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________________ चक्रवर्ती की यही आकांक्षा है कि चालुक्य साम्राज्य यथावत् बना रहे ! जहाँ-तहाँ. रहनेवाले सामन्त अपने आप स्वतन्त्र व्यवहार करने लग जाएँ, यह एक सम्राट् को कैसे सह्य हो सकता हैं? अपने बल, अधिकार और सार्वभौम प्रभुत्व की रक्षा के लिए वह कुछ भी कर सकते हैं।' “तो क्या तुम लोग कल्याण के गुप्तचर हो?" “मैंने ऐसा तो नहीं कहा। मात्र वस्तुस्थिति को बताया। मैं किसका गुप्तचर हूँ उसे आप नहीं जान सकेंगे।" "सो ऐसा तुम सोचते हो, छोड़ दो उस बात को!'' कहते हुए बिट्टिदेय वामाचारी के पास आये और बोले, इस चोकी ने जो कुछ कहा सो सब तुमने सुना? वह सब सच है?" “जिसे मैं नहीं जानता उसके सत्यासत्य का निर्णय कैसे कर सकता हूँ?" "मतलब" “मतलब बह कि उसने जो कहा उसके लिए वही जिम्मेदार है।" "तुम भी इससे सम्बन्धित हो, ऐसा बताया न" "बताया, उसने बताया। मैं सम्बन्धित हूँ यह कहाँ सिद्ध होता है?" “शत्रु-सेना में तुम मिले रहे, यह झूठ है?" "झूठ कहकर मैं अपनी जीभ को क्यों खराब करूँ? सच है।" "तो यह प्रमाणित हुआ न कि तुम हमारे शत्रुओं के गुप्तचर हो?" “मैं गुप्तचर भी नहीं, कुछ भी नहीं, मैं शुद्ध वामाचारी हूँ।" “वामाचार ही अशुद्ध है।" "शुद्ध-अशुद्ध यह सब व्यक्ति विशेष के विश्वास पर अवलम्बित हैं। मैं युद्ध शिविर में जग्गदेव प्रभु की रक्षा मात्र के लिए था।" "तो अब तुम्हारी रक्षा कौन करेगा?" "मैं जिस शक्ति पर विश्वास रखता हूँ वहीं मुझे बचाएगी।" "तो क्या उस शक्ति से दूसरों को तुम मार सकते हो?" "बेशक।" "मुझे विश्वास नहीं।" 'अनुभव होने पर भी विश्वास न हो तो क्या कहूँ?'' 'मतलब?" "मतलब यह कि एरेयंग प्रभु की मृत्यु के लिए मेरी शक्ति ही कारण है।" ''उन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?" "उन्होंने कुछ नहीं किया। दूसरों के हित के लिए मैंने किया। 'किसके हित के लिए?" पट्टमहादेवी शान्तला : माग दो :: 247
SR No.090350
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages459
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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