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हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
महाराज बल्ताल ने कहा, ''प्रधानजी, आपकी निष्ठा से हम परिचित हैं। यह हम सबकी विजय है। क्रिसो एक की विजय नहीं, जैसा कि आपने कहा। चिण्णम दण्डनाथ ने अपने प्राणों की आहुति देकर हमें इस विजयोत्सव का सन्तोष दिया है तो दृसरी ओर अपने अभाव का दुःख भी दिया है। अपने पति का अनुगमन करनेवाली चन्दलदेवी और चिण्णम दण्डनाथ के, दोनों पति-पत्नी के स्मारक के रूप में उस स्थान पर, जहाँ जग्गदेव से साँकल का पदक छीन कर उसे गिराया, हम एक विजय-स्तम्भ का निर्माण करेंगे। उनके तथा राष्ट्र के लिए प्राणार्पण करनेवाले वीरों की आत्मशान्ति के लिए सम्पूर्ण राजधानी में अन्नदान की व्यवस्था की जाए। पोसल साम्राज्य की समृद्धि हो और जनता सदा इसी निष्टा के साथ रहे। इसी आकांक्षा के साथ अब मैं सभा-विसर्जन करता हूँ।" ।
महाराज की आज्ञानुसार उसी स्थान पर दो ही दिनों में विजय-स्तम्भ की स्थापना भी हो गयी। अन्नदान का कार्य भी सम्पन्न हुआ। इतना ही नहीं, कुछ दिनों बाद शीघ्र ही चिण्णम दण्दनाथ की दोनों पुत्रियों का सुयोग्य वरों के साथ विवाह मा सम्पन्न कर दिया गया। इस सब पर वीरगति प्राप्त योद्धा परिवारों में शत्रुओं से प्राप्त भण्डार, धन और आभूषण आदि बाँट दिये गये। साथ ही, उन परिवारों को यह आश्वासन दिया गया कि यदि वे चाहेंगे तो उन सब के परिवारों से एक-एक युवक को सेना में भी ले लिया जाएगा।
विजयोत्सव तथा चिण्णम टण्डनाथ की बेटियों के विवाह के अवसर पर महादण्डनायक की पुत्रियों ने जिस उत्साह से काम किया था, उसे देखकर बल्लाल चकित था। शान्तला जितने उत्साह और श्रद्धा से ही उन्होंने काम किया था। हाँ, चामब्बे ज़रूर दोनों ही अवसर पर अनुपस्थित रहीं।
तब एक बार बल्लाल ने महादण्इनायक मरियाने से खुद पूछ लिया। "दण्डनायिका जी बिल्कुल दिखाई नहीं दीं?"
"उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं।' परिवाने ने संक्षेप में जवाब दिया। "क्या हुआ?" ''कामला है।" "चिकित्सा?' "चल रही है। दवा लगती नहीं।" “राजमहल के वैद्य को ले जाइए।" "जो आज्ञा।"
210 :: पहमहादेवी शान्तला : भाग दो