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पद्मला की तरफ़ मुड़कर बिट्टिदेव ने कहा।
चारों उठी और महाराज को झुककर प्रणाम किया। महाराज कुछ सोच रहे थे. इसलिए उस तरफ़ उन्होंने ध्यान नहीं दिया।
शान्तला ने विहिदेव की ओर देखा। उन्होंने जाने की अनुमति इशारे से ही दे टी। चारों चलने लगीं। आँचल सँभालकर चलते वक्त हाथ के कंगन और पैरों के नूपुर महाराज की उपस्थिति की परवाह न करके बजने लगे। आवाज सुन वाल्लाल ने जानेवालों की तरफ़ सिर ठाकर देखा ! सबसे पीछे पन्नण शी। हगोटी, पार करते वक्त एक बार सुखासनासीन महाराज की ओर उसने दृष्टि डानी । पत्तक झपकते पद्मला सपन गयी कि महाराज देख रहे हैं। आँखों से ओझल होते ही दरवाजे पर परदा लग गया।
वन्लाल एकदम उठकर कुछ सोचते हा चहलकदमी करने लगे। विट्टिदेव यह चुपचाप देखते रहे। थोड़ी देर बाद महाराज ने प्रश्न किया, "छोटे अपाजी, इसकी जड़ कहाँ और अन्त कहाँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा है।'' __“सन्निधान अभी दिमाग़ न खपाएँ । मौन प्रेक्षक बने रहिए, काफ़ी है। हम सब मिलकर इसके मूल का भी पता लगा लेंगे और बिना किसी उलझन के सुलझा भी देंगे। अभी आप काफ़ी थके हैं। आराम कीजिए।"
"नहीं। अब विषयान्तर की जरूरत है। कविजी को वुलवाकर उनसे किसी विषय पर कुछ देर चर्चा करेंगे। चलो, पाठशाला में चलें।"
दोनों पाठशाला में पचे। गोंका कवि को बुलाने चला गया !
उधर शान्तला पद्मला और उनकी बहिनों को उनके महल में छोड़कर, रेविमय्या के साथ अपने घर पहुँच गयी। उस दिन जो कुछ हुआ, उससे शान्तला को कुछ सान्चना मिली। सभी बातों को स्वयं जानते हुए भी अपने मुँह से न बताकर, अन्यत्र कहीं से किसी दूसरे के मुँह से कहलाने की बिट्टिदेव की बुद्धिमत्ता शान्तला को बहुत पसन्द आयी। पद्मला का भविष्य अब ठीक मार्ग पर आगे बढ़ता हुआ लगने लगा था। फिर भी उसे इस बात की चिन्ता हुई कि या सारा प्रसंग राजनीतिक मामला बन गया। एक कुलीन स्त्री को धोखा देकर उसे 'प्रष्ट करनेवाले ऐसे धूर्त लोगों से सम्पर्क महादण्डनायक मरियाने के घरवालों का है, यह बात पहले से ही उनके बारे में असन्तुष्ट महाराज और महामातृश्री चलदेवी जान जाएँ, तो भगवान जाने क्या होगा? यह चट्टला-इसकी क्या दशा होगी? इसी प्रसंग के कारण रावत मायण स्त्री जाति से ही द्वेष करने लगा है। परन्तु अब इसकी पत्नी किसी दूसरे के साथ भागी नहीं, वह धोखे में आ गयी-यह बात मालूम होने से शायद यह अपना मन बदल ले। मगर यह इतनी उदारता दिखा सकेगा कि उसे अपनाकर पहले जैसा परिवार वसा ले? शान्तला इसी तरह सोचती
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 22