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सारी घटना का निर्वहण किया गया है। इसके बारे में अब उसे कुछ भी विवरण दो उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। इसलिए उसे राजप्रतिनिधि बनाकर यादवपुरी भेज दें। अभी दण्डनाविका और उनके बच्चों को वहाँ भेजना तो है हो।" बल्लाल ने कहा।
"उदय को यहाँ भेजकर उसमें आत्मविश्वास पैदा करने का यह विचार अन्छा ही हैं। उसके साथ जाकर सथा डाकरस दण्डनाथ जी को कुछ बातें बताकर, वहाँ भी सारी स्थिति उदय की समझाकर लौट आऊँगा 1 ठीक होगा न?" बिहिदेव ने निवेदन किया। __ ''वही करो,'' बल्लारत ने सहमति प्रकट की।
इस कार्यक्रम के अनुसार बिट्टिदेव, उदयादित्य और दण्डनाधिका चियरका तथा उनके बच्चे मरियाने और भरत आदि सभो दलदुरी के :
विट्टिदेव के लौट आने तक पिता के यहाँ रहन को अनुमति लेकर शान्तलदंवी बिट्टिगा, गालब्बे और चट्टला के साथ पिता के घर चली गयी।
महाराज और राजा बिट्टिदेव की प्राणरक्षा करनेवाली और चेंगाल्चों को पराजित करने में चट्टला ने जो अतुलनीय साहस और चातुर्य दिखाया था उसके कारण उसके प्रति विशेष गौरव शान्तलदेवी में उत्पन्न हो गया था। फिर भी यह सब करने के लिए एक स्त्री को अपना शील दौंव पर रखना पड़ा. इससे उसके मन में एक पीड़ा रही आयीं । एक स्त्री का शील भ्रष्ट होने देकर किसी की जान बचा लेने का आखिर मूल्य ही क्या है? यो शान्तलदेवी ने वह प्रसंग उठाया तो चट्टला ने कहा, "रानीजी के विचार बहुत अच्छे हैं। मैं स्त्री हूँ; मुझे स्त्री के विन के प्रति आदर हैं। शत्रुओं की जालसाज़ी का पता लगाये बिना, विजय पाना आसान नहीं। युद्ध में हार जाएँ तो सेकड़ों हजारों शीलवती नारियों का शीलहरण शत्रु सैनिक कर डालेंगे। ऐसी निस्सहाय हजारों वहिनों के गौरव की और शीन की रक्षा करने के लिए मुझ जैसी भ्रष्टशीलाओं द्वारा इस माध्यम से शत्रओं की जालसाजी का पता लग जाए यह एक अच्छा काम है। काँटा काँटे से ही निकलता है। इस विषय पं देह का कोई मूल्य नहीं रह जाता। शनीजी, देह नष्ट होने पर भी यह स्थायी राष्ट्रीपयोगी कार्य है। इसमें संकोच करने का कोई कारण नहीं है। सिर झुकाने की भी कोई जरूरत नहीं हैं। भगवान का नाम लेकर देवासी पन्थ का निर्माण कर अति कामुक लोगों से शीलवतियों को बचाने में सहायक होनेवाले इस सपाज को मुझ जैसी रणरंगदासियों की एक सेना को ही राष्ट्र के लिए तैयार करना उचित है। उस आचण के कार्य को किसी और ढंग से पता लगाना हो ही नहीं सकता था। रानीजी! उसके कार्यों पर शाबाशी देकर, उसके कार्यों में सहायता देते हुए उसमें विश्वास पैदा करके, उसे अपने जाल में फंसाये विना काम बनता ही नहीं।
पदमाहादेवी शान्नला : भाग दो :: ५.17