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यही सब सोच-विचारकर वह अपनी बड़ी दीदी के पास ययी। उसकी मुखस्तुति करके, बढ़ा-चढ़ाकर उसकी प्रशंसा करके बोली, “योष्पदेवी के हाथ का कौर मुँह तक नहीं पहुँचा, फिर वह उसे न मिले इसके लिए तुमने सन्निधान को अपने निवास से निकलने ही नहीं दिया तो समझा कि बहुत जबरदस्त युक्ति का तुमने प्रयोग किया। तुम्हारी जैसी बुद्धिमत्ता हममें होगी भी कैसे: यह सब देखकर कह सकती हूँ कि ऐसी बातों में अपनी बुद्धि को दौड़ाने में तुम तो माँ से अधिक चतुर हो । मुझे शायद किसी साधारण व्यक्ति से पाणिग्रहण करके कहीं पड़े रहना चाहिए घा: तुम्हारी उदारता के कारण मुझे भी सनी बनने का अवसर मिला था। तुमने बड़ी उदारता के साथ ऐसी व्यवस्था की कि साल में दो ऋतुओं का समय सन्निधान के संग रहने की तृप्ति मुझे प्राप्त होनी चाहिए थी। साल पर साल बीत गये। मैं भी तुम्हारी ही तरह भाती हूँ परन्तु इस धा नो मिसरे के लिए ल्या करना चाहिए-यह सोच-सोचकर थक गयी; मुझे कोई रास्ता ही नहीं सूझा। तुमसे पूछने का विचार मन में आया, परन्तु फ़िलहाल तुम्हारा मन भी सहवास न रहने के कारण कुछ इस्टे विचारों में डूबा था और दुःखी था। मेरा मन कहता था कि इस सम्बन्ध में तुमसे बातचीत कर तुम्हें परेशानी में डालना ठीक नहीं ! इसलिए वर्षों तक ऐसी ही तन्हाई का जीवन व्यतीत करती रही। अब तुम्हारे पास पति-भिक्षा माँगने आयी हूँ। पहले जैसी उदारता दिखाकर पी वह भिक्षा देकर मेरी भी भूख मिटाने की कृपा करो।"
"देखो चामु, मुझे तुम पर या बाप्पी पर कोई द्वेष नहीं. कोई असमाधान नहीं। पोसलों की राजगद्दी मेरे बेटे को या तुम्हारे या बोप्पो के बेटे को ही मिलनी चाहिए। इस समय उस अधिकार को हमसे छीनने के लिए और खुद गद्दी पर बैठने के उद्देश्य से राजमहल में एक षड्यन्त्र रचा जा रहा हैं। इसे जानकर मैंने निश्चय किया कि इस षड्यन्त्र को ख़त्म ही कर देना चाहिए। इसलिए सन्निधान को चिढ़ाकर, चेतावनी देकर उन्हें मैंने अपना वशवतीं बना लिया है। परन्तु एक बात मुझे खटक रही है। सोच रही थी कि इसके लिए क्या करूं। वैद्य कहते हैं कि सन्निधान की नसें ढीली हो गयी हैं। उन्हें उत्तेजित नहीं करना चाहिए। परन्तु सन्निधान इस बात पर जिद पकड़े बैठे हैं। इस विषय में मेरी इच्छा-अनिच्छा की बात सुनते ही नहीं। मेरी कही बात को उल्टा मुझपर ही प्रयोग करते हुए कहते हैं : 'बेचारी को भूखे रखना ठीक नहीं। पोयसल महाराज इस आरोप को न सह सकेंगे कि ये पोयसल रानियों को तृप्त नहीं कर सके। इस तरह जिद पर अड़े रहते हैं। शायद मेरे ऊपर के गुस्से को इस तरह अपने ही ऊपर प्रयोग करके, म्वयं को दण्ड दे रहे हैं. यही लगता है। अतः वे तुम्हारे रनिवास में आ जाएँगे तो तुम्हारा भी हित होगा, उनका भी। इसलिए तुम सन्निधान के पास जाकर
पमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 379