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________________ "पुरुष जो सब करते हैं वह स्त्री को भी करना चाहिए ऐसा तो नहीं, अम्माजी । यहीं रहकर उनके श्रेय के लिए, दीघांयु के लिए भगवान से प्रार्थना करती हुई पोय्सल वंशांकुरों को प्रवृद्ध कर पोषण करते रहना सहधर्मिणी का प्रधान कार्य है, अम्माजी । मातृत्व का भी यही कर्तव्य हैं न? हजारों सैनिक, दण्डनायक, सवार तथा दक्ष अंगरक्षक जब रणांगण में उपस्थित हैं तब वहाँ एक स्त्री का स्थान गौण हैं, अम्माजी । विवाह के बाद शुरू-शुरू में तुम्हारी ही तरह मुझे भी लगता था। मैं भी प्रभु के साथ रणभूमि में जाना चाहती थी। प्रभु का मुझ पर अपार प्रेम था। उन्होंने यह नहीं कहा कि मेरी इच्छा ग़लत है; फिर भी उन्होंने अच्छी तरह समझाकर कहा था कि रणक्षेत्र में जाने से भी बड़ा कर्तव्य बच्चों की देखभाल करना है । इसीलिए मैं कभी रणक्षेत्र में नहीं गयी। मैं यह जानती हूँ कि हम दोनों में फर्क है। मैं तलवार पकड़ना नहीं जानती। घोड़े पर सवारी करना नहीं जानती । तीर-कमान सँभालना भी नहीं जानती। फिर भी एक भावनामात्र रही कि मैं रहूँ तभी अपने स्वामी की रक्षा साध्य है। यह सहज न होने पर भी असम्भव नहीं । तुम तो सब तरह से दक्ष हो । फिर भी युद्धभूमि के खतरों में तुम्हारा फँसना मुझे ठीक नहीं जँचता । बड़े महाराज ने ऐसे ही एक मौके पर मुझे अपनी ऐसी इच्छा से विमुख कर दिया था सो तो तुम जानती ही हो। तुम्हारे न जाने पर दो-तीन बातों में सुविधा ही रहेगी। एक छोटे अप्पाजी का ध्यान युद्ध और विजय पर केन्द्रित रहा आएगा । सन्तान को इधर तुम्हारा स्नेह-दुलार भी तो चाहिए। तुम्हारा मार्गदर्शन भी जरूरी है. यह भी एक बात है। युद्धभूमि की अनिश्चित स्थिति से भी तुम बच सकती हो। यहाँ रहकर तुम अपने कर्तव्यों को बेरोकटोक निभा भी सकती हो, साथ ही राज्य के भीतर और बाहर के कार्यों में तुम्हारे नेतृत्व से बल मिलेगा। पहले एक बार तुमने छोटे अप्पाजी के साथ स्पर्धा की थी। उस समय मैंने तुमसे एक प्रार्थना की थी जिसे तुमने मान लिया था। मेरा विश्वास है कि अब भी मान लोगी।" यों भावुकता में तारतम्य रहित बातें करती रहीं महामातृश्री । उन्हें यह अच्छी तरह मालूम था कि तर्क से शान्तलदेवी को नहीं जीता जा सकता । उनका मन्तव्य केवल इतना ही था कि वह युद्ध में न जाएँ। יו शान्तलदेवी ने कुछ नहीं कहा। मौन हो सोचती रहीं। उनकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में एचलदेवी भी मौन बैठी रहीं। घण्टी की आवाज सुनकर दोनों उठ खड़ी हुईं। रेमिय्या ने किचाइ खोला और अन्दर आकर प्रणाम कर ख़बर दी कि सन्निधान पधार रहे हैं। दोनों बाहर आयीं और बिट्टिदेव को अन्दर ले गयीं। तीनों बैठ गये । रेविमय्या जाने ही वाला था कि इतने में शान्तला ने कहा, “तुम यहीं रहो।" "जो आज्ञा " कहकर भीतर से किवाड़ बन्द करके वह वहीं खड़ा रहा । 138 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो
SR No.090350
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages459
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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