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________________ "तुम्हारी इच्छा अपने ही लिए हैं न?" "मुझ पर भगवान : : नहीं दु है, यह मुझे पापा को यही में आयेलापा "फिर भी इस विषय पर दूसरों का भी अभिपत जान लेना, मेरी राय में उचित होगा। "सन्निधान को रोक कौन सकता है?" "तो तुम्हारा मतलब है कि किसी का अभिमत जानने की जरूरत नहीं।" "इसका यों माने न लगाइएगा। अगर किसी ने इनकार कर दिया तो तब क्या होगा?" "इनकार क्यों करेगा" "सब के मन के अन्दर प्रवेश कर जानने की कोशिश करना, सम्भव हो सकता है?" ___ "हम लोग कहने पर यह जरूरी हो जाता है कि 'हम' में सम्मिलित सभी की बात जानने की कोशिश होनी चाहिए।" मेरे मन में जैसे विचार हैं, वे ही मेरी बहिनों के भी हों और पुरोहितजी ने जो सलाह दी उसे भी वे मान लें, तो मैं जानती हूँ, सब ठीक हो जाएगा। अगर उनमें वे भावनाएँ न हों तो मत-भिन्नता हो जाती है। परन्तु जब मैंने 'हम' कहा तब मेरा इतना ही अभिप्राय था कि सन्निधान के प्रेम का फल मेरी बहिनों को भी मिले। इसलिए बहुवचन का प्रयोग किया।" ''यह बातों का विन्यास है। उन सबसे पूछकर देखेंगे तभी हमें समाधान होगा।' यह कहकर बात बहीं खत्म कर दी बल्लाल ने। "जैसी सन्निधान की इच्छा।" पद्मलदेवी ने कहा। "हमें जो बुलाया सो काम समाप्त हुआ न?" "आज यहीं ठहर जाएँ। हो सकेगा" कहती हुई महाराज का हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाने लगी। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। ''इसके लिए वैद्यजी से अनुमति लेनी होगी" पप्पलदेवी पूछना चाहती थी। परन्तु पता नहीं, क्या सोचकर पूछा नहीं। "तुमने जब खुलकर सवाल रखा तो मैं यहाँ न ठहरकर चला जाऊँ तो तुम इसका कुछ और ही माने निकाल लोगी। इसलिए रहूँगा।" कुछ देर सोचने के बाद बल्लाल ने कहा। 'सन्निधान इतने दिन तक यहाँ नहीं आये।" "इसके लिए तुमने षड्यन्त्र समझ लिया। अभी तक तुम्हारा मन साफ़ नहीं - - - - पट्टमहादेवी शान्तला : घाग दो :: 379
SR No.090350
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages459
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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