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पर अन्तरंग की आकांक्षा प्रकट करना ठीक होगा।' यों कहकर राजलदेवी ने उसे प्रोत्साहन दिया। सच तो यह है कि राजलदेवी ने भी स्वयं ऐसा ही कुछ सोच रखा धा। ___ बप्पलदेवी को ऐसा प्रोत्साहन आवश्यक भी था। राजलदेवी की इन बातों से धीरे-धीरे उसके मन की वह आशंका दूर होती गयी। अब तक के जीवन में उसे जिन उतार-चढ़ावों का अनुभव हुआ था, उनके कारण वह सब प्रकार से जीवन गुजारने की आदी बन गयी थी। अब उसे उसी सहजता से रहना कठिन नहीं था।
मंचिदण्डनाथ एवं अनन्तपाल युद्ध में गये थे, इसलिए बम्मलदेवी और राजलदेवी को राजमहल में ही रहना पड़ा। राजमहल के अहाते में पृथक् रहने की प्रार्थना करने पर तथा महाराज की सहमति मिलने पर भी खुद शान्तलदेवी ने उनकी इस सलाह को पाना नहीं।
महाराज ओर बम्मलदेवी की भेंट भोजन के वक़्त होती ही थी। बिट्टिया, कुमार वालाल और हरिवला साथ रहा करते थे, इसलिए उस समय आमतौर पर विशेष यातें नहीं हो पाती थीं। कभी-कभी कोई खबर युद्धक्षेत्र से मिल जाती और उसके बारे में बताना आवश्यक प्रतीत होता तो महाराज उसे बहुत संक्षप । बता देते थे। बम्मलदेवी के मन में जिन भावों का प्रवाह चल रहा था वैसा ही काल उस दिन के बाद रह-रहकर बिडेय के भी मन में उठ रहा था। यह सब अनुचित समझकर वे इससे दूर ही रहने की कोशिश किया करते।
पोसलों को प्रर्गात सबकी आँखों का काँटा बन गयी थी। यह मालूम हो जाने से बिट्टिदेव ने वेलापुरी और दोरसमुद्र को मजबूत बनाने के लिए आवश्यक योजनाएँ रुपित की थी, इसलिए उन्हें बार-बार दोरसमुद्र हो आना पड़ता था। उधर युद्ध भी चल रहा धा। फिर भी वेलापरी और दोरसमुद्र में सैनिक शिक्षण शिविर बराबर चलते रहे। विद्भिदेव बड़े ध्यान से इनकी निगरानी कर रहे थे। एक साधारण योद्धा से भी वे सीधे परिचित होने का कार्य कर रहे थे। इसके लिए कभी-कभी शान्तलदेवी भी उनके साथ जाया करती थीं । वेलापुरी की स्त्री-शिक्षणशाला की ज़िम्मेदारी तो उन पर हो घी।
राजदम्पती के इस व्यस्त जीवन को देखकर बम्मलदेवी और राजलदेवी अप्रभावित कैसे रह सकती? वास्तव में उन्हें किसी बात की कमी नहीं थी। नये-नये आने के समय के कुछ दिन और दृष्टि मिलने के बाद के कुछ दिन संकोच भाव में यों ही गुज़र जाने के बाद, जब सहज भावना से जीवन चलने लगा तो बम्मलदेवी को व्यर्थ ही बैठे-बैठे समय विताना अच्छा नहीं लग रहा था। अब वह भी राज्य के कार्यों में भाग लोना चाहती थी। परन्तु राजलदेवी से विचार-विमशं करने के बाद ही इस दिशा में यह आगे बढ़ पाती। गजलदेवी को भी बेकार बैटे
12 :: पट्टापास्त्री शान्तला : भाग दा