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शान्तला अकेती मिली तो उससे पूछा । शान्तला ने समझाते हुए कहा कि आमतौर पर हर गाँव की आबादी को दृष्टि में रखकर गाँव से बाहर कुछ दूर पर ये स्थान धनाये जाते हैं। वे पत्थरों के बने गोलाकार निवास स्थान होते हैं और उनके चारों जोर झाड़-झंखाई और जगली बल बारह पैदा कर उन पर फैला दिया जाता है ताकि किसी को इस बात का शवहा न हो कि यहाँ निवास स्थान भी है। उसने समझाया और बताया कि दोरसमुद्र की रक्षा के लिए मज़बूत क़िला-रवन्दक के होते हुए भी यहाँ की असंख्य जनता की रक्षा के लिए ऐसे स्थान बनवाये जा रहे हैं। महाराज के पट्टाभिषेक महोत्सव के वार्षिकोत्सव के बाद सैनिक शिक्षण के साथ इन शरणस्थानों के निर्माण कार्य को भी तेजी से शुरू किया गया। युद्ध में हार-जीत तो भगवान की इच्छा पर निर्भर है। इसलिए आम जनता की रक्षा बहुत ही मुख्य काम है। इसी बात को ध्यान में रखकर पोसल राज्च के गाँव-गाँव में ऐसे स्थान निर्माण करने की व्यवस्था की गयी है। ऐसे प्रत्येक स्थान में कितने सोग सुरक्षित रह सकते हैं, इसका भी निश्चय रहता है। इन स्थानों में निवास करने के लिए जानेवालों को साल-भर के लिए जरूरत पर ग्मद भी जमा करके रखना पड़ता हैं। आसपास कुएँ खुदवाये रहते हैं जिससे रात के समय में पानी का संग्रह होता है। अँधेरे के वक्त जंगल में जा-आ सकते हैं। इस तरह शान्तला ने पद्मला को विस्तृत जानकारी दी। ___ "साल-भर के लिए रसद जमाकर रखने का यह माने हुआ कि युद्ध साल-भर चाला रहेगा। यही न?" पद्मला ने पूछा।
__ "इतनी तम्बी अवधि तक चलने की सम्भावना कम है, फिर भी अगर युद्ध घिसटता जाए तो लोगों को खाने-पीने के अभाव के कारण मरना न पड़े।"
"तो मतलब यह कि राज्य-संचालन बहुत पेचीदा है। मुझे तो युद्ध की नाम मात्र जानकारी है, इसका परिणाम आम लोगों पर होगा-यह मैं नहीं जानती थी। अब तो वह घर के दरवाजे तक भी पहुंच गया है।"
"तो डर किसका?" "शायद पहले डरती थी। अब मुझे किसका इर." "इस 'अ' का क्या माने?"
"स्पष्ट हैं निराश जीवन बितात हाए जाने से मरना बेहतर है 1 इसलिए मरण्य से हर नहीं।'
"ठिः, खि, बात को कहाँ पहुँचा दिया। मैं आपसे एक बात कहूं।" "कहो।" "मेरी बात पर आप विश्वास करेंगी तो कहूँगी।" "अविश्वास करने का एक समय था। अब पूर्ण विश्वास करती हूँ।"
पमहादेवी शान्नला : भाग दो :: I8