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" इसलिए तुम दिल खोलकर उस घटना के बारे में स्पष्ट बातचीत कर लोगे तो अच्छा रहेगा "
" देखेंगे। हो सकता है, तुम्हारी बातों से कोई मार्ग प्रशस्त हो । राजधानी लौटने के बाद सोचकर निश्चय करूँगा कि आगे क्या करना है ।"
“ठीक है, ऐसा ही करो। परन्तु इसमें महासाध्वी माता भी न जाने ऐसी कोई बात है तो उसे बहुत ही भयंकर होनी चाहिए। सोचना तक कठिन है। रेविमय्या जाओ, घोड़ों को ले आओ, चलें। कहीं हेग्गड़जी स्वयं ही खोजते हुए यहाँ न आ जाएँ।" बिहिदेव ने कहा ।
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वे सब मुकाम पर पहुँचे। वहाँ एक दिन और ठहरकर राजधानी की तरफ़ प्रस्थान किया।
विट्टिदेव और शान्तला एकान्त में मिल न सके तो भी जब उन दोनों ने परस्पर देखा था तभी मन-ही-मन आँखों में बांत कर डाली थी। इस मौन क्रिया में कितनी ताकत है यह दोनों को अच्छी तरह विदित हो गया था। ऐसा महसूस होने लगा था कि उनका अनुराग एकदम हजार गुना बढ़ गया है।
पारिवारिक या राजनीतिक किसी भी विषय पर किसी ने कोई बातचीत नहीं
की ।
सबसे आश्चर्य का विषय यह था कि रेविमय्या ने कभी किसी हालत में मुँह नहीं खोला। एक बार शान्तला ने उसे छेड़ा भी, "क्या रेविमय्या, तुम अम्माजी को भूल गये :
तुरन्त उसकी आँखें भर आयीं। बोलने का प्रयत्न किया परन्तु अधिक बोल न] सका। "मौन में बात करने से भी अधिक शक्ति है, अम्माजी... " इतना ही वह कह सका था। उसका कण्ठ रुँध रहा था ।
"अबकी बार इस पाठ का अभ्यास सबने अच्छी तरह किया है-ऐसा प्रतीत होता है। बड़े राजकुमार कल महाराज बननेवाले हैं इसलिए यह गाम्भीर्य उनके लिए तो शोभायमान है। लेकिन बाकी लोगों को इस तरह गुमसुम रहना चाहिए ?"
"अम्माजी, प्रभु से बिछुड़ने के बाद एक तरह का गम्भीर वातावरण ही फैला है। किसी में कोई उत्साह नहीं । यान्त्रिक ढंग से दिन गुजरते जा रहे हैं। वास्तव में सबको यह सारा असहज ही लग रहा हैं। इस असहज व्यवहार से कोई दूर रह नहीं सकता। राजधानी का जीवन ही ऐसा है। अब कुछ परिवर्तन सबमें लक्षित हो रहा है। अब जब तुम जल्दी ही राजधानी आओगी तो सब कुछ ही पालूम हो जाएगा। परन्तु एक बात याद रहे। हमारे बड़े राजकुमार सहित सब लोगों में आप लोगों के प्रति एक-सी ही सद्भावना है। वर्तमान मानसिक दुःखद स्थिति समय की गति के साथ-साथ बदल जाएगी।" यों अपना आशावादी मनोभाव व्यक्त कर
:: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो