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"ठीक है, मैं प्रधानजी के पास पत्र भेज दूंगा। किस मुहूर्त में यहाँ से रवाना होना है और किस मुहूर्त में वहाँ पहुँचना है यह बात कर बहाँ खबर भेजने का आदेश दूंगा।" कहकर विनयादित्य उठ खड़े हुए। युवरानी और राजकुमार उनके पीछे द्वार तक आये। महाराज ने अपने विश्राम-कक्ष में जाकर दोरसमुद्र के लिए पत्र भेज दिया।
राजघराने के ज्योतिषियों की सूचना लेकर स्वयं प्रधान गंगराज ही बेलापुरी जा पहुँचे। मुहूर्त के अनुसार राजपरिवार ने दोरसमुद्र के लिए प्रस्थान किया । चिगम दण्डनाथ को बेलापुरी में ही रहना पड़ा। अपनी राजपरम्परा के अनुसार सबने विना किसी सम्भ्रम के राजमहल में प्रवेश किया।
प्रभु ने जहाँ देहत्याग किया था वहाँ यथाविधि पूजन-हवन सम्पन्न किया गया। और वह कोष्ठ खोल दिया गया।
दोरसमुद्र पहुँचे क़रीब-करीब एक पखवारा बीत गया। मगर हेग्गड़े मारसिंगय्या का कहीं कोई पता नहीं था! यह युवरानी को कुछ बुरा लगा। सीधे बड़े बेटे से पूछने में हिचकिचाहट थी। किसी को मिलने-जुलने के लिए मौका ही उन्होंने नहीं दिया, वह उन्हें स्वीकार्य नहीं था। दण्डनायिका ने भी दर्शन करने की कोशिश की, पर सफल नहीं हुई। प्रभु ने हेग्गड़े को स्वयं इसलिए बुलवाया था कि केवल राजमहल की आन्तरिक व्यवस्था के कामों में पदद करेंगे, राजमहल के कार्यकर्ता की हैसियत से। अब आश्चर्य तो वह हैं कि उनका कहीं पता ही नहीं! वास्तव में युवरानी की यह भावना थी कि अब वह आाँगी तब वे उपस्थित रहेंगे। बीच में एक बार प्रधान गंगराज जब आये थे तो उनसे पूछना भी चाहा या। पता ही नहीं क्यों धुप रह गयी। शायद हेगड़े के प्रति विशेष आत्मीयता का प्रकाशन संचित न समझकर ऐसा किया होगा। महादण्डनायक ने उन्हें दोगसमुद्र में नहीं रहने दिया होगा, यह भी उनके मन में आया। सच्चाई का पता लगाने के लिए उन्होंने रेविमय्या को आदेश दिया।
रेरिमय्या ने आकर बताया, ''महाराज और गजपरिवार के लोगों के वेलापुरी जाने के बाद, हेग्गड़ेजी को दौरसमुद्र में विशेष कार्य नहीं रह गया था। उन्हें बलिपुर वापस भेजने की भी सुविधा नहीं दिखी, इसलिा बेलूगोल के गस्ते पर वहाँ से डेढ़-दो कोस इधर ही के एक गाँव के हेग्गड़े बनाकर भेज दिये गये हैं। उन्हें वहाँ गये तीन महीने से ज़्यादा हो गये हैं।"
"और सिंगिमय्या?" एचलदेवी ने पूछा। "बलिपुर से आते ही उन्हें. सुना है, यादवपुरी भेज दिया गया था।"
[18 :: पट्टमहादेवी सान्तला : भाग दो