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टुकड़ियों में विभाजित किया जाए। अश्वदल की प्रधान टुकड़ी महाराज और पट्टमहादेवी के नेतृत्व में बीच में से आगे बढ़े, और शेष दोनों, अश्व की तेज गति के कारण, एक पुनीसमय्या के नेतृत्व में और दूसरी टुकड़ी सिंगिमय्या के नेतृत्व में दायें-बायें आगे बढ़ें; शत्रु-सेना की गतिविधि को समझकर, उसका ध्यान दोनों
ओर बँट जाय-इस तरह दो टुकड़ियाँ हो जाएँ ताकि शत्रु-चल कुण्ठित हो । तब महाराज के नेतृत्व में जो अश्वदल हैं, वह आगे बढ़ जाय और शत्रुओं की विभाजित सेना पर दोनों ओर से हमला कर दे। नागिदेव और उदयादित्य केन्द्र शिविर में रहें, आवश्यकता अनुसार शस्त्रास्त्र आदि भेजते रहने की व्यवस्था में लगे रहें। मंचिदण्डनाथ, अनन्तपाल और सवारनायक मायण महाराज के साथ रहें।''
निर्णय के अनुसार व्यूह के दायें-बायें पदाति सैनिक दूसरे दिन प्रातःकाल ही चल पड़े। पैदल सेना की संख्या अधिक थी, उसकी गति भी धीमी होने के कारण महाराज शिविर केन्द्र में ही अपने मुकाम पर रहे।
नधर राजेन्द्र प्रिथुवी कोंगाल्व की सेना को अच्छी तरह मालूम था कि पोसल सेना बहुत बड़ी है। इसलिए उन्होंने शीत-बुद्ध करना शुरू कर दिया था। अपने गुप्तचरों से पोय्सलों की सेना की गतिविधि को जानने के बाद, यह अपनी सेना के दो भाग कर पूर्व और पश्चिम की ओर भेजकर, खुद पर्वतश्रेणी के प्रदेशों में पहाड़ियों की आड़ में रहकर शत्रु-सेना को जड़ से उखाड़ फेंकने की बात में रहा। पोय्सलों को उसकी यह नयी चाल मालूम नहीं थी। इसलिए उनकी सेना की दोनों टुकड़ियों दायें-बायें नियोजित रीति से आगे बढ़ती गयीं। शत्रु सेना न मिलने पर वे कुछ निराश हुए। बड़ी सतर्कता से दायें-बायें चल रही ये दोनों टुकड़ियों आगे जाकर आपस में टकरा गयीं। शत्रु ने वहीं काम किया जो ये स्वयं करना चाहते थे। दोनों ओर से शत्रु-सेना यद आयी। सिंगिमय्या और पुनीसमय्या किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। फिर भी धीरज के साथ युद्ध किया। शत्र के लिए बड़ी अच्छी जगह मिल गयी थी। इससे दोनों तरफ़ युद्ध करने की जरूरत आ पड़ने से पोय्सल सेना के लिए बड़ी कठिन परिस्थिति उत्पन्न हो गयी थी। उन्होंने यह आशा की थी कि महाराज की अश्वसेना आ जाए तो कुछ कर सकते मगर वे निराश हो गये। शत्रु ऊपर से तीरों की वर्षा कर रहे थे। अब तक कई पोसल सैनिक इन तीरों के शिकार हो चुके थे। पोसल के तीरन्दाज़ों ने भी तीर चलाये मगर इसमें उन्हें अधि कि सफलता नहीं मिलो, क्योंकि वे पहाड़ियों पर बड़े-बड़े पत्थरों की आड़ लिये हुए थे।
पनीसमय्या और सिंगिमच्या दोनों इस विश्वास से उत्साह के साथ युद्ध में उतर पड़े थे कि जीत हमारी होगी, मगर अब विजय पाने के बारे में उन्हें शंका होने लगी। इतने में छलांग भरती हुई युड़सेना की एक छोटी टुकड़ी आ गयी ।
448 :: पङमहादेवी शान्तता : भाग दो