SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उल नाट्या सहारा लोप में की ना गरे। उनकी उपस्थिति का लाभ पूर्णरूप से उठाया शान्तना ने। उसने औत्तरेय नृत्य-पद्धति में भी दक्षता प्राप्त कर ली। तब तक बिट्टिगा तुतलाने लगा था और थोड़ा चलने भी लगा था। वह शान्तला का अनुकरण करने लगा। मैं भी नाचूँगा" कहता हुआ उछल-कूदकर गिर पड़ता। चीर. लगने पर गने लगता। "बेटा, तुम्हें अपने पिता से भी उत्तम दण्डनाथ बनना है। तुम्हें वह नृत्य क्चों" कहकर शान्तला उसे गोद में लेकर समाधान करती। इसी बीच बिट्टिदेव का जन्मदिन आया। एक दो दिन के लिए महाराज और गनियाँ वहाँ आ गयीं। इस दिन शाम को राजमहल में सोमित ढंग से बिट्टिदेव के सन्तोषार्थ नृत्य और संगीत का आयोजन हुआ। शान्तला ने गीत के साथ दोनों प्रकार के नृत्य का प्रदर्शन किया। मृदंग और तबला महापात्र ने ही बजाया। उसकी बहुत दिनों की इच्छा आज पूरी हुई थी, वह बहुत तृप्त और सन्तुष्ट था। शान्तला के जोर देन पर महामातृश्री और महाराज की अनुमति प्राप्त कर महारानियों ने भी गान और नृत्य किया। उन लोगों ने भी पर्याप्त दक्षता पा ली है-इसका साक्ष्य उस प्रदर्शन से मिल गया। महाराज बल्लाल ने कहा, "शान्तलदेवी ने तो बचपन से यह विद्या सीखकर उसमें पाण्डित्य पाया है-ठीक है, पर उस स्तर तक पहुँचना साध्य न होने पर भी तुम लोगों ने भी जितना सीखा वह क्रम प्रशंसनीय नहीं है। बहुत कुछ दक्षता दिखाई दे रही है। पहले जब तुम्हारा नृत्य जैसा देखा था उससे इस अब के नृत्य की तुलना नहीं। यह मेरे लिए गर्व का विषय है। इस सम्बन्ध में तुम लोगों ने मुझसे कभी कुछ कहा नहीं?" "हमने तो इतना अच्छा सीखा नहीं जो कहने लायक रहा हो। आपने तब भी प्रशंसा की थी और आज भी कर रहे हैं। अगर उस समय की आपकी उस प्रशंसा से तृप्त हो गयी होती तो आज हम इतना भी नहीं सीख पातीं। सन्निधान के भाईजी चामला द्वारा ग़लती सुधारने का संकेत करते रहे, इस कारण से हमने कम-से-कम इतना तो सीख ही लिया। इम और चार जन्म ले लें तो भी उतना नहीं सीख सकेंगी जितना शान्तला ने सीखा-समझा है। एक समय था जव हमारे अज्ञान और अन्य प्रचोदनों के कारण शान्तला के विषय में, उसकी शक्ति और सामथ्य के बारे में कुछ ग़लत-सलत खयाल थे। कभी-कभी उसके प्रति हमने अनादर का व्यवहार भी किया था। उसके सुसंस्कृत सूक्ष्म और सुलझे हुए विचार हैं। हमारे अज्ञान के कारण जो ग़लती हुई उसके लिए हमें क्षमा करके उसने सच में ही हमारा उपकार किया है। उस उपकार को हम कभी नहीं भूल सकतीं। औतरेय नृत्य-कला में भी इतनी जल्दी इतनी अच्छी प्रवीणता पा 266 :: पट्टमहादेवी शान्नला : भाग दो
SR No.090350
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages459
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy