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ध्वनि में कुछ दर्द है।"
उस वार्तालाप को वैसे ही चलने दें तो इनमें विरसता आ सकती है-यही सोचकर बल्लाल ने ज़ोर से धक्का देकर किवाड़ खोल दिया। बोले, ''करी, करो, अब नहीं छेड़खानी करोगी तो कब करोगी; चिढ़ाओ, चिढ़ाओ अपनी बहिन को । तुम स्त्रियाँ छेड़खानी करना कब छोड़ती हो? कहाँ है पिटाई" उन्होंने एक साथ जैसे खातों की बौछार ही कर दी। वहीं पास में एक चौकी पर लड्डुओं से भरा थाल रखा धा। एक बार दो-दो के हिसाब से लड्डू उठाकर अपनी पत्नियों के मुँह में टूसे और स्वयं ने भी एक लड्डू लेकर अपने मुँह में डालते हुए कहा, "देखो, एक दाना भी नीचे न गिरे; जो ऐसा खाएगा उसके लिए विशेष पुरस्कार मिलेगा। इस पुरस्कार के पात्र हम भी होंगे।"
महाराज सामान्य लोगों की तरह चों अल्हड़पन का व्यवहार करेंगे-इसकी उन्हें कलाना भी नहीं घी। कहीं नौकर-नातर देख न लें-इसलिए पद्मलदेवी जाकर किंधाड़ बन्द कर आयीं। उन्हें इर घा कि नौकर यह सब देखकर इधर-उधर कहते फिरें तो लोक होगा?
बल्लाल ने एक आदमकद आईना दिखाते हुए कहा, "तुम लोग अपने-अपने मख को इस आईने में तो देखो।" वह खुद पास जाकर आईने के सामने खड़े हो गये । लड्डू भरे उन दोनों गाल फूल गये थे और बन्दर से लगने लगे थे। उनका मुख और उस लङ्क के निगलने के इस प्रयाप्त को देख सब एक साथ ठहाका मारकर हँसने लगीं। उन्होंने सबको इशारे से पास बुलाया। उनके पास आने पर उनके गले में बाँह डालकर उनके साथ वे खुद भी हंसते हार बोले, ''हम सबको इसी तरह हँसते रहना चाहिए।" कुछ देर बाद उन्होंने कहा, 'आज शाम को हम सब दर्शन हेतु मन्दिर जाएँगे; अभी ख़बर किये दे रहे हैं। तुम सब सज-धजकर तैयार हो लो तब तक।' इतना कहकर वे चल पड़े।
उस समय असूया शायद काफ़ी कुष्ठ बढ़ जाती लेकिन इस प्रसंग के कारण उस दिन के लिए थमी रही। शाम को सब मिलकर पन्दिर गये। वहाँ से लौटकर सबने भोजन किया और पद्मलदेवी तथा चामलदेवी एक ओर तथा बोप्पदेवी और महाराज एक और चले गये।
अपने शयन-कक्ष में जाने के बाद बल्लाल बोप्पदेवी से-''एक अत्यन्त आवश्यक राजकार्य आ पड़ा है, मैं मन्त्रणागृह जा रहा हूँ, आज मन्त्रिपरिषद की बैठक है। आने में विलम्ब हो जाय तो परेशान न होना," कहकर मन्त्रणा-गृह की ओर चल पड़े।
बोपदेवी अकेली थी। अकेले में उसकी दीदियों ने जो बात कही थी उसे मन ही मन दोहराने लगी : “मैं गर्भिणी बनी, यह उनकी इंध्या का कारण हुआ। उन्हें
290 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग दो