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________________ रहना पसन्द नहीं था, इसलिए उसने भी बम्मलदेवी की इस सलाह पर अपनी सहमति प्रकट की। एक दिन जब शान्तलदेवी अकेली थी, उपाहार के समय जब दोनों उनके साथ रहीं तब यम्मलदेवी ने ही शत छेड़ी, "सन्निधान एवं पट्टमहादेव जी के इस व्यस्त जीवन को देखकर हमें बहुत तृप्ति मिलती है। आश्रय की खाज में आयीं, आश्रय मिला; फिर भी इस आश्रय से मनोरथ सिद्ध हो गया-ऐसा नहीं लगता। आपके उदार आश्रय में हमें किसी बात की कमी नहीं। लेकिन हम राज्य के लिए उपयुक्त नहीं बन सकी, इस बात का हमें रंज है; मन में एक तरह की कशमकश चल रही है। "आती पूर्ण अश: नाक साथ मांजाय राष्ट्र के लिए ही युद्ध करने गये हैं। इससे बढ़कर कुछ और इस राज्य ने अपेक्षा नहीं रखी।'' शान्तलदेवी ने कहा। ___"वह तो उनकी बात हुई। हम स्त्रियाँ यों बैटे-बैटे खाती हुई निठल्ली बनी रहंगी तो मस्तिष्क कुछ काम के बिना सड़ जाएगा। हमें भी कुछ काम दें।" बम्मलदेवो ने कहा। "लड़कियों को पढ़ाएँगी?" "मैं केवल अश्वचालन ही सिखा सकती हूँ। इसके सिवाय में और कुछ नहीं जानती।" बम्मलदेवी बोली। "परन्तु अश्वचालन सीखनेवाली लड़कियों तो हैं नहीं?" "तो लड़कों को ही सिखाऊँगी।" "स्त्रियों से सीखने के लिए पुरुष माने तब न?" "तो मतलब हुआ कि कोई काम नहीं।' "यदि आपको ठीक लगे तो हमारी पाठशाला में आकर पढ़ सकती हैं।" "यों ही बैठे-बैठे समय गँवाने में यही अच्छा है।" "तो आप लोगों को सीखने की ख़ास इच्छा नहीं?" "छोटों के साथ बैठकर सीखने में..." "संकोच होता है, है न? परन्तु विद्या सीखनेवालों को किसी तरह का संकोच नहीं होना चाहिए। मुझे कोई आपत्ति नहीं। निर्णय आप स्वयं कर लें।" "जैसी आपकी आज्ञा। परन्तु..." "क्या " __ "आश्रय, निवास, खाना-पीना सभी पाते ही रहे हैं। अब तो पट्टमहादेवी से यह भी पाएँगे। हमें भी कुछ देने का मौका मिल जाता तो अच्छा होता।" 'पोरसल खुले दिल की देन को कभी अस्वीकार नहीं करते। वैसे ही दी जा पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 4211
SR No.090350
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages459
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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