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________________ मेरे मन में क ल तुमुः सामने : i ...! वि किती ने मुझे उठाकर एक बड़े गहरे खड्ड में पटरा दिया है। लगा कि मेरी सारी रामकहानी ख़त्म हो गयी। काश! ऐसा हो गया होता तो मैं इस भारी बोझ को लेकर भूत बनकर रह रही होती। जाने में या अनजाने में आग में हाथ डालने पर जलेगा ही। स्वार्थ और अज्ञानता के कारण उस वामाचारी की सलाह लेने गयी...बहुत बड़ा अपराध किया मैंन। मुझे जो भी दण्ड दें उसे निस्संकोच स्वीकार करूंगी। मेरी ग़लतियों का दण्ड मेरी बेटियों को न भुगतना पड़, उनका भविष्य अन्धकारमय न हो-यह मेरी विनती है। लेकिन उसके बारे में अनुरोध करने की स्थिति में मैं नहीं हूँ। बेटियों के भविष्य की चिन्ता से मैंने जो काम किया, वहीं उनके भविष्य के लिए काँटा बन गया। अब उसे ठीक करने के लिए मुझमें साहस नहीं रह गया है। अब तो तीनों बच्चियों को आपकी गोद में डाल रही हूँ। उनका उद्धार करना सन्निधान की इच्छा पर निर्भर हैं। "मेरी इच्छा थी कि उन्हें सन्निधान की बहुएँ बना ट्रें। उनकी भी यही आकांक्षा है। उन्हें पाणिग्रहण करनेवाला की आकांक्षा भी एक मुख्य बात है। फिर मन्निधान भी माँ हैं-सो माँ के दुःख-दर्द से अपरिचित नहीं है। अधिकार-दर्प से इतराना गलत है यह बात मैं असूया से परे, अच्छी मानवता के आदर्श पर चलनेवाले आप लोगों के व्यवहार तथा आप और हेग्गड़ती जी के इस परस्पर आत्मीयता के सम्बन्ध को देखकर समझ सकी। लेकिन अब काफ़ी देर हो चुकी। एक समय था, जब मैं समझती थी कि मेरी बेटी पटरानी बनेगी तो मैं दर्प के साथ इतराती फिरूँगी। जिनसे प्रेम हुआ उनसे पाणिग्रहण कर सहज एवं सुखद जीवनयापन करने का अपना एक महत्त्व होता है-यह मैं बहुत देर बात समझ सकी। पता नहीं कि इस बात इतना बोल सकने की ताकत मुझमें कहाँ से आ गयी : जैसे बुझते समय दीपक अधिक प्रकाश देता है शायद वैसे ही वह भी है। अपनी ग़लतियों के प्रायश्चित्त के रूप में अपनी बेटियों को सन्निधान की गोद में समर्पित कर रही हूँ। सन्निधान जैसा कुछ भी करें, मुझे स्वीकार है। यदि मेरी आशा-आकांक्षा सफल न हो तो अन्य किसी के हाथ सौंपने के बदले इन्हें मेरी तरफ़ से भगवान की सेवा के लिए धरोहर रखें । मैंने खुले दिल से जो कहना था, कह दिया। सन्निधान अगर कह दें कि क्षमा कर दिया है तो मैं शान्ति से अन्तिम साँस ले सकेंगी।" चामब्ने धीरे-धीरे धीमी आवाज़ में ही बोल रही थी, कभी-कभी उसकी आवाज कुछ तेज भी हो जाती थीं। बात कर चुकने के बाद उसे थकावट मालूम हुई। खाट पर ही हाथों के सहारे बैठी रहने की कोशिश की, परन्तु कमजोरी के कारण ऐसा न हो सका। Y.3 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग दो
SR No.090350
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages459
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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