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अधिक कड़ी सजा दी जाएगी, इस बात की घोषणा भी की जाय।"
"सूली पर चढ़ाने से पहले मैं चाहती हूँ और विनती करती हूँ कि आचण वाचभ बायक नामक यह व्यक्ति मुझे असली रूप में देखने दें। उसे यों ही नहीं परना चाहिए।' चट्टलदेवी ने कहा।
महागज ने बात मान ली। इसके बाद उस दिन की सभा विसर्जित हुई।
मरियाने दण्डनायक ने बेटियों को अपने पास बैठाकर बहुत समझाया। कहा, "तुम लोगों में कोई भी सही, 'अगर छोटी-सी भी ग़लती करे, वह तुम्हारी माँ और हमारे घगने पर धध्या होगा। तुम लोग जिस स्थान पर हो वहाँ एक-दूसरे से मिल-जुलकर दुनिया के सामने एक बहुत ऊंचा आदर्श स्थापित कर सकती हो। यदि एक माँ की बेटियाँ ही सौतों की तरह आपस में झगड़ा करें तो और दूसरे वैसा करेंगे तो क्या दोष है, यों तुम प्रमाण बनकर कभी मत खड़ी होओ। चट्टला के त्याग से, शान्तला के संयम से राजपान का गौरव आज बन गया। नहीं तो पता नहीं क्या होता? आगे ले ऐसा नहीं होने देना चाहिए। चुगलखोरों की बातों में पत आना। प्रत्यक्ष देखने पर भी उसे परख कर भी देख-समझ लेना चाहिए। ऐसी हालत में कही या सनी-सुनायी बार्ता पर निर्णय करती जाओगी तो पता नहीं क्या-क्या अनर्थ होगा- इस बात को अच्छी तरह समझ लें। राजपरिवार एक है, इस एकता को नोड़ना नहीं हैं। तुम लोगों का व्यवहार इसे बनाये रखने योग्य रहे। चाललोरों का मुंह तो अपने आप वन्द हो जाएगा।"
सबने पिता की बातों पर सहमति प्रकट की।
चार-छह दिन राजधानी में रहकर मरियाने फिर सिन्दगेरे चले गये। डाकरस युद्ध क्षेत्र में सीधे यादवपुरी चले गये थे, इसलिए राजधानी में जो घटनाएँ घर्टी उनकी कोई जानकारी उन्हें नहीं थी। वह बिट्टिदेव आदि सभी की प्रतीक्षा में यादवपुरी में ही रहे।
विट्टिदेव ने यादवपुरी जाने की बात महाराज से कही।
"तुम्हें जाना ही चाहिए क्या छोटे अप्पाजी वहाँ डाकरस जी तो हैं ही। अवकी युद्ध में भी न ले जाने के कारण उदय को कुछ असमाधान हुआ हैं। मैं बेकार हूं। मुझे किसी भी काम पर नियोजित नहीं करते। यहाँ राजमहल में इतना सर हुआ नः मुझे इन बातों की खबर तक नहीं'-ऐसा कहता था। उसकी उम्न अभी डोटी है। कुछ बातों में फ़िलहाल उसे दूर ही रखना उचित होगा, इस कारण शान्तलदेवो ने इससे कुछ कहा न होगा। भाषण दण्डनाथ जी को हमारे यहाँ आने से कष्ट ही दिन पहले यह बात मालूम हुई है। बहुत संयम और चातुर्य से इस
545 :: पमहादेवी शान्तला : भाग दो