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का मौका ही नहीं मिला।
पण्डित चारुकीर्ति ने समझा धा कि बीमारी एक सप्ताह के अन्दर ठीक हो जाएगी, मगर ऐसा न होने के कारण कुछ भीचक्के-से रह गये। उन्होंने दवा बदली। नवी जड़ी-बूटियाँ मंगवाकर सिद्धकल्प विधि से दया तैयार करके दी। मानसिक आवंश के कारण जो बीमारी शुरू हुई वह बुखार के उतर जाने पर भी दिमाग़ी बीमारी के रूप में बदल गयी। यह इर भी लगने लगा कि यह कहीं उन्पाद का रूप धारण न कर ले।
कारण तो बहुत छोटा था! मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया कि मुझे अपन पतिदेव की सेवा से वंचित होना पड़ा: जब मुझसे कोई ग़लती हुई ही नहीं तो यह मनाही क्यों?-या सोचकर जितना सहन कर सकी किया, आखिर पद्मलदेवी
.:: न पर । यह जी: सानिया के प्रदर में गयी। एक पखवारे की रोमारी के कारण बल्लाल बहुत कृशकाय हो गये थे। रुग्ण चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ बढ़
आयी थी। नाई का पास न आने देने और उस्तरे का प्रयोग न करने का आदेश दिया था। उनकी उस हालत को देखकर वह घबरा गयी। महामातृश्री की उपस्थिति का भी खयाल न करके वह मनमाने ढंग से कहने लगी, 'अनहानी कुछ का जाय तो भुगतनेवाती तो हम ही हैं। खाली सहानुभूति दिखानेवालों का क्या हैं : पति की सेवा करने का हक मेरा है। उससे मुझे भला बाँचत कौन कर सकेगा, मैं देगी। में यहाँ से हटूंगी ही नहीं। मेरी कोई परवाह ही नहीं करतं, इसलिए ऐसा हुआ। अपने लड़के को गही नहीं मिलगी-यह जानकर वाप्पि ने शाप दिया हैं। यह उसी के शाप का फल है। इसे खुद न देख सकने की ही वजह से वह बहाना करके यादवपुर चली गयी है। मैं देख लूँगी वह इस राजमहल में कैसे फिर आएगी। सन्निधान की सरलता का उसने दुरुपयोग किया। परमधातु की है वह। उसके गर्भ में पोयसल सन्तान नहीं। सन्निधान को लील जान के लिए चुडैल पैदा है। उसे हमल टिका, सन्निधान को रणक्षेत्र में भागना पड़ा। पेरा सामांगल्य अच्छा रहा. वे खतरे से पार हो गये। अब आठवा महीना है, उसी का कुप्रभाव है। मुझे भालूम है कि वह सन्निधान की बुराई के लिए है।" पद्मलदेवी यों बड़बड़ाती रहीं।
एचलदेवी सब सुनती रही, आगे ने सुन नहीं सकीं। तुरन्न उन्होंने जोर से घण्टी बजा दी; दो-चार नौकर उपस्थित हो गये एकदम। घटी की आवाज़ ने पद्यला के मुँह को बन्द कर दिया।
बल्लाल ने 'हाय-हाय" कहा। अपने चारों ओर क्या हो रहा है, इसका उन्हें भान न रहा।
"क्या है अप्पाजी,'' कहती हुई एचलदेवी ने आँसू भरी आंखों से बेटे की ओर देखा। बिट्टिदेव कहीं बाहर धा। आवाज सुनकर वह भी अन्दर आ गया।
पट्टमहादेची शान्तला : शग दा :: 363