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दांडगा ने कविराज को उचित आसन पर बैठाकर इण्डनायिका को ख़बर भिजवा दी। दण्डनायिका आयी।
कवि ने उठकर प्रणाम किया।
"बैठिए सब कुशल तो है?" दण्डनायिका चामध्ये ने पूछा ।
"सच कुशलपूर्वक हैं। आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है क्या? कुछ धकी थकी-सी दिखाई पड़ रही हैं। तबीयत कैसी है? कवि नागचन्द्र ने औपचारिकता पूरी की।
“कुछ नहीं, सब ठीक है। आप बैठिए खड़े क्यों हैं?" कवि नागचन्द्र बैठ गये । चामब्बे ने भी आसन ले लिया। फिर कुछ क्षणों का मौन । बातचीत कौन शुरू करे? जिन्होंने बुलवाया उन्हीं को आरम्भ करना चाहिए न? कविजी इसी में बैठे रहे। वाल को में नहीं आया तो कवि से कुछ न कहकर नौकरानी देवव्वे को आदेश दिया, "देखो, कविजी आये हैं, गरम-गरम दूध लाओ इनके लिए !"
'आपने बुलाया था' कहकर बात शुरू करने के लिए कवि ने एक बार सोचा भी लेकिन एकाएक फिर मन बदल गया । चुप रहना ही उचित समझा । कब्बे जल्दी से दूध रखकर चली गयी।
चामब्वे ने कहा, "लीजिए, दूध लीजिए! "
दूध का कटोरा हाथ में लेकर कवि ने कुछ संकोच के साथ इधर-उधर देखा । "क्यों, क्या चाहिए था दण्डनायिका ने पूछा । "कुछ नहीं, आपके लिए नहीं आया, इसलिए..." "अभी-अभी ही लिया है मैंने, आप लें ।"
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कवि झिझकते हुए दूध पीने लगे। "बलिपुर कैसा है, कविजी "
"क्यों दण्डनायिका जी ने बलिपुर नहीं देखा है?" "अगर देखा होता तो आपसे क्यों पूछती ?"
"बहुत ही अच्छी जगह है। शिल्पकला का तो जन्मस्थान है। और फिर वहाँ के लोग बहुत अच्छे लगे मुझे। छोटे से लेकर बड़े-से-बड़े हेगड़े तक सभी बहुत ही सुसंस्कृत, बहुत ही अच्छे लगे हैं। वहाँ की परम्परा हो शायद ऐसी है । विद्या के लिए वहाँ प्रथम स्थान हैं। विहारों में मठ-मन्दिरों में विद्यार्जन की पर्याप्त सुविधाएं हैं। मुझे बहुत ही पसन्द आया वह स्थान । वहीं का छिपाव दुराव रहित खुला सरल जीवन और वहाँ के लोगों में आपस का विश्वास! ऐसा निष्कल्मष जीवन अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। हेग्गड़ती जी का दण्डनायिका जी के लिए वैयक्तिक रूप से एक निवेदन भी है कि आप सब एक बार बलिपुर पधारने की कृपा करें। दण्डनायिका जी के पास निमन्त्रण भेजने की उन्होंने सोची भी थी,
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो: ५