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बात महासन्निधान, प्रधान, महादण्डनायक, हेगड़े मारसिंगय्या, सिगिमय्या और रेविभव्या को ही मालूम है ।"
"उन्होंने ऐसी आज्ञा दी थी, इसीलिए उस क्षेत्र को हाथ से जाने दिया?" बिट्टिदेव ने पूछा।
"हाँ, अप्पाजी ।"
"क्या हमारे पोयसल वंश के लिए यह अपमान की बात नहीं माँ ? हमें इस धोखेबाजी के सामने झुकना पड़ेगा:" जरा उत्तेजित होकर ब्रिट्टिदेव ने पूछा ।
"उस समय उत्तेजित होकर इस प्रश्न को हल करने की स्थिति नहीं थी, छोटे अप्पाजी। उस समय शासन की हालत बहुत नाजुक थी। प्रभु ने सभी बातों पर विचार करके तुरन्त प्रति प्रकरण राजनीतिक दृष्टि से बुद्धि का काम नहीं समझा।” युवरानी ने बताया ।
"हम स्नेहवश उनके सामन्त बने थे। उन्हें यह बतलाते तो अच्छा होता कि हम स्वतन्त्र होकर भी रह सकने की शक्ति रखते हैं।" बिट्टिदेव ने कहा ।
" इसके लिए आप लोग तैयार हो जाओ। कौन मना करता है धोखा और अन्याय के सामने पोसलों को सिर झुकाने की आदत नहीं। परन्तु तब तुम्हारा कोई चारा भी नहीं था। इसके अलावा वह हमारे द्वारा विजित प्रदेश नहीं था । उन्होंने उस प्रदेश को हमें अपने स्नेह के प्रतीक के रूप में सौंपा था। सो भी भाई-भाई के आपसी मनमुटाव के कारण।"
"प्रभुजी ने न जाने क्या देखकर विक्रमादित्य का पक्ष लिया था " बिट्टिदेव ने कहा ।
अब हमें उस बात की आलोचना नहीं करनी चाहिए। जहाँ तक मैं जानती हूँ प्रभु कभी ग़लत विषयों में मदद नहीं करते थे। अगर उन्होंने विक्रमादित्य जी की मदद की तो वह निश्चित ही न्यायसंगत रही होगी।” एरेयंग प्रभु के व्यवहार का समर्थन करती हुई युवरानी ने कहा ।
"फिर भी भाई-भाई के बीच...." बिट्टिदेव कुछ कहना चाहता था कि इसी बीच युवरानी ने कहा, "भाई-भाई में इसका ज्ञान होना चाहिए था न ? इसीलिए तो मैं तुम लोगों से सदा कहती रहती हूँ कि पद, अधिकार, कीर्ति आदि सभी चीजें वात्सल्य के सामने गौण हैं। इसी को हम रामायण में भी पाते हैं। भाइयों के बीच विद्वेष भावना पैदा नहीं होनी चाहिए। तुम लोगों को स्वार्थवश भ्रातृवात्सल्य को नष्ट नहीं करना है।"
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“इस बारे में आप चिन्तित न हों माँ हम तीनों आप और प्रभुजी के अन्तःकरण के ही तो फल हैं। हममें कभी यह भावना नहीं आएगी। आप चिन्ता न करें। परन्तु चालुक्यों ने हमारे प्रभु को जो स्नेह-द्रोह किया है, उसका प्रतिकार
130 :: पट्टमहादेत्री शान्तला भाग दो