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तकबद्ध और संयम से पूर्ण बातों ने रानियों पर कुछ अनुकूल ही असर किया। उनकी बातों के विरुद्ध कुछ कहने का किसी ने प्रयत्न नहीं किया। लेकिन यह भी नहीं कहा कि हाँ ठीक है।' उनके मौन को सम्मतिसूचक मानकर शान्तलदेवी फिर कहने लगे
___“पटरानी जी और आप सब मिलकर हमें अनुमति दें तो इन चुगलखोरों का पता और उनका लक्ष्य-दोनों को जानने की कोशिश करूँगी। आप लोगों को पहले ऐसी बातों का अनुभव हो चुका है। आप लोग जानती ही हैं कि उस वामाचारी
और चोकी की करतूत का फल क्या हुआ। ऐसी स्थिति इस राज्य में फिर न हो। फ़िलहाल राजमहल में रहनेवाले हम ही तो हैं। हम अपने पीट-पीछे कोई कुछ कहे तो सुनेंगी ही नहीं, सुनें भी तो उसके आधार पर कोई निर्णय नहीं करेंगी-वों दृढ़ संकल्प हमारा होना चाहिए। हमारी भलाई हमारे ही हाथ है, इधर-उधर की बातों को सुनाकर नचानेवालों के हार्यों में नहीं। हमें ऐसे लोगों के हाथ में नहीं पड़ना है। जो मैं कह रही हूँ यह आप लोगों को ठीक लगे तो महाराज के आने तक हम सब एक होकर रहें और अब तक के मनोमालिन्य को भूल जाएँ। इन चुगलखोरों और स्वार्थ-साधकों का पता लगाएँ। महाराज के लौटने पर सब मिलकर उनको बतायें और फिर निर्णय करने का दायित्व भी उन्हीं पर छोड़ दें। इस पर पटरानी जी का क्या आदेश है."
"अकेली का ही निर्णय क्यों? सब मिलकर ही कुछ निर्णय कर लें।" “उसी निर्णय को पटरानी जी कहें तो हम सबके लिए सम्मत होगा।"
"आप जैसा कहें वही करेंगी। महाराज को सारी बात बता दी जाएगी। फिर ने ही निर्णय करें। बाकी सब बातें ज्यों-कीत्यों चलें। कहनेवाले कुछ भी कहते रहें; सुनकर कोई निर्णच न करके चुप रहें। अगर आपके कहे अनुसार, इन चुग़लखोरों का लक्ष्य बुरा है, इसका पता लग जाए तो उनके साथ क्या करना चाहिए, इसका विचार बाद में करेंगे।" पटरानी ने कहा।
"अब ठीक हुआ। जन्मोत्सव और सीमन्त समारम्भ-दोनों को कैसा मनाना होगा इसका निर्णय सब मिलकर कर लें। आप दोनों की राय है कि धूमधाम न हो, मुझे भी वही ठीक लगता है। अभी दण्डनायिका एचियक्का यहीं हैं। माचण दण्डनाथ जी की पत्नी, लक्कलदेवी भी हैं इन्हीं सुमंगलियों के समक्ष इस उत्सव को अन्तःपुर की स्त्रियों तक सीमित रखकर मनाएँ, यहीं मुझे ठीक लगता है।" शान्तलदेवी ने कहा। __ "तीन की जगह पाँच सुमंगलियाँ हों, दोनों मन्त्रियों की पलियों को भी आमन्त्रित कर लें तो ठीक होगा।" पधलदेवी ने कहा।
इस तरह किसी तरह के विवाद के लिए मौका न देकर पट्टमहादेवी पद्मला
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 319