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फ़ायदे के लिए गति बदलकर चलते रहनेवाले हैं। पहले भाइयों के साथ मिले-जुले रहे। फिर भाई-भाई में रगड़ पैदा हो गयी। प्रभुजी को सन्तुष्ट करके सिंहासन पाया। प्रभुजी जब तक शक्तिशाली रहे और स्वस्थ रहे तब तक उनसे इस चालुक्य चक्रवर्ती ने दोस्ती बनाये रखी। मलेषों के साथ युद्ध में जख्मी होकर जब प्रभु दुर्बल हुए तब पोसलों की शक्ति कुण्ठित हुई समझकर उन्होंने अपना बल प्रदर्शित करना शुरू कर दिया। अब शायद इस जग्गदेव को नचा रहे हैं। उनकी यह नीति चालुक्यों की अवनति की बुनियाद होगी। अब हम पोय्सलों को सम्पूर्ण स्वतन्त्र बनने के लिए अपना संगठित बल और अपनी एकता को दिखाने के लिए कमर कसकर तैयार होना पड़ेगा। जब इस जग्गदेव को निर्मूल करेंगे तभी चालुक्य चक्रवर्ती की आँखें खुलेंगी। प्रभुजी अपने से भी दसगुना अधिक बल अपने बच्चों को दे गये हैं और इनकी एकता अभेद्य है - इस बात की जानकारी इन चालुक्यों को मिलेगी । इसलिए दण्डनाथ के कहे अनुसार शीघ्र ही यात्रा की तैयारी करना उचित है।" बिट्टिदेव की बातें आयेश से भरी थीं।
"माँ को यह सब बताकर निर्णय लेंगे।" बल्लाल ने कहा और घण्टी बजायी । रेविमस्या ने किवाड़ खोलकर परदा हटाया। डाकरस चले गये ।
महामातृश्री एचलदेवी के साथ बल्लाल और बिट्टिदेव ने विचार-विमर्श किया इस नयी परिस्थिति के बारे में। प्रधानजी की सलाह से महादण्डनायक द्वारा प्रेषित सन्देश के अनुसार सलाह को मानकर महाराज के साथ सारे राजपरिवार को वेलापुरी से दोरसमुद्र जाने का विचार हुआ। यात्रा की तैयारी करने के लिए डाकरस को सूचित किया गया। सीमित रक्षादल के साथ महाराज, महामातृश्री और भाइयों के साथ पहले सोसेऊरु पहुँचकर अपनी इष्टदेवी वासन्तिका देवी की पूजा आदि समाप्त करके दोरसमुद्र की यात्रा करने का निर्णय हुआ। वेलापुरी के रक्षण कार्य के लिए तात्कालिक रूप से चिण्णम दण्डनाथ रहें और दोरसमुद्र पहुँचने के कुछ समय बाद विचार-विमर्श करके सिंगिमय्या को वेलापुरी में नियुक्त कर चिण्णम दण्डनाथ को दोरसमुद्र बुला लेने का भी निर्णय लिया गया। इसी तरह सारी व्यवस्था हुई और डाकरस की निगरानी में महाराज, महामातृश्री आदि सब सोसेऊरु हो आये। बाद में दोरसमुद्र पहुँचे।
युद्ध सन्निहित था, इससे किसी तरह की धूमधाम के बिना राजमहल की परम्पराओं के अनुसार स्वागत के सारे कार्यक्रमों को राजमहल के अहाते में ही आयोजित कर राजपरिवार की आवभगत की गयी ।
दोरसमुद्र पहुँचने के एक सप्ताह के अन्दर सिगिमय्या ने वेलापुरी जाकर चिण्णम दण्डनाथ से अधिकार अपने हाथ में ले लिया और चिण्णम दण्डनाथ को विदा किया। चिष्णम दण्डनाथ अपनी गर्भवती पत्नी चन्द्रलादेवी के साथ वहाँ से
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो : 165