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नहीं कर सकती। जब आयी थी तो मन से स्वीकार कर आयी थी। अब तक मन मानता रहा, यहाँ रही आयीं। अब आगे इस तरह मन की शान्ति से रहना साध्य नहीं लगता। इसलिए मुझे मुक्त करके उपकृत करने का अनुग्रह करें।" विनीत भाब से कहते हुए हाथ जोड़ लिये कन्तिदेवी ने।
जो काम मन को न जचे उसे अधिकार बन से करा लेने की परिपाटी पोरसल राजघराने की नहीं है। जब आप कहती हैं-मन नहीं मानता, तो अभी ऐसी कोई कार्रवाई राजमहल की ओर से हुई होगी जिससे आप परेशान हैं?" ।
पट्टमहादेवी को ऐसा सोचना तक नहीं चाहिए। वास्तव में आपके और सन्निधान के राजत्व के इस पुनीत अवसर पर राष्ट्र की सेवा करना एक महान पुण्य का कार्य है, यह मुझे मालूम है। राजघराने में कोई असंगत यात हुई और इससे परेशान होकर जाना चाहती हूँ-यों कदापि आप न सोचें। यहाँ रहने के लिए मनोभाव न होने का कारण पूर्व-घटित व प्रिय घटना हो मिसा कोई ग़लती की और उसके लिए आपको दुःख क्यों हो?-यह सवाल आप मुझसे कर सकती हैं। पटरानी जी, इसकी अनुभूति उसी को हो सकती है जिसने अपने कार्य वैफल्य का अनुभव किया है। जब मन में और कुछ भी चाह नहीं तब प्रेम-स्नेह भी असह्य हो जाता है। और ऐसा होना ठीक नहीं। इसलिए कृपा करके मुझे मुक्त कर दीजिए।" कन्तिदेवी ने विनती की।
उन्हें कहाँ जाना चाहिए, उनके लिए क्या सहलियतें अपेक्षित हैं; किस तरह की सुरक्षा-व्यवस्था हो, आदि की व्यवस्था करने का आदेश राजमहल की तरफ़ से दिया जा सकता था किन्तु उन्होंने यह सब नहीं चाहा।
"मुक्त होने के लिए ध्यान करने योग्य स्थान की खोज में जानेवाली मुझको वह बताना कठिन है कि मैं कहाँ जाऊँगी। जब स्वयं मैं ही नहीं जानती तो मैं बता कैसे सकती हूँ? सुरक्षा की व्यवस्था की क्या आवश्यकता है? दण्डनायक जी ने जो सम्मान के रूप में धन दिया है और राजमहल की तरफ़ से विद्वत्सम्मान का प्रतीक कंकण चूड़ा, दुशाल वगैरह प्राप्त हुआ है, वह सब स्त्री-विद्याभ्यास के लिए दान के रूप में यहीं छोड़ जाती हूँ। यह इसलिए नहीं कि पोसल राज्य में धन का अभाव है बल्कि इसलिए छोड़ जाती हूँ कि मुझे इन सबकी आवश्यकता नहीं। इस कार्य के लिए विनियोग हो, इसी लक्ष्य से मैं यह सब दिये जा रही हूँ. इसे स्वीकार करें, यह मेरी बिनती है।'' कहते हुए शान्तलदेवी को वह सब सौंपकर, उन सबसे विदा लेते हुए इस अभिनव वाग्देवी ने किसी अज्ञात स्थान की ओर प्रस्थान कर दिया।
निवृत्ति चाहनेवाली कन्तिदेवी को आसानी से अनुमति नहीं मिली। इस बात को जाननेयाले कवि नागचन्द्र को मालूम हो गया कि निवृत्त होना आसान बात नहीं।
394 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग टो