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पर सन्निधान ने सोचा है:"
''न. न, हमें यह बात नहीं कहनी थी। अब आगे भूलकर भी इस बात को मुँह से नहीं निकालूँगा। परन्तु शव तो यह बात उनके कान में पड़ ही गयी, इसलिए उन्हें आश्रय देना जरूरी हो गया है।"
"सो, सन्निधान उन्हें आश्रय देना नहीं चाहते थे?" "नहीं चाहते, यह बात नहीं; हमने अभी निर्णय नहीं किया है।" “सो सन्निधान को उनसे यों कहने की क्या वजह?"
"हमने यह अभी तो नहीं बताया कि क्या निर्णय किया। अब बताएँ कि महादेवी की क्या राय है?"
"किसी तरह की जबरदस्ती में पड़कर नहीं, बल्कि मन पें इस बात का एक बार निश्चय हो जाए कि इस काम के करने में राष्ट्रहित सधेगा और ऐसा करने पर किसी तरह की अड़चन चा रोक-रुकावट आएगी तो उसका सामना करेंगे, उनको आश्रय दे सकते हैं। ठीक है न?"
"उनके बारे में पट्टमहादेवी का स्पष्ट पत क्या है:" "इतना तो लगता है कि ये बात के पक्के हैं।" "कौन?" "दण्डनाथ और बम्मलदेवो। उनके बारे में सम्भिधान की क्या राय है?" "लगा कि दण्डनाथ जी खुले दिल के हैं।" "बम्मलदेवी?" "स्त्रियों के मन में स्त्री ही जाँक सकती है।" "तो स्त्री को पसन्द करते वक्त भी पुरुष को स्त्री की मदद जरूरी है?'' "किस प्रश्न का कौन-सा उत्तर!"
"ऐसा प्रश्न करने पर भी मन की बात खुली नहीं। स्त्री को स्त्री के देखने की दृष्टि अलग होती है। पुरुष की स्त्री को देखने की एक अलग दृष्टि होती है। ऐसे ही, स्त्री की पुरुष को देखने की भी एक अलग दृष्टि होती है।"
___ "अभी हम स्त्री की परख स्त्री को हो सकती है-यही दृष्टि व्यवहार्य मानते हैं। पट्टमहादेवी से परामर्श के बाद ही उनके यारे में हम अपनी राय बना सकेंगे कि ये किस तरह की हैं।"
'बम्मलदंवी वास्तव में दुःखी हैं। वे पं किसी तरह का धोखा नहीं देना चाहतीं। उपकार करने की ही अभिलाषा रखती हैं। आमूलाग्र बात को समझे बिना
और पूर्णरूप से विश्वस्त हुए बिना किसी भी काम में यों ही प्रवृत्त हो जाना उनका स्वभाव नहीं हैं। बहुत आशावादी हैं । इसलिए वे माँचदण्डनाथ पर भरोसा रखकर उनके प्रति पितातुल्य भक्ति रखती हैं। अश्वपरीक्षा में निष्णात होने के साथ-साथ
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 42: