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इसलिए बाद में दबा लेने की बात बतायी गयी। मैं चली गयी।"
"कहाँ चली गयी?"
"सीधे अपने घर ।"
"नहीं। तुम इस बाचम के साथ केलिगृह में गयी।" "केलिंग दाई ने आश्चर्य से पूछा ।
"सवाल मत करो। मानां तुम जानती ही नहीं! तुम उस दिन जैसा पण्डितजी से कहा था, पटवारी चन्दिमय्या के यहाँ नहीं गयीं। तुम गयीं बाचम के घर । उसके बाद पण्डितजी के घर गयीं। वहाँ से अपने घर गयीं। अनन्तर राजमहल आकर पण्डितजी की दी हुई बताकर तुमने दया की पुड़िया दी।"
दर्द की छत पर उटी
"सच-सच कहो!" शान्तलदेवी ने कहा ।
"तो क्या मुझे चक्कर में डालकर मुझसे यह कहलवाना चाहती हैं कि मैंने जो दवा पाण्डतजी ने दी थी, उसे नहीं टी और दूसरी ही कुछ दी है?"
“भ्रूणहत्या, प्राणिहत्या करनेवाले कभी चक्कर में नहीं पड़ते। छूटने के लिए चक्कर में पड़े हुए-से अभिनय किया करते हैं। जैसा तुमने कहा, तुम वह दया जिस पांण्डतजी ने दी थी, न देकर कुछ और ही दे गयी हो ।”
"झूठ मेरा इस बाचम के साथ अनैतिक सम्बन्ध है। उसने कहा कि राजमहल के उस केलिगृह में जो सुख मिलता है वह स्वर्ग में भी नहीं मिलता। मेरी भी इच्छा हुई । राजमहल में आने का मौका भी मिला तो इस मौके का उपयोग करने की ख़बर देने के लिए मैं उसके घर गयी थी ।"
उसे स्वीकार कर लेने पर भी पण्डितजी के घर से फिर अपने घर क्यों
गयी ?"
"मेरे वे दिन गर्भधारण करने के लिए अनुकूल दिन थे, केलिगृह के सुखानुभव के फलस्वरूप कहीं हमल टिकने में सहायक न हो जाय, इस इरादे से गर्भनिरोध की व्यवस्था कर लेने के इरादे से घर गयी थी।"
"गर्भपात की व्यवस्था के साथ-साथ उसके निरोध की भी व्यवस्था में तुम सहायिका बन सकती हो
"दोनों होने से बहुतों की आन बच जाती है ।"
“इन असम्बद्ध बातों को सन्निधान के सामने मत बको। तुमने जो कुछ कहा, वह सब झुट है। तुम घर से गर्भपात की दवा लायीं। उसे रानीजी को खुद खिलाना भी चाहती थीं ।"
"आपकी बात को असत्य ठहराने के लिए यहाँ साक्षी होकर स्वयं रानीजी मौजूद हैं। नैतिक रूप से गर्भधारण करनेवालों को हम गर्भपात की दवा कभी नहीं
331 : पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो