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________________ समझा।" "प्रभु की मर्जी। देवेच्छा के सामने हमारे प्रयत्न से कुछ नहीं होगा-मुझे इसका ज्ञान है। सामान्य लोगों की तरह केवल ऊहापोह करके उसे व्यक्त करने में फ़ायदा भी नहीं। इसलिए मेरी एक प्रार्थना है। निराधार यों ही ऊहापोह करके भविष्य की बात मुझसे न किया करें प्रभु ।" "ऐसा ही सही। देवि, तुम्हारी बातों से मुझमें नयी चेतना आ गयी है। आइन्दा ऐसी बात नहीं करूँगा।" "अच्छा, अब आराम करें। आप कुछ थके-थके लग रहे हैं।" चादर ओढ़ाते हाए युवरानी ने कहा, "घोड़ी देर में औषध और पेय लेकर मैं स्वयं आ जाऊँगी। तब तक और कोई अन्दर न आए।" कहकर चली गयीं। प्रधानजी के वहीं वामशक्ति को बुलवा लिया गया। उसे किसी तरह का भय न दिखाकर बड़ी सावधानी से तुला लाने की व्यवस्था की गयी थी। वास्तव में उसे गत अमावस्या की रात की घटना से बहुत तृप्ति मिली थी। खुद मरियाने दाइनायक जब सन्तुष्ट हुए थे तो उसके आशा-सौध की ऊँचाई आसमान तक बढ़ गयी थी। उसने समझ लिया था कि दण्डनायक ही ने प्रधानजी से मेरे बारे में कहा है और इसीलिए बुलवाया है। प्रधानजी के यहाँ का नौकर सिंगणा बुलाने गया था। उसी के मुँह से वह ज्ञान लेना चाहता था कि प्रधानजी ने क्यों बुलाया है। लेकिन कुछ बात नहीं बनी। प्रधानजी ने आदेश दिया था-"आवश्यक काम है तुरन्त आने को कहा है।" बस इतना ही ज्ञात हो सका। प्रधानजी की इस आज्ञा ने उसमें एक नयी स्फूर्ति पैदा कर दी थी। नौकर ने उसे अन्दर ले जाकर मन्त्रणा-कक्ष में बिठाया तो उसने समझा कि उसे बहुत गौरव दिया जा रहा है। वहीं बैठे-बैठे वह प्रधानजी की प्रतीक्षा करता रहा। प्रधानजी के आने की सूचना मिलते ही वामशक्ति पण्डित उठ खड़ा हुआ। प्रधानजी ने अन्दर आकर दरवाजे पर कुण्डी चढ़ा दी और पण्डित को बैठने को कहा। वह बैठ गया। "पण्डित, मालूम है तुमको क्यों बुलाया है?'' प्रधानजी ने कहा। "आदेश हो। सेवा के लिए तैयार हूँ।" उसने झुककर प्रणाम किया। "तमको देश-निकाले का दण्ड देने की युवराज की आज्ञा है।" पण्डित घबरा गया। पसीने से तर हो गया। आँखों के डोल अजीब ढंग से डोलने लगे। 52 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो
SR No.090350
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages459
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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