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"राजसत्ता यदि सत्य को जानना चाहे, तो इस तरह से व्यवहार करना ही पड़ता है। यों व्यंग्य करने से छिपी बात बाहर निकलने की सम्भावना रहती है इससे खिन्न नहीं होना चाहिए।" शान्तला ने बीच में कहा। इस पर बात वहीं रुक गयी।
तभी रावत मायण आया. झुककर प्रणाम किया और बोला, "आपने आने का आदेश भेजा था। क्या आज्ञा हे?"
"हाँ, बैठिए ।" बिहिदेव ने कहा। फिर चोकी और उस औरत को बुलवाया। “इन दोनों को आप जानते हैं रावतजी ?" बिट्टिदेव ने पूछा ।
"इन चाण्डालों को क्यों दिखा रहे हैं यही हैं जिन्होंने मेरे पारिवारिक जीवन को आग लगायी। मेरी इस औरत को उड़ा ले गये। इसे मैंने सुद्धभूमि में औरतों के शिविर में आमने-सामने देखा और जैसे ही इसका सिर उड़ा देने के लिए तलवार उठायी कि इतने में यह रफूचक्कर हो गया। हाथ नहीं लग पाया। सन्निधान मुझे उसकी गर्दन उतारने की अनुमति दें।" मायण उत्तेजित हो उठा था । शान्तला को सारी पुरानी बातें याद आ गर्यो। बिट्टिदेव पहले हो सब समाचार जान चुका था। इसी वजह से पायण को बुलवाया था ।
"मायण ! तुम्हारे साथ अन्याय हुआ होगा, परन्तु उतनेभर से मृत्युदण्ड नहीं दिया जा सकता। लेकिन इसके राजद्रोही होने का अपराध प्रमाणित हो जाए तो इसे मृत्युदण्ड जरूर दिया जाना चाहिए। अगर तुम चाहो तो तुम ही यह काम कर सकते हो ।" बिङ्गिदेव ने कहा ।
तब वह औरत आगे आयी। बोली, "अगर ऐसी आज्ञा हो तो सन्निधान मुझे मौका दें। मुझे धोखा देकर मेरे जीवन को बरबाद करनेवाला है यह । मेरे पतिदेव मुझसे बहुत प्रेम करते हैं। वे मेरे प्राण हैं। परन्तु पता नहीं क्यों मुझ पर भगवान ने कृपा नहीं की। मुझे सन्तान नहीं दी। किसी धर्मात्मा ने कहा कि एक भण्डत ( अड़तालीस दिन ) तक पीपल की परिक्रमा करो। इसके बाद नागदेव की प्रतिष्ठा करो। तब सन्तान होगी। मैंने बड़ी भक्ति और निष्ठा के साथ वह सब भी किया। यह सब मैंने अपने पतिदेव की अनुमति लेकर ही किया। यह मेरे पतिदेव भी जानते हैं। नागदेव की प्रतिमा बनाने के लिए शिल्पी को भी कह दिया था। तभी एक दिन यह आदमी आया। इसने कहा, 'सन्तान चाहिए तो इतना कष्ट करने की क्या जरूरत? एक महात्मा हैं। उनसे अभिमन्त्रित भस्म लेकर तुम और तुम्हारे पति दोनों पानी में घोलकर पी लो। एक क्या जुड़वें बच्चे पैदा हो जाएँगे।" महादण्डनायक के घर का नौकर होने के कारण मैंने उसकी बातों पर विश्वास कर लिया। फिर भी मैंने तुरन्त सम्मति नहीं दी। मैंने कहा, मेरे पतिदेव से कहो ।' इस पर वह बोला, 'यह सब तुम्हारे पति से कहें और वे स्वीकार न करें तो हमारी
पट्टमहादेवी शान्तिना भाग दो: 219