यहाँ रही आयीं। अब आगे इस तरह मन की शान्ति से रहना साध्य नहीं लगता। इसलिए मुझे मुक्त करके उपकृत करने का अनुग्रह करें।" विनीत भाब से कहते हुए हाथ जोड़ लिये कन्तिदेवी ने।
जो काम मन को न जचे उसे अधिकार बन से करा लेने की परिपाटी पोरसल राजघराने की नहीं है। जब आप कहती हैं-मन नहीं मानता, तो अभी ऐसी कोई कार्रवाई राजमहल की ओर से हुई होगी जिससे आप परेशान हैं?" ।
पट्टमहादेवी को ऐसा सोचना तक नहीं चाहिए। वास्तव में आपके और सन्निधान के राजत्व के इस पुनीत अवसर पर राष्ट्र की सेवा करना एक महान पुण्य का कार्य है, यह मुझे मालूम है। राजघराने में कोई असंगत यात हुई और इससे परेशान होकर जाना चाहती हूँ-यों कदापि आप न सोचें। यहाँ रहने के लिए मनोभाव न होने का कारण पूर्व-घटित व प्रिय घटना हो मिसा कोई ग़लती की और उसके लिए आपको दुःख क्यों हो?-यह सवाल आप मुझसे कर सकती हैं। पटरानी जी, इसकी अनुभूति उसी को हो सकती है जिसने अपने कार्य वैफल्य का अनुभव किया है। जब मन में और कुछ भी चाह नहीं तब प्रेम-स्नेह भी असह्य हो जाता है। और ऐसा होना ठीक नहीं। इसलिए कृपा करके मुझे मुक्त कर दीजिए।" कन्तिदेवी ने विनती की।
उन्हें कहाँ जाना चाहिए, उनके लिए क्या सहलियतें अपेक्षित हैं; किस तरह की सुरक्षा-व्यवस्था हो, आदि की व्यवस्था करने का आदेश राजमहल की तरफ़ से दिया जा सकता था किन्तु उन्होंने यह सब नहीं चाहा।
"मुक्त होने के लिए ध्यान करने योग्य स्थान की खोज में जानेवाली मुझको वह बताना कठिन है कि मैं कहाँ जाऊँगी। जब स्वयं मैं ही नहीं जानती तो मैं बता कैसे सकती हूँ? सुरक्षा की व्यवस्था की क्या आवश्यकता है? दण्डनायक जी ने जो सम्मान के रूप में धन दिया है और राजमहल की तरफ़ से विद्वत्सम्मान का प्रतीक कंकण चूड़ा, दुशाल वगैरह प्राप्त हुआ है, वह सब स्त्री-विद्याभ्यास के लिए दान के रूप में यहीं छोड़ जाती हूँ। यह इसलिए नहीं कि पोसल राज्य में धन का अभाव है बल्कि इसलिए छोड़ जाती हूँ कि मुझे इन सबकी आवश्यकता नहीं। इस कार्य के लिए विनियोग हो, इसी लक्ष्य से मैं यह सब दिये जा रही हूँ. इसे स्वीकार करें, यह मेरी बिनती है।'' कहते हुए शान्तलदेवी को वह सब सौंपकर, उन सबसे विदा लेते हुए इस अभिनव वाग्देवी ने किसी अज्ञात स्थान की ओर प्रस्थान कर दिया।
निवृत्ति चाहनेवाली कन्तिदेवी को आसानी से अनुमति नहीं मिली। इस बात को जाननेयाले कवि नागचन्द्र को मालूम हो गया कि निवृत्त होना आसान बात नहीं।
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वास्तव में उन्हें पोय्सत राज्य को छोड़ जाने की आवश्यकता भी नहीं थी। मान-सम्मान जो भी उन्होंने चाहा था वह सब उन्हें प्राप्त था। वेरोक-टोक वे साहित्य साम्राज्य के चक्रवर्ती बनकर निश्चिन्त हो वहीं रह सकते थे। पता नहीं क्यों उनके मन में भी स्थान परिवर्तन की सनक चढ़ गयी। क्या करने से यह साध्य हो सकता है-इस बारे में बहुत सोच-विचारकर एक निर्णय पर पहुंचे, और फिर खूब सांच-समझकर उन्होंने तदनुसार कार्य-प्रवृत्त होने का निश्चय कर लिया। बिट्टिदेव के सिंहासनारोहण के वार्षिकोत्सव समाराम्भ के अवसर पर मध्याह्न के बाद ये पहाराज बिट्टिदेव और पट्टमहादेवी शान्तला से मिले। उन्हें हार्दिक बधाइयां दीं।
शान्तनदेवी ने कहा, "आप जैसे महानुभावों के हार्दिक आशीर्वाद के बल पर ही यह राज्य सुखी और सम्पन्न बनेगा।"
"आशीर्वाद मात्र से कुछ नहीं बनता। श्रेष्ठ काव्य लिखने के लिए आशीष देने मात्र से काच्य नहीं रच जाता है। सबके लिए प्रयत्न करना होता है। मनीतियाँ, सदाशय, प्रोत्साहन यह सब प्रयत्न को रूप देते हैं, उसे सफलता की ओर अग्रसर करते हैं। उसी तरह पोय्सल राज्य को सुखी और सम्पन्न राष्ट्र वनाना हो तो उसके लिए और अधिक प्रयत्न होना चाहिए। शायद इस तरह का प्रशस्त समय पहले कभी नहीं आया होगा। आगे भी ऐसा उत्तम समय आएगा या नहीं, मैं कह नहीं सकता।" कवि नागचन्द्र ने कहा।
''इस तरह का प्रशस्त समय-इसके क्या माने?" बिट्टिदेव ने पूछा।
''एक राष्ट्र को प्रगति करना हो तो उस राष्ट्र के प्रतीक रूप महाराज और महारानी को उस उन्नत स्तर तक पहुँचने की क्षमता से युक्त होना चाहिए। मैं सन्निधान से और पट्टमहादेवी से बहुत अच्छी तरह परिचित हूँ, ऐसा मैं मानता हूँ। यह कार्य आपसे ही साध्य है। साधारण परिवारों में इस तरह का योग्य दाम्पत्य देखने को नहीं मिलता। ऐसी हालत में राष्ट्र के प्रतीक राजा-रानी का यह आदर्श दाम्पत्य हमारे इस राष्ट्र के लिए सिरमौर है। राष्ट्र की प्रगति के लिए इससे बढ़कर प्रशस्त समय और कब मिलेगा?"
"शिष्य-प्रीति केवल प्रशंसा करने में ही समाप्त नहीं हो जाना चाहिए।' बिट्टिदेव ने कहा।
''सन्निधान ऐसा नहीं समझें कि ये मात्र प्रशंसा है निश्चित ही इसे प्रेरक मान सकते हैं। पट्टमहादेवी के पिता श्री भासिंगय्या जब बलिपर के हेम्गड़े के पद पर रहे, तब चालुक्य और पोसलों में जैसा मधुर सम्बन्ध रहा, उसी तरह का मधुर बन्धुत्व अब फिर से विकसित हो। इसके लिए सन्निधान को प्रयत्न करना होगा, मेरी प्रेरणा का उद्देश्य यही हैं।" नागचन्द्र ने कहा।
"कविजी, हमें चालुक्यों से विद्वेष नहीं था। उनके प्रति तो हमें अपरिमित
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गौरव था। अब भी हम उसी गौरवबुद्धि से उन्हें देखते हैं। हम चाहते तो इस बात की घोषणा करके कि हमारा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं, हम स्वतन्त्रतापूर्वक रह सकते थे। उन्होंने विना किसी कारण के प्रभु का अपमान किया। हम पर प क्यों हुआ और कैसे हुआ, इसका कारण क्या वा सो हमें कुछ भी मालूम नहीं । वे तो अब पोसलों की शक्ति को तोड़ने के षड्यन्त्र में सहायता भी कर रहे हैं। ऐसी हालत में हम क्या करें: राजनीति में प्रेम का बदला प्रेम है, त्याग के लिए त्याग हैं, परन्तु कोई तलवार तानकर खड़ा हो जाए तो उसके सामने सिर झुकाने को परिपाटी नहीं है। पोसला ने इतना ही किया हैं कितनी तलवार का तलवार तानकर ही सामना किया। ऐसी हालत में वह पुरानी मधुर मैत्री कैसे हो सकती हे विहिदेव ने कहा ।
"सीधे तलवार तानकर तो खड़े नहीं हुए न? यह बात निश्चित हैं कि दोनों में असमाधान है। इस बात की सूचना महाराज के विवाह समारम्भ के सन्दर्भ में पिरियरसी की दी थी। किसी के ऐसे या अनुचित कल्पना से उद्भूत इस असमाधान की बातों द्वारा दूर किया जा सकता है। पिरियरसी जी की भी यही इच्छा रही है कि वह पुराना मधुर बान्धव्य ज्यों का त्यों बना रहे। उन्हें ता सन्निधान से तथा पट्टमहादेवी से अगाध प्रेम है, अटल विश्वास भी है। यदि वातां द्वारा इस मधुर वान्धव्ध को बनाये रखने का मार्ग सुझा सकते हो तो उनका सहयोग अवश्य मिलेगा। या वे ही सुझा सकेंगी तो उत्तम होगा।" कवि नागचन्द्र बोलें ।
“परिवरसीजी में सद्भावना है, परन्तु चालुक्यों के राज्य में वह ही सर्वेसर्वा तो नहीं हैं। और फिर निश्छल पोसलों को ही इस दिशा में रान्धान करने की बात क्यों उठानी चाहिए यदि हम स्वयं यह बात उठाएँगे ता वे यह सोचेंगे कि पोरसलों में ही कुछ दांध है। आपके कहे अनुसार, एक भाषा-भाषी होने के नाते यदि हम दोनों में उस पहले को सी समरसता हो सकती है तो कन्नड़ साहित्य, ही उत्तम कन्नड भाषा ओर कर्नाटक की कला - इनकी दृष्टि से ऐसा होना बहुत होगा । यदि वहाँ से कोई संकेत या प्रस्ताव मिलता है तो उस पर खुले मन से विचार किया जा सकता है। हम ही वह सन्धान कार्य शुरू करें यह हमें सम्भव के नहीं, क्योंकि तब वह राष्ट्रगौरव का प्रश्न बन जाता है। वह स्वर्गस्थ प्रभु अपमान करने का सा होगा।" शान्तलदेवी ने कहा ।
कवि नागचन्द्र चकित !! महाराज विहिदेव अगर यही बात कहते तो शायद उन्हें आश्चर्य न हुआ होता। तुरन्त वह कुछ न बोल सके ।
"क्यों कविजी, मेरी बात आपको ठीक नहीं लगी" शान्तलदेवी ने पूछा । "राष्ट्रहित की बात का विचार करते समय आत्मगौरव जैसे वैयक्तिक विचार
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को महत्त्व देना क्या संगत हैं?" नागचन्द्र ने कहा।
"आत्मगौरव रहित राष्ट्र, राष्ट्र बनकर नहीं रह सकता, कविवर्य ।” "बड़े लोगों से छोटे लोग पूछ लें तो इसमें कोई ग़लती नहीं दिखती।"
"बड़े कौन छोटे कौन? चालुक्य बड़े और पोयसल छोटे-यहीं आपका विचार है?'' शान्तलदेवी ने सवाल किया।
"राष्ट्र के विषय में मैंने नहीं कहा। जगदेकमल्ल हमारे महाराज से बड़े और हमारी पट्टमहादेवी से पिरियरसी जी बड़ी हैं-इस वैयक्तिक सम्बन्ध को लेकर मैंने कहा है।"
'व्यक्ति बनकर सामने खड़े हों तो हम दोनों उनके चरण भी छुएंगे। परन्तु पोयसल राष्ट्र का सिर झुकने पर सन्निधान राजी नहीं होंगे।' शान्तलदेवी ने कहा।
"तो क्या मैं नहीं समझा कि दोनों राष्ट्रों में समरसता नहीं हो सकेगी"
"हम कभी ऐसा नहीं कहेंगे। समरसता का होना तो बहुत अच्छी बाल हैं। इस दिशा में हम खुले दिल से बरतेंगे।"
''हमारे ऐसे विचार हैं इस बात की जानकारी उनको होनी चाहिए न?" "हमारे इन विचारों को जानना उनका काम है।'' 'अनुमति दें तो मैं यह काम करूं।'' "पोसलों के सन्धिविग्राहक बनकर जाना चाहेंगे?" ।
वह बहुत बड़ी बात होगी। मैं केवल बुद्धिजीवी हूँ | महाकवि पप्प या रत्न की तरह तलवार हाथ में लेने की सामर्थ्य भी मुझमें नहीं है। इसलिए मैं एक सांस्कृतिक नियोगी मात्र बनकर, सामरस्व के लक्ष्य को साधने की दृष्टि से इस कायं को साध्यता-असाध्यता को समझने की कोशिश करूँगा।"
"तो यह स्थान छोड़कर वहाँ जाने की इच्छा है?"
"इसके वह माने नहीं कि यहीं से छोड़ जाऊँगा। यहाँ रहकर कार्य को साधा नहीं जा सकता इसलिए वहाँ जाना होगा।" ।
"पिरियरसी जी ने पहले ही कहा था न? तब आपने कहा था मेरा वचन द्रोणाचार्य के वचन के समान है जिसे उन्होंने भीष्माचार्य से कहा था 'मेरा कार्य समाप्त हुआ, अब मैं स्वतन्त्र हूँ। शायद अभी उसका स्मरण हो आया हो और जाने की इच्छा हो गची हो?" शान्तलदेवी ने पूछा।
"मुझे यह बात याद ही नहीं। पट्टमहादेवीजी को यह अभी तक याद रही आयी? सच है, तब मैंने यह बात कही थी। परन्तु अब वहाँ जाने की इच्छा ..."
''यहाँ से भी बढ़कर स्थान पाने के लिए।' बिट्टिदेव बीच में ही कह उठे। "न, न, मुझे ऐसी कोई आकांक्षा नहीं है। मुझे अपनी योग्यता से बढ़कर
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ऊँचा स्थान यहाँ मिला है। इससे बढ़कर ऊँचा स्थान मुझे कहीं नहीं मिलेगा। मैं। सरस्वती का आराधक हूँ। एक भाषा भाषी लेने काम की मीपारेका ने अलगाव की भावना उत्पन्न करके कर्नाटक सरस्वती को खण्डित किया है। मेरी आकांक्षा और कुछ नहीं, केवल उस पुरानी समरसता को फिर से प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न करना मात्र है। उस छोर से ही प्रस्तावित कराने का बत्न करना, और पोयसल राष्ट्र के आत्मगौरव को क्षति न पहुँचे इसका ध्यान रखना-यही मेरा उद्देश्य है। अनुमति देकर अनुग्रह करें।" । ___ "आपकी भावना अचही है लेकिन वह किस तरह पुरस्कृत हो, कहा नहीं जा सकता।" कहती हुई शान्तलदेवी ने अपने स्वामी की ओर देखा।
"कन्तिदेवी की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कविजी वहीं रहें तो अच्छा, यह इमारी अभिलाषा है।" विडिदेव ने कहा।
"विद्याभ्यास कराने के लिए राष्ट्र-भर में अनेक योग्य ज्ञानी, विद्वान पुरुष हैं। कवि योकिमया को चलुगोल से बुला सकते हैं। बड़े निष्णात कवि मौक्तिक जी भी यहीं हैं। सुमनांवाण जी भी हैं। और भी अनेक जन हैं। यही कष्ट नाम जो सूझे मैंने निवेदन किये।
"तो मतलब य: कि कविजी ने पहले से निश्चित करकं वह सताह हमार सामने पेश की है?" विङ्गिदेव ने पूछा।
“सन्निधान के सामने केवन समय काटने के लिए बात करना सम्भव हो सकता है?" नागचन्द्र ने की। ___ "पोय्सलों को यदि आपके मन की यह समरसता की भावना अवांछित हो तो?" बिट्टिदेव ने फिर प्रश्न किया।
"यह तो सवाल करने के इरादे से किया हुआ सवाल पात्र है; यह अन्तरंग से निकला विचार नहीं होगा। मेरी यह निश्चित धारणा है कि सन्निधान और पट्टमहादेवी के हाथ में जब तक राज्य-संचालन सूत्र हैं, पोयसल राज्य में समरसता को न चाहने की बात सही नहीं सकती।" __“राजनीति में धारणाएं कभी निश्चित रूप नहीं ले सक्री, कविजी। राष्ट्रकूट कौन हैं? चालुक्य कौन हैं? दोनों कनाटक सरस्वती की ही सन्तान हैं न उन्हें दबाकर वे ऊपर नहीं उठे ? इसलिए पोसल भी चालुक्यां को दबाकर ऊपर उठना चाहते हैं शायद इस मनोभाव से प्रेरित होकर उन्होंने अपने विचारों में परिवर्तन किया है। हम पर जग्गदेव को हमला करने के लिए भेजकर हमारी शक्ति को परीक्षा भी उन्होंने ले ली। इसलिए यह सम्भव नहीं कि ये इस तरह के सन्धान के लिए तैयार हों। ऐसी स्थिति में दोनों राष्ट्रों में समरमता कैसे आ सकती है?" विट्टिदेव ने का।
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"कर्नाटक भाषा-भाषी जनता की संस्कृति इतनी उदात्त है कि उसने सटा ही समरसता चाही हैं। जब जनता समरसता चाहती है तब राजकाज सँभालनेवाले राजवर्ग को वह स्वीकार करना होगा नः सन्निधान मुझे एक मौका दें। यदि अपने प्रयत्न में मैं असफल भी हो जाऊँ तो मैं दुःखी न होऊँगा। इस बात की तृप्ति तो रहेगी कि मैंने एक उत्तम कार्य के लिए प्रयत्न किया।"
"ठीक हैं, आपके निर्णय में हम बाधक नहीं बनेंगे । आप स्वतन्त्र हैं। आपका संकल्प सफल होता है तो हमें भी सन्तोष होगा। किन्तु आप कोई ऐसा विचार न रखें कि अपनी संकल्प-सिद्धि के लिए जिस कार्यनीति का आप अनुसरण करेंगे उसके लिए आपको पोयसल राज्य का प्रतिनिधित्व प्राप्त है। बल्कि आप ऐसा मान सकते हैं कि आप पर हमारा विश्वास होने से इस कार्य के प्रति हमारी सहानुभूति हैं।'' कहकर बिट्टिदेव ने शान्तलदेवी की ओर देखा।
__"कविजी का विश्वास है कि काँटा करवान से भी अधिक बलवान है। इसलिए वे जिस विचार को लेकर प्रयोग करने जा रहे हैं, इसके लिए राजप्रतिनिधित्व काटा ही बन सकता है. -सन्निधान का सोचना ठीक है। कविजी, पोसल राज्य सुदृढ़ नींव पर स्थित होकर जनता के हित के लिए प्रगति करे-इसी ध्येय को लेकर आप राजगुरु बनकर अब तक दीक्षाबद्ध रहे। आपकी निर्दिष्ट नीति उस लक्ष्य तक पहुँचे-चही आशीर्वाद दें।''
“पट्टमहादेवी जी, मैं चाहे जहाँ भी रहूँ, चाहे जैसा रहूँ, मेरी यही कामना रहेगी। मैं हमेशा चाहता रहूँगा कि पोयसल कीर्तिवान हो। मैं आज जो कुछ भी हूँ, यह इसी राष्ट्र के कारण हूँ। इसलिए यदि मैं इस बात को भूल जाऊँ तो निश्चित ही कृतघ्न कहलाऊँगा। आज्ञा दें।" कहकर नागचन्द्र ने दोनों हाथ जोड़े।
उन दोनों ने प्रतिनमस्कार किया और कहा, “अच्छा, कविजी।"
कन्तिदेवी को उनके गन्तव्य स्थान की जानकारी के बिना ही विदा करना पड़ा। दरार को पाटने का ध्येय लेकर कवि नागचन्द्र चालुक्य राज्य की ओर प्रस्थान कर गये। कहाँ जाकर ठहरेंगे, इसकी जानकारी उन्हें भी नहीं थी।
सारस्वत लोक के दोनों चमकते सितारे राजधानी से दूर हो गये।
बिट्टिदेव और शान्तलदेवी दोनों इस तरह से अनिरीक्षित रूप से प्राप्त राज्य को शक्ति-सम्पन्न बनाने की ओर विशेष ध्यान देने लगे। तुरन्त किसी और से युद्ध छिड़ने की सम्भावना न दिखने पर भी, आगे चलकर यदि संग्राम छिड़ जाय तो ऐसी परिस्थिति के लिए सब तरह से सन्नद्ध रहने के बारे में मन्त्रिमण्डल में विचार-विमर्श करने के उपरान्त, सैनिक शक्ति को बढ़ाने के लिए कार्यक्रम
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बनाया। राष्ट्ररक्षा एवं उसे विस्तृत करने की दृष्टि से भी यह बहुत जरूरी काम हो गया। माचरण-दण्डनाध, डाकरस दण्डनाथ और सिंगिमय्या की पृथक्-पृथक् देखरेख में सैन्यशिक्षण नियोजित रीति से व्यवस्थित हुआ। राष्ट्र के युवकों के अलग-अलग जत्थे बनाये गये और क्रमबद्ध शिक्षण दिया जाने लगा। प्रत्येक दण्डनाथ के अधीन कई गुल्मपति ध। चुछ प्रधान ममें के लिए, उन स्थानों की आवश्यकताओं के अनुसार कुछ सैनिकों को विशिष्ट शिक्षण देना आवश्यक था। आम तौर पर निष्ठावान परिवारों से चुने हुए युवकों को ही विशिष्ट स्थान देने की परिपाटी रहीं आयी। प्रधान गंगग़ज के बेटे एचिराज, घोप्पदेव; डाकरस के बेटे मरियाने और पन्त, चिण्णम दण्डनाथ का बेटा बिट्टिगा --इन लोगों को इस विशिष्ट वर्ग के लिए तैयार करने की व्यवस्था की गयी। सैनिक शिक्षण देने में डाकरस दण्डनाथ निपात थे। इसलिए इन पांचों को शिक्षित करने का पापिय उसे को सौंपा गया। इनमें सबसे बड़ा एचिराज और सबसे छोटा विट्टिगा ही रहे। उम्र में अन्तर रहने पर भी इनमें क्षात्रबुद्धि रक्तगत हाकर रही और इमकी बुद्धिमत्ता तथ! दक्षता को विकसित करने में यह सहायक रही। कहा जा सकता है कि इनमें बिट्टिगा का हस्तकौशल उम्र के ख्याल से बहुत बढ़ा-चढ़ा था।
कन्तिदेवी की इच्छा के अनुसार, स्त्री शिक्षण की व्यवस्था भी छोटे प्रमाण में शुरू कर दी गयी थी। राजधानी में गजमहल के अहाते में ही एक वर्ग संगटित हुआ। इसमें राजमहल के निकटवती परिवारों की बालाएँ ही थीं।
राजधानी के किसी भी परिवार की बालिकाओं के शिक्षण के लिए राजधानी के बीचोंबीच एक पृथक वर्ग संगठित किया गया था। राजमहल के अहाले के अन्दर संगठित वर्ग की शिक्षिका स्वयं पट्टमहादेवी ही धनौं। उन्होंने जिन अलग-अलग विषयों में पाण्डित्य प्राप्त किया था, उनमें केवल शस्त्र-विद्या को छोड़कर, शंष सभी याने संगीत, नृत्य, साहित्य, इतिहास आदि को स्वयं पढ़ाने का दायित्व अपने ऊपर लिया। उच्च स्तर के लोग पढ़ाएँ तो उसका विशेष मूल्य होता है न? स्वयं कन्तिदेवी ही पढ़ाती तो उसका मूल्य क्या होता सो कहा नहीं जा सकता। अब जब पट्टमहादेवी ही शिक्षा दे रही हैं तो कहना ही क्या? इस तरह स्त्री-विद्याभ्यास विशिष्ट और परिष्कृत रोति से आरम्भ हुआ।
परन्तु गत दो युद्धों के कारण राष्ट्र की अपार सम्पत्ति का अधिक व्यय हो गया था। जग्गदेव का खजाना हस्तगत हुआ धा तो भी उसका बहुत बड़ा हिस्सा युद्ध में मृत लोगों के परिवारों में और अविस्मरणीय सेवा करनेवाले जीवित सैनिकों में बाँट दिया गया था। अर्थशक्ति के बिना आयोजित कोई योजना सफल नहीं हो सकेगी, यह बात राजकार्य-निर्वाहक विभाग को विदित ही थी।
इस विषय में विचार-विमर्श करने के लिए एक समा आयोजित हुई। यह तो
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सभी को विदित ही था कि पट्टमहादेवी सभी बातों में निष्णात हैं। अत: 11 नया कार्यक्रम शुरू हुआ । सभी मन्त्रालोचना सभाओं में वह उपस्थित रहा करती थीं। उपस्थित रहने पर भी वार्ता में विशेष भाग नहीं लेती थीं। बहुत आवश्यक प्रतीत होने पर अपनी राय बता देतीं। इस मन्त्रणा सभा में भी वे उपस्थित रहीं।
राज्य के खजाने को समृद्ध बनाने के विषय में सभी ने अपनी-अपनी सूझ-चूहा के अनुसार विचार व्यक्त किये। शान्तलदेवी ने सलाह दी, ''कर वसूल करनेवाले बड़े अधिकारियों को चाहिए कि वे कार्यक्रम के अनुसार उगाही करें। कई एक बार सुस्ती के कारण कर संग्रह नहीं भी हुरा करता है। राष्ट्र की सम्पत्ति का संग्रह मूलतः दो तरह से किया जाता हैं। एक-धन के रूप में वसूला जानेवाला कर, फुटकर वसूल किये जानेवाले छोटे-मोटे कर तथा अन्च छटपट कर। दूसरा वह जो धान्य के रूप में उगाहा जाता है। धान्य के रूप में उगाहा जानेवाला कर उस प्रदेश या ग्राम में संगृहीत होकर राष्ट्र के भण्डार में रक्षित रहता है। पटवारी और हेग्गड़े को तरीके से यथासमय मंग्रह करना चाहिए। अभी जैसा है, धान्य जो कर के रूप में संग्रह किया जाता है वह आमतौर पर एक रूप है। सिंचाई को व्यवस्था से पैदा होनबाली फ़सल और बारिश पर निभर होकर पैदा होनवानी फसल-इन दोनों में कोई फ़क नहीं किया जा रहा है। इन दोनों को पृथक् मानना हितकर है। मैं चाहती हूँ कि अधिक उत्पादन करनेवालों से ज़्यादा वसूला जाय। हाँ, इस बात का खयाल अवश्य रखा जाय कि उनकी आवश्यकताओं में कमी न पड़े और उनके आर्थिक जीवन में अस्त-व्यस्तता न आने पाग । तरी फ़सल का एक तिहाई और अन्य फ़सलों में पांचवां हिस्सा वसूला जा सकता है।"
सुरिंगे नागिदेवण्णा ने कहा, "अन्य बड़े धोक व्यापार पर अधिक कर लगाना अच्छा होगा, क्योंकि अब राष्ट्र के खजाने में धन संग्रह होना जरूरी है।" इस समालोचना सभा में भाग लेने के लिए ही वह यादवपुर से आये थे।
बिट्टिदेव ने सूचित किया, ''यह भी किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, काछ उद्योग ऐसे भी हैं जिन पर कर नहीं लगा है। ऐसे उद्योग कौन-कौन हैं, उनसे उत्पन्न आय का परिमाण कितना है, कितना कर लगाया जा सकता है, आदि बातों पर भी विचार किया जा सकता है।"
शान्तलदेवी ने बताया, "हमारे समाज ने बहुपली प्रथा को स्वीकार किया है। अगर मुझे स्वतन्त्रता मिले तो मैं इसे हटा देना चाहती हूँ क्योंकि यह उन्नत संस्कृति का प्रतीक नहीं। यह एक सामाजिक कलंक है । वेश्यावृत्ति भी इसी तरह से एक सामाजिक कलंक है। बहुपत्नीत्व कलंक के साथ इस वेश्यावृत्ति के कलंक को भी समाज ने आत्मसात् कर लिया है। इन दोनों को मिटाने के लिए कुछ करना होगा। इस बहुपत्नीत्व और वेश्यावृत्ति पर अधिक रकम कर के रूप में लाद
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दें, तो डर के मारे लोग इनको छोड़ भी सकेंगे।" . 'वेश्यावृत्ति पर कर लगाएँ, इसमें कोई एतसज्ञ नहीं। इसे अगले साल से ही कार्यान्वित कर सकते हैं। यह इस दिशा में पहला कदम होगा। कर लगाने पर इस बात का पता भी लग जाता है कि राष्ट्र में ऐसे कितने लोग हैं जिनकी वृत्ति वेश्यावृत्ति है। यह दूसरा कदम होगा और फिर इस संख्या को कम करने का प्रयत्न तीसरा कदम होगा।' 'बिट्टिदेव बोले।।
पनीसमय्या ने कहा, "कर लगाना दूसरी बात है। लेकिन कर-भार से वृत्ति रुक जाएगी इसमें मुझ विश्वास नहीं। अति कामी स्त्री-पुरुष जब तक रहेंगे तब तक यह वृत्ति रहेगी ही। किसी न किसी रूप में बढ़ रहेगी। वह बुरी है अवश्य, फिर भी एक स्वस्थ समाज के लिए यह आवश्यक है। पारिवारिक जीवन के नीति-नियमों की सीमाओं में रहकर जीनामापन कर रहें सो उसका सम्बन्ध नहीं होगा। इन लोगों की सन्तुष्टि के लिए हो यह वृत्ति है। हाँ, परस्त्री का शीलभंग करनेवालों पर कटिन श्रम की शिक्षा और अधिकाधिक अर्थदण्ड भी दिया जा सकता है।"
डाकरस ने बताया, "पेड़-पौधे जिन पर किसी का स्यत्व नहीं, वे गष्ट्र की सम्पत्ति हैं। न काट-कूटकर ईंधन के रूप में तथा अन्य तरह से बहुत उपयोग करते हुए देखा जाता है। उनके उपयोग पर आक्षेप नहीं, पर उस तरह के विशेष उपयांगों पर कर लगाना आवश्यक लगता है।''
शान्तलदेवी ने कहा, “मेंदी-शराब पीकर समाज में ऊधम मचानेवाले भी वेश्याओं की ही तरह समाज के लिए कलंक हैं। उन पर भी कर लगाना होगा। इन पियक्कड़ों की भी संख्या को घटाना चाहिए।'
चर्चित इन सभी करों के मद्दों पर विचार करने के उपरान्त, इस वक्त किस पर कितना कर है, उसे बढ़ाना हो तो किस प्रमाण में बढ़ाया जा सकता है और कौन-कौन-से नये कर लगाने के हैं, आदि सभी के ब्यौरे के साथ एक पूरी फेहरिश्त तैयार करने के लिए खजांची दापमय्या को आदेश दिया गया। गत वर्षों में कुल वसूली कितनी थी, और इन नये करों के लगाने पर सम्भावित अधिक धन कितना होगा--इन सभी का एक अनुमानित लेखा-जोखा तैयार करने के लिए भी उन्हें आदेश दिया गया।
"अभी तक अधिक मुल्यवालो मुहरों का ही उपयोग लेनदेन के व्यवहार में किया जाता रहा है। कम मूल्य के सिक्के नैयार करेंगे तो छोटे-छोटे लेनदेन के व्यवहारों में विशेष सुविधा रहेगी, इसलिए सरकारी टकसाल में इन सिक्कों को तैयार कराना ठीक होगा।” प्रधान गंगराज ने सुझाव दिया। ___ हौं, यह किया जा सकता है। परन्तु अन्य लोगों को इन्हें तैयार नहीं करना
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चाहिए। यदि कोई ऐसे सिक्के तैयार करते पाये जाएँगे तो उन्हें कठोर दण्ड दिया जाएगा- इस बात की घोषणा लोगों की जानकारी के लिए कर देनी होगी।" यिट्टिदेव ने समर्थन करते हुए कहा ।
गंगराज ने कहा, "जो आज्ञा।' और बताया, "फ़सल की कटौती पर, उसका एक तिहाई राजादाय के रूप में लेने की बात घोषित करेंगे तो इसे प्रजा द्वारा स्वीकार कर पाना शायद कुछ क्लिष्टतर काम होगा।"
"राष्ट्रहित की बात समझा-नाकर देने के लिह होगा. हा मानेनने की सम्पत्ति को हम छीन तो नहीं रहे हैं। अधिक हिस्सा उन्हीं के लिए छोड देने हैं। अब हम जो धोड़ा-ज्यादा माँग रहे हैं, उसे व्यापार व्यवहार में लगाने पर राष्ट्र की ही आय बढ़ेगी। इस व्यापार-व्यवहार से थोक व्यापारी लाभान्वित होंगे। और विक्रीकर आदि से अधिक धन खजाने में जमा भी हो सकेगा। इसको सड़ने के लिए हम भरकर तो नहीं रखते हैं। और फिर, हम उसे लोगों को ही तो दे देते हैं। सम्पत्ति एक जगह जमा रहेगी तो वह सड़ने लगती है। उसका उपयोग एक हाथ से दूसरे हाथ में बदलते रहने में ही है। और इस तरह बदलते रहने से वह सबमें बँट भी जाती है। इसी अर्थ में हम लक्ष्मी को चंचल कहते हैं। परन्तु हम इस तस्व से परिचित नहीं हो पाये। लक्ष्मी का एक ही जगह स्थायी रहना अच्छा नहीं। बह चंचल रहे तभी राष्ट्र को सम्पन्न बनने में सहायता मिलती हैं। हमें अब उसकी वहीं चंचलता चाहिए। शान्तलदेवी ने कहा।
फेहरिश्त तैयार करने का आदेश खजांची को दिया गया और टकसाल के अधिकारी को बुलाकर भिन्न-भिन्न मुल्च के अलग-अलग तौल के सिक्कं टलवाने का निर्णय भी किया गया।
पाचण दण्डनाथ ने सलाह दी, 'पोसलों के गज तथा अश्व बल को बढ़ाना चाहिए। हाथियों की कतार सामने रहती है तो पीछे रहनेवाली धनुर्धारी सेना के लिए वह एक किला बन जाती है। ढाल-तलवार वाले सैनिकों के येरे से यह व्यवस्था हमारी शक्ति को बढ़ाकर बलवान बना देगी। अच्छे घोड़ों को अरद्ध राष्ट्र से मंगवा लेंगे तो अच्छा होगा। बैग और शक्ति में हमारे स्थानीय घोड़ों से वे ज़्यादा अच्छे होते हैं। उनकी संख्या को बढ़ा देने से हमारी भाले-बर्डीवाली सेना की भी शक्ति बढ़ जाएगी।"
शान्तलदेवी ने सलाह दी, "घोड़ों को पंगवाने के लिए एक अलग व्यक्ति को नियुक्त करना ठीक होगा। घोड़ों की परीक्षा करके उनम घोड़ों को ही खरीदना अच्छा है। राष्ट्र के बाहर से खरीदना हो तो हमारी सम्पत्ति अन्य बाहरी देशों को चली जाएगी। इसलिए हमारा ध्यान इस बात की ओर भी रहना चाहिए कि हमारी प्रत्येक कौड़ी का सही ढंग से व्यय हो।"
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रायण को इस कार्य पर नियोजित किया गया और उसे दण्डनाथ के पद पर रखकर तरक्की दी गयी ।
जंगल से हाथियों को पकड़ने तथा उन्हें पालतू बनाकर काम में लाने योग्य तैयार करने के लिए महावतों का एक जत्था ही नियोजित हुआ ।
"गजपवार और राष्ट्र-रोधक इन दोनों में निकट सम्पर्क होने पर मिलनेवाले फल का स्वरूप ही कुछ और है। अब तक हमारे राष्ट्र के बहुत से हग्गड़े और पटवारी आदि लोगों की महाराज का दर्शन ही न हुआ होगा। सम्भव है कि कइयों ने राजधानी तक को न देखा हो। इन लोगों को राजधानी में आने और सन्निधान को निकट से देखने के लिए मौका मिले तो उनके मनों पर इसका विशेष प्रभाव पड़ेगा। वे ही तो असल में राष्ट्र की शक्ति का मूलस्रोत हैं। उनको निष्ठा ही राष्ट्र की प्रगति के लिए बुनियादी ताकत है। इस बात को सन्निधान स्वयं उन्हें समझा
तो उसका दस गुना प्रभाव उन पर पड़ेगा। साथ ही, गाँव-गाँव से ग्रामीण युवकों को चुनकर सैनिक शिक्षण के लिए भेजने का दायित्व भी सन्निधान स्वयं उन्हें समझा सकेंगे।" पट्टमहादेवी की इस सलाह के अनुसार, राष्ट्र के हग्गड़े तथा पटवारी आदि सभी लोगों को एक सभा रानी में ही नाणी गयी। इस सभा में सभी विषयों के बारे में स्वयं सन्निधान ने विस्तार के साथ समझाया भी। दादाय तथा अन्य सभी तरह के धान्य कर आदि को राजादाय के रूप में खजाने में जमा करने तथा उसके विनियोग के तौर-तरीके आदि सभी बातों को विस्तार भ बतलाकर वर्तमान स्थिति में राष्ट्र की गतिविधि का परिचय भी कराया गया। राष्ट्र की प्रगति के लिए निस्पृह एवं निष्ठावान रहकर राष्ट्र की प्रगति की साधना करने में उनकी कितनी बड़ी भूमिका है यह भी सबको समझाया और बताया कि वही राष्ट्र की रीढ़ हैं।
खजांची, दण्डनाथ, प्रधानजी, सन्निधान स्वयं और पट्टमहादेवी- इन सबके भाषण सुनकर उन्हें प्रत्यक्ष देखकर हेगड़े और पटवारी आदि सभी में एक नया उत्साह भर उठा। उनमें अनेक लोगों ने राजधानी को पहले देखा भी न होगा। राजमहल के कुछेक अधिकारियों ने ही सम्भवतः उनसे भेंट और बातचीत की होगी। परन्तु बहुत प्रमुख प्रधानजी, मन्त्रिगण, दण्डनाथ जैसे उच्च अधिकारी वर्ग को इन सभी ने देखा हो यह कहा नहीं जा सकता। देखा भी हो, लेकिन उनके साथ बातें भी की ही यह भी नहीं कहा जा सकता। कभी किसी ने इशारा करके दिखाया हो कि ने ही प्रधान गंगराज हैं तो देख लिया हो। कुछ लोग ऐसे भी जिन्होंने निकट से देखा था और बात भी की थी। परन्तु बहुसंख्यक लोगों ने राजधानी को देखा ही नहीं था। तो फिर इनसे भेंट ही कैसे की होगी?
इस सभा के कारण स्वयं महाराज और पद्महादेवी तथा अन्य उच्चस्तरीय
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अधिकारी वर्ग को समीप से देख और उनकी वाणी सन पुलकित हो नूतन उत्साह से नवजीवन पाकर सब लोग अपने-अपने स्थानों को लौट गये। उस दिन उनकी निष्ठा एवं निस्पृहता को वास्तव में एक नयी चेतना मिली थी। इसका फल भी शीघ्र ही देखने को मिला।
समूचा राष्ट्र नये कार्योत्साह से स्पन्दित हो उठा। राष्ट्ररक्षा के लिए आवश्यक सैनिक शक्ति को बढ़ाने की तैयारियों के साथ, भण्डार की सम्पत्ति भी बढ़ने लगी। राष्ट्र की विरोधी शक्तियों को दबाने के लिए राष्ट्रवल को समृद्ध करने का कार्य आसान हो गया। यह सब काम नन्दन संवत्सर के उत्तरार्ध और विजय संवत्सर के पूर्वार्ध के बीच सम्पन्न हुआ।
इस विजय संवत्सर में और भी कुछ खास बातें हुईं। पट्टमहादेवी और महाराज बिट्टिदेव ने दो कार्यों को इस बीच और सम्पन्न कर डाला-पुत्र की तरह पले यिष्टिगा का स्पनयन और राजकुमार उदयादित्य का विवाह । उपनयन और विवाह इन दोनों को सम्पन्न करने के लिए मुहूर्त कुछ दिनों के अन्तर पर निश्चित किये जाने के कारण मरियाने दण्डनायक, रानी पदालदेवी, चामलदेवी और बोपदेवी को भी आमन्त्रण भेजा गया था, लेकिन वे नहीं आये। इसका कारण पद्मलदेवी का हठ ही था। उसने सोच रखा था कि इन लोगों के बड़प्पन दिखावे को देखन क्यों जाएँ।
उनकी अनुपस्थिति में ही उपनयन और विवाहकार्य सम्पन्न हुए। इस सन्दर्भ में भोजनकाल में स्वयं शान्तलदेवी प्रत्येक पत्तल के पास जा-जाकर उपचार करती हुई, परोसती हुई व्यस्त रहीं। इसे देखकर उपस्थित सभी जन अत्यन्त प्रभावित हुए। अपनी पट्टमहादेवी के आत्मीय भाव को अपने हृदयों में उतारकर बड़े आनन्द और उत्साह से सभी अभ्यागत अपने-अपने स्थान को लौट गये।
चालुक्य विक्रमादित्य की रीति-नीतियों के कारण उनके मालिकों में काफी असमाधान फैला हुआ था। जहाँ-तहाँ विरोधभाव भी उत्पन्न हो गया था। इसे उनका अविवेक ही कहें कि उन्होंने पोसलों को अपने से दूर ही नहीं कर लिया था, उनसे द्वेष भी करने लगे थे। फिर भी पीप्सलराज ने अपने वंश की उदार नीति के अनुरूप स्वयं ही चातुक्यों पर किसी तरह का विरोध प्रकट नहीं किया। पट्टिपोंबुच के जग्गदेव को उकसाकर उन्होंने पोय्सलों पर हमला करवाया। पोय्सलों ने जग्गदेव को दबाकर भगा दिया था। इस घटना के कारण तब चालुक्यों को पोय्सलों की शक्ति-सामर्थ्य का अच्छी तरह पता लग गया था।
जग्गदेव की इस पराजय ने विक्रमादित्य के क्रोध को बढ़ा दिया था। उनका
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यही विचार था कि किसी तरह से भी हो. पोसन्ना की शक्ति का बढ़ने नहीं देना है। परेवंग प्रभु की मृत्यु उनका उत्तजित कर रहो थी। इसीलिए जग्गदेव को उकसाकर उन्होंने लड़कों पर हमला करवाया था। बालक होने पर भी वे अपने पिता की तरह समर्थ, बुद्धिमान, धीर है इस बात का पता उन्हें तभी लगा था। इस चुद्ध की चर्चा कानोंकान फैन गयी घो। इसस कन्ट नंगों में ईर्ष्या मी उत्पन्न हो गयी थी तो कुछेक इससे खुश भी थे।
कल्याणी के चालुक्यों से शिकस्त खाकर अपमानित होनेवाले कुछ लोगों को । लाचार होकर उनकं अधीन सामन्त बनकर रहना पड़ रहा था। ऐसे लोगों के लिए यह समाचार विचार करने की बात बन गयी धी।
प्राण हपली पर रखकर धारानगरी की पगजित कर, चालुक्यों की विजय घोषणा करनवाले पोसलों का चल बढ़ जाय और अपने साम्राज्य के लिए वह कांटा बन जाय · इस इगद म विक्रमादित्य द्वारा पासला के प्रति जो व्यवहार किया जाता रहा उससे दुनिया अपर्गिचत तो नहीं धौ। खासकर कल्याणी के चालुक्यों से हार खाय हा नांग कल्याणी के चालकों आर पोसलों की शक्ति-सामर्थ्य को तौलकर दख रहे धे। विक्रमादित्य की एंट को हीला करना हा ती बह कंवल पारसलों से ही सम्भव हो सकता है-यह धारणा कट लोगों की बन गया थी। इन दोनों में, चाहे कोई हार या जीत, नय भी अपनी हालत में कोई परिवर्तन नहीं होगा-इस बात से परिचित होने पर कुछ मानसिक सन्तोष तो होगा ही। एसे भी लोग थे ।। जो यह चाहते थे कि जिन्हान हमें पराजित किया है, उनको भी वही देशा हो। एस टींग माग्नेवाले घमण्डियां के लिए यही उचित उण्ट है। भारत के दक्षिणी 'भूभाग में अनेक राज्यों ने जन्म लिया, विकस्स्ति हुए, फिर कम्हलाकर झड़ गये। फिर भी इन राज्यों के वारिस कहलानेवाल परिवागं के लोग पत्र-नत्र जीवित रहे। वैगिप्रदेश के पूर्वी चालुक्य, पान्नव और पानवां को आत्मसात् करनेवाले मालम्ब- लांग तथा चाल राजाओं से हार खाका कन्चाणी को चानक्यों के अधीन हां तकलीफ़ झनने पड़े रहनेवाले गंगवंशीय - इस तरह इन राजवंशों के उत्तराधिकारी दुर्बल होकर दक्षिण भारत में, खासकर कनाटक के माध्य भाग में, झुंझलाते हुए किसी तरह समय काट रहे थे। कुछेक पांसलों की बढ़ती हुई शक्ति की सराहना कर रहे थे। ये और इनसे मिले हुए गजा, सामन्तों ने पोसलों के माय शामिल होना उचित समझा 1 इस सम्बन्ध में मन्धि-सन्धान करने की बात सोचनेवालों में पूर्वी चालुक्य वंशी मंचिदण्डनाथ एक थे। उनके आश्रय में पल्लय राजवंशी पललय गोविन्द और चामुण्डब्बरसी की पुत्री वम्मलदेवी जीवन-यापन कर रही थी। मोचदण्डनाथ की भानजी राजनदंवो माता-पितृविहीन होने के कारण, उन्हीं के जाश्रय में पालती रहीं। चम्मलदेवी गजलदेवी स उम्र में थोड़ी बड़ी थी।
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वास्तव में मंचिदण्डाधिप ने इन दोनों का अपनी बेटियों की तरह पालन किया था। पोम्सलराज से बातचीत करने से पहले वह अपनी शक्ति को एक बार परख लेना चाहते थे। उन्होंने यह जानना चाहा कि उनके अधीन रहनेवाली सेना उनके साथ है या कल्याणी के चालुक्यराज के साथ । वास्तव में उनके पास प्रधानतया अश्वसेना थी । पल्लवराजवंशीया बम्मलदेवी अश्वपरीक्षा में निष्णात थी। इस वजह से उसका सभी घुड़सवार सेनानायकों से अच्छा परिचय था । वह खुद भी अच्छी घुड़सवार थी। इसलिए मंचिदण्ड से पहले अपना यह विचारो बताकर, उससे बातचीत करने के बाद, बोम्मलदेवी की मदद से सवारों के मनोभाव को जानने के लिए प्रयत्न करने का निर्णय किया। यह काम तो ऐसा है जिसे तुरन्त मन में आते ही नहीं कर सकते। अतः किसी से कुछ कहे बिना, वे सैनिकों की मनोवृति को, उनके झुकाव को परख लेना चाहते थे । इस कार्य में बड़ी सावधानी बरतनी होगी ।
वे इन बातों पर विचार कर ही रहे थे कि इतने में ख़बर मिली कि पोटसलों ने चेंगाल्वों को पराजित कर दिया हैं। इससे मचिदण्डनाथ के विचारों को पुष्टि मिली | कल्याणी के चालुक्यों की ओर विशेष झुकाव रखनेवाली अश्वसैन्य की टुकड़ी को अलग करके उन्होंने उसे कोक्लालपुर की सीमा की ओर रवाना कर दिया । उस तरफ से चालुक्यों पर धावा करने के लिए चोलों का आना सम्भव है । कल्याण तथा हडगति की ओर से दूसरी सेना भी उधर आ सकती है। दक्ष और शक्तिशाली, चुने हुए सैन्य की ही उस तरफ़ भेजने का आदेश चक्रवर्ती ने दिया हैं - यों कहकर सेना की उस टुकड़ी को उकसाकर उसे उधर भेज दिया था।
इसी बीच चालुक्य चक्रवर्ती को पोटसलनरेश क्ल्लाल के निधन की खबर मिल चुकी थी। यह ख़बर कल्याणी भी पहुँची थी। मचिदण्डनाथ को यह खबर दी गयी कि वे अपने अश्वदल को अरसीकेरे की ओर अग्रसर करें। शेष सेना बलिपुर की ओर से आकर सम्मिलित हो जाएगी। पोय्सलों को दबाकर झुकाने के लिए यह अच्छा मौका है। चक्रवर्ती की इस तरह की चाल को देख मंचिदण्डनाथ के मन में उनके प्रति एक असा भाव उत्पन्न हो गया। बम्मलदेवी और राजलदेवी चक्रवर्ती को शाप देने लगीं। अपने गौरव से सम्राज्ञी का गौरव बड़ा है और अपने प्राणों से सम्राट के प्राण अधिक मूल्यवान हैं - यही मानकर अपनी जान हथेली पर रखकर उनकी रक्षा के लिए प्राण तक होम देने के लिए जो सतत तैयार रहे, जिन्होंने शत्रुओं से लड़कर उन्हें विजय दिलायी, आज चालुक्य चक्रवर्ती उन्हीं पोटसलों पर हमला करें? बिना किसी कारण के चक्रवर्ती ने जो यह क़दम उठाया हैं उसका घोर विरोध करना ही होगा - अपने इस निर्णय की सूचना इन दोनों देवियों ने मंचिदण्डनाथ को दी ।
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यह सुनकर मंचिएण्ड । ने पूष्ठः, इरका यही 1 ला, हि साट् . की आज्ञा का पालन नहीं करेंगे। यह सूचित करना होगा?"
"इसके पहले यह जान लेना होगा कि इस विषय में पोय्सलों के क्या विचार हैं। अभी हम तटस्थ हैं। कहीं ऐसा न हो कि इधर अविनीत भाव सूचित कर, उधर से हमें स्वागत न मिले! तब हम न इयर के रहेंगे, न उधर के।" यम्मलदेवी ने कहा।
''तो फिर?''
"अब हमें दोनों तरह की बातों पर विचार करना होगा। एक, पोसलों को समझना है और दूसरी बात, वर्तमान स्थिति में कुछ कारण बताकर सेना को न 'मेज सकने की खबर चक्रवती को देना है।"
“सा तो ठीक है। पर यह काम करे कौन?"
'मैं वेलापुरी जाऊँगी, सवार नायक साहणी अनन्तपाल के साथ। आप बलिपुर हो आइए। नहीं होगा?" बम्मलदेवी ने कहा।
"राजलदेवी को यहाँ अकली छोड़कर चले जाएँ?" "दीदी के साथ बहिन रहेगी। आप चिन्ता न करें।" बम्पलदेवी ने कहा।
तदनुसार यात्रा आरम्भ हुई। वे वेलापुरी पहुंचे ही थे तब तक उदयादित्य अपनी पत्नी के साथ यादवपुरी जाकर दक्षिण-पश्चिम की ओर की गतिविधियों का निरीक्षण करने लग गया था। हेगड़े सिंगिमय्या भी उसकी सहायता के लिए वहीं
थे। किसी तरह की गड़बड़ के बिना वहीं के कार्य चल रहे थे। मन्त्रणा-सभा के निर्णचों के अनुसार सैनिक शक्ति को बढ़ाने के लिए यत्र-तत्र सैनिक शिक्षण केन्द्र चलने लगे थे और नये कर-विधान के अनुसार, लोगों से कर मिलने लगा था। इस नूतन कर-विधान से जनजीवन में किसी तरह की असन्तुष्टि का वातावरण नहीं दिखाई दिया था। प्रत्येक गाँव का पटवारी और ग्राम-घटकों के हेगाड़े सीधे राजधानी से स्फूर्ति पाकर लौटे थे न? पोय्सल राजवंश के प्रजाप्रेम, उदारता आदि का गुणगान करके, पोयसल द्वेषियों के बारे में क्रोध को बढ़ाकर, राष्ट्र की रक्षा करना प्रत्येक का कर्तव्य है और राज्य के लिए सब तरह से त्याग करने के लिए तैयार रहना है, तथा अब जो नये कर वसूल किये जा रहे हैं उनका विनियोग राष्ट्र की उन्नति के लिए ही हो रहा है, आदि सभी विषयों की जानकारी ग्रामीण पटवारियों तक सभी को अच्छी तरह समझा देने के कारण, प्रजा की सम्मति पाने में विशेष सफलता मिली। साथ ही, प्रत्येक ग्राम के नवयुवकों को सैनिक शिक्षण के लिए प्रोत्साहित भी किया जा रहा था।
अश्वबल को बड़े पैमाने पर बढ़ाने की राजमहल की अभिलाषा अपेक्षित रीति से सफल नहीं हुई थी। इसका कारण उत्तम अश्वों का न पिलना था। इस कार्य
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पर नियुक्त रायण ने जितनी सफलता की अपेक्षा की थी उतनी सफलता उन्हें नहीं मिल पायी थी। इस पर विचार-विमर्श हो ही रहा था कि सवार नायक अनन्तपाल ने आकर प्रधानजी से भेंट की और अपने आने का उद्देश्य तथा मंचिदण्डनाथ के आशय को संक्षेप में बताकर महाराज का भी सन्दर्शन किया ।
अनन्तपाल ने खुले दिल से सन्निधान के समक्ष सारी बातें रखीं। बिट्टिदेव ने सब-कुछ बड़े ध्यान से सुना और सुन लेने के बाद भी उन्होंने 1 प्रत्युत्तर मं कुछ कहा नहीं। जो कुछ सुना, उस पर ही सोच-विचार करते रहे। कुछ देर बाद बोले, "नायकजी, इस विषय पर सुनते ही निर्णय करना कठिन है। आपने तो खुले दिल से अपने विचारों को स्पष्ट किया है। फिर भी इन बातों पर अच्छी तरह से सोच-समझने की आवश्यक ने फुकुम का जा सकता | विचार करने के लिए कुछ समय चाहिए। आप कहाँ ठहरे हैं? यह बात प्रधानजी जानते हैं नः हम बाद में कहला भेजेंगे ।"
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"हमारी इस योजना पर सन्निधान की स्वीकृति हम लोगों के हित की दृष्टि से अनुकूल होगी। मैं इसी निश्चय के साथ यहाँ आया हूँ कि सन्निधान की स्वीकृति प्राप्त करके ही लौहूँगा । मंचिदण्डनाथ बातचीत करने में भी बड़े कुशल हैं। फिर भी यदि उनके विचार राजा या उनके प्रतिनिधियों को ठीक न जँचें तो हमारी स्थिति बुरी होगी। उस ओर ग़लतफ़हमी रहे और इस ओर हमें आश्रय भी न मिल सके ऐसी हालत न हो। इसलिए चाहे समय कितना भी लगे, में प्रतीक्षा करूँगा । स्वीकृति देने का अनुग्रह करें।"
“पोव्सल राज्य में आश्रय पाने की इच्छा लेकर आनेवाले कभी निराश न होंगे। परन्तु पहले इस बात का निश्चय तो हो कि वे निष्ठावान हैं। हम आश्वस्त तो हों कि इनसे पोय्सल राज्य की कोई हानि नहीं होगी।"
"हम सब तरह से वचनबद्ध होने के लिए प्रस्तुत हैं ।"
"पहले भी जो-जो आये उन सबने यही कहा है। किन्तु उनमें कुछेक ठीक नहीं निकले। ख़ैर, अभी यह सब छोड़िए। अब आप विदा ले सकते हैं।" कहकर बिट्टिदेव मन्त्रणागार से चले गये।
सवारनायक अनन्तपाल अपने मुक़ाम की ओर चल दिये।
इसी बीच चम्मलदेवी और राजलदेवी दोनों हेग्गड़ती माचिकब्बे से मिलने उनके घर, वहीं राजमहल के अहाते में गयी थीं
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गड़ती माचिकब्जे केवल इतना जानती थीं कि ये उस सवारनायक की तरफ़ की हैं जो सन्निधान से मिलने आये हुए हैं। उन्हें किसी और बात की या मिलने के उद्देश्य आदि की कुछ भी जानकारी नहीं थी। हेग्गड़े के घर का दरवाजा तो अतिथियों के लिए सदा ही खुला रहता है न? आते ही उन्हें सन्तोषपूर्ण स्वागत
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मिला। आतिथ्य भी हुआ। बम्मलदेवी ने अभी सोचा न था कि बात शुरू स. करें। इस अतिथि-सत्कार ने उसे इस विश्य में कुछ सोचने का समय दे दिया। साथ ही, माचिकटचे की सरलता से भी परिचित करा दिया। प्रकारान्तर से पिरियरमी चन्दलदेवी के इन्हीं के यहाँ गुप्तवेश में रहने की बात से भी बप्पलदेवी परिचित थी। इसलिए पहले से इनके प्रति जो सद्भावना उसके मन में रही वह पुष्ट हो गयी।
बम्मलदेवी ने विनीत होकर कहा, "हम पीसल राज्य में आश्रय पाने के लिए आयी हैं। उसे प्राप्त करने में आपको हमारी मदद करनी होगी।'
"यह तो राजमहल से सम्बन्धित विषय...."
चौच ही में बम्मलदेवी ने कहा, “पोय्सल पट्टमहादेवी आपकी पुत्री हैं, इसलिए यदि आप चाहेंगी तो हमारा काम बन जाएगा।"
"आप लोग अन्यथा न समझें। जैसा आपने कहा पट्टमहादेवी मेरी पुत्री हैं अवश्य, परन्तु इसो को लेकर हम राजकीय विषयों में हस्तक्षेप नहीं करते, न ऐसा करना उचित ही है। वास्तव में सन्निधान स्वयं स्वतन्त्र रूप से कोई निर्णय नहीं लेते। राजमहल के सभी अधिकारियों से विचार-विमर्श कर, जनकी समति लेकर ही वे कोई निर्णय किया करते हैं। ऐसी स्थिति में भला में तो क्या कर सकती
"मक नि: नीम की भी रहे, हमारी बात को उच्च-स्तर तक पहुँचाने के लिए राजमहल के किसी आत्मीय जन का सहयोग मिल जाय तो हमारा काम आसान हो जाए। आप कृपा करें तो पट्टमहादेवीजी को समझा सकती हैं।
'आपको यहाँ की रीति ही शायद मालूम नहीं । आपका कोई कार्य राजमहल से होना हो तो आप स्वयं समक्ष जाकर निवेदन करें। किन्हीं विचौलियों के लिए यहाँ स्थान नहीं। इसलिए आपका स्वयं जाना और प्रत्यक्ष मिलना ही उचित है।''
"हम स्त्रियाँ सोधे सन्निधान में जाकर मिलें, हममें इतना साहस कहाँ ? इसीलिए तो हम यहाँ आयीं।"
“आप ही बताइए क्या करें? हम राजकीय विषयों में प्रवेश नहीं करतीं।"
"अच्छा, जाने दीजिए। कम-से-कम पट्टमहादेवी के पास हमें ले जाने की कृपा करें; बहुत उपकार होगा।
"इसके लिए भी मुझे हेग्गडेजी की अनुमति प्राप्त करनी होगी 1 वे अब आते ही होंगे। तब तक आप बैठिए मैं अभी आयी।'' कहकर माचिकव्ये घर के अन्दर चली गयीं।
बम्मलदेवी और राजलदेवी ने परस्पर देखा। राजलदेवी ने बम्मलदेवी के कान
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में कहा, "अगर हेग्गड़जी भी यह कहें कि वह इस विषय में प्रवेश नहीं करेंगे तो फिर क्या करना होगा?"
"हम बेलापुरी तो आ गये हैं। उधर सवारनायक अनन्तपाल सन्निधान से मिलने गये हैं। वे क्या कहते हैं। इसे पहले जान लें और तब सोचें कि आगे क्या करना होगा?" बम्मलदेवी ने धीरे से कहा ।
तभी बाहर से घोड़े के हिनहिनाने की आवाज सुन पड़ी।
माचिकब्वे बाहर गयीं और कुछ ही क्षणों में हेगड़े दम्पती ने भीतर प्रवेश
किया।
ये दोनों उठनेवाली ही थीं कि इतने में उन्हें बैठने के लिए कहकर हेगड़ेजी खुद भी बैठ गये।
अन्दर के दरवाज़े की योढ़ी के पास खड़ी हेग्गड़ती माचिकब्वे ने संक्षेप में कहा, "ये दोनों पट्टमहादेवी से मिलना चाहती हैं। ये पोय्सन राज्य में आश्रय पाना चाहती हैं। इसके लिए हमारी मदद चाह रही थीं। मैंने कहा कि राजमहल की चातों में हम प्रवेश नहीं करतीं और बताया कि मालिक से पूछ लूँगी।" मारसिंगय्या ने विस्फारित नेत्रों से उनकी ओर देखा के आगमन से हमारा घर पवित्र हुआ। कृपया यह पल्लव वंश की हैं और कौन पूर्वी चालुक्य वंश की ?" माचिक ने इस बार चकित होकर उनकी ओर देखा । ब्रम्मलदेवी ने बताया, "यह चालुक्य मंचिदण्डनाथ की भानजी राजलदेवी
और कहा, “आप लोगों आप दोनों में कोन
हैं ।"
"ठीक, अब मालूम हो गया। आपके नायक अनन्तपाल ने सन्निधान के सामने सब निवेदन किया है। आपका काम आसान हो गया है।" मारसिंगय्या
बोले ।
"तो, सन्निधान ने हमारे प्रति उदारता दिखायी?" वम्मलदेवी ने पूछा । "एक स्तर तक चर्चा हुई हैं, अभी किसी निर्णय तक नहीं पहुंचा जा सका
है ।"
"लो हम यह मानें कि हग्गड़जी ने भी उस चर्चा में भाग लिया है?" "सन्निधान के निर्णय को जब तक न जानेंगे तक तक इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।"
"पट्टमहादेवी को भी इन बातों की जानकारी हुई है?"
"शायद अभी तक नहीं ।"
" तो उन्हें भी बताया जाएगा। यही न?" "सभी ख़ास बातें उन्हें मालूम होंगी ही । "
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"हम एक बार उनसे मिल सकतीं तो शायद हम अधिक उपकृत हो सकती
थीं ।"
"क्यों? आपके नायक अनन्तपाल जी सारी बातें नहीं कह सकेंगे? “पुरुषों के साथ पुरुषों के कहने में तथा स्त्रियों के स्त्रियों से कहने में अन्तर हो सकता है। "
"हम पुरुष जात इस बात को कैसे समझेंगे? अभी थोड़ी देर में पट्टमहादेवी वहीं पधारनेवाली हैं। परिचय करा दूँगा आपको जो कहना हो उनसे एकान्त में ही कह सकती हैं।"
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"आज अचानक पट्टमहादेवी क्यों आ रही हैं?” माचिकब्बे ने पूछा । " आज हेग्गड़ती का जन्मदिवस है नः इसलिए मायके ही भोजन के लिए आएँगी यों कहला भेजा। मुझे भी यह बात मालूम नहीं थी ।"
"बच्चे भी आएँगे?" माचिकब्बे ने प्रश्न किया ।
नहीं, पड़महादेवी अकेली ही आएँगी। साथ में शायद चट्टलदेवी भी आए।" मारसिंगय्या ने कहा ।
"खैर, अच्छा हुआ। बच्चे आते तो उन्हें मिठाई के बिना ही भोजन कराना पड़ता।" माचिक ने कहा ।
"क्यों बनवायी नहीं ?"
"नहीं ।"
"नाती नाते ही मोठा खाएँगे, पति नहीं खाएंगे यहीं हेग्गड़ती का मतलब
है?"
"अच्छा, जाने दीजिए, आप ऐसे ही तमाशा करते रहते हैं। मुझे स्मरण ही नहीं था कि आज मेरा जन्मदिन है।"
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"अम्माजी ने पट्टमहादेवी होने पर भी इस बात को याद रखकर कहला भेजा हैं देखो ! जल्दी कुछ मिटाई नहीं बन सकती? अभी राजमहल से आने में आधा प्रहर लगेगा। और फिर ये अतिथि भी तो हैं। आज तुम्हारे धन्य भाग हैं। तीन-तीन राजघराने के अतिथि होंगे तुम्हारे जन्मदिन के अवसर पर । इसीलिए इनका परिचय पाते की मैंने कहा कि हमारा घर पुनीत हुआ। अच्छा, अब चलो, आप लोग मुझे क्षमा करें, इस लिवास में भोजन रुचता नहीं ।" कुछ-कुछ प्रणाम करने के ढंग से झुककर मारसिंगय्या अन्दर चले गये। माचिकच्चे भी "क्षमा कीजिए अभी आधी " कहकर अन्दर चली गयीं।
इन दोनों ने फिर एक बार एक-दूसरे की ओर देखा ।
कुछ देर तक र्या ही बैठी रहीं । न हेग्गड़े ही आये, न हेग्गड़ती जी ही । "लगता है कि नायकजी सन्निधान तक पहुँच गये हैं।" धीमे स्वर में
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राजलदेवी ने कहा।
''कोई बात नहीं, पासा फेंका हैं, देखें क्या होता है। परन्तु हमारे बारे में क्यों कहना चाहिए था।"
__ "शायद कुछ सन्दिग्ध परिस्थिति में कहा होगा, क्योंकि वह निश्चय हुआ था न कि मौक़ा आने पर ही कहना होगा।" ___ "उन्हीं से पूछकर जान लेंगे। अब यह सब-कुछ लोगों को तो मालूम हो ही गया हैं। हम जहाँ ठहरे हैं वहाँ यदि हमारा पता लग गया तो कुछ कठिनाई आ सकती है, इसलिए पट्टमहादेवी से विनती करेंगे कि इस बात का प्रचार न हो।"
"अब यहाँ भोजन के लिए फँस गर्थी न?"
"कोई गलती नहीं हुई। प्राज्ञ लोगों ने कहा है कि अभ्यागत ईश्वर समान होता है।" कहते हुए मारसिंगच्या भस्म धारण किये तथा शुभ्र धुलो धोती पहने उपरना ओड़े आये।
चकित होकर दोनों ने उनकी ओर देखा।
"क्या बात है?' मारसिंगय्या ने प्रश्न किया। स न धादलया है. लाकर आपक माध पर मन और गल में रुद्राक्ष!"
"इसमें आश्चर्य ही क्या है। मैं शिवभक्त, शैव हैं।" "तो जैनियों के साथ बेटी का...?"
मारसिंगय्या बीच में ही हैंस उठे। बोले, "हमारी हेग्गड़ती भी जैन हैं। हप शैव । पट्टमहादेवी भी अपनी माँ की तरह जिन-भक्त हैं।"
"ऐसा भी हो सकता है. यह हमें पता न था!" "मानव, मानब बनकर जीने का प्रयत्न करें तो ऐसा हो सकता है।''
"आप शैव हैं। हाँ, सन्निधान के जिन-भक्त होने के कारण पट्टमहादेवी को कोई परेशानी नहीं हुई होगी।"
"यदि पट्टमहादेवी शैव ही होती तब भी वे इसी तरह रहती। अगर आपके परिवार से कन्या लाने की बात होती तो भी वे इनकार नहीं करते। आप शैव हैं.
"हाँ। फिर भी पति एक और पत्नी दूसरे देव पर विश्वास रखकर पूजा-अर्चा करने लगे- यह सम्भव कैसे हो सकता है? यह तो हमारी समझ से परे की बात
"इस विषय पर आप पट्टमहादेवी से चर्चा कीजिएगा। वे आपको अच्छी तरह समझा सकती हैं।"
इतने में बाहर से पालको के उतरने की आवाज़ सुन पड़ी। ''वह देखिए, वे
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आ गयीं।" कहते हुए मारसिंगय्या द्वार की तरफ बढ़े।
दोनों उठ खड़ी हुई। माचिकच्चे भी आँचल से हाथ पोंछती हुई वहीं आ गयीं।
पट्टमहादेवी शान्तलदेवी अन्दर आयीं। उनके पीछे चट्टलदेवी हाथ में परात लिए वहाँ आयी। अन्दर आते ही माता-पिता के चरण छूकर पट्टमहादेवी ने प्रणाम किया और माँ से कहा, ''माँ बैठिए।" उन्हें एक गलीचे पर बैठाया और फिर चट्टला से कहा, "परात इधर लाओ।"
चट्टला ने परात को वहाँ रखकर उस पर ढक रेशम के वस्त्र को उयादा । परात से सोने का कुंकमदान लेकर, माँ को सिन्दूर और मंगलद्रव्य देकर, पीताम्बर और कंचुक माँ के आँचल में भरकर पुनः प्रणाम किया। कहा, “माँ, आशीर्वाद दें कि आपकी यह बेटी मायके और ससुराल की लाज रख सके, दोनों घरों की कीर्ति को सँजोये रख सके। मैं जहाँ रहूँ वहाँ शान्ति विराजे ऐसा बरतती रहूँ।"
माचिकब्बे ने बेटी के सिर पर दायाँ हाथ रखा और फिर पीठ सहलाकर कहा, "उठो अम्माजी।"
शान्तलदेवी उठ खड़ी हुई। अपने पिता को देखने के इरादे से बग़ल की ओर मुड़ीं।
वहाँ दो अपरिचित स्त्रियों दिखाई पड़ी। दोनों ने देखते ही हाथ जोड़कर प्रणाम किया। शान्तलदेवी ने भी हाथ जोड़कर प्रत्यभिवादन किया और पूछा, "पिताजी : तो ये सवारनायक अनन्तपाल के साथ जो आयी हैं वे ही...''
"हाँ, पहमहादेवी से मिलने की इच्छा से आयी हैं और इसके लिए मदद करने को माँग लेकर तुम्हारी माँ के पास आयी हैं।" मारसिंगय्या बोल्ने ।
“मैं खुद ही आ गयी, अब माँ का काम आसान हो गया न"
'मेरा काम आसान हो गया कहो। तुम्हारी माँ ने यह काम मुझे सौंप दिया था।" ___ "छोड़ो, अच्छा हुआ। सन्निधान की आज्ञा के अनुसार, इन्हें राजमहल में बुलवाकर बातचीत करनी पड़ती। अनायास यहीं मिलने से दोनों का कार्य वन गया। अच्छा पाँ, यह बताया क्यों नहीं कि आज आपकी वर्षगाँट है?
“ढलती उम्र में यह वर्षगांठ? वास्तव में उस तरफ़ मेरा ध्यान ही नहीं गया।"
'कोंगाल्व, चर देश की तरफ से युद्ध की सूचना के आने से अभी एक पखवारे से वही काम चल पड़ा है। अन्य किसी और ध्यान ही नहीं रहा। विहिगा की पीट धोकर असीसने के लिए उसकी बड़ी दीदी शान्ति आवी थी। इससे
1. कर्नाटक में यह रीति परम्परा से चली आयी है कि नागपंचमी के दिन बहिन भाइयों की शुभ कामना
करती हुई दूध से उनकी पीट धोती हैं और छोरों को असीसती और बड़ों को प्रणाम कर आशीष लेती हैं। यह सबको सरख-शान्ति कं लिा मंगलकामना का एक संकेत हैं।
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आपके जन्मदिन की याद आ गयी। अभी परमों दण्डनायिका एचियरका के साथ कुमार बल्लाल और हरियला दोरसमुद्र गये हैं। अभी लौटे नहीं। इससे आज नागपंचमी है इसका भी ध्यान न रहा। मुझे लो यह मालूम ही नहीं था। मामाजी यहाँ होते, या यहाँ पिरियरसी जी होती तो नागपंचमी की याद रहती। चलो, देर से सही, याद तो आ गयी-यही क्या कम भाग्य की यात है।'' शान्तलदेवी ने कहा। ___"अम्माजी, कुमार बल्लाल और हरियला तो अभी छोटे हैं। उन बच्चों को ही भेज दिया और तुम साथ न गयीं?" माचिकब्बे ने पूछा।
"जन बच्चों ने जिद पकड़ ली, गाड़ी से उतरते ही नहीं थे।"
"बेचारे! वहाँ तुम्हारी याद कर हट करने लगे तो एचियक्का की क्या दशा होगी:"
"कितनी दूर है माँ? ऐसा हो तो लाकर छोड़ जाएँ। फिर इनके साथ रेविमय्या भी तो हैं।"
"तब तो ठीक है। छोटे अप्पाजी और विनय को साय नहीं लाठी"
"बच्चे सो रहे थे। और फिर जब से यह युद्ध की बात चली तव से बच्चों के साथ लगाव कुछ कम ही करती आयी हूँ।"
“मतलब?"
"यदि युद्ध ड्रिड़ा तो अबकी बार मैंने सन्निधान के साथ युद्ध में जाने का निश्चय किया है।"
''क्या कहा?" आश्चर्य से चकित हो माचिकदो ने पाछा।
'सब बातें बाद में विस्तार से बताएंगे। अभी पहले भोजन का काम कर लें। अपनी बातों में हम इन अतिथियों को भूल बैठे हैं।" कहकर मारसिंगय्या ने बात का रुख ही बदल दिया।
इतने में दासध्ये ने आकर बताया, "भोजन तैयार है!'' माचिकव्ये ने कहा, "दासब्बे, इन्हें स्नानागार दिखाओ।" दोनों अतिथि दासब्बे के साथ स्नानागार गयीं।
इसकं बाद हेगड़े दभ्यती और शान्तलदेवी रसोइंगृह के सामनेवाले भोजनालय में आये। चट्टलदंवी परात लेकर अन्दर चली गयी।
चलते-चलते माचिकब्बे ने कहा, "अम्माजी, आजकल मालिक कुछ भी नहीं बताते । मुझे तो इस चुद्ध के बारे में या बच्चों के दोरसमुद्र जाने के विषय में कुछ भी मालूम नहीं।"
"अप्पाजी और हरिचला के दोरसपट्ट जाने की बात तो उनको भी मालूम नहीं । वास्तव में पिताजी अभी एक पखवारे से सौध या अन्तःपुर में आये ही नहीं।
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मेरी उनसे भेंट कंवल मन्त्रणागार में, राजनीतिक विषयों के बारे में मन्त्रणा करते यक्त होती है।"
“मूहों यह सब क्या मालूम उनकी व्यस्तता, अनिमित भोजन, लाराम कम इतना भाग मुझे मालूम है। पूड़ने पर यही एक छोटा उत्तर-'बहुत कार्य हैं।'
__ उनकी गति आप जानती हैं न? जिसे कहना है उसे छिपाएंगे नहीं। जो नहीं कहना है उस सम्बन्ध में मुंह खोलंगे नहीं।'
'सो तो ठीक है।"
भोजनालय में उनके पहुँचने पहँचते दासलो बम्भलनेवी और राजलदेवी को वहाँ ले आथी।
'मैं हाथ-पर धोकर भगवान को प्रणाम कर आती हूँ।" कहकर शान्तलदेवी वहां से चली गों। दासब्ब रसोर्टगृह में चली गयी।
बम्मलदेवी और राजलदेवी-दोनों को बिठाकर माचिकव्वे बेटी की प्रतीक्षा में खड़ी रहीं। सामने की कतार में एक कंतं का पत्ता लगा था, वहाँ हेग्गड़ी जा ट। शान्तलदेवी जगदी ही नोट आयीं। इन अप्रत्याशित जांतधियों के आगमन से जन्मदिन के इस शुभ अवसर पर सबको एक विशेष सन्तुष्टि हुई।
भोजन के बाद हेग्गड़ आराम करने के बहाने अपने कमरे में वर्ग गये। भाविकचे पान-पड़ी लकर चली गयीं। बाहर के आंगन में विटे गलीचे पर भट्टमहादेवी, व्रम्पलदेवी ओर गजलटवी आकर वैट, गी।
चहता पान-पई। तेकर आयी और इनके सामने रख दिया। उसमें तयार पान थे।
"लीजिए।'' कहकर शान्तलदेवी ने खुद एक पान लिया और मुंह में डालते हा सामने खड़ी चट्टला से कहा, "तुम भी पहले भोजन कर तो और पालकीवालों को भी करा दो। मुझे राजमन अल्टी लौटना है।"
चला ने कहा, 'मेरा भोजन हो गया, पालकी के ऋहार ले रहे हैं।" बम्मलदेवी और राजलदेवी ने भी पान-बीड़ा लिया।
"आपके सवारनायक ने जो खुले दिल से सारी बातें सुनायी थीं, उन्हें सन्निधान ने भझं बता दिया है। दो-तीन बातों पर हमें विशेष विचार करना है। पहली बात यह है कि आप लोगों की पोयसल सष्ट्र के प्रति निष्ठा स्थायी रहेगी या नहीं। दूसरी बात यह कि विगत में हमारे प्रभु के सिंहासनारोहण के अपने विषय को उन्हें न बनाने का जो निश्चय किया गया था, इसी बात से चालुक्य चक्रवती हम पर ऋद्ध हुए। आपको आश्रय देने पर तो पता नहीं आगे चलकर उनके मन में क्या-क्या विचार पेदा होंगे और उनकी चाल कैसी हो सकती है। आपके नायक के कहे अनुसार, ऐसा लगता हैं कि वे अभी हम पर हमला करने
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की तैयारी में हैं। ऐसी हालत में अब हम यह काम करें तो उनसे सदा के लिए वैर मोल लेना होगा। वर्तमान स्थिति में हमें चेंगाल्यों और चेरों का सामना करना पड़ रहा है जिसके लिए तैयारियाँ जारी हैं। सभी शक्तियों को केन्द्रित किया जा रहा है। इसी पृष्ठभूमि को लेकर हमें विचार करना होगा। वास्तव में, हम अभी तक जितनी अश्वसेना की आवश्यकता है उतनी जुटा नहीं पाये। आप जिस मौके पर आयीं वह उतना प्रशस्त नहीं। शान्तिपूर्वक विचार करने के लिए भी तो अवकाश नहीं है।" शान्तलदेवी ने कहा ।
"पट्टमहादेवी जी, अविनय क्षमा हो; सन्निहित आवश्यकता की पूर्ति हमारे दण्डनाथ के अधीन रहनेवाली विश्वस्त अश्वसेना से की जा सकती है। हमारे विचारों से जो सहमत नहीं, ऐसे सैनिकों को पृथक् करके अन्यत्र भेज दिया गया हैं। हमें आश्रय दें तो हमारी शक्ति पोसलों की ही शक्ति बनेगी। इससे कल्याणी के चालुक्यों के तात्कालिक हमले का विचार भी स्थगित हो जाएगा, क्योंकि अपनी योजना की सफलता के लिए उन्हें हमारे दण्डनाथ से ही नेतृत्व की अपेक्षा होगी। जब ऐसा नहीं होगा लो आप स्वयं परिस्थिति को समझ सकती हैं। अब रही दुश्मनी की बात बिना कारण द्वेष करनेवालों के विद्वेष का कोई मूल्य पोय्सल नहीं देंगे - यह पहले से ही जानी हुई बात हैं। आपके यहाँ आश्रय पाने के लिए हम आर्य इसके लिए अन्य कोई कारण नहीं, सिवाय इसके कि उनके अन्यायों में हमारा सहयोग न रहे। स्नेह और निष्ठा को मान्यता देनेवाले पोप्सल राज्य में हमारा जीवन सार्थक होगा - यह हमारा विश्वास है । अब रही यह बात कि हम अपने इस विश्वास का प्रदर्शन कैसे करें । सन्निधान के चरणों में अपना खून समर्पित कर सकते हैं कि हमसे द्रोह - चिन्तन न होगा ।" बम्मलदेवी ने कहा ।
" आपकी बातों में एक हार्दिक आवेग है। फिर भी निष्ठा के विषय में हमारा मन आश्वस्त हो यह जरूरी है। फिर इन सभी बातों पर सन्निधान प्रधानजी, मन्त्रिगण और दण्डनाथ आदि से विचार-विमर्श कर निर्णय करेंगे। भावोद्वेग से आविष्ट होकर कोई निर्णय कर लिया जाय वह किसी के लिए अच्छा नहीं। अच्छा, अभी मुझे शीघ्र ही राजमहल पहुँचना है।" कहती हुई शान्तलदेवी उठ खड़ी हुई ।
वे दोनों भी उठ खड़ी हुईं। बम्मलदेवी ने कहा, “जैसे हम अभी अज्ञात हैं, यह स्थिति ऐसी ही रहे, यही अच्छा है।"
"इस बारे में आपको चिन्तित होने की जरूरत नहीं । चट्टला, पालकी को तैयार रखने के लिए कह दो, मैं अभी आयी।" शान्तलदेवी बोली ।
चला उस कार्य के लिए चली गयी।
"हम इस आश्वासन के लिए कृतज्ञ हैं। फिर भी नौकर-चाकरों का...' "आप लोगों को हमारी चहला के बारे में कुछ भी मालूम नहीं। आप चिन्ता
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो' : 437
י,
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न करें।" कहकर, "अप्पाजी, माँ, मुझे विदा दें।' कुछ जोर से शान्तला बोलीं।
अन्दर से माँ-बाप आ गये। मंगलद्रव्य और फल-पान देकर शान्तलदेवी को . विदा किया।
अतिथि भी हेग्गड़े दम्पती से आज्ञा लेकर फल-पान ले विदा होकर अपने मुक़ाम की ओर चल दीं।
सन्निधान आदि ने सभी बातों पर विचार कर यह निर्णय लिया : "आपत्ति न हो तो सवारनायक अनन्तपाल इन दोनों स्त्रियों को राजमहल के ही आश्रय में छोड़कर लौट जाएँ और फिर अपने दण्डनाथ के साथ आएँ। उनकी बलिपुर की यात्रा का परिणाम उन्हीं से जानकर, अन्तिम रूप से निर्णय लेने में सुविधा होगी।"
यह बात अनन्तपाल को बता दी गयी। अनन्तपाल ने अपने साथियों से चर्चा की और फिर वे अपनी स्वीकारोक्ति के साथ बमालदेखी और राजलदेवी को गजमहल में छोड़कर लौट गये। ___मंचिटण्डनाध का भाग्य अच्छा था। बलिपुर पहुँचन-पहुँचते उन्हें यह समाचार मिता-वहां के यातुक्य प्रतिनिधि कदम्ब तैलप को चालुक्य चक्रवर्ती की तरफ़ से कुछ दूसरे ही टंग का आदेश मिला है कि फिलहाल पोसली पर हमले के विचार को स्थगित रखा जाय। यह भी ज्ञात हुआ कि मालवों की तरफ़ से युद्ध की सम्भावना की सूचना मिलने के कारण वहां की संना कल्याणी की ओर गयी है; अतः वे अभी जैसे है वैसे ही वहां की निगरानी करते रहें यही पर्याप्त है। इस । समाचार के कारण मंचिदण्डनाथ वहीं से कुछ मानसिक प्रसन्नता के साथ लौटे थे। कुछ बहाना करके वे उनसे छूटना जो चाहते थे लेकिन अब उसकी जरूरत नहीं रही थी।
सवारनायक अनन्नपाल उनके लौटने की बाट जोह रहा था। उनके पहुंचते ही बेलापुरी की सारी बातें बतायी गयीं। सवारनायक और दोनों देवियों ने जो काम किया था उससे उन्हें तृप्ति भी मिली । अपनी सेना की एक छोटी टुकड़ी को वहाँ छोड़कर, शेष सेना को साथ लेकर वे बेलापुरी की और चल पड़े। जाते-जाते मचिदण्डनाथ ने कहा, ''सेना पीछे-पीड़े धीरे से आए, मैं आगे जाऊँगा और पोसल महाराज से मिलकर अपनी सेना पोसल राज में बेरोकटोक आगे बढ़ सके, इसके लिए अनुमति लेकर सन्देश भेज दूंगा।"
तदनुसार वे कहीं बीच में ठहरकर, दो दिन के भीतर बेलापुरी पहुंच गये और नियोजित रीति से महाराज से मिले । सवारनायक अनन्तपाल को वेलापुरी छोड़े
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एक पखवारे से अधिक समय हो गया था। इस अर्से में बम्मलदेवी और शान्तलदेवी के बीच युद्धक्षेत्र के विषय में कुछ बौद्धिक चर्चा भी हो चुकी थी। शान्तलदेवी को बम्मलदेवी के अश्वपरीक्षण एवं अश्वारोहण का परिचय भी मिल गया था। उधर चहलदेवी ने भी महारानी से आज्ञप्त हो इन दोनों स्त्रियों के बारे में अन्य सारी जानकारी जुटाना आरम्भ कर दिया था। इन सबके परिणामस्वरूप, कहा जा सकता है कि मंचिदण्डनाथ के सन्धान कार्य के लिए योग्य वातावरण तैयार हो गया था
इतने में पुनीसमय्या के नेतृत्व में कांगात्वों की तरफ़ से सम्भावित हमले का सामना करने हेतु नागिदेवाणा की मदद के लिए पर्याप्त प्रमाण में सेना भेज दी गयी थी। महाराज ने खुद जाने के विषय में अभी कोई निश्चय नहीं किया था। कारण था मंचिदण्डनाथ के आने की प्रतीक्षा। वहाँ उदयादित्य राजप्रतिनिधि की हैसियत से कार्य संचालक तो थे ही ।
मंचिदण्डनाथ के जाते ही महाराज विट्टिदेव, पट्टमहादेवी शान्तलदेवी और बम्मलदेवी - इन तीनों ने उनसे मिलकर विचार-विमर्श किया। सबसे पहले यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि पोसलों पर के हमले को स्थगित करने का कारण क्या हो सकता है? मंचिदण्डनाथ को इसका कोई कारण नहीं समझ में आ रहा था । कदम्ब तैलप से भी उसके बारे में कुछ विशेष बात मालूम नहीं पड़ी। इस सिलसिले में विचार करते हुए शान्तलदेवी को एक बात समझ में आयी तो उन्होंने उसे महाराज बिहिदेव के समक्ष रखा।
विट्टिदेव ने उनकी ओर देखा। बोले, "तो महारानी की यह राय है कि कवि नागचन्द्र जी ने समरसता लाने का प्रयत्न किया है। "
"वे तो पोप्सल राज्य से जाते वक्त इसी उद्देश्य को लेकर गये थे । इसलिए यह सोचना गलत न होगा कि वे कोशिश कर रहे हैं।" शान्तलदेवी ने कहा बिट्टिदेव हँस पड़े |
"क्यों, सन्निधान की यह बात जँची नहीं ?"
" पट्टमहादेवी के विचार पट्टमहादेवी की मानसिक भावनाओं के प्रतीक हैं। समरसता लाने की उनकी उत्कट इच्छा है। इस सामरस्य के सध जाने पर चालुक्य पिरियरसी चन्दलदेवी ने हमारे विवाह के समय जिस बात की सूचना दी थी वह भी सम्पन्न हो गयी प्रेम का यह आकर्षण ही तो हैं। इसी दिशा में मन विचार करने लगता है।" बिट्टिदेव बोलें ।
बिट्टिदेव की यह बात शान्तलदेवी को ठीक नहीं लगी। उनका चेहरा कुछ सुरझा सा गया । तुरन्त उन्होंने कुछ नहीं कहा।
बिट्टिदेव को भी एक तरह से कुछ उचित-सा नहीं लग रहा था। शान्तलदेवी
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कं पुख के भाव इस तरह क्यों हुए- यह बात उनकी समझ में नहीं आयीं। वे भी कुछ देर सोचते बैठे रहे। मौन छाया रहा।
बहुत ही मुख्य प्रश्न पर विचार करते वक्त यों अचानक इस मौन से मंचिदण्डनाथ कुछ पलड़ा गये। राजनीतिक परिस्थितियाँ कब किस तरफ़ करबर ले लें कौन जाने ? इस समय इस मौन को तोड़ने की इच्छा से उसने कहा, ''तो क्या चक्रवतों के मन में सन्निधान के विवाह के समय पहले जैसा मैत्रीभाव आ गया था? क्या उसके बाद ही किसी कारण से उनमें असन्तोष की भावना पैदा हुई:'' उनका प्रश्न था।
"नहों, प्रभु के सिंहासनारोहण समारम्भ को सम्पन्न करने के लिए उनसे अनुमति नहीं ली गयी...इससे उनको असमाधान हो गया था। वहीं बढ़ते-बढ़ते इस स्तर तक आ पहुंचा है। जब कभी उस पुराने स्नेह की चाद हो आती है। कितना स्नेह था। कल ..! वर माही गिनः रहा होता! आदि आदि वेिचार मन में उठ
आने हैं-सन्निधान के कहने का यही तात्पर्य है। उह, अव वह सब पुराना किस्मा हो गया। अब सोचने से क्या फ़ायदा इसीलिए सन्निधान मेरी बात पर हँस पड़े।" शान्तलदेवी ने कहा।
"हमेशा अच्छाई ही की इच्छा रखनेवाली हमारी पट्टमहादेवी जैसा विशाल मनाभाव विक्रमादित्य चक्रवर्ती में नहीं है यह स्पष्ट हैं; ऐसी हालत में एक कांवे की बात को मान्यता मिलेगी ऐसा पानना व्यर्थ है। हमें लगा कि जो साधा नहीं जा सकता उसी को पट्टमहादेवी चाह रही हैं। इस स्मिल कहने के बदले, चातुक्य चक्रवर्ती के बारे में एक गंग्य ही समझें -यह मैं स्वयं कहता हूँ। वो कहते हरा हमें संकोच भी नहीं होता। अच्छा उस बात को जाने दीजिए। उससे अब हमारा कोई प्रयोजन नहीं। ऐसा उन्होंने क्यों किया है--इसकी खबर हमारे गुप्तचरों से
मालूम हो ही जाएगी। उनसे खवर पाने से भी पहले हममें जानने की इचछा उत्पन्न i हुई- इस वजह से यह सवाल उठा। अन समझ लीजिए कि आप हममें मिल गये।
कैसे, क्या और किधर आदि बातों पर बाद में विचार हो जाएगा। वह तो रहस्य बनकर रह नहीं सकता। अन्यथा वही होता कि हमने चालुक्य चक्रवर्ती के साध के विद्वेष को स्थायी बना रखा है। है न?"
"सन्निधान हमें उकसाकर उधर से इधर ले आये। यही न?' बम्मनदेवी ने कहा।
"देवीजी घोड़ों की परीक्षा में निष्णात हो सकती हैं, परन्तु मनुष्यों की रीत शायद उतनी अच्छी तरह भालूम न पड़ी होगी।" विट्टिदेव बोले।
"मुझसे कोई ऐसा अविवेक बन पड़ा जिससे सन्निधान की ऐसी सब हुई ?" कुछ कुतूहल से बम्मलदेवी ने पूछा।
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"न, न, हमने एक सामान्य बात कही। पटभद्रों के अधिकृत हिताभिलाषी जनों की बात समझना कठिन है इसी विचार से हमने ऐसा कहा। परमार भोज नं चालुक्यों पर हमला किया था. इसका कारण पालम है आपो" लिटिदेव ने पूछा।
"वह शत्रुता लो मुंज के समय से ही बढ़ती आयी है।"
"लोगों की आँखों में धूल झोंकने के लिए यही कहा जाता है। वास्तव में उसकी जड़ में कारण यह है कि चन्दलदेवी ने विक्रमादित्य से विवाह किया।"
"वहाँ असूया हो सकती है। लेकिन यहाँ तो ऐसा कुछ नहीं हैं न? चक्रवर्ती ने जिसे चाहा, ऐसी किसी कन्या ने सन्निधान के गले में माला पहना दी हो, ऐसा तो है नहीं।” बातचीत के उद्वेग से चप्पलदेवी ने संकोच तोड़कर ऐसा कुछ कह दिया और तुरन्त होठ काटने लगी। न चाहते हुए भी उसकी दृष्टि शान्तलदेवी की ओर चली गयी।
केबल बम्मालदेवी की ही नहीं, मचिदण्डनाथ और बिट्टिदेव की भी दृष्टि शान्तलदेवी की और चली गयी थी।
बम्मलदेयी ने जब वहाँ से ध्यान हटाकर सबकी ओर देखा तब उसे मालूम दुआ कि सबकी दृष्टि उस ओर लगी है। यह सब क्षण भर में हो गया।
मचिदण्डनाथ ने बात बदलने के विचार से कहा, 'अभी तो हम बुद्ध के बारे में चर्चा करने बैठे हैं। विवाह का विषय नहीं है।"
"दण्डनाथ जी को तो सदा ही युद्ध की बात पहले। परन्तु, पल्लवकुमारी के हाथ माला लिये खोज कर रहे हैं कि उसे किस गले में पहनाएँ। यह उनकी आयु का परिणाम है। अन्तरंग के भाव किसी समय इस तरह निकल ही पड़ते हैं। है न बम्मलदेवी जी :" कहते हुए शान्तलदेवी ने उसकी ओर देखा।
उसने लज्जा के कारण आँखें नीचे झुका लीं। मौन रहने पर भी उसके मन का भाव चेहरे ने व्यक्त कर दिया। बिट्टिदेव ने भी उसकी ओर देखा।
पल्लवकुमारी का चेहरा रक्तिमायुक्त मन्दहास से विराज रहा था। शान्तलदेवी की ओर वह देखना चाहती थी। इस प्रयत्न में उनकी दृष्टि शान्तला के बदले विष्टिदेव की ओर चली गयी। दोनों की आँखें जा मिली।
"अगर यह कार्य सम्पन्न हो जाय तो मैं अपने को धन्य मानूंगा, महारानी जी। इसमें मेरा अपना कुछ नहीं है। बम्मलदेवी और राजलदेवी मेरी औरस पुत्रियाँ नहीं, अपने बच्चों की तरह मैंने उन्हें पाला-पोसा है। इनका विवाह हो जाय तो मैं धन्य हो जाऊँगा।" मंचिदण्डनाथ ने कहा।
__ "हमारी पट्टमहादेवी का आश्रय लीजिए। आपका काम आसानी से बन जाएगा।' बिट्टिदेव बोले ।
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“जब हम सबने एक साथ पोसल राज्य की सेवा में अपनी इच्छा से अपने को समर्पित करने के उद्देश्य से निर्णय किया, तभी से हम सन्निधान के आज्ञानुवर्ती हो गये न! सन्निधान कहकर सम्बोधित करने में पट्टमहादेवी भी इसमें सम्मिलित हैं-यही हमारी भावना है। अभी इससे ज़्यादा प्रमुख हमारा जो उद्दिष्ट विषय है, जिसके लिए हम आये हैं, सन्निधान के सम्मुख है।'' मंचिदण्डनाथ
धोलें।
"इस विषय में हम एक निर्णय पर पहुँचे हैं। हमारा विश्वास है कि इस पर हमारी पट्टमहादेवी भी सहमत हैं। इस बात को हम मन्त्रिमण्डल में रखकर, कल अन्तिम निर्णय से सूचित करेंगे। यदि उनमें से कोई आपसे विचार-विमर्श करना चाहेंगे तो आपको कहला भेजेंगे।" बिहिदेव ने कहा।
मंचिदण्डनाथ प्रणाम कर चले गये।
बाद में बम्पलदेवी भी उटकर महाराज और पट्टमहादेवी को प्रणाम कर अन्तःपुरस्थ राजलदेवी के पास जाने को उधत हुई। उसे लगा कि देखें महाराज की दृष्टि कहाँ है, परन्तु साहस नहीं हुआ। पर हाँ, उसे एक तरह का हर्ष हुआ। वह पुनकित हो उठी थी। इस हर्ष-पुलक के साथ ही वह वहाँ से जल्दी-जल्दी चली गयी।
रह गये राजदम्यती मात्र । "सन्निधान का क्या निर्णय है।" शान्तलदेवी ने पूछा।
"निर्णय को रहने दें। अभी हमने अपने विवाह के समय चालुक्य पिरियरसी जी चन्दलदेवी की कही गयी बात का स्मरण किया तो पट्टमहादेवी की असन्तोष क्यों हुआ?"
__"राजाओं का एक और शत्र होता है उनका भुलक्कड़पन । विवाहोत्सब पर वहाँ जो आयी थीं, वह चालुक्य पिरियरसी नहीं, हग्गड़े मारसिंगय्या जी के यहाँ ठहरी श्रीदेवी थीं।"
"अरे हाँ, उस तरफ़ ध्यान ही नहीं गया! अब याद आ रहा है कि तब उन्होंने कहा था कि उनका आना चक्रवती को भी मालूम नहीं।"
"समझ लीजिए, अगर हमने मंचिदण्डनाथ को आश्रय नहीं दिया तो, बह बात हमें पेचीदगी में डाल सकती है। सन्निधान को यह सोचना होगा न?"
''क्या होगा, वे अपने देश को लौट जाएँगे।"
"उन लोगों ने जो कदम उठाया है, वह चालुक्य चक्रवती को मालूम नहीं अभी तक। अगर हमने आनय नहीं दिया तो वे अपनी पहली जैसी स्थिति में आ सकते हैं। तब कभी प्रसंगवशात् पिरियरसी जी के हमारे विवाह में आने की बात मोचदण्डनाथ के मुँह से निकल गयी तो पिरियरसी जी की क्या दशा होगी इस
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पर सन्निधान ने सोचा है:"
''न. न, हमें यह बात नहीं कहनी थी। अब आगे भूलकर भी इस बात को मुँह से नहीं निकालूँगा। परन्तु शव तो यह बात उनके कान में पड़ ही गयी, इसलिए उन्हें आश्रय देना जरूरी हो गया है।"
"सो, सन्निधान उन्हें आश्रय देना नहीं चाहते थे?" "नहीं चाहते, यह बात नहीं; हमने अभी निर्णय नहीं किया है।" “सो सन्निधान को उनसे यों कहने की क्या वजह?"
"हमने यह अभी तो नहीं बताया कि क्या निर्णय किया। अब बताएँ कि महादेवी की क्या राय है?"
"किसी तरह की जबरदस्ती में पड़कर नहीं, बल्कि मन पें इस बात का एक बार निश्चय हो जाए कि इस काम के करने में राष्ट्रहित सधेगा और ऐसा करने पर किसी तरह की अड़चन चा रोक-रुकावट आएगी तो उसका सामना करेंगे, उनको आश्रय दे सकते हैं। ठीक है न?"
"उनके बारे में पट्टमहादेवी का स्पष्ट पत क्या है:" "इतना तो लगता है कि ये बात के पक्के हैं।" "कौन?" "दण्डनाथ और बम्मलदेवो। उनके बारे में सम्भिधान की क्या राय है?" "लगा कि दण्डनाथ जी खुले दिल के हैं।" "बम्मलदेवी?" "स्त्रियों के मन में स्त्री ही जाँक सकती है।" "तो स्त्री को पसन्द करते वक्त भी पुरुष को स्त्री की मदद जरूरी है?'' "किस प्रश्न का कौन-सा उत्तर!"
"ऐसा प्रश्न करने पर भी मन की बात खुली नहीं। स्त्री को स्त्री के देखने की दृष्टि अलग होती है। पुरुष की स्त्री को देखने की एक अलग दृष्टि होती है। ऐसे ही, स्त्री की पुरुष को देखने की भी एक अलग दृष्टि होती है।"
___ "अभी हम स्त्री की परख स्त्री को हो सकती है-यही दृष्टि व्यवहार्य मानते हैं। पट्टमहादेवी से परामर्श के बाद ही उनके यारे में हम अपनी राय बना सकेंगे कि ये किस तरह की हैं।"
'बम्मलदंवी वास्तव में दुःखी हैं। वे पं किसी तरह का धोखा नहीं देना चाहतीं। उपकार करने की ही अभिलाषा रखती हैं। आमूलाग्र बात को समझे बिना
और पूर्णरूप से विश्वस्त हुए बिना किसी भी काम में यों ही प्रवृत्त हो जाना उनका स्वभाव नहीं हैं। बहुत आशावादी हैं । इसलिए वे माँचदण्डनाथ पर भरोसा रखकर उनके प्रति पितातुल्य भक्ति रखती हैं। अश्वपरीक्षा में निष्णात होने के साथ-साथ
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के सहज आत्मीयता बढ़ानेवाला आकर्षक व्यक्तित्व रखती हैं।"
"पतलब यह कि पट्टमहादेवी की आत्मीया बन गयी हैं। यही न?" "उन्हें अब प्रथमतः पोसल राष्ट्र की आत्मीयता चाहिए।' "तो उनकी सभी मनोकामनाओं की सिद्धि के लिए आश्रय पटला करा
"उनके पोयसलों की उदारता के विषय में स्पष्ट विचार हैं। निष्ठा के साथ रहने पर सभी वांछार पूरी हो सकती हैं-वे इस बात को समझती हैं, इसलिए उन्हें आश्रय आवश्यक है।"
"वे आश्रय की पात्र हैं?" "यह मेरी अकेली की राय पर निर्भर नहीं है न?" "कल मन्त्रिपरिषद् पट्टमहादेवी के वचन को स्वीकृति दे दे तो?"
"आश्रय देने के विचार से ही उन्हें राजमहल में छोड़ जाने की सलाह मैंने सबारनायक अनन्तपाल को दी थी।'
"टीक है, हम भी यही चाहते थे।" 'यहाँ, इससे भी कुछ अधिक हैं।'' "मालमा
"इस सम्बन्ध में अभी नहीं, जब समय आएगा तब बताऊँगी। अब आज्ञा दें। विट्टिगा की पढ़ाई समाप्त कर आने का समय हो गया है। बच्चों के उपाहार की व्यवस्था करनी है।"
"क्यों? नौकर नहीं हैं।" ___ "हैं क्यों नहीं? पर वे मां तो नहीं बन सकते।" कहकर उत्तर की प्रतीक्षा किये विना शान्तलदेवी चल पड़ीं।
बिट्टिदेव के मन में उस दिन सम्भावित कथित-अकथित सभी विचार उठ खड़े हुए। कई विचार जैसे मन में उठे वैसे ही विलीन हो गये। क्या पट्टमहादेवी का कथन सच है? उस दृष्टि से हम आकर्षित हुए? कैसी विडम्बना है! विचार-विमर्श करते समय कभी दृष्टि उधर गयी तो उसका अन्यथा अर्थ लगाना ठीक है? पता नहीं क्यों, आज का यह चिन्तन ही कुछ-कुछ ठीक नहीं रहा। एक सहजता नहीं थी उसमें। सब-कुछ अस्त-व्यस्त उड़ता-उड़ता-सा। देवी के उपस्थित रहते ऐसा क्यों हुआ? न, अकेले सोचते थे, तो दिमास खराब हो जाएगा।
उन्होंने घण्टी बजायी। रेविमव्या पर्दा हटाकर अन्दर आया। "रेविमय्या! प्रधानजी, मन्त्रीगण और दण्डनाथ-इनसे कहो, वे मन्त्रणागृह में आएँ। हम भी बच्चों के साथ उपाहार लेकर वहीं पहुंच रहे हैं। बिट्टिगा आ गया?" __ "हाँ।" कहकर रेविषय्या आदेश का पालन करने चला गया। बच्चों के साथ
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उपाहार लेने महाराज बिहिदेव अन्तःपुर की ओर चल दिये।
आश्रय की अपेक्षा से जो आये थे वे चालुक्य चक्रवर्ती के सामन्त थे, इसलिए मन्त्रणा सभा में सभी पहलुओं पर आमूल-चूल विचार-विमर्श किया गया। पट्टमहादेवी भी इस सभा में उपस्थित रहीं । अन्त में मंचिदण्डनाथ, बम्मलदेवी, राजलदेबी- इन सबको भी बुला लिया गया। जिन-जिन के मन में जिन-जिन बात को लेकर शंकाएँ उत्पन्न हुई थीं उन सभी के विषय में उनसे उचित समाधान प्राप्त होने के बाद, उन्हें आत्मीयजन की तरह मानने का निर्णय लिया गया। गंगराज के बेटा दण्डनाथ बोप्पदेव स्वयं ही मंचिदण्डनाथ की अश्वसेना को राज्य के अन्दर स्वागत कर लाने गया। इससे पहले ही सवारनायक अनन्तपाल से उसका परिचय हो चुका था ।
शीघ्र ही वह सेना बेलापुरी पहुँच गयी। दो दिन विश्राम करने के बाद, बेर-सीमा की पोव्सल सेना में इस सेना को सम्मिलित करने का निर्णय भी ले लिया गया। पूर्व - निश्चय के अनुसार, महाराज के साथ युद्ध में पट्टमहादेवी को भी जाना था। पुनीसमय्या के साथ यह अश्वसेना और मंचिदण्डनाथ भी सम्मिलित हो गये श्री इसलिए यह निर्णय भी लिए गए कि में सन्निधान का जाना अब आवश्यक नहीं है ।
युद्ध में प्रथम बार सम्मिलित होने का जो मौका मिल रहा था वह छूट गया इससे शान्तलदेवी कुछ निराश सी हो गयीं थीं ।
बम्मलदेवी की भी यहीं दशा थी । वह युद्ध में अपना कौशल एवं शक्ति सामर्थ्य दिखाकर मन में अंकुरित आशा को उद्वेग देना चाहती थी। पर ऐसा नहीं हो सका। जब महाराज ही युद्ध में नहीं जाएँगे तो पट्टमहादेवी भी नहीं जाएँगी। ऐसी दशा में बम्मलदेवी को जाने का भला अवसर ही कहाँ ?
इस सबसे ज़्यादा निराश हुई थी चट्टला । उसका पति रावत पायण पुनीसमव्या के साथ पहले ही चला गया था। मायण की उदारता के कारण उसका बिगड़ा हुआ पारिवारिक जीवन सुष्ठु और सुखकर बन गया था। परिवार को नये सिरे से बसाने पर उनके पीठ पीछे लोग व्यंग्य करते, हंसी उड़ाते और उनकी ओर दुर्भावना से देखते। परन्तु वे दोनों महामातृश्री से लेकर सम्पूर्ण राजपरिवार के विश्वासपात्र वन गये थे- - इस वजह से धीरे-धीरे पीठ पीछे बात करनेवालों के मुँह बन्द हो चले । चट्टला के मन में यह विश्वास घर कर चुका था कि यदि वह युद्ध में सक्रिय रहेगी तो राष्ट्र का हित ही होगा ।
बेलापुरी आने पर शुरू-शुरू में वम्मनदेवी चट्टलदेवी को केवल नौकरानी ही
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समझती थी पर बाद में वह उसके प्रति स्वयं महाराज और पट्टमहादेवी के उदार व्यवहार को देखकर, तथा उसमें सन्धित अन्य घटनाओं की जानकारी प्राप्त कर उसके जीवन के सभी पहलुओं से परिचित हो गयी थी। सामाजिक जीवन के लिए कुछ नीति-नियम का बन्धन आवश्यक है। सांसारिक जीवन सुखमय बनाना हो तो सत्य-निष्ठा के साथ उनका पालन करना होता है। जब कभी इन नीति-नियमों की सीमा के लाँय जाने की स्थिति आने पर भी समाज की उदारता के कारण दुःखी जीवन भी सुखमय बन जाता है। इस दिशा में पोप्सल महाराजा और महारानी तथा अन्य लोगों ने भी योग्य मार्गदर्शन किया है। कहे विना ही बरतकर उन्होंने आदर्श प्रस्तुत किया है। ऐसी हालत में मेरी अभिलाषा भी उनकी इस उदारता से सफल क्यों न हो सकेगी:-यही वह सोचती थी। जब यह बात उठी थी कि “हाश्य किसी के गले में माला पहनाने के लिए तैयार हैं मगर दिल उस माना को पहनाने के योग्य कण्ठ की खोज कर रहा है तब उसकी और बिट्टिदेव की दृष्टि ने, जो यद्यपि क्षण-भर की ही रही लेकिन उसने ही में उसमें एक आत्मीय भाव पैदा कर दिया था। उसने क्या सोचा होगा? मुझमें इतनी आत्मीगला पैदा कर सकनेवाली वह दृष्टि मेरी अभिलाषा के अनुकूल दृष्टि ही है न ? सच ही. मैं बिट्टिदेव के शौर्य, सौन्दर्य, सामर्थ्य, औदार्य, दक्षता आदि गुणों के बारे में सन चुकी हूँ। तभी तो मेरे मन में एक सहज रुचि के भाव उत्पन्न हुए थे। अभी जैसी भावना उत्पन्न हुई है वह उस समय तो नहीं थी। उनकं उस प्रथम दर्शन के समय से पाला पहनाने के लिए चोग्य कण्ट की खोज करने की बात के उठने तक भी मुझमें एक तीव्र गौरव की भावना मात्र थी। मेरा मन कृतज्ञता से भर उठा था। मैंबर में फंसनेवाला जैसे कोई सुरक्षा का स्थान पा गया हो, ऐसी तृप्ति मुझो मिली थी। आश्रयदाता के प्रति निष्ठा एवं श्रद्धा रखकर अपनी योग्यता का परिचय करा देने की प्रबल इचछा थी। परन्तु अब वे भावनाएँ दूसरी ही प्रवृत्ति की ओर बढ़ रही हैं। इस प्रवृत्ति का पर्यवसान क्या होगा? अलभ्य वस्तु को पाने की केवल इच्छा ही रह जाय तो? सो कैसे होगा? इस दृष्टि का क्या अर्थ हैं? व देखनेवाले ही बता सकेंगे। उससे अर्थ निकालना होगा। विवरण देखकर अर्थ भी बताया जा सकेगा। वह मेरे लिए अनुक्ल भी हो सकता है। इस विषय में पट्टमहादेवी के क्या विचार होंगे? तप करके उन्होंने उन्हें पाया है। उनका अटल विश्वास है कि उनपर उन्हीं का स्वामित्व हैं। उनके मन में यह भागना गहरी बैठ गयी है कि उनके स्वामी की दृष्टि अन्यत्र नहीं भटकेगी। ऐसी स्थिति में मेरी आशा जैसे मन में अंकुरित हुई, बढ़ी, वैसे ही वहीं अन्त होना ही अच्छा हैं : 8वर में फंसे हपको उबारकर, आश्रय देनेवालों को हमारे किसी भी व्यवहार से काट नहीं होना चाहिए। इसलिए अब मुझे संचम से रहना होगा।-बम्मलदेवी के मन में इस तरह से न जाने कितने
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विचार आ-जा रहे थे। संयम से रहने का प्रयत्न करने पर भी बिहिदेव के सामने पहले की-सी सरलता बरती नहीं जा सकती थी। इसकी जानकारी भी उसे थी । इसलिए उसे मन ही मन यह लग रहा था कि बिट्टिदेव के दर्शन पास से नहीं, दूर से ही करना उत्तम है।
राजलदेवी ने अपने मन में किसी आशा की कल्पना नहीं की। अनेक वर्षो से परिचित होने के कारण बम्मलदेवी को यह अच्छी तरह समझती थी। उसे लग रहा था कि उसके दिल में कुछ हलचल है। उसका आभास मिलते ही समय नष्ट किये बिना सीधे बम्मलदेवी से पूछ बैठी। उसने राजलदेवी से कभी किसी बात को छिपाये नहीं रखा था, इसलिए उसने दिल खोलकर कहा, "मेरी समझ में नहीं आता, बहिन। मुझे लग रहा है जैसे मेरा मन महाराज में लीन होता जा रहा है।" • महाराज को पात से जो भी देखता है उसे ऐसा ही लगता है ।" राजलदेवी
बोली ।
"ती क्या तुम्हें भी कुछ ऐसा ही लगा?" बम्मलदेवी ने
पूछा I
"तुम्हारी या मेरी ही तरह अनेकों को ऐसा ही लगता है, बहिन । उनका रूप ही ऐसा है ।" मानो उसके अन्तरंग की बात ही बाहर व्यक्त हो गयी ।
“परन्तु ऐसी अभिलाषा तो आकाश-कुसुम ही है नर महाराज और पट्टमहादेवी का दाम्पत्य एक आदर्श दाम्पत्य है। उनके उस आदर्श जीवन में किसी का प्रवेश अधक बन सकता है।"
“वे केवल पारिवारिक गृहस्थी चलानेवाले हों तो तुम्हारे कहे अनुसार हो सकता है। मन्त्री और दण्डनायक जैसों के भी अनेक पलियाँ जब हो सकती हैं ती महाराज की अनेक पालियाँ हों इसमें ग़लती ही क्या है? उनके उस पद के लिए तो वह प्रतिष्ठा ही की बात होगी ?" राजलदेवी ने प्रश्न किया ।
"वे दूसरे राजाओं के जैसे नहीं। उनके जीवन की रीति-नीति रेविमच्या से सुन चुकने के बाद, और चहलदेवी से दिवंगत महाराज की रानियों द्वारा एक माँ की पुत्रियाँ होकर भी, राजमहल को भयंकर झगड़ों और विद्वेष की भावनाओं से नरक बना देने की बात तथा शान्तलदेवी ने कैसे-कैसे प्रयत्न किये और समरसता लाने के लिए कितना श्रम किया आदि बातों को सुनने के बाद भी - कौन होगी कि उनके ऐसे आदर्श जीवन में बाधा डालना उचित समझेगी ?"
"दीदी आपकी बातों को सुनकर मुझे ऐसा लगता है कि आप अपने मन के विरुद्ध बातें कहकर स्वयं को बंचित कर रही हैं। उन दोनों का परस्पर प्रेम ऐसी कमजोर नींव पर स्थित है? ज्ञाननिधि पट्टमहादेवी इस बात को नहीं जानतीं कि 'राजानो बहुवल्लभा :: आप ऐसी निराश होकर अपने व्यवहार में सशंक मत हो। आशावादी बनकर सरल सहज रीति से व्यवहार करती रहें। अवसर मिलने
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पर अन्तरंग की आकांक्षा प्रकट करना ठीक होगा।' यों कहकर राजलदेवी ने उसे प्रोत्साहन दिया। सच तो यह है कि राजलदेवी ने भी स्वयं ऐसा ही कुछ सोच रखा धा। ___ बप्पलदेवी को ऐसा प्रोत्साहन आवश्यक भी था। राजलदेवी की इन बातों से धीरे-धीरे उसके मन की वह आशंका दूर होती गयी। अब तक के जीवन में उसे जिन उतार-चढ़ावों का अनुभव हुआ था, उनके कारण वह सब प्रकार से जीवन गुजारने की आदी बन गयी थी। अब उसे उसी सहजता से रहना कठिन नहीं था।
मंचिदण्डनाथ एवं अनन्तपाल युद्ध में गये थे, इसलिए बम्मलदेवी और राजलदेवी को राजमहल में ही रहना पड़ा। राजमहल के अहाते में पृथक् रहने की प्रार्थना करने पर तथा महाराज की सहमति मिलने पर भी खुद शान्तलदेवी ने उनकी इस सलाह को पाना नहीं।
महाराज ओर बम्मलदेवी की भेंट भोजन के वक़्त होती ही थी। बिट्टिया, कुमार वालाल और हरिवला साथ रहा करते थे, इसलिए उस समय आमतौर पर विशेष यातें नहीं हो पाती थीं। कभी-कभी कोई खबर युद्धक्षेत्र से मिल जाती और उसके बारे में बताना आवश्यक प्रतीत होता तो महाराज उसे बहुत संक्षप । बता देते थे। बम्मलदेवी के मन में जिन भावों का प्रवाह चल रहा था वैसा ही काल उस दिन के बाद रह-रहकर बिडेय के भी मन में उठ रहा था। यह सब अनुचित समझकर वे इससे दूर ही रहने की कोशिश किया करते।
पोसलों को प्रर्गात सबकी आँखों का काँटा बन गयी थी। यह मालूम हो जाने से बिट्टिदेव ने वेलापुरी और दोरसमुद्र को मजबूत बनाने के लिए आवश्यक योजनाएँ रुपित की थी, इसलिए उन्हें बार-बार दोरसमुद्र हो आना पड़ता था। उधर युद्ध भी चल रहा धा। फिर भी वेलापरी और दोरसमुद्र में सैनिक शिक्षण शिविर बराबर चलते रहे। विद्भिदेव बड़े ध्यान से इनकी निगरानी कर रहे थे। एक साधारण योद्धा से भी वे सीधे परिचित होने का कार्य कर रहे थे। इसके लिए कभी-कभी शान्तलदेवी भी उनके साथ जाया करती थीं । वेलापुरी की स्त्री-शिक्षणशाला की ज़िम्मेदारी तो उन पर हो घी।
राजदम्पती के इस व्यस्त जीवन को देखकर बम्मलदेवी और राजलदेवी अप्रभावित कैसे रह सकती? वास्तव में उन्हें किसी बात की कमी नहीं थी। नये-नये आने के समय के कुछ दिन और दृष्टि मिलने के बाद के कुछ दिन संकोच भाव में यों ही गुज़र जाने के बाद, जब सहज भावना से जीवन चलने लगा तो बम्मलदेवी को व्यर्थ ही बैठे-बैठे समय विताना अच्छा नहीं लग रहा था। अब वह भी राज्य के कार्यों में भाग लोना चाहती थी। परन्तु राजलदेवी से विचार-विमशं करने के बाद ही इस दिशा में यह आगे बढ़ पाती। गजलदेवी को भी बेकार बैटे
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रहना पसन्द नहीं था, इसलिए उसने भी बम्मलदेवी की इस सलाह पर अपनी सहमति प्रकट की।
एक दिन जब शान्तलदेवी अकेली थी, उपाहार के समय जब दोनों उनके साथ रहीं तब यम्मलदेवी ने ही शत छेड़ी, "सन्निधान एवं पट्टमहादेव जी के इस व्यस्त जीवन को देखकर हमें बहुत तृप्ति मिलती है। आश्रय की खाज में आयीं, आश्रय मिला; फिर भी इस आश्रय से मनोरथ सिद्ध हो गया-ऐसा नहीं लगता। आपके उदार आश्रय में हमें किसी बात की कमी नहीं। लेकिन हम राज्य के लिए उपयुक्त नहीं बन सकी, इस बात का हमें रंज है; मन में एक तरह की कशमकश चल रही है।
"आती पूर्ण अश: नाक साथ मांजाय राष्ट्र के लिए ही युद्ध करने गये हैं। इससे बढ़कर कुछ और इस राज्य ने अपेक्षा नहीं रखी।'' शान्तलदेवी ने कहा। ___"वह तो उनकी बात हुई। हम स्त्रियाँ यों बैटे-बैटे खाती हुई निठल्ली बनी रहंगी तो मस्तिष्क कुछ काम के बिना सड़ जाएगा। हमें भी कुछ काम दें।" बम्मलदेवो ने कहा।
"लड़कियों को पढ़ाएँगी?"
"मैं केवल अश्वचालन ही सिखा सकती हूँ। इसके सिवाय में और कुछ नहीं जानती।" बम्मलदेवी बोली।
"परन्तु अश्वचालन सीखनेवाली लड़कियों तो हैं नहीं?" "तो लड़कों को ही सिखाऊँगी।" "स्त्रियों से सीखने के लिए पुरुष माने तब न?" "तो मतलब हुआ कि कोई काम नहीं।' "यदि आपको ठीक लगे तो हमारी पाठशाला में आकर पढ़ सकती हैं।" "यों ही बैठे-बैठे समय गँवाने में यही अच्छा है।" "तो आप लोगों को सीखने की ख़ास इच्छा नहीं?" "छोटों के साथ बैठकर सीखने में..."
"संकोच होता है, है न? परन्तु विद्या सीखनेवालों को किसी तरह का संकोच नहीं होना चाहिए। मुझे कोई आपत्ति नहीं। निर्णय आप स्वयं कर लें।"
"जैसी आपकी आज्ञा। परन्तु..."
"क्या " __ "आश्रय, निवास, खाना-पीना सभी पाते ही रहे हैं। अब तो पट्टमहादेवी से यह भी पाएँगे। हमें भी कुछ देने का मौका मिल जाता तो अच्छा होता।"
'पोरसल खुले दिल की देन को कभी अस्वीकार नहीं करते। वैसे ही दी जा
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सकनेवाली सहायता के बदले में कुछ चाहेंगे भी नहीं। यह लेन-देन का व्यापार नहीं। पतियों के अनुसार ज ज करना होगा और उचित होगा उसे ही हम करेंगे। ___"पट्टमहादेवी जी यदि उदारता दिखाएँ तो मेरी अभिलाषा को भी एक राह मिल जाएगी-ऐसा मुझे लगता है।''
"कहिए!"
"पट्टमहादंबी की देखरेख में पलनेवाला बिहिगा, कुमार बल्लालदेव-इन दोनों को अश्वचालन सिखाने की स्वीकृति मिल जाय तो बड़ा उपकार होगा।"
'सन्निधान से पूछकर बताऊँगी।" "वहाँ तक स्वीकृति के लिए जाना पड़ेगा?''
"हां, बिदिगा को उनकी माँ महासाध्वी दण्डनायिका चन्दलदेवी ने हमारी गोद में डाल दिया था। वह जन्मते ही अपनी मां और उसी वक्त युद्धक्षेत्र में अपने पिता-दोनों को एक साथ खो बैठा था। उससे सम्बन्धित किसी भी बात को सन्निधान की जानकारी के बिना सम्पादित नहीं किया जा सकता।"
''पट्टमहादेवी की जैसी इच्छा ।''
फलस्वरूप बम्मलदेवी और राजलदेवो दोनों शान्तलदेवी को बालिकाओं को पाठशाला में जाने लगीं। विट्टिगा तथा कमार बल्लाल को अश्वचालन विद्या सिखाने की अनुमति भी बम्मलदंवी को मिल गयी। ___ युद्धक्षेत्र से अब तक कुछ खबरें मिल जाया करती थीं। युद्ध तोरदार न था, केवल युद्ध के नाम से परेशान करने की एक तरह की युद्धनीति थी। सौंप भी न मरे और लाठी भी न टूटे वाली बात हो रही थी।
इधर बेलापुरी ओर दोरसमुद्र को सुन्दर बनाने के कार्य भी चल रहे थे।
विष्टिगा का विद्याभ्यास विलय भट्टारक, अजितसेन, मलधारी गुरुपरम्परा के जगद्गुरु श्रीपाल वैद्य द्वारा चलता रहा। उन्होंने उसे तर्कशास्त्र, गद्य-पद्य आदि के साथ स्याद्वाद में भी शिक्षण दिया । सैनिक शिक्षण के लिए माचण दण्डनाथ तो थे ही, फिर भी स्वयं महाराज बिट्टिदेव ही उसकी सहायता करत, उसे मार्गदर्शन भी देते रहे। बैंजरस वृद्ध होने पर भी शिक्षण देने में समर्थ थे, इसलिए तीरन्दाजी में विडिगा न बहुत जल्दी निपुणता प्राप्त कर ली। उसने अपनी इस दक्षता से अपने गुरु को भी चकित कर दिया था। ऐसे ही अवसर पर अश्व-परीक्षण, शाश्वचालन आदि सिखाने के लिए बम्मलदेवी मिल गयी थीं। सम्पूर्ण राजपरिवार का प्रिय पात्र बनकर राजकुमार ही की तरह पोषित बिट्टिगा को शिक्षण देने का अवकाश पिलने से बम्मलदेवी को बहुत खुशी हुई थी। इस अपार कृपा के लिए वह ईश्वर को बार-बार धन्यवाद देती रही।
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इधर अपनी आय के अनुरूप कुमार बल्लाल भी साधना करता रहा।
बम्मलदेवी का रूप आकर्पक तो था ही, लेकिन बहुत दुःखी जीवन से गुजरने के कारण कुछ-कुछ मुरझा-सा गया था। अब पोयसल राजमहल के अनुकूल आदर से उसका मन तृप्त हो गया था, सन्तोष से भर उठा था। मुरझाया हुआ मुख एक बार फिर कान्ति से चमकने लगा था। अश्वचालन की शिक्षिका बनने से उसका शारीरिक व्यायाम भी हो जाता था। रक्त-शुद्धि के कारण उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग पुष्ट होकर चपक उटे थे। उसकी स्थिर दृष्टि सहज गाम्भीर्य से आकर्षक लगने लगी थी। देखते-ही-देखते यह बदलाव आ गया था। विट्टिदेव ने भी बम्मलदंवी का यह उमरा सौन्दर्य देखा ही होगा। अश्वशिक्षण के काल में दिन-पर-दिन विहिदेव से बम्मलदेवी का सम्पर्क भी बढ़ता जा रहा था। इस कारण बम्मलदेवी में भले ही किसी तरह के मनोभाव उत्पन्न हुए हों, आमने-सामने होने पर बिट्टिदेव का व्यवहार बिलकुल सहज ही रहा आया। उनमें किसी भी तरह का कोई मनोविकार नहीं दिख रहा था। बम्मलदेवी भी बहुत संयम से बरतती रही। एक साधारण प्रजा जिस तरह भक्ति-गौरव के साथ अपने प्रभु को देखती है, उसी "निल-गौरग की भावना :: तो परित लिया।
पट्टमहादेवी की शिष्या बनने से बम्मलदेवी और राजलदेवी बहुत लाभान्वित हुई। वास्तव में एक साधारण हेगड़े की पुत्री होकर भी वह राजपरिवार के आकर्षण का केन्द्र बनी हैं तो उसमें कुछ विशिष्टता तो होनी ही चाहिए-इतना ही वे अब तक समझती रहीं। शान्तलदेवी की वास्तविक शक्ति सामथ्र्य का उन्हें तब तक परिचय नहीं था। उनके उस उन्नत व्यक्तित्व की कल्पना भी वे नहीं कर सकी थीं। जब उन्हें संगीत, साहित्य, नृत्य शास्त्र. आयुर्वेद, इतिहास, पुराण, व्याकरण, अर्धशास्त्र आदि में उनके अपरिमित ज्ञान के सम्बन्ध में परिचय मिला तो दोनों भौचक्की-सी रह गयीं।
उनके साथ अपनी तुलना करके देखती तो उन्हें लगता था : "हम कहाँ और वह कहाँ! जन्मतः राजपरिवार की होने पर भी हममें ऐसी योग्यता कहाँ?" । ___ इसी बीच कुमार बल्लाल का जन्मदिन आ गया। इस अवसर पर महामातृश्री एचलदेवी ने कहा, "राजपरिवार की कुलदेवता वासन्तिका माता की पूजा करने के लिए सोसेकर जाना होगा । उस देवी की सन्निधि में ही मैंने पहले-पहल शान्तला को देखा था, सभी मन में अभिलाषा हुई थी कि इसे अपनी बहू बना लूँ। विवाह के बाद, चार कुलदीपक वंशांकुरों के होने पर भी, हमने उस देवी के पास जाकर आज तक अपनी भक्ति प्रदर्शित नहीं कर पायी। इसलिए वहीं उस देवी की ही सन्निधि में यह जन्मदिन मनाया जाए।"
पोव्सल रणधी को जयपाला पहनने की शक्ति देवी प्रदान करें-यह प्रार्थना
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श्री देवी के चरणारविन्दों में निवेदन करने का निश्चय हुआ। राजपरिवार, माचिकले, भासिंगय्या, बम्मलदेवी, राजलदेवी - सभी जन वहाँ चलेंगे ऐसा विचार हुआ। व्यवस्था के कार्य पर रेविमय्या को नियोजित किया गया।
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पट्टाभिषिक्त होने के बाद, मात्र एक बार महाराज बल्लाल सोसेकरु गये थे फिर दस-बारह साल तक राजघराने से कोई भी वहाँ नहीं गया था। इसलिए इस अवसर पर वहाँ का राजसौध नये सिरे से परिष्कृत किया गया। सारी नगरी आनन्दोत्साह से दूर रही थी।
रेविमय्या की निगरानी में व्यवस्था होने के कारण, सारा काम बहुत ही अच्छे ढंग से किया गया था। पुरानी अनेक स्मृतियाँ भी तब ताजी हो आयीं। एक दिन महामातृश्री ने अपने विश्रान्ति कक्ष में बम्मलदेवी और राजनदेवी को बिठाकर उन पुरानी बातों को विस्तार से बताया। अपनी प्यारी और वर्तमान पट्टमहादेवी बनी बहू उस समय अधिकार लालसाग्रस्त लोगों की किस तरह असूया का कारण बनी, कैसे-कैसे उनकी भर्त्सना का पात्र बनी आदि सभी बातें उन्होंने विस्तार से बतायीं। जब वे इन सब पुरानी बातों को कह रही थीं उस समय उनके कथन में किसी प्रकार की कड़वाहट की गन्ध तक नहीं थी। अपने पारिवारिक जीवन में असन्तोष फैलानेवाली चामब्बे के विषय में भी कोई कड़वी बात उनके मुँह से नहीं निकली। "अनजान में किये पाप के लिए पछताती हुई वह बेचारी दण्डनायिका कुछ साधे बिना ही सुरलोक सिधार गयीं। बच्चों के हित की आकांक्षा से उन्होंने जो कुछ किया वह इन बच्चों के ही जीवन के सर्वनाश का कारण जा बना। पूर्वजन्म के पापशेष के कारण हमें भी अपार दुःख झेलना पड़ा है। पाप से शायद पुण्य का अंश अधिक रहा, इसलिए अब अर्हन् ने मन को शान्ति प्रदान की हैं। आज तक हमारी पट्टमहादेवी सबके लिए अम्माजी ही रही। उसने अपने लिए कभी कुछ नहीं चाहा। उसके पाँ-बाप ने भी कुछ नहीं चाहा। अच्छे मानव के अनुरूप एक आदर्श जीवन का उन्होंने निर्वाह किया है। आज भी ये उसी आदर्श पर चल रहे हैं। अपनी बेटी को भी उन्होंने अपने उसी सात्त्विक मार्ग में पाला, प्रवृद्ध किया । अम्माजी ने जिस योग्यता का अर्जन किया उसी के अनुरूप फल भी भगवान की कृपा से उसे मिला। उसके उदार व्यवहार के ही कारण मेरे बड़े बेटे का जीवन सार्थक बन सका था। वह हमें छोड़कर जल्दी ही चल बसा, इस एक बात को छोड़ अन्य सभी बातों में वह माँ-बाप के लिए एक योग्य और आदर्श पुत्र बनकर ही रहा। ऐसी सात्त्विक देवी की मदद के होते हुए भी, उधर एक माँ की गर्भ-संजाता बहिनें अधिकार के मद में मौतों की तरह झगड़ती हुई अपना सम्पूर्ण जीवन ही बरबाद कर बैठीं। निष्कल्मष उदार हृदय और सदैव परोपकार की अभिलाषा रखनेवाली हमारी इस पट्टमहादेवी शान्तला का इस संसार में जो भी बुरा 452 पट्टमहादेवी शान्तला भाग से
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सोचेगा वह कभी सुखी नहीं होगा। यह बात मैं अपने अनुभव से कह रही हूँ । काश! आज हमारे प्रभु और मेरे ससुर महाराज विनयादित्य जीवित होते तो हम सबकी प्रियपात्र अम्माजी को देखकर कितने प्रसन्न होते ! यह पुण्य उनके भाग्य में नहीं बदा था... पर अब इन सभी बातों को विस्तार के साथ बतलाने के लिए r ख़ुद शीघ्र ही उनके पास जानेवाली ही हूँ नः..." कहते-कहते उन्होंने होठ दबाकर मौन धारण कर लिया। ऐसे मौके पर ऐसी बात मुँह से निकालना उचित नहीं या । अमंगल के निवारण के निमित्त उन्होंने एक बार अपना सिर भी हिलाया ।
यह सब सुनकर किसी को कुछ नहीं सूझा कि क्या कहें।
एक क्षण बाद एचलदेवी ने फिर कहा, "उम्र के ढलने पर मन में जो विचार उठते हैं, उन्हें कहते-कहते कुछ बदल भी जाया करते हैं। मेरे लिए ही देखो, यों तो आजकल न ही अधिक बातें सुनती हूँ और न ही कहती हूँ। फिर भी आज पता नहीं, बेलगाम घोड़े की तरह यह जीभ क्यों सरपट चलने लगी है। हमें जिसे नहीं देखना चाहिए वह सब देखना जो पड़ा है। सच ही, वे भाग्यवान हैं जो इस सबको देखे बिना ही यहाँ से कूच कर गये। मानव जनमते ही मरण को साथ लेकर इस लोक में प्रवेश करता है। यह दूसरी बात हैं कि प्रमादवश हमें ऐसा आभास नहीं हो पाता हैं। फिर यह भी तो है कि उस मरण की अनिवार्यता को 'भी, जब उसकी याद करते हैं तो हम डर जाते हैं। उसके सम्बन्ध में बात करना 'भी ग़लत मानते हैं। कभी-कभी उसके बारे में कहते भी हैं तो समय-कुसमय की कल्पना कर लेते हैं। इसलिए जो बात कह बैठते हैं वह हमारी अधिकार सीमा से बाहर की बन जाती हैं। इसी वजह से मैंने होठ दवा लिया था। जब तक जाकर मैं खुद न बताऊँ, तब तक उस ऊर्ध्वलोक में वे कैसे जानेंगे- जब यह कल्पना आती है तभी न इस तरह की बातें निकलती हैं? ऊपर से ही देखकर वे सभी बातें हमसे भी ज़्यादा समझते होंगे। ऐसी स्थिति में कहने के लिए भला क्या बच रह जाता है ? वास्तव में ऊपर से देख-देखकर उन्होंने इस दम्पती को आशीर्वाद दिया होगा। इसी से तो यह सब सुख-सन्तोषपूर्वक चलता रहा है। कुलदेवी वासन्तिका माता का तो अपार अनुग्रह इस पोय्सल वंश पर है। उन्हीं की देन है यह राज्य | उन्हीं माता के अनुग्रह से राज सन्तति फल-फूल रही है। यह महा सन्तति ऐसे ही समृद्धि की ओर बढ़े और सदा लोकहित की साधना करती रहे यही प्रार्थना तो हम करना चाहते हैं। यही हमारा आज का कार्य है। इनका दाम्पत्य एक आदर्श दाम्पत्य है। इसके फलस्वरूप वंशोद्धारक पुत्ररत्नों को देकर देवी ने अपनी अपार दया दर्शायी है। साथ ही कन्यादान की पुण्य प्राप्ति के लिए एक पुत्रीरत्न देने को भी कृपा की है। और क्या चाहिए? इसलोक और परलोक
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दोनों को तृप्त करने योग्य इतना वरदान जब प्राप्त हो गया है तव और कौन-सी आकांक्षाएँ रह जाती हैं। इस राजपरिवार में जो शान्ति और तृप्ति आज विराजमान है वह सतत बनी रहे। कोई विघ्न-बाधा उत्पन्न न हो.-यही देवी से बारम्बार प्रार्थना है।" कहते हुए एचलदेवी ने हाथ जोड़कर वन्दना की।
राजलदेवी ने कहा, "जिस किसी ने समीप से पट्टमहादेवी को और महामातृश्री को देखा है-ऐसा कोई भी उनके अनहित की बात सोच ही नहीं सकता।"
''तुम्हें मालूम नहीं बेटी, यह संसार बहुत बुरा भी हैं। जिस हाथ ने भोजन परोसा उसी हाथ को काटकर, उसके कंगन को बेचकर अपना स्वार्थ पूरा करनेवाले भी हैं इस संसार में। दयाभाव से आश्रय देने पर अवसर पाते ही अपना अधिकार जमानेवाले भी हैं। आश्रयदाता को ही दूर भागने की परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दो
“पट्टमहादेवी ने राज्य-भर में जो प्रेम निरिणी बहायी, वही उनका प्रथल रक्षण हैं। यह बिलकुल सम्भव ही नहीं कि कोई उनका अहित सोच सके।" राजलदेवी ने कहा।
__“ऐसी बातें पस्तक में पढ़ते समय अच्छी लगती हैं। पट्टमहादेवी प्रेम निर्झरिणी बहानेवाली हैं-वह सच है। फिर भी बह अरिपड्वर्ग से आवृत मानवों के ही बीच में रह रही है न। एक वही है जो किसी भी तरह की सन्दिग्धावस्था में, संयम से रहकर, कड़ेपन से दूर अपने मन को शुद्ध और शान्त रख सकती है। पर अपने जीवन की अनुभूतियों को दृष्टि में रखकर हमें कहना पड़ता है कि ऐसे निरातकित हो रहना भी अच्छा नहीं। इसलिए मैंने देवी से विनती की।" एचलदेवी ने कहा। ___ 'महामातृश्री के अनुभवों के सामने हम तो क्या चीज हैं? फिर भी सन्टिग्धता की सूचना मिले बिना, आमतौर पर व्यक्ति भगवान की शरण में नहीं जाया करते। इसलिए यदि महामातृश्री के सामने ऐसी कोई, सन्देह-भरी स्थिति उत्पन्न हुई हो तो उसे जड़ से निवारण करने का प्रयत्न करना उचित है न?" बप्पलदेवी ने बात जाननी चाही। ____ "हमें कुछ समझ में आये या नहीं, सकारण अन्तःकरण में कुछ शंका हो या न हो, उसका निवारण करने के लिए भगवान की स्वीकृति और उसका सहकार आवश्यक होता है। उसके बिना मनुष्य को अपने प्रयत्न का कोई फल नहीं मिलता। इसलिए सब कुछ उस सर्वशक्तिमान परमात्मा पर ही छोड़ देना अच्छा है। उसकी प्रेरणा के बिना कोई कार्य नहीं होता। अब आप ही की बात लें। हमने तो आहान नहीं किया था कि आप लोग आएं और हममें इस भाँति सम्मिलित हो जाये, और हम आश्रय दे देंगे। आपको लगा, आप आये। उसकी प्रेरणा से ही
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न! इसलिए सफलता भी मिलो। अन्यथा आपका प्रयत्न व्यर्थ होता। लेकिन आपका प्रयत्न सफल हुआ। पीसलों की उदारता इसमें देखी गयी। यदि असफल हुए होते तो पोसलों के प्रति आप लोगों के मन में पता नहीं कौन-सी भावना होती-कह सकती हैं:
"नहीं।"
"इसलिए निर्णय करनेवाले स्थान पर जो बैठते हैं वे चाहे कितने ही औदार्य से बरतें या न्याय-निष्ठुर होकर यहा करें, उसमें कम-न-कुछ आशा-निराशा, तृप्ति-असमाधान, स्नेह-द्वेष आदि के लिए जगह रहती ही है। व्यक्त रूप में न सही, अव्यक्त रूप से ही, किसी-न-किसी रूप में विरोध रहता ही है। इसलिए भगवान से हमारी बही विनती हैं-हे भगवान! ऐसे विरोध से हमारी रक्षा करो।" एचलदेवी ने कहा। ____ "हमारी राय में तो, स्वच्छ और निष्कपट हृदयवाले इन सजवंशियों के विषय में इस तरह के विरोध के उत्पन्न होने की सम्भावना ही नहीं। जब कभी ऐसे विरोध के उत्पन्न होने की सम्भावना हो तो उसे वहीं तत्काल पता लगाकर बता सकनेवाले दक्ष गुप्तचरों की पोयसल राज्य में कमी नहीं। ऐसी दशा में विरोध कभी कहीं सिर भी उठा सकता है?" बम्मलदेवी ने सम्मान भाव प्रदर्शित करते हुए कहा। __"यों समझकर धीरज के साथ चुप बैठे कैसे रह सकेंगे, बेटी । महाटण्डनायक मरियाने ने अपने किसी एक रिश्तेदार को अपनी बेटी को व्याह देने से इनकार कर दिया था तो उसने मेरे बेटे को ही मार डालने का षड्यन्त्र रच डाला था।' एचलदेवी ने कहा।
''चट्टलदेवी की होशियारी और सजगता से तब वे और ये दोनों महाराजों के प्राण बच गये थे न?' बम्मलदेवी ने कहा।
"ओह, तब तो ये सारी बातें आपको भी मालूम है! ठीक है। यह मानब की सजगता और होशियारी प्रतीत होने पर भी उसके पीछे भगवान की इच्छा और कृपा भी रही है। इसलिए मैं प्रार्थना को अधिक महत्त्व देती हूँ। सबसे बढ़कर मानसिक शान्ति प्रार्थना से ही मिलती है। भगवान सुने न सुने, तब भी बह प्रार्थना हमारी मानसिक शान्ति के लिए सहायक बनती है।' एचलदेथी बोली। ___“महामातृश्री की बात हमारी समझ में नहीं आती। इष्टार्य-सिद्ध न होने पर निराशा के कारण क्रोध आएगा ही। ऐसी स्थिति में शान्ति मिले तो कैसे?''
"जिसे अनुभव नहीं है उसे निराशा के कारण गुस्सा आता है, बेटी। हमारी अस्थिरता का फल ही तो है यह निराशा। भगवान भी हम मनुष्यों की तरह ग़लती करता है-ऐसी धारणा बनने का कारण है हमारे भीतर दृढ़ विश्वास की कमी।
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भगवान कभी कोई ग़लती नहीं करता-इस तरह का दृढ़ विश्वास मन में स्थिर होने पर, निराशा के लिए कोई कारण नहीं रह जाता। इच्छा करना पानव का स्वभाव है। उन-उन के लक्ष्यों के अनुरूप उसकी इच्छा जाग्रत होती है। उसकी उस इच्छा की सफलता भगवान की कृपा होगी तो होगी, नहीं तो नहीं। सफलता म मिले तो यहीं समझना चाहिए कि इच्छा या तो असाधु थी या फिर समयोचित नहीं थी। ऐसा विचार आने पर निराशा के लिए गुंजाइश ही कहाँ बेटी?"
चलदेवी ने कहा। ___"तो क्या समर्थ आत्म-विश्लेषण ही विश्वास का दूसरा पहलू है " बम्मलदेवी ने कहा।
"नहीं 'बेटी, वह विश्वास रूपी वृक्ष पर लगनेवाला कोंपल है। वहाँ निराशा के लिए स्थान नहीं। वह नूतन जीयन के लिए नान्दी है-नव-जीवन की ओर पहला क़दम । दृढ़ विश्वास रखनेवाला जीव उसकी जड़ है। पत्तों के झड़ जाने पर वृक्ष यह समझकर कि वह टूट हो गया-दुःखी नहीं होता। नये कोंपलों से अपने अंग-अंग भरकर नयी शोभा से नवीन रूप धारण कर हरा-भरा बन जाता है। मानव का जीवः: सा ही होता है, और होना ही चाहे।"
"तो महामातृश्री का यही भाव है कि अपनी सन्तान में अपने को ही देख पाना है, है न? इसलिए उनकी भलाई के लिए विनती की, है न?"
'हाँ बेटी, स्त्री प्रकृति का प्रतीक है। अपनी सन्तान के श्रेय से बढ़कर उसके लिए दूसरी कोई चाह नहीं। तुम्हें भी ऐसी अनुभूति कर सकने का समय शीघ्र आए, राजलदेवी को भी आए। वासन्तिकादेवी आपकी अभिलाषाएँ पूरी करें।" ___ "अपनी अभिलाषाएँ प्रकट करने की स्वतन्त्रता हमें हैं ही कहाँ ?"
"हाँ तो, मंचिदण्डनाथ युद्ध में गये हैं। उनके लौटते ही मैं उनसे कहूँगी कि आपकी अभिलाषा पता लगाकर उसे पूर्ण करें।" एचलदेवी ने कहा।
“सुरक्षित लौट आएँ इसके लिए हमने भगवान से प्रार्थना की है।'' बम्पलदेवी ने कहा।
इतने में रेविमय्या अन्दर आया। झुककर प्रणाम कर बोला, "सन्निधान महामातृश्री से मिलना चाहते हैं।"
वम्मलदेवी और राजलदेवी ने भी उठकर प्रणाम किया और पहामातृश्री से अनुमति लेकर आपने-अपने प्रकोष्ठ में चली गयीं। रेविमथ्या भी स्वीकृति पाकर चला गया।
कुछ ही क्षणों में महाराज बिट्टिदेव महामातश्री के पास पहुँचे। रेविमय्या, जो साथ ही आया था, महाराज के अन्दर जाने के बाद किवाड़ बन्द कर बाहर खड़ा रहा।
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महाराज ने बताया, "रणक्षेत्र से बहुत जरूरी ख़बर आची है। और हमें तरन्त वहाँ जाना है, इसलिए रेबिमय्या और पट्टमहादेवी तथा हम कुछ रक्षकदल के साथ अभी तुरन्त बेलापुरी के लिए रवाना होंगे। शेष सब लोग कल बेलापुरी लौट जाएँगे। __"तो तुमने और शान्तलदेवी ने विचार कर वह निर्णय किया है-यही समझ तेती हूँ।"
'हो।"
"शान्तलदेवी को भी तुरन्त तुम्हारे साथ रवाना होने से मैं समझती हूँ कि वहाँ मन्त्रिपरिषद् की बैठक भी होगी।"
"हाँ। अब और समय नहीं गवाना चाहिए। नहीं तो आपके साथ देयी भी आ सकती थी।"
"तो वह तुम्हारे साथ युद्धक्षेत्र तो नहीं जाएगी न?" ''इस बारे में सोचा ही नहीं, माँ।" "मेरे पीट पीछे तुम लोग ऐसा कोई निर्णय न कर बैठना।"
"अच्छा माँ।" कह बिट्टिदेव ने घण्टी बजायी। रेक्मिय्या ने किवाड़ खोन दिया। बिट्टिदेव पट्टमहादेवा के प्रकोष्ठ की ओर जल्दी-जल्दी कदम बढ़ात चल दिये। रबिमव्या भी पीछे-पीछे चला गया।
महामातृश्श्री एचलदेवी, त्यम्मलदेवी, राजलदेवी, विट्टिगा, राजकुमारी और कुमार के बेलापुरी पहुंचने तक मन्त्रिपरिषद् वर्तमान युद्ध-स्थिति के बारे में सभी पहलुओं से विचार-विमर्श कर निर्णय ले चुकी थी। तदनुसार खुद महाराज बिट्टिदेव के युद्ध में जाने की बात निश्चित हो गयी थी। तभी शान्तलदेवी ने भी रणक्षेत्र में जाने की अपनी इच्छा प्रकट कर सबकी स्वीकृति पा ली थी।
बेलापुरी पहुँचते ही एचलदेवी को यह सब मालूम हुआ। वह किसी औपचारिक रीति-नीति की परवाह न कर सीधे शान्तलदेवी के अन्तःपुर में गयीं! पूछा, “अम्माजी, सुनती हूँ आप दोनों ने युद्धभूमि में जाने का निश्चय कर लिया है, यह सब है?"
उन्होंने तुरन्त महाभातृश्री के चरणों में झुककर प्रणाम किया और कहा, "आशीर्वाद दो माँ, मैं अपना मांगल्य सुरक्षित रख सकूँ ।"
"तो क्या छोटे अप्पाजी की अंगरक्षिका होकर जा रही हो?" ।
"सहधर्मिणी की हैसियत से जा रही हूँ। मुझे उनके सभी कार्यों में सहभामिनी बनना चाहिए न?"
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"पुरुष जो सब करते हैं वह स्त्री को भी करना चाहिए ऐसा तो नहीं, अम्माजी । यहीं रहकर उनके श्रेय के लिए, दीघांयु के लिए भगवान से प्रार्थना करती हुई पोय्सल वंशांकुरों को प्रवृद्ध कर पोषण करते रहना सहधर्मिणी का प्रधान कार्य है, अम्माजी । मातृत्व का भी यही कर्तव्य हैं न? हजारों सैनिक, दण्डनायक, सवार तथा दक्ष अंगरक्षक जब रणांगण में उपस्थित हैं तब वहाँ एक स्त्री का स्थान गौण हैं, अम्माजी । विवाह के बाद शुरू-शुरू में तुम्हारी ही तरह मुझे भी लगता था। मैं भी प्रभु के साथ रणभूमि में जाना चाहती थी। प्रभु का मुझ पर अपार प्रेम था। उन्होंने यह नहीं कहा कि मेरी इच्छा ग़लत है; फिर भी उन्होंने अच्छी तरह समझाकर कहा था कि रणक्षेत्र में जाने से भी बड़ा कर्तव्य बच्चों की देखभाल करना है । इसीलिए मैं कभी रणक्षेत्र में नहीं गयी। मैं यह जानती हूँ कि हम दोनों में फर्क है। मैं तलवार पकड़ना नहीं जानती। घोड़े पर सवारी करना नहीं जानती । तीर-कमान सँभालना भी नहीं जानती। फिर भी एक भावनामात्र रही कि मैं रहूँ तभी अपने स्वामी की रक्षा साध्य है। यह सहज न होने पर भी असम्भव नहीं । तुम तो सब तरह से दक्ष हो । फिर भी युद्धभूमि के खतरों में तुम्हारा फँसना मुझे ठीक नहीं जँचता । बड़े महाराज ने ऐसे ही एक मौके पर मुझे अपनी ऐसी इच्छा से विमुख कर दिया था सो तो तुम जानती ही हो। तुम्हारे न जाने पर दो-तीन बातों में सुविधा ही रहेगी। एक छोटे अप्पाजी का ध्यान युद्ध और विजय पर केन्द्रित रहा आएगा । सन्तान को इधर तुम्हारा स्नेह-दुलार भी तो चाहिए। तुम्हारा मार्गदर्शन भी जरूरी है. यह भी एक बात है। युद्धभूमि की अनिश्चित स्थिति से भी तुम बच सकती हो। यहाँ रहकर तुम अपने कर्तव्यों को बेरोकटोक निभा भी सकती हो, साथ ही राज्य के भीतर और बाहर के कार्यों में तुम्हारे नेतृत्व से बल मिलेगा। पहले एक बार तुमने छोटे अप्पाजी के साथ स्पर्धा की थी। उस समय मैंने तुमसे एक प्रार्थना की थी जिसे तुमने मान लिया था। मेरा विश्वास है कि अब भी मान लोगी।" यों भावुकता में तारतम्य रहित बातें करती रहीं महामातृश्री । उन्हें यह अच्छी तरह मालूम था कि तर्क से शान्तलदेवी को नहीं जीता जा सकता । उनका मन्तव्य केवल इतना ही था कि वह युद्ध में न जाएँ।
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शान्तलदेवी ने कुछ नहीं कहा। मौन हो सोचती रहीं। उनकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में एचलदेवी भी मौन बैठी रहीं। घण्टी की आवाज सुनकर दोनों उठ खड़ी हुईं। रेमिय्या ने किचाइ खोला और अन्दर आकर प्रणाम कर ख़बर दी कि सन्निधान पधार रहे हैं।
दोनों बाहर आयीं और बिट्टिदेव को अन्दर ले गयीं। तीनों बैठ गये । रेविमय्या जाने ही वाला था कि इतने में शान्तला ने कहा, “तुम यहीं रहो।"
"जो आज्ञा " कहकर भीतर से किवाड़ बन्द करके वह वहीं खड़ा रहा ।
138 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो
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"मतलब यह कि पट्टमहादंवो को रविभव्या की मदद की जरूरत है। माँ, इधा सास-बहू के बीच जो बातचीत हुई, उसका व्यौरा हमें मालूम नहीं। फिर भी हम समझते हैं कि हमारे साथ रणक्षेत्र में महारानी के जाने की ही बात हुई होगी।
पारी इच्छा नहीं थी कि देवी को साथ ले जाएँ। और फिर, आपके पीठ पीछे निर्णय न करने का भी वचन हमने दिया था सो हमें याद है। परन्तु हमारे वचन देने की यह बात देवी को मालूम नहीं थी। उन्होंने जब हमारे साथ युद्धभूमि में जाने का प्रस्ताव रखा तो हम असमंजस में पड़ गये। हमने कहा भी कि इसकी जरूरत नहीं। हममें किसी को भी अपने पूर्व निर्णय की बात याद नहीं रही। इस युद्ध के आरम्भ होने के पूर्व हमारे ही जाने की बात का जव निर्णच हुआ था सबकी राय थी कि पट्टमहादेवी भी साथ जाएंगी 1 जन्न यह बात हुई कि हमारे जाने की जरूरत नहीं, तभी यह कार्यक्रम स्थगित हुआ था। प्रकृत सन्दर्भ में हमारे जाने की बात निश्चित कर दी गयी, तो पट्टमहादेवो ने अपनी इच्छा प्रकट की। बहुतों ने यह राय प्रकट की कि इनका रणक्षेत्र में जाना उचित नहीं है। इस विषय पर सोच-विचार कर निर्णय करने के ख्याल से उस दिन की सभा में तात्कालिक रूप से वह बात नहीं उठायी गयी। उसके बाद फिर सभा बैटी, उसमें इस ढंग से बातचीत चली कि इनका जाना सबको युक्तिसंगत लगा। पट्टमहादेवी की तरफ से रेविमच्या बोल रहा था। यहीं रहने के लिए जब उससे कहा गया तो वही समझा जा सकता है कि महामातृश्री को समझाने के लिए उसकी मदद लेने की स्थिति पैदा हो गयी हैं। इस चर्चा के उटने से पहले इस सम्बन्ध में सभी बातों को विस्तार के साथ बताकर आपकी सहमति लेने की बात सोची थी। हमने यह नहीं सोचा था कि इतनी जान्दी आप लोगों में यह बात छिड़ सकती हैं। यही बताने के ख्याल से आपके प्रकोष्ठ में जाकर हम फिर इधर चले आये। माँ, देवी की इच्छा की साधुता ने सबको आकर्षित किया हैं। इसलिए आप सहर्ष स्वीकृति के साथ हमें आशीवाद देकर भेजिए। इसमें हम दोनों का सुख निहित हैं। देश की भलाई के लिए और प्रजा में सक्रियता उत्पन्न करने के द्योतक रूप में भी यह बहुत आवश्यक है। सम्पूर्ण देश की प्रजा को अब इस बात के प्रति प्रोत्साहित करना भी जरूरी है कि राष्ट्रहित के लिए लिंगभेद के बिना सबको सब तरह से त्याग करना होगा। चारों दिशाओं में शत्रु पासलों को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए तैयार खड़े हैं। इसलिए राष्ट्रप्रेम की प्रभावना का काम अब बहुत जरूरी हो गया हैं।'' यों विहिदेव ने परिस्थिति समझकर कहा।
शान्तलदेवी ने उठकर दोनों के पैर छूकर प्रणाम किया। एचलदेवी का हाथ आप-सं-आप शान्तलदेवी के मस्तक पर चला गया। एक क्षण सव मौन रहे आये। फिर एचलदेवी उठ खड़ी हुई। रिट्टिदेव और
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शान्तला भी उठ खड़े हुए। "देवी वासन्तिका आप लोगों की रक्षा करें। मन की बात मन ही में रखकर घुलने के बदले, कहकर मन का भार उतार लेना अच्छा है। इसलिए जो कहना था, कह दिया। अब निर्णय आप ही लोगों पर छोड़ देती हूँ।' कह प्रचलदेवी अपने प्रकोष्ठ की ओर कदम बढ़ाने लगी।
रविमय्या ने किवाड़ खोला। इयोढ़ी पर ठहरकर एचलदेवी ने कहा, "रंबिमय्या, तम्हें जब फुरसत हो तब थोड़ी देर के लिए आ जाना।' बह चली गयीं।
रेबिमय्या ने राजदम्पती की ओर देखा। . भाननदेवी ने कहा, "मी मा रेमिया " वह दरवाजा बन्द करके चला गया। राजदम्पती बैठे रहे। बिट्टिदेव ने पूछा, और क्या-क्या चातें होती रहीं।" शान्तलदेवी ने सब बता दिया। "तुरन्त उत्तर न देकर मौन क्यों रहीं?' बिट्टिदेव ने सवाल किया।
""महामातृश्री के लिए मेरा सम्पूर्ण जीवन घरोहर होना चाहिए। उनकी उदारता के लिए और क्या भेंट किया जा सकता है? वे वास्तव में बहुत सूक्ष्म-मति हैं। इससे भी बढ़कर ये बड़ी संयमी हैं। वे मुझसे जिस तरह के व्यवहार की अपेक्षा करती हैं तुरन्त मुझे वैसा ही बरतना चाहिए। यह मेरा कर्तव्य है। वे मुझे ऐसा करने की आज्ञा दे सकती थी। आज्ञा न देकर बलिपुर की स्पर्धा की बात को सामने प्रस्तुत करके मेरे बर्ताव में औदार्य की अपेक्षा रखीं। अभी हम उनके उस स्तर तक पहुँचे नहीं। इसीलिए सन्दिग्ध स्थिति में तथा स्वार्थ में पड़कर मैं कुछ बोलने में असपथं हो गयी।" शान्नलदेवी बोली।
"तो क्या देवी इस विषय पर पुनर्विचार करने की सोच रही हैं."
"यह उचित मालूम पड़ता है। रेविमय्या को आने दीजिए। बाद में मैं अपनी राय बताऊंगी।"
"टोक है। तब तक बाको सन्त्र कार्य, अब जैसा निर्णय हुआ है, आगे बढ़ता रहेगा। इस बीच मंचिंदण्डनाथ ने जैसी सताह दी थी, उसके अनुसार, हमारे अश्यों के लिए लौह-कवच, शिरस्त्राण आदि तैयार कराने का कार्य हुआ या नहीं! इस कार्य के निरीक्षण एवं परीक्षण की सूचना बम्मलदेवी को दे दी गयी है न?'' बिट्टिदेव ने पूछा।
'हाँ, वे तमी शस्त्रास्त्र-निर्माण केन्द्र की ओर चली गयी थीं। उनके लौटते ही मुझे बता देने की सूचना नौकर को दी जा चुकी है।
मंचिदण्डनाथ से एक और सूचना मिली है..." बिट्टिदेव ने बात वहीं रोक दी।
"क्या है वह?"
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"उसके अनुसार ही हमें चलना होगा-सो तो नहीं, निर्णय तो हमें ही करना
है ।"
"सन्निधान ने निर्णय ले लिया होगा ?"
"निर्णय ले लिया होता तो उसके बारे में देवी से पूछते ही क्यों ?"
" बात चल रही हैं, मगर अभी तक विषय गुप्त ही हैं ! "
"न, न, इसमें गुप्त रखने की क्या बात है :-"
ऐसा है तो सीधा बताने में शंका किस बात की
"शंका? किस पर
“मुझे क्या मालूम बात जानने पर ही तो कुछ कहा जा सकता है।" " बात की जानकारी न होने पर भी शंका की बात देवी के मुँह से निकलने के कारण पन में कुछ विचार तो उत्पन्न हुए ही होंगे न?"
"हाँ, अनेक विचार उठ सकते है। मुझपर शंका हो सकते हैं, नवदण्डनाथ पर शंका हो सकती है, नहीं तो सन्निधान को अपने ही ऊपर शंका हो सकती है। सूचना किस बात से सम्बन्धित है; किस व्यक्ति से सम्बन्धित है यह मालूम होने पर ही अनुमान किया जा सकता हैं।"
"कल्पना की व्याप्ति बहुत अधिक विस्तृत हो गयी!"
"बात का जब निश्चय नहीं होता तब ऐसा ही हुआ करता है।"
"तो अब उसी वात की ओर चलें। अश्व-विद्या में बम्मलदेवी निष्णात हैं, इसलिए बुद्ध-शिविर में उनकी उपस्थिति लाभदायक होगी - यह सूचना मंचिदण्डनाथ की है।"
"हाथ, इस बात के लिए इतना घुमाना फिराना क्या जरूरी था उनके चलने पर मेरे लिए भी एक साथी मिल जाएगी। उन्हें भी अकेलापन नहीं अखरेगा। तो वे जा सकती हैं यही सन्निधान का विचार है न?"
"कोई आश्चर्य नहीं कि जाने के बारे में वे ही सूचित करें।" "सन्निधान के मन में ऐसा विचार उठने का कारण ?"
"लगता है, देवी की तरह उनमें भी क्षात्र भाव प्रबल हैं।" "तो सन्निधान का यही आशय है कि वे भी चलें?
"पट्टमहादेवी को कोई आपत्ति न हो, तो हमें भी कोई आपत्ति नहीं ।"
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"अब तक सन्निधान को लगता रहा कि पटरानी रुकावट डाल सकती हैं है न?"
"हमने ऐसा तो कहा नहीं।"
" फिर भी मुझे लगा कि सन्निधान की बात में यह भाव द्योतक हो रहा है।" तुरन्त बिट्टिदेव ने और कोई उत्तर नहीं दिया ।
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"तो मतलब यही कि सन्निधान के मन में शंका है। घुमा-फिराकर बात करने का ढंग ही इस बात की गवाही दे रहा है। पट्टमहादेवी इस बात की स्वीकृति दगी या नहीं इस तरह की शंका यो शंका-सी नहीं लगती, फिर भी सच तो यह है कि पट्टमहादेवी पर शंकित होने का मतलब सन्निधान का ख़ुद पर ही अविश्वास करना होगा।'
“मतलब?"
''मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह किसी दुविधा में फंसता है तो वह द्वन्द कहाँ क्या है-यह न देख किसी तीसरे की सम्भावित कल्पना कर चिन्ता में पड़ जाता है।
"अभी द्वन्द्ध का कारण ही क्या है?" "कारण न होता तो माँचदण्डनाथ की सूचना को सीधी कह सकते थे।"
इतने में नौकरानी बम्मला ने किवाड़ खोला। महाराज को देख कुछ लाज्जत-सी हो गयी।
"क्या है बम्मला, बमलदेवी आ गयी"
''बाहर आदेश की प्रतीक्षा में खड़ी है। सन्निधान का वहाँ आना मालूम नहीं पड़ा। क्षमा करें।" बम्मला ने झुककर प्रणाम किया।
“उन्हें भेज दो।" बिट्टिदेव ने कहा।
नौकरानी बम्मला चली गयी। उसके आते ही बम्मलदेवी ने प्रवेश किया। बम्मला किताड़ बन्द कर बाहर रही।
प्रणाम करने को तैयार बम्मलद्धेवी बिट्टिदेव को वहाँ देख कुछ हिचकिचा गयी। उसे यह कल्पना नहीं थी कि ये वहाँ होंगे। वैसे वे उसके लिए नये तो नहीं। उस क्षणिक हिचकिचाहट को दूर कर उसने उन्हें प्रणाम किया।
शान्तलदेवी ने आसन दिखाते हुए कहा, ''आइए बैंठिए।" बम्मलदेवी बैट गयी, लेकिन उसकी दृष्टि विट्टिदेव की और रही। 'देख आयीं सब" शान्तलदेवी ने पूछा । "हाँ।" "काम सन्तोषजनक चल रहा है: शान्तलदेवी ने फिर प्रश्न किया।
'सन्निधान के घोड़े के लिए जैसा लौह-कवच और शिरस्त्राण बनाने के लिए सूचित किया गया था वह उतना सन्तोषजनक नहीं बना था, इसलिए उसमें आवश्यक परिवर्तन करने का बतला आयी।"
"सभी घोड़ों के लिए एक ही तरह के बनते, वही काफ़ी था। उनका उद्देश्य शस्त्राघात से घोड़ों को बचाना ही तो है। हमारा घोड़ा अलग, दूसरे का अलग । इस तरह की विवेचना क्यों की गयी.'' बिट्टिदेव ने पूछा।
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'सन्निधान की प्राणरक्षा जितनी ज़रूरी हैं, उतनी ही जरूरी है उस घोड़े की. रक्षा जिस पर सन्निधान सबार होते हैं। इसलिए आवश्यक लगा।" उत्साह से बम्मलदेवी ने कहा।
"अंगरक्षक हमेशा हमारी रक्षा में सन्नद्ध रहेंगे तब भला इस विशिष्टता की क्या आवश्यकता है?" बिट्टिदेव ने कहा।
"अंगरक्षक तलवार और मुगदरवाले सैनिकों से रक्षा कर सकते हैं, दूर से अचानक घुस आनेवाले तीरों से नहीं। इसके लिए उस अश्व की रक्षा सन्निधान के संरक्षण को दृढ़ता प्रदान करती हैं।" बम्मलदेवी ने कहा।
"वह कल तक तैयार हो जाएंगे क्या?' बिट्टिदेव ने सवाल किया।
.: सनि निकित मुह में यात्रा कर सकते हैं। उनके तैयार होते हो मैं उन्हें लेकर रवाना हो जाऊंगी, और जल्दी ही साथ आ मिलूंगी।' बम्मलदेवी ने कहा। ___ "यह नहीं हो सकता। आपको हमारे ही साध यात्रा करनी होगी। उन्हें कोई और ले आएंगे।' शान्तलदेवी ने कहा।
"तैयार होने पर एक बार उन्हें परख लेना अच्छा है। इसलिए...''
बम्मलदेवी की बात खतम होने से पहले ही शान्तलदेवी ने उसे रोककर कहा, "कारण कुछ भी रहे, आप हमारी रक्षा के अन्दर रह रही हैं, इस वजह से आपका अकेली यात्रा कराने के लिए सन्निधान नहीं मानेंगे।"
"अकेली कैसे? अन्य घुड़सवार, सैनिक सब साथ होंग न" बम्मलदेवी न
___ "कितने भी पुरुष साध रहें, साथ में एक स्त्री के होने के बराबर नहीं होते।" शान्नलदेवी ने कहा।
"चट्टलदेवो साथ रहेंगी तो न बनेगा?" "कल के अन्दर तैयार न हो सकेगा।"
"वहीं काम हो रहा है। दालने का काम होता तो बन जाता। मगर दालन पर वह बांझीला बन जाता है। उसे जितना हल्का बनाए उतना अच्छा, इसलिए लोहे के पतले परत से तैयार करना हैं ऐसे काम में थोड़ा ज़्यादा समय लग जाता
"तब तो सन्निधान निश्चित मुहूतं पर यात्रा करें। हम आपके साथ चलेंगी।"
"राजदम्पती की सहयात्रा के लिए मुहृतं ठहराया है, इसलिा। दोनों सन्निधान एक साथ यात्रा करें। यही राष्ट्र के लिए शुभकर और श्रेयस्कर है। मेरे विषय में आप आतोंकत न हों।"
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ऐसा नहीं बम्पलदेवी जी, आपकी बात आपकी दृष्टि में टीक होने पर भी, . लौकिक गति का उल्लंघन करना हमारे लिए उचित नहीं। अगर आप राजपरिवार के आश्रित न होती तो आपको अपनी इच्छा अनुसार करने के लिए छोड़ा जा सकता था। आपमें आत्मविश्वास है। आप अकेली ही आएँ तो भी कोई बाधा नहीं हो सकती। फिर भी आपको अकेली छोड़ नहीं सकतीं। चट्टालदेवी का साथ कर देना एक विकल्प हैं। लाचारी हुई तो वहीं करना पड़ेगा। किसी भी तरह से कल रवाना होने के समय तक उन्हें तैयार करवा देने की ही कोशिश करें।" शान्तलदेवी ने यह निर्णय सुना दिया।
बम्मनदेवी दोनों को प्रणाम कर वहाँ से चली गयी।
उसके चले जाने के बाद बिट्टिदेव ने कहा, ''तो देवी ने जाने का निर्णय लें ही लिया है।'
'क्यों, सन्निधान को सन्देह था ? या सोचा हो कि शान्तला न जाए तो ठीक रहे।" शान्तलदेवो ने प्रश्न किया ।
"हमें दोनों स्वीकार। परन्तु पट्टमहादेवों ने कहा कि विमच्या महामाश्री से वात कर आए, तब अन्तिम निर्णय करेंगे। इसलिए पूछा।" विडिदेव बोले । ___"मुझे रबिमय्या की रीति मालूम है। महामातृश्री के मन को भी जानती हूँ। इसलिए मैं समझती हैं कि मेरी यात्रा के विषय में कोई रोकटोक नहीं।" शान्तलदेवी बोली।
इतने में रेविमव्या आ गया। शान्तलदेवी ने पृष्टा, 'रेविमय्या, महामातृश्री ने क्या कहा?"
मुझसे पूछा तो नहीं, केवल इतना ही कहा कि सन्निधान और आपकी दोनों की सुरक्षा का सदा खयाल रखना।"
"यह तो कोई नयी बात नहीं।' बिट्टिदेव बोले।।
"तो महामातृश्री का तुम्हें बुलाने में कोई खास उद्देश्य नहीं रहा?" शान्तलदेवी ने पूछा।
बिना किमी उद्देश्य है वे बलानेवाली नहीं .. यह लो सन्निधान को विदित ही हैं न?'' रेविमथ्या बोला। ___ 'तो सुरक्षा के विषय में चौकन्ना रहने के लिए जो कहा वह साधारण बात होने पर भी अब इस वचन की अघ-व्याप्ति कुछ विस्तृत हैं-यही समझा जाय।" यों कह शान्तलदेवी ने बात को कुछ व्यापक बनाया।
"यों सोचना भी गलत न होगा। क्योंकि सम्भाव्य की कल्पना करके पहले से सचेत रहन की प्रवृत्ति राजमहल की दृष्टि में बहुत ही बुक्तिसंगत है।" रविमच्या बोला।
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'महामातृश्री के मन का वह भय भी क्या है?'' "भय की बात तो नहीं कह सकते, एक साधारण शंका कड़ सकते हैं।"
"तब तो उनका आशय है कि असल बात फ़िलहाल हमारी जानकारी में दूर हीं रहे?'' शान्तलदेवी ने प्रश्न किया।
रेविपय्या पौन रहा। "ठीक, इसीलिए तुम घुमा-फिराकर जवाब दे रहे हो।" "उचित समय पर निवेदन करूँगा।" रनिमय्या ने कहा ।
"ठीक है। सन्निधान के साथ में भी चल रही हूँ। वम्मलदंवी भी जाएँगी। इसलिए सुरक्षा का दायित्व अधिक है। योग्य व्यवस्था हो। तुम उस ओर ध्यान यो, अब जाती।" सलटेल नेश लिया .
"चट्टलदेवी को भी साथ चलने की व्यवस्था करनी होगी न?' ''वह म्या?''
सन्निधान जिस युद्धभूमि में होंगे, वहीं रहने की उसकी प्रबल इच्छा है। महापातश्री भी उसका रहना अच्छा समझती हैं। इस तरह की सूचना भी उन्होंने दी है।"
मम्मलदेवी कल ही हमारे साथ चलेंगी तो वह भी हमारे साथ चली चलेगी। कल ही हमारे साथ बम्मलदेवी न चल सकेंगी तो तुम्हें और चट्टला दोनों को उनकं साथ आना पड़ेगा।" शान्तलदेवी ने कहा।
"जो आज्ञा' कह रेत्रिमय्या प्रणाम कर चला गया।
बिट्टिदेव तब तक मौन बैठे रहे। अब उन्होंने शान्तलदेवी से पूछा, 'मां के मन में कौन-सी शंका उत्पन्न हुई होगी?"
"जब रेविमय्या ने उचित समय पर कहने की सूचना दी है तो अभी उसके बारे में दिमाग़ खराब करने की क्या ज़रूरत है?" शान्तला ने कहा।
इतने में नौकरानी सुग्गला ने आकर खबर दी कि उपाहार तैयार हैं, महामातृश्री आप दोनों की प्रतीक्षा कर रही हैं।
उठकर दोनों उस ओर चले गये। उपाहार मौन में ही समाप्त हुआ। __युद्धयात्रा के लिए राजमहल में ज्योतिषी ने जो मुहूर्त ठहराया है, इस बारे में महाराज बिट्टिदेव ने महामातृत्री से कहा। साथ ही तब तक प्राप्त युद्ध-सम्बन्धी अनेक ब्यौरे भी उन्होंने बतायें। वहाँ कंवल तीन ही जन थे। बच्चे उपाहार के बाद चले गये थे। उपाहार के अनन्तर अधिक बातें बिट्टिदेव की ही हुई। उन्होंने बताया कि युद्ध की तैयारिचा सन्तोषजनक ढंग से हो रही हैं। इस सम्बन्ध में विवरण देते समय उन्होंने बम्मलादेवी की कार्य-दक्षता और श्रद्धा, लगन आदि के बारे में कुछ विस्तार से कहा। बताते समय उनकी ध्यान में कुछ उत्साह और विशेष
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दिलचस्पी भी स्पष्ट दिख रही थीं।
महामातृश्री और शान्तलदेवी उनके उस उत्साह को सपझ रही थीं। उन दोनों के मन में अकारण ही कई तरह के विचार उत्पन्न होने लगे परन्तु उन्होंने उन्हें अपने तक ही सीमित रखा।
एक क्षण भी व्यथं न गँवाकर लगातार काम करने से महाराज और पट्टमहादेवी के अश्यों के अंगवाण और शिरस्त्राण, बम्मलदेवी की सलाह के अनुसार निश्चित मुहूर्त के पूर्व ही तैयार हो गये। इससे महाराज की युद्धयात्रा राजमहल के ज्योतिषियों द्वारा निश्चित मुहूर्त में ही आरम्भ हुई। महाराज बिट्टिदेव पट्टमहादेवी शान्तला, बम्मलदेवी, चट्टला और रेविमय्या-इन सबके साथ अश्वसेना का एक गुल्म दक्षिण-पश्चिम कोने के सैन्यशिविर की ओर चल पड़ा। मार्ग में दो दिन ज्यादा टहरकर यादवपुरी जाकर विश्राम किया। शान्तलदेवी ने कहा, "इस युद्ध की समाप्ति पर सन्निधान कुछ समय बादवपुरी में ही मुक्काम करें तो अच्छा है। उदयादित्य द्वारसमुद्र में ही रहे आएँगे।"
क्यों, देवीजी को वेलापुरी और दोरसमुद्र जंचे नहीं?"
"ऐसा नहीं जो हारेंगे व फिर अपना बल बढ़ाकर हमले की तैयारी करने की कोशिश करेंगे। सन्निधान यहीं मुक्काम करेंगे तो शन के लिए. डर बना रहेगा।
''हाँ, हम यहाँ रहें और उधर चालुक्य दोरापुद्र की ओर आ बढ़ें, तब?"
'अब आने पर जैसा होगा, तब भी वही होगा। हम उसकी रक्षा के विषय में उदासीन तो नहीं हैं न: राज्य की रक्षा के लिए, पोसलों के पुण्य प्रभाव से दक्ष टण्डनायक सभी तैयार हो रहे हैं। प्रधान गंगराज के पुत्र एचिराज ओर बोप्पदव, अब तो उदयादित्य वहीं हैं-ये सब गंगराज, माचण, डाकरस, मामा सिंगिमच्या, पुनीसमय्या के स्तर को पा गये हैं। मंचिदण्डनाथ एक नयी शक्ति बनकर सम्मिलित हुए हैं। कुमार बिट्टियण्णा, डाकरस के बेटे मरियाने और भरत अपने- अपने बुजुर्गों से भी अधिक शक्ति-सामर्थ्य से सम्पन्न हो रहे हैं। कुमार बल्लाल भी शीघ्र ही एक निपुण योद्धा हो जाएगा। राष्ट्र-रक्षा का कार्य चोग्य एवं दक्ष हाथों में है। इसलिए सन्निधान प्रत्येक केन्द्र में भी याद कुछ समय रहेंगे ता सम्पूर्ण राज्य में महाराज के सान्निध्य के प्रभाव से नवीन चेतना उत्पन्न होगी। इसी दृष्टि से इस युद्ध की समाप्ति के बाद कुछ समय तक सन्निधान नहीं मुक़ाम करें-मेरी ऐसी अभिलाषा हैं।" शान्तलदेवी ने कहा।
वहीं हो। तुम्हारी सलाह योग्य है। इस युद्ध के बाद सब एक बार वेलापुरी में मिलेंगे। आगे सुरक्षा-व्यवस्था के विषय में एक नयी योजना भी तो बनानी
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पड़ेगी। तब कहाँ कितने दिन रहना होगा इस बात का भी निर्णय कर लेंगे।""वह सब निर्णय जो भी हो, सन्निधान को पहले यहाँ मुक़ाम करने पर सलाह देनी होगी।" शान्तलदेवी ने कहा ।
" यादवपुरी पर देवी की इतनी ममता क्यों ? "
"हाँ प्रभु, मायका छोड़ने के बाद मेरा जीवन इसी स्थान पर विकसित हुआ, सन्निधान के सान्निध्य में और सहवास में रहकर महत्त्वाकांक्षा आसमान तक पहुंची यहीं पर इसी यादवपुरी से लगी पर्वत श्रेणी के शिखरों पर मन में किसी भी तरह का ऊहापोह न रखकर, जीवन में किसी तरह के दायित्व के बोझ के बिना, आड़े-तिर विचारों से दूर, सुखी जीवन व्यतीत करने का स्थान मेरे लिए यहीं रहा है। इसलिए..."
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"क्यों रुक गयीं देवी ?"
"इसे पूरा करनेवाले तो आप ही हैं न?"
"वही हो, तुम्हारी इच्छा के अनुसार ही हो!" बिट्टिदेव ने कहा ।
आठ-दस साल पूर्व के नये जीवन की वे स्मृतियाँ साकार होने लगीं बिट्टिदेव को। उस दिन की वह सन्ध्या, पहाड़ के बीच स्थित नरसिंह भगवान का दर्शन, शत्रु के पेट को चीरनेवाली शक्ति प्रदान करने की वह प्रार्थना, सन्ध्या राग में पहाड़ चढ़ना और वहाँ का वह प्रशान्त वातावरण - ऐसे प्राकृतिक सौन्दर्य के मध्य स्थित मण्डप में अपने को भूलकर सुखानुभव करने के दिन का स्मरण कर, उस मण्डप में बैठकर उस पहाड़ पर की पुरानी घटनाओं की याद करते हुए सन्तुष्ट होकर चे मुक्काम पर लौटे।
दूसरे दिन वहाँ से यात्रा आगे बढ़ी।
आगे यह टोली उस जगह पहुँची जहाँ सबने सोमेश्वर का दर्शन कर वहाँ घटी उस दिन की घटना की याद की। वह वही जगह थी जहाँ चहला ने अप्पाजी और सन्निधान की प्राणरक्षा की थी। उस पूर्ण घटना का वर्णन बम्मलदेवी को सुनाते हुए वे आगे बढ़े। तब उतने साहस के साथ काम करनेवाली चट्टला आज इन सब बातों को सुन लजा रही थी। फिर भी राष्ट्र के महासन्निधान के मुँह से इन प्रशंसा भरी बातों को सुनकर वह अपने को कृतार्थ मानती रही।
रास्ते में अधिक समय नष्ट न करके, शीघ्र ही यह टोली अपनी प्रधान सेना के साथ सम्मिलित हो गयी।
आगे के युद्धारम्भ के विषय में सन्निधान के शिविर में ही, उसी रात विचार-विमर्श करने के लिए सभा बैठी। चर्चा के बाद यो निर्णय हुआ "सेना को लीन
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टुकड़ियों में विभाजित किया जाए। अश्वदल की प्रधान टुकड़ी महाराज और पट्टमहादेवी के नेतृत्व में बीच में से आगे बढ़े, और शेष दोनों, अश्व की तेज गति के कारण, एक पुनीसमय्या के नेतृत्व में और दूसरी टुकड़ी सिंगिमय्या के नेतृत्व में दायें-बायें आगे बढ़ें; शत्रु-सेना की गतिविधि को समझकर, उसका ध्यान दोनों
ओर बँट जाय-इस तरह दो टुकड़ियाँ हो जाएँ ताकि शत्रु-चल कुण्ठित हो । तब महाराज के नेतृत्व में जो अश्वदल हैं, वह आगे बढ़ जाय और शत्रुओं की विभाजित सेना पर दोनों ओर से हमला कर दे। नागिदेव और उदयादित्य केन्द्र शिविर में रहें, आवश्यकता अनुसार शस्त्रास्त्र आदि भेजते रहने की व्यवस्था में लगे रहें। मंचिदण्डनाथ, अनन्तपाल और सवारनायक मायण महाराज के साथ रहें।''
निर्णय के अनुसार व्यूह के दायें-बायें पदाति सैनिक दूसरे दिन प्रातःकाल ही चल पड़े। पैदल सेना की संख्या अधिक थी, उसकी गति भी धीमी होने के कारण महाराज शिविर केन्द्र में ही अपने मुकाम पर रहे।
नधर राजेन्द्र प्रिथुवी कोंगाल्व की सेना को अच्छी तरह मालूम था कि पोसल सेना बहुत बड़ी है। इसलिए उन्होंने शीत-बुद्ध करना शुरू कर दिया था। अपने गुप्तचरों से पोय्सलों की सेना की गतिविधि को जानने के बाद, यह अपनी सेना के दो भाग कर पूर्व और पश्चिम की ओर भेजकर, खुद पर्वतश्रेणी के प्रदेशों में पहाड़ियों की आड़ में रहकर शत्रु-सेना को जड़ से उखाड़ फेंकने की बात में रहा। पोय्सलों को उसकी यह नयी चाल मालूम नहीं थी। इसलिए उनकी सेना की दोनों टुकड़ियों दायें-बायें नियोजित रीति से आगे बढ़ती गयीं। शत्रु सेना न मिलने पर वे कुछ निराश हुए। बड़ी सतर्कता से दायें-बायें चल रही ये दोनों टुकड़ियों आगे जाकर आपस में टकरा गयीं। शत्रु ने वहीं काम किया जो ये स्वयं करना चाहते थे। दोनों ओर से शत्रु-सेना यद आयी। सिंगिमय्या और पुनीसमय्या किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। फिर भी धीरज के साथ युद्ध किया। शत्र के लिए बड़ी अच्छी जगह मिल गयी थी। इससे दोनों तरफ़ युद्ध करने की जरूरत आ पड़ने से पोय्सल सेना के लिए बड़ी कठिन परिस्थिति उत्पन्न हो गयी थी। उन्होंने यह आशा की थी कि महाराज की अश्वसेना आ जाए तो कुछ कर सकते मगर वे निराश हो गये। शत्रु ऊपर से तीरों की वर्षा कर रहे थे। अब तक कई पोसल सैनिक इन तीरों के शिकार हो चुके थे। पोसल के तीरन्दाज़ों ने भी तीर चलाये मगर इसमें उन्हें अधि कि सफलता नहीं मिलो, क्योंकि वे पहाड़ियों पर बड़े-बड़े पत्थरों की आड़ लिये हुए थे।
पनीसमय्या और सिंगिमच्या दोनों इस विश्वास से उत्साह के साथ युद्ध में उतर पड़े थे कि जीत हमारी होगी, मगर अब विजय पाने के बारे में उन्हें शंका होने लगी। इतने में छलांग भरती हुई युड़सेना की एक छोटी टुकड़ी आ गयी ।
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उसका नायक था सवारनायक मावण। उन्होंने दोनों को महाराज का सन्देश : पहुँचाया। सन्देश मिलते ही सारी सेना आठों दिशाओं में बँटकर तेजी से चल पड़ी। ___यह देख कोंगाल्वों ने समझा कि पोसल सेना तितर-बितर हो गयी। इससे उन्हें बहुत खुशी हुई, परन्तु उनकी यह खुशी बहुत समय तक नहीं रही। देखते-ही-देखते जनकी दो टुकड़ियों के पोछे से पोय्सल सेना हमला करती हुई आगे जा बढ़ी। युद्ध की गति उल्टी-सीधी हो गयी। युद्ध की रीति के बदलने से कोंगाल्व टक्का-बक्का रह गये। हालत ऐसी हो गयी कि युद्ध इधर से शुरू करें या उधर से, यहाँ करें या यहाँ। वे दिङ्मूढ़-से हो गये। इस बार पोसनों का हौसला ऊँचा रहा, उनमें उत्साह की लहर दौड़ गयी। दो हिस्सों में बँटी कौंगाल्चों की सेना पांय्सलों के घेरे में आ गयी।
लौहकवच और शिरस्त्राण से सजी पीसल अश्वसेना को पीछे हटाना कोंगाल्व तीरन्दाज़ों में न हो सका। उनके सारे तीर लोहकवच से लगते और टूटकर ज़मीन पर जा गिरते । पोयसल अश्वसेना हावी हो गयी। कोंगाल्न मना दिङ्मूढ़ हो गयी और पोयसल अश्वसेना के पदाघात से रौंद दी गयी। राजेन्द्र प्रिथुवी ने अपनी सेना की हालत पहाड़ पर से देखी। वहीं में उसने अपनी राशक रोना को पीछे हटने का आदेश दिया। अपने चोद्धाओं को उत्साह से भरनेवाले कोंगावों के युद्ध के नगाड़े शान्त हो गये। कोंगाल्व सैनिकों के दिल टूट गये। हार को निश्चित समझकर भी वीरगति के इच्छुक कोंगाल्न सैनिक लड़ते हुए शहीद हो गये। जिन्हें जीने की चाह थी ये लुक-छिपकर भाग गये।
विट्टिदेव विजयी हुए। घोष के साथ बाजे बज उठे। उससे दसों दिशाएँ याप्त हो गयीं। युद्धभूमि में शार्दूलपताका फहराने लगी। पोसल सैनिक भी विजयघोष करने लगे। पुनीसमय्या, सिंगिमच्या, मंचिदण्डनाथ-ये सब सन्निधान के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए पहाड़ की ओर देख रहे थे। सन्निधान के बदले सवारनायक मावण पहुँचा। तीनों दण्डनायकों को कुछ दूर ले जाकर उनसे कहा, “सन्निधान केन्द्र शिविर में हैं। सैनिकों को धीरे-धीरे लौटने की आज्ञा देकर आप लोग मेरे साथ शीन चलें।"
उसके कहने के ढंग से लगता था कि कुछ घबराने जैसी बात हो गयी है। मंचिदण्डनाथ ने धीरे-से पूछा, "क्या बात है?"
मायण ने कहा, "भाग्य की बात है कि ऐसी कोई अनहोनी बात नहीं हुई। आज अगर बम्मलदेवी न होती तो पता नहीं क्या होता? अब चलिए, देर न करें। हमारी जीत की खबर सुनने के लिए सम्निधान और पट्टमहादेवी प्रतीक्षा में हैं।''
"हम सब स्वयं सन्निधान के आने की प्रतीक्षा में थे।"
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"अब वे आने की दशा में नहीं हैं। चलिए । योद्धाओं को जल्दी सूचित कर दीजिए। मैं आपकी प्रतीक्षा किये बिना पहले ही चल रहा हूँ। सैनिकों में घबराहट न आने पाए।"
उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना मायण में अपने घोड़े पर सवार हो एष्ट्र लगायी। घाड़ा आसमान से बातें करने लगा।
पुनीसमव्या ने सैनिकों से कहा, "सैनिको! आप सबने अपने प्राणों की आशा छोड़कर जमकर युद्ध किया और राष्ट्र को विजय से विभूषित किया। महाप्रभु ने आपके इस साहसपूर्ण कार्य की हार्दिक प्रशंसा करते हुए यह सन्देश भेजा है कि अब आप लोग केन्द्र शिविर की ओर लौट पड़ें। वहाँ वे प्रत्यक्ष आप लोगों से मिलेंगे और स्वयं बधाइयाँ देंगे। जल्दी आने के लिए उन्होंने हमें आदेश भेजा है। अतः हमारे अश्वदत की प्रधान टुकड़ी यहाँ रहकर सतर्क हो निगरानी रखें। यह दकड़ी पटवारी वोकण के अधीन रहेगी।' सैनिकों को यों आदेश देने के बाद पटवारी बोकण को जो बनाना था उन्हें बताकर, सिंगिमव्या और मंचिदण्डनाथ के साथ पुनीसमच्या कंन्द्र शिविर की ओर चल पड़ा।
महाराज के हरे के बाहर के घर में चारों और पहरदार सशस्त्र पहरा दे रहे धे । एक सिपाही इन दण्डनायकां के आने की खबर लेकर अन्दर गया और समाचार सुनाकर अनुमति पाकर लौट आया। बाद में तीनों टण्डनाथ अन्दर गये। महाराज बिदिव पलंग पर लटे थे। पटरानी शान्ततंदी पलंग के सहार एक दूसरे आसन पर बैठी थीं। वम्मालदेवी वहाँ से कुछ दूर पर एक दूसर आसन पर बैठी थी। चट्टता तम्बू के हो अन्दर के दरवाजे पर खड़ी थी। चारुकीर्ति पण्डित के वैद्यवृत्ति छोड़कर राज्य से चले जाने के बाद, जगदल सोमनाथ पण्डित राजमहला के वैद्य बन गये थे। वे बुद्ध शिविर में ही रहे, इसलिए महाराज को ठीक वक्त पर आवश्यक चिकित्सा मिल गयी थी। वे भी वहीं एक दूसरे आसन पर विराज रहे थे।
इंरे के अन्दर प्रवेश करते ही तोनों ने झुककर प्रणाम किया। बिट्टिदेव ने प्रसन्न मुद्रा लाने का प्रयत्न कर उन्हें इशारे से बताया कि बैलें, और शान्तला की ओर देखा।
शान्तला ने कहा, "दण्डनाथ पुनीसमय्या जी, हमारी विजय का समाचार मायण से मिल गया हैं। पूर्व सूचना के अनुसार, सन्निधान को बहीं आप लोगों से मिलने के लिए पधारना चाहिए था, परन्तु अब आप लोगों को बह सन्तुष्टि नहीं दे सके। यदि वह पल्लब राजकुमारी बम्मलदेवी आज न होती तो हम सन्निधान के सन्दर्शन भाग्य को भी खो बैठते। पोयसल पट्टमहादेवी के सुहाग सिन्दूर को आज उन्होंने बचा लिया । हम उनको अपनी कृतज्ञता किन शब्दों में
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और कैसे प्रकट करें, समझ में नहीं आता। आश्रय की खोज में यहाँ आयीं, आश्रय चाहा। उन्हें आश्रय दिना - यह अहंकार हममें हुआ होगा, इसलिए यह घटना ऐसी हुई। लगता है, भगवान के द्वारा पूर्वनियोजित था कि हमारे सीमांगल्य को बचाने की के लिए उन्हें यहाँ चुलवा दिया। आश्रय पाने के लिए यहाँ आना शायद एक बढ़ाना है। साधारणतः मानव में उपकृति की याद बहुत समय तक टिककर नहीं रहती । कृतज्ञता की भावना को स्थायी बनाये रखने की इच्छा हृदय में होने पर उसे एक स्पष्ट रूप देना चाहिए। इसलिए मैं सन्निधान के सम्मुख अपनी इच्छा प्रकट किये देती हूँ। बाद में राजधानी लौटने पर पन्त्रणा सभा में उस पर विचार कर निर्णय कर लें। सन्निधान की रक्षा ही पोय्सल सिंहासन की रक्षा है। इस कर्तव्य को अपने प्राणों की परवाह न करके उन्होंने निभाया है। इसलिए आसन्दीनाडु पाँच-सौ परगना पल्लव राजकुमारी वम्मलदेवी को देखकर पोप्सलों के आश्रय में वहाँ अधिकार निर्वहण करें - इसके लिए उन्हें योग्य आदेश दें। उन्होंने जो महान् कार्य क्रिया हैं उस कार्य के अनुलक्ष्य में यह एक अल्पभेंट मात्र है ।"
यह बात सुनते ही बम्मलदेवी के शरीर में बिजली- सी दौड़ गयी। उसका हृदय धधक उठा। अपने अन्तरंग की बात को खुलकर कह सकने की हालत में नहीं इसलिए उसने िकी ओ
मंचिदण्डनाथ बड़े इंगित थे। राजलदेवी से बम्मलदेवी के अन्तरंग की बाल उन्होंने जान ली थी। फिर भी इस तरह की बात कह सके इतनी मिलनसारी या ऐसा विश्वास उत्पन्न नहीं हुआ था। चूँकि यह बात को समझते थे, इसलिए उट खड़े हुए, झुककर प्रणाम किया और बोले, "हम सन्निधान की उदारता के लिए कृतज्ञ हैं। राजकुमारीजी को इस तरह की कोई चाह नहीं है । आश्रय की आशा लेकर आये। हम पर विश्वास पाकर हमें आश्रय दिया गया। हम कृतार्थ हुए। हमें यह बहुत बड़ी भेंट है। अभी हम जैसे हैं वैसे ही रहने देने का आदेश सन्निधान दें। सन्निधान ऐसा न समझें कि हमने सन्निधान की उदारता को अस्वीकार किया है, धृष्टता की है। ये सब ऐसी बातें हैं जिनका विवेचन जल्दबाजी में नहीं कर सकते । राजकुमारी बम्मलदेवी सन्निधान की प्राणरक्षा में सहायक बन सकीं - इस तरह का अवसर प्राप्त होने पर वे अपने को बड़ी भाग्यशाली मानती हैं। वे समझती हैं कि इससे बढ़कर उनका और क्या भाग्य हो सकता है। मैं उन्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ। सन्निधान के समक्ष अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में भी इस उदारता के सामने संकोच का अनुभव कर रही हैं । कर्तव्यपालन का महत्त्व उससे प्रतिफल प्राप्त करने में नहीं है। प्राप्त हो सकनेवाले प्रतिफल से दूर रहने में हैं इसलिए अब यह बात यहीं समाप्त करना अच्छा है । परन्तु हम इस बात को जानने के लिए अतीव उत्सुक हैं कि ऐसी क्या बात हुई।"
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मंचिदण्डनाथ की बातें सुनने के बाद शान्तलदेवी ने कहा, "उस सम्बन्ध में उन्हीं से पूछकर जान लीजिए। हमारे सामने दिल खोलकर वे नहीं बता सकेंगी।" फिर बम्मलदेवी की ओर मुड़कर प्रश्न किया, "हैं न पल्लवराजकुमारी जी : "
सबकी दृष्टि बम्मलदेवी की ओर जा लगी।
बम्मलदेवी ने एक हल्की सी मुस्कराहट के साथ सबकी ओर देखा । फिर पलंग पर लेटे बिट्टिदेव की ओर देखा । के लिए रोगों की नहीं हो गयीं। उसने उनकी आँखों में कृतज्ञता के साथ, कुछ और भाव भी देखे। उसका सारा शरीर स्पन्दित हो उठा। वह धीरे से उठी और तम्बू के द्वार की ओर बढ़ गयी ।
"बला, इन्हें जहाँ ठहराया है वहाँ तक भेज आओ।" पट्टमहादेवी ने कहा । वम्मलदेवी रुकी और मुड़कर बोली, "चट्टला, पट्टमहादेवी की आज्ञा का पालन हो। तुम सबकी मेरे मुक़ाम पर बुला लाओ। मुझे जाकर सारी तैयारी करनी है। उनके साथ तुम भी तो आयी ही थी, तुम सब बता दो। मुझसे अधिक अच्छा जानती हो। तुम ही ने तो पट्टमहादेवी को सब-कुछ बताया है। थोड़ी देर के पश्चातू तुम इन्हें ले आओ" कह बम्मलदेवी ने कुछ झुककर प्रणाम किया और अपने मुक्काम की ओर चल दी।
दण्डनाथ पुनीसमय्या ने कहा, "मंचिदण्डनाथ की अश्वसेना की फुरती से हमारा नुकसान कम हुआ। अबकी विजय के लिए उनके योद्धाओं की मदद बहुत हद तक कारण है। उन्हीं में से कुछ योद्धाओं को बोकण की देखरेख में वहाँ तैनात कर आया हूँ। जब हम जहाँ के तहाँ न ठहरकर आगे बढ़ें और नीलगिरि को अधिकार में कर लें, यह उचित होगा। सन्निधान यदि मान लें तो मैं स्वयं इस विजय यात्रा पर जाऊँगा ।"
“इन सभी बालों पर यादवपुरी लौटने के बाद विचार कर निर्णय करेंगे। सैनिक उत्साह से भरे हैं, यह ठीक हैं। अभी उन्हें एक दूसरे युद्ध के लिए प्रोत्साहन देकर उकसाएंगे तो उनके मन में कुछ कड़आपन उत्पन्न जाएगा। वह अच्छा नहीं। अभी तो उन लोगों को यह आनन्द और उत्साह लेकर घर पहुँचकर पारिवारिक सुख अनुभव करने दें। भविष्य में यह आवश्यक अवसरों पर प्रोत्साहित करने में विशेष सहायक होगा। अभी फिर से युद्ध करने के लिए प्रेरित करने पर उनका उत्साह भंग हो जाएगा, एक कडुआपन आ जाएगा। शुरू-शुरू में कइआपन न दिखने पर भी, अन्दर ही अन्दर बह बढ़नेवाली सौतेली मत्सरता जैसा रूप धारण कर लेगा, " शान्तलदेवी ने कहा ।
"सौतेली मत्सरता की बात अब क्यों ?" किसी धुन में रहनेवाले बिट्टिदेव के मुँह से अचानक निकला ।
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"यह केवल तुलनामात्र है। मात्सर्य के लिए सौत को होना भी चाहिए न ? मतलब यही हुआ कि पनीसमय्या जी ने जो कहा वह सन्निधान के ध्यान में शायद नहीं आया, कुछ और बात का सन्निधान के दिमाग़ में मन्यन होता रहा होगा। सो भी विश्राम या बातचीत समाप्त करने की सूचना है। चट्टला! आप सबको पल्लव राजकुमारी के मुकाम पर ले जाओ।" कहकर शान्तलदेवी ने वहीं उस बात को समाप्त कर दिया।
तीनों दण्डनाथ उठकर प्रणाम कर वहाँ से चट्टला के साथ चले गये।
वहीं एक सप्ताह तक विश्रान्ति में रहने के बाद, पहले यादवपुरी की ओर जाने की बात सोचो गयी। और तब जगदल सोमनाथ पण्डित की गय लेकर तुरन्त यात्रा करने का निश्चय हुआ।
उदवादित्य और सिंगिमय्या दोनों पहले यादवपुरी जा पहुँचे और महाराज तथा घट्टमहादेवी के स्वागत के लिए आवश्यक व्यवस्था की। उसी दिन वेलापुरी और दोरसभद्र में भी विजयोत्सव बड़े धूमधाम से मनाये जाने की व्यवस्था करने का निर्णय होने के कारण इन्होंने वहाँ के व्यवस्थापकों के पास खबर भेज दी थी। राज्य के प्रधान नगरों में भी विजयोत्सव समारम्भ की व्यवस्था की गयी थी।
योजना के अनुसार सब कार्य सम्पन्न हुए। पोयसल राज्य की प्रजा आनन्दविभोर धी। पोयसल व्याघ्र-पताका नभोमण्डल की ओर उड़नवाले गराइपक्षी के पंख की भाँति आसमान को छूती हुई फहर रही थी।
"पांग्सल सन्तानश्री चिरायु हों" की ध्वनि दिग्दिगन्त तक व्याप्त होकर प्रतिध्वनित हुई। ___यादवपुरी की जनता महाराज और पट्टमहादेवी को प्रत्यक्ष पाकर विशेष रूप से आनन्दित थी।
विजयोत्सव मंच पर महाराज घिट्टिदेव और पट्टमहादेवी शान्तलदेवी ऊँचे सजे आसनों पर विराजमान थे। बेदी के बायें एक आसन पर अकेली यम्मलदेवी बैठी हुई थी। वटिका की दूसरी ओर उदयादित्य विराजमान थे। वेदिका के निचले स्तर के आसनों पर दोनों तरफ़ दण्डनाथ बैठे हुए थे।
राजमहल के विस्तृत प्रांगण में निर्मित विशाल हरे-भरे मण्डप में केवल यादवपुरी के हो निवासी नहीं, इर्द-गिर्द के सभी ग्रामों के लोग अधिकाधिक संख्या में आये बैठे थे। उनके उस उत्साह का प्रतिफल राजदम्पती का सन्दर्शन था। अपने राजा और रानी को देखना सौभाग्य की यात समझनेवाले उन लोगों ने एक कण्ठ हो घोषित किया, “महाराज बिट्टिदेव चिरायु हों," "पट्टमहादेवी शान्तुलदेवी
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जो चिराय हों,” पोय्सल च्यानध्वज आचन्द्रार्क इसी तरह सदा फहरता रहे"...
विजयोत्सव की विधियों समाप्त होते ही दण्डनाध सिंगिमय्या अपने आसन से उट खड़े हुए। सिंहासन को प्रणाम किया, और उपस्थित जनस्तोम को प्रणाम कर बोले, 'पोयसल राज्य के आदरणीय प्रजाजनो! सन्निधान के आदेश के अनुसार, मैं अब आप महानुभावों के समक्ष कुछ बातें कहने के लिए खड़ा हुआ हूँ। इन बातों को स्वयं सन्निधान को ही कहना था। अब के युद्ध में जीत हमारी हुई। इसका मुख्य कारण हमारे सैनिकों की निष्ठा और हमारी पट्टमहादेवी जी का रणव्यापार में चातुर्वयुक्त योग्य दिशादर्शन है। उनके निर्देश के अनुसार ही हमारी संना अगर नहीं चलती नां शत्रसेना को भेटकर आगे जाना और विजय पाना असाध्य कार्य होता। यह बात कहते हुए मेरा हृदय आनन्द से फूल उठता हैं। पट्टमहादेवी मेरे रिश्ते की ग्क्त सम्बन्ध से भानजी हैं, लेकिन इसका यह कारण नहीं। रिश्ते की होने पर भी, उम्र की दृष्टि से बहुत छोटी होने पर भी, युद्ध-नीति में अपने को निष्णात मानकर गर्व करनेवाले हम पुरुषों को भी उन्होंने स्त्री होकर भी मार्गदर्शन देकर एक आदर्श उपस्थित किया है। इस देश की पट्टमहादेवी के स्थान पर उनका विराजना तो इस देश के लिए महान सौभाग्य की बात है और यह हमारा महाभाग्य है कि हम सब उनके साथ हैं। जैसे हमारे इस विजय के लिाा पट्टमहादेवी कारण हैं वैसे ही हमारे महासन्निधान को बचाने के महान भाग्य की प्राप्ति के लिए पल्लब ग़जकुमारी बम्मलदेवी जी कारण हैं। वे आप लोगों के लिा! अपरिचित हैं। फिर भी इस बुद्ध के वक्त के अगर न होती तो क्या हालत हुई होती, कहा नहीं जा सकता। सन्निधान वहाँ हम सबके समक्ष बैटे हैं। फिर भी युद्ध के आघात से अभी पूर्ण स्वस्थ होना हैं। अपने प्राणों की आशा त्यागकर सन्निधान का घोड़ा जाँघ में जख्मी होकर जब गिरने ही वाला था तो अपने घोड़े को सरपट दौड़कार वे सन्निधान के पास जा पहुँचीं और उन्हें अपने घोड़े पर सुरक्षित स्थान पर ले आयीं। यह आश्चर्य की बात भी है और प्रशंसनीय विषय भी। दो-चार क्षणों की देरी हो जाती ला नीचे गिरे सन्निधान शत्रुओं के तीरों के शिकार हो जाते। पल्लव राजकुमारी जी के बायीं बांह पर तीर लगने पर भी अपने पावों को ढीला न छोड़कर सन्निधान की रक्षा का कार्य निबाहा है। वास्तव में यह एक अद्भुत कसमात ही है। इस तरह इन शक्ति-द्वय ने विजय और संरक्षण का कार्य दक्षता के साथ निर्वहण करके पोय्सलों की कीर्ति को संजोये रखा है। ये दोनों महामानिनी पोय्सल देश के नारी-समूह के लिए आदर्श और चेतनास्वरूप हैं। उनकी ही तरह देश के स्त्री और पुरुष देश के लिए मर मिटने को तैयार हो जाएँ तो हमारे इस राष्ट्र की और कोई आँख भी नहीं उठा सकेगा।" ___ “पल्लव राजकुमारीजी के इस महान कार्य की साधना के उपलक्ष्य में
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सांकेतिक रूप से आसन्दी-पांच सौ परगने के प्रदेश को भेंट में देने का निश्चय सन्निधान ने किया है। सन्निधान का यह कार्य प्रजा स्वीकार करेगी-यह विश्वास किया जाता है।" इतना कहकर हाथ जोड़कर सवको प्रणाम किया और साथ ही सन्निधान को भी प्रणाम किया।
लोगों ने आनन्दित हो करतल ध्वनि की। बम्मलदेवी चक्कर में पड़ गयी। वह उठ खड़ी हुई, कहना चाहती थी कि उसे यह सब कुछ नहीं चाहिए। किन्तु मुँह से शब्द भी नहीं निकला। वैसे ही सिर झुकाकर खड़ी रही।
___ पल्लव राजकुमारी को सन्निधान का निर्णय शिरोधार्य होगा। बिन मांगे जी मिला है उसे बर मानना चाहिए।" कहती हुई शान्तलदेवी उठ खड़ी हुईं। सुरिंगेय नागिदेवण्णा और अन्य दण्डनायक भी रुट खड़े हुए। सोने का परात लिये हरकारे ने परात पर हँका रेशम का वस्त्र हटाया। इसमें से माला लेकर शान्तलदेवी ने बम्मनदेवी को पहनायी। लोगों ने खुशी से तालियां बजायौं। __बम्मनदेवी कृतज्ञता वश पुलकित हो उठी। भावना के आवेग में बोली, ''दीदी, यह मेरी योग्यता और क्षमता के लिए बहुत बड़ी जिम्मेदारी है," कहकर उसने शान्तलदेवी के पैर छूकर प्रणाम किया।
उन्हें उठाती हुई शान्तलदेवी ने कहा, "वहिन, सन्निधान की प्राण-रक्षा करनेवाले तुम्हारे ये बाहु बन के समान सबल हैं। इस बाहुबल के होते हुए तुम किसी भी तरह का दायित्व वहन कर सकती हो, इस बात को तुमने प्रमाणित कर दिखाया है। पोसल सिंहासन कृतज्ञ है।"
शान्तलदेवी ने परात में से शासन-पत्र निकालकर बम्पलदेवी को दिया और सन्निधान के पास जा बैठी। हरकारा पीछे की ओर सरक गया। मुरिंगेय नागिदेवण्णा वगैरह भी अपने-अपने स्थान पर जा बैठे।
बम्पलदेवी चित्रवत् शासन-पत्र हाथ में लिये माला पहने खड़ी रही।
बिट्टिदेव ने मचिदण्डनाथ की ओर देखा। दण्डनाथ अपने आसन से उठकर सन्निधान के पास आये। बिट्टिदेव ने कहा, "पल्लव राजकुमारी कुछ कहना चाहती हैं। लेकिन लगता है, संकोच के कारण कह नहीं पा रही हैं। निस्संकोच होकर दिल खोलकर कहें तो हमें भी सन्तोष होगा। माँच अरसजी! उनसे कहिए कि संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं।"
उन्होंने कुछ झुककर प्रणाम कर बम्मलदेवी के समीप जाकर कान में धीरे-से कहा, 'संकोच की जरूरत नहीं। कह दीजिए।"
बम्मलदेवी ने वह शासन-पत्र उनके हाथों में पकड़ाकर, राजदम्पती को प्रणाम किया, शेष सभासदों को भी प्रणाम कर, उपस्थित जनसमुदाय को सम्बोधित करती हुई बोली, "कृतज्ञता से मेरा हृदय भर उठा है। मुँह से बात ही नहीं निकल रही
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हैं। चट्टला पहले ही शत्रु-सेना का रहस्य न बतलाती तो आज मैं इस गौरव का । पात्र नहीं बनती। सन्निधान को बचाने का सौभाग्य भगवान ने मुझे दिया, इतने से मैं सन्तुष्ट हूँ। शायद यह किसी पूर्वजन्म का सम्बन्ध रहा हो। इससे मुझे कृतकृत्य होने की तृप्ति मिली हैं। इसमें वैयक्तिक श्रद्धा ने अपना कर्तव्य निभाया है। वह प्रकारान्तर से राष्ट्रनिष्ठा भी हो सकती है। इसे और अधिक कहना उचित नहीं है। हम आश्रय की मांग लेकर आये, हमें इस राज्य ने आश्रय दिया। हमें अपना बनाया। मेरा सम्पूर्ण जीवन सन्निधान की सेवा के लिए धरोहर हैं। मैं इस धरोहर को सन्निधान की सेवा में अर्पण कर सकँ, भगवान मुझ पर इतनी कृपा करें। मेरी भगवान से यही प्रार्थना है। इन बातों के साथ सन्निधान और पट्टमहादंवी को कृतज्ञतापूर्ण प्रणाम समर्पित करती हूँ। यह आसन्दी पाँच सो परगना जो भेंट में प्राप्त हैं वह जैसा है वैसा ही रहेगा। निमिनमात्र के लिए मेरा नाम जुड़ा होगा। मैं सन्निधान के साथ रह सकें, इतनी कृपा हो।" कहकर वह बैठ गयी।
इतने में एक हरकार ने आकर उदयादित्य से इशारे से कुछ कहा । उदयादित्य ने भी इशार से ही कहा, "ठीक हैं, तुम जाओ।" और उठ खड़ा हुआ, बोला, "हमन सोचा कि इस समारोह के अवसर पर कुछ मनोरंजन का भी कार्यक्रम हो तो अच्छा । इस यादवपुरी में कोई उन्नत शिक्षणप्राप्त नर्तकी नहीं मिल रही है। हम सोच ही रहे थे कि मनोरंजन का कार्यक्रम कैसे हो कि इतने में आलुप राज्य की तरफ से एक नर्तकी के वहाँ आने की खबर मिली। सुना कि वह मतंकी सन्निधान के सामने अपनी नर्तनकला का प्रदर्शन करना चाहती है। उसने अपनी अभिलाषा प्रकट करते हुए इस आशय की प्रार्थना भी की, इसलिए उसके नृत्य-प्रदर्शन की व्यवस्था मैंने की है। उम्र अभी छोटी है। फिर भी सुनते हैं कि अच्छी शिक्षा पायी हैं। इसके लिए सन्निधान की अनुमति चाहता हूँ।''
अनुमति मिल गयी। नतंकी अपने वाद्यवृन्द के साथ प्रस्तुत हुई। अपने नाट्य से उसने सभासदों को चकित कर दिया। शान्तलदेवी भी चकित होकर उस नाट्य को देखती रहीं। बीच में एक बार महाराज की तरफ़ झुककर बोली, "पता नहीं, कहाँ, इस नर्तकी को देखा-सा जान पड़ता है।"
मझें भी यह चेहरा परिचित-सा लगता है। कौन है, कहाँ देखा, यह सूझ नहीं रहा है।' बिट्टिदेव ने कहा।
'नृत्य की गति, पदचाप, मुद्रा की रीति, भंगिमा-यह सब बलिपुर के सम्प्रदाय की-सी ही लगती है। आलुप राज्य में यह बलिपुर का सम्प्रदाय कैसे पहुँचा होगा?' शान्ताला ने जिज्ञासा की।
"बाद में बुलवाकर दयाफ़्त करेंगे। वह जो भी हो, नृत्य हमें बहुत अच्छा
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लगा।"
"नृत्य अच्छा लगा या नर्तकी अच्छी लगी?
" पट्टमहादेवी को ईर्ष्या की बोमारी भी है यह हमें पता न था ।" "सन्निधान की दृष्टि आजकल अपनी स्थिरता खोती हुई मालूम पड़ रही
हैं ।"
"तुम्हारा मतलब "
“चलो छोड़ो इस बात को वहाँ देखिए । रुक्मिणी और सत्यभामा की खींचातानी में कृष्ण की जो हालत बनी, नर्तकी उसे दिखा रही है।"
दोनों की दृष्टि उधर गयी। कहीं से बात उठी, कहीं चली गयी। लेकिन अब वहीं वह बात स्थगित हो गयी ।
नाट्य समाप्त हुआ। लोगों ने ताली बजाकर अपना सन्तोष अभिव्यक्त किया। नर्तकी सभामंच पर चढ़कर सन्निधान के निकट जाने लगी । शान्तलदेवी ने अपलक नर्तकी को देखा।
ब्रिट्टिदेव ने कहा, "उदय ! इस नर्तकी को पुरस्कार देकर भेज दो। हमारे पास तक आने की जरूरत नहीं। ऐ नर्तकी, वहीं रहो।" उन्होंने शान्तला की ओर देखा ।
नर्तकी सिर झुकाकर पल्लू मरोड़ती वहीं रुक गयी ।
बिट्टिदेव ने पूछा, "तुम्हारा नर्तन बहुत अच्छा था, पट्टमहादेवी कह रही हैं कि यह बलिपुर का सम्प्रदाय है। क्या यह सच हैं?"
नतंकी ने "हाँ" का संकेत सिर हिलाकर दिया, बोली नहीं ।
" तो यह बलिपुर का सम्प्रदाय आलुप राज्य में कैसे पहुँचा ?" बिट्टिदेव ने फिर से सवाल किया।
नर्तकी ने जवाब नहीं दिया ।
"सन्निधान के सामने कहते हुए डर लग रहा होगा।” उदयादित्य ने सूचित
किया |
“उसके पास जाकर तुम खुद पूछकर बताओ ।" विट्टिदेव ने कहा । उदयादित्य नर्तकी के पास गया। उसने कान में कुछ कहा ।
"बलिपुर के गंगाचारी के शिष्य से सीखा - यही बताती है ।"
विहिदेव ने शान्तला की ओर देखा। बोले, "तो मतलब यह कि पट्टमहादेवी गुरु
के
के शिष्य इस नर्तकी के
गुरु
हैं ।"
शान्तलदेवी ने पूछा, "तुम्हारे गुरु का क्या नाम हैं:"
उदयादित्य ने पूछकर बताया, "कहा है कि गुरु का नाम न बताने की आजा
है।"
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"ठीक ।" कहकर अपने गाने की सुवर्णमाला निकालकर, पोय्सल सिंहासन को यह बहुत पसन्द आया। या प्रतीक पुरस्कार लो।" कहकर शान्तलदेवी ने हार के साथ हाथ आगे बढ़ाया।
नर्तकी सर झुकाकर धीरे से पट्टमहादेवी के पास जाकर सामने खड़ी हो गयी। अपने हाथ से पट्टमहादेवी ने उसे हार पहना दिया। नतंकी ने पैर छूकर प्रणाम किया।
तब बिट्टिदेव ने पूछा, “इस नतंकी ने शायद गुरुदक्षिणा दी होगी न? पट्टमहादेवी की क्या राय है?"
"ओह, वह, वह बहुत पुरानो बात! युवगनीजी ने जो पुरस्कार दिया था उसे मैंने स्वीकार नहीं किया था, उसी पुरानी स्मृति के कारण यह प्रश्न किया, है न?'' शान्तलदेवी ने पूछा।
इतने में नर्तकी उठकर दूर जाकर खड़ी हो गयी।
बिट्टिदेव ने उदयादित्य से कहा, "उदय! इस ननकी से पूछकर बताओ कि उसने गुरुदक्षिणा दी है या नहीं"
उदयादित्य ने नर्तकी के पास जाकर पूछा और लौटकर कहा, “बताती है कि अभी गुरुदक्षिणा नहीं की है।'
"तां इस नर्तकी ने अपने परम गुरु की उस परम्परा का पालन न करके सिंहासन के पुरस्कार को स्वीकार किया है। इसका मतलब हुआ कि पट्टपादेवी की परम्परा का ही उल्लंघन किया। वह उचित नहीं होगा।" कहकर बिट्टिदेव ने व्याघ्रपदक से अलंकृत हार को उतारकर कहा, "अभी तुरन्त इस नर्तकी के गुरु को यहाँ बुलवाकर इस नर्तकी ही के हाथ से यह गुरुदक्षिणा दिलवायी जाय । ऐसा न होगा तो पट्टमहादेवी ने जो पुरस्कार दिया उसे स्वीकार करना गलत होगा।" हार के साथ बिट्टिदेव ने हाथ आगे बढ़ाया।
"यदि गुरु यहाँ उपस्थित न हों तो बेचारी क्या करे?'' शान्तलदेवी ने कहा। उदयादित्य ने नर्तकी की ओर सशंक दृष्टि से देखा। फिर भी नर्तकी ने घुटने टंककर हाथ आगे बढ़ा दिये ।
इस क्रिया का अर्थ समझकर, महागज से उस हार को ले आकर उदयादित्य ने नर्तकी के हाथ में दिया। नर्तकी ने उस हार को वैसे ही हाथों में लेकर धीरे-से पट्टमहादेवी के समक्ष जाकर हार को बढ़ाते हुए कहा, "गुरुवर्य इस शिष्य की दी हुई गुरुदक्षिणा स्वीकार कर अनुग्रह करें।
नर्तकी की बात सुनकर वेदी पर के और आसपास के सभी जन चकित झो गये।
शान्तलदेवी ने भी चकित होकर देखा उस नर्तकी को। आश्चर्ययुक्त आनन्द
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के साथ कहा, "ओह, तुम? तुम ही; पता ही न लगा कि तुम हो । बात जात बता देती है। स्त्री होकर भी मैं खुद समझती रही कि तुम लड़की ही हो ।'
“मतलब क्या है?" बिट्टिदेव ने आश्चर्य प्रकट किया।
“यह वहीं, हमारा कुमार बिविण्णा । स्त्री के वेश में सुन्दर षोडसी जैसा लग रहा है। है न?" शान्तलदेवी ने कहा ।
वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने चकित दृष्टि से नर्तकी के वेषधारी कुमार की ओर पिट्टियण नकाशन : . | उसके हाथ और वह व्याप्त पदकवाला हार-एक क्षण ज्यों-के-त्यों रहे आये।
"वह साधारण नहीं; बहुत बड़ी साधना की उपलब्धि है।' कहती हुई शान्तलदेवी ने उठकर उस हार को अपने हाथ में लेकर कहा, "कला में अपने शिष्य की इस महान सिद्धि को देखकर गुरु यह उपहार शिष्य को दे रही है। ली, आगे बढ़ाओ अपनी ग्रीवा ।''
बिट्टियाणा ने दो कदम पीछे हटकर कहा, 'यह तो दत्तोपहार होगा। और फिर पोयसल लांछन से वक्त यह कण्ठहार वीरों के गले में शोभा देगा। मझ जैसे के गले में नहीं। अब की विजय, पट्टमहादेवी के यद्ध-तन्त्र की बुद्धिमत्ता से, और पल्लव राजकुमारी बम्मलदेवी के सन्निधान की प्राणरक्षा के साहसपूर्ण कार्य से हुई हैं। शस्त्रास्त्र विद्या में वर्षों से शिक्षा देने पर भी हमें युद्धक्षेत्र में न ले जाकर, केवल विजयोत्सव में नृत्य के ही लिए जब सुरक्षित रखा है तब मेरी गुरुवर्या श्री श्री
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उभयक्रम नृत्य-प्रवीण-संगीत सरस्वती, रणकार्य में निपुण पट्टमहादेवीजी को ही यह गुरुदक्षिणा स्वीकार्य होनी चाहिए। यही न्यायसंगत है। यह सन्निधान की आज्ञा भी है। इस अवसर पर मेरी दो प्रार्थना है। उन्हें निवेदन करने के लिए मुझे
बादव ने कहा, “पमहादयान कृपया बट जाए। आगे क्या होगा इसकी प्रतीक्षा सभासद कुतूहल से करने लगे। शान्तलदेवी उस कण्ठपाला को हाथ में ही लिये बैठ गयीं। विट्टिदेव ने बिटियणा की ओर मुड़कर कहा, ''हाँ, अब कहो।"
''इस तरह केवल नृत्य के लिए मुझे सुरक्षित न रखकर मेरे पिता विण्णम दण्डनाथ की एवं मेरी जन्मदात्री माँ चन्दब्बेजी की मृत्यु समय की इच्छा को पूरा करने एवं पोयसल राज्य की रक्षा और उसकी प्रगति के ही लिए मैं अपना जीवन अर्पित कर सकूँ-यह अनुग्रह करें। स्वर्गवासी मेरे माता-पिता, अपना यह बेटा बाह-विन्यास का उपयोग युद्धक्षेत्र में न कर नाट्य-मुद्रा प्रदर्शन में कर रहा है, यह समझकर दुःखी न होवें। आप ही लोगों ने मेरे पूज्य पिता की निष्ठा और पराक्रम के विषय में घण्टौं वर्णन करके मुझे प्रोत्साहित किया है। गत युद्ध के समय ही
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मैं अपने कर्तव्य के पालन करने की उम्मीद रखता था। तब मुझे छोटा समझकर चहीं छोड़कर चले गये। मझे या ती नाट्याचार्य या फिर कामकाचार्य, इनमें से केवल एक बनना है। आज इस विजयोत्सब पर इस यारे में निर्णय हो जाय ऐसी मेरी अपनी विशेष इच्छा है। इतना कह झुककर प्रणाम कर वह चुप हो गया।
बिहिदेव ने पूछा, "यह तो तुम्हारी एक बात हुई। दूसरी बात?"
"इसका पहले निर्णय हो जाय, बाद में मैं दूसरे के बारे में निवेदन करूँगा।" बिट्टियण्णा बोला।
विट्टिदेव ने शान्तला की और देड : डोर समझ र भोक सन्निधान के सामने सिर झुकाकर कहा, "कुमार बिट्टियण्णा ने जिन दो विद्याओं को सीखा हैं उनमें से सिर्फ एक का उपयोग करने के लिए आज्ञा चाहता है। उसकी इच्छा के अनुसार निर्णय करेंगे तो दो गुरुओं में से किसी एक के प्रति अपचार होगा। यह सोचकर मन्निवान ने बह दायित्व मुझ पर छोड़ रखा है। सच है, मैंने इसे नृत्य विद्या सिखायी इसलिए मैं इसकी गुरु हूँ। यह योग्य शिष्य भी सिद्ध हुआ। आप लोगों ने इसकी कला की विविधता को देखकर आनन्द का अनुभव किया है। ऐसी काना को छोड़ देने तथा भविष्य में उसका उपयोग न करने की अनुमति मैं कैसे दे सकती हूँ? मानव के जीवन-संघर्ष में हार-जीत का जैसा अर्थ है वैसे ही कला द्वारा स्फुरित पानवीय मूल्यों की अत्यन्त आवश्यकता समाज के लिए है। दोनों ही त्याच्च नहीं। परन्तु अपने जीवन में कौन मुख्य हैं और कौन गौण-यह निर्णय स्वयं को ही कर लेना चाहिए। जो मुख्य होगा और महत्त्व का होगा वह प्रधान हो जाता हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि शेष विद्याओं को छोड़ देना चाहिए। उनका भी उपयोग, गौण होने पर भी, होता रहना चाहिए। इसलिए इस सम्बन्ध में बिट्टियण्णा को ही अपनी इच्छा का निवेदन करना होगा।" कहकर शान्तलदेवी बैट गयीं।
विष्ट्रियण्णा ज्यों-का-त्यों खड़ा रहा। थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद बिट्टिदन ने पूछा, ''पट्टमहादेवी ने जो कहा उसे समझे?"
पहले एक वार मैंने राजमहल के ज्योतिषी से पूछा था कि मैं आगे चलकर क्या होऊँगा। मेरी जन्मपत्री देखकर बताइए। उन्होंने बताया-उच्च कुज लग्न के केन्द्र में होने के कारण पंच महापुरुष योगों में से एक रुचिक योग तुम्हारे लिए है। तुम कुछ भी काम सीखो उसमें परिणत होओगे। बड़े होने पर तुम्हें ही सोचकर निर्णय कर लेना होगा। जैसे उन्होंने बताया वैसे ही मुझे सब विषयों में अभिरुचि है। इतना ही नहीं, मुझे किसी विधा को सीखने में कोई कार नहीं होता। तलवार चलाने में, धनुर्विद्या सीखने में, घोड़े को साधने में, चित्रकला में, नृत्य में-इनमें किसी को सीखते समय मुझे कोई कष्ट मालूम ही नहीं हुआ। सब आसान ही
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लगे। ऐसे ही व्याकरण, छन्दशास्त्र भी मेरे लिए कभी सरदर्द नहीं बने। बल्कि इन सबमें मुझे राज्पाही अन्य उन्होंने जो कहा राय है। पर मेरा अन्तरंग मेरे जन्मदाताओं की ही बात पर विचार करता रहता है। इसलिए मुझे युद्ध मुख्य मालूम पड़ता है। इसी का अनुग्रह करें।" चिट्टिया ने स्पष्ट किया ।
पट्टमहादेवी जी की बात भूल गये? उसी का अनुग्रह करने का अर्थ होगा नृत्य को त्याग दो। क्या यही तुम्हारी इच्छा है?" बिट्टिदेव ने सवाल किया ।
"मेरी कला की गुरुवर्या ने आदेश दिया है कि उसका भी पोषण होते रहना चाहिए। उनके आदेश को अस्वीकार नहीं कर सकता। मैं सन्निधान एवं उनकी गोद में पला हूँ। आप दोनों के आदर्श मुझमें समाये हुए हैं। आप ही के द्वारा चित्रित मेरे माता-पिता के चित्र मेरे मन पर अंकित हैं। मेरा लक्ष्य है कि मैं अपने पिताजी से बढ़कर प्रभु की सेवा कर अपने पिता का योग्य पुत्र कहलाऊँ। इसके लिए आवश्यक सभी तरह का शिक्षण देकर उसका उपयोग करने के लिए मुझे मौका न देकर मुझे दूर रखने के कारण मेरा मन बहुत दुःखी था। केवल आश्चर्य चकित करने तथा मन बहलाने के उद्देश्य से मैं उदयादित्यरस के सामने गिड़गिड़ाकर आज इस देश में आया। अब मैं पछता रहा हूँ कि बाद की बातें प्रकृत प्रसंग के अनुकूल नहीं रहीं। सन्निधान इसके लिए मुझे क्षमा करें। पट्टमहादेवी जी की जन्मपत्री में भी यह रुचकयोग है यही सुना है। इसीलिए वे इस युद्ध व्यापार में भी परिणत हैं। यह नृत्यकला मुख्य न होने पर भी, जैसे मेर लिए इस ज्ञान का पोषण करना जरूरी है, वैसे ही उनके लिए युद्ध-व्यापार अप्रधान होने पर भी उसका पोषण करना जरूरी है। इसी के अनुरूप उन्होंने अपनी कार्य-योजना को रूपित किया है। मैं उनका ही शिष्य हूँ। यहां प्रधान और अन्य विषय- इनमें एकरूपता हम दोनों में नहीं, इतना ही अन्तर है। हम सबके रहते हुए उन्हें आगे बढ़ाकर हम पीछे रह जाएँ तो यह हमारे पुरुषत्व के लिए ही गौरवहीनता की बात होगी। मेरी नृत्यकला मुझमें बच रहना हो तो उसे जिस प्रमाण में मुझमें होना चाहिए उसी प्रमाण में मेरी गुरुचर्या में रण-व्यापार बना रहना चाहिए। यह रण व्यापार आज की तरह प्रधान न बने। यह हो तो में अपने को कृतार्थ समझँगा । जनमते ही मैं माँ को खो बैठा। ऐसे मातृहीन मुझ पर मातृ- वात्सल्य की विमलधारा ही बहा दी पट्टमहादेवी ने उन्हें युद्धक्षेत्र की अनिश्चित परिस्थितियों का शिकार नहीं बनना चाहिए, यही मेरी आकांक्षा है। ऋषियों ने बहुत पहले ही कह दिया था मातृदेवो भव ! इससे देवत्व, पूजा, सुख, सन्तोष सभी बातों में उन्हीं का अग्रस्थान है- यह बात सिद्ध हो जाती है। ऐसी हालत में उन्हें दुःख-दर्द से दूर रखना हम पुरुषों का कर्तव्य हैं। इस सम्पूर्ण पोय्सल राष्ट्र की माँ हैं वे उनकी रणभूमि की स्फूर्ति और हस्त कौशल आदि से
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हम परिचित हैं। इस सुअवसर पर उन्हें 'रण- व्यापारनिपुण' कहकर घोषित करें। आगे से अपनी सारी शक्ति की वह धारा हममें प्रवाहित करने का अनुग्रह करें, और स्वयं मातृप्रेम की सारे संसार में बहाकर जती मानिनी मला मात्र बनकर रहें। मुझे यह वरदान देने की कृपा करें।" यह कहते हुए बिटिया ने बिट्टिदेव - शान्तलदेवी के चरण छूकर प्रणाम क्रिया ।
दोनों ने झुककर उसके कन्धे और पीठ पर हाथ फेरा। वह उठ खड़ा हुआ । बोला, "नतंन के लिए जो पुरस्कार दिया वह वैसा ही रहे। इसी स्त्री वेष में, माँ! मेरे इस वीरोचित निश्चय पर शक्ति का आवाहन कर एक तलवार देने का अनुग्रह करें ।"
बिट्टिदेव ने उदयादित्य की ओर देखा। उन्होंने महाराज का आशय समझकर एक परात में सुन्दर तलवार मँगवायी। अभी नर्तकी के वेष में ही बिट्टिया खड़ा था। शान्तलदेवी ने उसकी ओर मुड़कर कहा, "बेटा, तुम वीर बनो! तुमने जो नृत्य सीखा है, उसने तुम्हारे पैरों की योद्धा का भी बल दिया है। वह कैसी शक्ति है - इसे सन्निधान भी जानते हैं। इसलिए इस नृत्य का फल भी तुम्हें युद्धक्षेत्र में सहायक बनेगा। तुम्हारी आकांक्षाएँ बहुत ही युक्त ओर योग्य हैं। किसी को अपनी किसी भी शक्ति का अनुचित उपयोग नहीं करना चाहिए और उस शक्ति को जंग लगने देना भी नहीं चाहिए। औचित्य को समझकर उसके अनुसार चलना ही सूक्त मार्ग है। यहाँ सबको स्वातन्त्र्य प्राप्त है। इस स्वतन्त्रता से किसी को किसी तरह का दुःख-दर्द नहीं हो। इसका दुरुपयोग हो तो वह त्याज्य है । स्वतन्त्रता का प्रधान ध्येय राष्ट्र की उन्नति है। वहीं प्रधान लक्ष्य है। राष्ट्रहित की बात जब कहते हैं तो उसमें सन्निधान, पट्टमहादेवी, दण्डनायक, सेनानी, प्रजा-इन सबका भेद नहीं होना चाहिए। उसमें सब समान रीति से भागीदार हों । तुम्हारा युद्धोत्साह तो सहज ही है। ऐसा समझकर में अथवा सन्निधान मनमाना व्यवहार करें, कैसे यह साध्य होगा? सब लोगों को सभी समयों में उपयोग करना साध्य नहीं । उपयोग न करने की अन्यार्थ कल्पना भी उचित नहीं । तुम्हारी आयु अभी छोटी है। फिर भी गरम खून से पुलकित होकर जो उत्साह छलक रहा है, उसमें तुम्हारी विचारशक्ति कुछ कुण्ठित सी हुई हैं। अच्छा होगा यदि आगे जब तुम विचार करो तो तुम तुम न रहकर विचार किया करो। तुम्हारी तीव्र निराशा और अत्यन्त उत्साह ये दोनों पहलू आज यहाँ प्रकट हुए। तुम्हारे गुरु ने तुम्हें साहित्य को घोंटकर पिलाया है तो उसके बल पर तुम मुझे विरुदावली देकर सम्मानित करने चल दिये ! अब उस कर्तव्य पालन का बहुत प्रसार हो गया। इस प्रसार ने मुझे संकोच में डाल दिया। तुम्हारी आकांक्षा के अनुसार यह तलवार तुम्हारी वज्र-मुष्टि की शोभा बढ़ाए। राष्ट्र के लिए तुम्हारी सेवा किस प्रकार की
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________________ हो-सन्निधान मन्त्रणा-सभा में उस पर विचार कर निर्णय करेंगे। ठीक है न?" कहकर शान्तलदेवी ने अपने हाथ से लस तलवार को एक बार चमकाया। विधियण्णा ने उसी स्त्री-वेश में ही वीरोचित ढंग से घुटन टेककर बहुत विनीत भात्र से दोनों हाथों की अंर्जाल आगे बढ़ायी। शान्तलदेवी ने अपने हाथ से तलवार उसकी अंजलि में रखकर उसके सिर पर अपने दोनों हाथों से आशीर्वाद दिया, "वटा: तुम तंजस्वी होकर जीओ; राष्ट्र के कार्य में तुम्हारा जीवन उपयुक्त बना रहे। तुम्हारे माता-पिता तुम्हें राजमहल के बर्चस्व में छोड़कर चल बसे। उनकी आकांक्षाओं को सफल बनाने के लिए ही हमने अपनी शक्ति-भर योग्य शिक्षण दिया। वह शिक्षण तुममें अच्छी तरह पल्लवित हांगा--इसका विश्वास हमें हो गया है। तिस पर तुममें अब आत्म-स्थर्य का भी विकास हुआ है। इस वजह से हम अव यह समझ सकते हैं कि हमारी ज़िम्मेदारी एक सीमा तक बहुत कम हां गयी। वह प्रजा पांसल राष्ट्र की प्रतीक है। वह तुमसे इस बात की अपेक्षा करती है कि तुमसे गष्ट को शापनल और कीरिक सेवा मिले।" इतना कह पट्टमहादेवी अपने आसन पर बैठ गयीं। बिॉयण्णा पट्टमहादेवी द्वारा दी गयी उस तलवार को ऊपर उठाकर, चमकाकर, भाल से लगाकर तथा एक बार अपना पाथा महाराज की और और फिर पट्टमहादेवी की ओर झुकाकर प्रणाम करने के बाद उठ खड़ा हुआ और बोला, "आपके आशीर्वाद से मेरा जीवन सार्थक बने, पेरा जीवन पासल राजवंश की सेवा के लिए ही धरोहर बने। मुझे अपने माता-पिता से भी बढ़कर प्रेम से पाल-पोसका बड़ा बनानेवाले अपने इन राजदप्पती की और इनकी सत्सन्तान की उन्नति के लिा! मैं आजीवन परिश्रम करता रहूँगा-इस अवसर पर मैं यही प्रतिज्ञा करता हूँ। उपस्थित प्रजाजन इस पात्र एक बालक की बात न समझकर, अपना आशीवांद देते हए मेरी इस प्रतिज्ञा को सफल बनाने की शक्ति प्रदान करें।" उसने सागरोपम जनसमुदाय को प्रणाम किया। जनसमुदाय की तालियों की गड़गड़ाहट से सारा वातावरण झंकृत हो उठा। विट्टियण्णा यह देख पुलकित हो उठा / उसने फिर राजदम्पती के पैर छूकर प्रणाम किया। सभा समापन की घोषणा के साथ राजदम्पती सभामंच से उठे और राजमहल की ओर बढ़ गये। सभा विसर्जित हो गयी। GED पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 468