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में आना पड़ा। चारुकीर्ति पण्डित आये, देखा और कहा, "पहले के मस्तक रोग . के प्रभाव के कारण सन्निधान की नसों में दुर्बलता आ गयी है। इन्हें उत्तेजित करने जैसी कोई क्रिया अत्यधिक हो जाए तो वही बीमारी दुबारा लग सकती है, इसलिए सावधान रहना अब अत्यन्त आवश्यक है।"
"आपके इस सन्निधान का जीवन सब तरह से व्यर्थ है। इससे पूरे राजमहल में हलाहल विष फैलाने के बदले हम अकेले पी लें यही अच्छा है। हम इसी निश्चय पर पहुँचे हैं। इस निश्चय के अनुरूप हमें अपने जीवन को रूपित कर लेना है। आप अपना काम करें, हम अपना काम करेंगे। हमें तो अपने सुख से राजमहल एवं राष्ट्र का हित प्रधान है।"
राष्ट्रहित और राजमहल का हित दोनों के लिए सन्निधान का हित बहुत प्रधान है।"
___ "आपकी दृष्टि में ऐसा हो सकता है। आज की स्थिति देखते हुए राजमहल का हित और राष्ट्र का हित. इन दोनों से हमारे हित का कोई वास्ता नहीं। राष्ट्र हित के लिए हमारा बलिदान ही अच्छा यही निश्चय हमने कर लिया है। भगवदिच्छा क्या होगी सो मालूम नहीं। आप अपना काम करें। फल की ओर देखकर निराश न हो।"
पण्डित चास्कीर्ति ने सोचा कि अब इनसे बात करना व्यर्थ है। उन्होंने जो दवा देनी थी, दे दी। वहाँ से चलकर वे एकान्त में बिट्टिदेवरस से मिले और उन्हें समझाकर कहा, "राजाजी! सन्निधान को समझा-बुझाकर आपको उनकी मानसिक पीड़ा के परिहार की कोई युक्ति निकालनी होगी। ऐसा न हुआ तो कोई दवा काम न आएगी। उनकी कृपा से मुझे जो विरुदावली प्राप्त है, यह अर्थहीन हो जाएगी।"
विष्टिदेय जानते थे कि यह काम इतना आसान नहीं। पिछली वर्धमान जयन्ती के समय से बल्लाल पट्टमहादेवी के रनिवास से बाहर निकले ही नहीं थे। इससे उनकी लाचारी का उन्हें पता था। पूर्व घटित सारी घटनावली की पृष्ठभूमि के विचार से उन्हें यह अच्छी तरह मालूम हो गया था कि बात पेचीदा है। फिर भी उन्होंने सोचा कि महाराज को अपने निश्चय से पसङ्मुख करना होगा। शान्तलदेवी से भी सलाह-मशविरा किया 1 रानी चामलदेवी पर विश्वास कर, अपने अंतरंग में लेकर उन्हें आगे कर निवास को बदल देना शायद अच्छा हो-यही मानकर दोनों ने विचार किया। फिर चामलदेवी और बोपदेवी इन दोनों की इच्छा के अनुसार मरियाने दण्डनायक जी को बुलवाया।
शान्तलदेवी ने चामलदेवी से एकान्त में बातचीत की। पहले से भी चामलदेवी की रीति एक तरह से सीधी ही रही कहा जा सकता है। उसने भी यही विचार किया कि सन्निधान के बिगड़ते हुए स्वास्थ्य को और बिगड़ने से रोकना चाहिए।
37 :: पमहादेवी शान्तला : भाग दो