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पहाराज के जन्मदिन समारोह के अवसर पर कन्ती और नागचन्द्र दोनों पोसल राज्य के आस्थान-कवि घोषित हुए। रानियाँ अपनी शिक्षिका को आस्थान कवयित्री बनाने पर बहुत आनन्दित हुईं।
शान्तला को मालूम हुआ कि उसके गुरु बेलुगोल जा बसे हैं। जन्मदिन का उत्सव समाप्त होते ही, दो ही दिन के बाद, बिट्टिदेव आदि यादवपुरी की ओर रवाना हुए। पश्चिमोत्तर के कोने से दक्षिण-पश्चिम के कोने तक फैली पर्वत श्रेणी के पूर्व की तरफ फैली यादवपुरी का का स्थान बिहदेव और शान्तला को बहुत भाचा। वहाँ का राजमहल विस्तृत रूप से बनाया गया। अपना भावी जीवन इसी स्थान पर व्यतीत करने के निश्चय के अनुकूल राजमहल के अन्दर ही शान्तला देवी की इच्छा के अनुसार एक नाट्यागार का भी निर्माण किया गया। यों विशाल राजमहल के कारण यादवपुरी एक नयी चमक-दमक से मुशोभित होने लगी। ___टण्डनाघ झाकरस के लिए राजमहल के अहाते में ही एक विशाल सोध का निर्माण हुआ। एचलदेवी और चन्दलदेवी में जैसी आत्मीयता बनी रही वैसी ही आत्मीय भावना शान्तला और दण्डनायिका एचियक्का में बहुत ही शीघ्र बन गयी। मेलजोल बढ़ गया। एक दिन किसी बातचीत के सिलसिले में एचियक्का ने दण्डनाधिका चामब्बे के बारे में कुछ असन्तुष्टि के भाव व्यक्त किये। यह भी बताया कि दण्डनायिका उस एचियक्का) के प्रति उपेक्षा भाव रखती थी। परन्तु यह नहीं बताया कि एरंचंग प्रभ के पट्टाभिषेक के समय कलश वाहिनी पाँच सुमंगलियों में उसको न मिलाकर मांचकब्बे को शामिल करने से उसको असन्तोष हुआ था।
शान्तला ने कहा, "जो हमें छोड़कर चली गयीं उनके बारे में हम चर्चा ही क्यों करें? दण्डनायिका चामब्बे का मुझे काफ़ी परिचय है। संसार में सब लोग एक ही तरह की आशा-आकांक्षार लेकर तो जन्मते नहीं। जन्म लेने के बाद सभी का एक जैसे बातावरण में तो पालन-पोषण होता नहीं । जन्म के समय सभी बच्चों का मन परिशुद्ध ही रहता है। फिर वे जिस बातावरण में पल-पुसकर बढ़ते हैं उसके अनुसार ये व्यक्तित्व ग्रहण करते हैं। आपके बच्चे यदि महादण्डनायक जी के वातावरण में पलते-बढ़ते तो उनका स्वभाव कैसा होता-कौन कह सकता है: अब तो आप ही के पास प्रेम से पल-पुस रहे हैं। आपकी सरलता उनमें भी रूपित हो रही है। उनके छुटपन से ही उन्हें ऐसा दिशा-निर्देश मिलता रहना चाहिए कि उनमें कभी भी असूबा की भावना न आए। एक बार असूया या भेदभाव पैदा हो जाय तो उसे जड़ से उखाड़ फेंकना कठिन हो जाता हैं। अब देखिए, यह बालक विष्ट्टिगा जन्मते ही माँ-बाप को खो बैठा। इसे मेरी अविवाहित अवस्था में ही, मेरी गोद में पलकर बड़ा होना पड़ा। वह मंरा पोप्यपुत्र ही तो है। कल ईश्वर की कृपा
284 :: पनामहादेवी शान्तला : भाग दो