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'प्रभुजी मलेपों के साथ युद्ध के समय आपकी आयु का ख्याल करके आपको राजधानी में ही रहने देकर खुद गये थे या नहीं: अब हम आपको युद्धक्षेत्र में जाने देंगे तो बदनामी हमारी होगी। इसलिए आपका जाना सम्भव नहीं।" बल्लाल ने स्थिति और भी स्पष्ट कर दी।
"परन्तु जब इस युद्ध की सूचना मिली थी तब मन्त्रणा-सभा में यही निश्चय हुआ था कि नेतृत्व के लिए मुझे ही नियोजित करेंगे। रोक दें तो, इसका यही माने हैं कि सन्निधान मुझ पर विश्वास नहीं रखते। पोस्सल के राजघराने ने मुझे निचले स्तर से ऊपर उठाया। ओहदा देकर गौरवान्वित किया। इसलिए राजपरिवार का विश्वास प्राप्त कर, युद्ध में मेरे प्राणों का चला जाना मैं अपना सौभाग्य ही मानता हूँ। मेरी निष्ठा में शंका हो तब जीते रहने से मरना ही बेहतर है।" कहते-कहते मरियाने का गला भर आया।
गंगराज ने ही उन्हें सान्त्वना दी, "आपकी निष्ठा पर शंकित होकर यह निर्णय नहीं किया गया है। वास्तव में आपके स्थान पर मैं स्वयं युद्ध का संचालन करूंगा। आप निश्चिन्त होकर राजधानी की निगरानी करते यहाँ रहें। सन्निधान की आज्ञा के पालन करने में हमारा और राष्ट्र का हित है।" इतना समझाकर इस चर्चा को समाप्त किया। और फिर महाराज आदि युद्धक्षेत्र की ओर चल पड़े।
चाहे कोई कुछ कहे, जितनी भी सान्त्वना दे, मरियाने का दिल नहीं मान रहा था। उन्हें अपने ही ऊपर घृणा होने लगी। राजधानी के लोगों को अभी शरणस्थली में भेजने का निर्णय नहीं लिया गया था। युद्धक्षेत्र से सूचना की प्रतीक्षा थी और उस कार्य की जिम्मेदारी संरक्षक दल की थी। उसे भी मरियाने की ही देखरेख में कार्यरत होना था। प्रतिदिन पद्मला इस बात की खबर बड़े उत्साह के साथ देती थी कि क्या काम हुआ और क्या नया काम उसने सीखा। वास्तव में पद्मला को शान्तला की शक्ति, उसका सामर्थ्य, औचित्यज्ञान आदि का पूर्ण परिचय मिल गया था। खुले दिल से पद्मला अपने माँ-बाप के सामने शान्तला की प्रशंसा किया करती। महादण्डनायक के परिवार को यही मालूम था कि उनका युद्धक्षेत्र में जाने का समय सन्निहित है, परन्तु स्वयं महाराज और उनके भाई ही गये, मरियाने को पीछे छोड़ गये-यह खवर सुनकर पचला का उत्साह भंग हो गया। भावी जीवन के बारे में पद्मता और शान्तला के बीच जो बासचीत हुई थी, उसकी पृष्ठभूमि में पद्मला व्याकुल हो उठी। मरियाने तो एकदम निराश हो गये थे और वह उसे छिपा भी न सके थे। पिता का चेहरा देखते ही पद्मला उनकी निराशा जान गयी।
दण्डनायिका को इससे बहुत क्षोभ हुआ, उसे गुस्सा आया। उसने आकर अपनी बेटी से कहा, “देखो बेटी, तुम जिसकी प्रशंसा कर रही थी उसी हेग्गड़े परिवार का वह प्रसाद है।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: ५!