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________________ इनकी बेटियाँ भी साथ में आया-जाया करती रहीं। बल्लाल भी कभी पखवारे-दो पखवारे में उनके यहाँ हो आया करता। यह सब एक तरह से यन्त्रयन् चलता रहा। कुल मिलाकर यह कहना चाहिए कि दोरसमुद्र में किसी तरह का कोई उल्लास नहीं था। युवराज का घाव कभी-कभी भी गया सा लगता, लेकिन वह फिर हरा हो जाता। वेचारे चारुकीर्ति जी चिकित्सा करते-करते हार गये। एक दिन अवसर पाकर युवराज के अकेले होने पर उन्होंने धीरे-से निवेदन किया, ''प्रभु. अन्यथा न समझें। भगवान को मेरी चिकित्सा शायद पसन्द नहीं हुई, ऐसा लगता है। किसी अन्य क्षेत्र के वैय को बुलवा लिया जाय तो अच्छा होगा। मेरे होते हा किसी अन्य वैद्य को बुलाने की बात-राजपरिवार अन्यथा नहीं लेंगे। चालुक्य चक्रवर्ती के पास दक्ष वैद्य होंगे ही। किसी को भेजकर बुलवा लाना ठक लगता है। हाल के इन दिनों में जब मैंने जाना कि मधुमेह के कारण याच भर नहीं रहा हैं और तब जो चिकित्सा की उसका सारा विवरण विस्तार के साथ मैंने लिख रखा है। दूसरे वैद्य आएँ तो उन्हें इससे सहायता मिल सकेगी। और फिर कोई दूसरी अनुकूल औषधि मा जन सूज्ञ सकता है। विलय करना अच्छा नहीं । प्रभु यदि आज्ञा दें तो मैं स्वयं महाराज से निवेदन कर लूं।'' ''मुझे तो आपकी चिकित्सा पर्याप्त मालूम पड़ती हैं। आपकी सलाह, मान लेने पर गजपरिवार और बाहर के अन्य लोगों को भी सन्तोष हो सकेगा इसलिए हम ही इस सम्बन्ध में कुछ करेंगे। वे या अन्य कोई वैद्य जब तक आएँ नब तक आपकी चिकित्सा चले। केवल इस बात को छोड़कर कि मैं स्वतन्त्र रूप से चाहे जैसे घूम-फिर नहीं सकता, शेष सभी बातों में मैं काफ़ी चुस्त हूँ।" "युवगन की मर्जी," कहकर वैद्यजी आज का अपना कार्य करके चले गये। प्रभ की आज्ञा के अनुसार उसी दिन दोपहर दण्डनायक का आगमन हुआ। उनके आते ही प्रभु ने बैटने का संकेत किया और कहा, "हम आपसे एक ज़रूरी दात पर विचार-विमर्श करना चाहते हैं. इसलिए बुलवाया है। शायद यह आपके विश्राम करने का समय होगा, फिर भी बुलवा लिया इस विश्वास से कि आपका कोई परेशानी नहीं होगी। हमारे पण्डित चारुकीर्ति जी किसी दूसरे वैद्य को बुलवान की सलाह दे रहे हैं। वैसे हम तो उनकी चिकित्सा से सन्तुष्ट हैं। यदि उनकी चिकित्सा हमारे लिए अनुकूल न बैंटी होती तो अब तक हमारा शरीर कन्न का निश्चेष्ट हो चुका होता। ऐसा कुछ नहीं हुआ। फिर भी जब उन्हीं को अपनी चिकित्सा से सन्तुष्टि नहीं हो रही तो उनके सन्तोप के लिए किसी और को बुलवाना हमें उचित मालूम पड़ता है। आपकी क्या गय है।" "हम सब लोगों की यही इच्छा है कि आप शीघ्र नीरोग होवें। आपके इस पमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 15
SR No.090350
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages459
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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