SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वास्तव में उन्हें पोय्सत राज्य को छोड़ जाने की आवश्यकता भी नहीं थी। मान-सम्मान जो भी उन्होंने चाहा था वह सब उन्हें प्राप्त था। वेरोक-टोक वे साहित्य साम्राज्य के चक्रवर्ती बनकर निश्चिन्त हो वहीं रह सकते थे। पता नहीं क्यों उनके मन में भी स्थान परिवर्तन की सनक चढ़ गयी। क्या करने से यह साध्य हो सकता है-इस बारे में बहुत सोच-विचारकर एक निर्णय पर पहुंचे, और फिर खूब सांच-समझकर उन्होंने तदनुसार कार्य-प्रवृत्त होने का निश्चय कर लिया। बिट्टिदेव के सिंहासनारोहण के वार्षिकोत्सव समाराम्भ के अवसर पर मध्याह्न के बाद ये पहाराज बिट्टिदेव और पट्टमहादेवी शान्तला से मिले। उन्हें हार्दिक बधाइयां दीं। शान्तनदेवी ने कहा, "आप जैसे महानुभावों के हार्दिक आशीर्वाद के बल पर ही यह राज्य सुखी और सम्पन्न बनेगा।" "आशीर्वाद मात्र से कुछ नहीं बनता। श्रेष्ठ काव्य लिखने के लिए आशीष देने मात्र से काच्य नहीं रच जाता है। सबके लिए प्रयत्न करना होता है। मनीतियाँ, सदाशय, प्रोत्साहन यह सब प्रयत्न को रूप देते हैं, उसे सफलता की ओर अग्रसर करते हैं। उसी तरह पोय्सल राज्य को सुखी और सम्पन्न राष्ट्र वनाना हो तो उसके लिए और अधिक प्रयत्न होना चाहिए। शायद इस तरह का प्रशस्त समय पहले कभी नहीं आया होगा। आगे भी ऐसा उत्तम समय आएगा या नहीं, मैं कह नहीं सकता।" कवि नागचन्द्र ने कहा। ''इस तरह का प्रशस्त समय-इसके क्या माने?" बिट्टिदेव ने पूछा। ''एक राष्ट्र को प्रगति करना हो तो उस राष्ट्र के प्रतीक रूप महाराज और महारानी को उस उन्नत स्तर तक पहुँचने की क्षमता से युक्त होना चाहिए। मैं सन्निधान से और पट्टमहादेवी से बहुत अच्छी तरह परिचित हूँ, ऐसा मैं मानता हूँ। यह कार्य आपसे ही साध्य है। साधारण परिवारों में इस तरह का योग्य दाम्पत्य देखने को नहीं मिलता। ऐसी हालत में राष्ट्र के प्रतीक राजा-रानी का यह आदर्श दाम्पत्य हमारे इस राष्ट्र के लिए सिरमौर है। राष्ट्र की प्रगति के लिए इससे बढ़कर प्रशस्त समय और कब मिलेगा?" "शिष्य-प्रीति केवल प्रशंसा करने में ही समाप्त नहीं हो जाना चाहिए।' बिट्टिदेव ने कहा। ''सन्निधान ऐसा नहीं समझें कि ये मात्र प्रशंसा है निश्चित ही इसे प्रेरक मान सकते हैं। पट्टमहादेवी के पिता श्री भासिंगय्या जब बलिपर के हेम्गड़े के पद पर रहे, तब चालुक्य और पोसलों में जैसा मधुर सम्बन्ध रहा, उसी तरह का मधुर बन्धुत्व अब फिर से विकसित हो। इसके लिए सन्निधान को प्रयत्न करना होगा, मेरी प्रेरणा का उद्देश्य यही हैं।" नागचन्द्र ने कहा। "कविजी, हमें चालुक्यों से विद्वेष नहीं था। उनके प्रति तो हमें अपरिमित पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 395
SR No.090350
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages459
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy