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एक दूसरी कोकिला ने उसका जवाब दिया। सबकी आँखें अमराई की और मई गयीं। आवाज उसी ओर से आयी थी। फल-फूल से लदे आमों में सबमें एक भावी आशा उत्पन्न कर दी। सूर्यास्त का समय सन्निहित था इसलिए सब राजमहल की तरफ रवाना हुए।
इधर राजमहल के विस्तरण का कार्य तीव्र गति से चल रहा था। महाराज का विवाह ही एक सीमित परिधि में जब सम्पन्न हुआ था तो बिट्टिदेव का विवाह भी इसी तरह सादे ढंग से सम्पन्न करने की व्यवस्था की गयी। इसी अवसर पर उदयादित्य के उपनयन को भी सम्पन्न करने की सलाह एचलदेवी ने दी जो स्वीकार कर ली गयो। ग्रहगति अच्छी होने के कारण विवाह से एक-दो दिन पूर्व उपनयन का मुहूर्त ठहराया गया। पुरोहितों ने प्रशस्त मुहूतं दोनों के लिए ठहराकर निश्चित किया था। जिन-जिन को आमन्त्रण भेजना था, सबको भेज दिया गया।
इधर-उधर की बातों के सिलसिले में रेविमय्या ने एचलदेवी से कहा, ''पिरियरसी जी के लिा भी आमन्ना भेजने तो अत्रया होला, यह विवाह उनके लिए बहुत प्रिय है।"
"वह सब राजनीतिक विषय है। आमन्त्रण भेजना न भेजना राजमहल के अधिकारियों से सम्बन्धित विषय हैं। परिस्थिति को देखने पर यही लगता है कि आमन्त्रण भेजने की सम्भावना नहीं। जैसा तुमने कहा पिरियरसी जी को यह विवाह प्रिय है। विवाह की बात उन्हें मालूम पड़े, और उन्हें स्वतन्त्रता मिले तो वे जरूर इस विवाह में पधारकर आशीष देंगी ही। परन्तु वे पराधीन हैं। फिर भी तुम्हारी यह बात छोटे अप्पाजो के समक्ष रमूंगी। चाह कोई आए, तुम रहो नहीं पर्याप्त है। पहले से यह तुम्हारी बड़ी आकांक्षा रही। वह अब सफल हो रही है।" एचलदेवी ने कहा।
वहाँ हेग्गड़े के घर में भी बुतुगा यही बात करता रहा : "मालिक किसी तरह से इस विवाह में पिरिबरसी जी को बुला लाने का काम करें । अम्माजी उनके लिए प्राण समान हैं। मालिक और मालकिन तो उनके लिए बहुत आदरणीय हैं। वे और चक्रवती जी दोनों आएं तो इस विवाह में चार चाँद लग जाएँगे।" ___ 'वह सब राजमहल का काम है। फिर जाजकल चक्रवती हमारे विरोधी बन गये हैं, राजमहलवाले उन्हें बुलाएंगे कैसे?"
"पालिक, यही समझ में नहीं आ रहा है। तब उनकी जान बचाने और युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए हमारे प्रभु की आवश्यकता थी। पिरियरसी जी के गौरव को बचाने और उनकी रक्षा के लिए आप और मालकिन की आवश्यकता थीं। अब एकदम वह विरोध क्यों? जब ज़रूरत पड़ी तो एक तरह से, जब जरूरत नहीं तो दूसरे ढंग से व्यवहार? यही है चक्रवती की नीति? मुझे ही भेज दीजिए,
272 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो