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"वह उनकी उदारता हे। वे आपके कृपापात्र हैं, राजघराने के गुरु हैं । वास्तव में जो नहीं भी हैं उसकी कल्पना कर बड़े ही आकर्षक ढंग से चित्रित कर सकनेवाले प्रतिभावान कवि हैं ये । उनका ऐसा कहना उनके हृदय की विशालता का सूचक है। उनकी इस कृपा के लिए हम उनके कृतज्ञ हैं।" हंग्गड़े ने कहा। "वे यों ही किसी की प्रशंसा करनेवाले नहीं। वास्तव में उनकी ऐसी धारणा है, अन्यथा वे कहते हो नहीं आपकी बेटी की तो वे बहुत ही प्रशंसा कर रहे थे।" दण्डनायिका बोली ।
"यों प्रशंसित होना भी भाग्य की बात है, दण्डनायिका जी। यह सब उसे शिक्षा देनेवाले गुरुओं की कृपा है। उनकी शिक्षण कुशलता का ही परिचायक है।" "फिर भी बलिपुर जैसे छोटे गाँव में भी अच्छे गुरु मिल गये। भाग्य की ही बात हैं!"
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" दण्डनायिका जी, एक बार बलिपुर पधारें और देखें तब आपको मालूम होगा कि बलिपुर ऐसा छोटा गाँव नहीं। वह कदम्ब राजाओं की दूसरी राजधानी रहा हैं, इसलिए वहाँ की एक भव्य परम्परा हैं ।"
"कविजी ने भी यही बात कही थी। साथ ही आपके इस आमन्त्रण का भी जिक्र किया था।"
"वह हमारे लिए बड़े सौभाग्य का दिन होगा ।"
"हम भी यही समझते हैं। वास्तव में शस्त्र विद्या पारंगत आपकी इकलौती बेटी के हस्तकौशल को देखने की भी आकांक्षा है," कहते हुए चामब्बे ने अपने पति की ओर देखा ।
"क्या कहा, इनकी पुत्री शस्त्र - विद्या पारंगत ! दण्डनायिका जी ने एक नयी बात सुनावी न! यह सच है क्या हेग्गड़ेजी?" दण्डनायक ने पूछा। उन्हें सचमुच आश्चर्य हुआ था और कुतूहल भी ।
"कविजी झूठ क्यों बोलेंगे। कहा कि एक दिन छोटे अप्पाजी और इनकी बेटी में स्पधां चली तो छोटे अप्पाजी क़रीब क़रीब हार ही गये थे। युवरानी जी को समाचार मिला तो दोनों को ताकीद कर दी कि फिर कभी ऐसी स्पर्धा न हो।" दण्डनायिका के कहने के इस ढंग में कुछ खास संकेत था ।
"सो तो ठीक है हेगड़ेजी, आपने अपनी बेटी को शस्त्र विद्या सिखाने की बात क्यों सोची? मला नारियों के लिए यह शस्त्र-विद्या क्यों ?" दण्डनायक ने सहज ही पूछा ।
"वह छुटपन में ही सीख लेना चाहती थी। नारी के लिए इस विद्या की जरूरत नहीं समझकर ही मैं उसे स्थगित किये रहा। परन्तु एक दिन उसकी इच्छा को पूरा करना ही पड़ा।" हेगड़े बोले ।
18 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो