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सकनेवाली सहायता के बदले में कुछ चाहेंगे भी नहीं। यह लेन-देन का व्यापार नहीं। पतियों के अनुसार ज ज करना होगा और उचित होगा उसे ही हम करेंगे। ___"पट्टमहादेवी जी यदि उदारता दिखाएँ तो मेरी अभिलाषा को भी एक राह मिल जाएगी-ऐसा मुझे लगता है।''
"कहिए!"
"पट्टमहादंबी की देखरेख में पलनेवाला बिहिगा, कुमार बल्लालदेव-इन दोनों को अश्वचालन सिखाने की स्वीकृति मिल जाय तो बड़ा उपकार होगा।"
'सन्निधान से पूछकर बताऊँगी।" "वहाँ तक स्वीकृति के लिए जाना पड़ेगा?''
"हां, बिदिगा को उनकी माँ महासाध्वी दण्डनायिका चन्दलदेवी ने हमारी गोद में डाल दिया था। वह जन्मते ही अपनी मां और उसी वक्त युद्धक्षेत्र में अपने पिता-दोनों को एक साथ खो बैठा था। उससे सम्बन्धित किसी भी बात को सन्निधान की जानकारी के बिना सम्पादित नहीं किया जा सकता।"
''पट्टमहादेवी की जैसी इच्छा ।''
फलस्वरूप बम्मलदेवी और राजलदेवो दोनों शान्तलदेवी को बालिकाओं को पाठशाला में जाने लगीं। विट्टिगा तथा कमार बल्लाल को अश्वचालन विद्या सिखाने की अनुमति भी बम्मलदंवी को मिल गयी। ___ युद्धक्षेत्र से अब तक कुछ खबरें मिल जाया करती थीं। युद्ध तोरदार न था, केवल युद्ध के नाम से परेशान करने की एक तरह की युद्धनीति थी। सौंप भी न मरे और लाठी भी न टूटे वाली बात हो रही थी।
इधर बेलापुरी ओर दोरसमुद्र को सुन्दर बनाने के कार्य भी चल रहे थे।
विष्टिगा का विद्याभ्यास विलय भट्टारक, अजितसेन, मलधारी गुरुपरम्परा के जगद्गुरु श्रीपाल वैद्य द्वारा चलता रहा। उन्होंने उसे तर्कशास्त्र, गद्य-पद्य आदि के साथ स्याद्वाद में भी शिक्षण दिया । सैनिक शिक्षण के लिए माचण दण्डनाथ तो थे ही, फिर भी स्वयं महाराज बिट्टिदेव ही उसकी सहायता करत, उसे मार्गदर्शन भी देते रहे। बैंजरस वृद्ध होने पर भी शिक्षण देने में समर्थ थे, इसलिए तीरन्दाजी में विडिगा न बहुत जल्दी निपुणता प्राप्त कर ली। उसने अपनी इस दक्षता से अपने गुरु को भी चकित कर दिया था। ऐसे ही अवसर पर अश्व-परीक्षण, शाश्वचालन आदि सिखाने के लिए बम्मलदेवी मिल गयी थीं। सम्पूर्ण राजपरिवार का प्रिय पात्र बनकर राजकुमार ही की तरह पोषित बिट्टिगा को शिक्षण देने का अवकाश पिलने से बम्मलदेवी को बहुत खुशी हुई थी। इस अपार कृपा के लिए वह ईश्वर को बार-बार धन्यवाद देती रही।
430 :: पट्टमहादेवी शान्तता : भाग दो