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________________ यही मेरे लिए भाग्य की बात होगी। सन्निधान यहाँ तक पधारी इस उदारता के लिए मैं सर्वथा योग्य नहीं हूँ-यह मुझे मालूम है। जो मैं कहूँगी उस सबको आप सुन लें तभी मेरे लिए सन्तोष होगा। मैंने ग़लत काम करने की बात कभी सोची ही नहीं। मेरे स्वार्थ ने मुझसे कुछ ग़लत काम कराया है। उस समय यह मालूम होता कि यह ग़लत है तो शायद करती भी नहीं। अब यह साबित हो गया है कि यह सब मेरी ग़लती से हुआ, अन्यथा मेरे पतिदेव और मेरी ही बेटियाँ मुन्ने दोषी कह दूषित न करते।''-इतना कहकर उसने दम लिया और फिर पिछले दिन पति-पुत्रियों से जो बातचीत हुई थी उसका सारा किस्सा सुना डाला था। फिर कहने लगी, ''मैंने जिस पत्तल में खाया उसी में छेट किया। राजद्रोहियों के साथ मिलकर राजद्रोह का काम मैंने किया-यह दोष मुझ पर लगाया गया है। मैं अपनी बेटियों की सौगन्ध खाकर कहती हैं कि मैंने राजद्रोह का कोई काम नहीं किया। मैंने जो भी किया उसका एक ही लक्ष्य था। यह यह कि मैं अपनी बेटियों को सन्निधान की बहुएं बनाना चाह रही थी। वे जीवन-पर सखी रहें, एक यही मंग स्वार्थ था। स्त्री का सुख ब्याहे घर में ही निहित है। सो मेरो एक बही आकांक्षा थी और उसे ही सफल बनाने की मैं कोशिश करती रही।" एक क्षण रुककर चामब्बे ने आगे कहा, 'मुझे एक बार ऐसा लगा कि हेग्गड़ती की बेटी मेरी इच्छा के पूर्ण होने में काँटा बनी हुई है। इस कारण से असूया उत्पन्न हो गयी। यह ग़लतफ़हमी है इसका ज्ञान पुझे बहुत देर बाद हुआ। जब मैं उस वामाचारी के पास गयी तब भी मैंने किसी के बारे में कोई बात नहीं कही। उसने अपनी सारी बुद्धिमानी से मेरे विरोधियों के बारे में पूछा। कोई भी हो तुम्हें उससे क्या मतलब? हमें रक्षा चाहिए। मैं और मेरा परिवार सुखी हो, मेरी बेटियों सुख से जीएँ-इतना ही कहा। उसने हमारी रक्षा के लिए सर्वतोभद्र यन्त्र बनाकर दिया। मैंने और मेरी बेटियों ने उसे धारण किया। लेकिन यह सारी बात अपनी बेटियों से गुप्त रखी। उन्हें मालूम न हो ऐसा ही इन्तजाम किया था। मेरे घर का नौकर और यह वामाचारी दोनों शत्रुओं के गुप्तचर थे, यह बात कल ही मुझे मालूम पड़ी।" थोड़ा रुककर चामब्बे ने कहना जारी रखा, "तभी से मुझमें धीरज नहीं रहा। मेरे दिमाग में भारी हलचल शुरू हो गयी थी। जो समस्या मुझे कष्ट दे रही थी उसका मुझे जैसे हल मिल गया था। उस रात हमारे यहाँ उस वामाचारी ने जो अंजन-क्रिया की उसमें अपने विरोधियों को देखने की मझे लालसा उठी। परन्तु यहाँ देखा किसी और को। मैंने उसमें अपने प्यारे अन्नदाता प्रभु को देखा। मुझे क्या पता था कि उस वामाचारी ने अपनी शत्रुता के कारण ही हमारे अन्नदाता को दिखाया था। तब उस कल्पना ने ही मेरे दिल-दिमाग को दहला दिया था। पट्टमहादेवी शान्तल! : भाग दो :: 297
SR No.090350
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages459
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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