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दण्डनायिका अपने कमरे में आयी; पान चबाती हुई पलंग पर बैठ गयी। अचानक वह कांप उटी, पसीना छूट गया। "हे भगवान! मैं कुछ करने गयी तो हुआ कुछ और ही। वे तावीज फिर मेरे घर पहुंचेंगे तो जो भी युरा होगा सब हमारा ही होगा न? हमारी बच्चियों का ही होगा न? नहीं, मैं ऐसा होने नहीं दूंगी। मलिक से पाने ही कः +ी स्वीकार करें। मैं तो कह दूँगी, मगर ये मान जाएँ तब न? अब पहले जैसी स्थिति नहीं। अगर मैं एक बार खाँस भी दूं तो जाकर वे भैया से कह देंगे। यह बात भैया को मालूम हो जाए तो आगे क्या होगा, कौन जाने। हे भगवन्! मालिक की ऐसी बुद्धि दो कि वे मेरी बात को मान लें। खाद को हेग्गड़े के घर जो भेज दिया, वह गलती हो गयी। शैतान फाटक से निकल गया समझा तो वह झरोखे से फिर अन्दर आ गया। मालिक को उन्हें छूना तक नहीं चाहिए। इसके लिए कोई-न-कोई उपाय ढूँढना ही होगा।" चे ही बातें सोचती हुई दण्डनायिका पलंग पर पैर पसारकर तकिये से पीठ लगा बैट गयी । “पता नहीं इण्डनायक जी किस वक्त तक लौटेंगे। आते ही उनके मन को अपनी तरफ़ बना लेना चाहिए।" यही सोचती वह बैटी रही। घर के अन्दर से बरतन-बासन की और चलने-फिरने की जो आवाज आ रही थी सो बन्द हो गयी और ख़ामोशी छा गयी। दण्डनायिका उट खड़ी हुई और कमरे से बाहर आकर इधर-उधर देखने लगी। सब जगह अंधेरा फैला था । पूजाघर में दीया टिमटिमा रहा था। उसकी धुंधली रोशनी छापी थी। देकब्बा गहरी नींद में खटि ले रही थी। दण्डनायिका फाटक तक गयी, देखा कि अन्दर से कुण्डी लगी है या नहीं। फिर अपनी बच्चियों के कमरे की ओर चली। झाँककर देखा, बच्चियाँ सोयी हुई थीं और एक ढिबरी टिमटिमा रही थी। उसे देखकर धीरे-से किवाड़ लटकाकर अपने कमरे की ओर चल दी। देकब्बे के खर्राटे और तेज होते जा रहे थे। दण्डनायिका का दिल धड़क उठा। छाती दबाये वहीं खड़ी रही। उसे डर का अनुभव होने लगा। कहने लगी- हे भगवन! कृपा करो, दण्डनायक जी कशलपूर्वक लौट आएँ। मुझे कभी डर नहीं लगा था, पता नहीं आज क्यों लग रहा है! दण्डनायक जी ने कहा था कि आ ही जाऊंगर।"
दण्डनायक बहुत रात बीतने पर भी नहीं आये, इस कारण भय का होना सहज ही था। अँधेरी रात टेख रात को वहीं ठहरकर उनके तड़के ही चले आने की बात उसे यदि सूझ जाती तो शायद डर दूर हो जाता। इसके अलावा उन सोने के ताबीजों को दण्डनायक के हाथ सीधे पहुंचा दिये जाने की याद ने उसके डर को दुगुना कर दिया था। दूसरों को इन ताबीजों की बात ही मालूम नहीं हुई थी। इसलिए उनको उनकी चिन्ता ही नहीं रही। चे निश्चिन्त होकर सो रहे थे। देकब्बे वह न समझकर कि उसके खर्राटों से मालकिन डर जाएंगी, जोर-शोर से खरदि
152 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो