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कार्य की जिम्मेदारी सौंपकर आने के ही उद्देश्य से राजा गये हुए हैं।"
“इच्छा प्रकट की, कहना तो यों ही पीठ ठोंकने जैसी बात है। कहीं कुछ उसने वो गुनगुनाकर कह दिया होगा। खैर, जो भी हो यह अच्छा हुआ। वैसे यों गुनगुन करना मनुष्य की दुर्बलता का एक लक्षण ही है। ऐसे गुनगुन करनेवाले कोई कार्य नहीं साध सकते।"
"अब तो राजा के साथ देवर भैया भी आ ही रहे हैं न? तब उन्हें प्रोत्साहित करना अच्छा होगा न?"
"मुझे जो कहना होगा सो तो कहूँगी ही। इसमें में कर्तव्य से युक्त नहीं हूँगी । परन्तु सबको बता सकने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। तुम उम्र में छोटी जरूर हो, पर तुम ऐसा कुछ कर सकती हो यही मेरे लिए सान्त्वना की बात है | प्रभु नं मुझे जो जिम्मेदारी सौंपी है उसे मैं अब तुम्हें सौंप सकती हूँ, क्योंकि अब तुम राजघराने के संचालन में और उसे नियन्त्रण में कर रखने में सब तरह से समर्थ हो और इस सामथ्यं की केन्द्र बिन्दु हो ।"
" आपके आशीर्वाद की छाया में आपके दशाये मार्ग पर संयम के साथ आगे बढ़ेगी। आपका मार्गदर्शन हमें दीर्घकाल तक मिलता रहे। भगवान हमारी इस आशा को सफल बनाएं, यही हमारी प्रार्थना है। मेरे माँ-बाप ने मुझे जैमा पाल-पोसकर बड़ा बनाया, उसके अनुरूप मुझमें स्वातन्त्र्य और साहस विकसित हुआ हैं। आपका विशाल मनोभाव और संयमी जीवन मेरे लिए आदर्श बने हैं। इन कारणों से स्वेच्छा रोग से मैं ग्रस्त नहीं हुई। सुसंस्कृत मानवता से पूर्ण व्यक्तित्व को मुझमें रूपित करने का लक्ष्य मेरे गुरुवर्यो ने मेरे सामने उपस्थित कर रखा है। आपके मार्गदर्शन में मुझे इन आदर्श तक पहुँचना है - यही मेरी आकांक्षा है। मैं आखिरी दम तक आपकी आज्ञा का पालन करती रहूँगी। आपकी प्रशंसा की बातें मुझमें स्वप्रतिष्ठा और अहंकार की भावना उत्पन्न न करें, आपके विशाल मनोधर्म की सद्भावनाएँ मेरे आचरण में रूपित हों, ऐसा आशीर्वाद दीजिए।"
यों बातें हो रही थीं कि इतने में चहला ने आकर कहा, "सारा सामान लेकर आ गयी हूँ । आपके प्रकोष्ठ में रख आयी हूँ ।"
"वह देखिए चट्टला आ ही गयाँ चट्टले ! महामातृश्री की आकांक्षा है कि युद्ध सम्बन्धी सभी बातों को आमूल सुनें। तुम तो वहीं रहीं। मैंने कहा कि तुम सभी यातों को जानती हो । सब-कुछ सुनाओ और तुमने क्या-क्या किया, किस तरह किया सब कुछ बताओ।" कहकर उसे महामातृश्री के पास छोड़कर शान्तलदेवी बिट्टिगा को साथ लेकर अपने प्रकोष्ठ की ओर चली गयीं ।
चहला ने विस्तार के साथ सब कह सुनाया। उसने अपने बारे में इतना ही
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो : 355