SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गौरव था। अब भी हम उसी गौरवबुद्धि से उन्हें देखते हैं। हम चाहते तो इस बात की घोषणा करके कि हमारा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं, हम स्वतन्त्रतापूर्वक रह सकते थे। उन्होंने विना किसी कारण के प्रभु का अपमान किया। हम पर प क्यों हुआ और कैसे हुआ, इसका कारण क्या वा सो हमें कुछ भी मालूम नहीं । वे तो अब पोसलों की शक्ति को तोड़ने के षड्यन्त्र में सहायता भी कर रहे हैं। ऐसी हालत में हम क्या करें: राजनीति में प्रेम का बदला प्रेम है, त्याग के लिए त्याग हैं, परन्तु कोई तलवार तानकर खड़ा हो जाए तो उसके सामने सिर झुकाने को परिपाटी नहीं है। पोसला ने इतना ही किया हैं कितनी तलवार का तलवार तानकर ही सामना किया। ऐसी हालत में वह पुरानी मधुर मैत्री कैसे हो सकती हे विहिदेव ने कहा । "सीधे तलवार तानकर तो खड़े नहीं हुए न? यह बात निश्चित हैं कि दोनों में असमाधान है। इस बात की सूचना महाराज के विवाह समारम्भ के सन्दर्भ में पिरियरसी की दी थी। किसी के ऐसे या अनुचित कल्पना से उद्भूत इस असमाधान की बातों द्वारा दूर किया जा सकता है। पिरियरसी जी की भी यही इच्छा रही है कि वह पुराना मधुर बान्धव्य ज्यों का त्यों बना रहे। उन्हें ता सन्निधान से तथा पट्टमहादेवी से अगाध प्रेम है, अटल विश्वास भी है। यदि वातां द्वारा इस मधुर वान्धव्ध को बनाये रखने का मार्ग सुझा सकते हो तो उनका सहयोग अवश्य मिलेगा। या वे ही सुझा सकेंगी तो उत्तम होगा।" कवि नागचन्द्र बोलें । “परिवरसीजी में सद्भावना है, परन्तु चालुक्यों के राज्य में वह ही सर्वेसर्वा तो नहीं हैं। और फिर निश्छल पोसलों को ही इस दिशा में रान्धान करने की बात क्यों उठानी चाहिए यदि हम स्वयं यह बात उठाएँगे ता वे यह सोचेंगे कि पोरसलों में ही कुछ दांध है। आपके कहे अनुसार, एक भाषा-भाषी होने के नाते यदि हम दोनों में उस पहले को सी समरसता हो सकती है तो कन्नड़ साहित्य, ही उत्तम कन्नड भाषा ओर कर्नाटक की कला - इनकी दृष्टि से ऐसा होना बहुत होगा । यदि वहाँ से कोई संकेत या प्रस्ताव मिलता है तो उस पर खुले मन से विचार किया जा सकता है। हम ही वह सन्धान कार्य शुरू करें यह हमें सम्भव के नहीं, क्योंकि तब वह राष्ट्रगौरव का प्रश्न बन जाता है। वह स्वर्गस्थ प्रभु अपमान करने का सा होगा।" शान्तलदेवी ने कहा । कवि नागचन्द्र चकित !! महाराज विहिदेव अगर यही बात कहते तो शायद उन्हें आश्चर्य न हुआ होता। तुरन्त वह कुछ न बोल सके । "क्यों कविजी, मेरी बात आपको ठीक नहीं लगी" शान्तलदेवी ने पूछा । "राष्ट्रहित की बात का विचार करते समय आत्मगौरव जैसे वैयक्तिक विचार 35 : पट्टमहादेवी शान्तना भाग दो
SR No.090350
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages459
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy