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________________ बहिन भी है।" "बस, इतना ही कारण रहा?" ''इतना ही।" "तो क्या हमारे यहाँ के अधिकारियों के घरवालों पर कोई नियन्त्रण नहीं, वे जो चाहे कह सकते हैं तुम्हारा यही खयाल है?" "ऐसे लोग पोयसल राज्य में कम हैं। एरेयंग प्रभु के पट्टाभिषेक के विषय में मतभेद रहा, यह बात सारी दुनिया तक पहुँच चुकी थी। यह मतभेद क्यों और कहों से है, इसका पता लग गया था। उस भेद को और अधिक बढ़ाने के लिए हमने जिस स्थान को चुना वह बहुत ही उपयक्त था । दण्डनायिका जी किसी बात पर बहुत जल्दी विश्वास कर लेती थीं। इसलिए मुझे आसानी से जगह पिल गयी। इसके अलावा, छोटे नौकरों पर किसी का विशेष ध्यान नहीं रहता। यह भी मेरे लिए अनुकूल स्थिति रही।" ___ रेवंग प्रभु और सिंहासनासीन होने के विरुद्ध विचार रखनेवालों में वैरभाव हैं। तुपने वही सोचा होगा" हों, लेकिन यह बात गलत निकली। हमारे कार्य के निर्वाह में इसीलिए विलम्ब हुआ। किसी-किसी विषय में अभिप्राय भिन्नता के होने पर भी राज्यनिष्ठा के विषय में किसी पर कोई शंका नहीं की जा सकती थी। जिस प्रयोजन से हम यहाँ आये उसमें यदि सफलता नहीं मिल सकी तो जीना ही व्यर्थ है, इसलिए अपने कार्य की सिद्धि के लिए एक नयी योजना पर विचार कर ही रहे थे कि इतने में हमें मालूम पड़ा कि दण्डनायिका का कहीं किसी से विरोध चल रहा है। इसी सूत्र को हमने पकड़ा और पता लगाने की कोशिश की कि कहीं राजद्रोह है या नहीं। अगर हो तो इसी भावना को और अधिक विस्तार देना उपयुक्त होगा। हमने ऐसा ही किया। हमास पहला कदम यह था कि दण्डनायिका का मन वापाचारी की सलाह लेने के लिए तैयार किया जाए। इसमें सफलता प्राप्त करने पर हमने बड़ी मुक्ति से उनसे उन बुराई करनेवालों का पता-ठिकाना लगाने की कोशिश की। मगर कुछ भी पता नहीं लगा। हमारे पण्डित ने अपने तरकस के सारे तीर छोड़ डाले। 'हमें बाधा न हो ऐसे यन्त्र दो' यही उन्होंने कहा। उनका सन्देह किस पर रहा, यह नहीं बताया। अंजन लगाने का नाटक रचा गया, उससे भी कुछ पता नहीं लगा। दण्डनायिका ने क्या देखा सो उन्होंने नहीं बताया। इतना ही कहा कि हमने अपने वैरी को नहीं देखा। अपनी सारी युक्तियों एवं कोशिशों के बाद हम इस निर्णय पर पहुँचे कि हमें निराश होने के सिवाय कुछ और नहीं मिलेगा। अन्त में पण्डित को देश-निकाले का दण्ड मिला। उनके बिना मैं अकेला कुछ नहीं कर सकता था, इसलिए मैं भी चला गया। परन्तु एरेयंग प्रभु और पट्टमहादेयी शान्तला : भाग दो :: 245
SR No.090350
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages459
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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