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"हो सकती हैं। कुछ लोग चाहते होंगे कि अमुक दाई ही ही। तुमने अपने काम में वैशिष्ट्य पाकर नाम पाया है। तुम पर भरोसा रखनेवाले अनेक लोग होंगे। बहतों का यह विश्वास भी हो सकता है कि तुमसे काम सुरक्षित ढंग से सुगम हो जाएगा। राजमहल के लोगों को ये बातें मालूम हैं। तुम्हें भी मालूम होगा नः शीघ्र प्रसव होनेवाली स्त्रियों की सूची तुम्हारे पास होगी ही।"
"चाहे कोई हो, मेरे विचार में राजमहल का काम सबसे प्रथम है।" ___ "राजमहल के विषय में इतना ख्याल रखना तो अच्छा है परन्तु जब राजमहल में आवश्यकता नहीं होगी, तब राजमहल का नाम लेकर दूसरों को जो सेवा मिल सकती है, उससे उन्हें चित करना बुद्धिमत्ता नहीं। हम देख लेंगी; तुम जा सकती हो।" शान्तलदेवी ने कहा।
दाई खड़ी ही रही।
'पण्डितजी अगर आपेक्ष करें और कहें कि तुमने खुद चूरन क्यों नहीं खिलाबा, तो हम स्वयं राजमहल से पण्डितजी के पास खबर भेज देंगी।"
“राजपरिवार को क्यों कष्ट दें, मैं ही जाकर पण्डितजी से कह लूंगी।'' यह दाई अन्तःपुर से निकल पड़ी। उसने यह सोचा ही नहीं कि कोई उसके चलन-वलन पर ध्यान भी दे रहे हैं। अन्तःपुर के बाहर के मुखमण्डप के स्तम्भ की आड़ में वह दामब्दे के साल फर कोनारी, कती रही और पार पण्डितजी के घर न जाकर सीधे अपने घर चली गबी-यह समाचार भी शान्तलदेवी को तुरन्त मिल गया।
दाई ने जो गोलियाँ दी थीं उन्हें सुरक्षित रखवा दिया गया। वास्तव में बोप्पदवी स्वस्थ ही थी। उसे पुड़िया या गोलियों की जरूरत नहीं थी। उसे केवल पौष्टिक आहार और दूध-फल वगैरह की जरूरत थी। राजमहल में इनकी कमी नहीं थी। राजमहल में बोपदेवी के लिए जो भोजन तैयार होकर आता उसे छूने तक न दिया जाता था। गालब्बे जो उनके लिए खानपान तैयार करती बहीं वह खाना-पीया करती।
चामलदेवी और पालदेबी कभी-कभी आकर देख जाया करती थीं।
अकेली गालब्बे से सारा काम संभालना सम्भव नहीं हो सकता था इसलिए शान्तलदेवी ने अपने पिता को यहाँ की सारी बातें समझायीं; यह भी बता दिया कि खुद ने क्या सब किया है। इस सारे पड्यन्त्र की जड़ क्या है और इस बात के पीछे कौन है. इन बातों का पता लगाने के लिए किन्हीं अन्य व्यक्तियों से सहायता लेना उचित होगा या नहीं आदि बातों के बारे में अपने पिताजी से विचार-विमर्श किया शान्तलदेवी ने। पिता ने इन कार्यों में सीमित रूप से मदद देने का आश्वासन दिया। तब शान्तलदेवी ने, जिन-जिन व्यक्तियों पर शंका थी,
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 82%