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________________ हमें उन्हें खोना पड़ा। इस आघात के कारण जिस सहारे को खोया उसे हम फिर . से तो पा नहीं सकते। उस सहारे को कोई हमें पुनः दे नहीं सकता। अब तो मुझे अपने बच्चों की फ़िक्र है। मुझे अब यह देखना है कि बच्चे कुशल रहें, इसके लिए आप सभी की सहायता चाहिए। जिन लोगों को हम चाहते हैं. वे आपको भी पसन्द आने चाहिए। तभी हम एक परिवार के होंगे और उस लक्ष्य को साथ-साथ निबाह सकेंगे। जिन्हें हम चाहते हैं उन्हें अगर आप न चाहें तो सब व्यर्थ है। राजघराने और अधिकारी वर्ग व उनके परिवार के लोगों के बीच स्नेह बढ़ाने और द्वेष दूर करने के कायों में आप लोगों की मदद बहुत जरूरी है। क्या हमें आपकी यह मदद मिल सकती है?" "यह पूछना चाहिए : सरकार को आज्ञा हमें शिरोधार्य है, मान्य हैं।'' "आज्ञा! अधिकार मुझे नहीं चाहिए, दण्डनायिका जी। प्रेमपूर्ण हृदय से इसे अपना कर्तव्य मानकर सन्तोप करना चाहिए। ऐसा करने से परिशुद्ध मन का विकास होता है।" "बन्नों की कसम, मैं अमानी जी श्री इना के अनुम्मा बनेंगी।" ''बच्चों की कसम मत खाइए, दण्डनायिका जी। बच्चों का हित चाहनेवाली कोई भी माँ बच्चों की सम नहीं खाती। हमारा अविवेक उनके आहत होने का कारण बन सकता है। आपके बच्चों के भाग्य में क्या लिखा है, उनके योगायोग क्या होंगे यह तो कोई नहीं बता सकता है लेकिन उनकी राह में स्वयं कण्टक न बनें। यही हमारे ध्यान में रखने की बात है। कई बार, होनवाली किसी बाई के हम जिम्मेदार बन जाते हैं। हम आत्मा रो न चाहेंगे फिर भी काम ऐसा हो जाता है कि मानो हम ही उसका कारण हैं। जब आप आरती का जल छिड़कने गयीं, तब क्या प्रभु की बुराई चाहकर ही ड्योढ़ी से टकरायीं? उनकी बुराई चाहकर आपने मन्दिर में रक्त की बूंद गिगयी? पहली घटना ती आकस्मिक हुई और दूसरी शायद अनजान में हो गयी है। फिर भी आगे जो भयंकर घटना घटी तब उसकी जिम्मेदार आप हैं, यह कह तो गलत न होगा? वह उचित होगा? दूसरों पर शिकायत लादने से पहले उस पर विचार करना होता है। आपके रक्तसिक्त पैर को हमारे नौकर ने देखा और बड़ी घबराहट से आकर हमसे कहा था। अगर हमने उसी वक्त उस क्रिया पर ध्यान दिया होता तो आज आपसे बातचीत करने तक का मौका भी न रहता। हम और आप अलग-अलग ही रहे होते। आपको मेरी एक ही सलाह है। स्नेह, प्रेम तथा सहृदयता के विचार बढ़ाने की ओर आपका मन प्रवृत्त हो। पश्चात्ताप से बढ़कर कोई और प्रायश्चित्त नहीं। जब तक हममें अपनी ग़लती की ग़लती मानने का साहस नहीं होता तब तक मन निर्मल नहीं होता। यह जी बात मैं आपसे कह रही हूँ, इसे प्रभु ने अपनी अन्तिम घड़ी में पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 127
SR No.090350
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages459
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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