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का उत्तरदायित्व दण्डनायक मरियाने को सौंप देने का भी निर्णय हुआ!
छोटे चलिक नायक की सेना में चिण्णम दण्डनाथ की सेना को शामिल करने का निर्णय लिया गया था। इन दोनों सम्मिलित सेनाओं की व्यूह-रचना और उनका नेतृत्व चिण्णम दण्डनाथ को सौंपा गया धा।
यह भी निर्णय हुआ कि माचण दण्डनाथ को अपने नेतृत्व की सेना के साथ कलसापुर में मुक्काम करना होगा और डाकरस दण्डनाथ को यावगल और वाणकरू के बीच मुक़ाम करना चाहिए।
उम्र के लिहाज से अत्यन्त वृद्ध पोचिमय्या और नागदेव को राजधानी में ही रहकर समय-समय पर सूचना के अनुसार जनबल और रसद सैन्य-शिविर में भेजते रहने की व्यवस्था करने की सम्मिलित जिम्मेदारी सौंपी गयी।
प्रधान गंगराज को खुद राजधानी में रहकर महाराज और राजपरिवार की रक्षा और राजधानी की सुरक्षा-व्यवस्था के कार्य में रहने तधा हंगाई पारसिंगय्या को उनके सहायक बनकर कार्य करने का भी निर्णय लिया गया। राजधानी की सुरक्षा का कार्य बहुत ही मुख्य कार्य होने के कारण राष्ट्र की आधी सेना राजधानी में ही रखी गयी। शेष सेना को तीन टुड़ियों में विभक्त कर सखरायपट्टण, कलसापुर और यावगल-इन तीनों स्थानों में भेज दिया गया।
यल्लाल महाराज का पट्टाभिषेक हुए एक साल बीत चुका था, इसलिए वार्षिकोत्सव के समारम्भ का आयोजन किया गया था। इसी बहाने शस्त्र-सज्जित सेना के जुलूस की भी व्यवस्था की गयी। इस व्यवस्था का उद्देश्य यह था कि राजधानी के साधारण में साधारण पौर भी भावी युद्ध के कारण भयभीत न होने पाएँ। इस विशाल सेना को देखकर दोरसमुद्र की प्रजा कल्पनातीत आश्चर्य में दूध गयी। वह सोचने लगी कि इतनी बड़ी सेना कहाँ से आ गयी? और वह अब तक कहाँ रही? इतनी बड़ी सेना क्यों? उनके रख-रखाव के लिए कितना धन चाहिए:-आदि-आदि बालें पौरजन करने लगे। जो भी कुछ बोले वह समाचार राजमहल में फौरन पहुँच जाता था। ऐसे चतुर गुप्तचरों की टोली प्रभु एरेयंग के समय में ही तैयार कर ली गयी थी।
वार्षिकोत्सव समारम्भ के दिन शाम को राजमहल के अहाते में एक बड़ी सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया था। इस सभा में स्वयं पोय्मत्त महाराज ने सार्वजनिकों को एक सन्देश दिया
'पोयसल राजधानी के पौरो, महायशस्वियो,
हमारी राजधानी में जब तक इस तरह का और इस संख्या में सशस्त्र सैन्य का जुलूम किसी ने नहीं देखा होगा 1 आप लोगों को चकित करनेवाले यह सशस्त्र अश्व दल, पदाति सैन्य समूह, ये सारे पोय्सल राष्ट्र की सुख-शान्ति को चाहनेवाले
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 167