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है - इसी से हमने वह बात कही थी।"
"ठीक हैं। परन्तु दूसरों के मन में यह विचार उठेगा कि सन्निधान को दोरसमुद्र का वास ठीक नहीं जँच रहा है। यदि यह धारणा बन जाए तो इसके अनपेक्षित परिणाम भी हो सकते हैं। प्रधानजी को और दण्डनायक को यदि ऐसा लगे कि हमारी उपस्थिति सन्निधान नहीं चाहते तो इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा। ऐसा मैं सोचता हूँ ।"
"तो मतलब यहीं न कि हमारा दोरसमुद्र जाना ही उचित है। यही तुम्हारा निश्चित है। हैनः
"इस निश्चय पर पहुँचने के लिए, मुझे अपनी अल्पमति को जो कारण सूझ पड़े, उनकी ही निवेदन किया है। इसके बाद सम्विधान की इच्छा 1”
"हम भाताजी से बातचीत करेंगे, बाद में निर्णय लेंगे। मगर एक बात निश्चित है कि हम अपने अधिकारियों से डरनेवाले नहीं, जिसे हम नहीं चाहेंगे उसे डरकर स्वीकार भी नहीं करेंगे।"
"राष्ट्रहित, राजनीतिक स्थिति को शुद्ध बनाये रखना प्रभु का कर्तव्य है। ऐसे मौकों पर खुद की इच्छाएँ और अनिच्छाएँ गौण हैं। वह राजनीतिक प्रज्ञा का एक लक्षण हैं। गुरुजी ने थे स्पष्ट समझाया था, शायद सन्निधान को स्मरण होगा ।"
"यदि कभी स्मरण न हो तो याद दिलाने के लिए जब हमारे छोटे अप्पाजी साथ हैं तब हमें भूल जाने का डर ही नहीं है। उठो, माँ से अभी विचार-विमर्श कर लें।" कहकर बल्लाल ने घण्टी बजायी ।
रेविमव्या ने प्रकोष्ठ का किवाड़ खोल दिया और परदा हटाकर उपस्थित हो
गया ।
बल्लाल ने कहा, "रेविमय्या, माताजी आराम कर रही हैं या बैठी हैं-जाकर देख आओ। हमें उनसे मिलना है।"
वह जाने को ही था कि इतने में गोंका वहां आया, और झुककर प्रणाम किया ।
बिट्टिदेव ने पूछा, "क्या है?" रेविमय्या वहीं खड़ा रहा ।
गींका ने कहा, "जरूरी काम पर सन्निवान के दर्शन करने के लिए डाकरस दण्डनाथ जी आये हैं: बरामदे में बैठे हैं
" उन्हें यहीं बुला लाओ।" बल्लाल ने गौका से कहा, और रेविमय्या से बोले, “तुम यहीं बाहर रहो, दण्डनाथ जी के चले जाने के बाद माताजी को देख आना ।" रेविमय्या बाहर चला गया।
कुछ ही क्षणों में डाकरस दण्डनाथ ने जाकर प्रणाम किया और महाराज के संकेत से आसन पर बैठ गये। डाकरस के साथ परदा हटाकर रेविमय्या अन्दर
162 : पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो