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________________ समाप्तप्राय था। छोटी नदी भरपूर होकर हेमावती की ओर धीरे-धीरे बह रही थी विट्टिदेव सोच रहा था कि बात को किस तरह से छेड़े कुछ विचार-विमर्श करने के ही इरादे से भाई को बुला लाया था - यह वल्लाल को मालूम नहीं था । रेविभय्या जानता था, इसलिए यह बड़े कुतूहल से सुनने की प्रतीक्षा कर रहा था। बल्लाल ने अचानक कहा, "छोटे अप्पाजी, तुम बड़े भाग्यवान हो ।" बिट्टिदेव तो सोच ही रहा था कि बात कैसे छेड़े भाई की यह बात सुनकर वह मानो स्वप्न से जागा और पूछा, “क्या कहा ?" I वह मुस्कुराता हुआ बोला, “कहा कि तुम बड़े भाग्यवान हो ।" बल्लाल की बात सुनकर बिट्टिदेव बोला, "भैया, हम सब भाग्यवान हैं। प्रभु जैसे विशाल हृदय के पिता और प्रेममयी माता की सन्तान होकर हम तीनों ने जन्म लिया है। ऐसी दशा में हम तोनों धन्य हैं और भाग्यशाली हैं। तब मेरे ही लिए कौन-सा खास सींग निकला हैं?" "अप्पाजी, तुम ऐसा मत समझो कि मैंने ईर्ष्यावश यह बात कही है। मैंने हार्दिकता में यह बात कही है।" बल्लाल ने कहा । "आपकी इस विशेष भावना के लिए कोई कारण भी तो होना चाहिए न?" विष्टिदेव ने पूछा । "माँ सदा कहती रहती है कि पश्चात्ताप ही बड़ा प्रायश्चित्त है। एक समय था जब मेरे मन में इस हेग्गड़े परिवार और उनकी बेटी के विषय में अच्छे भाव न थे। उस भाव को मैंने कभी छिपाकर नहीं रखा, कई प्रसंगों में व्यक्त-अव्यक्त रूप से और मेरे अपने व्यवहार से प्रकट होता रहा। लेकिन अब मैं भी यह सोचता हूँ कि मैंने जो कुछ समझा था वह ग़लत था। मेरे मन में उनका जो चित्र या वह कुछ दूसरा ही था। परन्तु अब उनका जो चित्र मेरे मन में हैं वह कुछ और ही हैं। प्रभुजी, माताजी, तुम और रेविमय्या जी उत्साह उनके प्रति दिखाया करते थे उसे मैं अर्थहीन मानता था। यह उत्कट प्रेम के कारण बना उत्साह समझता था। इस वजह से आप लोग उनके बारे में जो कुछ कभी-कभी कहा करते थे उन वार्ता का मेरे मन पर कोई असर नहीं होता था । परन्तु उससे एक अच्छा परिणाम हुआ। खुले मन से तथा खुली आँखों से देखकर सब बातों पर विचार करने की एक नयी दृष्टि का उद्भव मुझमें हुआ। जब से बेलगोल आये, तबसे अब तक के उनके व्यवहार, बातचीत, सविनयपूर्ण सहृदयता आदि को परखने के बाद मैंने यह समझा कि इनमें कृत्रिमता और दिखाया नहीं। जैसा इनका हृदय है वैसा ही इनका व्यवहार है। मेरी यह निश्चित धारणा बनी है। इसलिए..." इतना कहकर बल्लाल बोलते-बोलते रुक गया। "भैया, क्यों रुक गये? इससे मैं कैसे विशेष भाग्यशाली हो जाऊँगा । वास्तव पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो : 137
SR No.090350
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages459
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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