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"सच है। इकलौती पुत्री होने के कारण आपको ऐसा ही करना चाहिए। मुझे बहुत खुशी हुई यह जानकर आपकी बेटी को इच्छा के अनुसार ही उसे वीर योद्धा पति मिले, भगवान ऐसा ही अनुग्रह करें। मेरे दोनों बेटों का विवाह हो चुका है, अन्यथा मैं ही आपकी बेटी को बहू बना लेता।" दण्डनायक ने कहा । दण्डनायिका ने होठ काट लिया।
" आपकी इस कृपा के लिए मैं कृतज्ञ हूँ। अब तक तो उसका पाणिग्रहण करनेवाला भी कहीं न कहीं पैदा हो ही गया होगा। और फिर आप ही कहिए, भगवान की मरजी के आगे हम अपनी चलानेवाले कौन होते हैं?"
सच है। फिर भी हमें प्रयत्न तो करना ही चाहिए न कहीं उसके योग्य घर की खोज की है?" दण्डनायक ने प्रश्न किया।
"नहीं, अभी कोई कोशिश नहीं की।"
"यदि आप स्वीकार करेंगे तो हम किसी योग्य सम्बन्ध का पता आपकी तरफ़ से लगाने की कोशिश करेंगे !"
"आपकी कृपा ही हमारे लिए बहुत बड़ी चीज़ है, दण्डनायक जी चालुक्य पिरियरसी जी ने यही बात कही। उसके सम्बन्ध में सबकी ऐसी सदिच्छा का होना हम अपना सौभाग्य मानते हैं।"
बात न जाने इसी तरह कब तक चलती रहती कि इतने में दडिगा मे आकर निवेदन किया, "प्रधानजी ने तुरन्त बुलवाया है।"
बाल वहीं रुक गयी। हेगड़े आज्ञा लेकर चले गये। दण्डनायक भी राजमहल का लिबास पहनकर प्रधानजी के निवास की ओर रवाना हो गये।
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नायिका चामब्बे अकेली बैठी सोचने लगी कितना घमण्ड ! कहता है। कि पिरियरसी जी इसकी लड़की के लिए योग्य वर की खोज करेंगे। कहावत ही है - 'चोर का गवाह गिरहकटा' । किसी वीर स्मारक का बहाना करके वह क़िस्सा सुनाने लग गया। इस सबके पीछे निश्चित ही कोई षड्यन्त्र है। सम्भवतः उस हेग्गड़ती ने पिरियरसी को भी कुछ करके अपने वश में कर लिया हो। उनको मध्यस्थ कर अपना उद्देश्य साध लेगी। बड़ी चण्ट औरत है, ऊपर से ही मासूम-र म-सी लगती है। उसके इस वशीकरण मन्त्र का प्रतिकार करना ही होगा। दूसरा कोई चारा नहीं । चामब्बे न जाने कब तक यही सब सोचती रही।
हेगड़े मारसिंगय्या अपने मुकाम पर पहुँचे ही थे कि उन्हें युवरानी जी का बुलावा मिल गया। वह सीधे राजमहल की ओर चले गये। रेविमय्या ने हेग्गड़ेजी के आने की खबर युवरानी को दी और आदेशानुसार अन्दर ले गया।
20: पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो